laxminarayan (23)

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अध्याय अठारह - भगवान बलराम द्वारा प्रलम्बासुर का वध (10.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने आनन्द-विभोर साथियों से घिरे हुए, जो निरन्तर उनके यश का गान कर रहे थे, श्रीकृष्ण व्रजग्राम में प्रविष्ट हुए जो गौवों के झुण्डों से मण्डित था।

2 जब कृष्ण तथा बलराम इस तरह से सामान्य ग्वालबालों के वेश में वृन्दावन में जीवन का आनन्द ले रहे थे तो शनै-शनै ग्रीष्म ऋतु आ गई। यह ऋतु देहधारियों को अधिक सुहावनी नहीं लगती।

3 फिर भी, चूँकि साक्षात भगवान कृष्ण बलराम सहित वृन्दावन में रह रहे थे अतएव ग्रीष्म ऋतु वसन्

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अध्याय सत्रह -- कालिय का इतिहास (10.17)

1 [इस प्रकार कृष्ण ने कालिय की प्रताड़णा की उसे सुनकर] राजा परीक्षित ने पूछा: कालिय ने सर्पों के निवास रमणक द्वीप को क्यों छोड़ा और गरुड़ उसीका इतना विरोधी क्यों बन गया?

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: गरुड़ द्वारा खाये जाने से बचने के लिए सर्पों ने पहले से उससे यह समझौता कर रखा था कि उनमें से हर सर्प मास में एक बार अपनी भेंट लाकर वृक्ष के नीचे रख जाया करेगा। इस तरह हे महाबाहु परीक्षित, प्रत्येक मास हर सर्प अपनी रक्षा के मूल्य के रूप में विष्णु के शक्तिशाली व

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अध्याय सोलह - कृष्ण द्वारा कालिय नाग को प्रताड़ना (10.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान श्रीकृष्ण ने यह देखकर कि काले सर्प कालिय ने यमुना नदी को दूषित कर रखा है, उसे शुद्ध करने की इच्छा की और इस तरह उन्होंने कालिय को उसमें से निकाल भगाया।

2 राजा परीक्षित ने पूछा: हे विद्वान मुनि, कृपा करके यह बतलाये कि किस तरह भगवान ने यमुना के अगाध जल में कालिय नाग को प्रताड़ित किया और वह कालिय किस तरह अनेक युगों से वहाँ पर रह रहा था?

3 हे ब्राह्मण, अनन्त भगवान अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र रूप से कर्म करते हैं

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अध्याय चौदह ब्रह्मा द्वारा कृष्ण की स्तुति (10.14)

1 ब्रह्मा ने कहा: हे प्रभु, आप ही एकमात्र पूज्य भगवान हैं अतएव आपको प्रसन्न करने के लिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ और आपकी स्तुति करता हूँ। हे ग्वालनरेश पुत्र, आपका दिव्य शरीर नवीन बादलों के समान गहरा नीला है; आपके वस्त्र बिजली के समान देदीप्यमान हैं और आपके मुखमण्डल का सौन्दर्य गुञ्जा के बने कुण्डलों से तथा सिर पर लगे मोरपंख से बढ़ जाता है। अनेक वन-फूलों तथा पत्तियों की माला पहने तथा चराने की छड़ी (लकुटी), शृंग और वंशी से सज्जित आप अपने हाथ

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अध्याय तेरह ब्रह्मा द्वारा बालकों तथा बछड़ों की चोरी (10.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे भक्त शिरोमणि, परम भाग्यशाली परीक्षित, तुमने बहुत सुन्दर प्रश्न किया है क्योंकि भगवान की लीलाओं को निरन्तर सुनने पर भी तुम उनके कार्यों को नित्य नूतन रूप में अनुभव कर रहे हो।

2 जीवन-सार को स्वीकार करने वाले परम हंस भक्त अपने अन्तःकरण से कृष्ण के प्रति अनुरक्त होते हैं और कृष्ण ही उनके जीवन के लक्ष्य रहते हैं। प्रतिक्षण कृष्ण की ही चर्चा करना उनका स्वभाव होता है, मानो ये कथाएँ नित्य नूतन हों। वे इन कथाओ

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अध्याय ग्यारह – कृष्ण की बाल-लीलाएँ (10.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे महाराज परीक्षित, जब यमलार्जुन वृक्ष गिर पड़े तो आसपास के सारे ग्वाले भयानक शब्द सुनकर वज्रपात की आशंका से उस स्थान पर गये ।

2 वहाँ उन सबने यमलार्जुन वृक्षों को जमीन पर गिरे हुए देखा किन्तु वे विमोहित थे क्योंकि वे आँखों के सामने वृक्षों को गिरे हुए तो देख रहे थे किन्तु उनके गिरने के कारण का पता नहीं लगा पा रहे थे ।

3 कृष्ण रस्सी द्वारा ओखली से बँधे थे जिसे वे खींच रहे थे। किन्तु उन्होंने वृक्षों को किस तरह गिरा लि

