hindi bhashi sangh (140)

 

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श्रील प्रभुपाद की जय हो !

(All Glories to Sril Prabhupada)

हे प्रभु, हे वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और व्यक्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे अन्य कोई कारण है ही नहीं।

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अध्याय सोलह – भगवान परशुराम द्वारा विश्व के क्षत्रियों का विनाश (9.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंशी, जब भगवान परशुराम को उनके पिता ने यह आदेश दिया तो उन्होंने तुरन्त ही यह कहते हुए उसे स्वीकार किया, “ऐसा ही होगा।” वे एक वर्ष तक तीर्थस्थलों की यात्रा करते रहे। तत्पश्चात वे अपने पिता के आश्रम में लौट आये।

2 एक बार जब जमदग्नि की पत्नी रेणुका गंगा नदी के तट पर पानी भरने गई तो उन्होंने गन्धर्वों के राजा को कमल-फूल की माला से अलंकृत तथा अप्सराओं के साथ गंगा में विहार

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अध्याय चौबीस – भगवान का मत्स्यावतार (8.24)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: भगवान हरि नित्य ही अपने दिव्य पद पर स्थित हैं; फिर भी वे इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं और विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करते हैं। उनका पहला अवतार एक बड़ी मछली के रूप में हुआ। हे श्रील शुकदेव गोस्वामी! मैं आपसे उस मत्स्यावतार की लीलाएँ सुनने का इच्छुक हूँ।

2-3 किस कारण से भगवान ने कर्म-नियम के अन्तर्गत विविध रूप धारण करनेवाले सामान्य जीव की भाँति गर्हित मछली का रूप स्वीकार किया? मछली का रूप निश्चित रूप से गर्हित एवं घोर पीड़

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अध्याय बाईस – बलि महाराज द्वारा आत्मसमर्पण (8.22)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! यद्यपि ऊपर से ऐसा लग रहा था कि भगवान ने बलि महाराज के साथ दुर्व्यवहार किया है, किन्तु बलि महाराज अपने संकल्प पर अडिग थे। यह सोचते हुए कि मैंने अपना वचन पूरा नहीं किया है, वे इस प्रकार बोले।

2 बलि महाराज ने कहा: हे परमेश्वर, हे सभी देवताओं के परम पूज्य! यदि आप सोचते हैं कि मेरा वचन झूठा हो गया है, तो मैं उसे सत्य बनाने के लिए अवश्य ही भूल सुधार दूँगा। मैं अपने वचन को झूठा नहीं होने दे सकता। अतएव आप कृपा करक

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अध्याय इक्कीस – भगवान द्वारा बलि महाराज को बन्दी बनाया जाना (8.21)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब कमलपुष्प से उत्पन्न ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान वामनदेव के अँगूठे के नाखूनों के चमकीले तेज से उनके धाम ब्रह्मलोक का तेज कम हो गया है, तो वे भगवान के पास गये। ब्रह्माजी के साथ मरीचि इत्यादि ऋषि तथा सनन्दन जैसे योगीजन थे, किन्तु हे राजन! उस तेज के समक्ष ब्रह्मा तथा उनके पार्षद भी नगण्य प्रतीत हो रहे थे।

2-3 जो महापुरुष भगवान के चरणकमलों की पूजा के लिए आए उनमें वे भी थे जिन्होंने आत्मसंयम तथा वि

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अध्याय उन्नीस – बलि महाराज से वामनदेव द्वारा दान की याचना (8.19)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब भगवान वामनदेव ने बलि महाराज को इस प्रकार मनभावन ढंग से बोलते हुए सुना तो वे परम प्रसन्न हुए क्योंकि बलि महाराज धार्मिक सिद्धान्तों के अनुरूप बोले थे। इस तरह वे बलि की प्रशंसा करने लगे।

2 भगवान ने कहा: हे राजन! तुम सचमुच महान हो क्योंकि तुम्हें वर्तमान सलाह देने वाले ब्राह्मण भृगुवंशी हैं, और तुम्हारे भावी जीवन के शिक्षक तुम्हारे बाबा (पितामह) प्रह्लाद महराज हैं, जो शान्त एवं सम्माननीय (वयोवृद्ध

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अध्याय अठारह – वामन अवतार भगवान वामनदेव (8.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब ब्रह्माजी इस प्रकार भगवान के कार्यों एवं पराक्रम का यशोगान कर चुके तो भगवान जिनकी एक सामान्य जीव की भाँति कभी मृत्यु नहीं होती, अदिति के गर्भ से प्रकट हुए। उनके चार हाथ शंख, चक्र, गदा तथा पद्म से सुशोभित थे। वे पीताम्बर धारण किये हुए थे और उनकी आँखें खिले हुए कमल की पंखुड़ियों जैसी प्रतीत हो रही थी।

2 भगवान का शरीर साँवले रंग का था और समस्त उन्मादों से मुक्त था। उनका कमलमुख मकराकृति जैसे कान के कुण्डलों से सुशोभित ह

