radharasikraj (5)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। 7 ।।

मम- मेरा;एव- निश्चय ही;अंशः- सूक्ष्म कण;जीव-लोके- बद्ध जीवन के संसार में;जीव-भूतः- बद्ध जीव;सनातनः- शाश्वत;मनः- मन;षष्ठानि- छह;इन्द्रियाणि- इन्द्रियों समेत;प्रकृति- भौतिक प्रकृति में;स्थानि- स्थित;कर्षति- संघर्ष करता है।

भावार्थ : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें म
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अध्याय उन्नीस – पुंसवन व्रत का अनुष्ठान (6.19)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: हे प्रभो! आप पुंसवन व्रत के सम्बन्ध में पहले ही बता चुके हैं। अब मैं इसके विषय में विस्तार से सुनना चाहता हूँ क्योंकि मैं समझता हूँ कि इस व्रत का पालन करके भगवान विष्णु को प्रसन्न किया जा सकता है।

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्त्री को चाहिए कि अगहन मास (नवम्बर-दिसम्बर) के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को अपने पति की अनुमति से इस नैमित्यिक भक्ति को, तप के व्रत सहित प्रारम्भ करे क्योंकि इससे सभी मनोकामनाएँ पूरी हो सकती है। भगवान

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अध्याय छब्बीस – नारकीय लोकों का वर्णन (5.26) 

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे महाशय, जीवात्माओं को विभिन्न भौतिक गतियाँ क्यों प्राप्त होती हैं? कृपा करके मुझसे कहें।

2 महामुनि श्रील शुकदेव बोले- हे राजन, इस जगत में सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में स्थित तीन प्रकार के कर्म होते हैं। चूँकि सभी मनुष्य इन तीन गुणों से प्रभावित होते हैं, अतः कर्मों के फल भी तीन प्रकार के होते हैं। जो सतोगुण के अनुसार कर्म करता है, वह धार्मिक एवं सुखी होता है, जो रजोगुण में कर्म करता है उसे कष्ट तथा

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ॐ श्री गुरु गौरांग जयतः

अध्याय अठारह उपसंहार—संन्यास की सिद्धि 

https://youtu.be/VQSon4RQDcM

1 अर्जुन ने कहा— हे महाबाहु! मैं त्याग का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश! मैं त्यागमय जीवन (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ।

2 श्रीभगवान ने कहा— भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं।

3 कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चा

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