hindi bhashi sangh (140)

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अध्याय तीन – गजेन्द्र की समर्पण स्तुति(8.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: तत्पश्चात गजेन्द्र ने अपना मन पूर्ण बुद्धि के साथ अपने हृदय में स्थिर कर लिया और उस मंत्र का जप प्रारम्भ किया जिसे उसने इन्द्रद्युम्न के रूप में अपने पूर्वजन्म में सीखा था और जो कृष्ण की कृपा से उसे स्मरण था।

2 गजेन्द्र ने कहा: मैं परम पुरुष वासुदेव को सादर नमस्कार करता हूँ (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय)। उन्हीं के कारण यह शरीर आत्मा की उपस्थिति के फलस्वरूप कर्म करता है, अतएव वे प्रत्येक जीव के मूल कारण हैं। वे ब्रह्मा तथा श

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अध्याय दो – गजेन्द्र का संकट(8.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, त्रिकुट नाम का एक विशाल पर्वत है। यह दस हजार योजन (80 हजार मील) ऊँचा है। चारों ओर से क्षीरसागर द्वारा घिरे होने के कारण इसकी स्थिति अत्यन्त रमणीक है।

2-3 पर्वत की लम्बाई तथा चौड़ाई समान (80 हजार मील) है। इसकी तीन प्रमुख चोटियाँ, जो लोहे, चाँदी तथा सोने की बनी हैं, सारी दिशाओं एवं आकाश को सुन्दर बनाती हैं। पर्वत में अन्य चोटियाँ भी हैं, जो रत्नो तथा खनिजों से पूर्ण हैं और सुन्दर वृक्षों, लताओं एवं झड़ियों से अलंकृत हैं। पर्वत

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अध्याय एक – ब्रह्माण्ड के प्रशासक मनु (8.1)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे स्वामी! हे गुरु महाराज! अभी मैंने आपके मुख से स्वायम्भुव मनु के वंश के विषय में भलीभाँति सुना। किन्तु अन्य मनु भी तो हैं; अतएव मैं उनके वंशों के विषय में सुनना चाहता हूँ। कृपा करके उनका वर्णन करें।

2 हे विद्वान ब्राह्मण श्रील शुकदेव गोस्वामी! बड़े-बड़े विद्वान पुरुष, जो महान बुद्धिमान हैं, विभिन्न मन्वन्तरों में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कार्यकलापों का तथा उनके प्राकट्य का वर्णन करते हैं। हम इन वर्णनों को सुनने के लिए अत्यन्त उ

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अध्याय चौदह – आदर्श पारिवारिक जीवन (7.14)

1 महाराज युधिष्ठिर ने नारद मुनि से पूछा: हे स्वामी, हे महर्षि, कृपा करके यह बतलाएँ कि जीवन-लक्ष्य के ज्ञान से रहित, घर पर रहने वाले हम लोग वेदों के आदेशानुसार सरलता से मुक्ति किस तरह प्राप्त कर सकते हैं ?

2 नारदमुनि ने उत्तर दिया: हे राजन, जो लोग घर पर गृहस्थ बनकर रहते हैं उन्हें अपनी जीविका अर्जित करने के लिए कार्य करना चाहिए और अपने कर्मों का फल स्वयं भोगने का प्रयास न करके इन फलों को वासुदेव कृष्ण को अर्पित करना चाहिए। इस जीवन में वासुदेव को किस तरह प्

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अध्याय ग्यारह – पूर्ण समाज : चातुर्वर्ण (7.11)

1 शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: प्रह्लाद महाराज, जिनके कार्यकलाप तथा चरित्र की पूजा तथा चर्चा ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे महापुरुष करते हैं, उनके विषय में सुनने के बाद महापुरुषों में सर्वाधिक आदरणीय राजा, युधिष्ठिर महाराज ने नारद मुनि से अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में पुनः पूछा।

2 महाराज युधिष्ठिर ने कहा: हे प्रभु, मैं आपसे धर्म के उन सिद्धान्तों के विषय में सुनने का इच्छुक हूँ जिनसे मनुष्य, जीवन के चरम लक्ष्य, भक्ति को प्राप्त कर सकता है। मैं मानव समाज के सामा

