jagdish chandra chouhan's Posts (549)

Sort by

10887494662?profile=RESIZE_584x

अध्याय बीस – पुरु का वंश (9.20)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज भरत के वंशज महाराज परीक्षित, अब मैं पुरु के वंश का वर्णन करूँगा जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो और जिसमें अनेक राजर्षि हुए हैं, जिनसे अनेक ब्राह्मण वंशों का प्रारम्भ हुआ है।

2 पुरु के ही इस वंश में राजा जनमेजय उत्पन्न हुआ। उसका पुत्र प्रचिन्वान था और उसका पुत्र था प्रवीर। तत्पश्चात प्रवीर का पुत्र मनुस्यु हुआ जिसका पुत्र चारुपद था।

3 चारुपद का पुत्र सुदयु था और सुदयु का पुत्र बहुगव था। बहुगव का पुत्र सन्याति था, जिससे अहन्याति नामक पुत्र हुआ और फिर उससे रौद्राश्व उत्पन्न हुआ।

4-5 रौद्राश्व के दस पुत्र थे जिनके नाम रितेयु, कक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयुक, जलेयु, सन्नतेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु तथा वनेयु थे। इन दसों में वनेयु सबसे छोटा था। ये दसों पुत्र रौद्राश्व के पूर्ण नियंत्रण में उसी प्रकार कार्य करते थे जिस तरह विश्वात्मा से उत्पन्न दसों इन्द्रियाँ प्राण के नियंत्रण में कार्य करती हैं। ये सभी घृताची नामक अप्सरा से उत्पन्न हुए थे।

6 रितेयु से रन्तिनाव नामक पुत्र हुआ जिसके तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे सुमति, ध्रुव तथा अप्रतिरथ। अप्रतिरथ के एकमात्र पुत्र का नाम कण्व था।

7 कण्व का पुत्र मेधातिथि था जिसके सारे पुत्र ब्राह्मण थे और उनमें प्रमुख प्रसकन्न था। रन्तिनाव का पुत्र सुमति, सुमति का पुत्र रेभि और रेभि का पुत्र था महाराज दुष्मन्त।

8-9 एक बार जब महाराज दुष्मन्त शिकार करने जंगल गया और अत्यधिक थक गया तो वह महाराज कण्व के आश्रम में जा पहुँचा। वहाँ उसने एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री देखी जो लक्ष्मीजी के समान लग रही थी और वहाँ अपने तेज से सारे आश्रम को प्रकाशमान किये हुए बैठी थी। स्वभावतः राजा उसके सौन्दर्य से आकृष्ट हो गया अतएव वह अपने कुछ सैनिकों के साथ उसके पास गया और उससे बोला।

10 उस सुन्दर स्त्री को देखकर राजा अत्यधिक हर्षित हुआ और आखेट-भ्रमण से उत्पन्न उसकी सारी थकावट जाती रही। अतएव उसने हँसी-हँसी में उससे इस प्रकार कहा।

11 हे सुन्दर कमलनयनों वाली, तुम कौन हो? तुम किसकी पुत्री हो? इस एकान्त वन में तुम्हारा क्या कार्य है? तुम यहाँ क्यों रह रही हो?

12 हे अतीव सुन्दरी, मुझे ऐसा लगता है कि तुम किसी क्षत्रिय की पुत्री हो। चूँकि मैं पुरुवंशी हूँ अतएव मेरा मन कभी भी अधर्मित रीति से किसी वस्तु का भोग करने की चेष्टा नहीं करता।

13 शकुन्तला ने कहा: मैं विश्वामित्र की पुत्री हूँ। मेरी माता मेनका ने मुझे जंगल में छोड़ दिया था। हे वीर, अत्यन्त शक्तिसम्पन्न सन्त कण्व मुनि इसके विषय में सब कुछ जानते हैं। अब आप कहिये कि मैं आपकी किस तरह सेवा करूँ?

14 हे कमल जैसे नेत्रों वाले राजा, कृपया बैठ जायें और हमारे यथासम्भव आतिथ्य को स्वीकार करें। हमारे पास निवार चावल हैं जिन्हें आप ग्रहण कर सकते हैं और यदि आप चाहें तो बिना किसी हिचक के यहाँ रुक सकते हैं।

15 राजा दुष्मन्त ने उत्तर दिया: हे सुन्दर भौंहों वाली शकुन्तला, तुमने महर्षि विश्वामित्र के कुल में जन्म लिया है और तुम्हारा आतिथ्य तुम्हारे कुल के अनुरूप है। इसके अतिरिक्त राजा की कन्याएँ सामान्यतया अपना वर स्वयं चुनती हैं।

16 जब शकुन्तला महाराज दुष्मन्त के प्रस्ताव पर मौन रही तो सहमति पूर्ण हो गई। तब विवाह के नियमों के जानने वाले राजा ने तुरन्त ही वैदिक प्रणव (ओङ्कार) का उच्चारण किया, जैसा कि गन्धर्वों में विवाह के अवसर पर किया जाता है।

17 अमोघवीर्य राजा दुष्मन्त ने रात्रि में अपनी रानी शकुन्तला के साथ रमण किया और प्रातः होते ही अपने महल को लौट गया। तत्पश्चात समय आने पर शकुन्तला ने एक पुत्र को जन्म दिया।

18 कण्व मुनि ने वन में नवजात शिशु के सारे संस्कार सम्पन्न किये। बाद में यह बालक इतना बलवान बन गया कि वह किसी सिंह को पकड़ कर उसके साथ खेलता था।

19 सुन्दरियों में श्रेष्ठ शकुन्तला अपने पुत्र को, जो दुर्दमनीय था तथा भगवान का अंशावतार था, अपने साथ लेकर अपने पति दुष्मन्त के पास पहुँची।

20 जब राजा ने अपनी निर्दोष पत्नी तथा पुत्र दोनों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया तो आकाश से शकुन के रूप में एक अदृश्य आवाज सुनाई दी जिसे वहाँ उपस्थित सबने सुना।

21 आकाशवाणी ने कहा: हे महाराज दुष्मन्त, पुत्र वास्तव में अपने पिता का ही होता है जबकि माता मात्र चमड़े की धौंकनी के समान धारक होती है। वैदिक आदेशानुसार पिता पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। अतएव तुम अपने पुत्र का पालन करो और शकुन्तला का अपमान न करो।

22 हे राजा दुष्मन्त इस गर्भ को धारण कराने वाला ही असली पिता है और उसका पुत्र उसे यमराज के चंगुल से छुड़ाता है। आप इस बालक के असली स्रष्टा (जन्मदाता) हैं। शकुन्तला निस्सन्देह सत्य कह रही है।

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब महाराज दुष्मन्त इस पृथ्वी से प्रयाण कर गए तो उनका पुत्र सातों द्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती राजा बना। वह इस संसार में भगवान का अंशावतार बतलाया जाता है।

24-26 दुष्मन्त पुत्र महाराज भरत के दाहिने हाथ की हथेली पर भगवान कृष्ण के चक्र का चिन्ह था और उसके पैरों के तलवों में कमल कोश का चिन्ह था। वह महान अनुष्ठान के द्वारा भगवान की पूजा करके सारे विश्व का अधिपति तथा सम्राट बन गया। तब उसने मामतेय अर्थात भृगु मुनि के पौरोहित्य में गंगा नदी के तट पर गंगा के अन्तिम स्थान से लेकर उद्गम तक पचपन अश्वमेध यज्ञ किये। इसी तरह यमुना नदी के तट पर प्रयागराज के संगम से लेकर उद्गम स्थान तक अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किए। उसने सर्वोत्तम स्थान पर यज्ञ की अग्नि स्थापित की और अपनी विपुल सम्पत्ति ब्राह्मणों में वितरित कर दी। उसने इतनी गाएँ दान में दी कि हजारों ब्राह्मणों में से हर एक को एक बद्व (13084) गाएँ अपने हिस्से में मिलीं।

27 महाराज दुष्मन्त के पुत्र भरत ने उन यज्ञों के लिए 3300 घोड़े बाँधकर अन्य सारे राजाओं को विस्मय में डाल दिया। उसने देवताओं के ऐश्वर्य को भी मात कर दिया क्योंकि उसे परम गुरु हरि प्राप्त हो गये थे।

28 जब महाराज भरत ने मष्णार नामक यज्ञ (या मष्णार नामक स्थान में यज्ञ) सम्पन्न किया तो उन्होंने दान में चौदह लाख श्रेष्ठ हाथी दिये जिनके दाँत सफेद थे और शरीर काले थे जो सुनहरे आभूषणों से ढके थे।

29 जिस तरह कोई व्यक्ति मात्र अपने बाहुबल से स्वर्ग नहीं पहुँच सकता (क्योंकि अपने बाहुओं से कोई स्वर्ग को कैसे छु सकता है?) उसी तरह कोई व्यक्ति महाराज भरत के अद्भुत कार्यों का अनुकरण नहीं कर सकता। कोई न तो भूतकाल में ऐसे कार्य कर सका है, न ही भविष्य में कोई ऐसा कर सकेगा।

30 जब भरत महाराज दौरे पर थे तो उन्होंने सारे किरातों, हूणों, यवनों, पौंडरों, कंकों, खशों, शकों तथा ब्राह्मण संस्कृति के वैदिक नियमों के विरोधी राजाओं को परास्त किया या मार दिया।

31 प्राचीन काल में सारे असुरों ने देवताओं को जीतकर रसातल नामक अधोलोक में शरण ले रखी थी और वे सारे देवताओं की स्त्रियों एवं कन्याओं को भी वहीं ले आये थे। किन्तु भरत महाराज ने इन सभी स्त्रियों को उनके संगियों समेत असुरों के चुंगल से छुड़ाया और उन्हें देवताओं को वापस कर दिया।

32 महाराज भरत ने 27 हजार वर्षों तक इस पृथ्वी पर तथा स्वर्गलोकों में अपनी प्रजा की सारी आवश्यकताएँ पूरी कीं। उन्होंने सभी दिशाओं में अपने आदेश प्रसारित और सैनिक तैनात कर दिए।

33 समस्त विश्व के शासक के रूप में सम्राट भरत के पास महान राज्य एवं अजेय सैनिकों का ऐश्वर्य था। उनके पुत्र तथा उनका परिवार उन्हें उनका जीवन प्रतीत होता था। किन्तु अन्ततः उन्होंने इन सभी को आध्यात्मिक प्रगति में बाधक समझा अतएव उन्होंने इनका भोग बन्द कर दिया।

34 हे राजा परीक्षित, महाराज भरत की तीन मनोहर पत्नियाँ थीं जो विदर्भ के राजा की पुत्रियाँ थीं। जब तीनों के सन्तानें हुई तो वे राजा के समान नहीं निकली, अतएव इन पत्नियों ने यह सोचकर कि राजा उन्हें कृतघ्न रानियाँ समझकर त्याग देंगे, उन्होंने अपने अपने पुत्रों को मार दिया।

35 सन्तान के लिए जब राजा का प्रयास इस तरह विफल हो गया तो उसने पुत्र प्राप्ति के लिए मरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया। सारे मरुतगण उससे पूर्णतया संतुष्ट हो गये तो उन्होंने उसे भरद्वाज नामक पुत्र उपहार में दिया।

36 बृहस्पति देव ने अपने भाई की पत्नी ममता पर मोहित होने पर उसके गर्भवती होते हुए भी उसके साथ संसर्ग करना चाहा। उसके गर्भ के भीतर के पुत्र ने मना किया लेकिन बृहस्पति ने उसे शाप दे दिया और बलात गर्भाधान कर दिया।

37 ममता अत्यन्त भयभीत थी कि अवैध पुत्र उत्पन्न करने के कारण उसका पति उसे छोड़ सकता है अतएव उसने बालक को त्याग देने का विचार किया। लेकिन तब देवताओं ने उस बालक का नामकरण करके सारी समस्या हल कर दी।

38 बृहस्पति ने ममता से कहा, “अरी मूर्ख! यद्यपि यह बालक अन्य पुरुष की पत्नी और किसी दूसरे पुरुष से उत्पन्न हुआ है, किन्तु तुम इसका पालन करो।" यह सुनकर ममता ने उत्तर दिया, “अरे बृहस्पति, तुम इसको पालो।" ऐसा कहकर बृहस्पति तथा ममता उसे छोड़कर चले गये। इस तरह बालक का नाम भरद्वाज पड़ा।

39 यद्यपि देवताओं ने बालक को पालने के लिए प्रोत्साहित किया था, किन्तु ममता ने अवैध जन्म के कारण उस बालक को व्यर्थ समझकर उसे छोड़ दिया। फलस्वरूप, मरुतगण देवताओं ने बालक का पालन किया और जब महाराज भरत सन्तान के अभाव से निराश हो गए तो उन्हें यही बालक पुत्र-रूप में भेंट किया गया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10887487270?profile=RESIZE_400x

अध्याय उन्नीस – राजा ययाति को मुक्ति लाभ (9.19)

1-15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, ययाति स्त्री पर अत्यधिक अनुरक्त था। किन्तु कालक्रम से जब वह विषय-भोग तथा इसके बुरे प्रभावों से ऊब गया तो उसने यह जीवन-शैली त्याग दी और अपने निजी जीवन पर आधारित बकरे-बकरी की एक कहानी बनाई और अपनी प्रियतमा को सुनाई। कहानी सुनाने के बाद उससे कहा – हे सुन्दर भौंहों वाली प्रिये, मैं उसी बकरे के सदृश हूँ क्योंकि मैं इतना मन्दबुद्धि हूँ कि मैं तुम्हारे सौन्दर्य से मोहित होकर आत्म-साक्षात्कार के असली कार्य को भूल गया हूँ। कामी पुरुष का मन कभी तुष्ट नहीं होता भले ही उसे इस संसार की हर वस्तु जैसे कि धान, जौ, अन्य अनाज, सोना, पशु तथा स्त्रियाँ इत्यादि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध क्यों न हो, कोई भी वस्तु उसे संतुष्ट नहीं कर सकती। जिस तरह अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त नहीं होती अपितु अधिकाधिक बढ़ती जाती है उसी प्रकार निरन्तर भोग द्वारा कामेच्छाओं को रोकने का प्रयास कभी भी सफल नहीं हो सकता। (असल में मनुष्य को स्वेच्छा से भौतिक इच्छाएँ समाप्त करनी चाहिए) जब मनुष्य द्वेष-रहित होता है और किसी का बुरा नहीं चाहता तो वह समदर्शी होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सारी दिशाएँ सुखमय प्रतीत होती हैं।

16 जो लोग भौतिक भोग में अत्यधिक लिप्त रहते हैं उनके लिए इन्द्रियतृप्ति को त्याग पाना अत्यन्त कठिन है। यहाँ तक कि वृद्धावस्था के कारण अशक्त व्यक्ति भी इन्द्रियतृप्ति की ऐसी इच्छाओं को नहीं त्याग पाता। अतएव जो सचमुच सुख चाहता है उसे ऐसी अतृप्त इच्छाओं को त्याग देना चाहिए क्योंकि ये सारे कष्टों की जड़ है।

17 मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी माता, बहन या पुत्री के साथ एक ही आसन पर न बैठे क्योंकि इन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि बड़े से बड़ा विद्वान भी विचलित हो सकता है।

18 मैंने इन्द्रियतृप्ति के भोगने में पूरे एक हजार वर्ष बिता दिये हैं फिर भी ऐसे आनन्द को भोगने की मेरी इच्छा नित्य प्रति बढ़ती जाती है।

19 अतएव अब मैं इन सारी इच्छाओं को त्याग दूँगा और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का ध्यान करूँगा। मनोरथों के द्वन्द्वों से तथा मिथ्या अहंकार से रहित होकर मैं जंगल में पशुओं के साथ विचरण करूँगा।

20 जो यह जानता है कि भौतिक सुख चाहे अच्छा हो या बुरा, इस जीवन में हो या अगले जीवन में, इस लोक में हो या स्वर्गलोक में हो, क्षणिक तथा निरर्थक है और यह जानता है कि बुद्धिमान पुरुष को ऐसी वस्तुओं को भोगने या सोचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, वह मनुष्य आत्मज्ञानी है। ऐसा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति भलीभाँति जानता है कि भौतिक सुख बारम्बार जन्म लेने एवं अपनी स्वाभाविक स्थिति के विस्मरण का एकमात्र कारण है।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपनी पत्नी देवयानी से इस प्रकार कहकर समस्त इच्छाओं से मुक्त हुए राजा ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को बुलाया और उसे उसकी जवानी लौटाकर अपना बुढ़ापा वापस ले लिया।

22 राजा ययाति ने अपने पुत्र द्रुहयु को दक्षिण पूर्व की दिशा, अपने पुत्र यदु को दक्षिण की दिशा, अपने पुत्र तुर्वसु को पश्चिमी दिशा और अपने चौथे पुत्र अनु को उत्तरी दिशा दे दी। इस तरह उन्होंने राज्य का बँटवारा कर दिया।

23 ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र को सारे विश्व का सम्राट तथा सारी सम्पत्ति का स्वामी बना दिया और पुरु से बड़े अपने अन्य सारे पुत्रों को पुरु के अधीन कर दिया।

24 हे राजा परीक्षित, ययाति ने अनेकानेक वर्षों तक विषयवासनाओं का भोग किया, क्योंकि वे इसके आदी थे, किन्तु उन्होंने एक क्षण के भीतर अपना सर्वस्व त्याग दिया जिस तरह पंख उगते ही पक्षी अपने घोंसले से उड़ जाता है।

25 चूँकि राजा ययाति ने भगवान वासुदेव के चरणकमलों में पूरी तरह अपने को समर्पित कर दिया था अतएव वे भौतिक प्रकृति के गुणों के सारे कल्मष से मुक्त हो गये। अपने आत्मसाक्षात्कार के कारण वे अपने मन को परब्रह्म वासुदेव में स्थिर कर सके और इस प्रकार अन्ततः उन्हें भगवान के पार्षद का पद प्राप्त हुआ।

26 जब देवयानी ने महाराज ययाति द्वारा कही गई बकरे-बकरी की कथा सुनी तो वह समझ गयी की हास-परिहास के रूप में पति-पत्नी के मध्य मनोरंजनार्थ कही गई यह कथा उसमें उसकी स्वाभाविक स्थिति को जाग्रत करने के निमित्त थी।

27-28 तत्पश्चात शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी समझ गई कि पति, मित्रों तथा सम्बन्धियों का सांसारिक साथ प्याऊ में यात्रियों की संगति के समान है। भगवान की माया से समाज के सम्बन्ध, मित्रता तथा प्रेम ठीक स्वप्न की ही भाँति उत्पन्न होते है। कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी ने भौतिक जगत की अपनी काल्पनिक स्थिति छोड़ दी। उसने अपने मन को पूरी तरह कृष्ण में स्थिर कर दिया और स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से मुक्ति प्राप्त कर ली।

29 हे भगवान वासुदेव, हे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, आप समस्त विराट जगत के स्रष्टा हैं। आप सबों के हृदय में परमात्मा रूप में निवास करते हैं और सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर होते हुए भी बृहत्तम से बृहत्तर हैं तथा सर्वव्यापक हैं। आप परम शान्त लगते हैं मानो आपको कुछ करना-धरना न हो लेकिन ऐसा आपके सर्वव्यापक स्वभाव एवं सर्व ऐश्वर्य से पूर्ण होने के कारण है। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश  चन्द्र चौहान  )

 

Read more…

10887484487?profile=RESIZE_400x

अध्याय अठारह – राजा ययाति को यौवन की पुनः प्राप्ति (9.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, जिस तरह देहधारी आत्मा के छह इन्द्रियाँ होती हैं उसी तरह राजा नहुष के छह पुत्र थे जिनके नाम थे यति, ययाति, सनयती, आयति, वियति तथा कृति।

2 जब कोई मनुष्य राजा या सरकार के प्रधान का पद ग्रहण करता है तो वह आत्म-साक्षात्कार का अर्थ नहीं समझ पाता। यह जानकर, नहुष के सबसे बड़े पुत्र यति ने शासन सँभालना स्वीकार नहीं किया यद्यपि उसके पिता ने राज्य को उसे ही सौंपा था।

3 चूँकि ययाति के पिता नहुष ने इन्द्र की पत्नी शची को छेड़ा था, अतएव शची के अगस्त्य तथा अन्य ब्राह्मणों के शिकायत करने पर इन ब्राह्मणों ने नहुष को शाप दिया की वह स्वर्ग से गिरकर अजगर बन जाय। फलतः ययाति राजा बना।

4 राजा ययाति के चार छोटे भाई थे जिन्हें उसने चारों दिशाओं में शासन चलाने की अनुमति दे दी थी। ययाति ने शुक्राचार्य की बेटी देवयानी से एवं वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह किया और वह सारी पृथ्वी पर शासन करने लगा।

5 महाराज परीक्षित ने कहा: शुक्राचार्य अत्यन्त शक्तिसम्पन्न ब्राह्मण थे और महाराज ययाति क्षत्रिय थे। अतएव मैं यह जानने का इच्छुक हूँ की ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के बीच यह प्रतिलोम विवाह कैसे सम्पन्न हुआ?

6-7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एकबार वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा, जो अबोध, किन्तु स्वभाव से क्रोधी थी, शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा उसकी सैकड़ों सखियों के साथ राजमहल के बगीचे में घूम रही थी। यह बगीचा कमलिनियों तथा फूल-फल के वृक्षों से भरा हुआ था और उसमें मधुर गीत गाते पक्षी तथा भौरें निवास कर रहे थे।

8 जब तरुणी, कमलनयनी लड़कियाँ जलाशय के तीर पर आई तो उन्होंने स्नान का आनन्द लेना चाहा। फलतः किनारे पर अपने वस्त्र रखकर वे एक दूसरे पर जल उछाल उछालकर जल-क्रीड़ा करने लगीं।

9 जलक्रीड़ा करते हुए लड़कियों ने सहसा शिवजी को अपनी पत्नी पार्वती सहित ऊपर से जाते देखा जो बैल की पीठ पर आसीन थे। अतः लज्जित होकर वे तुरन्त जल से बाहर निकल आई और अपने वस्त्र पहन लिये।

10 शर्मिष्ठा ने अनजाने ही देवयानी का वस्त्र पहन लिया जिससे देवयानी को क्रोध आ गया और वह इस प्रकार बोली।

11 अरे जरा देखो न इस दासी शर्मिष्ठा को, इसने सारे शिष्टाचार को ताक पर रखकर मेरे वस्त्र धारण कर लिये हैं मानो यज्ञ के निमित्त रखे घी को कोई कुत्ता झपट ले।

12-14 हम उन योग्य ब्राह्मणों में से हैं जिन्हें भगवान का मुख माना गया है। ब्राह्मणों ने अपनी तपस्या से समग्र विश्व को उत्पन्न किया है और वे परम सत्य को अपने अन्तःकरण में सदैव धारण करते हैं। उन्होंने सौभाग्य के पथ का निर्देशन किया है जो वैदिक सभ्यता का पथ है। वे इस जगत में एकमात्र पूजनीय है अतएव उनकी स्तुति की जाती है और विभिन्न लोकों के नायक बड़े से बड़े देवता भी उनकी पूजा करते हैं – यहाँ तक कि सबको पवित्र करनेवाले, लक्ष्मीदेवी के पति, परमात्मा द्वारा भी वे पूजित हैं और हम तो इसलिए भी अधिक पूज्य हैं क्योंकि हम भृगुवंशी हैं। यद्यपि इस स्त्री का पिता असुर होकर हमारा शिष्य है तो भी इसने मेरे वस्त्र को उसी तरह धारण कर लिया है जिस तरह कोई शूद्र वैदिक ज्ञान का भार सँभाले हो।

15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: शर्मिष्ठा को जब इस तरह कठोर शब्दों से झिड़का गया तो वह अत्यधिक क्रुद्ध हो ऊठी। सर्पिणी की तरह गहरी साँस छोड़ती और अपने निचले होंठ को अपने दाँतों से चबाती वह शुक्राचार्य की पुत्री से इस तरह बोली।

16 अरे भिखारिन, जब तुम्हें अपनी स्थिति का पता नहीं है तो व्यर्थ ही क्यों इतना बड़बड़ा रही हो? क्या तुम लोग अपनी जीविका के लिए हम पर आश्रित रहकर कौवों की भाँति हमारे घर पर टकटकी नहीं लगाये रहते हो?

