अध्याय बारह - मोहिनी-मूर्ति अवतार पर शिवजी का मोहित होना
1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्त्री के रूप में भगवान हरि ने दानवों को मोह लिया और देवताओं को अमृत पिलाया। इन लीलाओं को सुनकर बैल पर सवारी करनेवाले शिवजी उस स्थान पर गये जहाँ भगवान मधुसूदन रहते हैं। शिवजी अपनी पत्नी उमा को साथ लेकर तथा अपने साथी प्रेतों से घिरकर वहाँ भगवान के स्त्री-रूप को देखने गये।
3-5 भगवान ने शिवजी तथा उमा का अत्यन्त सम्मान के साथ स्वागत किया और ठीक प्रकार से बैठ जाने पर शिवजी ने भगवान की विधिवत पूजा की तथा मुस्काते हुए वे इस प्रकार बोले। महादेवजी ने कहा: हे देवताओं में प्रमुख देव! हे सर्वव्यापी, ब्रह्माण्ड के स्वामी! आपने अपनी शक्ति से अपने को सृष्टि में रूपान्तरित कर दिया है। आप हर वस्तु के मूल एवं सक्षम कारण हैं। आप भौतिक नहीं हैं। निस्सन्देह, आप हर एक की परम संजीवनी शक्ति या परमात्मा हैं। अतएव आप परमेश्वर हैं अर्थात सभी नियंत्रकों के परम नियंत्रक हैं। हे भगवन! व्यक्त, अव्यक्त, मिथ्या अहंकार तथा इस दृश्य जगत का आदि (उत्पत्ति), पालन तथा संहार सभी कुछ आपसे है। आप परम सत्य, परमात्मा, परम ब्रह्म हैं अतएव जन्म, मृत्यु तथा पालन जैसे परिवर्तन आप में नहीं पाये जाते।
6 जो शुद्ध भक्त या महान सन्त पुरुष (मुनिगण) जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं तथा इन्द्रियतृप्ति की समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, वे आपके चरणकमलों की भक्ति में निरन्तर लगे रहते हैं।
7 हे प्रभु! आप ब्रह्म (सर्वव्यापी परम सत्य) तथा सभी प्रकार से पूर्ण हैं। पूर्णत: आध्यात्मिक होने के कारण आप नित्य, प्रकृति के भौतिक गुणों से मुक्त, शोकरहित तथा दिव्य आनन्द से पूरित हैं। चूँकि आप समस्त कारणों के परम कारण हैं अतएव आपके बिना कोई अस्तित्व नहीं हो सकता, फिर भी जहाँ तक कारण तथा कार्य का सम्बन्ध है, आपसे भिन्न हैं क्योंकि एक दृष्टि से कार्य तथा कारण पृथक-पृथक हैं। आप सृष्टि, पालन तथा संहार के मूल कारण हैं और समस्त जीवों को वर देते हैं। हर व्यक्ति अपने कर्मफलों के लिए आप पर निर्भर है, किन्तु आप सर्वदा स्वतंत्र हैं।
8 हे प्रभु! आप कार्य तथा कारण भी हैं, अतएव दो प्रतीत होते हुए भी परम पूर्ण एक हैं। जिस तरह आभूषण के सोने तथा खान के सोने में कोई अन्तर नहीं होता, उसी तरह कारण तथा कार्य में अन्तर नहीं होता, दोनों ही एक हैं। अज्ञान के कारण ही लोग अन्तर तथा द्वैत गढ़ते हैं। आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं और चूँकि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपके द्वारा उत्पन्न है और आपके बिना विद्यमान नहीं रह सकता, अतएव यह आपके दिव्य गुणों का प्रभाव है। इस प्रकार इस अवधारणा को माना नहीं जा सकता कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है।
