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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः 26

पत्रम्– पत्ती;पुष्पम्– फूल;फलम्- फल;तोयम्– जल;यः– जो कोई;मे– मुझको;भक्त्या– भक्तिपूर्वक;प्रयच्छति– भेंट करता है;तत्– वह;अहम्– मैं;भक्ति-उपहृतम्– भक्तिभाव से अर्पित;अश्नामि– स्वीकार करता हूँ;प्रयत-आत्मनः– शुद्धचेतना वाले से।

भावार्थ : यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।

तात्पर्य

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोSपि माम् ।। 25 ।।

यान्ति– जाते हैं;देव-व्रताः– देवताओं के उपासक;देवान्– देवताओं के पास;पितृृन्– पितरों के पास;यान्ति– जाते हैं;पितृ-व्रताः– पितरों के उपासक;भूतानि– भूत-प्रेतों के पास;यान्ति– जाते हैं;भूत-इज्याः– भूत-प्रेतों के उपासक;यान्ति– जाते हैं;मत्– मेरे;याजिनः– भक्तगण;अपि– लेकिन;माम्– मेरे पास।

भावार्थ : जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओ
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् 22

अनन्याः– जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से;चिन्तयन्तः– चिन्तन करते हुए;माम्– मुझको;ये– जो;जनाः– व्यक्ति;पर्युपासते– ठीक से पूजते हैं;तेषाम्– उन;नित्य– सदा;अभियुक्तानाम्– भक्ति में लीन मनुष्यों की;योग– आवश्यकताएँ;क्षेमम्– सुरक्षा, आश्रय;वहामि– वहन करता हूँ;अहम्– मैं।

भावार्थ : किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान कर

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।

नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ।। 14 ।।

सततम्– निरन्तर;कीर्तयन्तः– कीर्तन करते हुए;माम्– मेरे विषयमें;यतन्तः– प्रयास करते हुए;– भी;दृढ़-व्रताः– संकल्पपूर्वक;नमस्यन्तः–नमस्कार करते हुए;– तथा;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति में;नित्य-युक्ताः–सदैव रत रहकर;उपासते– पूजा करते हैं।

भावार्थ : ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए,

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ।। 12 ।।

मोघ-आशाः– निष्फल आशा;मोघ-कर्माणः– निष्फल सकाम कर्म;मोघ-ज्ञानाः– विफल ज्ञान;विचेतसः– मोहग्रस्त;राक्षसीम्– राक्षसी;आसुरीम्– आसुरी;– तथा;एव– निश्चय ही;प्रकृतिम्– स्वभाव को;मोहिनीम्– मोहने वाली;श्रिताः– शरण ग्रहण किये हुए।
भावार्थ : जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्  ।। -11- ।।

अवजानन्ति– उपहास करते हैं;माम्– मुझको;मूढाः– मूर्ख व्यक्ति;मानुषीम्– मनुष्य रूप में;तनुम्– शरीर;अश्रितम्– मानते हुए;परम्– दिव्य;भावम्– स्वभाव को;अजानन्तः– न जानते हुए;मम– मेरा;भूत– प्रत्येक वस्तु का;महा-ईश्वरम्– परम स्वामी।
भावार्थ : जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ।। 28 ।।

वेदेषु– वेदाध्ययन में;यज्ञेषु– यज्ञ सम्पन्न करने में;तपःसु– विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ करने में;– भी;एव– निश्चय ही;दानेषु– दान देने में;यत्– जो;पुण्य-फलम्– पुण्यकर्म का फल;प्रदिष्टम्– सूचित;अत्येति– लाँघ जाता है;तत् सर्वम्– वे सब;इदम्– यह;विदित्वा– जानकर;योगी– योगी;परम्– परम;स्थानम्– धाम को;उपैति– प्राप्त करता है
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोSर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते 16

-ब्रह्म-भुवनात्– ब्रह्मलोक तक;लोकाः– सारे लोक;पुनः– फिर;आवर्तिनः– लौटने वाले;अर्जुन– हे अर्जुन;माम्– मुझको;उपेत्य– पाकर;तु– लेकिन;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;पुनःजन्म– पुनर्जन्म;– कभी नहीं;विद्यते– होता है।

भावार्थ : इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मे
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।। 14 ।।

अनन्य-चेताः– अविचलित मन से;सततम्– सदैव;यः– जो;माम्– मुझ (कृष्ण) को;स्मरति– स्मरण करता है;नित्यशः– नियमित रूप से;तस्य– उस;अहम्– मैं हूँ;सु-लभः– सुलभ, सरलता से प्राप्य;पार्थ– हे पृथापुत्र;नित्य– नियमित रूप से;युक्तस्य– लगे हुए;योगिनः– भक्त के लिए।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भ

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।। 5।।

अन्त-काले– मृत्यु के समय;– भी;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;स्मरन्– स्मरण करते हुए;मुक्त्वा– त्याग कर;कलेवरम्– शरीर को;यः– जो;प्रयाति– जाता है;सः– वह;मत्-भावम्– मेरे स्वभाव को;याति– प्राप्त करता है;– नहीं;अस्ति– है;अत्र– यहाँ;संशयः– सन्देह