17 ऐसे अप्रिय वचनों का उपयोग करते हुए शर्मिष्ठा ने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को फटकारा। उसने क्रोध में आकर देवयानी के वस्त्र छीन लिए और उसे एक कुएँ में धकेल दिया।

18 देवयानी को कुएँ में धकेल कर शर्मिष्ठा अपने घर चली गई। तभी शिकार के लिए निकला राजा ययाति उस कुएँ पर पानी पीने के लिए आया और संयोगवश देवयानी को देखा।

19 देवयानी को कुएँ में देखकर राजा ययाति ने तुरन्त ही अपना ऊपरी वस्त्र दे दिया और दयालु होकर उसका हाथ पकड़ कर, उसे कुएँ से बाहर निकाला।

20-21 देवयानी प्रेमसिक्त शब्दों में राजा ययाति से बोली "हे परम वीर! हे राजा! हे शत्रुओं के नगरों के विजेता! आपने मेरा हाथ थामकर मुझे अपनी विवाहिता पत्नी के रूप में स्वीकार किया है। अब मुझे कोई दूसरा नहीं छूने पाये क्योंकि हमारा यह पति-पत्नी का सम्बन्ध भाग्य द्वारा सम्भव हो सका है, किसी व्यक्ति द्वारा नहीं।

22 कुएँ में गिर जाने के कारण मैं आपसे मिली। निस्सन्देह यह विधि का विधान था। जब मैंने प्रकाण्ड विद्वान बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दिया तो उसने मुझे यह शाप दिया कि तुझे ब्राह्मण पति नहीं प्राप्त हो सकेगा। अतएव हे महाभुज! मेरे किसी ब्राह्मण की पत्नी बनने की कोई सम्भावना नहीं है।"

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: शास्त्रों द्वारा ऐसे विवाह की अनुमति नहीं है अतएव राजा ययाति को यह अच्छा नहीं लगा, किन्तु विधाता द्वारा व्यवस्थित होने तथा देवयानी के सौन्दर्य के प्रति आकृष्ट होने से उसने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

24 तत्पश्चात जब विद्वान राजा अपने राजमहल को वापस चला गया तो देवयानी रोती हुई घर लौटी और उसने अपने पिता शुक्राचार्य को शर्मिष्ठा के कारण घटी सारी घटना कह सुनाई। उसने बताया कि उसे किस तरह कुएँ में धकेला गया था किन्तु एक राजा द्वारा बचा ली गई।

25 जब शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ घटी घटना सुनी तो वे मन में अत्यन्त खिन्न हुए। पुरोहिती वृत्ति को धिक्कारते एवं उच्चवृत्ति (खेत में अन्न बीनने) की प्रशंसा करते हुए उन्होंने पुत्री सहित अपना घर छोड़ दिया।

26 राजा वृषपर्वा समझ गया कि शुक्राचार्य उसे प्रताड़ित करने या शाप देने आ रहे हैं। फलस्वरूप, इसके पूर्व कि शुक्राचार्य उसके महल में आयें, वृषपर्वा बाहर आ गया और मार्ग में ही अपने गुरु के चरणों पर गिर पड़ा। इस प्रकार उनके रोष को रोकते हुए उन्हें प्रसन्न कर लिया।

27 शक्तिशाली शुक्राचार्य कुछ क्षणों तक क्रुद्ध बने रहे, किन्तु प्रसन्न हो जाने पर उन्होंने वृषपर्वा से कहा: हे राजन, देवयानी की इच्छा पूरी कीजिये क्योंकि वह मेरी पुत्री है और मैं इस संसार में न तो उसे छोड़ सकता हूँ न उसकी उपेक्षा कर सकता हूँ।

28 शुक्राचार्य के निवेदन को सुनकर वृषपर्वा देवयानी की मनोकामना पूरी करने के लिए राजी हो गया और वह उसके वचनों की प्रतीक्षा करने लगा। तब देवयानी ने अपनी इच्छा इस प्रकार व्यक्त की, “जब भी मैं अपने पिता की आज्ञा से विवाह करूँ तो मेरी सखी शर्मिष्ठा अपनी सखियों समेत मेरी दासी के रूप में मेरे साथ चले।”

29 वृषपर्वा ने बुद्धिमानी से सोचा कि शुक्राचार्य की अप्रसन्नता से संकट आ सकता है और उनकी प्रसन्नता से भौतिक लाभ प्राप्त हो सकता है। अतएव उसने शुक्राचार्य का आदेश शिरोधार्य किया और दास की तरह उनकी सेवा की। उसने अपनी पुत्री शर्मिष्ठा को देवयानी को सौंप दिया और शर्मिष्ठा ने अपनी अन्य हजारों सखियों सहित दासी की तरह उसकी सेवा की।

30 जब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति से कर दिया तो उसने शर्मिष्ठा को भी उसके साथ जाने दिया। लेकिन राजा को चेतावनी दी "हे राजन, इस शर्मिष्ठा को कभी अपनी सेज में अपने साथ शयन करने की अनुमति मत देना।"

31 हे राजा परीक्षित, देवयानी के सुन्दर पुत्र को देखकर एक बार शर्मिष्ठा समुचित अवसर पर राजा ययाति के पास पहुँची। उसने एकान्त में अपनी सखी देवयानी के पति राजा ययाति से प्रार्थना की कि उसे भी पुत्रवती बनायें।

32 जब राजकुमारी शर्मिष्ठा ने राजा ययाति से पुत्र के लिए याचना की तो अपने धर्म से अवगत राजा उसकी इच्छा पूरी करने के लिए राजी हो गया। यद्यपि उसे शुक्राचार्य की चेतावनी स्मरण थी, किन्तु इस मिलन को परमेश्वर इच्छा मानकर उसने शर्मिष्ठा से संसर्ग किया।

33 देवयानी ने यदु तथा तुर्वसु को जन्म दिया और शर्मिष्ठा ने द्रुहयु, अनु तथा पुरु को जन्म दिया।

34 जब गर्विली देवयानी बाहरी स्रोतों से जान गई कि शर्मिष्ठा उसके पति से गर्भवती हुई है तो वह क्रोध से पगला उठी और वह अपने पिता के घर (मायके) चली गई।

35 चूँकि राजा ययाति अत्यन्त कामी था अतएव वह अपनी पत्नी के पीछे-पीछे हो लिया। उसने उसे पकड़ कर मीठे-मीठे बोल कहकर तथा उसके पाँव दबाते हुए उसे प्रसन्न करने का प्रयास किया, किन्तु वह उसे किसी भी तरह मना न पाया।

36 शुक्राचार्य अत्यन्त क्रोधित थे। उन्होंने कहा, “अरे झूठे! मूर्ख! स्त्रीकामी! तुमने बहुत बड़ी गलती की है। अतएव मैं शाप देता हूँ कि तुम पर बुढ़ापा तथा अशक्तता का आघात पड़ जाय जिससे तुम कुरूप बन जाओ।"

37 राजा ययाति ने कहा:हे विद्वान पूज्य ब्राह्मण, अभी भी तुम्हारी पुत्री के साथ मेरी कामेच्छाएँ पूरी नहीं हुई।" तब शुक्राचार्य ने उत्तर दिया, “चाहो तो तुम अपने बुढ़ापे को किसी ऐसे व्यक्ति से बदल लो जो तुम्हें अपनी युवावस्था देने को तैयार हो।"

38 जब ययाति को शुक्राचार्य से यह वर प्राप्त हो गया तो उसने अपने सबसे ज्येष्ठ पुत्र से अनुरोध किया, “हे पुत्र यदु तुम मेरी वृद्धावस्था तथा अशक्तता के बदले में मुझे अपनी जवानी दे दो।"

39 “हे पुत्र, मैं अपनी कामेच्छाओं से अभी भी तुष्ट नहीं हो पाया। किन्तु यदि तुम मुझ पर दया करो तो अपने नाना द्वारा प्रदत्त बुढ़ापे को ले सकते हो तथा अपनी जवानी मुझे दे दो जिससे मैं कुछ वर्ष और जीवन का भोग कर लूँ।"

40 यदु ने उत्तर दिया: हे पिताजी, यद्यपि आप भी तरुण पुरुष थे, किन्तु आपने वृद्धावस्था प्राप्त कर ली है। किन्तु मुझे आपका बुढ़ापा तथा जर्जरता तनिक भी मान्य नहीं है क्योंकि भौतिक सुख का भोग किये बिना कोई विरक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

41 हे महाराज परीक्षित, ययाति ने इसी तरह अन्य पुत्रों से अर्थात तुर्वसु, द्रुहयु तथा अनु से वृद्धावस्था के बदले अपनी जवानी देने के लिए निवेदन किया लेकिन वे सभी अधर्मज्ञ थे इसलिए उन्होंने सोचा कि उनकी नाशवान जवानी शाश्वत है अतएव उन्होंने अपने पिता के आदेश को मानने से मना कर दिया।

42 तत्पश्चात राजा ययाति ने पुरु से, जो अपने इन तीनों भाइयों से उम्र में छोटा था किन्तु अधिक योग्य था, इस तरह निवेदन किया, “हे पुत्र, तुम अपने बड़े भाइयों की तरह अवज्ञाकारी मत बनो क्योंकि यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं है।"

43 पुरु ने उत्तर दिया, हे महाराज, ऐसा कौन होगा जो अपने पिता के ऋण से उऋण हो सके? मनुष्य को पिता की ही कृपा से मानव जीवन प्राप्त होता है जिससे वह भगवान का संगी बनने में सक्षम हो सकता है।

44 “जो पुत्र अपने पिता की इच्छा को जानकर उसी के अनुसार कर्म करता है वह प्रथम श्रेणी का (उत्तम) होता है, जो अपने पिता की आज्ञा पाकर कार्य करता है वह द्वितीय श्रेणी का (मध्यम) होता है और जो पुत्र अपने पिता के आदेश का पालन अनादरपूर्वक करता है वह तृतीय श्रेणी का (अधम) होता है। किन्तु जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह अपने पिता के मल के समान है।"

45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, इस तरह पुरु अपने पिता ययाति की वृद्धावस्था को ग्रहण करके अत्यन्त हर्षित था। पिता ने अपने पुत्र की जवानी ग्रहण कर ली और फिर इस भौतिक जगत का भोग किया जैसी कि उसकी इच्छा थी।

46 तत्पश्चात राजा ययाति सात द्वीपों वाले विश्व का शासक बन गया और प्रजा पर पिता के समान शासन करने लगा। चूँकि उसने अपने पुत्र की जवानी ले ली थी अतएव उसकी इन्द्रियाँ अक्षत थीं और उसने जी भरकर भौतिक सुख का भोग किया।

47 महाराज ययाति की प्रिय पत्नी देवयानी अपने मन, वचन, शरीर तथा विविध सामग्री से सदैव एकान्त में अपने पति को यथासम्भव दिव्य आनन्द प्रदान करती रही।

48 राजा ययाति ने विविध यज्ञ सम्पन्न किये और उनमें उन्होंने समस्त देवताओं के आलय एवं समस्त वैदिक ज्ञान के लक्ष्य भगवान हरि को तुष्ट करने के लिए ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणाएँ दीं।

49 भगवान वासुदेव, जिन्होंने विराट जगत की सृष्टि की है, अपने को सर्वव्यापक रूप में प्रकट करते हैं जिस तरह आकाश बादलों को धारण करता है। जब इस सृष्टि का संहार हो जाता है तब सारी वस्तुएँ भगवान विष्णु में प्रवेश पाती हैं और सारे भेद-प्रभेद समाप्त हो जाते हैं।

50 महाराज ययाति ने उन भगवान की निष्काम भाव से पूजा की जो हर एक के हृदय में नारायण रूप में स्थित हैं और सर्वत्र विद्यमान रहकर भी आँखों से अदृश्य रहते हैं।

51 यद्यपि महाराज ययाति सारे विश्व के राजा थे और उन्होंने एक हजार वर्षों तक अपने मन तथा पाँच इन्द्रियों को भौतिक सम्पदा को भोगने में लगाया, किन्तु वे संतुष्ट नहीं हो सके।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10887478086?profile=RESIZE_584x

अध्याय सत्रह – पुरुरवा के पुत्रों की वंशावली (9.17)

1-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: पुरुरवा से आयु नामक पुत्र हुआ जिससे नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजी, राभ तथा अनेना नाम के अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुए। हे महाराज परीक्षित, अब क्षत्रवृद्ध के वंश के विषय में सुनो। क्षत्रवृद्ध का पुत्र सुहोत्र था जिसके तीन पुत्र हुए – काश्य, कुश तथा गृत्समद। गृत्समद से शुनक हुआ और शुनक से शौनक मुनि उत्पन्न हुए जो ऋग्वेद में सर्वाधिक पटु थे।

4 काश्य का पुत्र काशी था और उसका पुत्र राष्ट्र हुआ जो दीर्घतम का पिता था। दीर्घतम के धन्वन्तरी नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो आयुर्वेद का जनक तथा समस्त यज्ञफलों के भोक्ता भगवान वासुदेव का अवतार था। जो धन्वन्तरी का नाम याद करता है उसके सारे रोग दूर हो सकते हैं।

5 धन्वन्तरी का पुत्र केतुमान हुआ और उसका पुत्र भीमरथ था। भीमरथ का पुत्र दिवोदास था और उसका पुत्र द्युमान हुआ जो प्रतर्दन भी कहलाता था।

6 द्युमान को शत्रुजित, वत्स, ऋतध्वज तथा कुवलयाश्व नामों से भी जाना जाता था। उससे अलर्क तथा अन्य पुत्र उत्पन्न हुए।

7 हे राजा परीक्षित, द्युमान के पुत्र अलर्क ने पृथ्वी पर छियासठ हजार वर्षों से भी अधिक समय तक राज्य किया। इस पृथ्वी पर उनके अतिरिक्त किसी अन्य ने युवक के रूप में इतने दीर्घकाल तक राज्य नहीं भोगा।

8 अलर्क से सन्तति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका पुत्र सुनीथ हुआ। सुनीथ का पुत्र निकेतन था। निकेतन का पुत्र धर्मकेतु हुआ और धर्मकेतु का पुत्र सत्यकेतु था।

9 हे राजा परीक्षित, सत्यकेतु का पुत्र धृष्टकेतु हुआ और धृष्टकेतु का पुत्र सुकुमार हुआ जो पूरे विश्व का सम्राट था। सुकुमार का पुत्र वीतिहोत्र हुआ जिसका पुत्र भर्ग था और भर्ग का पुत्र भार्गभूमि हुआ।

10 हे महाराज परीक्षित, ये सारे राजा काशी के वंशज थे और इन्हें क्षत्रवृद्ध के उत्तराधिकारी भी कहा जा सकता है। राभ का पुत्र रभस हुआ, रभस का पुत्र गम्भीर और गम्भीर का पुत्र अक्रिय कहलाया।

11 हे राजन अक्रिय का पुत्र ब्रह्मवित कहलाया। अब अनेना के वंशजों के विषय में सुनो। अनेना के पुत्र का नाम शुद्ध था और उसका पुत्र शुचि था। शुचि का पुत्र धर्मसारथी था जो चित्रकृत भी कहलाता था।

12 चित्रकृत के शान्तरज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो स्वरूपसिद्ध व्यक्ति था जिसने समस्त वैदिक कर्मकाण्ड सम्पन्न किये। फलतः उसने कोई सन्तान उत्पन्न नहीं की। रजी के पाँच सौ पुत्र हुए जो सारे के सारे अत्यन्त शक्तिशाली थे।

13 देवताओं की प्रार्थना पर रजी ने दैत्यों का वध किया और स्वर्ग का राज्य इन्द्रदेव को लौटा दिया। किन्तु इन्द्र ने प्रह्लाद जैसे दैत्यों के डर से स्वर्ग का राज्य रजी को लौटा दिया और स्वयं उसके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली।

14 रजी की मृत्यु के बाद इन्द्र ने रजी के पुत्रों से स्वर्ग का राज्य लौटाने के लिए याचना की। किन्तु उन्होंने नहीं लौटाया, यद्यपि वे इन्द्र का यज्ञ-भाग लौटाने के लिए राजी हो गये।

15 तत्पश्चात देवताओं के गुरु बृहस्पति ने अग्नि में आहुती डाली जिससे रजी के पुत्र नैतिक सिद्धान्तों से नीचे गिर जायें। जब वे गिर गये तो इन्द्र ने उनके पतन के कारण उन्हें सरलता से मार डाला। उनमें से एक भी नहीं बच पाया।

16 क्षत्रवृद्ध के पौत्र कुश से प्रति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रति का पुत्र सञ्जय, सञ्जय का पुत्र जय, जय का पुत्र कृत और कृत का पुत्र राजा हर्यबल हुआ।

17 हर्यबल का पुत्र सहदेव, सहदेव का पुत्र हीन, हीन का पुत्र जयसेन और जयसेन का पुत्र संकृति हुआ। संकृति का पुत्र जय अत्यन्त शक्तिशाली एवं निपुण योद्धा था। ये सभी राजा क्षत्रवृद्ध वंश के सदस्य थे। अब मैं नहुष के वंश का वर्णन करूँगा।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10887362859?profile=RESIZE_584x

अध्याय सोलह – भगवान परशुराम द्वारा विश्व के क्षत्रियों का विनाश (9.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंशी, जब भगवान परशुराम को उनके पिता ने यह आदेश दिया तो उन्होंने तुरन्त ही यह कहते हुए उसे स्वीकार किया, “ऐसा ही होगा।” वे एक वर्ष तक तीर्थस्थलों की यात्रा करते रहे। तत्पश्चात वे अपने पिता के आश्रम में लौट आये।

2 एक बार जब जमदग्नि की पत्नी रेणुका गंगा नदी के तट पर पानी भरने गई तो उन्होंने गन्धर्वों के राजा को कमल-फूल की माला से अलंकृत तथा अप्सराओं के साथ गंगा में विहार करते देखा।

3 वह गंगा नदी से जल लाने गई थी, किन्तु जब उसने गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करते देखा तो वह उसकी ओर कुछ-कुछ उन्मुख सी हुई और यह भूल हो गई कि अग्निहोत्र का समय बिता जा रहा है।

4 तत्पश्चात यह समझकर कि यज्ञ करने का समय बीत चुका है, रेणुका अपने पति द्वारा शापित होने से भयातुर हो उठी। अतएव जब वह लौटकर आई तो वह उनके समक्ष जलपात्र रखकर हाथ जोड़कर यों ही खड़ी हो गई।

5 मुनि जमदग्नि अपनी पत्नी के मन के व्यभिचार को समझ गए। अतएव वे अत्यन्त कुपित हुए और अपने बेटों से बोले, “पुत्रों,इस पापिनी स्त्री को मार डालो।” लेकिन बेटों ने उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया।

6 तब जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुराम को अवज्ञाकारी भाइयों तथा मानसिक रूप से पाप करने वाली उसकी माता को मार डालने की आज्ञा दी। परशुराम ने तुरन्त ही अपनी माता तथा भाइयों का वध कर दिया क्योंकि उन्हें ध्यान तथा तपस्या द्वारा अर्जित अपने पिता के पराक्रम का ज्ञान था।

7 सत्यवती पुत्र जमदग्नि परशुराम से अत्यधिक प्रसन्न हुए और उनसे इच्छानुसार वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने कहा, “मेरी माता तथा मेरे भाइयों को फिर से जीवित हो जाने दें और उन्हें यह स्मरण न रहे कि मैंने उन्हें मारा था। मैं आपसे इतना ही वर माँगता हूँ।

8 तत्पश्चात जमदग्नि के वर से भगवान परशुराम की माता तथा उनके सारे भाई तुरन्त जीवित हो उठे और वे सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए मानो गहरी नींद से जागे हों। परशुराम ने अपने पिता के आदेश पर अपने परिजनों का वध कर दिया था क्योंकि वे अपने पिता के बल, तपस्या तथा विद्वत्ता से परिचित थे।

9 हे राजा परीक्षित, परशुराम की श्रेष्ठ शक्ति द्वारा पराजित कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों को कभी सुख नहीं मिल पाया क्योंकि उन्हें अपने पिता का वध सदैव याद आता रहा।

10 एक बार जब परशुराम वसुमान तथा अन्य भाइयों के साथ आश्रम से जंगल गये हुए थे तो कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र अवसर का लाभ उठाकर अपनी शत्रुता का बदला लेने के उद्देश्य से जमदग्नि के आश्रम में गये।

11 कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र पापकृत्य करने के लिए कृतसंकल्प थे। अतएव जब उन्होंने जमदग्नि को अग्नि के निकट यज्ञ करते एवं उत्तमश्लोक भगवान का ध्यान करते देखा तो उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर उन्हें मार डाला।

12 परशुराम की माता तथा जमदग्नि की पत्नी रेणुका ने अपने पति के जीवन की भीख माँगी, किन्तु कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र क्षत्रिय गुणों से विहीन होने के कारण इतने क्रूर निकले कि उसकी याचना के बावजूद उन्होंने उसका सिर काट लिया और उसे अपने साथ लेते गये।

13 अपने पति की मृत्यु के कारण शोक से विलाप करती सती रेणुका अपने ही हाथों से अपने शरीर को पीट रही थी और जोर जोर से चिल्ला रही थी, “हे राम, मेरे पुत्र राम।"

14 यद्यपि परशुराम सहित जमदग्नि के सारे पुत्र घर से बहुत दूरी पर थे, किन्तु ज्योंही उन्होंने रेणुका की "हे राम! हे पुत्र!“ की तेज पुकार सुनी, वे तुरन्त आश्रम लौट आए जहाँ उन्होंने अपने पिता को मरा हुआ पाया।

15 व्यथा, क्रोध, अपमान, सन्ताप तथा शोक से ग्रस्त जमदग्नि के सारे पुत्र विलख पड़े, “हे साधु एवं धर्मात्मा पिता, आप हमें छोड़कर स्वर्गलोक को चले गये हैं।"

16 इस प्रकार विलाप करते हुए परशुराम ने अपने पिता का शव अपने भाइयों को सौंप दिया और स्वयं पृथ्वी भर से सारे क्षत्रियों का अन्त करने का निश्चय करते हुए अपना फरसा उठा लिया।

17 हे राजन, तब परशुराम उस महिष्मती नगरी में गये जो एक ब्राह्मण के पापपूर्ण वध के कारण पहले ही विनष्ट हो चुकी थी। उन्होंने उस नगरी के बीचोंबीच कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों के शरीरों से छिन्न किये गये सिरों का एक पर्वत बना दिया।

18 इन पुत्रों के रक्त से भगवान परशुराम ने एक वीभत्स नदी तैयार कर दी जिसने उन राजाओं को अत्यधिक भयातुर कर दिया जिनमें ब्राह्मण संस्कृति के प्रति आदरभाव नहीं था।

19 चूँकि सरकार के अधिकारी अर्थात क्षत्रिय लोग पापकर्म कर रहे थे अतएव परशुराम ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के बहाने सारे क्षत्रियों का इक्कीस बार पृथ्वी से सफाया कर दिया। निस्सन्देह, उन्होंने समन्तपञ्चक नामक स्थान पर उन सबों के रक्त से नौ झीलें उत्पन्न कर दीं।

20 तत्पश्चात परशुराम ने अपने पिता के सिर को मृत शरीर से जोड़ दिया और पूरे शरीर एवं सिर को कुशों के ऊपर रख दिया। वे यज्ञों के द्वारा भगवान वासुदेव की पूजा करने लगे जो समस्त देवताओं तथा हर जीव के सर्वव्यापी परमात्मा हैं।

21-22 यज्ञ-समाप्ति पर परशुराम ने पूर्वी दिशा होता को, दक्षिणी दिशा ब्रह्मा को, पश्चिमी दिशा अध्वर्यु को, उत्तरी दिशा उदगाता को एवं चारों कोने – उत्तर पूर्व, दक्षिण पूर्व, उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण पश्चिम – अन्य पुरोहितों को दान में दे दिये। उन्होंने मध्य भाग कश्यप को तथा आर्यावर्त उपद्रष्टा को दे दिया। शेष भाग सदस्यों अर्थात सहयोगी पुरोहितों में बाँट दिया।

