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अध्याय अठारह – वामन अवतार भगवान वामनदेव (8.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब ब्रह्माजी इस प्रकार भगवान के कार्यों एवं पराक्रम का यशोगान कर चुके तो भगवान जिनकी एक सामान्य जीव की भाँति कभी मृत्यु नहीं होती, अदिति के गर्भ से प्रकट हुए। उनके चार हाथ शंख, चक्र, गदा तथा पद्म से सुशोभित थे। वे पीताम्बर धारण किये हुए थे और उनकी आँखें खिले हुए कमल की पंखुड़ियों जैसी प्रतीत हो रही थी।

2 भगवान का शरीर साँवले रंग का था और समस्त उन्मादों से मुक्त था। उनका कमलमुख मकराकृति जैसे कान के कुण्डलों से सुशोभित होकर अत्यन्त सुन्दर लग रहा था और उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था। वे कलाइयों में कंगन पहने थे, अपनी भुजाओं में बाजूबन्द पहने थे, सिर पर मुकुट लगाये थे, उनकी कमर में करधनी थी, छाती पर जनेऊ पड़ा था और उनके चरणकमलों को पायल सुशोभित कर रही थी।

3 उनके वक्षस्थल पर सुन्दर फूलों की असाधारण माला थी और फूलों के अत्यधिक सुगन्धित होने से मधुमक्खियों का बड़ा सा समूह गुंजार करता हुआ शहद के लिए उन पर टूट पड़ा था। जब भगवान अपने गले में कौस्तुभ मणि पहनकर प्रकट हुए तो उनके तेज से प्रजापति कश्यप के घर का अंधकार दूर हो गया।

4 उस समय सभी दिशाओं में, नदी तथा सागर जैसे जलागारों में तथा सबके हृदयों में प्रसन्नता व्याप्त हो गई। विभिन्न ऋतुएँ अपने-अपने गुण दिखलाने लगीं तथा उच्चलोक, बाह्य आकाश एवं पृथ्वी के सारे जीव हर्षित हो उठे। देवता, गाएँ, ब्राह्मण तथा सारे पर्वत हर्ष से पूरित हो गए।

5 श्रवण द्वादशी (भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी) के दिन जब चन्द्रमा श्रवण राशि पर था और शुभ अभिजीत मुहूर्त था, भगवान इस ब्रह्माण्ड में प्रकट हुए। भगवान के प्राकट्य को अत्यन्त शुभ मानकर सूर्य से लेकर शनि इत्यादि समस्त तारे तथा ग्रह अत्यन्त उदार बन गये।

6 हे राजन! द्वादशी के दिन जब भगवान प्रकट हुए तो सूर्य मध्य आकाश में था, जैसा कि प्रत्येक विद्वान को पता है। यह द्वादशी विजया कहलाती है।

7 शंख, ढोल, मृदंग, पणव तथा आनक बजने लगे। इनके तथा अन्य विविध वाद्ययंत्रों की ध्वनि अत्यन्त कोलाहलपूर्ण थी।

8 अत्यधिक हर्षित होकर अप्सराएँ प्रसन्नता के मारे नाचने लगीं, श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे और महा-मुनि, देवता, मनु, पितरगण तथा अग्निदेवों ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए स्तुतियाँ कीं।

9-10 सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, सुपर्ण, सर्पलोक के सर्वश्रेष्ठ निवासी तथा देवताओं के अनुयायी – इन सबों ने भगवान का यशोगान तथा प्रशंसा करते हुए एवं नृत्य करते हुए अदिति के निवास स्थान पर इतने फूल बरसाये कि उनका पूरा घर ढक गया।

11 जब अदिति ने देखा कि भगवान ने जो उनके ही गर्भ से प्रकट हुए थे अपनी आध्यात्मिक शक्ति से दिव्य शरीर धारण कर लिया है, तो वे आश्चर्यचकित हो उठीं और अत्यन्त प्रमुदित हो गई। उस बालक को देखकर प्रजापति कश्यप परम सुख एवं आश्चर्य के वशीभूत होकर जय! जय! का घोष करने लगे।

12 भगवान अपने आदि रूप में आभूषण पहने तथा हाथ में आयुध धारण किये प्रकट हुए। यद्यपि उनका यह सदैव विद्यमान रहने वाला रूप भौतिक जगत में दृश्य नहीं है, तो भी वे इसी रूप में प्रकट हुए। तत्पश्चात अपने माता-पिता की उपस्थिति में ही उन्होंने उसी तरह ब्राह्मण वामन अर्थात ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया जिस तरह कोई नट कर लेता है।

13 जब ऋषियों ने भगवान को ब्रह्मचारी वामन के रूप में देखा तो वे निश्चय ही परम प्रसन्न हुए। अतएव प्रजापति कश्यप मुनि को आगे करके उन्होंने सारे अनुष्ठान यथा-- जन्म संस्कार – सम्पन्न किये।

14 वामनदेव के यज्ञोपवीत संस्कार के समय सूर्यदेव ने स्वयं गायत्री मंत्र का जप कराया, बृहस्पति ने जनेऊ प्रदान किया और कश्यप मुनि ने मूँज की मेखला भेंट की।

15 माता पृथ्वी ने उन्हें मृगचर्म प्रदान किया तथा वनस्पतियों के राजा चन्द्रदेव ने उन्हें ब्रह्मदण्ड (ब्रह्मचारी का डंडा) प्रदान किया। उनकी माता अदिति ने उन्हें कौपीन के लिए वस्त्र तथा स्वर्गलोक के अधिष्ठाता देवता ने उन्हें छत्र प्रदान किया।

