mohitkumar (38)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम ।। 78 ।।

यत्र– जहाँ;योग-ईश्वरः– योग के स्वामी; कृष्णः– भगवान् कृष्ण; यत्र– जहाँ; पार्थः– पृथापुत्र; धनुः–धरः– धनुषधारी; तत्र– वहाँ; श्रीः– ऐश्वर्य; विजयः– जीत; भूतिः– विलक्षण शक्ति; ध्रुवा– निश्चित; नीतिः– नीति; मतिःमम– मेरा मत।

भावार्थ : जहाँ योगेश्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीं ऐश्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। 65 ।।

मत्-मनाः- मेरे विषय में सोचते हुए;भव- होओ;मत्-भक्तः- मेरा भक्त;मत्-याजी- मेरा पूजक;माम्- मुझको;नमस्कुरु- नमस्कार करो;माम्- मेरे पास;एव- ही;एष्यसि- आओगे;सत्यम्- सच-सच;ते- तुमसे;प्रतिजाने- वायदा या प्रतिज्ञा करता हूँ;प्रियः- प्रिय;असि- हो;मे- मुझको।

भावार्थ : सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।58

मत्– मेरी;चित्तः– चेतना में;सर्व– सारी;दुर्गाणि– बाधाओं को;मत्-प्रसादात्– मेरी कृपा से;तरिष्यसि– तुम पार कर सकोगे;अथ– लेकिन;चेत्– यदि;त्वम्– तुम;अहङ्कारात्– मिथ्या अहंकार से;न श्रोष्यसि– नहीं सुनते हो;विनङ्क्ष्यसि– नष्ट हो जाओगे।

भावार्थ : यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को ल
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।। 15 ।।

सर्वस्य- समस्त प्राणियों;- तथा;अहम्- मैं;हृदि- हृदय में;सन्निविष्टः- स्थित;मत्तः- मुझ से;स्मृतिः- स्मरणशक्ति;ज्ञानम्- ज्ञान;अपोहनम्- विस्मृति;- तथा;वेदैः- वेदों के द्वारा;- भी;सर्वैः- समस्त;अहम्- मैं हूँ;एव- निश्चय ही;वेद्यः- जानने योग्य, ज्ञेय;वेदान्त-कृत- वेदान्त के संकलकर्ता;वेदवित्- वेदों का ज्ञाता;एव-

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ 5

निः-रहित;मान-झूठी प्रतिष्ठा;मोहाः-तथा मोह;जित-जीता गया;सङ्ग-संगति की;दोषाः-त्रुटियाँ;अध्यात्म-आध्यात्मिक ज्ञान में;नित्याः-शाश्वतता में;विनिवृत्तः-विलग;कामाः-काम से;द्वन्द्वैः-द्वैत से;विमुक्ताः-मुक्त;सुख-दुःख-सुख तथा दुख;संज्ञैः-नामक;गच्छन्ति-प्राप्त करते हैं;अमूढाः-मोहरहित;पदम्-पद,स्थान को;अव्ययम्-शाश्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। 26 ।।

माम्- मेरी;- भी;यः- जो व्यक्ति;अव्यभिचारेण- बिना विचलित हुए;भक्ति-योगेन- भक्ति से;सेवते- सेवा करता है;सः- वह;गुणान्- प्रकृति के गुणों को;समतीत्य- लाँघ कर;एतान्- इन सब;ब्रह्म-भूयाय- ब्रह्म पद तक ऊपर उठा हुआ;कल्पते- हो जाता है।

भावार्थ : जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥ 9

अथ- यदि, अतः;चित्तम्- मन को;समाधातुम्- स्थिर करने में;- नहीं;शक्नोषि- समर्थ नहीं हो;मयि- मुझ पर;स्थिरम्- स्थिर भाव से;अभ्यास-योगेन- भक्ति के अभ्यास से;ततः- तब;माम्- मुझको;इच्छ- इच्छा करो;आप्तुम्- प्राप्त करने की;धनञ्जय- हे सम्पत्ति के विजेता, अर्जुन।

भावार्थ : हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। 12 ।।

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। 13 ।।

अर्जुन उवाच– अर्जुन ने कहा;परम्– परम;ब्रह्म– सत्य;परम्– परम;धाम– आधार;पवित्रम्– शुद्ध;परमम्– परम;भवान्– आप;पुरुषम्– पुरुष;शाश्वतम्– नित्य;दिव्यम्– दिव्य;आदि-देवम्– आदि स्वामी;अजम्– अजन्मा;विभुम्–सर्वोच्च;आहुः- कहते हैं;त्वाम्– आपको;ऋषयः– साधुगण;

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। 10 ।।

तेषाम्– उन;सतत-युक्तानाम्– सदैव लीन रहने वालों को;भजताम्– भक्ति करने वालों को;प्रीति-पूर्वकम्– प्रेमभावसहित;ददामि– देता हूँ;बुद्धि-योगम्– असली बुद्धि;तम्– वह;येन– जिससे;माम्– मुझको;उपयान्ति– प्राप्त होते हैं;ते– वे।

