neelampatwari (31)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।। 19 ।।

यः- जो;माम्- मुझको;एवम्- इस प्रकार;असम्मूढः- संशयरहित;जानाति- जानता है;पुरुष-उत्तमम्- भगवान्;सः- वह;सर्व-वित्- सब कुछ जानने वाला;भजति- भक्ति करता है;माम्- मुझको;सर्व-भावेन- सभी प्रकार से;भारत- हे भरतपुत्र।

भावार्थ : जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवान के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानता है। अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। 7 ।।

मम- मेरा;एव- निश्चय ही;अंशः- सूक्ष्म कण;जीव-लोके- बद्ध जीवन के संसार में;जीव-भूतः- बद्ध जीव;सनातनः- शाश्वत;मनः- मन;षष्ठानि- छह;इन्द्रियाणि- इन्द्रियों समेत;प्रकृति- भौतिक प्रकृति में;स्थानि- स्थित;कर्षति- संघर्ष करता है।

भावार्थ : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें म
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।। 10

अभ्यासे- अभ्यास में;अपि- भी;असमर्थः- असमर्थ;असि- हो;मत्-कर्म- मेरे कर्म के प्रति;परमः- परायण;भव- बनो;मत्-अर्थम्- मेरे लिए;अपि- भी;कर्माणि- कर्म ;कुर्वन्- करते हुए;सिद्धिम्- सिद्धि को;अवाप्स्यसि- प्राप्त करोगे।

भावार्थ : यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पू
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेश्य ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ 8

मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;मनः- मन को;आधत्स्व- स्थिर करो;मयि- मुझमें;बुद्धिम्- बुद्धि को;निवेश्य- लगाओ;निवसिष्यसि- तुम निवास करोगे;मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;अतः-अर्ध्वम्- तत्पश्चात्;- कभी नहीं;संशयः- सन्देह।

भावार्थ : मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी साड़ी बुद्धि मुझमें लगाओ। इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे।

तात्पर्य : जो भगवान्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।54

भक्त्या- भक्ति से;तु- लेकिन;अनन्यया- सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित;शक्यः- सम्भव;अहम्- मैं;एवम्-विधः- इस प्रकार;अर्जुन- हे अर्जुन;ज्ञातुम्- जानने;द्रष्टुम्- देखने;- तथा;तत्त्वेन- वास्तव में;प्रवेष्टुम्- प्रवेश करने;- भी;परन्तप- हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।

भावार्थ : हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।54

भक्त्या- भक्ति से;तु- लेकिन;अनन्यया- सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित;शक्यः- सम्भव;अहम्- मैं;एवम्-विधः- इस प्रकार;अर्जुन- हे अर्जुन;ज्ञातुम्- जानने;द्रष्टुम्- देखने;- तथा;तत्त्वेन- वास्तव में;प्रवेष्टुम्- प्रवेश करने;- भी;परन्तप- हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।

भावार्थ : हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप म

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। 12 ।।

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। 13 ।।

अर्जुन उवाच– अर्जुन ने कहा;परम्– परम;ब्रह्म– सत्य;परम्– परम;धाम– आधार;पवित्रम्– शुद्ध;परमम्– परम;भवान्– आप;पुरुषम्– पुरुष;शाश्वतम्– नित्य;दिव्यम्– दिव्य;आदि-देवम्– आदि स्वामी;अजम्– अजन्मा;विभुम्–सर्वोच्च;आहुः- कहते हैं;त्वाम्– आपको;ऋषयः– साधुगण;

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। 9 ।।

मत्-चित्ताः– जिनके मन मुझमें रमे हैं;मत्-गत-प्राणाः– जिनके जीवन मुझ में अर्पित हैं;बोधयन्तः– उपदेश देते हुए;परस्परम्– एक दूसरे से, आपस में;– भी;कथयन्तः– बातें करते हुए;– भी;माम्– मेरे विषय में;नित्यम्– निरन्तर;तुष्यन्ति– प्रसन्न होते हैं;– भी;रमन्ति– दिव्य आनन्द भोगते हैं;– भी।

भावार्थ : मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं,
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मांहिपार्थव्यपाश्रित्ययेSपिस्यु: पापयोनयः ।

स्त्रियोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेSपियान्तिपरांगतिम् ।। 32 ।।

माम् –मेरी;हि– निश्चय ही;पार्थ– हे पृथापुत्र;व्यपाश्रित्य– शरण ग्रहण करके;ये– जो;अपि– भी;स्युः– हैं;पाप-योनयः– निम्नकुल में उत्पन्न;स्त्रियः– स्त्रियाँ;वैश्याः– वणिक लोग;तथा– भी;शूद्राः– निम्न श्रेणी के व्यक्ति;ते अपि– वे भी;यान्ति– जाते हैं;पराम्– परम;गतिम्– गन्तव्य को।

