भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय सात भगवदज्ञान
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ 14 ॥
दैवी– दिव्य;हि– निश्चय ही;एषा– यह;गुण-मयी– तीनों गुणों से युक्त;मम– मेरी;माया– शक्ति;दुरत्यया– पार कर पाना कठिन, दुस्तर;माम्– मुझे;एव– निश्चय ही;ये– जो;प्रपद्यन्ते– शरण ग्रहण करते हैं;मायाम् एताम्– इस माया के;तरन्ति– पार कर जाते हैं;ते– वे।
भावार्थ : प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं,