10885295059?profile=RESIZE_584x

अध्याय बाईस – बलि महाराज द्वारा आत्मसमर्पण (8.22)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! यद्यपि ऊपर से ऐसा लग रहा था कि भगवान ने बलि महाराज के साथ दुर्व्यवहार किया है, किन्तु बलि महाराज अपने संकल्प पर अडिग थे। यह सोचते हुए कि मैंने अपना वचन पूरा नहीं किया है, वे इस प्रकार बोले।

2 बलि महाराज ने कहा: हे परमेश्वर, हे सभी देवताओं के परम पूज्य! यदि आप सोचते हैं कि मेरा वचन झूठा हो गया है, तो मैं उसे सत्य बनाने के लिए अवश्य ही भूल सुधार दूँगा। मैं अपने वचन को झूठा नहीं होने दे सकता। अतएव आप कृपा करके अपना तीसरा कमलरूपी पग मेरे सिर पर रखे।

3 मैं अपनी सारी सम्पत्ति से वंचित होने, नारकीय जीवन बिताने, गरीबी के लिए वरुणपाश द्वारा बाँधे जाने या आपके द्वारा दण्डित होने से उतना भयभीत नहीं होता हूँ जितना कि मैं अपनी अपकीर्ति से डरता हूँ।

4 यद्यपि कभी-कभी किसी व्यक्ति के पिता, माता, भाई या मित्र उसके हितैषी होने के कारण उसे दण्डित कर सकते हैं, किन्तु वे कभी भी अपने आश्रित को इस प्रकार दण्डित नहीं करते। किन्तु आप परम पूज्य भगवान हैं अतएव आपने मुझे जो दण्ड दिया है उसे मैं अत्यन्त प्रशंसनीय समझता हूँ।

5 चूँकि आप हम असुरों के अप्रत्यक्ष रूप से महानतम शुभचिन्तक हैं, अतः हमारे सर्वोच्च कल्याण के लिए ऐसे कर्म करते हैं जैसे कि आप हमारे शत्रु हों। चूँकि हम-जैसे असुर सदैव मिथ्या प्रतिष्ठा का पद पाने की महत्त्वाकांक्षा करते हैं, अतएव आप हमें दण्डित करके हमारे ज्ञान-चक्षु खोलते हैं जिनसे हम सन्मार्ग देख सकें।

6-7 आपसे लगातार शत्रुता रखने वाले अनेक असुरों ने अन्ततः महान योगियों की सिद्धि प्राप्त की। आप एक ही कार्य से अनेक उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं; फलस्वरूप यद्यपि आपने मुझे अनेक प्रकार से दण्डित किया है फिर भी मुझे वरुणपाश से बन्दी बनाए जाने की न तो लज्जा है न ही मैं कोई कष्ट अनुभव कर रहा हूँ।

8 मेरे बाबा प्रह्लाद महाराज आपके सारे भक्तों द्वारा मान्य होकर प्रसिद्ध हैं। यद्यपि उनके पिता हिरण्यकशिपु ने उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट दिए थे, फिर भी वे आपके चरणकमलों का आश्रय लेकर आज्ञाकारी बने रहे।

9 उस भौतिक शरीर से क्या लाभ जो जीवन के अन्त में अपने स्वामी को स्वतः छोड़ देता है? और परिवार के उन सभी सदस्यों से क्या लाभ जो वास्तव में उस धन का अपहरण कर लेते हैं, जो दिव्य ऐश्वर्य के लिए भगवान की सेवा में उपयोगी हो सकता है? उस पत्नी से भी क्या लाभ जो भौतिक दशाओं को बढ़ाने की स्रोत मात्र है। उस परिवार, घर, देश तथा जाति से भी क्या लाभ जिसमें आसक्त होने से सारे जीवन की मूल्यवान शक्ति का मात्र अपव्यय होता है।

10 मेरे पितामह जो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ थे और जिन्होंने असीम ज्ञान प्राप्त किया था और जो हरेक द्वारा पूज्य थे, वे इस जगत के सामान्य लोगों से भयभीत रहते थे। आपके चरणकमलों में प्राप्त होने वाले आश्रय को पूर्णतया समझकर ही उन्होंने आपके द्वारा मारे गये अपने पिता तथा अपने असुर मित्रों की इच्छा के विरुद्ध आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी।