भावार्थ : हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही न
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

समोSहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योSस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। 29 ।।

समः– समभाव;अहम्– मैं;सर्व-भूतेषु– समस्त जीवों में;– कोई नहीं;मे– मुझको;द्वेष्यः– द्वेषपूर्ण;अस्ति– है;– न तो;प्रियः– प्रिय;ये– जो;भजन्ति– दिव्यसेवा करते हैं;तु– लेकिन;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति से;मयि– मुझमें हैं;ते– वे व्यक्ति;तेषु– उनमें;– भी;अपि– निश्चय ही;अहम्– मैं।

भावार्थ : मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् 22

अनन्याः– जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से;चिन्तयन्तः– चिन्तन करते हुए;माम्– मुझको;ये– जो;जनाः– व्यक्ति;पर्युपासते– ठीक से पूजते हैं;तेषाम्– उन;नित्य– सदा;अभियुक्तानाम्– भक्ति में लीन मनुष्यों की;योग– आवश्यकताएँ;क्षेमम्– सुरक्षा, आश्रय;वहामि– वहन करता हूँ;अहम्– मैं।

भावार्थ : किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान कर

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ।। 12 ।।

मोघ-आशाः– निष्फल आशा;मोघ-कर्माणः– निष्फल सकाम कर्म;मोघ-ज्ञानाः– विफल ज्ञान;विचेतसः– मोहग्रस्त;राक्षसीम्– राक्षसी;आसुरीम्– आसुरी;– तथा;एव– निश्चय ही;प्रकृतिम्– स्वभाव को;मोहिनीम्– मोहने वाली;श्रिताः– शरण ग्रहण किये हुए।
भावार्थ : जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।। 10 ।।

मया– मेरे द्वारा;अध्यक्षेण– अध्यक्षता के कारण;प्रकृतिः– प्रकृति;सूयते– प्रकट होती है;– सहित;चर-अचरम्– जड़ तथा जंगम;हेतुना– कारण से;अनेन– इस;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;जगत्– दृश्य जगत;विपरिवर्तते– क्रियाशील है।
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चार तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमुर्तिना ।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ।। 4 ।।

मया– मेरे द्वारा;ततम्– व्याप्त है;इदम्– यह;सर्वम्– समस्त;जगत्– दृश्य जगत;अव्यक्त-मूर्तिना– अव्यक्त रूप द्वारा;मत्-स्थानि– मुझमें;सर्व-भूतानि– समस्त जीव;– नहीं;– भी;अहम्– मैं;तेषु– उनमें;अवस्थितः– स्थित।

भावार्थ : यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।

तात्पर्य : भगवान् की अनुभूति स्थूल

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोSर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते 16

-ब्रह्म-भुवनात्– ब्रह्मलोक तक;लोकाः– सारे लोक;पुनः– फिर;आवर्तिनः– लौटने वाले;अर्जुन– हे अर्जुन;माम्– मुझको;उपेत्य– पाकर;तु– लेकिन;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;पुनःजन्म– पुनर्जन्म;– कभी नहीं;विद्यते– होता है।

भावार्थ : इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मे
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम् ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।। 15 ।।

माम्– मुझको;उपेत्य– प्राप्त करके;पुनः– फिर;जन्म– जन्म;दुःख-आलयम्– दुखों के स्थान को;अशाश्वतम्– क्षणिक;– कभी नहीं;आप्नुवन्ति– प्राप्त करते हैं;महा-आत्मानः– महान पुरुष;संसिद्धिम्– सिद्धि को;परमाम्– परं;गताः– प्राप्त हुए।

भावार्थ : मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम स
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ 16

चतुः विधाः– चार प्रकार के;भजन्ते– सेवा करते हैं;माम्– मेरी;जनाः– व्यक्ति;सु-कृतिनः– पुण्यात्मा;अर्जुन– हे अर्जुन;आर्तः– विपदाग्रस्त, पीड़ित;जिज्ञासुः– ज्ञान के जिज्ञासु;अर्थ-अर्थी– लाभ की इच्छा रखने वाले;ज्ञानी– वस्तुओं को सही रूप में जानने वाले, तत्त्वज्ञ;– भी;भरत-ऋषभ– हे भरतश्रेष्ठ।
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करत

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः 15

– नहीं;माम्– मेरी;दुष्कृतिनः– दुष्ट;मूढाः– मूर्ख;प्रपद्यन्ते– शरण ग्रहण करते हैं;नर-अधमाः– मनुष्यों में अधम;मायया– माया के द्वारा;अपहृत– चुराये गये;ज्ञानाः– ज्ञान वाले;आसुरम्– आसुरी;भावम्– प्रकृति या स्वभाव को;आश्रिताः– स्वीकार किये हुए।

भावार्थ : जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्ति

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