
अध्याय चार – दुर्वासा मुनि द्वारा अम्बरीष महाराज का अपमान (9.4)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: नभग का पुत्र नाभाग बहुत काल तक अपने गुरु के पास रहा। अतएव उसके भाइयों ने सोचा कि अब वह गृहस्थ नहीं बनना चाहता और वापस नहीं आएगा। फलस्वरूप उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति में उसका हिस्सा न रखकर उसे आपस में बाँट लिया। जब नाभाग अपने गुरु के स्थान से वापस आया तो उन्होंने उसके हिस्से के रूप में उसे अपने पिता को दे दिया।
2 नाभाग ने पूछा, “मेरे भाइयों, आप लोगों ने पिता की सम्पत्ति में से मेरे हिस्से में मुझे क्या दिया है?” उसके भाई बोले, “हमने तुम्हारे हिस्से में पिताजी को रख छोड़ा है।" तब नाभाग अपने पिता के पास गया और बोला, “ हे पिताजी, मेरे भाइयों ने मेरे हिस्से में आपको दिया है।" इस पर पिता ने उत्तर दिया, “ मेरे बेटे, तुम इनके ठगने वाले शब्दों पर भरोसा मत करना। मैं तुम्हारी सम्पत्ति नहीं हूँ।"
3 नाभाग के पिता ने कहा: अंगिरा के वंशज इस समय एक महान यज्ञ सम्पन्न करने जा रहे हैं, यद्यपि वे अत्यन्त बुद्धिमान हैं किन्तु वे हर छठे दिन यज्ञ करते हुए मोहग्रस्त होंगे और अपने नैतिक कर्मों में त्रुटि करेंगे।
4-5 नाभाग के पिता ने आगे कहा: "उन महात्माओं के पास जाओ और उन्हें वैश्वदेव सम्बन्धी दो वैदिक मंत्र सुनाओ। जब वे महात्मा यज्ञ समाप्त करके स्वर्गलोक को जा रहे होंगे तो वे यज्ञ में प्राप्त शेष दक्षिणा तुम्हें दे देंगे। अतएव तुम तुरन्त जाओ।" इस तरह नाभाग ने वैसा ही किया जैसा उसके पिता ने सलाह दी थी और अंगिरा वंश के सारे मुनियों ने उसे अपना सारा धन दे दिया और फिर वे स्वर्गलोक को चले गये।
6 जब नाभाग सारा धन ले रहा था तो उत्तर दिशा से एक काला कलूटा व्यक्ति उसके पास आया और बोला, “इस यज्ञशाला की सारी सम्पदा मेरी है।"
7 तब नाभाग ने कहा: “ यह धन मेरा है। इसे ऋषियों ने मुझे प्रदान किया है।" जब नाभाग ने यह कहा तो उस काले कलूटे ने उत्तर दिया "चलो तुम्हारे पिता के पास चलें और उनसे इसका निपटारा करने के लिए कहें।" तदनुसार नाभाग ने अपने पिता से पूछा।
8 नाभाग के पिता ने कहा: ऋषियों ने दक्ष यज्ञशाला में जो भी आहुति दी थी, वह शिवजी को उनके भाग के रूप में दी गई थी। अतएव इस यज्ञशाला की प्रत्येक वस्तु निश्चित रूप से शिवजी की है।
9 तत्पश्चात शिवजी को नमस्कार करने के बाद नाभाग ने कहा: हे पूज्यदेव, इस यज्ञशाला की प्रत्येक वस्तु आपकी है – ऐसा मेरे पिता का मत है। अब मैं विनम्रतापूर्वक आपके समक्ष अपना सिर झुकाकर आपसे कृपा की भीख माँगता हूँ।
10 शिवजी ने कहा: तुम्हारे पिता ने जो कुछ कहा है वह सत्य है और तुम भी वही सत्य कह रहे हो। अतएव वेदमंत्रों का ज्ञाता मैं तुम्हें दिव्य ज्ञान बतलाऊँगा।
11 शिवजी ने कहा: “अब तुम यज्ञ का बचा सारा धन ले सकते हो क्योंकि मैं इसे तुम्हें दे रहा हूँ।" यह कहकर धार्मिक सिद्धान्तों में अटल रहने वाले शिवजी उस स्थान से अदृश्य हो गये।
12 जो कोई इस कथा को प्रातःकाल एवं सायंकाल अत्यन्त ध्यानपूर्वक सुनता या स्मरण करता है वह निश्चय ही विद्वान, वैदिकी स्तोत्रों को समझने वाला एवं स्वरूपसिद्ध हो जाता है।
