disgamondal (38)

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

य इदं परमं गुह्यं मद्भकतेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।। 68 ।।

यः- जो;इदम्- इस;परमम्- अत्यन्त;गुह्यम्- रहस्य को;मत्- मेरे;भक्तेषु- भक्तों में से;अभिधास्यति- कहता है;भक्तिम्- भक्ति को;मयि- मुझको;पराम्- दिव्य;कृत्वा- करके;माम्- मुझको;एव- निश्चय ही;एष्यति- प्राप्त होता है;असंशय- इसमें कोई सन्देह नहीं।

भावार्थ : जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया ।। 61 ।।

ईश्वरः– भगवान्;सर्व-भूतानाम्– समस्त जीवों के;हृत्-देशे– हृदय में;अर्जुन– हे अर्जुन;तिष्ठति– वास करता है;भ्रामयन्– भ्रमण करने के लिए बाध्य करता हुआ;सर्व-भूतानि– समस्त जीवों को;यन्त्र– यन्त्र में;आरुढानि– सवार, चढ़े हुए;मायया– भौतिक शक्ति के वशीभूत होकर।

भावार्थ : हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया ।। 61 ।।

ईश्वरः– भगवान्;सर्व-भूतानाम्– समस्त जीवों के;हृत्-देशे– हृदय में;अर्जुन– हे अर्जुन;तिष्ठति– वास करता है;भ्रामयन्– भ्रमण करने के लिए बाध्य करता हुआ;सर्व-भूतानि– समस्त जीवों को;यन्त्र– यन्त्र में;आरुढानि– सवार, चढ़े हुए;मायया– भौतिक शक्ति के वशीभूत होकर।

भावार्थ : हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्र्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्  ।। 55 ।।

भक्त्या– शुद्ध भक्ति से;माम्– मुझको;अभिजानाति– जान सकता है;यावान्– जितना;यः च अस्मि– जैसा मैं हूँ;तत्त्वतः– सत्यतः;ततः– तत्पश्चात्;माम्– मुझको;तत्त्वतः– सत्यतः;ज्ञात्वा– जानकर;विशते– प्रवेश करता है;तत्-अनन्तरम्– तत्पश्चात्।

भावार्थ : केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे प
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। 42 ।।

शमः– शान्तिप्रियता;दमः– आत्मसंयम;तपः– तपस्या;शौचम्– पवित्रता;क्षान्तिः– सहिष्णुता;आर्जवम्– सत्यनिष्ठा;एव– निश्चय ही;– तथा;ज्ञानम्–ज्ञान;विज्ञानम्– विज्ञान;आस्तिक्यम्– धार्मिकता;ब्रह्म– ब्राह्मण का;कर्म–कर्तव्य;स्वभावजम्– स्वभाव से उत्पन्न, स्वाभाविक।

भावार्थ : शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। 7 ।।

मम- मेरा;एव- निश्चय ही;अंशः- सूक्ष्म कण;जीव-लोके- बद्ध जीवन के संसार में;जीव-भूतः- बद्ध जीव;सनातनः- शाश्वत;मनः- मन;षष्ठानि- छह;इन्द्रियाणि- इन्द्रियों समेत;प्रकृति- भौतिक प्रकृति में;स्थानि- स्थित;कर्षति- संघर्ष करता है।

भावार्थ : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें म
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। 4

सर्व-योनिषु- समस्त योनियों में;कौन्तेय- हे कुन्तीपुत्र;मूर्तयः- स्वरूप;सम्भवन्ति- प्रकट होते हैं;याः- जो;तासाम्- उन सबों का;ब्रह्म- परम;महत् योनिः- जन्म स्त्रोत;अहम्- मैं;बीज-प्रदः- बीजप्रदाता;पिता- पिता।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेश्य ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ 8

मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;मनः- मन को;आधत्स्व- स्थिर करो;मयि- मुझमें;बुद्धिम्- बुद्धि को;निवेश्य- लगाओ;निवसिष्यसि- तुम निवास करोगे;मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;अतः-अर्ध्वम्- तत्पश्चात्;- कभी नहीं;संशयः- सन्देह।

भावार्थ : मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी साड़ी बुद्धि मुझमें लगाओ। इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे।

तात्पर्य : जो भगवान्

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव 55

मत्-कर्म-कृत- मेरा कर्म करने में रत;मत्-परमः- मुझको परम मानते हुए;मत्-भक्तः- मेरी भक्ति में रत;सङग-वर्जितः- सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त;निर्वैरः- किसी से शत्रुरहित;सर्व-भूतेषु- समस्त जीवों में;यः- जो;माम्- मुझको;एति- प्राप्त करता है;पाण्डव- हे पाण्डु के पुत्र।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त हो