11 मैं तो देववश ही बलपूर्वक होकर आपके चरणों में लाया गया हूँ और अपने समस्त ऐश्वर्य से विहीन कर दिया गया हूँ। सामान्य संसारी लोग भौतिक स्थितियों में रहते हुए नश्वर ऐश्वर्य द्वारा उत्पन्न मोह के कारण पग पग पर आकस्मिक मृत्यु का सामना करते हुए भी नहीं समझ पाते कि यह जीवन नश्वर है। मैं तो देववश ही उस स्थिति से बच गया हूँ।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ! जब बलि महाराज इस प्रकार अपने भाग्य की प्रशंसा कर रहे थे तो भगवान के परम प्रिय भक्त प्रह्लाद महाराज वहाँ प्रकट हुए मानो रात्रि में चन्द्रमा उदय हो गया हो।

13 तब बलि महाराज ने परम भाग्यशाली व्यक्ति अपने पितामह प्रह्लाद महाराज को देखा जिनका श्यामल शरीर आँखों के अंजन जैसा लग रहा था। उनका लम्बा, भव्य शरीर पीताम्बर धारण किये था, उनकी भुजाएँ लम्बी थीं और उनकी सुन्दर आँखें कमल की पंखुड़ियों के समान थीं। वे सबके अत्यन्त प्रिय तथा मोहक थे।

14 वरुणपाश से बँधे होने के कारण बलि महाराज पहले की तरह प्रह्लाद महाराज को भलीभाँति सम्मान नहीं दे पाये। उन्होंने केवल सिर के द्वारा प्रणाम किया, उनके नेत्र अश्रुपूरित थे और लज्जा से उनका सिर नीचा था।

15 जब प्रह्लाद महाराज ने देखा कि वहाँ पर सुनन्द जैसे अपने घनिष्ठ संगियों से घिर कर एवं पूजित होकर भगवान बैठे हैं, तो उनकी आँखें प्रेमाश्रुओं से छलछला उठीं। उनके पास जाकर और भूमि पर गिरकर उन्होंने सिर के बल भगवान को प्रणाम किया।

16 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे प्रभु ! इस बलि को इन्द्र-पद का महान ऐश्वर्य आपकी ही देन है और अब उसको आपने ही छीन लिया है। मेरे विचार से आपने दोनों ही बार समान सुन्दरता से कार्य किया है। चूँकि स्वर्ग के राजा का उच्च पद उसे अज्ञान के अंधकार में डाले हुए था अतएव आपने उसका सारा ऐश्वर्य छीनकर उसके ऊपर महान अनुग्रह किया है।

17 भौतिक ऐश्वर्य इतना मोहक है कि विद्वान तथा आत्मसंयमी व्यक्ति भी आत्म-साक्षात्कार के लक्ष्य को खोजना भूल जाता है। लेकिन भगवान नारायण, जो ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, अपनी इच्छानुसार प्रत्येक वस्तु को देख सकते हैं। अतएव मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजा परीक्षित! तब ब्रह्माजी अपने पास हाथ जोड़कर खड़े प्रह्लाद महाराज को सुनाकर भगवान से कहने लगे।

19 लेकिन बलि महाराज की सती पत्नी अपने पति को बन्दी देखकर भयभीत तथा दुःखी थी। उसने तुरन्त भगवान वामनदेव (उपेंद्र) को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली।

20 श्रीमती विंध्यावलि ने कहा: हे प्रभु! आपने निजी लीलाओं का आनन्द उठाने के लिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की है, किन्तु मूर्ख तथा बुद्धिहीन व्यक्तियों ने भौतिक भोग के लिए उस पर अपना स्वामित्व जताया है। निस्सन्देह, वे निर्लज्ज संशयवादी हैं। वे झूठे ही स्वामित्व जताकर यह सोचते हैं कि वे उसको दान दे सकते हैं और भोग सकते हैं। ऐसी दशा में भला वे आपकी कौन सी भलाई कर सकते हैं, जो इस ब्रह्माण्ड के स्वतंत्र स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं?

21 ब्रह्माजी ने कहा: हे समस्त जीवों के हितैषी एवं स्वामी, हे सभी देवताओं के पूज्य देव, हे सर्वव्यापी भगवान! अब यह व्यक्ति पर्याप्त दण्ड पा चुका है क्योंकि आपने इसका सर्वस्व ले लिया है। अब आप इसे छोड़ दें। अब यह और अधिक दण्डित होने का पात्र नहीं है।

22 बलि महाराज ने आपको पहले ही अपना सर्वस्व दे दिया था। उन्होंने बिना हिचक के अपनी भूमि, अपने सारे लोक तथा अपने पुण्यकर्मों से जो कुछ भी अर्जित किया था, यहाँ तक कि अपने शरीर को भी अर्पित कर दिया है।

23 जिनके मन में द्वैत नहीं होता वे आपके चरणों में केवल जल, दूर्वादल या अंकुर अर्पित करके वैकुण्ठ में उच्चतम स्थान प्राप्त कर सकते हैं। इन बलि महाराज ने अब बिना द्वैत के तीनों लोकों की प्रत्येक वस्तु आपको अर्पित कर दी है। तो फिर वे बन्दी होने के कष्ट के भागी कैसे हो सकते हैं?