16 हे राजन! ब्रह्माजी ने अव्यय भगवान को कमण्डल प्रदान किया, सप्तर्षियों ने कुशा और माता सरस्वती ने उन्हें रुद्राक्ष की माला भेंट की।

17 जब इस प्रकार से वामनदेव का यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो चुका तो यक्षराज कुबेर ने उन्हें भिक्षा माँगने के लिए भिक्षापात्र एवं शिव-पत्नी, ब्रह्माण्ड की परम साध्वी, माता भगवती ने उन्हें पहली भिक्षा दी।

18 इस प्रकार सबके द्वारा स्वागत किये जाने पर ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ वामनदेव ने अपना ब्रह्मतेज प्रदर्शित किया। इस तरह महान सन्त ब्राह्मणों की उस पूरी सभा में वे अपनी सुन्दरता में अद्वितीय लग रहे थे। तत्पश्चात श्री वामनदेव ने यज्ञ-अग्नि प्रज्ज्वलित की, पूजा सम्पन्न की और यज्ञशाला में यज्ञ किया।

20 जब भगवान ने सुना कि बलि महाराज भृगुवंशी ब्राह्मणों के संरक्षण में अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कर रहे हैं, तो सभी प्रकार परिपूर्ण भगवान बलि महाराज पर अपनी कृपा दिखाने के लिए वहाँ के लिए चल पड़े। एक-एक डग भरने पर उनके भार से पृथ्वी नीचे धँसने लगी।

21 नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर भृगुकक्ष नामक क्षेत्र में यज्ञ सम्पन्न करते हुए भृगुवंशी ब्राह्मण पुरोहितों ने वामनदेव को ऐसे देखा मानो पास में ही सूर्य उदय हो रहा हो।

22 हे राजन! वामनदेव के उदीयमान तेज से बलि महाराज एवं सभा के सारे सदस्यों सहित सारे पुरोहित तेजहीन हो गये। वे परस्पर पूछने लगे कि कहीं साक्षात सूर्यदेव या सनत्कुमार या अग्निदेव तो यज्ञोत्सव को देखने नहीं आ गये?

23 जब भृगुवंशी पुरोहित तथा उनके शिष्य अनेक प्रकार के तर्क-वितर्कों में संलग्न थे उसी समय भगवान वामनदेव हाथों में दण्ड, छाता तथा जल से भरा कमण्डल लिए अश्वमेध यज्ञशाला में प्रविष्ट हुए।

24-25 भगवान वामनदेव मूँज की मेखला, जनेऊ, मृगचर्म का उत्तरीय वस्त्र तथा जटाजूट धारण किये हुए ब्राह्मण बालक के रूप में उस यज्ञशाला में प्रविष्ट हुए। उनके तेज से सारे पुरोहितों एवं उनके शिष्यों का तेज घट गया; वे अपने आसनों से उठ खड़े हुए और प्रणाम करते हुए सबों ने समुचित रीति से उनका स्वागत किया।

26 भगवान वामनदेव को देखकर अति प्रफुल्लित बलि महाराज ने परम प्रसन्नतापूर्वक उन्हें बैठने के लिए आसन प्रदान किया। भगवान के शरीर के सुन्दर अंग उनके शरीर की सुन्दरता को समान रूप से योगदान दे रहे थे।

27 इस प्रकार मुक्त्तात्माओं को सदैव सुन्दर लगने वाले भगवान का समुचित स्वागत करते हुए बलि महाराज ने उनके चरणकमल पखारकर उनकी पूजा की।

28 देवताओं में सर्वश्रेष्ठ, ललाट पर चन्द्रमा का प्रतीक-चिन्ह धारण करने वाले शिवजी विष्णु के अँगूठे से निकलने वाले गंगाजल को अपने सिर पर भक्तिपूर्वक धारण करते हैं। धार्मिक सिद्धान्तों को जानने वाले होने के कारण बलि महाराज को यह ज्ञात था; फलस्वरूप शिवजी का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी भगवान के चरणकमलों के प्रक्षालन से प्राप्त जल को अपने सिर पर रख लिया।

29 तब बलि महाराज ने वामनदेव से कहा: हे ब्राह्मण! मैं आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ और आपको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपया बतलायें कि हम आपके लिये क्या करें? हम आपको ब्रह्मर्षियों की तपस्या का साकार रूप मानते हैं।

30 हे प्रभु! आप कृपा करके हमारे घर पधारे हैं अतः मेरे सारे पूर्वज संतुष्ट हो गये, हमारा परिवार तथा समस्त वंश पवित्र हो गया और हम जिस यज्ञ को कर रहे थे वह आपकी उपस्थिति से अब पूरा हो गया।

31 हे ब्राह्मणपुत्र! आज यह यज्ञ-अग्नि शास्त्रों के आदेशानुसार प्रज्ज्वलित हुई है और आपके पादप्रक्षालित जल से मैं अपने पापकर्मों के समस्त फलों से मुक्त हो गया हूँ। हे स्वामी! आपके लघु चरणारविन्द के स्पर्श से समग्र जगती-तल पवित्र हो गया है।

32 हे ब्राह्मणपुत्र ! ऐसा प्रतीत होता है कि आप यहाँ मुझसे कुछ माँगने आये हैं। अतएव आप जो भी चाहें मुझसे ले सकते हैं। हे परम पूज्य! आप गाय, सोना, सज्जित घर, स्वादिष्ट भोजन तथा पेय, पत्नी के रूप में ब्राह्मण कन्या, समृद्ध गाँव, घोड़े, हाथी, रथ या जो भी इच्छा हो मुझसे ले सकते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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