13 नाभाग से महाराज अम्बरीष ने जन्म लिया। महाराज अम्बरीष उच्च भक्त थे और अपने महान गुणों के लिए विख्यात थे। यद्यपि उन्हें एक अच्युत ब्राह्मण ने शाप दिया था, किन्तु वह शाप उनका स्पर्श भी न कर पाया।
14 राजा परीक्षित ने पूछा: हे महानुभाव, महाराज अम्बरीष निश्चय ही अत्यन्त उच्चस्थ एवं सच्चरित्र थे। मैं उनके विषय में सुनना चाहता हूँ। यह कितना आश्चर्यजनक है कि एक ब्राह्मण का दुर्लंघ्य शाप उन पर अपना कोई प्रभाव नहीं दिखला सका।
15-16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अत्यन्त भाग्यवान महाराज अम्बरीष ने सात द्वीपों वाले सम्पूर्ण विश्व पर शासन किया और पृथ्वी पर अक्षय असीम ऐश्वर्य तथा सम्पन्नता प्राप्त की। यद्यपि ऐसा पद विरले ही मिलता है, किन्तु महाराज अम्बरीष ने इसकी तनिक भी परवाह नहीं की क्योंकि उन्हें पता था कि ऐसा सारा ऐश्वर्य भौतिक है। ऐसा ऐश्वर्य स्वप्नतुल्य है और अन्ततोगत्वा विनष्ट हो जायेगा। राजा जानता था कि कोई भी अभक्त ऐसा ऐश्वर्य प्राप्त करके प्रकृति के तमोगुण में अधिकाधिक डूबता जाता है।
17 महाराज अम्बरीष भगवान वासुदेव के तथा भगवदभक्त सन्त पुरुषों के महान भक्त थे। इस भक्ति के कारण वे सारे विश्व को एक पत्थर के टुकड़े के समान नगण्य मानते थे।
18-20 महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में, अपने शब्दों को भगवान का गुणगान करने में, अपने हाथों को भगवान का मन्दिर झाड़ने-बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे। वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह, कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों, यथा मथुरा तथा वृन्दावन, को देखने में लगाते रहे। वे अपनी स्पर्श-इन्द्रिय को भगवद भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में, अपनी घ्राणेन्द्रिय को भगवान पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूँघने में और अपनी जीभ को भगवान का प्रसाद चखने में लगाते रहे। उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान की सेवा करने में लगाया। निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा। वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे। भगवान के प्रति आसक्ति बढ़ाने और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत: मुक्त होने की यही विधि है।
21 राजा के रूप में अपने नियत कर्तव्यों का पालन करते हुए महाराज अम्बरीष अपने राजसी कार्यकलापों के फल को सदैव भगवान कृष्ण को अर्पित करते थे, जो प्रत्येक वस्तु के भोक्ता हैं और भौतिक इन्द्रियों के बोध के परे हैं। वे निश्चित रूप से निष्ठावान भगवद्भक्त ब्राह्मणों से सलाह लेते थे और इस प्रकार वे बिना किसी कठिनाई के पृथ्वी पर शासन करते थे।
22 महाराज अम्बरीष ने उस मरुस्थल में जिसमें से होकर सरस्वती नदी बहती है अश्वमेध जैसे महान यज्ञ सम्पन्न किये और समस्त यज्ञों के स्वामी भगवान को प्रसन्न किया। ऐसे यज्ञ महान ऐश्वर्य तथा उपयुक्त सामग्री द्वारा तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर सम्पन्न किये जाते थे और इन यज्ञों का निरीक्षण वसिष्ठ, असित तथा गौतम जैसे महापुरुषों द्वारा किया जाता था जो यज्ञों के सम्पन्नकर्ता राजा के प्रतिनिधि होते थे।