भावार्थ : जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ स
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु ।

मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः 34 ।।

मत्–मनाः- सदैव मेरा चिन्तन करने वाला;भव– होओ;मत्– मेरा;भक्तः– भक्त;मत्– मेरा;याजी– उपासक;माम्– मुझको;नमस्कुरु– नमस्कार करो;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;एष्यसि– पाओगे;युक्त्वा– लीन होकर;एवम्– इस प्रकार;आत्मानम्– अपनी आत्मा को;मत्-परायणः– मेरी भक्ति में अनुरक्त।

भावार्थ : अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। 30 ।।

अपि– भी;चेत्– यदि;सु-दुराचारः– अत्यन्त गर्हित कर्म करने वाला;भजते– सेवा करता है;माम्– मेरी;अनन्य-भाक्– बिना विचलित हुए;साधुः– साधु पुरुष;एव– निश्चय ही;सः– वह;मन्तव्यः– मानने योग्य;सम्यक्– पूर्णतया;व्यवसितः– संकल्प करना;हि– निश्चय ही;सः– वह।

भावार्थ : यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोSपि माम् ।। 25 ।।

यान्ति– जाते हैं;देव-व्रताः– देवताओं के उपासक;देवान्– देवताओं के पास;पितृृन्– पितरों के पास;यान्ति– जाते हैं;पितृ-व्रताः– पितरों के उपासक;भूतानि– भूत-प्रेतों के पास;यान्ति– जाते हैं;भूत-इज्याः– भूत-प्रेतों के उपासक;यान्ति– जाते हैं;मत्– मेरे;याजिनः– भक्तगण;अपि– लेकिन;माम्– मेरे पास।

भावार्थ : जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओ
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमुर्तिना ।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ।। 4 ।।

मया– मेरे द्वारा;ततम्– व्याप्त है;इदम्– यह;सर्वम्– समस्त;जगत्– दृश्य जगत;अव्यक्त-मूर्तिना– अव्यक्त रूप द्वारा;मत्-स्थानि– मुझमें;सर्व-भूतानि– समस्त जीव;– नहीं;– भी;अहम्– मैं;तेषु– उनमें;अवस्थितः– स्थित।

भावार्थ : यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।

तात्पर्य : भगवान् की अनुभूति स्थूल

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम् ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।। 15 ।।

माम्– मुझको;उपेत्य– प्राप्त करके;पुनः– फिर;जन्म– जन्म;दुःख-आलयम्– दुखों के स्थान को;अशाश्वतम्– क्षणिक;– कभी नहीं;आप्नुवन्ति– प्राप्त करते हैं;महा-आत्मानः– महान पुरुष;संसिद्धिम्– सिद्धि को;परमाम्– परं;गताः– प्राप्त हुए।

भावार्थ : मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम स
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।। 14 ।।

अनन्य-चेताः– अविचलित मन से;सततम्– सदैव;यः– जो;माम्– मुझ (कृष्ण) को;स्मरति– स्मरण करता है;नित्यशः– नियमित रूप से;तस्य– उस;अहम्– मैं हूँ;सु-लभः– सुलभ, सरलता से प्राप्य;पार्थ– हे पृथापुत्र;नित्य– नियमित रूप से;युक्तस्य– लगे हुए;योगिनः– भक्त के लिए।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भ

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः 6

यम् यम्– जिस;वा अपि– किसी भी;स्मरन्– स्मरण करते हुए;भावम्– स्वभाव को;त्यजति– परित्याग करता है;अन्ते– अन्त में;कलेवरम्– शरीर को;तम् तम्– वैसा ही;एव– निश्चय ही;एति– प्राप्त करता है;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;सदा– सदैव;तत्– उस;भाव– भाव;भावितः– स्मरण करता हुआ।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः 6

यम् यम्– जिस;वा अपि– किसी भी;स्मरन्– स्मरण करते हुए;भावम्– स्वभाव को;त्यजति– परित्याग करता है;अन्ते– अन्त में;कलेवरम्– शरीर को;तम् तम्– वैसा ही;एव– निश्चय ही;एति– प्राप्त करता है;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;सदा– सदैव;तत्– उस;भाव– भाव;भावितः– स्मरण करता हुआ।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन 26

वेद– जानता हूँ;अहम्– मैं;समतीतानि– भूतकाल को;वर्तमानानि– वर्तमान को;– तथा;अर्जुन– हे अर्जुन;भविष्याणि– भविष्य को;– भी;भूतानि– सारे जीवों को;माम्– मुझको;तु– लेकिन;वेद– जानता है;– नहीं;कश्चन– कोई।

भावार्थ : हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ। मै

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