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव 55

मत्-कर्म-कृत- मेरा कर्म करने में रत;मत्-परमः- मुझको परम मानते हुए;मत्-भक्तः- मेरी भक्ति में रत;सङग-वर्जितः- सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त;निर्वैरः- किसी से शत्रुरहित;सर्व-भूतेषु- समस्त जीवों में;यः- जो;माम्- मुझको;एति- प्राप्त करता है;पाण्डव- हे पाण्डु के पुत्र।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त हो

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव 55

मत्-कर्म-कृत- मेरा कर्म करने में रत;मत्-परमः- मुझको परम मानते हुए;मत्-भक्तः- मेरी भक्ति में रत;सङग-वर्जितः- सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त;निर्वैरः- किसी से शत्रुरहित;सर्व-भूतेषु- समस्त जीवों में;यः- जो;माम्- मुझको;एति- प्राप्त करता है;पाण्डव- हे पाण्डु के पुत्र।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त हो

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंSशसम्भवम् ।। 41 ।।

यत् – यत्– जो जो;विभूति– ऐश्वर्य ;मत्– युक्त;सत्त्वम्– अस्तित्व;श्री-मत्– सुन्दर;उर्जिवम्– तेजस्वी;एव– निश्चय ही;वा– अथवा;तत्-तत्– वे वे;एव– निश्चय ही;अवगच्छ– जानो;तवम्– तुम;मम– मेरे;तेजः– तेज का;अंश– भाग, अंश से;सम्भवम्– उत्पन्न।
भावार्थ : तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत है
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।। 11 ।।

तेषाम्– उन पर;एव– निश्चय ही;अनुकम्पा-अर्थम्– विशेष कृपा करने के लिए;अहम्– मैं;अज्ञान-जम्– अज्ञान के कारण;तमः– अंधकार;नाशयामि– दूर करता हूँ;आत्म-भाव– उनके हृदयों में;स्थः– स्थित;ज्ञान– ज्ञान के;दीपेन– दीपक द्वारा;भास्वता– प्रकाशमान हुए।

भावार्थ : मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञान
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।। 8 ।।

अहम्– मैं;सर्वस्य– सबका;प्रभवः– उत्पत्ति का कारण;मत्तः– मुझसे;सर्वम्– सारी वस्तुएँ;प्रवर्तते– उद्भूत होती हैं;इति– इस प्रकार;मत्वा– जानकर;भजन्ते– भक्ति करते हैं;माम्– मेरी;बुधाः– विद्वानजन;भाव-समन्विताः– अत्यन्त मनोयोग से।

भावार्थ : मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँत
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। 30 ।।

अपि– भी;चेत्– यदि;सु-दुराचारः– अत्यन्त गर्हित कर्म करने वाला;भजते– सेवा करता है;माम्– मेरी;अनन्य-भाक्– बिना विचलित हुए;साधुः– साधु पुरुष;एव– निश्चय ही;सः– वह;मन्तव्यः– मानने योग्य;सम्यक्– पूर्णतया;व्यवसितः– संकल्प करना;हि– निश्चय ही;सः– वह।

भावार्थ : यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्
Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः 26

पत्रम्– पत्ती;पुष्पम्– फूल;फलम्- फल;तोयम्– जल;यः– जो कोई;मे– मुझको;भक्त्या– भक्तिपूर्वक;प्रयच्छति– भेंट करता है;तत्– वह;अहम्– मैं;भक्ति-उपहृतम्– भक्तिभाव से अर्पित;अश्नामि– स्वीकार करता हूँ;प्रयत-आत्मनः– शुद्धचेतना वाले से।

भावार्थ : यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।

तात्पर्य

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।

नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ।। 14 ।।

सततम्– निरन्तर;कीर्तयन्तः– कीर्तन करते हुए;माम्– मेरे विषयमें;यतन्तः– प्रयास करते हुए;– भी;दृढ़-व्रताः– संकल्पपूर्वक;नमस्यन्तः–नमस्कार करते हुए;– तथा;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति में;नित्य-युक्ताः–सदैव रत रहकर;उपासते– पूजा करते हैं।

भावार्थ : ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए,

Read more…

12803001058?profile=RESIZE_400x

भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्  ।। -11- ।।

अवजानन्ति– उपहास करते हैं;माम्– मुझको;मूढाः– मूर्ख व्यक्ति;मानुषीम्– मनुष्य रूप में;तनुम्– शरीर;अश्रितम्– मानते हुए;परम्– दिव्य;भावम्– स्वभाव को;अजानन्तः– न जानते हुए;मम– मेरा;भूत– प्रत्येक वस्तु का;महा-ईश्वरम्– परम स्वामी।
भावार्थ : जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।

Read more…