23 महाराज अम्बरीष द्वारा आयोजित यज्ञ में सभा के सदस्य तथा पुरोहित (विशेष रूप से होता, उदगाता, ब्रह्मा तथा अध्वर्यु) वस्त्रों से बहुत अच्छी तरह से सज्जित थे वे सब देवताओं की तरह लग रहे थे। उन्होंने उत्सुकतापूर्वक यज्ञ को समुचित रूप से सम्पन्न कराया।
24 महाराज अम्बरीष की प्रजा भगवान के महिमामय कार्यकलापों के विषय में कीर्तन एवं श्रवण करने की आदी थी। इस प्रकार वह कभी भी देवताओं के अत्यधिक प्रिय स्वर्गलोक में जाने की इच्छा नहीं करती थी।
25 जो लोग भगवान की सेवा करने के दिव्य सुख से परिपूर्ण हैं वे महान योगियों की उपलब्धियों में भी कोई रुचि नहीं रखते क्योंकि ऐसी उपलब्धियाँ उस भक्त के द्वारा अनुभव किये गये दिव्य आनन्द को वर्धित नहीं करती जो अपने हृदय के भीतर सदैव कृष्ण का चिन्तन करता रहता है।
26 इस लोक के राजा महाराज अम्बरीष ने इस तरह भगवान की भक्ति की और इस प्रयास में उन्होंने कठिन तपस्या की। उन्होंने अपने वैधानिक कार्यकलापों से भगवान को सदैव प्रसन्न करते हुए धीरे-धीरे सारी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया।
27 महाराज अम्बरीष ने घरेलू कार्यों, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों तथा सम्बन्धियों, श्रेष्ठ शक्तिशाली हाथियों, सुन्दर रथों, गाड़ियों, घोड़ों, अक्षय रत्नों, गहनों, वस्त्रों तथा अक्षय कोश के प्रति सारी आसक्ति छोड़ दी। उन्होंने इन वस्तुओं को नश्वर तथा भौतिक मानकर आसक्ति छोड़ दी।
28 महाराज अम्बरीष की अनन्य भक्ति से अतीव प्रसन्न होकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने राजा को अपना चक्र प्रदान किया जो शत्रुओं के लिए भयावह है और जो शत्रुओं तथा विपत्तियों से भक्तों की सदैव रक्षा करता है।
29 महाराज अम्बरीष ने अपने ही समान सुयोग्य अपनी रानी के साथ भगवान कृष्ण की पूजा करने के लिए एक वर्ष तक एकादशी तथा द्वादशी का व्रत रखा।
30 एक वर्ष तक उस व्रत को रखने के बाद, तीन रातों तक उपवास रखकर तथा यमुना में स्नान करके महाराज अम्बरीष ने कार्तिक के महीने में भगवान हरि की मधुवन में पूजा की।
31-32 महाभिषेक के विधि-विधानों के अनुसार महाराज अम्बरीष ने सारी सामग्री से भगवान कृष्ण के अर्चाविग्रह को स्नान कराया। फिर उन्हें सुन्दर वस्त्रों, आभूषणों, सुगन्धित फूलों की मालाओं तथा पूजा की अन्य सामग्री से अलंकृत किया। उन्होंने ध्यानपूर्वक तथा भक्तिपूर्वक कृष्ण की तथा भौतिक इच्छाओं से मुक्त अत्यन्त भाग्यशाली ब्राह्मणों की पूजा की।
33-35 तत्पश्चात महाराज अम्बरीष ने अपने घर में आये सारे अतिथियों को, विशेषकर ब्राह्मणों को संतुष्ट किया। उन्होंने साठ करोड़ गौवें दान में दीं जिनके सिंग सोने के पत्तर से और खुर चाँदी के पत्तर से मढ़े थे। सारी गौवें वस्त्रों से खूब सजाई गई थीं और उनके थन दूध से भरे थे। वे सुशील, तरुण तथा सुन्दर थीं और अपने-अपने बछड़ों के साथ थीं। इन गौवों का दान देने के बाद राजा ने सर्वप्रथम सारे ब्राह्मणों को भर पेट भोजन कराया और जब वे पूरी तरह संतुष्ट हो गये तो वे उनकी आज्ञा से एकादशी व्रत तोड़कर उसका पारण करने वाले थे। किन्तु ठीक उसी समय महान एवं शक्तिशाली दुर्वासा मुनि अनामंत्रित अतिथि के रूप में वहाँ पर आ पहुँचे।
