dhirajsingh (19)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।। 11 ।।

तेषाम्– उन पर;एव– निश्चय ही;अनुकम्पा-अर्थम्– विशेष कृपा करने के लिए;अहम्– मैं;अज्ञान-जम्– अज्ञान के कारण;तमः– अंधकार;नाशयामि– दूर करता हूँ;आत्म-भाव– उनके हृदयों में;स्थः– स्थित;ज्ञान– ज्ञान के;दीपेन– दीपक द्वारा;भास्वता– प्रकाशमान हुए।

भावार्थ : मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञान
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।। 8 ।।

अहम्– मैं;सर्वस्य– सबका;प्रभवः– उत्पत्ति का कारण;मत्तः– मुझसे;सर्वम्– सारी वस्तुएँ;प्रवर्तते– उद्भूत होती हैं;इति– इस प्रकार;मत्वा– जानकर;भजन्ते– भक्ति करते हैं;माम्– मेरी;बुधाः– विद्वानजन;भाव-समन्विताः– अत्यन्त मनोयोग से।

भावार्थ : मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँत
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मांहिपार्थव्यपाश्रित्ययेSपिस्यु: पापयोनयः ।

स्त्रियोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेSपियान्तिपरांगतिम् ।। 32 ।।

माम् –मेरी;हि– निश्चय ही;पार्थ– हे पृथापुत्र;व्यपाश्रित्य– शरण ग्रहण करके;ये– जो;अपि– भी;स्युः– हैं;पाप-योनयः– निम्नकुल में उत्पन्न;स्त्रियः– स्त्रियाँ;वैश्याः– वणिक लोग;तथा– भी;शूद्राः– निम्न श्रेणी के व्यक्ति;ते अपि– वे भी;यान्ति– जाते हैं;पराम्– परम;गतिम्– गन्तव्य को।

भावार्थ : हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही न
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् 27

यत्– जो कुछ;करोषि– करते हो;यत्– जो भी;अश्नासि– खाते हो;यत्– जो कुछ;जुहोषि– अर्पित करते हो;ददासि– दान देते हो;यत्– जो;यत्– जो भी;तपस्यसि– तप करते हो;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;तत्– वह;कुरुष्व– करो;अर्पणम्– भेंट रूप में।
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमुर्तिना ।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ।। 4 ।।

मया– मेरे द्वारा;ततम्– व्याप्त है;इदम्– यह;सर्वम्– समस्त;जगत्– दृश्य जगत;अव्यक्त-मूर्तिना– अव्यक्त रूप द्वारा;मत्-स्थानि– मुझमें;सर्व-भूतानि– समस्त जीव;– नहीं;– भी;अहम्– मैं;तेषु– उनमें;अवस्थितः– स्थित।

भावार्थ : यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।

तात्पर्य : भगवान् की अनुभूति स्थूल

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम् ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।। 15 ।।

माम्– मुझको;उपेत्य– प्राप्त करके;पुनः– फिर;जन्म– जन्म;दुःख-आलयम्– दुखों के स्थान को;अशाश्वतम्– क्षणिक;– कभी नहीं;आप्नुवन्ति– प्राप्त करते हैं;महा-आत्मानः– महान पुरुष;संसिद्धिम्– सिद्धि को;परमाम्– परं;गताः– प्राप्त हुए।

भावार्थ : मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम स
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः 6

यम् यम्– जिस;वा अपि– किसी भी;स्मरन्– स्मरण करते हुए;भावम्– स्वभाव को;त्यजति– परित्याग करता है;अन्ते– अन्त में;कलेवरम्– शरीर को;तम् तम्– वैसा ही;एव– निश्चय ही;एति– प्राप्त करता है;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;सदा– सदैव;तत्– उस;भाव– भाव;भावितः– स्मरण करता हुआ।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः 6

यम् यम्– जिस;वा अपि– किसी भी;स्मरन्– स्मरण करते हुए;भावम्– स्वभाव को;त्यजति– परित्याग करता है;अन्ते– अन्त में;कलेवरम्– शरीर को;तम् तम्– वैसा ही;एव– निश्चय ही;एति– प्राप्त करता है;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;सदा– सदैव;तत्– उस;भाव– भाव;भावितः– स्मरण करता हुआ।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ 16

