hindi bhashi sangh (136)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते 14

दैवी– दिव्य;हि– निश्चय ही;एषा– यह;गुण-मयी– तीनों गुणों से युक्त;मम– मेरी;माया– शक्ति;दुरत्यया– पार कर पाना कठिन, दुस्तर;माम्– मुझे;एव– निश्चय ही;ये– जो;प्रपद्यन्ते– शरण ग्रहण करते हैं;मायाम् एताम्– इस माया के;तरन्ति– पार कर जाते हैं;ते– वे।
भावार्थ : प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं,

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव 7

मत्तः– मुझसे परे;पर-तरम्– श्रेष्ठ;– नहीं;अन्यत् किञ्चित्– अन्य कुछ भी;अस्ति– है;धनञ्जय– हे धन के विजेता;मयि– मुझमें;सर्वम्– सब कुछ;इदम्– यह जो हम देखते हैं;प्रोतम्– गुँथा हुआ;सूत्रे– धागों में;मणि-गणाः– मोतियों के दाने;इव– सदृश।
भावार्थ : हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रि

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः 3

 

मनुष्याणाम्– मनुष्यों में से;सहस्त्रेषु– हजारों;कश्चित्– कोई एक;यतति– प्रयत्न करता है;सिद्धये– सिद्धि के लिए;यतताम्– इस प्रकार प्रयत्न करने वाले;अपि– निस्सन्देह;सिद्धानाम्– सिद्ध लोगों में से;कश्चित्– कोई एक;माम्– मुझको;वेत्ति– जानता है;तत्त्वतः– वास्तव में।
भावार्थ : कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सि

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय छह ध्यानयोग

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः 47


योगिनाम्– योगियों में से;अपि– भी;सर्वेषाम्– समस्त प्रकार के;मत्-गतेन– मेरे परायण, सदैव मेरे विषय में सोचते हुए;अन्तः-आत्मना– अपने भीतर;श्रद्धावान्– पूर्ण श्रद्धा सहित;भजते– दिव्य प्रेमाभक्ति करता है;यः– जो;माम्– मेरी (परमेश्वर की);सः– वह;मे– मेरे द्वारा;युक्त-तमः– परम योगी;मतः– माना जाता है।

भावार्थ : और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्व

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पाँच कर्मयोग -- कृष्णभावनाभावित कर्म

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति 29

भोक्तारम्– भोगने वाला, भोक्ता;यज्ञ– यज्ञ;तपसाम्– तपस्या का;सर्वलोक– सम्पूर्ण लोकों तथा उनके देवताओं का;महा-ईश्वरम्– परमेश्वर;सुहृदम्– उपकारी;सर्व– समस्त;भूतानाम्– जीवों का;ज्ञात्वा– इस प्रकार जानकर;माम्– मुझ (कृष्ण) को;शान्तिम्– भौतिक यातना से मुक्ति;ऋच्छति– प्राप्त करता है।

भावार्थ : मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का पर भोक्त

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पाँच कर्मयोग -- कृष्णभावनाभावित कर्म

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः 22

ये– जो;हि– निश्चय हि;संस्पर्श-जा– भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न;भोगाः– भोग;दुःख– दुःख;योनयः– स्त्रोत, कारण;एव– निश्चय हि;ते– वे;आदि– प्रारम्भ;अन्तवन्त– अन्तकाले;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;– कभी नहीं;तेषु– उनमें;रमते– आनन्द लेता है;बुधः– बुद्धिमान् मनुष्य।

भावार्थ : बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौति

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय तीन कर्मयोग

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते 21

यत् यत् –जो-जो;आचरति– करता है;श्रेष्ठः– आदरणीय नेता;तत्– वही;तत्– तथा केवल वही;एव– निश्चय ही;इतरः– सामान्य;जनः– व्यक्ति;सः– वह;यत्– जो कुछ;प्रमाणम्– उदाहरण, आदर्श;कुरुते– करता है;लोकः– सारा संसार;तत्– उसके;अनुवर्तते– पदचिन्हों का अनुसरण करता है।
भावार्थ : महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प
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कृपया मेरा विनम्र प्रणाम स्वीकार करें !

(Please accept my humble obeisances)

श्रील प्रभुपाद की जय हो !