9-10 जो निर्विशेष – मायावादी कहलाते हैं,वे आपको निर्विशेष ब्रह्म के रूप में मानते हैं। दूसरे जो मीमांसक विचारक हैं, आपको धर्म के रूप में मानते हैं। सांख्य दार्शनिक आपको ऐसा परम पुरुष मानते हैं, जो प्रकृति तथा पुरुष के परे है और देवताओं का भी नियंत्रक है। जो लोग पञ्चरात्र नामक भक्ति के नियमों के अनुयायी हैं, वे आपको नौ शक्तियों से युक्त मानते हैं तथा पतंजलि मुनि के अनुयायी, जो पतंजल दार्शनिक कहलाते हैं, आपको उस परम स्वतंत्र भगवान के रूप में मानते हैं जिसके न तो कोई तुल्य है और न कोई श्रेष्ठ है। हे प्रभु! सभी देवताओं में श्रेष्ठ माने जाने वाला मैं, ब्रह्माजी तथा मरिची इत्यादि महर्षि सतोगुण से उत्पन्न हैं। तब भी हम सभी आपकी माया से मोहग्रस्त हैं और यह नहीं समझ पाते कि यह सृष्टि क्या है। हमारी बात छोड़ भी दें तो उन असुरों तथा मनुष्यों के बारे में क्या कहा जाये जो प्रकृति के निम्न गुणों (रजो तथा तमो गुणों) से युक्त हैं? वे आपको कैसे जान सकते हैं?
11 हे प्रभु! आप साक्षात परम ज्ञान हैं। आप इस सृष्टि तथा इसके सृजन, पालन तथा संहार के विषय में सब कुछ जानते हैं। आप जीवों द्वारा किये जाने वाले उन सारे प्रयासों से अवगत हैं जिनके द्वारा वे इस भौतिक जगत से बँधते या मुक्त होते हैं। जिस प्रकार वायु विस्तीर्ण आकाश के साथ-साथ समस्त चराचर प्राणियों में प्रविष्ट करती है उसी प्रकार आप सर्वत्र विद्यमान हैं, अतएव सर्वज्ञ हैं।
12 हे प्रभु! मैंने आपके उन सभी अवतारों का दर्शन किया है जिन्हें आप अपने दिव्य गुणों के द्वारा प्रकट कर चुके हैं। अब जबकि आप एक सुन्दर युवा स्त्री के रूप में प्रकट हुए हैं, मैं आपके उसी स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ।
13-14 हे भगवान! हम लोग यहाँ पर आपके उस रूप का दर्शन करने आये हैं जिसे आपने असुरों को पूर्णतया मोहित करने के लिए दिखलाया था और इस प्रकार देवताओं को अमृत पान करने दिया था। मैं उस रूप को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब त्रिशूलधारी शिवजी ने भगवान विष्णु से इस तरह प्रार्थना की तो वे गम्भीर होकर हँस पड़े और उन्होंने इस प्रकार से उत्तर दिया।
15 भगवान ने कहा: जब असुरों ने अमृत घट छीन लिया तो मैंने उन्हें प्रत्यक्ष छलावा देकर मोहित करने के उद्देश्य से और इस तरह देवताओं के हित में कार्य करने के लिए, एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर लिया।
16 हे देवश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगा जो कामी पुरुषों द्वारा अत्यधिक सराहा जाता है। चूँकि तुम मेरा वैसा रूप देखना चाहते हो अतएव मैं तुम्हारे समक्ष उसे प्रकट करूँगा।
17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: ऐसा कहकर भगवान विष्णु तुरन्त ही अन्तर्धान हो गये और शिवजी उमा सहित वहीं पर चारों ओर आँखें घुमाते हुए उन्हें ढूँढते रह गये।
18-20 तत्पश्चात शिवजी ने लाल-गुलाबी पत्तियों तथा विविध प्रकार के फूलों से भरे, निकट के एक रमणीक जंगल में एक सुन्दर स्त्री को गेंद से खेलते देखा। उसके कूल्हे एक चमचमाती साड़ी से ढके थे तथा करधनी से सुशोभित थे। उस स्त्री का मुखमण्डल चौड़ा तथा सुन्दर था और चंचल आँखों से सुशोभित था और वे आँखें उसके हाथों द्वारा उछाली गई गेंद के साथ इधर-उधर घूम रही थी। उसके कानों के दो जगमगाते कुण्डल उसके चमकते गालों पर साँवली छाया की तरह सुशोभित हो रहे थे और उसके मुख पर बिखरे बाल उसे देखने में और भी सुन्दर बना रहे थे।