चतुः विधाः– चार प्रकार के;भजन्ते– सेवा करते हैं;माम्– मेरी;जनाः– व्यक्ति;सु-कृतिनः– पुण्यात्मा;अर्जुन– हे अर्जुन;आर्तः– विपदाग्रस्त, पीड़ित;जिज्ञासुः– ज्ञान के जिज्ञासु;अर्थ-अर्थी– लाभ की इच्छा रखने वाले;ज्ञानी– वस्तुओं को सही रूप में जानने वाले, तत्त्वज्ञ;– भी;भरत-ऋषभ– हे भरतश्रेष्ठ।
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करत

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अध्याय सत्रह -- कालिय का इतिहास (10.17)

1 [इस प्रकार कृष्ण ने कालिय की प्रताड़णा की उसे सुनकर] राजा परीक्षित ने पूछा: कालिय ने सर्पों के निवास रमणक द्वीप को क्यों छोड़ा और गरुड़ उसीका इतना विरोधी क्यों बन गया?

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: गरुड़ द्वारा खाये जाने से बचने के लिए सर्पों ने पहले से उससे यह समझौता कर रखा था कि उनमें से हर सर्प मास में एक बार अपनी भेंट लाकर वृक्ष के नीचे रख जाया करेगा। इस तरह हे महाबाहु परीक्षित, प्रत्येक मास हर सर्प अपनी रक्षा के मूल्य के रूप में विष्णु के शक्तिशाली व

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अध्याय बारह - अघासुर का वध (10.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, एक दिन कृष्ण ने जंगल में विहार करते हुए कलेवा करना चाहा। उन्होंने बड़े सुबह उठकर सींग का बिगुल बजाया तथा उसकी मधुर आवाज से ग्वालबालों तथा बछड़ों को जगाया। फिर कृष्ण तथा सारे बालक अपने अपने बछड़ों के समूहों को आगे करके व्रजभूमि से जंगल की ओर बढ़े।

2 उस समय लाखों ग्वालबाल व्रजभूमि में अपने -अपने घरों से बाहर आ गये और अपने साथ के लाखों बछड़ों की टोलियों को अपने आगे करके कृष्ण से आ मिले। ये बालक अतीव सुन्दर थे। उनके पास कलेवा की प

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अध्याय दस - यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार (10.10)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: हे महान एवं शक्तिशाली सन्त, नारदमुनि द्वारा नलकूवर तथा मणिग्रीव को शाप दिये जाने का क्या कारण था? उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दनीय कार्य किया कि देवर्षि नारद तक उन पर क्रुद्ध हो उठे? कृपया मुझे कह सुनायें।

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, चूँकि कुबेर के दोनों पुत्रों को भगवान शिवजी के पार्षद होने का गौरव प्राप्त था, फलतः वे अत्यधिक गर्वित हो उठे थे। उन्हें मन्दाकिनी नदी के तट पर कैलाश

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अध्याय आठ – भगवान कृष्ण द्वारा अपने मुख के भीतर विराट रूप का प्रदर्शन (10.8)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, तब यदुकुल के पुरोहित एवं तपस्या में बढ़े चढ़े गर्गमुनि को वसुदेव ने प्रेरित किया कि वे नन्द महाराज के घर जाकर उन्हें मिलें।

2 जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि को अपने घर में उपस्थित देखा तो वे उनके स्वागत में दोनों हाथ जोड़े उठ खड़े हुए। यद्यपि गर्गमुनि को नन्द महाराज अपनी आँखों से देख रहे थे किन्तु वे उन्हें अधोक्षज मान रहे थे अर्थात वे भौतिक इन्द्रियों से दिखाई पड़ने वाले सामान्

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पूतना वध (10.6)

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अध्याय  छह -  पूतना वध (10.6) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब नन्द महाराज घर वापस आ रहे थे तो उन्होंने विचार किया कि वसुदेव ने जो कुछ कहा था वह असत्य या निरर्थक नहीं हो सकता। अवश्य ही गोकुल में उत्पातों के होने का कुछ खतरा रहा होगा। ज्योंही नन्द महाराज ने अपने सुन्दर पुत्र कृष्ण के लिए खतरे के विषय में सोचा त्योंही वे भयभीत हो उठे और उन्होंने परम नियन्ता के चरणकमलों में शरण ली।

