gulabsinghvishwakarma (6)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।। 10

अभ्यासे- अभ्यास में;अपि- भी;असमर्थः- असमर्थ;असि- हो;मत्-कर्म- मेरे कर्म के प्रति;परमः- परायण;भव- बनो;मत्-अर्थम्- मेरे लिए;अपि- भी;कर्माणि- कर्म ;कुर्वन्- करते हुए;सिद्धिम्- सिद्धि को;अवाप्स्यसि- प्राप्त करोगे।

भावार्थ : यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पू
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

क्लेशोSधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते ।। 5

क्लेशः- कष्ट;अधिकतरः- अत्यधिक;तेषाम्- उन;अव्यक्त- अव्यक्त के प्रति;आसक्त- अनुरक्त;चेतसाम्- मन वालों का;अव्यक्ता- अव्यक्त की ओर;हि- निश्चय ही;गतिः- प्रगति;दुःखम्- दुख के साथ;देह-वद्भिः- देहधारी के द्वारा;अवाप्यते- प्राप्त किया जाता है।

भावार्थ : जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।54

भक्त्या- भक्ति से;तु- लेकिन;अनन्यया- सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित;शक्यः- सम्भव;अहम्- मैं;एवम्-विधः- इस प्रकार;अर्जुन- हे अर्जुन;ज्ञातुम्- जानने;द्रष्टुम्- देखने;- तथा;तत्त्वेन- वास्तव में;प्रवेष्टुम्- प्रवेश करने;- भी;परन्तप- हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।

भावार्थ : हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।54

भक्त्या- भक्ति से;तु- लेकिन;अनन्यया- सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित;शक्यः- सम्भव;अहम्- मैं;एवम्-विधः- इस प्रकार;अर्जुन- हे अर्जुन;ज्ञातुम्- जानने;द्रष्टुम्- देखने;- तथा;तत्त्वेन- वास्तव में;प्रवेष्टुम्- प्रवेश करने;- भी;परन्तप- हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।

भावार्थ : हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप म

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