36 दुर्वासा मुनि का स्वागत करने के लिए राजा अम्बरीष ने खड़े होकर उन्हें आसन तथा पूजा की सामग्री प्रदान की। तब उनके पाँवों के पास बैठकर राजा ने मुनि से भोजन करने के लिए अनुनय किया।
37 दुर्वासा मुनि ने प्रसन्नतापूर्वक महाराज अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली, किन्तु आवश्यक अनुष्ठान करने के लिए वे यमुना नदी में गये। वहाँ उन्होंने पवित्र यमुना नदी के जल में डुबकी लगाई और निराकार ब्रह्म का ध्यान किया।
38 तब तक व्रत तोड़ने के लिए द्वादशी का केवल आधा मुहूर्त शेष था,फलस्वरूप व्रत को तुरन्त तोड़ा जाना अनिवार्य था। ऐसी विकट परिस्थिति में राजा ने विद्वान ब्राह्मणों से परामर्श किया।
39-40 राजा ने कहा: “ब्राह्मणों के प्रति सत्कार के नियमों का उल्लंघन करना निश्चय ही महान अपराध है। दूसरी ओर यदि कोई द्वादशी की तिथि में अपने व्रत को नहीं तोड़ता तो व्रत के पालन में दोष आता है। अतएव हे ब्राह्मणों, यदि आप लोग यह सोचें कि यह शुभ है तथा अधर्म नहीं है तो मैं जल पीकर व्रत तोड़ दूँ।" इस प्रकार ब्राह्मणों से परामर्श करने के बाद राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि ब्राह्मणों के मतानुसार जल पी लेना, भोजन करने की तरह माना भी जा सकता है, और नहीं भी।
41 हे कुरुश्रेष्ठ, थोड़ा सा जल पीकर राजा अम्बरीष ने अपने मन में भगवान का ध्यान किया और फिर वे महान योगी दुर्वासा मुनि के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे।
42 दोपहर के समय सम्पन्न होनेवाले अनुष्ठानों को सम्पन्न कर लेने के बाद दुर्वासा मुनि यमुना के तट से वापस आये। राजा ने अच्छी प्रकार से उनका स्वागत किया, किन्तु दुर्वासा मुनि ने अपने योगबल से जान लिया कि राजा ने उनकी अनुमति के बिना जल पी लिया है।
43 भूखे, काँपते शरीर, टेढ़े मुँह तथा क्रोध से टेढ़ी भौहें किये दुर्वासा मुनि ने अपने समक्ष हाथ जोड़े खड़े राजा अम्बरीष से क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा।
44 ओह! जरा इस निर्दय व्यक्ति का आचरण तो देखो, यह भगवान विष्णु का भक्त नहीं है। यह अपने ऐश्वर्य तथा पद के गर्व के कारण अपने आपको ईश्वर समझ रहा है। देखो न, इसने धर्म के नियमों का उल्लंघन किया है।
45 महाराज अम्बरीष, तुमने मुझे अतिथि के रूप में भोजन के लिए बुलाया लेकिन मुझे न खिलाकर तुमने स्वयं पहले खा लिया है। तुम्हारे इस दुर्व्यवहार के कारण मैं तुमको इसका मजा चखाऊँगा।
46 जब दुर्वासा मुनि ने ऐसा कहा तो क्रोध से उनका मुख लाल पड़ गया। उन्होंने अपने सिर की जटा से एक बाल उखाड़कर महाराज अम्बरीष को दण्ड देने के लिए एक कृत्या उत्पन्न कर दी जो प्रलयाग्नि के समान प्रज्ज्वलित हो रही थी।
47 वह जाज्वल्यमान कृत्या अपने हाथ में त्रिशूल लेकर तथा अपने पदचाप से धरती को कम्पाती हुई महाराज अम्बरीष के सामने आई। किन्तु उसे देखकर राजा तनिक भी विचलित नहीं हुआ और अपने स्थान से रंचभर भी नहीं हटा।
48 जिस प्रकार दावाग्नि किसी क्रुद्ध सर्प को तुरन्त जला देती है उसी प्रकार पहले से आदिष्ट भगवान के सुदर्शन चक्र ने भगवद्भक्त की रक्षा करने के लिए उस सृजित कृत्या को जलाकर क्षार कर दिया।