23 तत्पश्चात भगवान परशुराम ने यज्ञ-अनुष्ठान पूरा करके अवभृथ स्नान किया। महान नदी सरस्वती के तट पर खड़े समस्त पापों से विमुक्त परशुराम जी बादलरहित आकाश में सूर्य के समान लग रहे थे।

24 इस प्रकार परशुराम द्वारा पूजा किये जाने पर जमदग्नि को अपनी पूर्ण स्मृति के साथ पुनः जीवन प्राप्त हो गया और वे सात नक्षत्रों के समूह में सातवें ऋषि बन गये।

25 हे परीक्षित, अगले मन्वन्तर में जमदग्निपुत्र कमलनेत्र भगवान परशुराम वैदिक ज्ञान के महान संस्थापक होंगे, दूसरे शब्दों में, वे सप्तर्षियों में से एक होंगे।

26 आज भी भगवान परशुराम महेन्द्र नामक पहाड़ी प्रदेश में बुद्धिमान ब्राह्मण के रूप में रह रहे हैं। पूर्ण तुष्ट एवं क्षत्रिय के सारे हथियारों को त्याग कर वे अपने उच्च चरित्र तथा कार्यों के लिए सदैव सिद्धों, गन्धर्वों एवं चारणों के द्वारा पूजित, वन्दित एवं प्रशंसित हैं।

27 इस तरह परमात्मा अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि एवं परम नियन्ता ने भृगुवंश में अवतार लिया और अवाँछित राजाओं को अनेक बार मारकर पृथ्वी को उनके भार से उबारा।

28 महाराज गाधि का पुत्र विश्वामित्र अग्नि की लपटों के समान शक्तिशाली था, उसने तपस्या द्वारा क्षत्रिय के पद से तेजस्वी ब्राह्मण का पद प्राप्त किया।

29 हे राजा परीक्षित, विश्वामित्र के 101 पुत्र थे जिनमें से बीच के पुत्र का नाम मधुच्छन्दा था। उसके कारण अन्य सारे पुत्र मधुच्छन्दा नाम से विख्यात हुए।

30 विश्वामित्र ने अजीगर्त के पुत्र शुन:शेफ को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया जो भृगुवंश में उत्पन्न हुआ था और देवरात नाम से भी विख्यात था। विश्वामित्र ने अपने अन्य पुत्रों को आज्ञा दी कि वे शुन:शेफ को अपना सबसे बड़ा भाई मान लें।

31 शुन:शेफ के पिता ने शुन:शेफ को राजा हरिश्चन्द्र के यज्ञ में बलि-पशु के रूप में बलि दिये जाने के लिए बेच दिया। जब शुन:शेफ को यज्ञशाला में लाया गया तो उसने देवताओं से प्रार्थना की कि वे उसे छुड़ा दें और वह उनकी कृपा से छुड़ा दिया गया।

32 यद्यपि शुन:शेफ भार्गव कुल में उत्पन्न हुआ था, किन्तु आध्यात्मिक जीवन में बढ़ा-चढ़ा होने के कारण यज्ञ में सम्बन्धित देवताओं ने उसकी रक्षा की। फलतः वह देवरात नाम से गाधि के वंशज के रूप में भी विख्यात हुआ।

33 जब विश्वामित्र द्वारा शुन:शेफ को सबसे बड़ा पुत्र स्वीकार करने के लिए कहा गया तो विश्वामित्र के पचास ज्येष्ठ मधुच्छन्दा पुत्र इसके लिए राजी नहीं हुए। फलतः विश्वामित्र क्रुद्ध हो गये और उन्होंने उन सबों को शाप दे दिया, “निकम्मे पुत्रों! तुम सारे म्लेच्छ बन जाओ क्योंकि तुम वैदिक संस्कृति के नियमों के विरुद्ध हो।"

34 जब ज्येष्ठ पचास मधुच्छन्दाओं को शाप मिल गया तो मधुच्छन्दा समेत छोटे पचास पुत्र अपने पिता के पास गये और उनके प्रस्ताव को यह कहकर स्वीकार किया, “हे पिता, आप जैसा चाहेंगे हम उसी को मानेंगे।"

35 इस तरह छोटे मधुच्छन्दाओं ने शुन:शेफ को अपना बड़ा भाई मान लिया और उससे कहा “हम आपके आदेशों का पालन करेंगे।” तब विश्वामित्र ने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रों से कहा “चूँकि तुम लोगों ने शुन:शेफ को अपना बड़ा भाई मान लिया है अतएव मैं संतुष्ट हूँ। तुम लोगों ने मेरे आदेश को स्वीकार करके मुझे योग्य पुत्रों का पिता बना दिया है अतएव मैं तुम सबों को आशीर्वाद देता हूँ कि तुम भी योग्य पुत्रों के पिता बनो।”

36 विश्वामित्र ने कहा “हे कुशिकों, यह देवरात मेरा पुत्र है और तुममें से एक है। उसकी आज्ञा का पालन करो।” हे परीक्षित, विश्वामित्र के अन्य अनेक पुत्र थे – अष्टक, हारीत, जय तथा क्रतुमान इत्यादि।

37 विश्वामित्र ने कुछ पुत्रों को शाप दिया और अन्यों को आशीर्वाद दिया और एक पुत्र को गोद भी लिया। इस तरह कौशिक वंश में काफी विविधता थी, किन्तु सारे पुत्रों में देवरात ही ज्येष्ठ माना गया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10887333673?profile=RESIZE_584x

अध्याय पन्द्रह – भगवान का योद्धा अवतार, परशुराम (9.15)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, पुरुरवा ने उर्वशी के गर्भ से छह पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे – आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय तथा जय।

2-3 श्रतायु का पुत्र वसुमन हुआ, सत्यायु का पुत्र श्रुतंजय हुआ, रय के पुत्र का नाम एक था, जय का पुत्र अमित था और विजय का पुत्र भीम हुआ। भीम का पुत्र कांचन, कांचन का पुत्र होत्रक और होत्रक का पुत्र जह्व था जिसने एक ही घूँट में गंगा का सारी पानी पी लिया था।

4 जह्व का पुत्र पुरु था, पुरु का बलाक, बलाक का अजक और अजक का पुत्र कुश हुआ। कुश के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे कुशाम्बुज, तनय, वसु तथा कुशनाभ। कुशाम्बुज का पुत्र गाधि था।

5-6 गाधि के एक पुत्री थी जिसका नाम सत्यवती था जिससे विवाह करने के लिए ऋचीक नामक ब्रह्मर्षि ने राजा से विनती की। किन्तु राजा गाधि ने इस ब्रह्मर्षि को अपनी पुत्री के लिए अयोग्य पति समझ कर उससे कहा, महोदय, मैं कुशवंशी हूँ। चूँकि हम लोग राजसी क्षत्रिय हैं अतएव आपको मेरी पुत्री के लिए कुछ दहेज देना होगा। अतः आप कम से कम एक हजार ऐसे घोड़े लायें जो चाँदनी की तरह उज्जवल हों और जिनके एक कान दायाँ या बायाँ, काला हो।

7 जब राजा गाधि ने यह माँग प्रस्तुत की तो महर्षि ऋचीक को राजा के मन की बात समझ में आ गई। अतएव वह वरुणदेव के पास गया और वहाँ से गाधि द्वारा माँगे गये एक हजार घोड़े ले आया। इन घोड़ों को भेंट करके मुनि ने राजा की सुन्दर पुत्री के साथ विवाह कर लिया।

8 तत्पश्चात ऋचीक मुनि की पत्नी तथा सास दोनों ने पुत्र की इच्छा से मुनि से प्रार्थना की कि वह चरु (आहुति) तैयार करे। तब मुनि ने अपनी पत्नी के लिए ब्राह्मण मंत्र से एक चरु और क्षत्रिय मंत्र से अपनी सास के लिए एक अन्य चरु तैयार किया। फिर वह स्नान करने चला गया।

9 इसी बीच सत्यवती की माता ने सोचा कि उसकी पुत्री के लिए तैयार की गई चरु अवश्य ही श्रेष्ठ होगी अतएव उसने अपनी पुत्री से वह चरु माँग ली। सत्यवती ने वह चरु अपनी माता को दे दी और स्वयं अपनी माता की चरु खा ली।

10 जब ऋषि ऋचीक स्नान करके घर लौटे और उन्हें यह पता लगा कि उनकी अनुपस्थिति में क्या घटना घटी है तो उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती से कहा, “तुमने बहुत बड़ी भूल की है। तुम्हारा पुत्र कट्टर क्षत्रिय होगा, जो हर एक को दण्ड दे सकेगा और तुम्हारा भाई अध्यात्म विद्या का पण्डित होगा।"

11 किन्तु सत्यवती ने मधुर वचनो से ऋचीक मुनि को शान्त किया और प्रार्थना की कि उसका पुत्र क्षत्रिय की तरह भयंकर न हो। ऋचीक मुनि ने उत्तर दिया, “तो तुम्हारा पौत्र क्षत्रिय गुणवाला होगा।" इस प्रकार सत्यवती के पुत्र रूप में जमदग्नि का जन्म हुआ।

12-13 बाद में सत्यवती समस्त संसार को पवित्र करने वाली कौशिकी नामक पुण्य नदी बन गई और उसके पुत्र जमदग्नि ने रेणु की पुत्री रेणुका से विवाह किया। रेणुका के गर्भ से वासुमान इत्यादि कई पुत्र हुए जिनमें से राम या परशुराम सबसे छोटा था।

14 विद्वान लोग इस परशुराम को भगवान वासुदेव का विख्यात अवतार मानते हैं जिसने कार्तवीर्य के वंश का विनाश किया। परशुराम ने पृथ्वी के सभी क्षत्रियों का इक्कीस बार वध किया।

15 जब राजवंश रजो तथा तमोगुणों के कारण अत्यधिक गर्वित होकर अधार्मिक बन गया और ब्राह्मणों द्वारा बनाये गये नियमों की उनको कोई परवाह नहीं रही तो परशुराम ने उन सबको मार डाला। यद्यपि उनके अपराध बड़े न थे, किन्तु धरती का भार कम करने के लिए उन्होंने उन्हें मार डाला।

16 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: अपनी इन्द्रियों को वश में रख न सकने वाले राजाओं का वह कौनसा अपराध था जिसके कारण भगवान के अवतार परशुराम ने क्षत्रियवंश का बारम्बार विनाश किया?

17-19 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: क्षत्रियश्रेष्ठ हैहयराज कार्तवीर्यार्जुन ने भगवान नारायण के स्वांश दत्तात्रेय की पूजा करके एक हजार भुजाएँ प्राप्त कीं। वह शत्रुओं द्वारा अपराजेय बन गया और उसे अव्याहत इन्द्रिय शक्ति, सौन्दर्य, प्रभाव, बल, यश तथा अणिमा, लघिमा जैसी आठ योग सिद्धियाँ प्राप्त करने की योग शक्ति मिल गई। इस तरह पूर्ण ऐश्वर्यशाली बनकर वह सारे संसार में वायु की तरह बेरोकटोक घूमने लगा।

20 एक बार नर्मदा नदी के जल में क्रीड़ा करते हुए सुन्दरी स्त्रियों से घिरे एवं विजय की माला धारण किये हुए गर्वोन्नत कार्तवीर्यार्जुन ने अपनी बाँहों से जल के प्रवाह को रोक दिया।

21 चूँकि कार्तवीर्यार्जुन ने जलप्रवाह की दिशा पलट दी थी अतः नर्मदा नदी के तट पर महिष्मती नगर के निकट लगा रावण का खेमा जलमग्न हो गया। यह दस सिरों वाले रावण के लिए असह्य हो उठा क्योंकि वह अपने को महान वीर मानता था और वह कार्तवीर्यार्जुन के बल को सहन नहीं कर सका।

22 जब रावण ने स्त्रियों के समक्ष कार्तवीर्यार्जुन का अपमान करना चाहा और उसे नाराज कर दिया तो उसने रावण को खेल-खेल में उसी प्रकार बन्दी बनाकर महिष्मती नगर के कारागार में डाल दिया जिस प्रकार कोई बन्दर को पकड़ ले। बाद में उसने उपेक्षापूर्ण भाव से उसे मुक्त कर दिया।

23 एक बार जब कार्तवीर्यार्जुन बिना किसी कार्यक्रम के एकान्त जंगल में घूमकर शिकार कर रहा था तो वह जमदग्नि के आश्रम के निकट पहुँचा।

24 जंगल में कठिन तपस्या में रत ऋषि जमदग्नि ने सैनिकों, मंत्रियों तथा पालकी वाहकों समेत राजा का अच्छी तरह स्वागत किया। उन्होंने इन अतिथियों को पूजा करने की सारी सामग्री जुटाई क्योंकि उनके पास कामधेनु गाय थी जो हर वस्तु प्रदान करने में सक्षम थी।

25 कार्तवीर्यार्जुन ने सोचा कि जमदग्नि उसकी तुलना में अधिक शक्तिशाली एवं सम्पन्न है क्योंकि उसके पास कामधेनु रूपी रत्न है अतएव उसने तथा उसके हैहयजनों ने जमदग्नि के सत्कार की अधिक प्रशंसा नहीं की। उल्टे, वे उस कामधेनु को लेना चाहते थे जो अग्निहोत्र यज्ञ के लिए लाभदायक थी।

26 भौतिक शक्ति से गर्वित कार्तवीर्यार्जुन ने अपने व्यक्तियों को जमदग्नि की कामधेनु चुरा लेने के लिए उकसाया। फलतः वे व्यक्ति रोती-विलपति कामधेनु गाय को उसके बछड़े समेत बलपूर्वक कार्तवीर्यार्जुन की राजधानी महिष्मती ले आये।

27 जब कामधेनु सहित कार्तवीर्यार्जुन चला गया तो जमदग्नि का सबसे छोटा पुत्र परशुराम आश्रम में लौटा। जब उसने कार्तवीर्यार्जुन के दुष्कृत्य के विषय में सुना तो वह कुचले हुए साँप की तरह क्रुद्ध हो उठा।

28 अपना भयानक फरसा, ढाल, धनुष तथा तरकस लेकर अत्यधिक क्रुद्ध परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन का पीछा किया जिस तरह कोई सिंह हाथी का पीछा करता है।

29 अभी राजा कार्तवीर्यार्जुन अपनी राजधानी महिष्मती पुरी में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने भृगुवंशियों में श्रेष्ठ भगवान परशुराम को फरसा, ढाल, धनुष तथा बाण लिए अपना पीछा करते देखा। परशुरामजी ने काले हिरण की खाल पहन रखी थी और उनका जटाजूट सूर्य के तेज जैसा प्रतीत हो रहा था।

30 परशुराम को देखते ही कार्तवीर्यार्जुन डर गया और उसने उनसे युद्ध करने के लिए तुरन्त ही अनेक हाथी, रथ, घोड़े तथा पैदल सैनिक भेजे जो गदा, तलवार, बाण, ऋष्टि, शतघ्नी, शक्ति इत्यादि विविध हथियारों से युक्त थे। उसने परशुराम को रोकने के लिए पूरे सत्रह अक्षौहिणी सैनिक भेजे, किन्तु भगवान परशुराम ने अकेले ही सबों का सफाया कर दिया।

31 शत्रु की सेना को मारने में दक्ष भगवान परशुराम ने मन तथा वायु की गति से काम करते हुए अपने फरसे से शत्रुओं के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। वे जहाँ-जहाँ गये सारे शत्रु खेत होते रहे, उनके पाँव, हाथ तथा धड़ अलग-अलग हो गये, उनके सारथी मार डाले गये और वाहन, हाथी तथा घोड़े सभी विनष्ट कर दिये गये।

32 अपने फरसे तथा बाणों को व्यवस्थित करके परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन के सिपाहियों की ढालों, झण्डों, धनुषों तथा उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले जो युद्धभूमि में गिर गये और जिनके रक्त से भूमि पंकिल (कीचड़ से युक्त) हो गई। अपनी पराजय होते देखकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर कार्तवीर्यार्जुन युद्धभूमि की ओर लपका।

33 तब कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम को मारने के लिए एक हजार भुजाओं में एकसाथ पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ा लिए। किन्तु श्रेष्ठ योद्धा भगवान परशुराम ने एक ही धनुष से इतने बाण छोड़े कि कार्तवीर्यार्जुन के हाथों के सारे धनुष तथा बाण तुरन्त कटकर टुकड़े-टुकड़े हो गये।

34 जब कार्तवीर्यार्जुन के बाण छिन्न-भिन्न हो गये तो उसने अपने हाथों से अनेक वृक्ष तथा पर्वत उखाड़ लिए और वह फिर से परशुराम को मारने के लिए उनकी ओर तेजी से दौड़ा। किन्तु परशुराम ने अपने फरसे से अत्यन्त वेग से कार्तवीर्यार्जुन की भुजाएँ काट लीं जिस तरह कोई सर्प के फनों को काट ले।

35-36 तत्पश्चात परशुराम ने बाँह-कटे कार्तवीर्यार्जुन के सिर को पर्वतशृंग के समान काट दिया। जब कार्तवीर्यार्जुन के दस हजार पुत्रों ने अपने पिता को मारा गया देखा तो वे सब डर के मारे भाग गये। तब शत्रु का वध करके परशुराम ने कामधेनु को छुड़ाया, जिसे काफी कष्ट मिल चुका था, वे उसे बछड़े समेत घर ले आये तथा अपने पिता जमदग्नि को सौंप दिया।

37 परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन के वध सम्बन्धी अपने कार्यकलापों का वर्णन अपने पिता तथा भाइयों से किया। इन कार्यों को सुनकर जमदग्नि अपने पुत्र से इस प्रकार बोले।

38 हे वीर, हे पुत्र परशुराम, तुमने व्यर्थ ही राजा को मार डाला है क्योंकि वह सारे देवताओं का मूर्तरूप माना जाता है। इस प्रकार तुमने पाप किया है।

39 हे पुत्र, हम सभी ब्राह्मण हैं और अपनी क्षमाशीलता के कारण जनसामान्य के लिए पूज्य बने हुए हैं। इस गुण के कारण ही इस ब्रह्माण्ड के परम गुरु ब्रह्माजी को उनका पद प्राप्त हुआ है।

40 ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे क्षमाशीलता के गुण का संवर्धन करें क्योंकि यह सूर्य के समान तेजोमय है। भगवान हरि क्षमाशील व्यक्तियों से प्रसन्न होते हैं।

41 हे प्रिय पुत्र, एक सम्राट का वध ब्राह्मण की हत्या से भी अधिक पापमय है। किन्तु अब यदि तुम कृष्णभावनाभावित होकर तीर्थस्थलों की पूजा करो तो इस महापाप का प्रायश्चित हो सकता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10886953464?profile=RESIZE_400x

अध्याह चौदह – पुरुरवा का उर्वशी पर मोहित होना (9.14)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा: हे राजन अभी तक आपने सूर्यवंश का विवरण सुना है। अब सोमवंश का अत्यन्त कीर्तिपद एवं पावन वर्णन सुनिए। इसमें ऐल (पुरुरवा) जैसे राजाओं का उल्लेख है जिनके विषय में सुनना कीर्तिप्रद होता है।

2 भगवान विष्णु (गर्भोदकशायी विष्णु) सहस्रशीर्ष पुरुष भी कहलाते हैं। उनकी नाभि रूपी सरोवर से एक कमल निकला जिससे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। ब्रह्मा का पुत्र अत्री अपने पिता के ही समान योग्य था।

3 अत्री के हर्षाश्रुओं से सोम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो स्निग्ध किरणों से युक्त था। ब्रह्माजी ने उसे ब्राह्मणों, औषधियों तथा नक्षत्रों (तारों) का अधिष्ठाता नियुक्त किया ।

4 तीनों लोकों को जीत लेने के बाद सोम ने राजसूय नामक महान यज्ञ सम्पन्न किया। अत्यधिक गर्वित होने के कारण उसने बृहस्पति की पत्नी तारा का बलपूर्वक हरण कर लिया।

5 यद्यपि देवताओं के गुरु बृहस्पति ने सोम से बारम्बार अनुरोध किया कि वह तारा को लौटा दे, किन्तु उसने नहीं लौटाया। यह उसके मिथ्या गर्व के कारण हुआ। फलस्वरूप देवताओं तथा असुरों के बीच युद्ध छिड़ गया।

6 बृहस्पति तथा शुक्र के मध्य शत्रुता होने से शुक्र ने सोम (चन्द्रमा) का पक्ष लिया और सारे असुर उनके साथ हो लिए। किन्तु अपने गुरु का पुत्र होने के कारण शिवजी स्नेहवश बृहस्पति के पक्ष में हो लिये और उनके साथ सारे भूत-प्रेत भी हो लिये।

7 इन्द्र सभी कोटि के देवताओं को साथ लेकर बृहस्पति के पक्ष में हो लिया। इस तरह महान युद्ध हुआ जिसमें बृहस्पति की पत्नी तारा के कारण ही असुरों तथा देवताओं का विनाश हो गया।

8 जब अंगिरा ने ब्रह्माजी को सारी घटना की जानकारी दी तो उन्होंने चन्द्रदेव सोम को बुरी तरह फटकारा। इस तरह ब्रह्माजी ने तारा को उसके पति को वापस दिलवा दिया जिसे तब ज्ञात हुआ कि उसकी पत्नी गर्भवती है।

9 बृहस्पति ने कहा: अरे मूर्ख स्त्री ! जिस गर्भ को मेरे द्वारा निषेचित होना था वह किसी अन्य के द्वारा निषेचित हो चुका है। तुम तुरन्त ही बच्चा जनो। तुरन्त जनो। आश्वस्त रहो कि इस बच्चे के जनने के बाद मैं तुम्हें भस्म नहीं करूँगा। मुझे पता है कि यद्यपि तुम दुराचारिणी हो, किन्तु तुम पुत्र की इच्छुक थी। अतएव मैं तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा।

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: बृहस्पति का आदेश पाकर, अत्यन्त लज्जित हुई तारा ने तुरन्त ही बच्चे को जन्म दिया जो अति सुन्दर था और जिसकी शारीरिक कान्ति सोने जैसी थी। बृहस्पति तथा सोम दोनों ने ही उस सुन्दर पुत्र को सराहा।

11 फिर से बृहस्पति और सोम के बीच झगड़ा होने लगा क्योंकि दोनों दावा कर रहे थे, कि “यह मेरा पुत्र है, तुम्हारा नहीं हैं।” वहाँ पर उपस्थित सारे ऋषियों तथा देवताओं ने तारा से पूछा कि यह नवजात शिशु वास्तव में है किसका, किन्तु वह लजायी हुई थी, इस कारण तुरन्त कुछ भी उत्तर न दे पायी।

12 तब बालक अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने अपनी माता से तुरन्त सच-सच बतलाने के लिए कहा, “हे दुराचारिणी! तुम्हारे द्वारा यह लज्जा निरर्थक है। तुम अपने दोष को स्वीकार क्यों नहीं कर लेती? तुम मुझसे अपने दोषी आचरण के विषय में बतलाओ।"

13 तत्पश्चात ब्रह्माजी तारा को एकान्त में ले गये और सान्त्वना देने के बाद उससे पूछा कि वास्तव में यह पुत्र किसका है। उसने धीमें से उत्तर दिया "यह सोम का है।" तब चन्द्रदेव सोम ने तुरन्त ही उस बालक को स्वीकार कर लिया।

14 हे महाराज परीक्षित, जब ब्रह्माजी ने देखा कि वह बालक अत्यधिक बुद्धिमान है तो उन्होंने उसका नाम बुध रख दिया। इस पुत्र के कारण नक्षत्रों के राजा सोम ने अत्यधिक हर्ष का अनुभव किया।

15-16 तत्पश्चात इला के गर्भ से बुध को पुरुरवा नामक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका वर्णन नवें स्कन्ध के प्रारम्भ में किया जा चुका है। जब नारद ने इन्द्र के दरबार में पुरुरवा के सौन्दर्य, गुण, उदारता, आचरण, ऐश्वर्य तथा शक्ति का वर्णन किया तो देवांगना उर्वशी उसके प्रति आकृष्ट हो गई।

17-18 मित्र तथा वरुण से शापित उस देवांगना उर्वशी ने मानवीय गुण अर्जित कर लिए। अतएव पुरुषश्रेष्ठ, कामदेव के समान सुन्दर पुरुरवा को देखते ही उसने अपने को सँभाला और वह उसके निकट पहुँची। जब राजा पुरुरवा ने उर्वशी को देखा तो उसकी आँखें हर्ष से चमक उठीं और उसको रोमांच हो आया। वह विनीत एवं मधुर वचनों में उससे इस प्रकार बोला।

19 राजा पुरुरवा ने कहा: हे श्रेष्ठ सुन्दरी, तुम्हारा स्वागत है। कृपा करके यहाँ बैठो और बताओ कि मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ? तुम जब तक चाहो मेरे साथ भोग कर सकती हो। हम दोनों सुखपूर्वक दम्पत्ति-जीवन व्यतीत करें।

20 उर्वशी ने उत्तर दिया: हे रूपवान, ऐसी कौन सी स्त्री होगी जिसका मन तथा दृष्टि आपके प्रति आकृष्ट न हो जाए? यदि कोई स्त्री आपके वक्षस्थल की शरण ले तो वह आपसे रमण किये बिना नहीं रह सकती।

21 हे राजा पुरुरवा, आप इन दोनों मेमनों को शरण दें क्योंकि ये भी मेरे साथ गिर गए हैं। यद्यपि मैं स्वर्गलोक की हूँ और आप पृथ्वी लोक के हैं, किन्तु मैं निश्चय ही आपके साथ रमण करूँगी। आपको पति रूप में स्वीकार करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आप हर प्रकार से श्रेष्ठ हैं।

22 उर्वशी ने कहा: "हे वीर, मैं केवल घी की बनी वस्तुएँ खाऊँगी और आपको मैथुन-समय के अतिरिक्त अन्य किसी समय निर्वस्त्र नहीं देखना चाहूँगी।" विशालहृदय पुरुरवा ने इन प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया।

23 पुरुरवा ने कहा: हे सुन्दरी, तुम्हारा सौन्दर्य अद्भुत है और तुम्हारी भावभंगिमाएँ भी अद्भुत हैं। निस्सन्देह, तुम सारे मानव समाज के लिए आकर्षक हो। अतएव क्योंकि तुम स्वेच्छा से स्वर्गलोक से यहाँ आई हो तो भला इस पृथ्वीलोक पर ऐसा कौन होगा जो तुम जैसी देवी की सेवा करने के लिए तैयार नहीं होगा?

