shravanikar (23)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्र्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्  ।। 55 ।।

भक्त्या– शुद्ध भक्ति से;माम्– मुझको;अभिजानाति– जान सकता है;यावान्– जितना;यः च अस्मि– जैसा मैं हूँ;तत्त्वतः– सत्यतः;ततः– तत्पश्चात्;माम्– मुझको;तत्त्वतः– सत्यतः;ज्ञात्वा– जानकर;विशते– प्रवेश करता है;तत्-अनन्तरम्– तत्पश्चात्।

भावार्थ : केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे प
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। 42 ।।

शमः– शान्तिप्रियता;दमः– आत्मसंयम;तपः– तपस्या;शौचम्– पवित्रता;क्षान्तिः– सहिष्णुता;आर्जवम्– सत्यनिष्ठा;एव– निश्चय ही;– तथा;ज्ञानम्–ज्ञान;विज्ञानम्– विज्ञान;आस्तिक्यम्– धार्मिकता;ब्रह्म– ब्राह्मण का;कर्म–कर्तव्य;स्वभावजम्– स्वभाव से उत्पन्न, स्वाभाविक।

भावार्थ : शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।। 15 ।।

सर्वस्य- समस्त प्राणियों;- तथा;अहम्- मैं;हृदि- हृदय में;सन्निविष्टः- स्थित;मत्तः- मुझ से;स्मृतिः- स्मरणशक्ति;ज्ञानम्- ज्ञान;अपोहनम्- विस्मृति;- तथा;वेदैः- वेदों के द्वारा;- भी;सर्वैः- समस्त;अहम्- मैं हूँ;एव- निश्चय ही;वेद्यः- जानने योग्य, ज्ञेय;वेदान्त-कृत- वेदान्त के संकलकर्ता;वेदवित्- वेदों का ज्ञाता;एव-

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ 5

निः-रहित;मान-झूठी प्रतिष्ठा;मोहाः-तथा मोह;जित-जीता गया;सङ्ग-संगति की;दोषाः-त्रुटियाँ;अध्यात्म-आध्यात्मिक ज्ञान में;नित्याः-शाश्वतता में;विनिवृत्तः-विलग;कामाः-काम से;द्वन्द्वैः-द्वैत से;विमुक्ताः-मुक्त;सुख-दुःख-सुख तथा दुख;संज्ञैः-नामक;गच्छन्ति-प्राप्त करते हैं;अमूढाः-मोहरहित;पदम्-पद,स्थान को;अव्ययम्-शाश्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। 4

सर्व-योनिषु- समस्त योनियों में;कौन्तेय- हे कुन्तीपुत्र;मूर्तयः- स्वरूप;सम्भवन्ति- प्रकट होते हैं;याः- जो;तासाम्- उन सबों का;ब्रह्म- परम;महत् योनिः- जन्म स्त्रोत;अहम्- मैं;बीज-प्रदः- बीजप्रदाता;पिता- पिता।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥ 9

अथ- यदि, अतः;चित्तम्- मन को;समाधातुम्- स्थिर करने में;- नहीं;शक्नोषि- समर्थ नहीं हो;मयि- मुझ पर;स्थिरम्- स्थिर भाव से;अभ्यास-योगेन- भक्ति के अभ्यास से;ततः- तब;माम्- मुझको;इच्छ- इच्छा करो;आप्तुम्- प्राप्त करने की;धनञ्जय- हे सम्पत्ति के विजेता, अर्जुन।

भावार्थ : हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव 55

मत्-कर्म-कृत- मेरा कर्म करने में रत;मत्-परमः- मुझको परम मानते हुए;मत्-भक्तः- मेरी भक्ति में रत;सङग-वर्जितः- सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त;निर्वैरः- किसी से शत्रुरहित;सर्व-भूतेषु- समस्त जीवों में;यः- जो;माम्- मुझको;एति- प्राप्त करता है;पाण्डव- हे पाण्डु के पुत्र।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त हो

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव 55

मत्-कर्म-कृत- मेरा कर्म करने में रत;मत्-परमः- मुझको परम मानते हुए;मत्-भक्तः- मेरी भक्ति में रत;सङग-वर्जितः- सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त;निर्वैरः- किसी से शत्रुरहित;सर्व-भूतेषु- समस्त जीवों में;यः- जो;माम्- मुझको;एति- प्राप्त करता है;पाण्डव- हे पाण्डु के पुत्र।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त हो

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव 55

मत्-कर्म-कृत- मेरा कर्म करने में रत;मत्-परमः- मुझको परम मानते हुए;मत्-भक्तः- मेरी भक्ति में रत;सङग-वर्जितः- सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त;निर्वैरः- किसी से शत्रुरहित;सर्व-भूतेषु- समस्त जीवों में;यः- जो;माम्- मुझको;एति- प्राप्त करता है;पाण्डव- हे पाण्डु के पुत्र।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त हो

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। 12 ।।

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। 13 ।।

अर्जुन उवाच– अर्जुन ने कहा;परम्– परम;ब्रह्म– सत्य;परम्– परम;धाम– आधार;पवित्रम्– शुद्ध;परमम्– परम;भवान्– आप;पुरुषम्– पुरुष;शाश्वतम्– नित्य;दिव्यम्– दिव्य;आदि-देवम्– आदि स्वामी;अजम्– अजन्मा;विभुम्–सर्वोच्च;आहुः- कहते हैं;त्वाम्– आपको;ऋषयः– साधुगण;