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अध्याय दस – भक्त शिरोमणि प्रह्लाद (7.10)

1 नारद मुनि ने आगे कहा: यद्यपि प्रह्लाद महाराज बालक थे किन्तु जब उन्होंने नृसिंहदेव द्वारा दिये गये वरों को सुना तो उन्होंने इन्हें भक्ति के मार्ग में अवरोध समझा। तब वे विनीत भाव से मुसकाये और इस तरह बोले।

2 प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा: हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, नास्तिक परिवार में जन्म लेने के कारण मैं स्वभावतः भौतिक भोग के प्रति अनुरक्त हूँ; अतएव आप मुझे इन मोहों से मत ललचाइये। मैं भौतिक दशाओं से अत्यधिक भयभीत हूँ और भौतिकतावादी जीवन से मुक्त ह

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अध्याय नौ – प्रह्लाद द्वारा नृसिंह देव को प्रार्थनाओं से शान्त करना (7.9)

1-5 नारद मुनि ने आगे कहा: ब्रह्मा, शिव इत्यादि अन्य बड़े-बड़े देवताओं का साहस न हुआ कि वे भगवान के समक्ष जाँय, क्योंकि उस समय वे अत्यन्त क्रुद्ध थे।  वहाँ पर उपस्थित भयभीत सारे देवताओं ने लक्ष्मीजी से प्रार्थना की कि वे भगवान के समक्ष जाएँ। किन्तु उन्होंने भी भगवान का ऐसा अद्भुत तथा असामान्य रूप कभी नहीं देखा था, अतएव वे उनके पास नहीं जा सकीं।  तत्पश्चात ब्रह्माजी ने अपने पास ही खड़े प्रह्लाद महाराज से अनुरोध किया--हे पुत्र,

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अध्याय आठ – भगवान नृसिंह द्वारा असुरराज का वध(7.8)

1 नारद मुनि ने आगे कहा: सारे असुरपुत्रों ने प्रह्लाद महाराज के दिव्य उपदेशों की सराहना की और उन्हें अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण किया। उन्होंने षण्ड तथा अमर्क नामक अपने गुरुओं द्वारा दिये गये भौतिकतावादी उपदेशों का तिरस्कार कर दिया।

2 जब शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड तथा अमर्क ने देखा कि सारे विद्यार्थी असुर पुत्र प्रह्लाद महाराज की संगति से कृष्णभक्ति में आगे बढ़ रहे हैं, तो वे डर गये। अतएव वे असुरराज के पास गये और उनसे सारी स्थिति यथावत वर्णन कर दी।

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अध्याय सात – प्रह्लाद ने गर्भ में क्या सीखा (7.7)

1 नारद मुनि ने कहा: यद्यपि प्रह्लाद महाराज असुरों के परिवार में जन्मे थे, किन्तु वे समस्त भक्तों में सबसे महान थे। इस प्रकार अपने असुर सहपाठियों द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने मेरे द्वारा कहे गये शब्दों का स्मरण किया और अपने मित्रों से इस प्रकार कहा।

2 प्रह्लाद महाराज ने कहा: जब हमारे पिता हिरण्यकशिपु कठिन तपस्या करने के लिए मन्दराचल पर्वत चले गये तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र इत्यादि देवताओं ने युद्ध में सारे असुरों को दमन करने का भारी प्रयास किया।

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अध्याय छह - प्रह्लाद द्वारा अपने असुर सहपाठियों को उपदेश (7.6)

1 प्रह्लाद महाराज ने कहा: पर्याप्त रूप से बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ अर्थात बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव शरीर का उपयोग करे। यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है। यदि निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है।

2 यह मनुष्य-जीवन भगवदधा

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अध्याय पाँच – हिरण्यकशिपु का साधु-सदृश पुत्र प्रह्लाद महाराज(7.5)

