sureshrajoria (22)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। 10 ।।

तेषाम्– उन;सतत-युक्तानाम्– सदैव लीन रहने वालों को;भजताम्– भक्ति करने वालों को;प्रीति-पूर्वकम्– प्रेमभावसहित;ददामि– देता हूँ;बुद्धि-योगम्– असली बुद्धि;तम्– वह;येन– जिससे;माम्– मुझको;उपयान्ति– प्राप्त होते हैं;ते– वे।

भावार्थ : जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ स
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। 9 ।।

मत्-चित्ताः– जिनके मन मुझमें रमे हैं;मत्-गत-प्राणाः– जिनके जीवन मुझ में अर्पित हैं;बोधयन्तः– उपदेश देते हुए;परस्परम्– एक दूसरे से, आपस में;– भी;कथयन्तः– बातें करते हुए;– भी;माम्– मेरे विषय में;नित्यम्– निरन्तर;तुष्यन्ति– प्रसन्न होते हैं;– भी;रमन्ति– दिव्य आनन्द भोगते हैं;– भी।

भावार्थ : मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं,
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।। 8 ।।

अहम्– मैं;सर्वस्य– सबका;प्रभवः– उत्पत्ति का कारण;मत्तः– मुझसे;सर्वम्– सारी वस्तुएँ;प्रवर्तते– उद्भूत होती हैं;इति– इस प्रकार;मत्वा– जानकर;भजन्ते– भक्ति करते हैं;माम्– मेरी;बुधाः– विद्वानजन;भाव-समन्विताः– अत्यन्त मनोयोग से।

भावार्थ : मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँत
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु ।

मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः 34 ।।

मत्–मनाः- सदैव मेरा चिन्तन करने वाला;भव– होओ;मत्– मेरा;भक्तः– भक्त;मत्– मेरा;याजी– उपासक;माम्– मुझको;नमस्कुरु– नमस्कार करो;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;एष्यसि– पाओगे;युक्त्वा– लीन होकर;एवम्– इस प्रकार;आत्मानम्– अपनी आत्मा को;मत्-परायणः– मेरी भक्ति में अनुरक्त।

भावार्थ : अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मांहिपार्थव्यपाश्रित्ययेSपिस्यु: पापयोनयः ।

स्त्रियोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेSपियान्तिपरांगतिम् ।। 32 ।।

माम् –मेरी;हि– निश्चय ही;पार्थ– हे पृथापुत्र;व्यपाश्रित्य– शरण ग्रहण करके;ये– जो;अपि– भी;स्युः– हैं;पाप-योनयः– निम्नकुल में उत्पन्न;स्त्रियः– स्त्रियाँ;वैश्याः– वणिक लोग;तथा– भी;शूद्राः– निम्न श्रेणी के व्यक्ति;ते अपि– वे भी;यान्ति– जाते हैं;पराम्– परम;गतिम्– गन्तव्य को।

भावार्थ : हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही न
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। 30 ।।

अपि– भी;चेत्– यदि;सु-दुराचारः– अत्यन्त गर्हित कर्म करने वाला;भजते– सेवा करता है;माम्– मेरी;अनन्य-भाक्– बिना विचलित हुए;साधुः– साधु पुरुष;एव– निश्चय ही;सः– वह;मन्तव्यः– मानने योग्य;सम्यक्– पूर्णतया;व्यवसितः– संकल्प करना;हि– निश्चय ही;सः– वह।

भावार्थ : यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

समोSहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योSस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। 29 ।।

समः– समभाव;अहम्– मैं;सर्व-भूतेषु– समस्त जीवों में;– कोई नहीं;मे– मुझको;द्वेष्यः– द्वेषपूर्ण;अस्ति– है;– न तो;प्रियः– प्रिय;ये– जो;भजन्ति– दिव्यसेवा करते हैं;तु– लेकिन;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति से;मयि– मुझमें हैं;ते– वे व्यक्ति;तेषु– उनमें;– भी;अपि– निश्चय ही;अहम्– मैं।

भावार्थ : मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् 27

यत्– जो कुछ;करोषि– करते हो;यत्– जो भी;अश्नासि– खाते हो;यत्– जो कुछ;जुहोषि– अर्पित करते हो;ददासि– दान देते हो;यत्– जो;यत्– जो भी;तपस्यसि– तप करते हो;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;तत्– वह;कुरुष्व– करो;अर्पणम्– भेंट रूप में।
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः 26

पत्रम्– पत्ती;पुष्पम्– फूल;फलम्- फल;तोयम्– जल;यः– जो कोई;मे– मुझको;भक्त्या– भक्तिपूर्वक;प्रयच्छति– भेंट करता है;तत्– वह;अहम्– मैं;भक्ति-उपहृतम्– भक्तिभाव से अर्पित;अश्नामि– स्वीकार करता हूँ;प्रयत-आत्मनः– शुद्धचेतना वाले से।