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। 9 ।।

मत्-चित्ताः– जिनके मन मुझमें रमे हैं;मत्-गत-प्राणाः– जिनके जीवन मुझ में अर्पित हैं;बोधयन्तः– उपदेश देते हुए;परस्परम्– एक दूसरे से, आपस में;– भी;कथयन्तः– बातें करते हुए;– भी;माम्– मेरे विषय में;नित्यम्– निरन्तर;तुष्यन्ति– प्रसन्न होते हैं;– भी;रमन्ति– दिव्य आनन्द भोगते हैं;– भी।

भावार्थ : मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं,
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु ।

मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः 34 ।।

मत्–मनाः- सदैव मेरा चिन्तन करने वाला;भव– होओ;मत्– मेरा;भक्तः– भक्त;मत्– मेरा;याजी– उपासक;माम्– मुझको;नमस्कुरु– नमस्कार करो;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;एष्यसि– पाओगे;युक्त्वा– लीन होकर;एवम्– इस प्रकार;आत्मानम्– अपनी आत्मा को;मत्-परायणः– मेरी भक्ति में अनुरक्त।

भावार्थ : अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

समोSहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योSस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। 29 ।।

समः– समभाव;अहम्– मैं;सर्व-भूतेषु– समस्त जीवों में;– कोई नहीं;मे– मुझको;द्वेष्यः– द्वेषपूर्ण;अस्ति– है;– न तो;प्रियः– प्रिय;ये– जो;भजन्ति– दिव्यसेवा करते हैं;तु– लेकिन;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति से;मयि– मुझमें हैं;ते– वे व्यक्ति;तेषु– उनमें;– भी;अपि– निश्चय ही;अहम्– मैं।

भावार्थ : मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोSपि माम् ।। 25 ।।

यान्ति– जाते हैं;देव-व्रताः– देवताओं के उपासक;देवान्– देवताओं के पास;पितृृन्– पितरों के पास;यान्ति– जाते हैं;पितृ-व्रताः– पितरों के उपासक;भूतानि– भूत-प्रेतों के पास;यान्ति– जाते हैं;भूत-इज्याः– भूत-प्रेतों के उपासक;यान्ति– जाते हैं;मत्– मेरे;याजिनः– भक्तगण;अपि– लेकिन;माम्– मेरे पास।

भावार्थ : जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओ
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमुर्तिना ।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ।। 4 ।।

मया– मेरे द्वारा;ततम्– व्याप्त है;इदम्– यह;सर्वम्– समस्त;जगत्– दृश्य जगत;अव्यक्त-मूर्तिना– अव्यक्त रूप द्वारा;मत्-स्थानि– मुझमें;सर्व-भूतानि– समस्त जीव;– नहीं;– भी;अहम्– मैं;तेषु– उनमें;अवस्थितः– स्थित।

भावार्थ : यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।

तात्पर्य : भगवान् की अनुभूति स्थूल

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम् ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।। 15 ।।

माम्– मुझको;उपेत्य– प्राप्त करके;पुनः– फिर;जन्म– जन्म;दुःख-आलयम्– दुखों के स्थान को;अशाश्वतम्– क्षणिक;– कभी नहीं;आप्नुवन्ति– प्राप्त करते हैं;महा-आत्मानः– महान पुरुष;संसिद्धिम्– सिद्धि को;परमाम्– परं;गताः– प्राप्त हुए।

भावार्थ : मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम स
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः 7

तस्मात्– अतएव;सर्वेषु– समस्त;कालेषु– कालों में;माम्– मुझको;अनुस्मर– स्मरण करते रहो;युध्य– युद्ध करो;– भी;मयि– मुझमें;अर्पित– शरणागत होकर;मनः– मन;बुद्धिः– बुद्धि;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;एष्यसि– प्राप्त करोगे;असंशयः– निस्सन्देह ही।

भावार्थ : अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा कर
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप। 27

इच्छा– इच्छा;द्वेष– तथा घृणा;समुत्थेन– उदय होने से;द्वन्द्व– द्वन्द्व से;मोहेन– मोह के द्वारा;भारत– हे भरतवंशी;सर्व– सभी;सम्मोहम्– मोह को;सर्गे– जन्म लेकर;यान्ति– जाते हैं, प्राप्त होते हैं;परन्तप– हे शत्रुओं के विजेता।

भावार्थ : हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते ह

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ 16

चतुः विधाः– चार प्रकार के;भजन्ते– सेवा करते हैं;माम्– मेरी;जनाः– व्यक्ति;सु-कृतिनः– पुण्यात्मा;अर्जुन– हे अर्जुन;आर्तः– विपदाग्रस्त, पीड़ित;जिज्ञासुः– ज्ञान के जिज्ञासु;अर्थ-अर्थी– लाभ की इच्छा रखने वाले;ज्ञानी– वस्तुओं को सही रूप में जानने वाले, तत्त्वज्ञ;– भी;भरत-ऋषभ– हे भरतश्रेष्ठ।
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करत

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अध्याय बारह - अघासुर का वध (10.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, एक दिन कृष्ण ने जंगल में विहार करते हुए कलेवा करना चाहा। उन्होंने बड़े सुबह उठकर सींग का बिगुल बजाया तथा उसकी मधुर आवाज से ग्वालबालों तथा बछड़ों को जगाया। फिर कृष्ण तथा सारे बालक अपने अपने बछड़ों के समूहों को आगे करके व्रजभूमि से जंगल की ओर बढ़े।

2 उस समय लाखों ग्वालबाल व्रजभूमि में अपने -अपने घरों से बाहर आ गये और अपने साथ के लाखों बछड़ों की टोलियों को अपने आगे करके कृष्ण से आ मिले। ये बालक अतीव सुन्दर थे। उनके पास कलेवा की प

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