hindi bhashi sangh (140)

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अध्याय उन्तीस – भगवान कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या (3.29)

1-2 देवहूति ने जिज्ञासा की: हे प्रभु, आप सांख्य दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण प्रकृति तथा आत्मा के लक्षणों का अत्यन्त वैज्ञानिक रीति से पहले ही वर्णन कर चुके हैं। अब मैं आपसे प्रार्थना करूँगी कि आप भक्ति के मार्ग की व्याख्या करें, जो समस्त दार्शनिक प्रणालियों की चरम परिणति है।

3 देवहूति ने आगे कहा: हे प्रभु, कृपया मेरे तथा जन-साधारण दोनों के लिए जन्म-मरण की निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करें, जिससे ऐसी विपदाओं को सुनकर हम इस

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अध्याय अट्ठाईस – भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश (3.28)

1 भगवान ने कहा: हे माता, हे राजपुत्री, अब मैं आपको योग विधि बताऊँगा जिसका उद्देश्य मन को केन्द्रित करना है। इस विधि का अभ्यास करने से मनुष्य प्रसन्न रहकर परम सत्य के मार्ग की ओर अग्रसर होता है।

2 मनुष्य को चाहिए कि वह यथाशक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करे और उन कर्मों को करने से बचे, जो उसे नहीं करने हैं। उसे ईश्वर की कृपा से जो भी प्राप्त हो उसी से संतुष्ट रहना चाहिए और गुरु के चरणकमलों की पूजा करनी चाहिए।

3 मनुष्य को चाहिए कि परम्परा गत धार्

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केवल वही, जिसने भगवान कृष्ण के चरणकमलों की शरण ले ली है -- (मामेव ये प्रपद्यन्ते) माया के चंगुल से छूट जाता है।   

(तात्पर्य 3.27.19 -- श्रील प्रभुपाद)

अध्याय सत्ताईस – प्रकृति का ज्ञान (3.27)

1 भगवान कपिल ने आगे कहा: जिस प्रकार सूर्य जल पर पड़ने वाले प्रतिबिम्ब से भिन्न रहता है उसी तरह जीवात्मा शरीर में स्थित होकर भी प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहता है, क्योंकि वह अपरिवर्तित रहता है और किसी प्रकार की इन्द्रियतुष्टि का कर्म नहीं करता।

2 जब आत्मा प्रकृति के जादू तथा अहंकार के वशीभूत होता है और शरीर

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अध्याय छब्बीस – प्रकृति के मूलभूत सिद्धान्त (3.26)

1 भगवान कपिल ने आगे कहा: हे माता, अब मैं तुमसे परम सत्य की विभिन्न कोटियों का वर्णन करूँगा जिनके जान लेने से कोई भी पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त हो सकता है।

2 आत्म-साक्षात्कार की चरम सिद्धि ज्ञान है। मैं तुमको वह ज्ञान बताऊँगा जिससे भौतिक संसार के प्रति आसक्ति की ग्रंथियाँ कट जाती हैं।

3 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान परमात्मा है और उनका आदि नहीं है। वे प्रकृति के गुणों और इस भौतिक जगत के अस्तित्व से परे हैं। वे सर्वत्र दिखाई पड़ने वाले हैं,

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अध्याय पच्चीस – भक्तियोग की महिमा (3.25)

1 श्री शौनक ने कहा: यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अजन्मा हैं, किन्तु उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति से कपिल मुनि के रूप में जन्म धारण किया। वे सम्पूर्ण मानव जाति के लाभार्थ दिव्य ज्ञान का विस्तार करने के लिए अवतरित हुए।

2 शौनक ने आगे कहा: स्वयं भगवान से अधिक जानने वाला कोई अन्य नहीं है। न तो कोई उनसे अधिक पूज्य है, न अधिक प्रौढ़ योगी। अतः वे वेदों के स्वामी हैं और उनके विषय में सुनते रहना इन्द्रियों को सदैव वास्तविक आनन्द प्रदान करने वाला है।

3 अतः कृपया उन

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अध्याय चौबीस – कर्दम मुनि का वैराग्य (3.24)