49 जब दुर्वासा मुनि ने देखा कि उनका निजी प्रयास विफल हो गया है और सुदर्शन चक्र उनकी ओर बढ़ रहा है तो वे अत्यधिक भयभीत हो उठे और अपनी जान बचाने के लिए सारी दिशाओं में दौड़ने लगे।
50 जिस प्रकार दावाग्नि की लपटें साँप का पीछा करती है उसी तरह भगवान का चक्र दुर्वासा मुनि का पीछा करने लगा। दुर्वासा मुनि ने देखा कि यह चक्र उनकी पीठ को छूने वाला है अतएव वे तेजी से दौड़कर सुमेरु पर्वत की गुफा में घुस जाना चाह रहे थे।
51 अपनी रक्षा करने के लिए दुर्वासा मुनि सर्वत्र भागते रहे – वे आकाश, पृथ्वीतल, गुफाओं, समुद्र, तीनों लोकों के शासकों के विभिन्न लोकों तथा स्वर्गलोक में भी गये, किन्तु जहाँ-जहाँ गये वहीं उन्होंने सुदर्शन चक्र की असह्य अग्नि को उनका पीछा करते देखा।
52 दुर्वासा मुनि भयभीत मन से इधर उधर शरण खोजते रहे किन्तु जब उन्हें कोई शरण न मिल सकी तो अन्ततः ब्रह्माजी के पास पहुँचे और कहा – हे प्रभु, हे ब्रह्माजी, कृपा करके भगवान द्वारा भेजे गये इस ज्वलित सुदर्शन चक्र से मेरी रक्षा कीजिये।
53-54 ब्रह्माजी ने कहा: द्वि-परार्ध के अन्त में, जब भगवान की लीलाएँ समाप्त हो जाती हैं तो भगवान विष्णु अपनी एक भृकुटि को टेढ़ी करके सारे ब्रह्माण्ड का, जिसमें हमारे निवास स्थान भी सम्मिलित हैं, विनाश कर देते हैं। मैं तथा शिवजी जैसे महापुरुष तथा दक्ष, भृगु इत्यादि प्रधान ऋषिमुनि एवं जीवों के शासक, मानव समाज के शासक एवं देवताओं के शासक, हम सभी उन भगवान विष्णु को अपने सिर झुकाकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु उनके आदेशों का पालन करने के लिए उनकी शरण में जाते हैं।
55 जब सुदर्शन चक्र की ज्वलित अग्नि से सन्तप्त दुर्वासा को ब्रह्माजी ने इस प्रकार मना कर दिया तो उन्होंने कैलाश लोक में सदैव निवास करने वाले शिवजी की शरण लेने का प्रयास किया।
56 शिवजी ने कहा: हे पुत्र, मैं, ब्रह्माजी तथा अन्य देवता जो अपनी-अपनी महानता की भ्रान्त धारणा के कारण इस ब्रह्माण्ड के भीतर चक्कर लगाते रहते हैं, भगवान से स्पर्धा करने की क्षमता नहीं रखते, क्योंकि भगवान के निर्देशन मात्र से असंख्य ब्रह्माण्डों एवं इनके निवासियों की उत्पत्ति और संहार होता रहता है।
57-59 मैं (शिवजी), सनत्कुमार, नारद, परम आदरणीय ब्रह्माजी, कपिल (देवहुति पुत्र) अपान्तरतम (व्यास देवजी), देवल, यमराज, आसुरि, मरीचि इत्यादि अनेक सन्तपुरुष एवं सिद्धिप्राप्त अन्य अनेक लोग भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानने वाले हैं। फिर भी भगवान की माया से प्रच्छन्न होने के कारण हम यह नहीं समझ पाते कि यह माया कितनी विस्तीर्ण है। तुम उन्हीं भगवान की शरण में जाओ क्योंकि यह सुदर्शन चक्र हम लोगों के लिए भी दुःसह है। तुम भगवान विष्णु के पास जाओ। वे अवश्य ही दयार्द्र होकर तुम्हें सौभाग्य प्रदान करेंगे।
60 तत्पश्चात शिवजी के द्वारा भी शरण न दिये जाने से निराश होकर दुर्वासा मुनि वैकुण्ठधाम गये जहाँ भगवान नारायण अपनी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी के साथ निवास करते हैं।