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अध्याय सत्रह – भगवान को अदिति का पुत्र बनना स्वीकार (8.17)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! इस प्रकार अपने पति कश्यपमुनि द्वारा उपदेश दिये जाने पर अदिति ने बिना आलस्य के उनके आदेशों का दृढ़ता से पालन किया और पयोव्रत अनुष्ठान सम्पन्न किया।

2-3 अदिति ने पूर्ण अविचल ध्यान से भगवान का चिन्तन किया और इस तरह उन्होंने शक्तिशाली घोड़ों जैसे अपने मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह अपने वश में कर लिया। उन्होंने अपने मन को भगवान वासुदेव पर एकाग्र कर दिया और इस तरह पयोव्रत नामक अनुष्ठान पूरा किया।

4 हे राजन

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अध्याय सोलह – पयोव्रत पूजा विधि का पालन करना (8.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब अदिति के पुत्र देवतागण स्वर्गलोक से अदृश्य हो गये और असुरों ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया तो अदिति इस प्रकार विलाप करने लगी मानो उसका कोई रक्षक न हो।

2 महान शक्तिशाली कश्यपमुनि कई दिनों बाद जब ध्यान की समाधि से उठे और घर लौटे तो देखा कि अदिति के आश्रम में न तो हर्ष है, न उल्लास।

3 हे कुरुश्रेष्ठ! भलीभाँति सम्मान तथा स्वागत किये जाने के बाद कश्यपमुनि ने आसन ग्रहण किया और अत्यन्त उदास दिख रही अपनी पत्नी अद

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अध्याय पन्द्रह – बलि महाराज द्वारा स्वर्गलोक पर विजय (8.15)

1-2 महाराज परीक्षित ने पूछा: भगवान प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं। तो फिर उन्होंने निर्धन व्यक्ति की भाँति बलि महाराज से तीन पग भूमि क्यों माँगी और जब उन्हें मुँह माँगा दान मिल गया तो फिर उन्होंने बलि महाराज को बन्दी क्यों बनाया? मैं इन विरोधाभासों के रहस्य को जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब बलि का सारा ऐश्वर्य छिन गया और वे युद्ध में मारे गए तो भृगुमुनि के एक वंशज शुक्राचार्य ने उन्हें फिर से

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अध्याय तेरह – भावी मनुओं का वर्णन (8.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वर्तमान मनु का नाम श्राद्धदेव है और वे सूर्यलोक के प्रधान देवता विवस्वान के पुत्र हैं। श्राद्धदेव सातवें मनु हैं। अब मैं उनके पुत्रों का वर्णन करता हूँ कृपा करके सुने।

2-3 हे राजा परीक्षित! मनु के दस पुत्रों में (प्रथम छह) इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यंत, तथा नाभाग हैं। सातवाँ पुत्र दिष्ट नाम से जाना जाता है। फिर तरुष, तहत, पृषध्र के नाम आते हैं और दसवाँ पुत्र वसुमान कहलाता है।

4 हे राजन! इस मन्वन्तर में आदित्य, वस

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अध्याय बारह – मोहिनी-मूर्ति अवतार पर शिवजी का मोहित होना (8.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्त्री के रूप में भगवान हरि ने दानवों को मोह लिया और देवताओं को अमृत पिलाया।

2 इन लीलाओं को सुनकर बैल पर सवारी करनेवाले शिवजी उस स्थान पर गये जहाँ भगवान मधुसूदन रहते हैं। शिवजी अपनी पत्नी उमा को साथ लेकर तथा अपने साथी प्रेतों से घिरकर वहाँ भगवान के स्त्री-रूप को देखने गये।

3 भगवान ने शिवजी तथा उमा का अत्यन्त सम्मान के साथ स्वागत किया और ठीक प्रकार से बैठ जाने पर शिवजी ने भगवान की विधिवत पूजा की तथा मुस

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अध्याय ग्यारह – इन्द्र द्वारा असुरों का संहार (8.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात भगवान श्रीहरि की परम कृपा से इन्द्र, वायु इत्यादि सारे देवता जीवित हो गये। इस प्रकार जीवित होकर सारे देवता उन्हीं असुरों को बुरी तरह पीटने लगे जिन्होंने पहले उन्हें परास्त किया था।

2 जब सर्वाधिक शक्तिशाली इन्द्र क्रुद्ध हो गए और उन्होंने महाराज बलि को मारने के लिए अपने हाथ में वज्र ले लिया तो सारे असुर "हाय हाय" चिल्लाकर शोक करने लगे।

3 गम्भीर, सहिष्णु तथा लड़ने के साज-सामान से भलीभाँति सज्जित बलि महारा

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अध्याय दस – देवताओं तथा असुरों के बीच संग्राम (8.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! यद्यपि असुर तथा दैत्य पूरे मनोयोग तथा श्रम के साथ समुद्र-मन्थन में लगे थे, किन्तु भगवान वासुदेव के भक्त न होने के कारण, असुर अमृत नहीं पी सके।

2 हे राजन! समुद्र-मन्थन का कार्य पूरा कर लेने तथा अपने प्रिय भक्त देवताओं को अमृत पान करवाने के बाद भगवान ने वहाँ से विदा ली और गरुड़ पर आसीन होकर अपने धाम चले गये।