1 भगवान विष्णु के वचनों का स्मरण करते हुए कर्दम मुनि ने वैराग्यपूर्ण बातें करने वाली, स्वायम्भुव मनु की प्रशंसनीय पुत्री देवहूति से इस प्रकार कहा।

2 मुनि ने कहा: हे राजकुमारी, तुम अपने आपसे निराश न हो। तुम निस्सन्देह प्रशंसनीय हो। अविनाशी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान शीघ्र ही पुत्र रूप में तुम्हारे गर्भ में प्रवेश करेंगे।

3 तुमने पवित्र व्रत धारण किये हैं। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे। अब तुम ईश्वर की पूजा अत्यन्त श्रद्धा, संयम, नियम, तप तथा अपने धन के दान द्वार

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अध्याय तेईस – देवहूति का शोक (3.23)

1 मैत्रेय ने कहा: अपने माता-पिता के चले जाने पर अपने पति की इच्छाओं को समझनेवाली पतिव्रता देवहूति अपने पति की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी जिस प्रकार भवानी अपने पति शंकरजी की करती हैं।

2 हे विदुर, देवहूति ने अत्यन्त आत्मीयता और आदर के साथ, इन्द्रियों को वश में रखते हुए, प्रेम तथा मधुर वचनों से अपने पति की सेवा की।

3 बुद्धिमानी तथा तत्परता के साथ कार्य करते हुए उसने समस्त काम, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप तथा मद को त्यागकर अपने शक्तिशाली पति को प्रसन्न कर लिया।

4

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अध्याय बाईस – कर्दममुनि तथा देवहूति का परिणय (3.22)

1 श्रीमैत्रेय ने कहा : सम्राट के अनेक गुणों तथा कार्यों की महानता का वर्णन करने के पश्चात मुनि शान्त हो गये और राजा ने संकोचवश उन्हें इस प्रकार से सम्बोधित किया।

2 मनु ने कहा: वेदस्वरूप ब्रह्मा ने वैदिक ज्ञान के विस्तार हेतु अपने मुख से आप जैसे ब्राह्मणों को उत्पन्न किया है, जो तप, ज्ञान तथा योग से युक्त और इन्द्रियतृप्ति से विमुख हैं।

3 ब्राह्मणों की रक्षा के लिए सहस्र-पाद विराट पुरुष ने हम क्षत्रियों को अपनी सहस्र भुजाओं से उत्पन्न किया। अतः ब

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अध्याय इक्कीस – मनु-कर्दम संवाद (3.21)

1 विदुर ने कहा: स्वायम्भुव मनु की वंश परम्परा अत्यन्त आदरणीय थी। हे पूज्य ऋषि, मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस वंश का वर्णन करें जिसकी सन्तति-वृद्धि मैथुनधर्म के द्वारा हुई।

2 स्वायम्भुव मनु के दो पुत्रों--प्रियव्रत तथा उत्तानपाद--ने धार्मिक नियमानुसार सप्त द्वीपों वाले इस संसार पर राज्य किया।

3 हे पवित्र ब्राह्मण, हे पापविहीन पुरुष, आपने उनकी पुत्री के विषय में कहा है कि वे प्रजापति ऋषि कर्दम की पत्नी देवहूति थीं।

4 उस महायोगी ने, जिसे अष्टांग योग के सिद्

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अध्याय बीस – मैत्रेय – विदुर संवाद (3.20)

1 श्री शौनक ने पूछा- हे सूत गोस्वामी, जब पृथ्वी अपनी कक्षा में पुनः स्थापित हो गई तो स्वायम्भुव मनु ने बाद में जन्म ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को मुक्ति-मार्ग प्रदर्शित करने के लिए क्या-क्या किया?