61 सुदर्शन चक्र की गर्मी से झुलसे हुए महान योगी दुर्वासा मुनि नारायण के चरणकमलों पर गिर पड़े और कँपकपाते हुए बोले – “हे अच्युत, हे अनन्त, हे समस्त ब्रह्माण्ड के रक्षक, आप ही सभी भक्तों के अभीष्ट हैं। हे प्रभु, मैं महान अपराधी हूँ। कृपया मुझे संरक्षण प्रदान करें।
62 हे प्रभु, हे परम नियन्ता, मैंने आपकी असीम शक्ति समझे बिना आपके परम प्रिय भक्त के प्रति अपराध किया है। कृपया मुझे इस अपराध के फल से बचा लें। आप हर काम कर सकते हैं क्योंकि यदि कोई व्यक्ति नरक जाने लायक हो, उसके भी हृदय में अपने पवित्र नाम को जगाकर आप उसका उद्धार कर सकते हैं।
63 भगवान ने उस ब्राह्मण से कहा: मैं पूर्णत: अपने भक्तों के वश में हूँ। निस्सन्देह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ। चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ। मुझे मेरे भक्त ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं।
64 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं उन साधुपुरुषों के बिना अपना दिव्य आनन्द तथा अपने परम ऐश्वर्यों का भोग नहीं करना चाहता जिनके लिए मैं ही एकमात्र गन्तव्य हूँ।
65 चूँकि शुद्ध भक्तगण इस जीवन में या अगले जीवन में किसी भौतिक उन्नति की इच्छा से रहित होकर अपने घर, पत्नियों, बच्चों, , धन और यहाँ तक कि अपने जीवन का भी परित्याग, मात्र मेरी सेवा करने के लिए करते हैं तो मैं ऐसे भक्तों को कभी भी किस तरह छोड़ सकता हूँ।
66 जिस तरह सती स्त्रियाँ अपने भद्र पतियों को अपनी सेवा से अपने वश में कर लेती है उसी प्रकार से समदर्शी एवं हृदय से मुझमें अनुरक्त शुद्ध भक्तगण मुझको पूरी तरह अपने वश में कर लेते हैं।
67 मेरे जो भक्त मेरी प्रेमाभक्ति में लगे रहकर सदैव संतुष्ट रहते हैं वे मोक्ष के चार सिद्धान्तों (सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य तथा साष्टि) में भी तनिक रुचि नहीं रखते यद्यपि उनकी सेवा से ये उन्हें स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। तो फिर स्वर्गलोक जाने के नश्वर सुख के विषय में क्या कहा जाए?
68 शुद्ध भक्त मेरे हृदय में सदैव रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ। मेरे भक्त मेरे सिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता।
69 हे ब्राह्मण, अब मैं तुम्हारी रक्षा के लिए उपदेश देता हूँ। मुझसे सुनो। तुमने महाराज अम्बरीष का अपमान करके आत्म-द्वेष से कार्य किया है। अतएव तुम एक क्षण की भी देरी किये बिना तुरन्त उनके पास जाओ। जो व्यक्ति अपनी तथाकथित शक्ति का प्रयोग भक्त पर करता है उसकी वह शक्ति प्रयोक्ता को ही हानि पहुँचाती है इस प्रकार कर्ता (विषयी) को हानि पहुँचती है, विषय को नहीं।
70 ब्राह्मण के लिए तपस्या तथा विद्या निश्चय ही कल्याणप्रद है, किन्तु जब तपस्या तथा विद्या ऐसे व्यक्ति के पास होती है जो विनीत नहीं है तो वे अत्यन्त घातक होती हैं।
71 अतएव हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, तुम तुरन्त महाराज नाभाग के पुत्र राजा अम्बरीष के पास जाओ। मैं तुम्हारे कल्याण की कामना करता हूँ। यदि तुम महाराज अम्बरीष को प्रसन्न कर सके तो तुम्हें शान्ति मिल जायेगी।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)