(All Glories to Sril Prabhupada)

हे प्रभु, हे वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं।

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अध्याय सोलह – भगवान परशुराम द्वारा विश्व के क्षत्रियों का विनाश (9.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंशी, जब भगवान परशुराम को उनके पिता ने यह आदेश दिया तो उन्होंने तुरन्त ही यह कहते हुए उसे स्वीकार किया, “ऐसा ही होगा।” वे एक वर्ष तक तीर्थस्थलों की यात्रा करते रहे। तत्पश्चात वे अपने पिता के आश्रम में लौट आये।

2 एक बार जब जमदग्नि की पत्नी रेणुका गंगा नदी के तट पर पानी भरने गई तो उन्होंने गन्धर्वों के राजा को कमल-फूल की माला से अलंकृत तथा अप्सराओं के साथ गंगा में विहार

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अध्याय चौबीस – भगवान का मत्स्यावतार (8.24)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: भगवान हरि नित्य ही अपने दिव्य पद पर स्थित हैं; फिर भी वे इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं और विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करते हैं। उनका पहला अवतार एक बड़ी मछली के रूप में हुआ। हे श्रील शुकदेव गोस्वामी! मैं आपसे उस मत्स्यावतार की लीलाएँ सुनने का इच्छुक हूँ।

2-3 किस कारण से भगवान ने कर्म-नियम के अन्तर्गत विविध रूप धारण करनेवाले सामान्य जीव की भाँति गर्हित मछली का रूप स्वीकार किया? मछली का रूप निश्चित रूप से गर्हित एवं घोर पीड़

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अध्याय बाईस – बलि महाराज द्वारा आत्मसमर्पण (8.22)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! यद्यपि ऊपर से ऐसा लग रहा था कि भगवान ने बलि महाराज के साथ दुर्व्यवहार किया है, किन्तु बलि महाराज अपने संकल्प पर अडिग थे। यह सोचते हुए कि मैंने अपना वचन पूरा नहीं किया है, वे इस प्रकार बोले।

2 बलि महाराज ने कहा: हे परमेश्वर, हे सभी देवताओं के परम पूज्य! यदि आप सोचते हैं कि मेरा वचन झूठा हो गया है, तो मैं उसे सत्य बनाने के लिए अवश्य ही भूल सुधार दूँगा। मैं अपने वचन को झूठा नहीं होने दे सकता। अतएव आप कृपा करक

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अध्याय इक्कीस – भगवान द्वारा बलि महाराज को बन्दी बनाया जाना (8.21)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब कमलपुष्प से उत्पन्न ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान वामनदेव के अँगूठे के नाखूनों के चमकीले तेज से उनके धाम ब्रह्मलोक का तेज कम हो गया है, तो वे भगवान के पास गये। ब्रह्माजी के साथ मरीचि इत्यादि ऋषि तथा सनन्दन जैसे योगीजन थे, किन्तु हे राजन! उस तेज के समक्ष ब्रह्मा तथा उनके पार्षद भी नगण्य प्रतीत हो रहे थे।

2-3 जो महापुरुष भगवान के चरणकमलों की पूजा के लिए आए उनमें वे भी थे जिन्होंने आत्मसंयम तथा वि

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अध्याय उन्नीस – बलि महाराज से वामनदेव द्वारा दान की याचना (8.19)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब भगवान वामनदेव ने बलि महाराज को इस प्रकार मनभावन ढंग से बोलते हुए सुना तो वे परम प्रसन्न हुए क्योंकि बलि महाराज धार्मिक सिद्धान्तों के अनुरूप बोले थे। इस तरह वे बलि की प्रशंसा करने लगे।

2 भगवान ने कहा: हे राजन! तुम सचमुच महान हो क्योंकि तुम्हें वर्तमान सलाह देने वाले ब्राह्मण भृगुवंशी हैं, और तुम्हारे भावी जीवन के शिक्षक तुम्हारे बाबा (पितामह) प्रह्लाद महराज हैं, जो शान्त एवं सम्माननीय (वयोवृद्ध

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अध्याय अठारह – वामन अवतार भगवान वामनदेव (8.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब ब्रह्माजी इस प्रकार भगवान के कार्यों एवं पराक्रम का यशोगान कर चुके तो भगवान जिनकी एक सामान्य जीव की भाँति कभी मृत्यु नहीं होती, अदिति के गर्भ से प्रकट हुए। उनके चार हाथ शंख, चक्र, गदा तथा पद्म से सुशोभित थे। वे पीताम्बर धारण किये हुए थे और उनकी आँखें खिले हुए कमल की पंखुड़ियों जैसी प्रतीत हो रही थी।

2 भगवान का शरीर साँवले रंग का था और समस्त उन्मादों से मुक्त था। उनका कमलमुख मकराकृति जैसे कान के कुण्डलों से सुशोभित ह

