hindibhashisangh (67)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम ।। 78 ।।

यत्र– जहाँ;योग-ईश्वरः– योग के स्वामी; कृष्णः– भगवान् कृष्ण; यत्र– जहाँ; पार्थः– पृथापुत्र; धनुः–धरः– धनुषधारी; तत्र– वहाँ; श्रीः– ऐश्वर्य; विजयः– जीत; भूतिः– विलक्षण शक्ति; ध्रुवा– निश्चित; नीतिः– नीति; मतिःमम– मेरा मत।

भावार्थ : जहाँ योगेश्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीं ऐश्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

य इदं परमं गुह्यं मद्भकतेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।। 68 ।।

यः- जो;इदम्- इस;परमम्- अत्यन्त;गुह्यम्- रहस्य को;मत्- मेरे;भक्तेषु- भक्तों में से;अभिधास्यति- कहता है;भक्तिम्- भक्ति को;मयि- मुझको;पराम्- दिव्य;कृत्वा- करके;माम्- मुझको;एव- निश्चय ही;एष्यति- प्राप्त होता है;असंशय- इसमें कोई सन्देह नहीं।

भावार्थ : जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ।। 66 ।।

सर्व-धर्मान्- समस्त प्रकार के धर्म;परित्यज्य- त्यागकर;माम्- मेरी;एकम्- एकमात्र;शरणम्- शरण में;व्रज- जाओ;अहम्- मैं;त्वाम्- तुमको;सर्व- समस्त;पापेभ्यः- पापों से;मोक्षयिष्यामि- उद्धार करूँगा;मा- मत;शुचः- चिन्ता करो।

भावार्थ : समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँग

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। 65 ।।

मत्-मनाः- मेरे विषय में सोचते हुए;भव- होओ;मत्-भक्तः- मेरा भक्त;मत्-याजी- मेरा पूजक;माम्- मुझको;नमस्कुरु- नमस्कार करो;माम्- मेरे पास;एव- ही;एष्यसि- आओगे;सत्यम्- सच-सच;ते- तुमसे;प्रतिजाने- वायदा या प्रतिज्ञा करता हूँ;प्रियः- प्रिय;असि- हो;मे- मुझको।

भावार्थ : सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया ।। 61 ।।

ईश्वरः– भगवान्;सर्व-भूतानाम्– समस्त जीवों के;हृत्-देशे– हृदय में;अर्जुन– हे अर्जुन;तिष्ठति– वास करता है;भ्रामयन्– भ्रमण करने के लिए बाध्य करता हुआ;सर्व-भूतानि– समस्त जीवों को;यन्त्र– यन्त्र में;आरुढानि– सवार, चढ़े हुए;मायया– भौतिक शक्ति के वशीभूत होकर।

भावार्थ : हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया ।। 61 ।।

ईश्वरः– भगवान्;सर्व-भूतानाम्– समस्त जीवों के;हृत्-देशे– हृदय में;अर्जुन– हे अर्जुन;तिष्ठति– वास करता है;भ्रामयन्– भ्रमण करने के लिए बाध्य करता हुआ;सर्व-भूतानि– समस्त जीवों को;यन्त्र– यन्त्र में;आरुढानि– सवार, चढ़े हुए;मायया– भौतिक शक्ति के वशीभूत होकर।

भावार्थ : हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।58

मत्– मेरी;चित्तः– चेतना में;सर्व– सारी;दुर्गाणि– बाधाओं को;मत्-प्रसादात्– मेरी कृपा से;तरिष्यसि– तुम पार कर सकोगे;अथ– लेकिन;चेत्– यदि;त्वम्– तुम;अहङ्कारात्– मिथ्या अहंकार से;न श्रोष्यसि– नहीं सुनते हो;विनङ्क्ष्यसि– नष्ट हो जाओगे।

भावार्थ : यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को ल
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्र्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्  ।। 55 ।।

भक्त्या– शुद्ध भक्ति से;माम्– मुझको;अभिजानाति– जान सकता है;यावान्– जितना;यः च अस्मि– जैसा मैं हूँ;तत्त्वतः– सत्यतः;ततः– तत्पश्चात्;माम्– मुझको;तत्त्वतः– सत्यतः;ज्ञात्वा– जानकर;विशते– प्रवेश करता है;तत्-अनन्तरम्– तत्पश्चात्।

भावार्थ : केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे प
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। 42 ।।

शमः– शान्तिप्रियता;दमः– आत्मसंयम;तपः– तपस्या;शौचम्– पवित्रता;क्षान्तिः– सहिष्णुता;आर्जवम्– सत्यनिष्ठा;एव– निश्चय ही;– तथा;ज्ञानम्–ज्ञान;विज्ञानम्– विज्ञान;आस्तिक्यम्– धार्मिकता;ब्रह्म– ब्राह्मण का;कर्म–कर्तव्य;स्वभावजम्– स्वभाव से उत्पन्न, स्वाभाविक।