2 शौनक ऋषि ने विदुर के बारे में जानना चाहा, जो भगवान कृष्ण का महान भक्त एवं सखा था और जिसने भगवान के लिए ही अपने उस ज्येष्ठ भाई का साथ छोड़ दिया था जिसने अपने पुत्रों के साथ मिलकर भगवान की इच्छा के विरुद्ध षड्यंत्र किया था।

3 विदुर वेदव्यास के आत्मज थे और उनसे कि

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अध्याय उन्नीस – असुर हिरण्याक्ष का वध (3.19)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: स्रष्टा ब्रह्मा के निष्पाप, निष्कपट तथा अमृत के समान मधुर वचनों को सुनकर भगवान जी भरकर हँसे और उन्होंने प्रेमपूर्ण चितवन के साथ उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

2 ब्रह्मा के नथुने से प्रकट भगवान उछले और सामने निर्भय होकर विचरण करने वाले असुर शत्रु हिरण्याक्ष की ठोड़ी पर उन्होंने अपनी गदा से प्रहार किया।

3 किन्तु असुर की गदा से टकराकर भगवान की गदा उनके हाथ से छिटक गई और घूमती हुई जब वह नीचे गिरी तो अत्यन्त मनोरम लग रही थी। यह अद्भुत द

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अध्याय अठारह – भगवान वराह तथा असुर हिरण्याक्ष के मध्य युद्ध (3.18)

1 मैत्रेय ने आगे कहा : उस घमण्डी तथा अभिमानी दैत्य ने वरुण के शब्दों की तनिक भी परवाह नहीं की। हे विदुर, उसे नारद से श्रीभगवान के बारे में पता लगा और वह अत्यन्त वेग से समुद्र की गहराइयों में पहुँच गया।

2 वहाँ उसने सर्वशक्तिमान श्रीभगवान को उनके वराह रूप में, अपनी दाढ़ों के अग्रभाग पर पृथ्वी को ऊपर की ओर धारण किये तथा अपनी लाल लाल आँखों से उसके समस्त तेज को हरते हुए देखा। इस पर वह असुर हँस पड़ा और बोला, “ओह कैसा उभयचर पशु है?”

3 अस

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अध्याय सोलह – वैकुण्ठ के दो द्वारपालों जय-विजय, को मुनियों द्वारा शाप (3.16)

1 ब्रह्माजी ने कहा: इस तरह मुनियों को उनके मनोहर शब्दों के लिए बधाई देते हुए भगवद्धाम में निवास करनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने इस प्रकार कहा ।

2 भगवान ने कहा: जय तथा विजय नामक मेरे इन परिचरों ने मेरी अवज्ञा करके आपके प्रति महान अपराध किया है ।

3 हे मुनियों, आप लोगों ने उन्हें जो दण्ड दिया है उसका मैं अनुमोदन करता हूँ, क्योंकि आप मेरे भक्त हैं।

4 मेरे लिए ब्राह्मण सर्वोच्च तथा सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति है। मेरे सेवकों द्

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चारों चिरकुमारों (सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार) को पार्षदों के साथ श्रीभगवान का दर्शन 3.15.38-45  ~~श्रील प्रभुपाद~~

अध्याय पन्द्रह – ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन (3.15)

1 श्री मैत्रेय ने कहा: हे विदुर, महर्षि कश्यप की पत्नी दिति यह समझ गई कि उसके गर्भ में स्थित पुत्र देवताओं के विक्षोभ के कारण बनेंगे। अतः वह कश्यप मुनि के तेज को अपने गर्भ में एक सौ वर्षों तक निरन्तर धारण किये रही, क्योंकि यह अन्यों को कष्ट देने वाला था।

2 दिति के गर्भधारण करने से सारे लोकों में सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश

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अध्याय चौदह – संध्या समय दिति का गर्भ-धारण (3.14)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महर्षि मैत्रेय से वराह रूप में भगवान के अवतार के विषय में सुनकर दृढ़संकल्प विदुर ने हाथ जोड़कर उनसे भगवान के अगले दिव्य कार्यों के विषय में सुनाने की प्रार्थना की, क्योंकि वे (विदुर) अब भी तुष्ट अनुभव नहीं कर रहे थे।

2 विदुर ने कहा: हे मुनिश्रेष्ठ, मैंने शिष्य-परम्परा से यह सुना है कि आदि असुर हिरण्याक्ष उन्हीं यज्ञ रूप भगवान (वराह) द्वारा मारा गया था।

