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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।58

मत्– मेरी;चित्तः– चेतना में;सर्व– सारी;दुर्गाणि– बाधाओं को;मत्-प्रसादात्– मेरी कृपा से;तरिष्यसि– तुम पार कर सकोगे;अथ– लेकिन;चेत्– यदि;त्वम्– तुम;अहङ्कारात्– मिथ्या अहंकार से;न श्रोष्यसि– नहीं सुनते हो;विनङ्क्ष्यसि– नष्ट हो जाओगे।

भावार्थ : यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को ल
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।। 15 ।।

सर्वस्य- समस्त प्राणियों;- तथा;अहम्- मैं;हृदि- हृदय में;सन्निविष्टः- स्थित;मत्तः- मुझ से;स्मृतिः- स्मरणशक्ति;ज्ञानम्- ज्ञान;अपोहनम्- विस्मृति;- तथा;वेदैः- वेदों के द्वारा;- भी;सर्वैः- समस्त;अहम्- मैं हूँ;एव- निश्चय ही;वेद्यः- जानने योग्य, ज्ञेय;वेदान्त-कृत- वेदान्त के संकलकर्ता;वेदवित्- वेदों का ज्ञाता;एव-

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ 5

निः-रहित;मान-झूठी प्रतिष्ठा;मोहाः-तथा मोह;जित-जीता गया;सङ्ग-संगति की;दोषाः-त्रुटियाँ;अध्यात्म-आध्यात्मिक ज्ञान में;नित्याः-शाश्वतता में;विनिवृत्तः-विलग;कामाः-काम से;द्वन्द्वैः-द्वैत से;विमुक्ताः-मुक्त;सुख-दुःख-सुख तथा दुख;संज्ञैः-नामक;गच्छन्ति-प्राप्त करते हैं;अमूढाः-मोहरहित;पदम्-पद,स्थान को;अव्ययम्-शाश्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। 26 ।।

माम्- मेरी;- भी;यः- जो व्यक्ति;अव्यभिचारेण- बिना विचलित हुए;भक्ति-योगेन- भक्ति से;सेवते- सेवा करता है;सः- वह;गुणान्- प्रकृति के गुणों को;समतीत्य- लाँघ कर;एतान्- इन सब;ब्रह्म-भूयाय- ब्रह्म पद तक ऊपर उठा हुआ;कल्पते- हो जाता है।

भावार्थ : जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥ 9

अथ- यदि, अतः;चित्तम्- मन को;समाधातुम्- स्थिर करने में;- नहीं;शक्नोषि- समर्थ नहीं हो;मयि- मुझ पर;स्थिरम्- स्थिर भाव से;अभ्यास-योगेन- भक्ति के अभ्यास से;ततः- तब;माम्- मुझको;इच्छ- इच्छा करो;आप्तुम्- प्राप्त करने की;धनञ्जय- हे सम्पत्ति के विजेता, अर्जुन।

भावार्थ : हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

क्लेशोSधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते ।। 5

क्लेशः- कष्ट;अधिकतरः- अत्यधिक;तेषाम्- उन;अव्यक्त- अव्यक्त के प्रति;आसक्त- अनुरक्त;चेतसाम्- मन वालों का;अव्यक्ता- अव्यक्त की ओर;हि- निश्चय ही;गतिः- प्रगति;दुःखम्- दुख के साथ;देह-वद्भिः- देहधारी के द्वारा;अवाप्यते- प्राप्त किया जाता है।

भावार्थ : जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंSशसम्भवम् ।। 41 ।।

यत् – यत्– जो जो;विभूति– ऐश्वर्य ;मत्– युक्त;सत्त्वम्– अस्तित्व;श्री-मत्– सुन्दर;उर्जिवम्– तेजस्वी;एव– निश्चय ही;वा– अथवा;तत्-तत्– वे वे;एव– निश्चय ही;अवगच्छ– जानो;तवम्– तुम;मम– मेरे;तेजः– तेज का;अंश– भाग, अंश से;सम्भवम्– उत्पन्न।
भावार्थ : तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत है
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। 10 ।।

तेषाम्– उन;सतत-युक्तानाम्– सदैव लीन रहने वालों को;भजताम्– भक्ति करने वालों को;प्रीति-पूर्वकम्– प्रेमभावसहित;ददामि– देता हूँ;बुद्धि-योगम्– असली बुद्धि;तम्– वह;येन– जिससे;माम्– मुझको;उपयान्ति– प्राप्त होते हैं;ते– वे।

भावार्थ : जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ स
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु ।

मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः 34 ।।

मत्–मनाः- सदैव मेरा चिन्तन करने वाला;भव– होओ;मत्– मेरा;भक्तः– भक्त;मत्– मेरा;याजी– उपासक;माम्– मुझको;नमस्कुरु– नमस्कार करो;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;एष्यसि– पाओगे;युक्त्वा– लीन होकर;एवम्– इस प्रकार;आत्मानम्– अपनी आत्मा को;मत्-परायणः– मेरी भक्ति में अनुरक्त।

भावार्थ : अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। 30 ।।

अपि– भी;चेत्– यदि;सु-दुराचारः– अत्यन्त गर्हित कर्म करने वाला;भजते– सेवा करता है;माम्– मेरी;अनन्य-भाक्– बिना विचलित हुए;साधुः– साधु पुरुष;एव– निश्चय ही;सः– वह;मन्तव्यः– मानने योग्य;सम्यक्– पूर्णतया;व्यवसितः– संकल्प करना;हि– निश्चय ही;सः– वह।

