अध्याय पन्द्रह - बलि महाराज द्वारा स्वर्गलोक पर विजय
1-3 महाराज परीक्षित ने पूछा: भगवान प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं। तो फिर उन्होंने निर्धन व्यक्ति की भाँति बलि महाराज से तीन पग भूमि क्यों माँगी और जब उन्हें मुँह माँगा दान मिल गया तो फिर उन्होंने बलि महाराज को बन्दी क्यों बनाया? मैं इन विरोधाभासों के रहस्य को जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब बलि का सारा ऐश्वर्य छिन गया और वे युद्ध में मारे गए तो भृगुमुनि के एक वंशज शुक्राचार्य ने उन्हें फिर से जीवित कर दिया। इससे महात्मा बलि शुक्राचार्य के शिष्य बन गए और अपना सर्वस्व अर्पित करके अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करने लगे।
4 भृगुमुनि के ब्राह्मण वंशज बलि महाराज पर अत्यन्त प्रसन्न हो गए जो इन्द्र का साम्राज्य जीतना चाह रहे थे। अतएव उन्होंने उन्हें अनुष्ठानपूर्वक शुद्ध करके तथा स्नान कराकर विश्वजित नामक यज्ञ करने में लगा दिया।
5-9 जब यज्ञ-अग्नि में घी की आहुति दी गई तो अग्नि से स्वर्ण तथा रेशम से आच्छादित एक देवी रथ प्रकट हुआ। साथ ही इन्द्र के घोड़ों जैसे पीले घोड़े तथा सिंह चिन्ह से अंकित एक ध्वजा प्रकट हुए। उस यज्ञ अग्नि से एक सुनहरा धनुष, अच्युत बाणों से युक्त दो तरकश तथा एक दिव्य कवच भी प्रकट हुए। बलि महाराज के पितामह प्रह्लाद महाराज ने उन्हें कभी न मुरझाने वाले फूलों की माला दी और शुक्राचार्य ने एक शंख प्रदान किया। ब्राह्मणों की सलाह के अनुसार विशेष अनुष्ठान सम्पन्न कर तथा उनकी कृपा से युद्ध-सामग्री प्राप्त करने के बाद, महाराज बलि ने ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया। उन्होंने प्रह्लाद महाराज को भी प्रणाम किया। तब शुक्राचार्य द्वारा दिये गये रथ पर सवार होकर सुन्दर माला से विभूषित बलि महाराज ने अपने शरीर में सुरक्षा-कवच धारण किया, अपने को बाणों से लैस किया, एक तलवार तथा तूणीर (तरकस) लिया। जब वे रथ में आसान ग्रहण कर चुके तो सुनहरे कड़ों से विभूषित बाँहों तथा मरकत मणि के कुण्डलों से विभूषित कानों सहित वे पूजनीय अग्नि की तरह चमक रहे थे।
10-12 जब वे अपने सैनिकों तथा असुर-नायकों समेत एकत्र हुए जो बल, ऐश्वर्य एवं सुन्दरता में उन्हीं के समान थे तो ऐसा लग रहा था मानो वे आकाश को निगल जायेंगे और अपनी दृष्टि से सारी दिशाओं को जला देंगे। इस तरह असुर-सैनिकों को एकत्र करके बलि महाराज ने इन्द्र की ऐश्वर्यमयी राजधानी के लिए कूच किया। दरअसल, ऐसा लग रहा था मानो वे सारे जगत को कम्पायमान कर देंगे। राजा इन्द्र की पुरी सुहावने बाग बगीचों से यथा नन्दन बाग से परिपूर्ण थी। फूलों, पत्तियों तथा फलों के भार से उनके शाश्वत वृक्षों की शाखाएँ नीचे झुकी हुई थीं। इन उद्यानों में चहकते पक्षियों के जोड़े तथा गुंजाती मधुमक्खियाँ आती-जाती थीं। वहाँ का सारा वायुमण्डल अत्यन्त दिव्य था।
13-14 उद्यानों में देवताओं द्वारा रक्षित सुन्दर स्त्रियाँ खेलती थीं जिनके कमल-ताल हंसों, सारसों, चक्रवाकों तथा बत्तखों से भरे हुए थे। वह पुरी आकाशगंगा नामक गंगाजल से भरी हुई खाइयों द्वारा तथा अग्नि जैसे रंग वाली एक अत्यन्त ऊँची दीवाल से घिरी हुई थी। इस दीवाल पर युद्ध करने के लिए मुंडेर बने थे।
15-16 उसके दरवाजे ठोस सोने के पत्तरों से बने थे और फाटक उत्कृष्ट संगमरमर के थे। ये सभी विभिन्न जनमार्गों से जुड़े थे। पूरी नगरी का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था। यह नगरी आँगनों, चौमार्गों, सभा भवनों तथा कम से कम दस करोड़ विमानों से पूर्ण थी। चौराहे मोती से बने थे और आसन-मंच भी हीरे तथा मूँगे से बने थे।
17-19 उस पुरी में नित्य सुन्दर तथा तरुण स्त्रियाँ स्वच्छ वस्त्र पहने ज्वालाओं से युक्त अग्नियों की भाँति चमक रही थीं। उन सब में श्यामा के गुण विद्यमान थे। उस पुरी की सड़कों से होकर बहने वाला मन्द समीर देवताओं की स्त्रियों के बालों से झर रही फूलों की सुगन्धी से युक्त था। अप्सराएँ जिन सड़कों से होकर गुजरती थीं वहाँ अगुरु का श्वेत सुगन्धित धुआँ छाया रहता था जो सुनहरी तारकशी वाली खिड़कियों से निकल रहा था।