3 हे ब्राह्मण, जब भगवान अपनी लीला के रूप में पृथ्वी ऊपर उठा रहे थ

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अध्याय तेरह – भगवान वराह का प्राकट्य (3.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, मैत्रेय मुनि से इन समस्त पुण्यतम कथाओं को सुनने के बाद विदुर ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की कथाओं के विषय में और अधिक पूछताछ की, क्योंकि इनका आदरपूर्वक सुनना उन्हें पसंद था।

2 विदुर ने कहा: हे मुनि, ब्रह्मा के प्रिय पुत्र स्वायम्भुव ने अपनी अतीव प्रिय पत्नी को पाने के बाद क्या किया?

3 हे पुण्यात्मा श्रेष्ठ, राजाओं का आदि राजा (मनु) भगवान हरि का महान भक्त था, अतएव उसके शुद्ध चरित्र तथा कार्यकलाप सुनने योग्य हैं। कृप

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प्रथम पुरुष कारणोदकशायी, द्वितीय पुरुष गर्भोदकशायी तथा तृतीय पुरुष क्षीरोदकशायी विष्णु हैं, जिनमें विराट पुरुष की कल्पना की जाती है, जिसमें सारे लोक अपने विभिन्न विस्तीर्णताओं तथा निवासियों समेत तैरते रहते हैं।    तात्पर्य - 3.7.22  श्रील प्रभुपाद

अध्याय सात – विदुर द्वारा अन्य प्रश्न (3.7)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, जब महर्षि मैत्रेय इस प्रकार से बोल रहे थे तो द्वैपायन व्यास के विद्वान पुत्र विदुर ने यह प्रश्न पूछते हुए मधुर ढंग से एक अनुरोध व्यक्त किया।

2 श्री विदुर ने कहा : हे मह

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अध्याय दस – भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है (2.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस श्रीमदभागवत में दस विभाग हैं, जो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, उप—सृष्टि, लोकान्तर, भगवान द्वारा पोषण, सृष्टि प्रेरणा, मनुओं के परिवर्तन, ईश्वर ज्ञान, अपने घर—भगवदधाम गमन, मुक्ति तथा आश्रय से सम्बन्धित है।

2 इनमें से जो दसवाँ 'आश्रय' तत्त्व है उसकी दिव्यता को अन्यों से पृथक करने के लिए, उन सबका वर्णन कभी वैदिक साक्ष्य से, कभी प्रत्यक्ष व्याख्या से और कभी महापुरुषों द्वारा दी गई संक्षिप्त व्याख्याओं से किया जाता है।

3

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अध्याय नौ – श्रीभगवान के वचन का उद्धरण देते हुए प्रश्नों के उत्तर (2.9)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, जब तक मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की शक्ति से प्रभावित नहीं होता तब तक भौतिक शरीर के साथ शुद्ध चेतना में शुद्ध आत्मा का सम्बन्ध कोई अर्थ नहीं रखता। ऐसा सम्बन्ध स्वप्न देखने वाले द्वारा अपने ही शरीर को कार्य करते हुए देखने के समान है।

2 मोहग्रस्त जीवात्मा भगवान की बहिरंगा शक्ति के द्वारा प्रदत्त अनेक रूप धारण करता है। जब बद्ध जीवात्मा भौतिक प्रकृति के गुणों में रम जाता है, तो वह भूल स

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अध्याय आठ – राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न(2.8)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा कि नारद मुनि ने, जिनके श्रोता ब्रह्माजी द्वारा उपदेशित श्रोता जितने ही भाग्यशाली हैं, किस प्रकार भौतिक गुणों से रहित भगवान के दिव्य गुणों का वर्णन किया और वे किन-किन के समक्ष बोले?

2 राजा ने कहा: मैं यह जानने का इच्छुक हूँ। अद्भुत शक्तियों से सम्पन्न भगवान से सम्बन्धित कथाएँ निश्चय ही समस्त लोकों के जीवों के लिए शुभ हैं।

3 हे परम भाग्यशाली श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप मुझे कृपा करके श्रीमदभागवत सुन

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