3 देवताओं की विजय देखकर असुरगण उनके श्रेष्ठतर ऐश्वर्य को सहन न कर सके। अतः वे अपने हथियार उठाकर देवत

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अध्याय नौ – मोहिनी-मूर्ति के रूप में भगवान का अवतार (8.9)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात असुर एक दूसरे के शत्रु बन गये। उन्होंने अमृत पात्र को फेंकते और छीनते हुए अपने मैत्री-सम्बन्ध तोड़ लिये। इसी बीच उन्होंने देखा कि एक अत्यन्त सुन्दर तरुणी उनकी ओर बढ़ी आ रही है।

2 उस सुन्दरी को देखकर असुरों ने कहा: ओह! इसका सौन्दर्य कितना आश्चर्यजनक है, शरीर की कान्ति कितनी अद्भुत है और इसकी तरुणावस्था का सौन्दर्य कितना उत्कृष्ट है। इस तरह कहते हुए वे उसका भोग करने की इच्छा से तेजी से उसके पास पहुँच

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अध्याय आठ – क्षीरसागर का मन्थन ( 8.8 )

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: शिवजी द्वारा विषपान कर लिये जाने पर देवता तथा दानव दोनों ही अत्यधिक प्रसन्न हुए और नवीन उत्साह के साथ समुद्र मन्थन करने लगे। इसके फलस्वरूप सुरभि नामक गाय उत्पन्न हुई।

2 हे राजा परीक्षित! वैदिक अनुष्ठानों के पूर्ण जानकार ऋषियों ने उस सुरभि गाय को ले लिया जो अग्नि में आहुती डालने के लिए नितान्त आवश्यक पदार्थ अर्थात मट्ठा, दूध तथा घी उत्पन्न करने वाली थी। उन्होंने शुद्ध घी के लिए ही ऐसा किया क्योंकि उन्हें उच्चलोकों में ब्र

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अध्याय सात – शिवजी द्वारा विषपान से ब्रह्माण्ड की रक्षा (8.7)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! देवों तथा असुरों ने सर्पराज वासुकि को बुलवाया और उसे वचन दिया कि वे उसे अमृत में हिस्सा देंगे। उन्होंने वासुकि को मन्दर पर्वत के चारों ओर मथने की रस्सी की भाँति लपेट दिया और क्षीरसागर के मन्थन द्वारा अमृत उत्पन्न करने का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक प्रयत्न किया।

2 भगवान अजित ने सर्प के अगले हिस्से को पकड़ लिया और तब सारे देवताओं ने उनके पीछे होकर उसे पकड़ लिया।

3 दैत्यों के नेताओं

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अध्याय छह – देवताओं तथा असुरों द्वारा सन्धि की घोषणा (8.6)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! देवताओं तथा ब्रह्माजी द्वारा इस प्रकार स्तुतियों से पूजित भगवान हरि उन सबके समक्ष प्रकट हो गये। उनका शारीरिक तेज एकसाथ हजारों सूर्य के उदय होने के समान था।

2 भगवान के तेज से सारे देवताओं की दृष्टि चौंधिया गई। वे न तो आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी को देख सके, न ही अपने आपको देख सके। अपने समक्ष उपस्थित भगवान को देखना तो दूर रहा।

3-7 शिवजी सहित ब्रह्माजी ने भगवान के निर्मल शारीरिक सौन्दर्य को देखा ज

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अध्याय पाँच -- देवताओं द्वारा सुरक्षा के लिए भगवान से याचना (8.5)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजा, मैंने तुमसे गजेन्द्रमोक्षण लीला का वर्णन किया है, जो सुनने में अत्यन्त पवित्र है। भगवान की ऐसी लीलाओं के विषय में सुनकर मनुष्य सारे पापों के फलों से छूट सकता है। अब मैं रैवत मनु का वर्णन कर रहा हूँ, कृपया उसे सुनो।

2 तामस मनु का भाई रैवत पाँचवाँ मनु था। उसके पुत्रों में अर्जुन, बलि तथा विंध्य प्रमुख थे।

3 हे राजन, रैवत मनु के युग में स्वर्ग का राजा (इन्द्र) विभु था, देवताओं में भूतरय इत्

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अध्याय चार – गजेन्द्र का वैकुण्ठ गमन (8.4)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान ने गजेन्द्र का उद्धार कर दिया तो सारे ऋषियों, गन्धर्वों तथा ब्रह्मा, शिव इत्यादि देवताओं ने भगवान की प्रशंसा की और भगवान तथा गजेन्द्र दोनों के ऊपर पुष्पवर्षा की।

2 स्वर्गलोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्वलोक के वासी नाचने और गाने लगे तथा महान ऋषियों, चारणलोक एवं सिद्धलोक के निवासियों ने भगवान पुरुषोत्तम की स्तुतियाँ कीं।

3-4 गन्धर्वों में श्रेष्ठ राजा हूहू, देवल मुनि द्वारा शापित होने के बाद घड़ियाल बन गया था।

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