20-21 नगरी में मोतियों से सजे चँदोवे की छाया पड़ रही थी और महलों की गुम्बदों में मोती तथा सोने की पताकाएँ थीं। वह नगरी सदा मोरों, कबूतरों तथा भौंरों की ध्वनि से गूँजती रहती थी। उसके ऊपर विमान उड़ते रहते थे, जो कानों को अच्छे लगने वाले मंगल गीतों का निरन्तर गायन करने वाली सुन्दर स्त्रियों से भरे रहते थे। वह नगरी मृदंग, शंख, दमामे, वंशी तथा तारवाले सुरीले वाद्ययंत्रों के समूहवादन के स्वरों से पूरित थी। वहाँ निरन्तर नृत्य चलता रहता था और गन्धर्वगण गाते रहते थे। इन्द्रपुरी की संयुक्त सुन्दरता साक्षात सुन्दरता (छटा) को जीत रही थी।
22-24 जो पापी, ईर्ष्यालु, अन्य जीवों के प्रति उग्र, चालाक, मिथ्या अभिमानी, कामी तथा लालची थे वे उस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकते थे। वहाँ रहने वाले सभी निवासी इन दोषों से रहित थे। असंख्य सैनिकों के सेनानायक बलि महाराज ने इन्द्र के इस निवास स्थान के बाहर अपने सैनिकों को एकत्र किया और चारों दिशाओं से उस पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्य द्वारा प्रदत्त शंख बजाया जिससे इन्द्र द्वारा रक्षित स्त्रियों के लिए भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई। बलि महाराज के अथक प्रयास को देखकर तथा उसके मन्तव्य को समझकर राजा इन्द्र अन्य देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति के पास गया और इस प्रकार बोला।
25 हे प्रभु! हमारे पुराने शत्रु बलि महाराज में अब नया उत्साह पैदा हो गया है और उसने ऐसी आश्चर्यजनक शक्ति प्राप्त कर ली है कि हमारा विचार है कि हम उसके तेज का शायद प्रतिरोध नहीं कर सकते।
26-29 कोई कहीं भी बलि की इस सैन्य व्यवस्था का प्रतिकार नहीं कर सकता। अब ऐसा प्रतीत होता है जैसे बलि अपने मुँह से सारे विश्व को पी जाना चाह रहा हो, अपनी जीभ से दसों दिशाओं को चाट जाना चाह रहा हो और अपने नेत्रों से प्रत्येक दिशा में अग्नि भड़काने का प्रयास कर रहा हो। निस्सन्देह, वह संवर्तक नामक प्रलयंकारी अग्नि के समान उठ खड़ा है। कृपया मुझे बतायें कि बलि महाराज की शक्ति, उद्यम, प्रभाव तथा विजय का क्या कारण है? वह इतना उत्साही कैसे हो गया है? देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कहा: हे इन्द्र! मैं वह कारण जानता हूँ जिससे तुम्हारा शत्रु इतना शक्तिशाली बन गया है। भृगुमुनि के ब्राह्मण वंशजों ने उनके शिष्य बलि महाराज से प्रसन्न होकर उन्हें ऐसी अद्वितीय शक्ति प्रदान की है। न तो तुम, न ही तुम्हारे सैनिक परमशक्तिशाली बलि को जीत सकते हैं। निस्सन्देह, भगवान के अतिरिक्त कोई भी उसे जीत नहीं सकता क्योंकि वह अब ब्रह्मतेज से युक्त है। जिस तरह यमराज के समक्ष कोई टिक नहीं पाता उसी तरह बलि महाराज के सामने भी कोई नहीं टिक सकता।
30-36 अतएव तुम सबको चाहिए कि अपने शत्रुओं की स्थिति के पलटने के समय तक प्रतीक्षा करते हुए इस स्वर्गलोक को छोड़ दो और कहीं ऐसे स्थान में चले जाओ जहाँ तुम दिखाई न पड़ो। इस समय बलि महाराज ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त आशीषों के कारण अत्यन्त शक्तिशाली बन गया है, किन्तु बाद में जब वह इन्हीं ब्राह्मणों का अपमान करेगा तो वह अपने मित्रों तथा सहायकों सहित विनष्ट हो जायेगा। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार बृहस्पति द्वारा उनके हित का उपदेश दिये जाने पर देवताओं ने तुरन्त उनकी बातें मान ली। उन्होंने इच्छानुसार रूप धारण किया और वे स्वर्गलोक को छोड़कर असुरों की दृष्टि से ओझल हो गये। जब देवतागण अदृश्य हो गये तो विरोचन के पुत्र बलि महाराज स्वर्ग में प्रविष्ट हुए और वहाँ से उन्होंने तीनों लोकों को अपने अधिकार में कर लिया। भृगु के ब्राह्मण वंशजों ने अपने विश्वविजयी शिष्य से अत्यधिक प्रसन्न होकर उसे एक सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने में लगा दिया। जब बलि महाराज ने इन यज्ञों को सम्पन्न कर लिया तो उनकी कीर्ति तीनों लोकों में सभी दिशाओं में फैल गई। इस प्रकार वे अपने पद पर उसी प्रकार चमक उठे जिस तरह आकाश में चमकता हुआ चाँद। ब्राह्मणों के अनुग्रह के कारण महात्मा बलि परम ऐश्वर्यवान तथा सम्पन्न हो गये और संतुष्ट होकर राज्य का भोग करने लगे।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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