1 महामुनि नारद ने कहा: हिरण्यकशिपु की अगुवाई में असुरों ने शुक्राचार्य को अनुष्ठान सम्पन्न कराने के लिए पुरोहित के रूप में चुना। शुक्राचार्य के दो पुत्र षण्ड तथा अमर्क हिरण्यकशिपु के महल के ही पास रहते थे।

2 प्रह्लाद महाराज पहले से ही भक्ति में निपुण थे, किन्तु जब उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने के लिए शुक्राचार्य के दोनों पुत्रों के पास भेजा तो उन दोनों ने उन्हें तथा अन्य असुरपुत्रों को अपनी पाठशाला में भर्ती कर लिया।

3 प्रह्लाद अध्यापक

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अध्याय चार – ब्रह्माण्ड में हिरण्यकशिपु का आतंक (7.4)

1 नारद मुनि ने कहा: ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु की दुष्कर तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न थे। अतएव जब उसने वरों की याचना की तो उन्होंने निस्सन्देह वे दुर्लभ वर प्रदान कर दिये।

2 ब्रह्माजी ने कहा: हे हिरण्यकशिपु, तुमने जो वर माँगे हैं, वे अधिकांश मनुष्यों को बड़ी कठिनाई से प्राप्त हो पाते हैं। हे पुत्र, यद्यपि ये वर सामान्यतया उपलब्ध नहीं हो पाते, तथापि मैं तुम्हें प्रदान करूँगा।

3 तब अमोघ वर देने वाले ब्रह्माजी दैत्यों में श्रेष्ठ हिरण्यकशिपु द्वारा पूजित

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अध्याय तीन – हिरण्यकशिपु की अमर बनने की योजना (7.3)

1 नारद मुनि ने महाराज युधिष्ठिर से कहा: दैत्यराज हिरण्यकशिपु अजेय तथा वृद्धावस्था एवं शरीर की जर्जरता से मुक्त होना चाहता था। वह अणिमा तथा लघिमा जैसी समस्त योग-सिद्धियों को प्राप्त करना, मृत्युरहित होना और ब्रह्मलोक समेत अखिल विश्व का एकछत्र राजा बनना चाहता था।

2 हिरण्यकशिपु ने मन्दर पर्वत की घाटी में अपने पाँव के अँगूठे के बल भूमि पर खड़े होकर, अपनी भुजाएँ ऊपर किये तथा आकाश की ओर देखते हुए तपस्या प्रारम्भ की। यह स्थिति अतीव कठिन थी, किन्तु सिद्

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अध्याय उन्नीस – पुंसवन व्रत का अनुष्ठान (6.19)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: हे प्रभो! आप पुंसवन व्रत के सम्बन्ध में पहले ही बता चुके हैं। अब मैं इसके विषय में विस्तार से सुनना चाहता हूँ क्योंकि मैं समझता हूँ कि इस व्रत का पालन करके भगवान विष्णु को प्रसन्न किया जा सकता है।

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्त्री को चाहिए कि अगहन मास (नवम्बर-दिसम्बर) के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को अपने पति की अनुमति से इस नैमित्यिक भक्ति को, तप के व्रत सहित प्रारम्भ करे क्योंकि इससे सभी मनोकामनाएँ पूरी हो सकती है। भगवान

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अध्याय छब्बीस – नारकीय लोकों का वर्णन (5.26) 

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे महाशय, जीवात्माओं को विभिन्न भौतिक गतियाँ क्यों प्राप्त होती हैं? कृपा करके मुझसे कहें।

2 महामुनि श्रील शुकदेव बोले- हे राजन, इस जगत में सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में स्थित तीन प्रकार के कर्म होते हैं। चूँकि सभी मनुष्य इन तीन गुणों से प्रभावित होते हैं, अतः कर्मों के फल भी तीन प्रकार के होते हैं। जो सतोगुण के अनुसार कर्म करता है, वह धार्मिक एवं सुखी होता है, जो रजोगुण में कर्म करता है उसे कष्ट तथा