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: पुरुषश्रेष्ठ पुरुरवा उर्वशी के साथ मुक्त भाव से भोग करने लगा। वे दोनों चैत्ररथ, नन्दन कानन जैसे अनेक दैवी स्थलों में व्यस्त रहने लगे, जहाँ पर देवतागण भोग-विहार करते हैं।

25 उर्वशी का शरीर कमल के केसर की भाँति सुगन्धित था। उसके मुख तथा शरीर की सुगन्ध से जीवन्त रहकर पुरुरवा ने अत्यन्त उल्लासपूर्वक, अनेक दिनों तक उसके साथ रमण किया।

26 उर्वशी को अपनी सभा में न देखकर स्वर्ग के राजा इन्द्र ने कहा, “उर्वशी के बिना मेरी सभा मनोहर नहीं लगती।" यह सोचकर उसने गन्धर्वों से अनुरोध किया कि वे उसे पुनः स्वर्गलोक में ले आएँ।

27 इस तरह गन्धर्वगण पृथ्वी पर आये और अर्धरात्रि के अंधकार में पुरुरवा के घर में प्रकट हुए तथा उर्वशी द्वारा प्रदत्त दोनों मेमने चुरा लिए।

28 उर्वशी इन दोनों मेमनों को पुत्रस्वरूप मानती थी। अतएव जब उन्हें गन्धर्वगण लिए जा रहे थे और जब उन्होंने मिमियाना शुरु किया तो उर्वशी ने इसे सुना। उसने अपने पति को झिड़कियाँ देते हुए कहा, “हाय! अब मैं ऐसे अयोग्य पति के संरक्षण में रहती हुई मारी जा रही हूँ जो कायर एवं नपुंसक है किन्तु अपने को महान वीर समझता है।

29 “चूँकि मैं उस (अपने पति) पर आश्रित थी, अतएव लुटेरों ने मुझसे मेरे दोनों पुत्रवत मेमनों को छीन लिया है और अब तो मैं लूट गई हूँ। मेरा पति रात्रि में डर के मारे उसी तरह सो रहा है जैसे कोई स्त्री हो, यद्यपि दिन में वह पुरुष प्रतीत होता है।"

30 पुरुरवा उर्वशी के कर्कश शब्दों से आहत होने के कारण उसी तरह से अत्यधिक क्रुद्ध हो गया जिस तरह हाथी महावत द्वारा अंकुश गड़ा देने से होता है। वह बिना उचित वस्त्र पहने, हाथ में तलवार लेकर मेमना चुराने वाले गन्धर्वों का पीछा करने के लिए बाहर चला गया।

31 उन दोनों मेमनों को छोड़कर गन्धर्वगण बिजली के समान प्रकाशमान हो उठे जिससे पुरुरवा का घर प्रकाशित हो उठा। तब उर्वशी ने देखा कि उसका पति दोनों मेमनों को हाथ में लिए लौट आया है, किन्तु वह निर्वस्त्र है, अतः उसने उसका परित्याग कर दिया।

32 उर्वशी को अपने बिस्तर पर न देखकर पुरुरवा अत्यधिक व्यथित हो उठा। उसके प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण वह मन में क्षुब्ध था। तत्पश्चात विलाप करते हुए वह पागल की तरह सारी पृथ्वी में विचरने लगा।

33 एक बार विश्व का भ्रमण करते हुए पुरुरवा ने उर्वशी को उसकी पाँच सखियों सहित सरस्वती नदी के तट पर कुरुक्षेत्र में देखा। प्रसन्न मुख होकर वह उससे मधुर शब्दों में इस प्रकार बोला।

34 हे प्रिय पत्नी! जरा ठहरो तो। मैं जानता हूँ कि अभी तक मैं तुम्हें कभी भी सुखी नहीं बना पाया, किन्तु तुम्हें इस कारण से मेरा परित्याग नहीं करना चाहिए, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। मान लो कि तुम मेरा साथ छोड़ने का निश्चय कर चुकी हो, किन्तु तो भी आओ कुछ क्षण बैठकर बातें तो करें।

35 हे देवी, चूँकि मैं तुम्हारे सुख के अनुकूल नहीं हूँ और तुमने मुझे अस्वीकार कर दिया है अतः मेरा यह सुन्दर शरीर यहीं धराशायी हो जायगा और इसे लोमड़ियाँ तथा गीध खा जायेंगे।

36 उर्वशी ने कहा: हे राजन, तुम पुरुष हो, वीर हो। अधीर मत होओ और अपने प्राणों को मत त्यागो। गम्भीर बनो और लोमड़ियों की भाँति अपनी इन्द्रियों के वश में मत होओ। तुम लोमड़ियों का भोजन मत बनो। दूसरे शब्दों में, तुम्हें अपनी इन्द्रियों के वशीभूत नहीं होना चाहिए। प्रत्युत तुम्हें स्त्री के हृदय को लोमड़ी जैसा जानना चाहिए। स्त्रियों से मित्रता करने से कोई लाभ नहीं।

37 स्त्रियों की जाति करुणाविहीन तथा चालाक होती है। वे थोड़ा सा भी अपमान सहन नहीं कर सकतीं। वे अपने आनन्द के लिए कुछ भी अधर्म कर सकती हैं, अतएव वे अपने पति या भाई तक का वध करते हुए नहीं डरतीं।

38 स्त्रियाँ पुरुषों द्वारा आसानी से ठग ली जाती हैं, अतएव दूषित स्त्रियाँ अपने शुभेच्छु पुरुष की मित्रता छोड़कर मूर्खों से झूठी दोस्ती स्थापित कर लेती हैं। दरअसल, वे एक के बाद एक नित नये मित्रों की खोज में रहती हैं।

39 हे राजा, तुम हर एक साल के बाद केवल एक रात के लिए मेरे साथ पति रूप में रमण कर सकोगे। इस तरह तुम्हें एक-एक करके अन्य सन्तानें भी मिलती रहेंगी।

40 यह जानकर कि उर्वशी गर्भवती है, पुरुरवा अपने महल में वापस आ गया। एक वर्ष बाद कुरुक्षेत्र में ही उर्वशी से पुनः उसकी भेंट हुई, तब वह एक वीर पुत्र की माता थी।

41 वर्ष के अन्त में उर्वशी को फिर से पाकर राजा पुरुरवा अत्यधिक हर्षित था और उसने एक रात उसके संसर्ग में बिताई। किन्तु उससे विलग होने के विचार से वह अत्यधिक दुखी था, इसलिए उर्वशी ने उससे इस प्रकार कहा।

42 उर्वशी ने कहा: हे राजन, तुम गन्धर्वों की शरण में जाओ क्योंकि वे मुझे पुनः तुम्हें दे सकेंगे। इन वचनों के अनुसार राजा ने स्तुतियों द्वारा गन्धर्वों को प्रसन्न किया और जब गन्धर्व प्रसन्न हुए तो उन्होंने उसे उर्वशी जैसी ही एक अग्निस्थाली कन्या प्रदान की। यह सोचकर कि यह कन्या उर्वशी ही है, वह राजा उसके साथ जंगल में विचरण करने लगा, किन्तु बाद में उसकी समझ में आ गया कि वह उर्वशी नहीं अपितु अग्निस्थाली है।

43 तब राजा पुरुरवा ने अग्निस्थाली को जंगल में छोड़ दिया और स्वयं घर वापस चला आया जहाँ उसने रात भर उर्वशी का ध्यान किया। उसके ध्यान करते-करते ही त्रेतायुग का शुभारम्भ हो गया, अतएव वेदत्रयी के सारे सिद्धान्त, जिनमें सबल कर्मों की पूर्ति के लिए यज्ञ करने की विधियाँ भी सम्मिलित थीं, उसके हृदय के भीतर प्रकट हुए।

44-45 जब पुरुरवा के हृदय में कर्मकाण्डीय यज्ञ की विधि प्रकट हुई तो वह उसी स्थान पर गया जहाँ उसने अग्निस्थाली को छोड़ा था। वहाँ उसने देखा कि शमी वृक्ष के भीतर से एक अश्वत्थ वृक्ष उग आया है। उसने उस वृक्ष से लकड़ी का एक टुकड़ा लिया और उससे दो अरणियाँ बना लीं। उसने उर्वशी के रहने वाले लोक में जाने की इच्छा से, निचली अरणी में उर्वशी का और ऊपरी अरणी में अपना ध्यान तथा बीच के काष्ठ में अपने पुत्र का ध्यान करते हुए मंत्रोच्चार किया। इस तरह वह अग्नि प्रज्ज्वलित करने लगा ।

46 पुरुरवा द्वारा अरणियों के रगड़ने से अग्नि उत्पन्न हुई। ऐसी अग्नि से मनुष्य को भौतिक भोग में पूर्ण सफलता मिल सकती है और वह सन्तान उत्पत्ति, दीक्षा तथा यज्ञ करते समय शुद्ध हो सकता है जिन्हें अ, , म् (ओम्) शब्दों के द्वारा आवाहन किया जा सकता है। इस प्रकार वह अग्नि राजा पुरुरवा का पुत्र मान ली गई।

47 उर्वशी-लोक जाने के इच्छुक पुरुरवा ने उस अग्नि के द्वारा एक यज्ञ किया जिससे उसने यज्ञफल के भोक्ता भगवान हरि को तुष्ट किया। इस प्रकार उसने इन्द्रियानुभूति से परे एवं समस्त देवताओं के आगार भगवान की पूजा की।

48 प्रथम युग, सत्ययुग में, सारे वैदिक मंत्र एक ही मंत्र प्रणव में सम्मिलित थे जो सारे वैदिक मंत्रों का मूल है। दूसरे शब्दों में अथर्ववेद ही समस्त वैदिक ज्ञान का स्रोत था। भगवान नारायण ही एकमात्र आराध्य थे और देवताओं की पूजा की संस्तुति नहीं की जाती थी। अग्नि केवल एक थी और मानव समाज में केवल एक वर्ण था जो हंस कहलाता था।

49 हे महाराज परीक्षित, त्रेतायुग के प्रारम्भ में राजा पुरुरवा ने एक कर्मकाण्ड यज्ञ का सूत्रपात किया। इस प्रकार यज्ञिक अग्नि को पुत्र मानने वाला पुरुरवा इच्छानुसार गन्धर्वलोक जाने में समर्थ हुआ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10886958678?profile=RESIZE_710x

अध्याय तेरह – महाराज निमि की वंशावली (9.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यज्ञों का शुभारम्भ कराने के बाद इक्ष्वाकु पुत्र महाराज निमि ने वसिष्ठ से प्रधान पुरोहित का पद ग्रहण करने के लिए अनुरोध किया। उस समय वसिष्ठ ने उत्तर दिया, “हे महाराज निमि, मैंने इन्द्र द्वारा प्रारम्भ किये गये एक यज्ञ में इसी पद को पहले से स्वीकार कर रखा है।"

2 “मैं इन्द्र का यज्ञ पूरा कराकर यहाँ वापस आ जाऊँगा। कृपया तब तक मेरी प्रतीक्षा करें।" महाराज निमि चुप हो गये और वसिष्ठ इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करने में लग गये।

3 महाराज निमि स्वरूपसिद्ध जीव थे अतएव उन्होंने सोचा कि यह जीवन क्षणिक है, अतएव दीर्घकाल तक वसिष्ठ की प्रतीक्षा न करके उन्होंने अन्य पुरोहितों से यज्ञ सम्पन्न कराना शुरु कर दिया।

4 इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न कर लेने के बाद गुरु वसिष्ठ वापस आये तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य महाराज निमि ने उनके आदेशों का उल्लंघन कर दिया है। अतएव उन्होंने निमि को शाप दिया, “अपने को पण्डित मानने वाले निमि का भौतिक शरीर तुरन्त ही नष्ट हो जाय।"

5 महाराज निमि द्वारा किसी प्रकार का अपराध न किये जाने पर व्यर्थ ही गुरु द्वारा शापित होने के बदले में उन्होंने शाप दिया, “स्वर्ग के राजा इन्द्र से अभिदान पाने के निमित्त आपने अपनी धार्मिक बुद्धि गँवा दी है, अतएव मेरा शाप है कि आपका भी शरीरपात हो जाय।"

6 यह कहकर अध्यात्म में पटु महाराज निमि ने अपना शरीर छोड़ दिया। प्रपितामह वसिष्ठ ने भी अपना शरीर त्याग दिया, मित्रावरुण के द्वारा उर्वशी के गर्भ से उन्होंने पुनः जन्म लिया।

7 यज्ञ सम्पन्न करते समय महाराज निमि द्वारा त्यक्त शरीर को सुगन्धित तत्त्वों द्वारा सुरक्षित रखा गया और सत्रयाग के अन्त में मुनियों तथा ब्राह्मणों ने वहाँ एकत्रित सारे देवताओं से निम्नानुसार प्रार्थना की।

8 "यदि आप इस यज्ञ से संतुष्ट हैं और यदि वास्तव में आप ऐसा करने में समर्थ हों तो कृपया इस शरीर में महाराज निमि को फिर से जीवित कर दें।"

9 देवताओं ने मुनियों की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली, किन्तु महाराज निमि ने कहा, “कृपया मुझे भौतिक शरीर में पुनः बन्दी न बनाएँ।"

9 महाराज निमि ने आगे कहा: सामान्य रूप से मायावादी लोग भौतिक शरीर धारण नहीं करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें उसका त्याग करने में भय लगता है। किन्तु जिन भक्तों की चेतना सदैव भगवान की सेवा से पूरित रहती है वे भयभीत नहीं रहते। दरअसल, वे इस शरीर का उपयोग भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में करते हैं।

10 मैं भौतिक शरीर पाने का इच्छुक नहीं हूँ क्योंकि ऐसा शरीर विश्वभर में सर्वत्र दुख, शोक तथा भय का कारण होता है जिस तरह कि जल में रहने वाली मछली मृत्यु के भय से सदैव चिन्ताग्रस्त रहती है।

11 देवताओं ने कहा: महाराज निमि भौतिक शरीर से विहीन होकर रहें। वे आध्यात्मिक शरीर से भगवान के निजी पार्षद बनकर रहें और वे अपनी इच्छानुसार जब चाहें सामान्य देहधारी लोगों को दिखें या न दिखें।

12 तत्पश्चात लोगों को अराजकता के भय से बचाने के लिए ऋषियों ने निमि महाराज के भौतिक शरीर को मथा जिसके फलस्वरूप शरीर से एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

13 असामान्य विधि से उत्पन्न होने के कारण वह पुत्र जनक कहलाया और चूँकि वह अपने पिता के मृत शरीर से उत्पन्न हुआ था अतएव वह वैदेह कहलाया। अपने पिता के भौतिक शरीर के मन्थन से उत्पन्न होने से वह मिथिल कहलाया और उसने राजा मिथली के रूप में जो नगर निर्मित किया वह मिथिला कहलाया।

14 हे राजा परीक्षित, मिथिल से जो पुत्र उत्पन्न हुआ वह उदावसु कहलाया; उदावसु से नन्दिवर्धन; नन्दिवर्धन से सुकेतु और सुकेतु से देवरात उत्पन्न हुआ।

15 देवरात से बृहद्रथ नामक पुत्र हुआ बृहद्रथ का पुत्र महावीर्य हुआ जो सुधृति का पिता बना। सुधृति का पुत्र धृष्टकेतु कहलाया और धृष्टकेतु से हर्यश्व हुआ। हर्यश्व का पुत्र मरु हुआ।

16 मरु का पुत्र प्रतीपक हुआ और प्रतीपक का पुत्र कृतरथ हुआ। कृतरथ से देवमीढ, देवमिढ से विश्रुत एवं विश्रुत से महाधृति हुआ।

17 महाधृति से कृतिरात नामक पुत्र हुआ, कृतिरात से महारोमा हुआ, महारोमा से स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा से ह्रस्वरोमा उत्पन्न हुआ।

18 ह्रस्वरोमा से शीरध्वज (जिसका नाम जनक भी था) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह खेत जोत रहा था तो उसके हल (शीर) के अग्रभाग से सीतादेवी नामक कन्या प्रकट हुई जो बाद में भगवान रामचन्द्र की पत्नी बनी। इस तरह वह शीरध्वज कहलाया।

19 शीरध्वज का पुत्र कुशध्वज हुआ और कुशध्वज का पुत्र राजा धर्मध्वज हुआ जिसके कृतध्वज तथा मितध्वज नाम के दो पुत्र हुए।

20-21 हे महाराज परीक्षित, कृतध्वज का पुत्र केशिध्वज हुआ और मितध्वज का पुत्र खाण्डिक्य था। कृतध्वज का पुत्र आध्यात्मिक ज्ञान में पटु था और मितध्वज का पुत्र वैदिक कर्मकाण्ड में। खाण्डिक्य केशिध्वज के भय से भाग गया। केशिध्वज का पुत्र भानुमान था और भानुमान का पुत्र शतद्युम्न हुआ।

22 शतद्युम्न के पुत्र का नाम शुचि था। शुचि से संद्वाज उत्पन्न हुआ और संद्वाज का पुत्र उर्जकेतु था। उर्जकेतु का पुत्र अज था और अज का पुत्र पुरुजित हुआ।

23 पुरुजित का पुत्र अरिष्टनेमी हुआ, जिसका पुत्र श्रुतायु हुआ, श्रुतायु का पुत्र सुपार्श्वक था और उसका पुत्र चित्ररथ था। चित्ररथ का पुत्र क्षेमाधि था जो मिथिला का राजा बना।

24 क्षेमाधि का पुत्र समरथ हुआ और उसका पुत्र सत्यरथ था। सत्यरथ का पुत्र उपगुरु हुआ और उपगुरु का पुत्र उपगुप्त हुआ जो अग्निदेव का अंशरूप था।

25 उपगुप्त का पुत्र वस्वनन्त था, जिसका पुत्र युयुध हुआ। युयुध का पुत्र सुभाषण, सुभाषण का पुत्र श्रुत, श्रुत का पुत्र जय और जय का पुत्र विजय था। विजय का पुत्र ऋत था।

26 ऋत का पुत्र शुनक था, शुनक का वीतहव्य, वीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाश्व, बहुलाश्व का कृति तथा उसका पुत्र महावशी था।

27 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, मिथिल वंश के सारे राजा अध्यात्म ज्ञान में पटु थे। अतएव वे घर पर रहते हुए भी संसार के द्वन्द्वों से मुक्त हो गए।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10949265091?profile=RESIZE_710x

अध्याय बारह – भगवान रामचन्द्र के पुत्र कुश की वंशावली(9.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: रामचन्द्र का पुत्र कुश हुआ, कुश का पुत्र अतिथि था, अतिथि का पुत्र निषध और निषध का पुत्र नभ था। नभ का पुत्र पुण्डरीक हुआ जिसके पुत्र का नाम क्षेमधन्वा था।

2 क्षेमधन्वा का पुत्र देवानीक था और देवानीक का पुत्र अनीह हुआ जिसके पुत्र का नाम पारियात्र था। पारियात्र का पुत्र बलस्थल था, जिसका पुत्र वज्रनाभ हुआ जो सूर्यदेव के तेज से उत्पन्न बतलाया जाता है।

3-4 वज्रनाभ का पुत्र सगण हुआ और उसका पुत्र विधृति हुआ। विधृति का पुत्र हिरण्यनाभ था जो जैमिनी का शिष्य और फिर योग का महान आचार्य बना। इन्हीं हिरण्यनाभ से ऋषि याज्ञवल्क्य ने अध्यात्म योग नामक योग की अत्युच्च प्रणाली सीखी जो हृदय की भौतिक आसक्ति की गाँठ को खोलने में समर्थ है।

5 हिरण्यनाभ के पुत्र का नाम पुष्प था जिससे ध्रुवसंधि नामक पुत्र हुआ। ध्रुवसंधि का पुत्र सुदर्शन और उसका पुत्र अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र का नाम शीघ्र था और उसके पुत्र का नाम मरु था।

6 योगशक्ति में सिद्धि प्राप्त करके मरु अब भी कलाप ग्राम नामक स्थान में रह रहा है। वह कलियुग की समाप्ति पर पुत्र उत्पन्न करेगा जिससे विनष्ट सूर्यवंश पुनरुज्जीवित होगा।

7 मरु से प्रसुश्रुत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे संधि, फिर संधि से अमर्षण और अमर्षण से महस्वान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। महस्वान से विश्वबाहु का जन्म हुआ।

8 विश्वबाहु से प्रसेनजित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे तक्षक और तक्षक से बृहद्वल हुआ जो तुम्हारे पिता द्वारा युद्ध में मारा गया।

9 ये सारे राजा इक्ष्वाकु वंश में हो चुके हैं। अब उन राजाओं के नाम सुनो जो भविष्य में होंगे। बृहद्वल से बृहद्रण का जन्म होगा।

10 बृहद्रण का पुत्र उरुक्रिय होगा जिसके वत्सवृद्ध नामक पुत्र उत्पन्न होगा। वत्सवृद्ध के पुत्र का नाम प्रतिव्योम और उसके पुत्र का नाम भानु होगा जिससे महान सेनापति दिवाक नाम का पुत्र जन्म लेगा।

11 तत्पश्चात दिवाक का पुत्र सहदेव होगा और उसका पुत्र महान वीर बृहदाश्व होगा। बृहदाश्व से भामुमान होगा जिससे प्रतीकाश्व नाम का पुत्र होगा। प्रतीकाश्व का पुत्र सुप्रतीक होगा।