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अध्याय नौ माता यशोदा द्वारा कृष्ण का बाँधा जाना (10.9)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: एक दिन जब माता यशोदा ने देखा कि सारी नौकरानियाँ अन्य घरेलू कामकाजों में व्यस्त हैं, तो वे स्वयं ही दही मथने लगीं। दही मथते समय उन्होंने कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का स्मरण किया और गीत बनाते हुए उन्हें गुनगुनाकर आनन्द लेने लगीं।

3 केसरिया-पीली साड़ी पहने, अपनी स्थूल कमर में करधनी बाँधे माता यशोदा मथानी की रस्सी खींचने में काफी परिश्रम कर रही थीं, उनकी चुड़ियाँ तथा कान के कुण्डल हिल-डुल रहे थे और उनका पूरा शरीर

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अध्याय सात तृणावर्त का वध (10.7) 

1-2 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु श्रील शुकदेव गोस्वामी, भगवान के अवतारों द्वारा प्रदर्शित विविध लीलाएँ निश्चित रूप से कानों को तथा मन को सुहावनी लगने वाली हैं। इन लीलाओं के श्रवणमात्र से मनुष्य के मन का मैल तत्क्षण धुल जाता है। सामान्यतया हम भगवान की लीलाओं को सुनने में आनाकानी करते हैं किन्तु कृष्ण की बाल-लीलाएँ इतनी आकर्षक हैं कि वे स्वतः ही मन तथा कानों को सुहावनी लगती हैं। इस तरह भौतिक वस्तुओं के विषय में सुनने की अनुरक्ति, जो भवबन्धन का मूल कारण है, समाप

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अध्याय चार राजा कंस के अत्याचार (10.4) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, घर के भीतरी तथा बाहरी दरवाजे पूर्ववत बन्द हो गए। तत्पश्चात घर के रहने वालों ने, विशेष रूप से द्वारपालों ने, नवजात शिशु का क्रन्दन सुना और अपने बिस्तरों से उठ खड़े हुए।

2 तत्पश्चात सारे द्वारपाल जल्दी से भोजवंश के शासक राजा कंस के पास गए और उसे देवकी से शिशु के जन्म लेने का समाचार बतलाया। अत्यन्त उत्सुकता से इस समाचार की प्रतीक्षा कर रहे कंस ने तुरन्त ही कार्यवाही की।

3 कंस तुरन्त ही बिस्तर से यह सोचते हुए उ

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अध्याय एक - भगवान श्रीकृष्ण का अवतार-परिचय (10.1)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु, आपने चन्द्रदेव तथा सूर्यदेव दोनों के वंशों का, उनके राजाओं के महान तथा अद्भुत चरित्रों सहित विशद वर्णन किया है।

2 हे मुनिश्रेष्ठ, आप परम पवित्र तथा धर्मशील यदुवंशियों का भी वर्णन कर चुके हैं। अब हो सके तो कृपा करके उन भगवान विष्णु या कृष्ण के अद्भुत महिमामय कार्यकलापों का वर्णन करें जो यदुवंश में अपने अंश बलदेव के साथ प्रकट हुए हैं।

3 परमात्मा अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण, जो विराट जगत के कारण हैं, यदुवंश

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अध्याय तेईस – ययाति के पुत्रों की वंशावली (9.23)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ययाति के चौथे पुत्र अनु के तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे – सभानर, चक्षु तथा परेष्णु। हे राजन, सभानर के कालनर नाम का एक पुत्र हुआ और कालनर से सृञ्जय नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

2 सृञ्जय का पुत्र जनमेजय हुआ, जनमेजय का पुत्र महाशाल, महाशाल का पुत्र महामना और महामना के दो पुत्र उशीनर तथा तितिक्षु हुए।

3-4 उशीनर के चार पुत्र थे – शिवि, वर, कृमि तथा दक्ष। शिवि के भी चार पुत्र हुए – वृषादर्भ, सुधीर, मद्र तथा आत्मतत्त्वित केकय। तित

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अध्याय बाईस – अजमीढ के वंशज (9.22)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन दिवोदास का पुत्र मित्रायु था और मित्रायु के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे च्यवन, सुदास, सहदेव तथा सोमक।

2 सोमक जन्तु का पिता था। सोमक के एक सौ पुत्र थे जिनमें सबसे छोटा पृषत था। पृषत से राजा द्रुपद उत्पन्न हुआ जो सभी प्रकार से ऐश्वर्यवान था।

3 महाराज द्रुपद से द्रौपदी उत्पन्न हुई। महाराज द्रुपद के कई पुत्र भी थे जिनमें धृष्टद्युम्न प्रमुख था। उसके पुत्र का नाम धृष्टकेतु था। ये सारे पुरुष भर्म्याश्व के वंशज या पाञ्चालवंशी कहल

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अध्याय बीस – पुरु का वंश (9.20)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज भरत के वंशज महाराज परीक्षित, अब मैं पुरु के वंश का वर्णन करूँगा जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो और जिसमें अनेक राजर्षि हुए हैं, जिनसे अनेक ब्राह्मण वंशों का प्रारम्भ हुआ है।