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अध्याय दस – जड़ भरत तथा महाराज रहूगण की वार्ता (5.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले – हे राजन, इसके बाद सिंधु तथा सौवीर प्रदेशों का शासक रहुगण कपिलाश्रम जा रहा था। जब राजा के मुख्य कहार (पालकीवाहक) इक्षुमती के तट पर पहुँचे तो उन्हें एक और कहार की आवश्यकता हुई। अतः वे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज करने लगे और दैववश उन्हें जड़ भरत मिल गया। उन्होंने सोचा कि यह तरुण और बलिष्ठ है और इसके अंग-प्रत्यंग सुदृढ़ हैं। यह बैलों तथा गधों के तुल्य बोझा ढोने के लिए अत्यन्त उपयुक्त है। ऐसा सोचते हुए यद्यपि महात्मा ज

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अध्याय इकतीस – प्रचेताओं को नारद का उपदेश (4.31)

1 महान सन्त मैत्रेय ने आगे कहा: तत्पश्चात प्रचेता हजारों वर्षों तक घर में रहे और आध्यात्मिक चेतना में पूर्ण ज्ञान विकसित किया। अन्त में उन्हें भगवान के आशीर्वादों की याद आई और वे अपनी पत्नी को अपने सुयोग्य पुत्र के जिम्मे छोड़कर घर से निकल पड़े।

2 प्रचेतागण पश्चिम दिशा में समुद्रतट की ओर गये जहाँ जाजलि ऋषि निवास कर रहे थे। उन्होंने वह आध्यात्मिक ज्ञान पुष्ट कर लिया जिससे मनुष्य समस्त जीवों के प्रति समभाव रखने लगता है। इस तरह वे कृष्णभक्ति में पटु हो

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कर्म-बंधन (3.32)

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अध्याय बत्तीस – कर्म-बन्धन (3.32)

1 भगवान ने कहा: गृहस्थ जीवन बिताने वाला व्यक्ति धार्मिक अनुष्ठान करते हुए भौतिक लाभ प्राप्त करता रहता है और इस तरह वह आर्थिक विकास तथा इन्द्रियतृप्ति की अपनी इच्छापूर्ति करता है। वह पुनः पुनः इसी तरह कार्य करता है।

2 ऐसे व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति के प्रति अत्यधिक आसक्त होने के कारण भक्ति से विहीन होते हैं, अतः अनेक प्रकार के यज्ञ करते रहने तथा देवों एवं पितरों को प्रसन्न करने के लिए बड़े-बड़े व्रत करते रहने पर भी वे कृष्णभावनामृत अर्थात भक्ति में रुचि नहीं लेते ।

3

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अध्याय इकतीस – जीवों की गतियों के विषय में भगवान कपिल के उपदेश (3.31)

1 भगवान ने कहा: परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव (आत्मा) को पुरुष के तेजकण के रूप में स्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है।

2 पहली रात में शुक्राणु तथा रज मिलते हैं और पाँचवीं रात में यह मिश्रण बुलबले का रूप धारण कर लेता है। दसवीं रात्रि को यह बढ़कर बेर जैसा हो जाता है और उसके बाद धीरे-धीरे यह मांस के पिण्ड या अंडे में परिवर्तित हो जाता है।

3 एक महीने के भीतर सिर बन

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अध्याय तीस – भगवान कपिल द्वारा विपरीत कर्मों का वर्णन (3.30)

1 भगवान ने कहा: जिस प्रकार बादलों का समूह वायु के शक्तिशाली प्रभाव से परिचित नहीं रहता उसी प्रकार भौतिक चेतना में संलग्न व्यक्ति काल की उस महान शक्ति से परिचित नहीं रहता, जिसके द्वारा उसे ले जाया जा रहा है।

2 तथाकथित सुख के लिए भौतिकतावादी द्वारा जो-जो वस्तुएँ अत्यन्त कष्ट तथा परिश्रम से अर्जित की जाती है उन सबको कालरूप परम पुरुष नष्ट कर देता है और इसके कारण बद्धजीव उनके लिए शोक करता है।

3 विभ्रमित भौतिकतावादी व्यक्ति यह नहीं जानता कि उ

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