21 जब वह गेंद खेलती तो उसके शरीर को ढके रखने वाली साड़ी ढीली पड़ जाती और उसके बाल बिखर जाते। वह अपने सुन्दर बाएँ हाथ से अपने बालों को बाँधने का प्रयास करती और साथ ही दाएँ हाथ से गेंद खेलती जा रही थी। यह इतना आकर्षक दृश्य था कि भगवान ने अपनी अन्तरंगा शक्ति से हर एक को मोह लिया।
22-26 जब शिवजी इस सुन्दर स्त्री को गेंद खेलते हुए देख रहे थे, तब वह कभी इन पर दृष्टि डालती और लजाकर थोड़ा हँस देती। ज्योंही शिवजी ने उस सुन्दर स्त्री को देखा और उसने इन्हें ताका त्योंही वे स्वयं, अपनी सर्वसुन्दर पत्नी उमा और निकटस्थ पार्षदों को भूल गये। जब गेंद उसके हाथ से उछलकर दूर जा गिरी तो वह स्त्री उसका पीछा करने लगी, किन्तु जब शिवजी इन लीलाओं को निहार रहे थे तो अचानक वायु का झोंका उसके सुन्दर वस्त्र तथा उसकी करधनी को जो उसे ढके हुए थे, उड़ा ले गया। इस प्रकार शिवजी ने उस स्त्री को देखा जिसके शरीर का अंग-प्रत्यंग सुगठित था और उस सुन्दर स्त्री ने भी उनकी ओर देखा। अतएव यह सोचकर कि वह स्त्री उनके प्रति आकृष्ट है, शिवजी उसके प्रति अत्यधिक आकृष्ट हो गये। उस स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा के कारण अपना विवेक खोते हुए शिवजी इतने विह्वल हो उठे कि भवानी कि उपस्थिति में भी वे उसके समीप जाने में तनिक भी नहीं हिचकिचाये। वह सुन्दरी पहले ही विवस्त्रा हो चुकी थी और जब उसने देखा कि शिवजी उसकी ओर चले आ रहे हैं, तो वह अत्यन्त लज्जित हुई। उसने अपने आपको वृक्षों के बीच छिपा लिया वह किसी एक ही स्थान पर खड़ी नहीं रही।
27-30 शिवजी की इन्द्रियाँ विचलित थीं और वे कामेच्छाओं के वशीभूत होकर उसका पीछा करने लगे। तेजी से उसका पीछा करते हुए शिवजी ने उसके बालों का जुड़ा पकड़ लिया और उसे अपने पास खींच लिया। वह स्त्री, जिसके बाल बिखरे थे, शिवजी द्वारा आलिंगित होकर साँप की तरह सरकने लगी। हे राजा, यह स्त्री भगवान द्वारा प्रस्तुत की गई योगमाया थी। उसने अपने को जिस-तिस भाँति शिवजी के आलिंगन से छुड़ाया और भाग गई।
31-35 भगवान विष्णु जिन्होंने मोहिनी रूप धारण कर रखा था, का शिवजी ऐसे पीछा करने लगे जैसे वे काम-वासना रूपी शत्रु द्वारा सताये गए हों। शिवजी उस सुन्दर स्त्री का पीछा कर रहे थे। शिवजी मोहिनी का पीछा करते हुए नदियों तथा झीलों के किनारे, पर्वतों, जंगलों, उद्यानों के पास तथा जहाँ कहीं ऋषिमुनि रह रहे थे, गये और उनका वीर्य स्खलित हो गया। यद्यपि स्खलित हुआ उनका वीर्य व्यर्थ नहीं जाता। हे राजन! पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ महापुरुष शिवजी का वीर्य गिरा बाद में वहीं-वहीं सोने तथा चाँदी की खानें प्रकट हो गई।