12 तत्पश्चात सुप्रतीक से मरुदेव, मरुदेव से सुनक्षत्र, सुनक्षत्र से पुष्कर और पुष्कर से अन्तरिक्ष होगा जिसका पुत्र सुतपा होगा। सुतपा का पुत्र अमित्रजित होगा।

13 अमित्रजित से बृहद्राज होगा, बृहद्राज से बर्हि, बर्हि से कृतञ्जय, कृतञ्जय से रणञ्जय और रणञ्जय से सञ्जय नामक पुत्र उत्पन्न होगा।

14 सञ्जय से शाक्य, शाक्य से शुद्धोद, शुद्धोद से लांगल और लांगल से प्रसेनजित तथा प्रसेनजित से क्षुद्रक उत्पन्न होगा।

15 क्षुद्रक का पुत्र रणक, रणक का सूरथ, सूरथ का पुत्र सुमित्र होगा और इस तरह वंश का अन्त हो जायेगा। यह बृहद्वल के वंश का वर्णन है।

16 इक्ष्वाकु वंश का अन्तिम राजा सुमित्र होगा, उसके बाद सूर्यदेव के वंश में और कोई पुत्र न होगा और इस वंश का अन्त हो जायेगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान) 

Read more…

10886935685?profile=RESIZE_710x

अध्याय ग्यारह -- भगवान रामचन्द्र का विश्व पर राज्य करना (9.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात भगवान रामचन्द्र ने एक आचार्य स्वीकार करके उत्तम साज समान के साथ बड़ी धूमधाम से यज्ञ सम्पन्न किये। इस तरह उन्होंने स्वयं ही अपनी पूजा की क्योंकि वे सभी देवताओं के परमेश्वर हैं।

2 भगवान रामचन्द्र ने होता पुरोहित को सम्पूर्ण पूर्व दिशा, ब्रह्मा पुरोहित को सम्पूर्ण दक्षिण दिशा, अर्ध्वर्यू पुरोहित को पश्चिम दिशा और सामवेद के गायक उदगाता पुरोहित को उत्तरदिशा दे दी। इस प्रकार उन्होंने अपना सारा साम्राज्य दान कर दिया।

3 तत्पश्चात यह सोचकर कि ब्राह्मण लोग निष्काम होते हैं अतएव उन्हें ही सारे जगत का स्वामी होना चाहिए, भगवान रामचन्द्र ने पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण के बीच की भूमि आचार्य को दे दी।

4 ब्राह्मणों को सर्वस्व दान देने के बाद भगवान रामचन्द्र के पास केवल उनके निजी वस्त्र तथा आभूषण बचे रहे और इसी तरह रानी सीतादेवी के पास उनकी नथुनी के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहा।

5 यज्ञकार्य में संलग्न सारे ब्राह्मण भगवान रामचन्द्र से अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि वे ब्राह्मणों के प्रति अत्यन्त वत्सल एवं अनुकूल थे। अतः उन्होंने द्रवित होकर दान में प्राप्त सारी सम्पत्ति उन्हें लौटा दी और इस प्रकार बोले।

6 हे प्रभु, आप सारे विश्व के स्वामी हैं। आपने हमें क्या नहीं दिया है? आपने हमारे हृदयों में प्रवेश करके अपने तेज से हमारे अज्ञान के अंधकार को दूर किया है। यही सर्वोत्कृष्ट उपहार है। हमें भौतिक दान की आवश्यकता नहीं है।

7 हे प्रभु, आप भगवान हैं और आपने ब्राह्मणों को अपना आराध्य देव स्वीकार किया है। आपका ज्ञान तथा स्मृति उद्विग्नता से कभी विचलित नहीं होते। आप इस संसार के सभी विख्यात पुरुषों में प्रधान हैं और आपके चरणों की पूजा मुनियों द्वारा की जाती है जो दण्ड के क्षेत्र से परे हैं। हे भगवान रामचन्द्र, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: एक बार जब भगवान रामचन्द्र रात्रि में किसी को बताए बिना वेश बदलकर छिपकर अपने विषय में लोगों का अभिमत जानने के लिए घूम रहे थे तो उन्होंने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी सीतादेवी के विषय में अनुचित बातें कहते सुना।

9 (वह व्यक्ति अपनी कुलटा पत्नी से कह रहा था) तुम दूसरे व्यक्ति के घर जाती हो, अतएव तुम कुलटा तथा दूषित हो। अब मैं और अधिक तुम्हारा भार नहीं वहन कर सकता। भले रामचन्द्र जैसा पति सीता जैसी पत्नी को स्वीकार कर ले मैं उनकी तरह नहीं हूँ, अतएव मैं तुम्हें फिर से नहीं रख सकता।

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अल्पज्ञ तथा घृणित चरित्र वाले व्यक्ति अंटशंट बकते रहते हैं। ऐसे धूर्तों के भय से भगवान रामचन्द्रजी ने अपनी पत्नी सीतादेवी का परित्याग किया यद्यपि वे गर्भिणी थीं। इस तरह सीतादेवी वाल्मीकि मुनि के आश्रम में गई।

11 समय आने पर गर्भवती सीतादेवी ने जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया जो बाद में लव तथा कुश नाम से विख्यात हुए। उनका जातकर्म संस्कार वाल्मीकि मुनि द्वारा सम्पन्न हुआ।

12 हे महाराज परीक्षित, लक्ष्मणजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम अंगद और चित्रकेतु थे और भरतजी के भी दो पुत्र हुए जिनके नाम तक्ष तथा पुष्कल थे।

13-14 शत्रुध्न के सुबाहु तथा श्रुतसेन नाम के दो पुत्र हुए। जब भरत सभी दिशाओं को जीतने गए तो उन्हें करोड़ों गन्धर्वों का वध करना पड़ा जो सामान्यतया कपटी होते हैं। उन्होंने उनकी सारी सम्पत्ति छीन ली और उसे लाकर भगवान रामचन्द्र को अर्पित कर दिया। शत्रुध्न ने भी लवण नामक एक राक्षस का वध किया जो मधु राक्षस का पुत्र था। इस तरह उन्होंने मधुवान नामक महान जंगल में मथुरा नामक पुरी की स्थापना की।

15 अपने पति द्वारा परित्यक्ता सीतादेवी ने अपने दोनों पुत्रों को वाल्मीकि मुनि की देखरेख में छोड़ दिया। तत्पश्चात भगवान रामचन्द्र के चरणकमलों का ध्यान करती हुई वे पृथ्वी के भीतर समा गई।

16 सीतादेवी के पृथ्वी में प्रविष्ट होने का समाचार सुनकर भगवान रामचन्द्र निश्चित रूप से दुखी हुए। यद्यपि वे भगवान हैं, किन्तु सीतादेवी के महान गुणों का स्मरण करके वे दिव्य प्रेमवश अपने शोक को रोक न सके।

17 स्त्री तथा पुरुष अथवा नर और मादा के मध्य आकर्षण हर जगह और हर समय पाया जाता है जिससे हर व्यक्ति सदा भयभीत रहता है। यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे नियन्ताओं में भी ऐसी भावनाएँ पाई जाती हैं और उनके लिए भी ये भय के कारण हैं। तो फिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जाये जो इस भौतिक जगत में गृहस्थ-जीवन के प्रति आसक्त हैं?

18 सीता द्वारा पृथ्वी में प्रवेश करने के बाद भगवान रामचन्द्र ने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया और तेरह हजार वर्षों तक वे अनवरत अग्निहोत्र यज्ञ करते रहे।

19 यज्ञ पूरा कर लेने के बाद दण्डकारण्य में रहते हुए भगवान रामचन्द्र के जिन चरणकमलों में कभी-कभी काँटे चुभ जाते थे उन चरणकमलों को उन्होंने उन लोगों के हृदयों में रख दिया जो उनका निरन्तर चिन्तन करते हैं। तत्पश्चात वे ब्रह्मज्योति से परे अपने धाम वैकुण्ठलोक में प्रविष्ट हुए।

20 विभिन्न लीलाओं में सदैव संलग्न दिव्य देहधारी भगवान रामचन्द्र का वास्तविक यश इसमें नहीं है कि उन्होंने देवताओं के आग्रह पर बाणों की वर्षा करके रावण का वध किया और समुद्र पर सेतु का निर्माण किया। न तो कोई भगवान रामचन्द्र के तुल्य है न उनसे बढ़कर, अतएव उन्हें रावण पर विजय प्राप्त करने में वानरों से कोई सहायता लेने की आवश्यकता नहीं थी।

21 भगवान रामचन्द्र का निर्मल नाम तथा यश सारे पापों के फलों को नष्ट करने वाला है। सारी दिशाओं में वह उसी तरह विख्यात है जिस तरह समस्त दिशाओं पर विजय पाने वाले हाथी पर अलंकृत झूल हो। मार्कण्डेय ऋषि जैसे महान साधु पुरुष अब भी महाराज युधिष्ठिर जैसे सम्राटों की सभाओं में उनके गुणों का गान करते हैं। इसी तरह सारे ऋषि तथा देवता, जिनमें शिवजी तथा ब्रह्माजी भी सम्मिलित हैं, अपने-अपने मुकुटों को झुकाकर भगवान की पूजा करते हैं। मैं उन भगवान के चरणकमलों में, नमस्कार करता हूँ।

22 भगवान रामचन्द्र अपने धाम को लौट आए जहाँ भक्तियोगी जाते हैं। यही वह स्थान है जहाँ अयोध्या के सारे निवासी भगवान को उनकी प्रकट लीलाओं में नमस्कार करके, उनके चरणकमलों का स्पर्श करके, उन्हें पितृतुल्य राजा मानकर, उनकी बराबरी में बैठकर या लेटकर या मात्र उनके साथ रहकर, उनकी सेवा करने के बाद वापस गये।

23 हे राजा परीक्षित, जो भी व्यक्ति भगवान रामचन्द्र के गुणों से सम्बन्धित कथाओं को कानों सुनता है वह अन्ततोगत्वा ईर्ष्या के रोग से मुक्त हो जायेगा और फलस्वरूप कर्मबन्धन से छूट जायेगा।

24 महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: भगवान ने स्वयं किस तरह का बर्ताव किया और अपने विस्तार (अंश) स्वरूप अपने भाइयों के साथ कैसा बर्ताव किया? और उनके भाइयों ने तथा अयोध्यावासियों ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया?

25 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: अपने छोटे भाई भरत के आग्रह पर राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद भगवान रामचन्द्र ने अपने छोटे भाइयों को आदेश दिया कि वे बाहर जाकर सारे विश्व को जीतें जबकि वे स्वयं राजधानी में रहकर सारे नागरिकों तथा प्रासाद के वासियों को दर्शन देते रहे तथा अपने अन्य सहायकों के साथ राजकाज की निगरानी करते रहे।

26 भगवान रामचन्द्र के शासन काल में अयोध्या की सड़कें सुगन्धित जल से तथा हाथियों द्वारा अपनी सूँडों से छिड़के गये सुगन्धित द्रव की बूँदों से सींची जाती थीं।

27 जब नागरिकों ने देखा कि भगवान स्वयं ही इतने वैभव के साथ शहर के मामलों की देखरेख कर रहे हैं तो उन्होंने इस वैभव की भूरी-भूरी प्रशंसा की। सारे महल, महलों के द्वार, सभाभवन, चबूतरे, मन्दिर तथा अन्य ऐसे स्थान सुनहरे कलशों से सजाये और विभिन्न प्रकार की झण्डियों से अलंकृत किये जाते थे।

28 जहाँ कहीं भगवान रामचन्द्र जाते, वहीं केले के वृक्षों तथा फल-फूलों से युक्त सुपारी के वृक्षों से स्वागत-द्वार बनाये जाते थे। इन द्वारों को रंगबिरंगे वस्त्र से बनी पताकाओं, बन्दनवारों, दर्पणों तथा मालाओं से सजाया जाता था।

29 भगवान रामचन्द्र जहाँ कहीं भी जाते, लोग पूजा की सामग्री लेकर उनके पास पहुँचते और उनके आशीर्वाद की याचना करते। वे कहते, “हे प्रभु, जिस प्रकार आपने अपने वराह अवतार में समुद्र के नीचे से पृथ्वी का उद्धार किया, उसी तरह अब आप उसका पालन करें। हम आपसे यही आशीष माँगते हैं।“

30 तत्पश्चात दीर्घकाल से भगवान का दर्शन न किये रहने से, नर तथा नारी उन्हें देखने के लिए अत्यधिक उत्सुक होकर अपने-अपने घरों को त्यागकर महलों की छतों पर चढ़ गये। कमलनयन भगवान रामचन्द्र के मुखमण्डल का दर्शन करके न अघाने के कारण वे उन पर फूलों की वर्षा करने लगे।

31-34 तत्पश्चात भगवान रामचन्द्र अपने पूर्वजों के महल में गये। इस महल के भीतर विविध खजाने तथा मूल्यवान परिधान-भण्डार थीं। प्रवेश द्वार के दोनों ओर की बैठकें मूँगे से बनी थीं, आँगन वैदूर्यमणि के खम्भों से घिरा था, फर्श अत्यधिक पालिश की हुई मरकतमणि से बनी थीं और नींव संगरमरमर की बनी थी। सारा महल झण्डियों तथा मालाओं से सजाया गया था एवं मूल्यवान, चमचमाते मणियों से अलंकृत किया गया था। महल पूरी तरह मोतियों से सजाया गया था और धूप-दीप से घिरा था। महल के भीतर के स्त्री-पुरुष देवताओं के समान थे और वे विविध आभूषणों से अलंकृत थे। ये आभूषण उनके शरीर में पहने रहने के कारण सुन्दर लग रहे थे।

35 श्रेष्ठ विद्वान पण्डितों में अग्रणी भगवान रामचन्द्र ने उस महल में अपनी आह्लादिनी शक्ति सीतादेवी के साथ निवास किया और पूर्ण शान्ति का भोग किया।

36 धर्म के सिद्धान्तों का उल्लंघन किये बिना उन रामचन्द्र ने जिनके चरणकमलों की पूजा भक्तगण ध्यान में करते हैं, जब तक चाहा, दिव्य आनन्द की सारी सामग्री का भोग किया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10886737263?profile=RESIZE_584x

अध्याय दस – भगवान रामचन्द्र की लीलाएँ (9.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महाराज खटवांग का पुत्र दीर्घबाहु हुआ और उसके पुत्र विख्यात रघु महाराज हुए। महाराज रघु से अज उत्पन्न हुए और अज से महापुरुष महाराज दशरथ हुए।

2 देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर परम सत्य भगवान अपने अंश तथा अंशों के भी अंश के साथ साक्षात प्रकट हुए। उनके पावन नाम थे राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुध्न। ये सुविख्यात अवतार महाराज दशरथ के पुत्रों के रूप में चार स्वरूपों में प्रकट हुए।

3 हे राजा परीक्षित, भगवान रामचन्द्र के दिव्य कार्यकलापों का वर्णन उन साधु पुरुषों द्वारा किया गया है जिन्होंने सत्य का दर्शन किया है। चूँकि आप सीता माता के पति रामचन्द्र के विषय में बारम्बार सुन चुके हैं अतएव मैं इन कार्यकलापों का वर्णन संक्षेप में ही करूँगा। कृपया सुनें।

4 अपने पिता के वचनों को अक्षत रखने के लिए भगवान रामचन्द्र ने तुरन्त ही राजपद छोड़ दिया और अपनी पत्नी सीतादेवी के साथ एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने उन चरणकमलों से घूमते रहे जो इतने कोमल थे कि वे माता सीता की हथेलियों का स्पर्श भी सहन नहीं कर सकते थे। भगवान के साथ उनके अनुज लक्ष्मण तथा वानरराज हनुमान (या एक अन्य वानरराज सुग्रीव) भी थे। ये दोनों जंगल में घूमते हुए राम-लक्ष्मण की थकान मिटाने में सहायक बने। शूर्पणखा की नाक तथा कान काटकर उसे कुरूप बनाकर भगवान सीतादेवी से बिछुड़ गए। अतएव वे अपनी भौहें तानकर क्रुद्ध हुए जिससे सागर भयभीत हो गया और उसने भगवान को अपने ऊपर से होकर पुल बनाने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात रावण को मारने के लिए भगवान दावानल की भाँति उसके राज्य में प्रविष्ट हुए। ऐसे भगवान रामचन्द्र हम सबों की रक्षा करें।

5 अयोध्यानरेश भगवान रामचन्द्र ने विश्वामित्र द्वारा सम्पन्न किए गए यज्ञ के प्रक्षेत्र में अनेक राक्षसों तथा असभ्य जनों का वध किया जो तमोगुण से प्रभावित होकर रात में विचरण करते थे। ऐसे रामचन्द्र जिन्होंने लक्ष्मण की उपस्थिति में इन असुरों का वध किया, हमारी रक्षा करने की कृपा करें।

6-7 हे राजन, भगवान रामचन्द्र की लीलाएँ हाथी के किसी बच्चे के समान अत्यन्त अद्भुत थीं। उस सभाभवन में जिसमें सीतादेवी का स्वयंवर हो रहा था, उन्होंने इस संसार के वीरों के बीच भगवान शिव के धनुष को तोड़ दिया। यह धनुष इतना भारी था कि इसे तीन सौ व्यक्ति उठाकर लाए थे। भगवान रामचन्द्र ने इसे मोड़कर डोरी चढ़ाई और बीच से उसे वैसे ही तोड़ डाला जिस तरह हाथी का बच्चा गन्ने को तोड़ देता है। इस तरह भगवान ने सीतादेवी का पाणिग्रहण किया जो उन्हीं के समान दिव्य रूप, सौन्दर्य, आचरण, आयु तथा स्वभाव से युक्त थीं। दरअसल, वे भगवान के वक्षस्थल पर सतत विद्यमान लक्ष्मी थीं। प्रतियोगियों की सभा में से जीतकर उनके मायके से लौटते हुए भगवान रामचन्द्र को परशुराम मिले। यद्यपि परशुराम अत्यन्त घमण्डी थे क्योंकि उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार राजाओं से विहीन बनाया था, किन्तु वे क्षत्रियवंशी राजा भगवान राम से पराजित हो गये।

8 अपनी पत्नी को दिये गये वचनों से बँधे पिता के आदेशों का पालन करते हुए भगवान रामचन्द्र ने उसी तरह अपना राज्य, ऐश्वर्य, मित्र, शुभचिन्तक, निवास तथा अन्य सभी कुछ त्याग दिया जिस तरह मुक्तात्मा अपना जीवन त्याग देता है। तब वे सीता सहित जंगल में चले गये।

9 जंगल में घूमते हुए, वहाँ पर अनेक कठिनाइयों को झेलते तथा अपने हाथ में महान धनुष-बाण लिए भगवान रामचन्द्र ने कामवासना से दूषित रावण की बहन के नाक-कान काटकर उसे कुरूप कर दिया। उन्होंने उसके चौदह हजार मित्रों को भी मार डाला जिनमें खर, त्रिशिर तथा दूषण मुख्य थे।

10 हे राजा परीक्षित, जब दस सिरों वाले रावण ने सीताजी के सुन्दर एवं आकर्षक स्वरूप के विषय में सुना तो उसका मन कामातुर हो उठा और वह उनको हरने चला गया। रावण ने भगवान रामचन्द्र को उनके आश्रम से दूर ले जाने के लिए सोने के मृग का रूप धारण किये मारीच को भेजा। जब भगवान ने उस अद्भुत मृग को देखा तो उन्होंने अपना आश्रम छोड़कर उसका पीछा करना शुरु कर दिया। अन्त में उसे तीक्ष्ण बाण से उसी तरह मार डाला जिस तरह वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति को मारा था।

11 जब रामचन्द्रजी जंगल में प्रविष्ट हुए और लक्ष्मण भी वहाँ नहीं थे तो दुष्ट राक्षस रावण ने विदेह राजा की पुत्री सीतादेवी का उसी तरह अपहरण कर लिया जिस तरह गडरिये की अनुपस्थिति में बाघ किसी असुरक्षित भेड़ को पकड़ लेता है। तब श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण के साथ जंगल में इस तरह भटकते रहे मानो कोई अत्यन्त दीन व्यक्ति अपनी पत्नी के वियोग में घूम रहा हो। इस तरह उन्होंने अपने व्यक्तिगत उदाहरण से एक स्त्री-अनुरक्त पुरुष जैसी दशा प्रदर्शित की।

12 भगवान रामचन्द्रजी ने, जिनके चरणकमल ब्रह्माजी तथा शिवजी द्वारा पूजित हैं, मनुष्य का रूप धारण किया था। उन्होंने जटायु का दाहसंस्कार किया, जिसे रावण ने मारा था। तत्पश्चात भगवान ने कबन्ध नामक असुर को मारा और वानरराजों से मैत्री स्थापित करके बालि का वध किया तथा सीतादेवी को छुड़ा लाने की व्यवस्था करके वे समुद्र के तट पर गये।

13 समुद्र तट पर पहुँच कर भगवान रामचन्द्र ने तीन दिन तक उपवास किया और वे साक्षात समुद्र के आने की प्रतीक्षा करते रहे। जब समुद्र नहीं आया तो भगवान ने अपनी क्रोध लीला प्रकट की और समुद्र पर दृष्टिपात करते ही समुद्र के सारे प्राणी, जिनमें घड़ियाल तथा मगर सम्मिलित थे, भय के मारे उद्विग्न हो उठे। तब डर के मारे शरीर धारण करके समुद्र पूजा की सारी सामग्री लेकर भगवान के पास पहुँचा। उसने भगवान के चरणकमलों पर गिरते हुए इस प्रकार कहा।

14 हे सर्वव्यापी परम पुरुष, हम लोग मन्द बुद्धि होने के कारण यह नहीं जान पाये कि आप कौन हैं, किन्तु अब हम जान पाये हैं कि आप सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी, अक्षर तथा आदि परम पुरुष हैं। देवता लोग सतोगुण से, प्रजापति रजोगुण से तथा भूतों के ईश तमोगुण द्वारा अन्धे हो जाते हैं, किन्तु आप इन समस्त गुणों के स्वामी हैं।

15 हे प्रभु, आप इच्छानुसार मेरे जल का उपयोग कर सकते हैं। निस्सन्देह, आप इसे पार करके उस रावण की पूरी में जा सकते हैं जो उपद्रवी है और तीनों जगतों को रुलाने वाला है। वह विश्रवा का पुत्र है, कृपया जाकर उसका वध करें और अपनी पत्नी सीतादेवी को फिर से प्राप्त करें। हे महान वीर, यद्यपि मेरे जल के कारण आपको लंका जाने में कोई बाधा नहीं होगी लेकिन आप इसके ऊपर पुल बनाकर अपने दिव्य यश का विस्तार करें। आपके इस अद्भुत असामान्य कार्य को देखकर भविष्य में सारे महान योद्धा तथा राजा आपकी महिमा का गान करेंगे।

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जल में उन पर्वत शृंगों को फेंककर जिनके सारे वृक्ष बन्दरों द्वारा हाथ से हिलाये गये थे, समुद्र के ऊपर पुल बना चुकने के बाद भगवान रामचन्द्र सीतादेवी को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका गये। रावण के भाई विभीषण की सहायता से भगवान सुग्रीव, नील, हनुमान इत्यादि वानर सैनिकों के साथ रावण के राज्य लंका में प्रविष्ट हुए जिसे हनुमानजी ने पहले भस्म कर दिया था।

17 लंका में प्रवेश करने के बाद सुग्रीव, नील, हनुमान आदि वानर सेनापतियों के नेतृत्व में वानर सैनिकों ने सारे विहारस्थलों, अन्न के गोदामों, खजानों, महलों के द्वारों, नगर के फाटकों, सभाभवनों, महल के छज्जों और यहाँ तक कि कबूतरघरों में अधिकार कर लिया। जब नगरी के सारे चौराहे, चबूतरे, झण्डे तथा गुम्बदों पर रखे सुनहरे गमले ध्वस्त कर दिये गये तो समूची लंका नगरी उस नदी के सदृश प्रतीत हो रही थी जिसे हाथियों के झुण्ड ने मथ दिया हो।