भावार्थ : शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।। 19 ।।

यः- जो;माम्- मुझको;एवम्- इस प्रकार;असम्मूढः- संशयरहित;जानाति- जानता है;पुरुष-उत्तमम्- भगवान्;सः- वह;सर्व-वित्- सब कुछ जानने वाला;भजति- भक्ति करता है;माम्- मुझको;सर्व-भावेन- सभी प्रकार से;भारत- हे भरतपुत्र।

भावार्थ : जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवान के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानता है। अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।। 15 ।।

सर्वस्य- समस्त प्राणियों;- तथा;अहम्- मैं;हृदि- हृदय में;सन्निविष्टः- स्थित;मत्तः- मुझ से;स्मृतिः- स्मरणशक्ति;ज्ञानम्- ज्ञान;अपोहनम्- विस्मृति;- तथा;वेदैः- वेदों के द्वारा;- भी;सर्वैः- समस्त;अहम्- मैं हूँ;एव- निश्चय ही;वेद्यः- जानने योग्य, ज्ञेय;वेदान्त-कृत- वेदान्त के संकलकर्ता;वेदवित्- वेदों का ज्ञाता;एव-

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। 7 ।।

मम- मेरा;एव- निश्चय ही;अंशः- सूक्ष्म कण;जीव-लोके- बद्ध जीवन के संसार में;जीव-भूतः- बद्ध जीव;सनातनः- शाश्वत;मनः- मन;षष्ठानि- छह;इन्द्रियाणि- इन्द्रियों समेत;प्रकृति- भौतिक प्रकृति में;स्थानि- स्थित;कर्षति- संघर्ष करता है।

भावार्थ : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें म
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। 6 ।।

-नहीं;तत्-वह;भासयते-प्रकाशित करता है;सूर्यः-सूर्य;-न तो;शशाङकः-चन्द्रमा;- न तो;पावकः- अग्नि, बिजली;यत्- जहाँ;गत्वा- जाकर;- कभी नहीं;निवर्तन्ते- वापस आते हैं;तत्-धाम- वह धाम;परमम्- परम;मम- मेरा।

भावार्थ : वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ 5

निः-रहित;मान-झूठी प्रतिष्ठा;मोहाः-तथा मोह;जित-जीता गया;सङ्ग-संगति की;दोषाः-त्रुटियाँ;अध्यात्म-आध्यात्मिक ज्ञान में;नित्याः-शाश्वतता में;विनिवृत्तः-विलग;कामाः-काम से;द्वन्द्वैः-द्वैत से;विमुक्ताः-मुक्त;सुख-दुःख-सुख तथा दुख;संज्ञैः-नामक;गच्छन्ति-प्राप्त करते हैं;अमूढाः-मोहरहित;पदम्-पद,स्थान को;अव्ययम्-शाश्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। 26 ।।

माम्- मेरी;- भी;यः- जो व्यक्ति;अव्यभिचारेण- बिना विचलित हुए;भक्ति-योगेन- भक्ति से;सेवते- सेवा करता है;सः- वह;गुणान्- प्रकृति के गुणों को;समतीत्य- लाँघ कर;एतान्- इन सब;ब्रह्म-भूयाय- ब्रह्म पद तक ऊपर उठा हुआ;कल्पते- हो जाता है।

भावार्थ : जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। 4

सर्व-योनिषु- समस्त योनियों में;कौन्तेय- हे कुन्तीपुत्र;मूर्तयः- स्वरूप;सम्भवन्ति- प्रकट होते हैं;याः- जो;तासाम्- उन सबों का;ब्रह्म- परम;महत् योनिः- जन्म स्त्रोत;अहम्- मैं;बीज-प्रदः- बीजप्रदाता;पिता- पिता।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।। 10

अभ्यासे- अभ्यास में;अपि- भी;असमर्थः- असमर्थ;असि- हो;मत्-कर्म- मेरे कर्म के प्रति;परमः- परायण;भव- बनो;मत्-अर्थम्- मेरे लिए;अपि- भी;कर्माणि- कर्म ;कुर्वन्- करते हुए;सिद्धिम्- सिद्धि को;अवाप्स्यसि- प्राप्त करोगे।

भावार्थ : यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पू
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥ 9

अथ- यदि, अतः;चित्तम्- मन को;समाधातुम्- स्थिर करने में;- नहीं;शक्नोषि- समर्थ नहीं हो;मयि- मुझ पर;स्थिरम्- स्थिर भाव से;अभ्यास-योगेन- भक्ति के अभ्यास से;ततः- तब;माम्- मुझको;इच्छ- इच्छा करो;आप्तुम्- प्राप्त करने की;धनञ्जय- हे सम्पत्ति के विजेता, अर्जुन।

भावार्थ : हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक
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