भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय ग्यारह विराट रूप
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ 55 ॥
मत्-कर्म-कृत- मेरा कर्म करने में रत;मत्-परमः- मुझको परम मानते हुए;मत्-भक्तः- मेरी भक्ति में रत;सङग-वर्जितः- सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त;निर्वैरः- किसी से शत्रुरहित;सर्व-भूतेषु- समस्त जीवों में;यः- जो;माम्- मुझको;एति- प्राप्त करता है;पाण्डव- हे पाण्डु के पुत्र।
भावार्थ : हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त हो