18 जब राक्षसपति रावण ने वानर सैनिकों द्वारा किये जा रहे उपद्रवों को देखा तो उसने निकुम्भ, कुम्भ, धुभ्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, तथा अन्य राक्षसों एवं अपने पुत्र इन्द्रजीत को भी बुलवाया। तत्पश्चात उसने प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन को और अन्त में कुम्भकर्ण को बुलवाया। इसके बाद उसने अपने सारे अनुयायियों को शत्रुओं से लड़ने के लिए उकसाया।

19 लक्ष्मण तथा सुग्रीव, हनुमान, गन्धमाद, नील, अंगद, जाम्बवन्त तथा पनस नामक वानर-सैनिकों से घिरे हुए भगवान रामचन्द्र ने उन राक्षस सैनिकों पर आक्रमण कर दिया जो विभिन्न अजेय हथियारों से, यथा तलवारों, भालों, बाणों, ऋष्टियों, शक्तिबाणों, खड्गों तथा तोमरों से सज्जित थे।

20 अंगद तथा रामचन्द्र के अन्य सेनापतियों ने शत्रुओं के हाथियों, पैदल सैनिकों, घोड़ों तथा रथों का सामना किया और उन पर बड़े-बड़े वृक्ष, पर्वत-शृंग, गदा तथा बाण फेंके। इस तरह भगवान रामचन्द्रजी के सैनिकों ने रावण के सैनिकों को, जिनका सौभाग्य पहले ही लुट चुका था, वध कर दिया क्योंकि सीतादेवी के क्रोध से रावण पहले ही ह्रासित हो चुका था।

21 तत्पश्चात जब राक्षसराज रावण ने देखा कि उसके सारे सैनिक मारे जा चुके हैं तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। अतएव वह अपने विमान में सवार हुआ जो फूलों से सजाया हुआ था और रामचन्द्रजी की ओर बढ़ा जो इन्द्र के सारथी मातली द्वारा लाये गये तेजस्वी रथ पर आसीन थे। तब रावण ने भगवान रामचन्द्र पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा की।

22 भगवान रामचन्द्र ने रावण से कहा: तुम मानवभक्षियों में अत्यन्त गर्हित हो निस्सन्देह, तुम उनकी विष्ठा तुल्य हो। तुम कुत्ते के समान हो क्योंकि वह घर के मालिक के न होने पर रसोई से खाने की वस्तु चुरा लेता है। तुमने मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी सीतादेवी का अपहरण किया है। इसलिए जिस तरह यमराज पापी व्यक्तियों को दण्ड देता है उसी तरह मैं भी तुम्हें दण्ड दूँगा। तुम अत्यन्त नीच, पापी तथा निर्लज्ज हो। अतएव आज मैं तुम्हें दण्ड दूँगा क्योंकि मेरा वार कभी खाली नहीं जाता।

23 इस प्रकार रावण को धिक्कारने के बाद भगवान रामचन्द्र ने अपने धनुष पर बाण साधा और रावण को निशाना बनाकर बाण छोड़ा जो रावण के हृदय को वज्र के समान बेध गया। इसे देखकर रावण के अनुयायी आर्तनाद करते हुए चिल्लाये "हाय!हाय।" 'क्या हो गया?' क्योंकि रावण अपने दसों मुखों से रक्त वमन करता हुआ अपने विमान से उसी तरह नीचे गिर पड़ा जिस प्रकार कोई पुण्यात्मा अपने पुण्यों के चुक जाने पर स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गिरता है।

24 तत्पश्चात वे सारी स्त्रियाँ जिनके पति युद्ध में मारे जा चुके थे, रावण की पत्नी मन्दोदरी के साथ लंका से बाहर आई। वे अनवरत विलाप करती हुई रावण तथा अन्य राक्षसों के शवों के समीप पहुँचीं।

25 लक्ष्मण के बाणों द्वारा मारे गये अपने-अपने पतियों के शोक में छाती पीटती हुई स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों का आलिंगन किया और फिर वे कातर स्वर में रुदन करने लगीं जो हर एक को द्रवित कर देने वाला था।

26 हे नाथ! हे स्वामी! तुम अन्यों की यंत्रणा की प्रतिमूर्ति थे, अतएव तुम रावण कहलाते थे। किन्तु अब जब तुम पराजित हो चुके हो, हम भी पराजित हैं क्योंकि तुम्हारे बिना इस लंका के राज्य को शत्रु ने जीत लिया है। बताओ न अब लंका किसकी शरण में जायेगी?

27 हे परम सौभाग्यवान, तुम कामवासना के वशीभूत हो गये थे, अतएव तुम सीतादेवी के प्रभाव (तेज) को नहीं समझ सके। तुम भगवान रामचन्द्र द्वारा मारे जाकर सीताजी के शाप से इस दशा को प्राप्त हुए हो।

28 हे राक्षसकुल के हर्ष, तुम्हारे ही कारण अब लंका-राज्य तथा हम सबका भी कोई संरक्षक नहीं रहा। तुमने अपने कृत्यों के ही कारण अपने शरीर को गीधों का आहार और अपनी आत्मा को नरक जाने का पात्र बना दिया है।

29 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: रावण के पवित्र भाई तथा रामचन्द्र के भक्त विभीषण को कोसल के राजा भगवान रामचन्द्र से अनुमति प्राप्त हो गई तब विभीषण ने अपने परिवार के सदस्यों को नरक जाने से बचाने के लिए आवश्यक अन्त्येष्टि कर्म सम्पन्न किये।

30 तत्पश्चात भगवान रामचन्द्र ने सीतादेवी को अशोकवन में शिशपा नामक वृक्ष के नीचे एक छोटी सी कुटिया में बैठी पाया। वे राम के वियोग के कारण दुखी होने से अत्यन्त दुर्बल हो गई थीं।

31 अपनी पत्नी को उस दशा में देखकर भगवान रामचन्द्र अत्यधिक दयार्द्र हो उठे। जब वे पत्नी के समक्ष आए तो वे भी अपने प्रियतम को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और उनके कमल सदृश मुख से आह्लाद झलकने लगा।

32 भगवान रामचन्द्र ने विभीषण को लंका के राक्षसों पर एक कल्प तक राज्य करने का अधिकार सौंपकर सीतादेवी को पुष्पों से सुसज्जित विमान (पुष्पक विमान) में बैठाया और फिर वे स्वयं उसमें बैठ गये। भगवान अपने वनवास की अवधि समाप्त होने पर, हनुमान, सुग्रीव तथा अपने भाई लक्ष्मण समेत अयोध्या लौट आये।

33 जब भगवान रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौटे तो मार्ग पर लोकपालों ने उनके स्वागतार्थ, सुन्दर सुगन्धित फूलों की वर्षा की और ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं जैसे महापुरुषों ने परम प्रसन्न होकर भगवान के कार्यों का यशोगान किया।

34 अयोध्या पहुँचकर भगवान रामचन्द्र ने सुना कि उनकी अनुपस्थिति में उनका भाई भरत गोमूत्र में पकाये जौ खाता था, अपने शरीर पर वृक्षों की छाल ओढ़ता था, सिर पर जटा बढ़ाये, कुशों की चटाई पर सोता था। अत्यन्त कृपालु भगवान ने इस पर अत्यधिक सन्ताप व्यक्त किया।

35-38 जब भरत को पता चला कि भगवान रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौट रहे हैं तो तुरन्त ही वे भगवान की खड़ाऊँ अपने सिर पर रखे और नन्दिग्राम स्थित अपने खेमे से बाहर आ गये। भरत के साथ मंत्री, पुरोहित, अन्य भद्र नागरिक, मधुर गायन करते पेशेवर गवैये तथा वैदिक मंत्रों का उच्चस्वर से पाठ करने वाले विद्वान ब्राह्मण थे। उनके पीछे जुलूस में रथ थे जिनमें सुन्दर घोड़े जूते थे जिनकी लगामें सुनहरी रस्सियों की थीं। ये रथ सुनहरी किनारी वाली पताकाओं तथा अन्य विविध आकार-प्रकार की पताकाओं से सजाये गये थे। सैनिक सुनहरे कवचों से लैस थे, नौकर पान-सुपारी लिए थे और साथ में अनेक विख्यात सुन्दर गणिकाएँ थीं। अनेक नौकर पैदल चल रहे थे और वे छाता, चामर, बहुमूल्य रत्न तथा उपयुक्त विविध राजसी सामान लिए हुए थे। इस तरह प्रेमानन्द से आर्द्र हृदय एवं अश्रुओं से पूरित नेत्रोंवाले भरत भगवान रामचन्द्र के समीप पहुँचे और अत्यन्त भावविभोर होकर उनके चरणकमलों पर गिर गये।

39-40 भगवान रामचन्द्र के समक्ष खड़ाऊँ को रखकर भरतजी आँखों में आँसू भरकर और दोनों हाथ जोड़कर खड़े रहे। भगवान रामचन्द्र भरत को अपनी दोनों भुजाओं में भरकर देर तक गले से लगाये रहे और उन्होंने अपने आँसुओं से उन्हें नहला दिया। तत्पश्चात सीतादेवी तथा लक्ष्मण के साथ रामचन्द्र ने विद्वान ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों को नमस्कार किया। समस्त अयोध्यावासियों ने भगवान को सादर प्रणाम किया।

41 अयोध्या के नागरिकों ने दीर्घकाल के बाद अपने राजा को लौटे देखकर उन्हें फूल की मालाएँ अर्पित कीं, अपने उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे) हिलाए और वे अति प्रसन्न होकर खूब नाचे।

42-43 हे राजन, भरत भगवान राम की खड़ाऊँ लिये थे, सुग्रीव तथा विभीषण चँवर तथा सुन्दर पंखा लिये थे, हनुमान सफेद छाता लिये हुए थे, शत्रुध्न धनुष तथा दो तरकस लिए थे तथा सीतादेवी तीर्थस्थानों के जल से भरा कलश लिए थीं। अंगद तलवार लिए थे और ऋक्षराज जाम्बवान सुनहरी ढाल लिए थे।

44 हे राजा परीक्षित, अपने पुष्पक विमान पर बैठे भगवान रामचन्द्र स्त्रियों द्वारा स्तुति किये जाने पर तथा बन्दीजनों द्वारा गुणगान किये जाने पर ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों तारों तथा ग्रहों के बीच चन्द्रमा हो।

45-46 तत्पश्चात अपने भाई भरत द्वारा स्वागत किये जाकर भगवान रामचन्द्र ने एक उत्सव के बीच अयोध्या नगरी में प्रवेश किया। जब वे महल में प्रविष्ट हुए, तो उन्होंने कैकेयी तथा महाराज दशरथ की अन्य पत्नी एवं अपनी माता कौशल्या – इन सभी माताओं को नमस्कार किया। उन्होंने अपने गुरुओं को, यथा वसिष्ठ सहित सभी को भी प्रणाम किया। उनके हमउम्र मित्रों तथा उनसे कम आयु वाले मित्रों ने उनकी पूजा की। उन्होंने भी उनका अभिवादन किया। लक्ष्मण तथा सीतादेवी ने भी वैसा ही किया। इस प्रकार वे सभी महल में प्रविष्ट हुए।

47 अपने पुत्रों को देखकर राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुध्न की माताएँ तुरन्त उठ खड़ी हुईं मानो अचेत शरीर में चेतना आ गई हो। माताओं ने अपने पुत्रों को अपनी गोद में भर लिया और उन्हें आँसुओं से नहलाकर अपने दीर्घकालीन बिछोह के सन्ताप से छुटकारा पा लिया।

48 कुलगुरु वसिष्ठ ने भगवान रामचन्द्र के सिर की जटाएँ मुँड़वा दीं। तत्पश्चात कुल के वरिष्ठ जनों के सहयोग से उन्होंने चारों समुद्रों के जल तथा अन्य सामग्रियों के द्वारा भगवान रामचन्द्र का अभिषेक उसी तरह सम्पन्न किया जिस तरह राजा इन्द्र का हुआ था।

49 भलीभाँति स्नान करके तथा अपना सिर घुटा करके भगवान रामचन्द्र ने अपने आपको सुन्दर परिधानों से सज्जित और माला तथा आभूषणों से अलंकृत किया। इस प्रकार वे अपने ही समान वस्त्र तथा आभूषण धारण किये अपने भाइयों तथा पत्नी के साथ अत्यन्त तेजोमय लग रहे थे।

50 तब भरत की पूर्ण शरणागति से प्रसन्न होकर भगवान रामचन्द्र ने राजसिंहासन स्वीकार किया। वे प्रजा की रक्षा पिता की भाँति करने लगे और प्रजा ने भी वर्ण तथा आश्रम के अनुसार अपने-अपने वृत्तिपरक कार्यों में लगकर उन्हें पितृतुल्य स्वीकार किया।

51 भगवान रामचन्द्र त्रेतायुग में राजा बने थे, परन्तु वह युग सत्ययुग जैसा प्रतीत होता था। प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक एवं पूर्ण सुखी था।

52 हे भरतश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, भगवान रामचन्द्र के राज में सारे वन, नदियाँ, पर्वत, राज्य, सातों द्वीप तथा सातों समुद्र सारे जीवों को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करने के लिए अनुकूल थे।

53 जब भगवान रामचन्द्र इस जगत के राजा थे तो सारे शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, रोग, बुढ़ापा, बिछोह, पश्चाताप, दुख, डर तथा थकावट का नामोनिशान न था। यहाँ तक कि न चाहने वालों के लिए भी मृत्यु नहीं थी।

54 भगवान रामचन्द्र ने एक पत्नी रखने का व्रत ले रखा था। उनका चरित्र अति पावन था और वे एक साधु-सदृश राजा थे। उन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, सामान्य जनता को और विशेष रूप से गृहस्थों को वर्णाश्रम धर्म के रूप में सदाचरण का पाठ सिखाया।

55 सीतादेवी अत्यन्त विनीत, आज्ञाकारिणी, लज्जाशील तथा सत्यवती थीं और सदा अपने पति के भाव को समझने वाली थीं। अपने चरित्र, प्रेम तथा सेवा से सीतादेवी ने भगवान के मन को मोहित कर लिया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10886681486?profile=RESIZE_400x

अध्याय नौ – अंशुमान की वंशावली (9.9)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: राजा अंशुमान ने अपने पितामह की तरह दीर्घकाल तक तपस्या की तो भी वह गंगा नदी को इस भौतिक जगत में न ला सका और उसके बाद कालक्रम में उसका देहान्त हो गया।

2 अंशुमान की भाँति उसका पुत्र दिलीप भी गंगा को इस भौतिक जगत में ला पाने में असमर्थ रहा और कालक्रम में उसकी भी मृत्यु हो गई। तत्पश्चात दिलीप के पुत्र भगीरथ ने गंगा को इस भौतिक जगत में लाने के लिए अत्यन्त कठिन तपस्या की।

3 तत्पश्चात माता गंगा राजा भगीरथ के समक्ष प्रकट होकर बोली, “मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न हूँ और तुम्हें मुँहमाँगा वर देने को तैयार हूँ।” गंगादेवी द्वारा इस प्रकार सम्बोधित होने पर राजा ने उनके समक्ष सिर झुकाया और अपना मन्तव्य बताया।

4 माता गंगा ने उत्तर दिया: जब मैं आकाश से पृथ्वीलोक के धरातल पर गिरूँगी तो मेरा जल अत्यन्त वेगवान होगा। इस वेग को कौन धारण कर सकेगा? यदि मुझे कोई धारण नहीं कर सकेगा तो मैं पृथ्वी की सतह को भेदकर रसातल में अर्थात ब्रह्माण्ड के पाताल क्षेत्र में चली जाऊँगी।

5 हे राजन, मैं पृथ्वीलोक में उतरना नहीं चाहती क्योंकि सभी लोग अपने पापकर्मों के फलों को धोने के लिए मुझमें स्नान करेंगे। जब ये सारे पापकर्मों के फल मुझमें एकत्र हो जायेंगे तो मैं उनसे किस तरह मुक्त हो सकूँ गी? तुम इस पर ध्यानपूर्वक विचार करो।

6 भगीरथ ने कहा: जो भक्ति के कारण सन्त प्रकृति के हैं और भौतिक इच्छाओं से मुक्त संन्यासी बन चुके हैं, तथा जो वेदवर्णित अनुष्ठानों का पालन करने में पटु हैं और शुद्ध भक्त हैं वे सर्वदा महिमामण्डित हैं और शुद्धाचरण वाले हैं तथा सभी पतितात्माओं का उद्धार करने में समर्थ हैं। जब ऐसे शुद्ध भक्त आपके जल में स्नान करेंगे तो अन्य लोगों के संचित पापों के फलों का निश्चय ही निराकरण हो सकेगा क्योंकि ऐसे भक्तगण उन भगवान को अपने हृदयों में सदा धारण करते हैं जो सारे पापों को दूर कर सकते हैं।

7 जिस प्रकार वस्त्र के सारे डोरे लम्बाई तथा चौड़ाई से गूँथे रहते हैं, उसी तरह यह समग्र विश्व अपने अक्षांश-देशान्तरों सहित भगवान की विभिन्न शक्तियों में स्थित है। शिवजी भी भगवान के अवतार हैं अतएव वे देहधारी जीव में परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे अपने सिर पर आपकी वेगवान तरंगों को धारण कर सकते हैं।

8 ऐसा कहने पर भगीरथ ने तपस्या करके शिवजी को प्रसन्न किया। हे राजा परीक्षित, शिवजी शीघ्र ही भगीरथ से तुष्ट हो गये।

9 जब राजा भगीरथ शिवजी के पास गये और उनसे गंगा की वेगवान लहरों को धारण करने के लिये प्रार्थना की तो शिवजी ने एवमस्तु कहते हुए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तब उन्होंने अत्यन्त ध्यानपूर्वक गंगा को अपने सिर पर धारण कर लिया क्योंकि भगवान विष्णु के अँगूठे से निकलने के कारण गंगा का जल शुद्ध करने वाला है।

10 महान एवं साधु सदृश राजा भगीरथ समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने वाली गंगाजी को पृथ्वी पर उस स्थान में ले गये जहाँ उनके पितरों के शरीर भस्म होकर पड़े हुए थे।

11 भगीरथ एक वेगवान रथ पर सवार हुए और गंगा माता के आगे-आगे चले जो अनेक देशों को शुद्ध करती हुई उनके पीछे-पीछे चलती हुई उस स्थान पर पहुँची जहाँ सगर के पुत्र भगीरथ के पितरों की भस्म पड़ी थी। जिन पर इस तरह गंगा का जल छिड़का गया।

12 चूँकि सगर महाराज के पुत्रों ने महापुरुष का अपमान किया था अतएव उनके शरीर का ताप बढ़ गया था और वे जलकर भस्म हो गये थे। किन्तु मात्र गंगाजल के छिड़कने से वे सभी स्वर्गलोक जाने के पात्र बन गये। अतएव जो लोग गंगा की पूजा करने के लिए गंगाजल का प्रयोग करते हैं उनके विषय में क्या कहा जाए?

13 भस्म शरीरों की राखों का गंगाजल के साथ सम्पर्क होने से सगर महाराज के पुत्र स्वर्गलोक चले गये। अतएव उन लोगों के विषय में क्या कहा जाय जो संकल्प लेकर श्रद्धापूर्वक गंगा मैया की पूजा करते हैं? ऐसे भक्तों को मिलने वाले लाभ की मात्र कल्पना ही की जा सकती है।

14 चूँकि गंगामाता भगवान अनन्त देव के चरणकमल के अँगूठे से निकलती है, अतएव वे मनुष्य को भवबन्धन से मुक्त करने में सक्षम हैं। इसलिए यहाँ पर उनके विषय में जो कुछ बतलाया जा रहा है वह तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।

15 मुनिगण भौतिक कामवासनाओं से सर्वथा मुक्त होकर, अपना ध्यान पूरी तरह भगवान की सेवा में लगाते हैं। ऐसे व्यक्ति बिना किसी कठिनाई के भवबन्धन से छूट जाते हैं और वे भगवान का आध्यात्मिक गुण प्राप्त करके दिव्यपद को प्राप्त होते हैं। भगवान की यही महिमा है।

16-17 भगीरथ का पुत्र श्रुत था और श्रुत का पुत्र नाभ था। (यह नाभ पूर्ववर्णित नाभ से भिन्न है)। नाभ का पुत्र सिंधुद्वीप हुआ, जिसका पुत्र अयुतायु था और अयुतायु का पुत्र ऋतुपर्ण हुआ जो नल राजा का मित्र बन गया। ऋतुपर्ण ने नल राजा को द्यूतक्रीड़ा सिखलाई और बदले में उसने नल राजा से घोड़ों को वश में करना तथा उनकी देखरेख करना सीखा। ऋतुपर्ण का पुत्र सर्वकाम था।

18 सर्वकाम के सुदास नामक एक पुत्र हुआ जिसका पुत्र सौदास कहलाया जो दमयन्ती का पति था। कभी-कभी सौदास मित्रसह या कल्माषपाद के नाम से जाना जाता है। अपने ही दुष्कर्मों के कारण मित्रसह निःसन्तान था और वसिष्ठ द्वारा उसे राक्षस बनने का शाप मिला।

19 राजा परीक्षित ने कहा: हे श्रील शुकदेव गोस्वामी, सौदास के गुरु वसिष्ठ ने इस महापुरुष को शाप क्यों दिया? मैं इसे जानना चाहता हूँ। यदि यह गोपनीय विषय न हो तो कृपया कह सुनायें।

20-21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार सौदास जंगल में मृगया के लिए गया जहाँ उसने एक राक्षस को मार डाला, राक्षस के भाई को क्षमा करके छोड़ दिया। किन्तु उस भाई ने बदला लेने का निश्चय किया। राजा को क्षति पहुँचाने के विचार से वह राजा के घर में रसोइया बन गया। एक दिन जब राजा के गुरु वसिष्ठ मुनि को भोजन करने के लिए आमंत्रित किया गया तो इस राक्षस रसोइये ने उन्हें मनुष्य का मांस परोस दिया।

22 वसिष्ठ मुनि परोसे भोजन की परीक्षा करते हुए, अपने योगबल से समझ गये कि यह मनुष्य का मांस है अतएव अभक्ष्य है। फलतः वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उन्होंने तुरन्त ही सौदास को मनुष्यभक्षी (राक्षस) बनने का शाप दे डाला।

23-24 जब वसिष्ठ समझ गये कि यह मांस राजा द्वारा नहीं, अपितु राक्षस द्वारा ही परोसा गया है तो उन्होंने निर्दोष राजा को शाप देने के प्रायश्चित स्वरूप अपने को शुद्ध करने के लिए बारह वर्ष तक तपस्या की। तब राजा सौदास ने अंजुली में पानी लेकर वसिष्ठ को शाप देने के लिए शापमंत्र का उच्चारण करना चाहा, किन्तु उसकी पत्नी मदयन्ती ने उसे ऐसा करने से रोका। तब राजा ने देखा कि दसों दिशाओं, आकाश तथा पृथ्वी पर सर्वत्र जीव ही जीव थे।

25 इस तरह सौदास में मानवभक्षी प्रवृत्ति आ गई और उसके पाँव में एक काला धब्बा हो गया जिससे वह कल्माषपाद कहलाया। एक बार राजा कल्माषपाद ने एक ब्राह्मण दम्पत्ति को जंगल में विहार करते देखा।

26-27 राक्षस-प्रवृत्ति से प्रभावित हो जाने तथा अत्यन्त भूखा होने के कारण राजा सौदास ने ब्राह्मण को पकड़ लिया। तब बेचारी ब्राह्मण की पत्नी ने राजा से कहा: हे वीर, तुम असली राक्षस नहीं हो, प्रत्युत तुम महाराज इक्ष्वाकु के वंशज हो। निस्सन्देह, तुम महान योद्धा हो और मदयन्ती के पति हो। तुम्हें इस तरह अधर्म का कृत्य नहीं करना चाहिए। मुझे पुत्र-प्राप्ति की इच्छा है अतएव मेरे पति को छोड़ दो, अभी उसने मुझे गर्भित नहीं किया है।

28 हे राजन, हे वीर, यह मानव शरीर सबके लाभ के निमित्त है। यदि तुम इस शरीर का असमय वध कर दोगे तो तुम मानव जीवन के सारे लाभों की हत्या कर डालोगे।

29 यह ब्राह्मण विद्वान अत्यन्त योग्य, तपस्या में रत तथा समस्त जीवों के हृदय में वास करने वाले परम पुरुष परमात्मा की पूजा करने के लिए अति उत्सुक है।

30 हे प्रभु, तुम धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्णतया अवगत हो। जिस तरह पुत्र कभी भी अपने पिता द्वारा वध्य नहीं है, उसी तरह इस ब्राह्मण की राजा द्वारा रक्षा होनी चाहिए न कि वध। तुम जैसे राजर्षि द्वारा इसका वध किस तरह उचित है?

