radhekrishna (16)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।। 19 ।।

यः- जो;माम्- मुझको;एवम्- इस प्रकार;असम्मूढः- संशयरहित;जानाति- जानता है;पुरुष-उत्तमम्- भगवान्;सः- वह;सर्व-वित्- सब कुछ जानने वाला;भजति- भक्ति करता है;माम्- मुझको;सर्व-भावेन- सभी प्रकार से;भारत- हे भरतपुत्र।

भावार्थ : जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवान के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानता है। अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। 7 ।।

मम- मेरा;एव- निश्चय ही;अंशः- सूक्ष्म कण;जीव-लोके- बद्ध जीवन के संसार में;जीव-भूतः- बद्ध जीव;सनातनः- शाश्वत;मनः- मन;षष्ठानि- छह;इन्द्रियाणि- इन्द्रियों समेत;प्रकृति- भौतिक प्रकृति में;स्थानि- स्थित;कर्षति- संघर्ष करता है।

भावार्थ : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें म
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।। 10

अभ्यासे- अभ्यास में;अपि- भी;असमर्थः- असमर्थ;असि- हो;मत्-कर्म- मेरे कर्म के प्रति;परमः- परायण;भव- बनो;मत्-अर्थम्- मेरे लिए;अपि- भी;कर्माणि- कर्म ;कुर्वन्- करते हुए;सिद्धिम्- सिद्धि को;अवाप्स्यसि- प्राप्त करोगे।

भावार्थ : यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पू
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेश्य ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ 8

मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;मनः- मन को;आधत्स्व- स्थिर करो;मयि- मुझमें;बुद्धिम्- बुद्धि को;निवेश्य- लगाओ;निवसिष्यसि- तुम निवास करोगे;मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;अतः-अर्ध्वम्- तत्पश्चात्;- कभी नहीं;संशयः- सन्देह।

भावार्थ : मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी साड़ी बुद्धि मुझमें लगाओ। इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे।

तात्पर्य : जो भगवान्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।54

भक्त्या- भक्ति से;तु- लेकिन;अनन्यया- सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित;शक्यः- सम्भव;अहम्- मैं;एवम्-विधः- इस प्रकार;अर्जुन- हे अर्जुन;ज्ञातुम्- जानने;द्रष्टुम्- देखने;- तथा;तत्त्वेन- वास्तव में;प्रवेष्टुम्- प्रवेश करने;- भी;परन्तप- हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।

भावार्थ : हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।54

भक्त्या- भक्ति से;तु- लेकिन;अनन्यया- सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित;शक्यः- सम्भव;अहम्- मैं;एवम्-विधः- इस प्रकार;अर्जुन- हे अर्जुन;ज्ञातुम्- जानने;द्रष्टुम्- देखने;- तथा;तत्त्वेन- वास्तव में;प्रवेष्टुम्- प्रवेश करने;- भी;परन्तप- हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।

भावार्थ : हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। 12 ।।

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। 13 ।।

अर्जुन उवाच– अर्जुन ने कहा;परम्– परम;ब्रह्म– सत्य;परम्– परम;धाम– आधार;पवित्रम्– शुद्ध;परमम्– परम;भवान्– आप;पुरुषम्– पुरुष;शाश्वतम्– नित्य;दिव्यम्– दिव्य;आदि-देवम्– आदि स्वामी;अजम्– अजन्मा;विभुम्–सर्वोच्च;आहुः- कहते हैं;त्वाम्– आपको;ऋषयः– साधुगण;

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। 9 ।।

मत्-चित्ताः– जिनके मन मुझमें रमे हैं;मत्-गत-प्राणाः– जिनके जीवन मुझ में अर्पित हैं;बोधयन्तः– उपदेश देते हुए;परस्परम्– एक दूसरे से, आपस में;– भी;कथयन्तः– बातें करते हुए;– भी;माम्– मेरे विषय में;नित्यम्– निरन्तर;तुष्यन्ति– प्रसन्न होते हैं;– भी;रमन्ति– दिव्य आनन्द भोगते हैं;– भी।

भावार्थ : मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं,
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु ।

मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः 34 ।।

मत्–मनाः- सदैव मेरा चिन्तन करने वाला;भव– होओ;मत्– मेरा;भक्तः– भक्त;मत्– मेरा;याजी– उपासक;माम्– मुझको;नमस्कुरु– नमस्कार करो;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;एष्यसि– पाओगे;युक्त्वा– लीन होकर;एवम्– इस प्रकार;आत्मानम्– अपनी आत्मा को;मत्-परायणः– मेरी भक्ति में अनुरक्त।

भावार्थ : अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

समोSहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योSस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। 29 ।।

समः– समभाव;अहम्– मैं;सर्व-भूतेषु– समस्त जीवों में;– कोई नहीं;मे– मुझको;द्वेष्यः– द्वेषपूर्ण;अस्ति– है;– न तो;प्रियः– प्रिय;ये– जो;भजन्ति– दिव्यसेवा करते हैं;तु– लेकिन;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति से;मयि– मुझमें हैं;ते– वे व्यक्ति;तेषु– उनमें;– भी;अपि– निश्चय ही;अहम्– मैं।

भावार्थ : मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ।। 12 ।।

मोघ-आशाः– निष्फल आशा;मोघ-कर्माणः– निष्फल सकाम कर्म;मोघ-ज्ञानाः– विफल ज्ञान;विचेतसः– मोहग्रस्त;राक्षसीम्– राक्षसी;आसुरीम्– आसुरी;– तथा;एव– निश्चय ही;प्रकृतिम्– स्वभाव को;मोहिनीम्– मोहने वाली;श्रिताः– शरण ग्रहण किये हुए।
भावार्थ : जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम् ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।। 15 ।।

माम्– मुझको;उपेत्य– प्राप्त करके;पुनः– फिर;जन्म– जन्म;दुःख-आलयम्– दुखों के स्थान को;अशाश्वतम्– क्षणिक;– कभी नहीं;आप्नुवन्ति– प्राप्त करते हैं;महा-आत्मानः– महान पुरुष;संसिद्धिम्– सिद्धि को;परमाम्– परं;गताः– प्राप्त हुए।

भावार्थ : मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम स
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप। 27

इच्छा– इच्छा;द्वेष– तथा घृणा;समुत्थेन– उदय होने से;द्वन्द्व– द्वन्द्व से;मोहेन– मोह के द्वारा;भारत– हे भरतवंशी;सर्व– सभी;सम्मोहम्– मोह को;सर्गे– जन्म लेकर;यान्ति– जाते हैं, प्राप्त होते हैं;परन्तप– हे शत्रुओं के विजेता।

भावार्थ : हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते ह

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ 16

चतुः विधाः– चार प्रकार के;भजन्ते– सेवा करते हैं;माम्– मेरी;जनाः– व्यक्ति;सु-कृतिनः– पुण्यात्मा;अर्जुन– हे अर्जुन;आर्तः– विपदाग्रस्त, पीड़ित;जिज्ञासुः– ज्ञान के जिज्ञासु;अर्थ-अर्थी– लाभ की इच्छा रखने वाले;ज्ञानी– वस्तुओं को सही रूप में जानने वाले, तत्त्वज्ञ;– भी;भरत-ऋषभ– हे भरतश्रेष्ठ।
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करत

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