24 भगवान ने कहा: हे ब्रह्माजी ! भौतिक ऐश्वर्य के कारण मूर्ख व्यक्ति मन्दबुद्धि एवं पागल हो जाता है। इस तरह तीनों लोकों में वह किसी का सम्मान नहीं करता और मेरी सत्ता की भी अवहेलना करता है। सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति की सारी सम्पत्ति छीनकर मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ।

25 अपने ही सकाम कर्मों के कारण विभिन्न योनियों में जन्म-मरण के चक्र में बारम्बार घूमते हुए परतंत्र जीव सौभाग्य से मनुष्य का शरीर प्राप्त कर सकता है। यह मनुष्य-जन्म विरले ही प्राप्त हो पाता है।

26 यदि कोई मनुष्य उच्चकुल में जन्मा हो, यदि वह अद्भुत कर्म करे, यदि वह तरुण हो, यदि उसके पास सौन्दर्य, उत्तम शिक्षा तथा प्रचुर सम्पत्ति हो और यदि वह इतने पर भी अपने ऐश्वर्य पर न इतराये तो यह समझना चाहिए कि उस पर भगवान की विशेष कृपा है।

27 यद्यपि उच्चकुल में जन्म एवं ऐसे अन्य ऐश्वर्य भक्ति की उन्नति में बाधक होते हैं क्योंकि ये झूठी प्रतिष्ठा तथा घमण्ड के कारण हैं, किन्तु भगवान के अनन्य भक्त को ये ऐश्वर्य कभी विचलित नहीं करते।

28 बलि महाराज असुरों एवं नास्तिकों में सर्वाधिक विख्यात हो गये हैं क्योंकि अपने सारे ऐश्वर्य से वंचित होकर भी वे अपनी भक्ति में अचल हैं।

29-30 बलि महाराज यद्यपि धनविहीन, अपने मौलिक पद से च्युत, अपने शत्रुओं द्वारा पराजित तथा बन्दी बनाये गये, अपने कुटुम्बियों तथा मित्रों द्वारा भर्त्सित हुए और परित्यक्त, बाँधे जाने की पीड़ा से त्रस्त तथा अपने गुरु द्वारा भर्त्सित तथा शापित थे, किन्तु वे अपने व्रत में अटल रहे। उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा। मैंने तो निश्चित रूप से छल से धर्म के विषय में बातें कहीं, किन्तु उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा क्योंकि वे अपने वचन के पक्के हैं।

31 भगवान ने आगे कहा: उसकी महान सहनशक्ति के कारण मैंने उसे वह स्थान प्रदान किया है, जो देवताओं को भी सुलभ नहीं हो पाता। वह सावर्णि मनु के कार्यकाल में स्वर्ग का राजा (इन्द्र) बनेगा।

32 जब तक बलि महाराज स्वर्ग के राजा (इन्द्र) का पद प्राप्त नहीं कर लेते तब तक वे सुतललोक में रहेंगे जिसे विश्वकर्मा ने मेरे आदेश से निर्मित किया था। चूँकि इसकी रक्षा मेरे द्वारा विशेष रूप से होती है अतएव यह मानसिक तथा शारीरिक व्याधियों, थकान, आलस्य, पराजय तथा अन्य सभी उपद्रवों से मुक्त है। हे बलि महाराज! अब तुम वहाँ जाकर शान्तिपूर्वक रह सकते हो।

33 हे बलि महाराज (इन्द्रसेन)! तुम उस सुतललोक में जाओ जिसकी कामना देवता भी करते हैं। वहाँ अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों की संगति में शान्तिपूर्वक रहो। तुम्हारा कल्याण हो।

34 सुतललोक में, सामान्य लोग तो क्या, अन्य लोकों के प्रधान देवता भी तुम्हें नहीं जीत पायेंगे। रही असुरों की बात, यदि वे तुम्हारे शासन का उल्लंघन करेंगे तो मेरा चक्र उनका वध कर देगा।

35 हे शूरवीर! मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा और तुम्हारे संगियों तथा साज-सामग्री समेत तुम्हें सभी प्रकार से संरक्षण प्रदान करूँगा। साथ ही, तुम वहाँ मुझे सदैव देख सकोगे।

36 चूँकि तुम्हें वहाँ मेरे परम पराक्रम का दर्शन होगा अतएव असुरों तथा दानवों की संगति से तुममें जो भौतिकतावादी विचार एवं चिन्ताएँ उदित हुई हैं, वे तुरन्त ही विनष्ट हो जायेंगी।

( समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान )

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
  • हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 💐💐💐
This reply was deleted.