31 तुम सुविख्यात हो और विद्वानों में पूजित हो। तुम किस तरह इस ब्राह्मण का वध करने का साहस कर रहे हो जो साधु, निष्पाप तथा वैदिक ज्ञान में पटु है? उसका वध करना गर्भ के भीतर भ्रूण नष्ट करने या गोवध के तुल्य होगा।

32 मैं अपने पति के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती। यदि तुम मेरे पति को खा जाना चाहते हो, तो अच्छा होगा कि पहले तुम मुझे खा लो क्योंकि मैं अपने पति के बिना एक शव तुल्य हूँ।

33 वसिष्ठ के शापवश राजा सौदास उस ब्राह्मण को निगल गया, जिस तरह कोई बाघ अपने शिकार को निगल जाता है। यद्यपि ब्राह्मणपत्नी ने अत्यन्त कातरभाव से विनय की, किन्तु उसके विलाप से भी सौदास नहीं पसीजा।

34 जब ब्राह्मण की सती पत्नी ने देखा कि उसका पति, जो गर्भाधान के लिए उद्यत ही था, उस मनुष्यभक्षक द्वारा खा लिया गया तो वह शोक तथा विलाप से अत्यधिक सन्तप्त हो ऊठी। इस तरह उसने क्रोध में आकर राजा को शाप दे दिया।

35 अरे मूर्ख पापी, चूँकि तूने मेरे पति को तब निगला जब मैं कामेच्छा से उन्मुख और गर्भाधान के लिए लालायित थी। अतएव मैं तुझे भी तभी मरते देखना चाहती हूँ जब तू अपनी पत्नी में गर्भाधान करने को उद्यत हो। दूसरे शब्दों में, जब भी तू अपनी पत्नी से संसर्ग करना चाहेगा, तू मर जाएगा।

36 इस प्रकार ब्राह्मणपत्नी ने राजा सौदास को, जो मित्रसह के नाम से विख्यात है, शाप दे डाला। तत्पश्चात अपने पति के साथ जाने के लिए सन्नद्ध उसने पति की अस्थियों में आग लगा दी, स्वयं वह उसमें कूद पड़ी और पति के साथ-साथ उसी गन्तव्य को प्राप्त हुई।

37 बारह वर्ष बाद जब राजा सौदास वसिष्ठ द्वारा दिये गये शाप से मुक्त हुआ तो उसने अपनी पत्नी के साथ संसर्ग करना चाहा। किन्तु रानी ने उसे ब्राह्मणी द्वारा दिये गये शाप का स्मरण कराया और इस तरह उसे रोक दिया गया।

38 इस प्रकार आदिष्ट होने पर राजा ने भावी रति-सुख त्याग दिया और भाग्यवश निस्सन्तान रहता रहा। बाद में राजा की अनुमति से ऋषि वसिष्ठ ने मदयन्ती के गर्भ से एक शिशु उत्पन्न किया।

39 मदयन्ती सात वर्षों तक बालक को गर्भ में धारण किये रही और उसने बच्चे को जन्म नहीं दिया। अतएव वसिष्ठ ने एक पत्थर से उसके पेट पर प्रहार किया जिससे बालक उत्पन्न हुआ। फलस्वरूप बच्चे का नाम अश्मक (पत्थर से उत्पन्न) पड़ा। अश्मक से बालिक उत्पन्न हुआ।

40 चूँकि स्त्रियों से घिरा रहने के कारण बालिक परशुराम के क्रोध से बच गया था अतएव वह नारीकवच कहलाया। जब परशुराम ने सारे क्षत्रियों का विनाश कर दिया तो बालिक अन्य क्षत्रियों का जनक बना। इसीलिए वह मूलक अर्थात क्षत्रिय वंश का मूल कहलाया।

41 बालिक का पुत्र दशरथ हुआ, दशरथ का पुत्र ऐडविडि तथा ऐडविडि का पुत्र राजा विश्वसह हुआ। विश्वसह का पुत्र सुप्रसिद्ध खटवांग था।

42 राजा खटवांग किसी भी युद्ध में दुर्जेय था। असुरों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर उसने विजय प्राप्त की और देवताओं ने प्रसन्न होकर उसे वर देना चाहा। जब राजा ने उनसे अपनी आयु के विषय में पूछा तो उसे बतलाया गया कि केवल एक मुहूर्त शेष है। अतएव उसने तुरन्त अपने घर जाकर भगवान के चरणकमलों में अपना मन पूरी तरह से एकाग्र किया।

43 महाराज खटवांग ने सोचा: ब्राह्मण संस्कृति तथा मेरे कुलपूज्य ब्राह्मणों की अपेक्षा मेरा जीवन भी मुझे अधिक प्रिय नहीं है, तो फिर मेरे राज्य, भूमि, पत्नी, सन्तान तथा ऐश्वर्य के विषय में क्या कहा जा सकता है? मुझे ब्राह्मणों से अधिक प्रिय कुछ भी नहीं है।

44 अपने बचपन में भी मैं नगण्य वस्तुओं या धर्महीन सिद्धान्तों के प्रति कभी आकृष्ट नहीं हुआ। मुझे भगवान से बढ़कर तथ्यपूर्ण अन्य कोई वस्तु नहीं मिल पाई।

45 तीनों लोकों के अधिष्ठाता देवतागण मुझे इच्छित वर देना चाहते थे, किन्तु मुझे उनके वर नहीं चाहिए थे क्योंकि मेरी रुचि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में है जिन्होंने इस संसार की सारी वस्तुओं को बनाया है। मेरी रुचि भौतिक वरों की अपेक्षा भगवान में कहीं अधिक है।

46 यद्यपि देवताओं को स्वर्गलोक में स्थित होने का लाभ मिलता है, किन्तु उनके मन, इन्द्रियाँ तथा बुद्धि भौतिक अवस्थाओं से उद्वेलित रहती हैं। अतएव ऐसे महापुरुष भी हृदय में निरन्तर स्थित भगवान का साक्षात्कार नहीं कर पाते। तो फिर अन्यों के विषय में, यथा मनुष्यों के विषय में, क्या कहा जाय जिन्हें बहुत ही कम लाभ प्राप्त हैं?

47 अतएव मुझे अब भगवान की बहिरंगा शक्ति अर्थात माया द्वारा सृजित वस्तुओं से आसक्ति त्याग देनी चाहिए। मुझे भगवान के ध्यान में संलग्न होना चाहिए और इस तरह उनकी शरण में जाना चाहिए। यह भौतिक सृष्टि भगवान की माया से सृजित होने के कारण पर्वत पर या जंगल में स्थित काल्पनिक नगर के सदृश है। हर बद्धजीव को भौतिक वस्तुओं से प्राकृतिक आकर्षण एवं आसक्ति होती है, किन्तु मनुष्य को चाहिए कि इन्हें त्यागकर भगवान की शरण में जाये।

48 इस तरह भगवान की सेवा करने में अपनी उन्नत बुद्धि से महाराज खटवांग ने अज्ञानमय शरीर से मिथ्या सम्बन्ध का परित्याग कर दिया। नित्य–सेवक की मूल स्थिति में रहकर उन्होंने भगवान की सेवा करने में अपने को संलग्न कर लिया।

49 वे बुद्धिहीन मनुष्य जो भगवान के निर्विशेष या शून्य न होने पर भी, उन्हें ऐसा मानते हैं, उनके लिए भगवान वासुदेव कृष्ण को समझ पाना अत्यन्त कठिन है। अतएव शुद्ध भक्त ही भगवान को समझते तथा उनका गान करते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10886105289?profile=RESIZE_400x

अध्याय आठ – भगवान कपिलदेव से सगर-पुत्रों की भेंट (9.8)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: रोहित का पुत्र हरित हुआ और हरित का पुत्र चम्प हुआ जिसने चम्पापुरी नामक नगर का निर्माण कराया। चम्प का पुत्र सुदेव हुआ और सुदेव का पुत्र विजय था।

2 विजय का पुत्र भरुक, भरुक का पुत्र वृक और उसका पुत्र बाहुक हुआ। राजा बाहुक के शत्रुओं ने उसकी सारी सम्पत्ति छीन ली जिससे उसने वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर लिया और अपनी पत्नी सहित वन में चला गया।

3 जब बाहुक वृद्ध होकर मर गया तो उसकी एक पत्नी उसके साथ सती होना चाहती थी। किन्तु उस समय और्व मुनि ने यह जानते हुए कि वह गर्भवती है, उसे सती होने से मना किया।

4 बाहुक की सपत्नियों ने, यह जानते हुए कि वह गर्भवती थी, उसकी सौतों ने उसको भोजन के साथ विष देने का षड्यंत्र किया लेकिन यह फलीभूत नहीं हुआ। किन्तु इस विष सहित एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो सगर (-गर अर्थात विष सहित) कहलाया। बाद में सगर सम्राट बना। गंगासागर नामक स्थान उसके पुत्रों द्वारा खोदा गया था।

5-6 सगर महाराज ने अपने गुरु और्व के आदेशानुसार तालजंघ, यवन, शक, हैहय तथा बर्बर जातियों के असभ्य लोगों का वध नहीं किया अपितु उनमें से कुछ को बेढंगे वस्त्र पहनने को बाध्य कर दिया, कुछ के सिर घुटवा दिये लेकिन मूँछें रहने दीं, कुछ के बालों को खुलवा दिया, कुछ के सिर आधे घुटवा दिए, कुछ को बिना भीतरी वस्त्र के कर दिया और कुछ को निर्वस्त्र करा दिया। इस प्रकार ये जातियाँ भिन्न-भिन्न वस्त्र धारण करने के लिए बाध्य की गई, किन्तु राजा सगर ने इन्हें मारा नहीं।

7 और्व मुनि के आदेशानुसार सगर महाराज ने अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किया और इस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न किया जो परम नियन्ता, समस्त विद्वानों के परमात्मा तथा सभी वेदों के ज्ञाता हैं। किन्तु स्वर्ग के राजा इन्द्र ने यज्ञ में बलि दिये जाने वाले घोड़े को चुरा लिया।

8 (राजा सगर की दो पत्नियाँ थी – सुमति तथा केशिनी) सुमति के पुत्रों ने, जिन्हें अपने पराक्रम तथा प्रभाव पर गर्व था, अपने पिता के आदेशानुसार खोये हुए घोड़े को सर्वत्र ढूँढा। ऐसा करते हुए उन्होंने पृथ्वी को बहुत दूर तक खोद डाला।

9-10 तत्पश्चात जब उन्होंने उत्तरपूर्व दिशा में कपिल मुनि के आश्रम के निकट घोड़े को देखा तो वे बोल उठे “यह रहा घोड़ाचोर! यह आँखें बन्द किये बैठा है। यह निश्चय ही बड़ा पापी है। मारो, मारो इसे।” इस प्रकार चिल्लाते हुए सगर के साठ हजार पुत्रों ने एकसाथ अपने हथियार उठा लिये। जब वे मुनि के निकट पहुँचे तो मुनि ने अपनी आँखें खोलीं।

11 स्वर्ग के राजा इन्द्र के प्रभाव से सगर के पुत्रों की बुद्धि मारी गई जिससे उन्होंने एक महापुरुष का अपमान कर दिया। फलस्वरूप उनके शरीरों से अग्नि निकलने लगी और वे तुरन्त ही जलकर राख हो गये।

12 कभी-कभी यह तर्क दिया जाता है कि राजा सगर के सारे पुत्र कपिल मुनि की आँखों से निकली अग्नि से भस्मसात हुए थे। लेकिन विद्वान पुरुष इस मत की पुष्टि नहीं करते क्योंकि कपिल मुनि का शरीर नितान्त सात्विक था अतएव उससे क्रोध के रूप में तमोगुण प्रकट नहीं हो सकता जिस तरह निर्मल आकाश को पृथ्वी की धूल दूषित नहीं कर सकती।

13 कपिल मुनि ने इस जगत में सांख्य दर्शन का प्रवर्तन किया जो अज्ञानरूपी सागर को पार करने के लिए दृढ़ नाव है। निस्सन्देह, भवसागर को पार करने के इच्छुक व्यक्ति को इस दर्शन का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। ऐसे महापुरुष में, जो अध्यात्म के उच्चपद को प्राप्त हो, एक मित्र तथा शत्रु में कोई अन्तर कैसे हो सकता है?

14 महाराज सगर के पुत्रों में एक का नाम असमंजस था जो राजा की दूसरी पत्नी केशिनी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। असमंजस का पुत्र अंशुमान था और वह अपने बाबा सगर के कल्याण-कार्य में सदैव लगा रहता था।

15-16 असमंजस पिछले जन्म में एक महान योगी था, किन्तु कुसंगति के कारण वह अपने उच्चपद से नीचे गिर गया था। अब, इस जन्म में वह राजपरिवार में उत्पन्न हुआ था और जाति-स्मर था अर्थात वह अपने पूर्व जन्म को स्मरण करने में समर्थ था। फिर भी वह अपने आपको दुर्जन के रूप में दिखलाना चाहता था, अतएव वह ऐसा कार्य किया करता था जो जनता तथा उसके परिजनों की दृष्टि में गर्हित तथा प्रतिकूल होता। वह सरयू नदी में खेल करते बालकों को गहरे जल में फेंककर उन्हें तंग करता रहता था।

17 चूँकि असमंजस ऐसे गर्हित कार्यों में लगा रहता था अतएव उसके पिता ने उससे स्नेह करना छोड़ दिया और उसे घर से निकाल दिया। तब असमंजस ने उन बालकों को जीवित करके तथा उनके माता-पिता को दिखलाकर अपनी योगशक्ति का प्रदर्शन किया। तत्पश्चात असमंजस ने अयोध्या छोड़ दिया।

18 हे राजा परीक्षित, जब सारे अयोध्यावासियों ने देखा कि उनके लड़के पुनः जीवित हो उठे हैं तो वे चकित रह गये और राजा सगर को भी अपने पुत्र की अनुपस्थिति पर अत्यधिक पश्चाताप हुआ।

19 तत्पश्चात महाराज सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा ढूँढ लाने का आदेश दिया। अंशुमान अपने चाचाओं के पथ से होकर धीरे-धीरे राख के ढेर तक पहुँचा और उसने उसी के निकट घोड़े को पाया।

20 महान अंशुमान ने विष्णु अवतार कपिल नामक मुनि को देखा जो घोड़े के निकट आसीन थे। अंशुमान ने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया और दत्तचित्त होकर उनकी प्रार्थना की।

21 अंशुमान ने कहा: हे भगवान, आज तक ब्रह्माजी भी आपके अगम्य पद को ध्यान या चिन्तन द्वारा समझ पाने में असमर्थ हैं तो हम जैसों की कौन कहे जो ब्रह्मा द्वारा देवता, पशु, मनुष्य, पक्षी तथा जानवर इत्यादि के विविध रूपों में उत्पन्न किये गये हैं? हम पूरी तरह अज्ञान में हैं। अतएव हम साक्षात ब्रह्म स्वरूप आपको कैसे जान सकते हैं?

22 हे स्वामी, आप सबों के हृदयों में भलीभाँति स्थित हैं, किन्तु भौतिक शरीर से आवृत सारे जीव आपको नहीं देख पाते क्योंकि वे त्रिगुणमयी माया द्वारा संचालित बहिरंगा शक्ति के द्वारा प्रभावित रहते हैं। उनकी बुद्धि सतो, रजो तथा तमोगुणों से ढकी होने से वे प्रकृति के इन तीनों गुणों की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को ही देख पाते हैं। तमोगुण की क्रिया-प्रतिक्रियाओं के कारण जाग्रत या सुप्त जीव प्रकृति की कार्यविधि को ही देख पाते हैं; वे आप (भगवान) को नहीं देख सकते।

23 हे प्रभु, प्रकृति के तीनों गुणों के प्रभाव से मुक्त हुए साधुपुरुष, यथा ज्ञान के पुंज चारों कुमार (सनत, सनक, सनन्दन तथा सनातन) ही आपके विषय में सोच सकते हैं। भला मुझ जैसा अज्ञानी व्यक्ति आपके विषय में कैसे सोच सकता है?

24 हे परम शान्तिमय स्वामी, यद्यपि यह प्रकृति, सारे सकाम कर्म तथा उनके फलस्वरूप भौतिक नाम तथा रूप आपकी सृष्टि हैं, तथापि आप उनसे अप्रभावित रहते हैं। अतएव आपका दिव्य नाम भौतिक नामों से भिन्न है और आपका स्वरूप भौतिक स्वरूपों से भिन्न है। आप भगवदगीता जैसे ज्ञान का हमें उपदेश देने के लिए ही भौतिक शरीर के ही समान रूप धारण करते हैं लेकिन वस्तुतः आप रहते हैं परम आदि पुरुष ही। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

25 हे भगवन, जिनके मन काम, लोभ, ईर्ष्या तथा मोह से मोहित हैं वे आपकी माया द्वारा सृजित इस जगत में झूठे ही घर, गृहस्थी आदि में रुचि रखते हैं। वे घर, पत्नी तथा सन्तान में आसक्त रहकर इसी जगत में निरन्तर घूमते रहते हैं।

26 हे समस्त जीवों के परमात्मा, हे भगवन, मैं अब आपके दर्शनमात्र से सारी कामवासनाओं से मुक्त हो गया हूँ जो दुर्लंघ्य मोह तथा संसार-बन्धन के मूल कारण हैं।

27 हे राजा परीक्षित, जब अंशुमान ने भगवान का इस प्रकार महिमागान किया तो महामुनि कपिल ने, जो विष्णु के सशक्त अवतार हैं, उस पर कृपालु होकर उसे ज्ञान का मार्ग बतलाया।

28 भगवान कपिल ने कहा: हे प्रिय अंशुमान, यह रहा तुम्हारे बाबा द्वारा खोजा जा रहा यज्ञ-पशु! इसे ले लो। दग्ध हुए तुम्हारे इन पुरखों का उद्धार केवल गंगाजल से हो सकता है, किसी अन्य साधन से नहीं।

29 तत्पश्चात अंशुमान ने कपिल मुनि की प्रदक्षिणा की और अपना सिर झुकाकर उन्हें सादर नमस्कार किया। इस तरह उन्हें पूरी तरह संतुष्ट करके अंशुमान यज्ञपशु को वापस ले आया और महाराज सगर ने इस घोड़े से यज्ञ का शेष अनुष्ठान सम्पन्न किया।

30 अंशुमान को अपने राज्य की बागडोर सौंपकर तथा सारी भौतिक चिन्ता एवं बन्धन से मुक्त होकर सगर महाराज ने और्य मुनि के द्वारा उपदिष्ट साधनों का पालन करते हुए परम गति प्राप्त की।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10886099282?profile=RESIZE_584x

अध्याय सात – राजा मान्धाता के वंशज (9.7)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: मान्धाता का सर्वप्रमुख पुत्र अम्बरीष नाम से विख्यात हुआ। अम्बरीष को उसके बाबा युवनाश्व ने पुत्र रूप में स्वीकार किया। अम्बरीष का पुत्र यौवनाश्व हुआ और यौवनाश्व का पुत्र हारीत था। मान्धाता के वंश में अम्बरीष, हारीत तथा यौवनाश्व अत्यन्त प्रमुख थे।

2 नर्मदा के सर्प-भाइयों ने उसे पुरुकुत्स को दे दिया। वासुकि द्वारा भेजे जाने पर नर्मदा पुरुकुत्स को ब्रह्माण्ड के निम्न भाग (रसातल) में ले गई।

3 रसातल में भगवान विष्णु द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने के करण पुरुकुत्स उन सभी गन्धर्वों का वध करने में समर्थ हो गया जो मारे जाने के योग्य थे। पुरुकुत्स को सर्पों से यह वर प्राप्त हुआ कि जो कोई नर्मदा द्वारा रसातल में उसके लाये जाने के इतिहास को स्मरण करेगा उसकी सर्पों के आक्रमण से सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगी।

4 पुरुकुत्स का पुत्र त्रसद्द्स्यु हुआ जो अनरण्य का पिता था। अनरण्य का पुत्र हर्यश्व हुआ जो प्रारुण का पिता बना। प्रारुण का पुत्र त्रिबन्धन हुआ।

5 त्रिबन्धन का पुत्र सत्यव्रत था जो त्रिशंकु नाम से विख्यात है। चूँकि उसने विवाह-मण्डप से एक ब्राह्मणपुत्री का अपहरण कर लिया था इसलिए उसके पिता ने उसे चाण्डाल बनने का शाप दे दिया जो शूद्र से भी नीचे होता है।

6 तत्पश्चात विश्वामित्र के प्रभाव से वह सदेह स्वर्गलोक गया, किन्तु देवताओं के पराक्रम से वह पुनः नीचे गिर गया। तो भी विश्वामित्र की शक्ति से वह एकदम नीचे नहीं गिरा। आज भी वह आकाश में सिर के बल लटकता देखा जा सकता है।

7 त्रिशंकु का पुत्र हरिश्चन्द्र हुआ। हरिश्चन्द्र को लेकर विश्वामित्र तथा वसिष्ठ में युद्ध हुआ। वे दोनों पक्षी के रूप में देहान्तरित होकर वर्षों तक लड़ते रहे।

8 हरिश्चन्द्र के कोई पुत्र न था, अतएव वह अत्यन्त खिन्न रहता था। अतएव एक बार नारद मुनि के उपदेश से उसने वरुण की शरण ग्रहण की और उनसे कहा "हे प्रभु, मेरे कोई पुत्र नहीं है। क्या आप मुझे एक पुत्र दे सकेंगे?”