2 पुरु के ही इस वंश में राजा जनमेजय उत्पन्न हुआ। उसका पुत्र प्रचिन्वान था और उसका पुत्र था प्रवीर। तत्पश्चात प्रवीर का पुत्र मनुस्यु हुआ जिसका पुत्र चारुपद था।

3 चारुपद का पुत्र सुदयु था और सुदयु का पुत्र बहुगव था। बहुगव का पुत्र सन्याति था, जिससे अहन्याति न

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अध्याय उन्नीस – राजा ययाति को मुक्ति लाभ (9.19)

1-15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, ययाति स्त्री पर अत्यधिक अनुरक्त था। किन्तु कालक्रम से जब वह विषय-भोग तथा इसके बुरे प्रभावों से ऊब गया तो उसने यह जीवन-शैली त्याग दी और अपने निजी जीवन पर आधारित बकरे-बकरी की एक कहानी बनाई और अपनी प्रियतमा को सुनाई। कहानी सुनाने के बाद उससे कहा – हे सुन्दर भौंहों वाली प्रिये, मैं उसी बकरे के सदृश हूँ क्योंकि मैं इतना मन्दबुद्धि हूँ कि मैं तुम्हारे सौन्दर्य से मोहित होकर आत्म-साक्षात्कार के असली का

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अध्याय सोलह – भगवान परशुराम द्वारा विश्व के क्षत्रियों का विनाश (9.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंशी, जब भगवान परशुराम को उनके पिता ने यह आदेश दिया तो उन्होंने तुरन्त ही यह कहते हुए उसे स्वीकार किया, “ऐसा ही होगा।” वे एक वर्ष तक तीर्थस्थलों की यात्रा करते रहे। तत्पश्चात वे अपने पिता के आश्रम में लौट आये।

2 एक बार जब जमदग्नि की पत्नी रेणुका गंगा नदी के तट पर पानी भरने गई तो उन्होंने गन्धर्वों के राजा को कमल-फूल की माला से अलंकृत तथा अप्सराओं के साथ गंगा में विहार

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अध्याय चौबीस – भगवान का मत्स्यावतार (8.24)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: भगवान हरि नित्य ही अपने दिव्य पद पर स्थित हैं; फिर भी वे इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं और विभिन्न रूपों में स्वयं को प्रकट करते हैं। उनका पहला अवतार एक बड़ी मछली के रूप में हुआ। हे श्रील शुकदेव गोस्वामी! मैं आपसे उस मत्स्यावतार की लीलाएँ सुनने का इच्छुक हूँ।

2-3 किस कारण से भगवान ने कर्म-नियम के अन्तर्गत विविध रूप धारण करनेवाले सामान्य जीव की भाँति गर्हित मछली का रूप स्वीकार किया? मछली का रूप निश्चित रूप से गर्हित एवं घोर पीड़

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अध्याय उन्नीस – पुंसवन व्रत का अनुष्ठान (6.19)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: हे प्रभो! आप पुंसवन व्रत के सम्बन्ध में पहले ही बता चुके हैं। अब मैं इसके विषय में विस्तार से सुनना चाहता हूँ क्योंकि मैं समझता हूँ कि इस व्रत का पालन करके भगवान विष्णु को प्रसन्न किया जा सकता है।

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्त्री को चाहिए कि अगहन मास (नवम्बर-दिसम्बर) के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को अपने पति की अनुमति से इस नैमित्यिक भक्ति को, तप के व्रत सहित प्रारम्भ करे क्योंकि इससे सभी मनोकामनाएँ पूरी हो सकती है। भगवान

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अध्याय छब्बीस – नारकीय लोकों का वर्णन (5.26) 

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे महाशय, जीवात्माओं को विभिन्न भौतिक गतियाँ क्यों प्राप्त होती हैं? कृपा करके मुझसे कहें।

2 महामुनि श्रील शुकदेव बोले- हे राजन, इस जगत में सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में स्थित तीन प्रकार के कर्म होते हैं। चूँकि सभी मनुष्य इन तीन गुणों से प्रभावित होते हैं, अतः कर्मों के फल भी तीन प्रकार के होते हैं। जो सतोगुण के अनुसार कर्म करता है, वह धार्मिक एवं सुखी होता है, जो रजोगुण में कर्म करता है उसे कष्ट तथा

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अध्याय इकतीस – प्रचेताओं को नारद का उपदेश (4.31)

1 महान सन्त मैत्रेय ने आगे कहा: तत्पश्चात प्रचेता हजारों वर्षों तक घर में रहे और आध्यात्मिक चेतना में पूर्ण ज्ञान विकसित किया। अन्त में उन्हें भगवान के आशीर्वादों की याद आई और वे अपनी पत्नी को अपने सुयोग्य पुत्र के जिम्मे छोड़कर घर से निकल पड़े।

2 प्रचेतागण पश्चिम दिशा में समुद्रतट की ओर गये जहाँ जाजलि ऋषि निवास कर रहे थे। उन्होंने वह आध्यात्मिक ज्ञान पुष्ट कर लिया जिससे मनुष्य समस्त जीवों के प्रति समभाव रखने लगता है। इस तरह वे कृष्णभक्ति में पटु हो

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