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अध्याय सत्रह – भगवान को अदिति का पुत्र बनना स्वीकार (8.17)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! इस प्रकार अपने पति कश्यपमुनि द्वारा उपदेश दिये जाने पर अदिति ने बिना आलस्य के उनके आदेशों का दृढ़ता से पालन किया और पयोव्रत अनुष्ठान सम्पन्न किया।

2-3 अदिति ने पूर्ण अविचल ध्यान से भगवान का चिन्तन किया और इस तरह उन्होंने शक्तिशाली घोड़ों जैसे अपने मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह अपने वश में कर लिया। उन्होंने अपने मन को भगवान वासुदेव पर एकाग्र कर दिया और इस तरह पयोव्रत नामक अनुष्ठान पूरा किया।

4 हे राजन

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अध्याय सोलह – पयोव्रत पूजा विधि का पालन करना (8.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब अदिति के पुत्र देवतागण स्वर्गलोक से अदृश्य हो गये और असुरों ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया तो अदिति इस प्रकार विलाप करने लगी मानो उसका कोई रक्षक न हो।

2 महान शक्तिशाली कश्यपमुनि कई दिनों बाद जब ध्यान की समाधि से उठे और घर लौटे तो देखा कि अदिति के आश्रम में न तो हर्ष है, न उल्लास।

3 हे कुरुश्रेष्ठ! भलीभाँति सम्मान तथा स्वागत किये जाने के बाद कश्यपमुनि ने आसन ग्रहण किया और अत्यन्त उदास दिख रही अपनी पत्नी अद

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अध्याय पन्द्रह – बलि महाराज द्वारा स्वर्गलोक पर विजय (8.15)

1-2 महाराज परीक्षित ने पूछा: भगवान प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं। तो फिर उन्होंने निर्धन व्यक्ति की भाँति बलि महाराज से तीन पग भूमि क्यों माँगी और जब उन्हें मुँह माँगा दान मिल गया तो फिर उन्होंने बलि महाराज को बन्दी क्यों बनाया? मैं इन विरोधाभासों के रहस्य को जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब बलि का सारा ऐश्वर्य छिन गया और वे युद्ध में मारे गए तो भृगुमुनि के एक वंशज शुक्राचार्य ने उन्हें फिर से

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अध्याय तेरह – भावी मनुओं का वर्णन (8.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वर्तमान मनु का नाम श्राद्धदेव है और वे सूर्यलोक के प्रधान देवता विवस्वान के पुत्र हैं। श्राद्धदेव सातवें मनु हैं। अब मैं उनके पुत्रों का वर्णन करता हूँ कृपा करके सुने।

2-3 हे राजा परीक्षित! मनु के दस पुत्रों में (प्रथम छह) इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यंत, तथा नाभाग हैं। सातवाँ पुत्र दिष्ट नाम से जाना जाता है। फिर तरुष, तहत, पृषध्र के नाम आते हैं और दसवाँ पुत्र वसुमान कहलाता है।

4 हे राजन! इस मन्वन्तर में आदित्य, वस

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अध्याय बारह – मोहिनी-मूर्ति अवतार पर शिवजी का मोहित होना (8.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्त्री के रूप में भगवान हरि ने दानवों को मोह लिया और देवताओं को अमृत पिलाया।

2 इन लीलाओं को सुनकर बैल पर सवारी करनेवाले शिवजी उस स्थान पर गये जहाँ भगवान मधुसूदन रहते हैं। शिवजी अपनी पत्नी उमा को साथ लेकर तथा अपने साथी प्रेतों से घिरकर वहाँ भगवान के स्त्री-रूप को देखने गये।

3 भगवान ने शिवजी तथा उमा का अत्यन्त सम्मान के साथ स्वागत किया और ठीक प्रकार से बैठ जाने पर शिवजी ने भगवान की विधिवत पूजा की तथा मुस

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अध्याय ग्यारह – इन्द्र द्वारा असुरों का संहार (8.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात भगवान श्रीहरि की परम कृपा से इन्द्र, वायु इत्यादि सारे देवता जीवित हो गये। इस प्रकार जीवित होकर सारे देवता उन्हीं असुरों को बुरी तरह पीटने लगे जिन्होंने पहले उन्हें परास्त किया था।

2 जब सर्वाधिक शक्तिशाली इन्द्र क्रुद्ध हो गए और उन्होंने महाराज बलि को मारने के लिए अपने हाथ में वज्र ले लिया तो सारे असुर "हाय हाय" चिल्लाकर शोक करने लगे।

3 गम्भीर, सहिष्णु तथा लड़ने के साज-सामान से भलीभाँति सज्जित बलि महारा

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