भावार्थ : और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्रा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः 28

येषाम्– जिन;तु– लेकिन;अन्त-गतम्– पूर्णतया विनष्ट;पापम्– पाप;जनानाम्– मनुष्यों का;पुण्य– पवित्र;कर्मणाम्– जिनके पूर्व कर्म;ते– वे;द्वन्द्व– द्वैत के;मोह– मोह से;निर्मुक्ताह– मुक्त;भजन्ते– भक्ति में तत्पर होते हैं;माम्– मुझको;दृढ-व्रताः– संकल्पपूर्वक।

भावार्थ : जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन 26

वेद– जानता हूँ;अहम्– मैं;समतीतानि– भूतकाल को;वर्तमानानि– वर्तमान को;– तथा;अर्जुन– हे अर्जुन;भविष्याणि– भविष्य को;– भी;भूतानि– सारे जीवों को;माम्– मुझको;तु– लेकिन;वेद– जानता है;– नहीं;कश्चन– कोई।

भावार्थ : हे अर्जुन! श्रीभगवान् होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ। मै

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।

मूढोSयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् 25

– न तो;अहम्– मैं;प्रकाशः– प्रकट;सर्वस्य– सबों के लिए;योग-माया– अन्तरंगा शक्ति से;समावृत– आच्छादित;मूढः– मुर्ख;अयम्– यह;– नहीं;अभिजानाति– समझ सकता है;लोकः– लोग;माम्– मुझको;अजम्– अजन्मा को;अव्ययम्– अविनाशी को।

भावार्थ : मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ। उनके लिए तो मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः 19

बहूनाम्– अनेक;जन्मनाम्– जन्म तथा मृत्यु के चक्र के;अन्ते– अन्त में;ज्ञान-वान्– ज्ञानी;माम्– मेरी;प्रपद्यते– शरण ग्रहण करता है;वासुदेवः– भगवान् कृष्ण;सर्वम्– सब कुछ;इति– इस प्रकार;सः– ऐसा;महा-आत्मा– महात्मा;सु-दुर्लभः– अत्यन्त दुर्लभ है।

भावार्थ : अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः 19

बहूनाम्– अनेक;जन्मनाम्– जन्म तथा मृत्यु के चक्र के;अन्ते– अन्त में;ज्ञान-वान्– ज्ञानी;माम्– मेरी;प्रपद्यते– शरण ग्रहण करता है;वासुदेवः– भगवान् कृष्ण;सर्वम्– सब कुछ;इति– इस प्रकार;सः– ऐसा;महा-आत्मा– महात्मा;सु-दुर्लभः– अत्यन्त दुर्लभ है।

भावार्थ : अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः 15

– नहीं;माम्– मेरी;दुष्कृतिनः– दुष्ट;मूढाः– मूर्ख;प्रपद्यन्ते– शरण ग्रहण करते हैं;नर-अधमाः– मनुष्यों में अधम;मायया– माया के द्वारा;अपहृत– चुराये गये;ज्ञानाः– ज्ञान वाले;आसुरम्– आसुरी;भावम्– प्रकृति या स्वभाव को;आश्रिताः– स्वीकार किये हुए।

भावार्थ : जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्ति

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अध्याय चौदह ब्रह्मा द्वारा कृष्ण की स्तुति (10.14)

1 ब्रह्मा ने कहा: हे प्रभु, आप ही एकमात्र पूज्य भगवान हैं अतएव आपको प्रसन्न करने के लिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ और आपकी स्तुति करता हूँ। हे ग्वालनरेश पुत्र, आपका दिव्य शरीर नवीन बादलों के समान गहरा नीला है; आपके वस्त्र बिजली के समान देदीप्यमान हैं और आपके मुखमण्डल का सौन्दर्य गुञ्जा के बने कुण्डलों से तथा सिर पर लगे मोरपंख से बढ़ जाता है। अनेक वन-फूलों तथा पत्तियों की माला पहने तथा चराने की छड़ी (लकुटी), शृंग और वंशी से सज्जित आप अपने हाथ

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अध्याय तेरह ब्रह्मा द्वारा बालकों तथा बछड़ों की चोरी (10.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे भक्त शिरोमणि, परम भाग्यशाली परीक्षित, तुमने बहुत सुन्दर प्रश्न किया है क्योंकि भगवान की लीलाओं को निरन्तर सुनने पर भी तुम उनके कार्यों को नित्य नूतन रूप में अनुभव कर रहे हो।

2 जीवन-सार को स्वीकार करने वाले परम हंस भक्त अपने अन्तःकरण से कृष्ण के प्रति अनुरक्त होते हैं और कृष्ण ही उनके जीवन के लक्ष्य रहते हैं। प्रतिक्षण कृष्ण की ही चर्चा करना उनका स्वभाव होता है, मानो ये कथाएँ नित्य नूतन हों। वे इन कथाओ

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