2 जब नन्द महाराज गोकुल लौट रहे थे तो वही विकराल पूतना, जिसे कंस ने बच्चों को मारने के लिए पहले से नियुक्त क

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अध्याय पाँच - नन्द महाराज तथा वसुदेव की भेंट (10.5)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: नन्द महाराज स्वभाव से अत्यन्त उदार थे अतः जब भगवान श्रीकृष्ण ने उनके पुत्र रूप में जन्म लिया तो वे हर्ष के मारे फूले नहीं समाए। अतएव स्नान द्वारा अपने को शुद्ध करके तथा समुचित ढंग से वस्त्र धारण करके उन्होंने वैदिक मंत्रों का पाठ करने वाले ब्राह्मणों को बुला भेजा। जब ये योग्य ब्राह्मण शुभ वैदिक स्तोत्रों का पाठ कर चुके तो नन्द ने अपने नवजात शिशु के जात-कर्म को विधिवत सम्पन्न किए जाने की व्यवस्था की। उन्होंने देव

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अध्याय चौबीस – भगवान श्रीकृष्ण (9.24)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने पिता द्वारा लाई गई उस लड़की के गर्भ से विदर्भ को तीन पुत्र प्राप्त हुए – कुश, क्रथ तथा रोमपाद। रोमपाद विदर्भ कुल का अत्यन्त प्रिय था।

2 रोमपाद का पुत्र बभ्रु हुआ जिससे कृति नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई। कृति का पुत्र उशिक हुआ और उशिक का पुत्र चेदि, चेदि से चैद्य तथा अन्य राजा (पुत्र) उत्पन्न हुए।

3-4 क्रथ का पुत्र कुन्ति, कुन्ति का पुत्र वृष्णि, वृष्णि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह, दशार्ह का व्योम, व्योम का जीमूत, जीमूत का

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भरत का वंश (9-21)

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अध्याय इक्कीस – भरत का वंश (9.21)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: चूँकि मरुतगणों ने भरद्वाज को लाकर दिया था इसलिए वह वितथ कहलाया। वितथ के पुत्र का नाम मन्यु था जिसके पाँच पुत्र हुए – बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर, तथा गर्ग। इन पाँचों में से नर के पुत्र का नाम संकृति था।

2 हे महाराज परीक्षित, हे पाण्डु के वंशज, संकृति के दो पुत्र थे – गुरु तथा रन्तिदेव। रन्तिदेव इस लोक में तथा परलोक दोनों में ही विख्यात हैं क्योंकि उनकी महिमा का गान न केवल मानव समाज में अपितु देव समाज में भी होता है।

3-5 रन्तिदेव

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अध्याय अठारह – राजा ययाति को यौवन की पुनः प्राप्ति (9.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, जिस तरह देहधारी आत्मा के छह इन्द्रियाँ होती हैं उसी तरह राजा नहुष के छह पुत्र थे जिनके नाम थे यति, ययाति, सनयती, आयति, वियति तथा कृति।

2 जब कोई मनुष्य राजा या सरकार के प्रधान का पद ग्रहण करता है तो वह आत्म-साक्षात्कार का अर्थ नहीं समझ पाता। यह जानकर, नहुष के सबसे बड़े पुत्र यति ने शासन सँभालना स्वीकार नहीं किया यद्यपि उसके पिता ने राज्य को उसे ही सौंपा था।

3 चूँकि ययाति के पिता नहुष ने इन्द

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अध्याय सत्रह – पुरुरवा के पुत्रों की वंशावली (9.17)

1-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: पुरुरवा से आयु नामक पुत्र हुआ जिससे नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजी, राभ तथा अनेना नाम के अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुए। हे महाराज परीक्षित, अब क्षत्रवृद्ध के वंश के विषय में सुनो। क्षत्रवृद्ध का पुत्र सुहोत्र था जिसके तीन पुत्र हुए – काश्य, कुश तथा गृत्समद। गृत्समद से शुनक हुआ और शुनक से शौनक मुनि उत्पन्न हुए जो ऋग्वेद में सर्वाधिक पटु थे।

4 काश्य का पुत्र काशी था और उसका पुत्र राष्ट्र हुआ जो दीर्घतम का पिता था।

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