भावार्थ : यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः 7

तस्मात्– अतएव;सर्वेषु– समस्त;कालेषु– कालों में;माम्– मुझको;अनुस्मर– स्मरण करते रहो;युध्य– युद्ध करो;– भी;मयि– मुझमें;अर्पित– शरणागत होकर;मनः– मन;बुद्धिः– बुद्धि;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;एष्यसि– प्राप्त करोगे;असंशयः– निस्सन्देह ही।

भावार्थ : अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा कर
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप। 27

इच्छा– इच्छा;द्वेष– तथा घृणा;समुत्थेन– उदय होने से;द्वन्द्व– द्वन्द्व से;मोहेन– मोह के द्वारा;भारत– हे भरतवंशी;सर्व– सभी;सम्मोहम्– मोह को;सर्गे– जन्म लेकर;यान्ति– जाते हैं, प्राप्त होते हैं;परन्तप– हे शत्रुओं के विजेता।

भावार्थ : हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते ह

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ 16

चतुः विधाः– चार प्रकार के;भजन्ते– सेवा करते हैं;माम्– मेरी;जनाः– व्यक्ति;सु-कृतिनः– पुण्यात्मा;अर्जुन– हे अर्जुन;आर्तः– विपदाग्रस्त, पीड़ित;जिज्ञासुः– ज्ञान के जिज्ञासु;अर्थ-अर्थी– लाभ की इच्छा रखने वाले;ज्ञानी– वस्तुओं को सही रूप में जानने वाले, तत्त्वज्ञ;– भी;भरत-ऋषभ– हे भरतश्रेष्ठ।
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करत

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अध्याय अठारह - भगवान बलराम द्वारा प्रलम्बासुर का वध (10.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने आनन्द-विभोर साथियों से घिरे हुए, जो निरन्तर उनके यश का गान कर रहे थे, श्रीकृष्ण व्रजग्राम में प्रविष्ट हुए जो गौवों के झुण्डों से मण्डित था।

2 जब कृष्ण तथा बलराम इस तरह से सामान्य ग्वालबालों के वेश में वृन्दावन में जीवन का आनन्द ले रहे थे तो शनै-शनै ग्रीष्म ऋतु आ गई। यह ऋतु देहधारियों को अधिक सुहावनी नहीं लगती।

3 फिर भी, चूँकि साक्षात भगवान कृष्ण बलराम सहित वृन्दावन में रह रहे थे अतएव ग्रीष्म ऋतु वसन्

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अध्याय सोलह - कृष्ण द्वारा कालिय नाग को प्रताड़ना (10.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान श्रीकृष्ण ने यह देखकर कि काले सर्प कालिय ने यमुना नदी को दूषित कर रखा है, उसे शुद्ध करने की इच्छा की और इस तरह उन्होंने कालिय को उसमें से निकाल भगाया।

2 राजा परीक्षित ने पूछा: हे विद्वान मुनि, कृपा करके यह बतलाये कि किस तरह भगवान ने यमुना के अगाध जल में कालिय नाग को प्रताड़ित किया और वह कालिय किस तरह अनेक युगों से वहाँ पर रह रहा था?

3 हे ब्राह्मण, अनन्त भगवान अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र रूप से कर्म करते हैं

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अध्याय ग्यारह – कृष्ण की बाल-लीलाएँ (10.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे महाराज परीक्षित, जब यमलार्जुन वृक्ष गिर पड़े तो आसपास के सारे ग्वाले भयानक शब्द सुनकर वज्रपात की आशंका से उस स्थान पर गये ।

2 वहाँ उन सबने यमलार्जुन वृक्षों को जमीन पर गिरे हुए देखा किन्तु वे विमोहित थे क्योंकि वे आँखों के सामने वृक्षों को गिरे हुए तो देख रहे थे किन्तु उनके गिरने के कारण का पता नहीं लगा पा रहे थे ।

3 कृष्ण रस्सी द्वारा ओखली से बँधे थे जिसे वे खींच रहे थे। किन्तु उन्होंने वृक्षों को किस तरह गिरा लि

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अध्याय नौ माता यशोदा द्वारा कृष्ण का बाँधा जाना (10.9)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: एक दिन जब माता यशोदा ने देखा कि सारी नौकरानियाँ अन्य घरेलू कामकाजों में व्यस्त हैं, तो वे स्वयं ही दही मथने लगीं। दही मथते समय उन्होंने कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का स्मरण किया और गीत बनाते हुए उन्हें गुनगुनाकर आनन्द लेने लगीं।

3 केसरिया-पीली साड़ी पहने, अपनी स्थूल कमर में करधनी बाँधे माता यशोदा मथानी की रस्सी खींचने में काफी परिश्रम कर रही थीं, उनकी चुड़ियाँ तथा कान के कुण्डल हिल-डुल रहे थे और उनका पूरा शरीर

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अध्याय सात तृणावर्त का वध (10.7) 

1-2 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु श्रील शुकदेव गोस्वामी, भगवान के अवतारों द्वारा प्रदर्शित विविध लीलाएँ निश्चित रूप से कानों को तथा मन को सुहावनी लगने वाली हैं। इन लीलाओं के श्रवणमात्र से मनुष्य के मन का मैल तत्क्षण धुल जाता है। सामान्यतया हम भगवान की लीलाओं को सुनने में आनाकानी करते हैं किन्तु कृष्ण की बाल-लीलाएँ इतनी आकर्षक हैं कि वे स्वतः ही मन तथा कानों को सुहावनी लगती हैं। इस तरह भौतिक वस्तुओं के विषय में सुनने की अनुरक्ति, जो भवबन्धन का मूल कारण है, समाप

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