भावार्थ : यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।

तात्पर्य

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोSपि माम् ।। 25 ।।

यान्ति– जाते हैं;देव-व्रताः– देवताओं के उपासक;देवान्– देवताओं के पास;पितृृन्– पितरों के पास;यान्ति– जाते हैं;पितृ-व्रताः– पितरों के उपासक;भूतानि– भूत-प्रेतों के पास;यान्ति– जाते हैं;भूत-इज्याः– भूत-प्रेतों के उपासक;यान्ति– जाते हैं;मत्– मेरे;याजिनः– भक्तगण;अपि– लेकिन;माम्– मेरे पास।

भावार्थ : जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओ
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् 22

अनन्याः– जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से;चिन्तयन्तः– चिन्तन करते हुए;माम्– मुझको;ये– जो;जनाः– व्यक्ति;पर्युपासते– ठीक से पूजते हैं;तेषाम्– उन;नित्य– सदा;अभियुक्तानाम्– भक्ति में लीन मनुष्यों की;योग– आवश्यकताएँ;क्षेमम्– सुरक्षा, आश्रय;वहामि– वहन करता हूँ;अहम्– मैं।

भावार्थ : किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान कर

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।

नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ।। 14 ।।

सततम्– निरन्तर;कीर्तयन्तः– कीर्तन करते हुए;माम्– मेरे विषयमें;यतन्तः– प्रयास करते हुए;– भी;दृढ़-व्रताः– संकल्पपूर्वक;नमस्यन्तः–नमस्कार करते हुए;– तथा;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति में;नित्य-युक्ताः–सदैव रत रहकर;उपासते– पूजा करते हैं।

भावार्थ : ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए,

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्  ।। -11- ।।

अवजानन्ति– उपहास करते हैं;माम्– मुझको;मूढाः– मूर्ख व्यक्ति;मानुषीम्– मनुष्य रूप में;तनुम्– शरीर;अश्रितम्– मानते हुए;परम्– दिव्य;भावम्– स्वभाव को;अजानन्तः– न जानते हुए;मम– मेरा;भूत– प्रत्येक वस्तु का;महा-ईश्वरम्– परम स्वामी।
भावार्थ : जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।। 10 ।।

मया– मेरे द्वारा;अध्यक्षेण– अध्यक्षता के कारण;प्रकृतिः– प्रकृति;सूयते– प्रकट होती है;– सहित;चर-अचरम्– जड़ तथा जंगम;हेतुना– कारण से;अनेन– इस;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;जगत्– दृश्य जगत;विपरिवर्तते– क्रियाशील है।
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चार तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ।। 2 ।।

राज-विद्या– विद्याओं का राजा;राज-गुह्यम्– गोपनीय ज्ञान का राजा;पवित्रम्– शुद्धतम;इदम्– यह;उत्तमम्– दिव्य;प्रत्यक्ष– प्रत्यक्ष अनुभव से;अवगमम्– समझा गया;धर्म्यम्– धर्म;सु-सुखम्– अत्यन्त सुखी;कर्तुम्– सम्पन्न करने में;अव्ययम्– अविनाशी।

भावार्थ : यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है। यह परम शुद्ध है और चूँकि यह
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ।। 28 ।।

वेदेषु– वेदाध्ययन में;यज्ञेषु– यज्ञ सम्पन्न करने में;तपःसु– विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ करने में;– भी;एव– निश्चय ही;दानेषु– दान देने में;यत्– जो;पुण्य-फलम्– पुण्यकर्म का फल;प्रदिष्टम्– सूचित;अत्येति– लाँघ जाता है;तत् सर्वम्– वे सब;इदम्– यह;विदित्वा– जानकर;योगी– योगी;परम्– परम;स्थानम्– धाम को;उपैति– प्राप्त करता है
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोSर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते 16

-ब्रह्म-भुवनात्– ब्रह्मलोक तक;लोकाः– सारे लोक;पुनः– फिर;आवर्तिनः– लौटने वाले;अर्जुन– हे अर्जुन;माम्– मुझको;उपेत्य– पाकर;तु– लेकिन;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;पुनःजन्म– पुनर्जन्म;– कभी नहीं;विद्यते– होता है।

भावार्थ : इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मे
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।। 14 ।।

अनन्य-चेताः– अविचलित मन से;सततम्– सदैव;यः– जो;माम्– मुझ (कृष्ण) को;स्मरति– स्मरण करता है;नित्यशः– नियमित रूप से;तस्य– उस;अहम्– मैं हूँ;सु-लभः– सुलभ, सरलता से प्राप्य;पार्थ– हे पृथापुत्र;नित्य– नियमित रूप से;युक्तस्य– लगे हुए;योगिनः– भक्त के लिए।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भ

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