36-37 इस प्रकार शिवजी को अपनी स्थिति तथा असीम शक्तिमान भगवान की स्थिति का बोध हो गया। इस ज्ञान के प्राप्त होने पर उन्हें तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ कि भगवान विष्णु ने किस अद्भुत विधि से उन पर माया का जाल फैलाया था। शिवजी को अविचलित एवं लज्जारहित देखकर भगवान विष्णु (मधुसूदन) अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब उन्होंने अपना मूल रूप धारण कर लिया और वे इस प्रकार बोले।
38-39 भगवान ने कहा: हे देवताओं में श्रेष्ठ ! यद्यपि तुम मेरे द्वारा स्त्रीरूप धारण करने की मेरी शक्ति द्वारा अत्यधिक पीड़ित हुए हो, किन्तु तुम अपने पद पर स्थिर हो। अतएव तुम्हारा कल्याण हो। हे प्रिय शम्भू! इस भौतिक जगत में तुम्हारे अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो मेरी माया से पार पा सके? सामान्यतया लोग इन्द्रियभोग में आसक्त रहते हैं और इसके प्रभाव में फँस जाते हैं। निस्सन्देह, उनके लिए माया के प्रभाव को लाँघ पाना अत्यन्त कठिन है।
40 यह भौतिक बहिरंगा शक्ति (माया), जो सृष्टि में मुझे सहयोग देती है और प्रकृति के तीनों गुणों में प्रकट होती है अब तुम्हें मोहित नहीं कर सकेगी।
41-45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! वक्षस्थल पर श्रीवत्स-चिन्ह धारण करने वाले भगवान द्वारा इस प्रकार प्रशंसित होकर शिवजी ने उनकी परिक्रमा की। फिर उनकी अनुमति लेकर शिवजी अपने गणों सहित अपने धाम कैलाश लौट गये। हे भरतवंशी महाराज! तब शिवजी ने परम प्रसन्न होकर अपनी पत्नी भवानी को सम्बोधित किया जो सभी अधिकारियों द्वारा भगवान विष्णु की शक्ति के रूप में स्वीकार की जाती हैं। शिवजी ने कहा: हे देवी! अब तुमने भगवान की माया देख ली है, वे अजन्मा ही सबके स्वामी हैं। यद्यपि मैं उनके प्रमुख विस्तारों में से एक हूँ तो भी मैं उनकी शक्ति से भ्रमित हो गया था। तो फिर, उन लोगों के विषय में क्या कहा जाये जो माया पर पूर्णत: आश्रित हैं? जब मैंने एक हजार वर्षों की योग-साधना पूरी कर ली तो तुमने मुझसे पूछा था कि मैं किसका ध्यान कर रहा था। अब ये वही परम पुरुष हैं जिन तक काल नहीं पहुँच पाता और जिन्हें वेद नहीं समझ पाते। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जिस पुरुष ने क्षीरसागर के मन्थन के लिए अपनी पीठ पर महान पर्वत धारण किया था, वही शार्ङ्गधन्वा नामक भगवान हैं। मैंने तुमसे अभी उन्हीं के पराक्रम का वर्णन किया है।
46-47 जो कोई क्षीरसागर के मन्थन की इस कथा को निरन्तर सुनता या सुनाता है, उसका प्रयास कभी भी निष्फल नहीं होगा। निस्सन्देह, भगवान के यश का कीर्तन ही इस भौतिक संसार में समस्त कष्टों को ध्वस्त करने का एकमात्र साधन है। एक तरुण स्त्री का रूप धारण करके तथा इस प्रकार असुरों को मोहित करके भगवान ने अपने भक्तों अर्थात देवताओं को क्षीरसागर के मन्थन से उत्पन्न अमृत बाँट दिया। मैं उन भगवान को जो अपने भक्तों की इच्छाओं को सदा पूरा करते हैं, अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
Comments
हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
!! हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !!🙏