9 हे राजा परीक्षित, हरिश्चन्द्र ने वरुण से याचना की, “हे प्रभु, यदि मेरे पुत्र उत्पन्न होगा तो मैं आपकी तुष्टि के लिए उसी से एक यज्ञ करूँगा।" जब हरिश्चन्द्र ने यह कहा तो वरुण ने उत्तर दिया "एवमस्तु", वरुण के आशीर्वाद से हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ।

10 अतः, जब पुत्र उत्पन्न हो गया तो वरुण ने हरिश्चन्द्र के पास आकर कहा "अब तुम्हारे पुत्र हो गया है। तुम इस पुत्र से मेरा यज्ञ कर सकते हो।" इसके उत्तर में हरिश्चन्द्र ने कहा "पशु अपने जन्म के दस दिन बाद ही यज्ञ (बलि दिये जाने) के योग्य होता है।"

11 दस दिन बाद वरुण पुनः आया और हरिश्चन्द्र से कहा "अब तुम यज्ञ कर सकते हो।" हरिश्चन्द्र ने उत्तर दिया, “जब पशु के दाँत आ जाते हैं तो वह बलि देने योग्य शुद्ध बनता है।

12 जब दाँत उग आये तो वरुण ने आकर हरिश्चन्द्र से कहा, “अब पशु के दाँत उग आये हैं। तुम यज्ञ कर सकते हो।" हरिश्चन्द्र ने उत्तर दिया, “जब इसके सारे दाँत गिर जायेंगे तो यह बलि के योग्य हो जायेगा।"

13 जब दाँत गिर चुके तो वरुण फिर आया और हरिश्चन्द्र से बोला "अब पशु के दाँत गिर चुके हैं और तुम यज्ञ कर सकते हो" किन्तु हरिश्चन्द्र ने उत्तर दिया, “जब पशु के दाँत फिर से उग आयेंगे तो वह बलि देने के लिए अत्यन्त शुद्ध होगा।"

14 जब दाँत फिर से उग आये तो वरुण फिर आया और हरिश्चन्द्र से बोला, “अब तुम यज्ञ कर सकते हो।" किन्तु तब हरिश्चन्द्र ने कहा, “हे राजा जब बलि का पशु क्षत्रिय बन जाता है और वह अपने शत्रु से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है, तभी वह शुद्ध बनेगा।"

15 हरिश्चन्द्र अपने पुत्र के प्रति अत्यधिक अनुरक्त था। इस स्नेह के कारण उसने वरुण देव से प्रतीक्षा करने के लिए कहा। इस तरह वरुण समय आने तक प्रतीक्षा करता रहा।

16 रोहित समझ गया कि उसके पिता उसे बलि का पशु बनाना चाहते हैं। अतएव मृत्यु से बचने के लिए उसने धनुष-बाण से अपने आपको सज्जित किया और वह जंगल में चला गया।

17 जब रोहित ने सुना कि उसके पिता को जलोदर रोग हो गया है और उसका पेट फूल गया है तो वह राजधानी लौट आना चाहता था लेकिन राजा इन्द्र ने ऐसा करने से उसे मना कर दिया।

18 राजा इन्द्र ने रोहित को सुझाव दिया कि वह विभिन्न तीर्थस्थानों तथा पवित्र स्थलों की यात्रा करे क्योंकि ऐसे कार्य वस्तुतः पवित्र होते हैं। इस आदेश का पालन करते हुए रोहित एक वर्ष के लिये जंगल में चला गया।

19 इस तरह दूसरे, तीसरे, चौथे तथा पाँचवे वर्षों के अन्त में जब-जब रोहित अपनी राजधानी लौटना चाहता तो इन्द्र एक वृद्ध ब्राह्मण के वेश में उसके पास पहुँचता और वापस जाने के लिए उसे मना करता। वह गत वर्ष जैसे ही शब्दों को फिर से दोहराता।

20 तत्पश्चात जंगल में घूमने के बाद छठे वर्ष रोहित अपने पिता की राजधानी लौट आया। उसने अजीगर्त से उसके दूसरे पुत्र शुन:शेफ को मोल लिया। फिर उसे लाकर अपने पिता हरिश्चन्द्र को भेंट किया जिससे वह बलि-पशु के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। उसने हरिश्चन्द्र को सादर नमस्कार किया।

21 तत्पश्चात इतिहास के महापुरुष एवं सुप्रसिद्ध राजा हरिश्चन्द्र ने एक मनुष्य की बलि देते हुए महान यज्ञ सम्पन्न किया और सारे देवताओं को प्रसन्न किया। इस प्रकार वरुण द्वारा उत्पन्न किया गया उसका जलोदर रोग जाता रहा।

22 उस पुरुषमेध यज्ञ में विश्वामित्र होता थे, आत्मवान जमदग्नि अध्वर्यु थे, वसिष्ठ ब्रह्मा थे और अयास्य मुनि साम-गायक थे।

23 हरिश्चन्द्र से अत्यन्त प्रसन्न होकर उसे राजा इन्द्र ने एक स्वर्णिम रथ दान में दिया। शुन:सेफ की महिमाओं का वर्णन विश्वामित्र के पुत्र के वर्णन के साथ-साथ प्रस्तुत किया जायेगा।

24 महाराज हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी सहित सत्यप्रिय, सहिष्णु तथा दृढ़ थे, यह जानकर विश्वामित्र ने मानव उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्हें अक्षय ज्ञान प्रदान किया।

25-26 इस प्रकार महाराज हरिश्चन्द्र ने पहले भौतिक भोग से पूर्ण अपने मन को पृथ्वी के साथ मिलाकर शुद्ध किया। तब उसने पृथ्वी को जल के साथ, जल को अग्नि के साथ, अग्नि को वायु के साथ तथा वायु को आकाश के साथ मिला दिया। तत्पश्चात उसने आकाश को महत-तत्त्व से और महत-तत्त्व को आध्यात्मिक ज्ञान से मिला दिया। यह आध्यात्मिक ज्ञान स्वयं को भगवान के अंश के रूप में अनुभव करना है। जब स्वरूपसिद्ध जीव भगवान की सेवा में लगता है तो वह नित्य रूप से अवर्णनीय तथा अचिन्त्य होता है। इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो जाने पर वह भव-बन्धन से पूर्णतः मुक्त हो जाता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10886066482?profile=RESIZE_584x

अध्याय छह – सौभरि मुनि का पतन (9.6)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महराज परीक्षित, अम्बरीष के तीन पुत्र हुए-विरूप, केतुमान तथा शम्भु। विरूप के पृषदश्व नामक पुत्र हुआ और पृषदश्व के रथीतर नामक पुत्र हुआ।

2 रथीतर निःसन्तान था अतएव उसने अंगिरा ऋषि से उसके लिए पुत्र उत्पन्न करने की प्रार्थना की। इस प्रार्थना के फलस्वरूप अंगिरा ने रथीतर की पत्नी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न कराये। ये सारे पुत्र ब्राह्मण तेज से सम्पन्न थे।

3 रथीतर की पत्नी से जन्म लेने के कारण ये सारे पुत्र रथीतर के वंशज कहलाये, किन्तु अंगिरा से उत्पन्न होने के कारण वे अंगिरा के वंशज भी कहलाये। रथीतर की सन्तानों में से ये पुत्र सबसे अधिक प्रसिद्ध थे क्योंकि अपने जन्म के कारण ये ब्राह्मण समझे जाते थे।

4 मनु का पुत्र इक्ष्वाकु था। जब मनु छींक रहे थे तो इक्ष्वाकु उनके नथुनों से उत्पन्न हुआ था। राजा इक्ष्वाकु के एक सौ पुत्र थे जिनमें से विकुक्षि, निमि तथा दण्डका प्रमुख थे।

5 सौ पुत्रों में से पच्चीस पुत्र हिमालय तथा विंध्याचल पर्वतों के मध्यवर्ती स्थान आर्याव्रत के पश्चिमी भाग के राजा बने, पच्चीस पुत्र पूर्वी आर्याव्रत के राजा बने और तीन प्रमुख पुत्र मध्यवर्ती प्रदेश के राजा बने। शेष पुत्र अन्य विविध स्थानों के राजा बने।

6 जनवरी, फरवरी तथा मार्च के समय पितरों को दिये जाने वाली भेंटे अष्टका श्राद्ध कहलाता है जो कृष्णपक्ष में सम्पन्न किया जाता है। जब महाराज इक्ष्वाकु श्राद्ध मनाते हुए भेंटे दे रहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र विकुक्षि को आदेश दिया कि वह तुरन्त जंगल में जाकर कुछ शुद्ध मांस ले आये।

7 तत्पश्चात विकुक्षि जंगल में गया और उसने श्राद्ध में भेंट देने के लिए अनेक पशु मारे। किन्तु जब वह थक गया और भूखा हुआ तो भूल से, उसने मारे हुए एक खरगोश को खा लिया।

8 विकुक्षि ने शेष मांस राजा इक्ष्वाकु को लाकर दे दिया जिन्होंने उसे शुद्ध करने के लिए वसिष्ठ को दे दिया। लेकिन वसिष्ठ यह तुरन्त समझ गये कि उस मांस का कुछ भाग विकुक्षि ने पहले ही ग्रहण कर लिया है। अतएव उन्होंने कहा कि यह मांस श्राद्ध में प्रयुक्त होने के लिए अनुपयुक्त है।

9 जब राजा इक्ष्वाकु वसिष्ठ द्वारा बताये जाने पर समझ गये कि उनके पुत्र विकुक्षि ने क्या किया है तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए। इस प्रकार उन्होंने विकुक्षि को देश छोड़ने की आज्ञा दे दी क्योंकि उसने विधि-विधान का उल्लंघन किया था।

10 महान एवं विद्वान ब्राह्मण वसिष्ठ के साथ परम सत्य विषयक वार्तालाप के बाद उनके द्वारा उपदेश दिये जाने पर महाराज इक्ष्वाकु विरक्त हो गये। उन्होंने योगी के नियमों का पालन करते हुए भौतिक शरीर त्यागने के बाद परम सिद्धि प्राप्त की।

11 अपने पिता के चले जाने पर विकुक्षि अपने देश लौट आया और पृथ्वीलोक पर शासन करते हुए तथा भगवान को प्रसन्न करने के लिए विविध यज्ञ करते हुए वह राजा बना। बाद में विकुक्षि शशाद नाम से विख्यात हुआ।

12 शशाद का पुत्र पुरञ्जय हुआ जो इन्द्रवाह के रूप में और कभी-कभी ककुत्स्थ के नाम से विख्यात है। अब मुझसे यह सुनो कि उसने विभिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न नाम किस तरह प्राप्त किये।

13 पूर्वकाल में देवताओं तथा असुरों के मध्य एक घमासान युद्ध हुआ। पराजित होकर देवताओं ने पुरञ्जय को अपना सहायक बनाया और तब वे असुरों को पराजित कर सके। अतएव यह वीर पुरुष पुरञ्जय कहलाता है अर्थात जिसने असुरों के निवासों को जीत लिया है।

14 पुरञ्जय ने सारे असुरों को इस शर्त पर मारना स्वीकार किया कि इन्द्र उसका वाहन बनेगा। किन्तु गर्ववश इन्द्र ने यह प्रस्ताव पहले अस्वीकार कर दिया, किन्तु बाद में भगवान विष्णु के आदेश से उसने इसे स्वीकार कर लिया और पुरञ्जय की सवारी के लिए वह बड़ा सा बैल बन गया।

15-16 कवच से भलीभाँति सुरक्षित होकर और युद्ध करने की इच्छा से पुरञ्जय ने अपना दिव्य धनुष तथा अत्यन्त तीक्ष्ण बाण धारण किये और देवताओं द्वारा अत्यधिक प्रशंसित होकर वह बैल (इन्द्र) की पीठ पर सवार हुआ तथा उसके डिल्ले पर बैठ गया। इसलिए वह ककुत्स्थ कहलाता है। परमात्मा तथा परम पुरुष भगवान विष्णु से शक्ति प्राप्त करके पुरञ्जय उस बड़े बैल पर सवार हो गया, इसलिए वह इन्द्रवाह कहलाता है। देवताओं को साथ लेकर उसने पश्चिम में असुरों के निवासस्थानों पर आक्रमण कर दिया।

17 असुरों तथा पुरञ्जय के मध्य घनघोर लड़ाई छिड़ गई। निस्सन्देह, यह इतनी भयानक थी कि सुनने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते। जितने सारे असुर पुरञ्जय के समक्ष आने का साहस करते वे सभी उसके तीरों से तुरन्त यमराज के घर भेज दिये जाते।

18 इन्द्रवाह के अग्नि उगलते तीरों से अपने को बचाने के लिए वे असुर, जो अपनी सेना के मारे जाने के बाद बचे थे, तेजी से अपने-अपने घरों को भाग खड़े हुए क्योंकि यह अग्नि युग के अन्त में उठने वाली प्रलयाग्नि के समान थी।

19 शत्रु को जीतने के बाद सन्त सदृश राजा पुरञ्जय ने वज्रधारी इन्द्र को सब कुछ लौटा दिया जिसमें शत्रु का धन तथा पत्नियाँ सम्मिलित थीं। इसी हेतु वह पुरञ्जय नाम से विख्यात है। इस तरह पुरञ्जय अपने विभिन्न कार्यकलापों के कारण विभिन्न नामों से जाना जाता है।

20 पुरञ्जय का पुत्र अनेना कहलाया। अनेना का पुत्र पृथु था और पृथु का पुत्र विश्वगंधि। विश्वगंधि का पुत्र चन्द्र हुआ और चन्द्र का पुत्र युवनाश्व था।

21 युवनाश्व का पुत्र श्रावस्त था जिसने श्रावस्ती नामक पुरी का निर्माण कराया। श्रावस्त का पुत्र बृहदश्व था और उसका पुत्र कुवलयाश्व था। इस तरह यह वंश बढ़ता रहा।

22 उतंक ऋषि को संतुष्ट करने के लिए अत्यन्त शक्तिशाली कुवलयाश्व ने धुँधु नामक असुर का वध किया। उसने अपने इक्कीस हजार पुत्रों की सहायता से ऐसा किया।

23-24 हे महाराज परीक्षित, इस कारण से कुवलयाश्व धुंधुमार कहलाता है। किन्तु उसके तीन पुत्रों को छोड़कर शेष सभी धुँधु के मुख से निकलने वाली अग्नि से जलकर राख हो गये। बचे हुए पुत्रों के नाम है – दृढ़ाश्व, कपिलाश्व तथा भद्राश्व। दृढ़ाश्व के हर्यश्व नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र निकुम्भ नाम से विख्यात है।

25 निकुम्भ का पुत्र बहुलाश्व था, बहुलाश्व का पुत्र कृशाश्व और कृशाश्व का पुत्र सेनजित हुआ। सेनजित का पुत्र युवनाश्व था। युवनाश्व के कोई सन्तान नहीं थी इसलिए वह गृहस्थ जीवन त्यागकर जंगल चला गया।

26 यद्यपि युवनाश्व अपनी एक सौ पत्नियों सहित जंगल में चला गया, किन्तु वे सभी अत्यन्त खिन्न थीं। तथापि जंगल के ऋषि राजा पर अत्यन्त दयालु थे, अतएव वे मनोयोगपूर्वक इन्द्रयज्ञ करने लगे जिससे राजा के पुत्र उत्पन्न हो सके।

27 एक रात्रि को प्यासा होने के कारण राजा यज्ञशाला में घुस गया और जब उसने देखा कि सारे ब्राह्मण लेटे हुए हैं तो उसने अपनी पत्नी के पीने के लिए रखे अभिमंत्रित किये गये जल को स्वयं पी लिया।

28 जब सारे ब्राह्मण जगे और उन्होंने देखा कि जलपात्र खाली है तो उन्होंने पूछा कि सन्तान उत्पन्न करने वाले उस जल को किसने पिया है?

29 जब ब्राह्मणों को यह ज्ञात हुआ कि ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर राजा ने जल पी लिया है तो उन्होंने विस्मित होकर कहा, “ओह! विधाता की शक्ति ही असली शक्ति है। ईश्वर की शक्ति का कोई भी निराकरण नहीं कर सकता।" इस तरह उन्होंने भगवान को सादर नमस्कार किया।

30 तत्पश्चात कालक्रम से राजा युवनाश्व के उदर के दाहिनी ओर के निचले भाग से चक्रवर्ती राजा के उत्तम लक्षणों से युक्त एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

31 वह बालक स्तन के दूध के लिए इतना अधिक रोया कि सारे ब्राह्मण चिन्तित हो उठे। उन्होंने कहा "इस बालक को कौन पालेगा?” तब उस यज्ञ में पूजित इन्द्र आये और उन्होंने बालक को सान्त्वना दी "मत रोओ।" फिर इन्द्र ने उस बालक के मुँह में अपनी तर्जनी अँगुली डालकर कहा "तुम मुझे पी सकते हो।"

32 चूँकि उस बालक के पिता युवनाश्व को ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त था अतः वह मृत्यु का शिकार नहीं हुआ। इस घटना के बाद उसने कठिन तपस्या की और उसी स्थान पर सिद्धि प्राप्त की।

33-34 युवनाश्व पुत्र मान्धाता, रावण तथा चिन्ता उत्पन्न करने वाले अन्य चोर उचक्कों के लिए भय का कारण बना था। हे राजा परीक्षित, चूँकि वे सब उससे भयभीत रहते थे, अतएव युवनाश्व का पुत्र त्रसद्द्स्यु कहलाता था। यह नाम इन्द्र द्वारा रखा गया था। भगवान की कृपा से युवनाश्व-पुत्र इतना शक्तिशाली था कि जब वह सम्राट बना तो उसने सात द्वीपों से युक्त सारे विश्व पर शासन किया। वह अद्वितीय शासक था।

35-36 भगवान महान यज्ञों के कल्याणकारी पक्षों अर्थात यज्ञ की सामग्री, वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण, विधि-विधान, यज्ञकर्ता, पुरोहित, यज्ञ-फल, यज्ञ-शाला, यज्ञ के मुहूर्त, इत्यादि से भिन्न नहीं है। मान्धाता ने आत्म-साक्षात्कार के नियमों को जानते हुए दिव्य पद पर स्थित परमात्मा स्वरूप उन भगवान विष्णु की पूजा की जिनमें समस्त देवतागण समाहित रहते हैं। उसने ब्राह्मणों को भी प्रचुर दान दिया और इस तरह उसने भगवान की अर्चना करने के लिए यज्ञ किया।

37 क्षितिज में जहाँ से सूर्य उदय होकर चमकता है और जहाँ सूर्य अस्त होता है वे सारे स्थान युवनाश्व के पुत्र सुविख्यात मान्धाता के अधिकार में माने जाते हैं।

38 शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती के गर्भ से मान्धाता को तीन पुत्र हुए। इनके नाम थे पुरुकुत्स, अम्बरीष तथा महान योगी मुचुकुन्द। इन तीनों भाइयों की पचास बहिनें थीं जिन्होंने सौभरि ऋषि को अपना पति चुना।

39-40 सौभरि ऋषि यमुना नदी के गहरे जल में तपस्या में लीन थे कि उन्होंने मछलियों के एक जोड़े को मैथुनरत देखा। इस तरह उन्होंने विषयी जीवन का सुख अनुभव किया जिससे प्रेरित होकर वे राजा मान्धाता के पास गये और उनसे उनकी एक कन्या की याचना की। इस याचना के उत्तर में राजा ने कहा, “हे ब्राह्मण, मेरी कोई भी पुत्री अपनी इच्छा से किसी को भी पति चुन सकती है।"

41-42 सौभरि मुनि ने सोचा: मैं वृद्धावस्था के कारण अब निर्बल हो गया हूँ। मेरे बाल सफेद हो चुके हैं, मेरी चमड़ी झूल रही है और मेरा सिर सदा हिलता रहता है। इसके अतिरिक्त मैं योगी हूँ। अतएव ये स्त्रियाँ मुझे पसन्द नहीं करतीं। चूँकि राजा ने मुझे तिरस्कृत कर दिया है अतएव मैं अपने शरीर को ऐसा बनाऊँगा कि मैं संसारी राजाओं की कन्याओं का ही नहीं अपितु सुर-सुन्दरियों के लिए भी अभीष्ट बन जाऊँ।

43 तत्पश्चात जब सौभरि मुनि तरुण और रूपवान हो गये तब राजप्रासाद का दूत उन्हें राजकुमारियों के अंतःपुर में ले गया जो अत्यन्त ऐश्वर्यमय था। तत्पश्चात उन पचासों राजकुमारियों ने उसी एक पुरुष को अपना पति बना लिया।

44 तत्पश्चात राजकुमारियाँ सौभरि मुनि द्वारा आकृष्ट होकर बहिन का अपना नाता भुला बैठीं और परस्पर झगड़ने लगी "यह व्यक्ति मेरे योग्य है, तुम्हारे योग्य नहीं।" इस तरह से उन सबों में काफी विरोध उत्पन्न हो गया।

45-46 चूँकि सौभरि मुनि मंत्रोच्चारण करने में पूर्णरूपेण पटु थे अतएव उनकी कठिन तपस्या से ऐश्वर्यशाली घर, वस्त्र, आभूषण, सुसज्जित दास तथा दासियाँ स्वच्छ जल वाली झीलें, उद्यानों से युक्त विविध बगीचे उत्पन्न हो गये। उद्यानों में विविध प्रकार के सुगन्धित फूल, चहकते पक्षी तथा गुनगुनाते भौंरे थे और पेशेवर गायकों से घिरे रहते थे। सौभरि मुनि के घर में मूल्यवान सेज, आसन, गहने, स्नानागार और तरह-तरह के चन्दनलेप, फुलमालाएँ तथा स्वादिष्ट व्यंजन थे। इस प्रकार ऐश्वर्यशाली साज-सामान से घिरे हुए सौभरि मुनि अपनी अनेक पत्नियों के साथ गृहकार्यों में व्यस्त हो गये।

47 सप्तद्वीपमय जगत के राजा मान्धाता ने जब सौभरि मुनि के घरेलू ऐश्वर्य को देखा तो वे आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने जगत के सम्राट के रूप में अपनी झूठी प्रतिष्ठा त्याग दी।

48 इस प्रकार सौभरि मुनि इस भौतिक जगत में इन्द्रियतृप्ति करते रहे, किन्तु वे तनिक भी संतुष्ट नहीं थे जिस प्रकार निरन्तर घी की बूँदें पाते रहने से अग्नि कभी जलना बन्द नहीं करती।

49 तत्पश्चात मंत्रोच्चार करने में पटु सौभरि मुनि एक दिन जब एकान्त स्थान में बैठे, तो उन्होंने अपने पतन के कारण के विषय में सोचा।

50 ओह! गहन जल के भीतर तपस्या करने पर तथा साधु पुरुषों द्वारा अभ्यास किये जाने वाले सारे विधि-विधानों का पालन करते हुए भी, मैंने मात्र मछ्ली के मैथुन-सानिध्य के कारण अपनी दीर्घकालीन तपस्या का फल गँवा दिया। इस पतन को देखकर हर एक को इससे सीख लेनी चाहिए।

51 भवबन्धन से मोक्ष की कामना करने वाले पुरुष को वासनामय जीवन में रुचि रखने वाले व्यक्तियों की संगति छोड़ देनी चाहिए और अपनी इन्द्रियों को किसी बाह्यकर्म में (देखने, सुनने, बोलने, चलने इत्यादि) नहीं लगाना चाहिए। उसे सदैव एकान्त स्थान में ठहरना चाहिए और मन को अनन्त भगवान के चरणकमलों पर पूर्णतः स्थिर करना चाहिए। यदि कोई संगति करनी भी हो तो उसे उसी प्रकार के कार्य में लगे पुरुषों की संगति करनी चाहिए।

52 शुरु में मैं अकेला था और योग की तपस्या करता रहता था, किन्तु बाद में मुझमें विवाह करने की इच्छा जगी। तब मैं पचास पत्नियों का पति बन गया और हर एक ने एक सौ पुत्र उत्पन्न किये। इस तरह मेरे परिवार में पाँच हजार सदस्य हो गये। प्रकृति के गुणों से प्रभावित होकर मेरा पतन हुआ और मैंने सोचा कि भौतिक जीवन में मैं सुखी रहूँगा। इस जीवन तथा अगले जीवन में भोग के लिए मेरी इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है।

53 उसने कुछ काल तक घरेलु कार्यों में अपना जीवन बिताया लेकिन बाद में वह भौतिक भोग से विरक्त हो गया। उसने भौतिक संगति का परित्याग करने के लिए वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया और फिर वह जंगल में चला गया। पतिपरायणा पत्नियों ने उसका अनुसरण किया क्योंकि अपने पति के अतिरिक्त उनका कोई आश्रय न था।

54 जब आत्मवान सौभरि मुनि जंगल में चले गये तो उन्होंने कठोर तपस्याएँ की। इस तरह अन्ततः मृत्यु के समय उन्होंने अग्नि में स्वयं को भगवान की सेवा में लगा दिया।

55 हे महाराज परीक्षित, अपने पति को आध्यात्मिक जगत की ओर प्रगति करते देखकर सौभरि मुनि की पत्नियाँ भी मुनि की आध्यात्मिक शक्ति से वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने में समर्थ हुई जिस तरह अग्नि बुझाने पर अग्नि की ज्वालाएँ शमित हो जाती हैं।

( समर्पित एवं सेवारत -  जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10885861297?profile=RESIZE_710x

अध्याय पाँच – दुर्वासा मुनि को जीवन-दान (9.5)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान विष्णु ने दुर्वासा मुनि को इस प्रकार सलाह दी तो सुदर्शन चक्र से अत्यधिक उत्पीड़ित मुनि तुरन्त ही महाराज अम्बरीष के पास पहुँचे। अत्यन्त दुखित होने के कारण वे राजा के समक्ष लोट गये और उनके चरणकमलों को पकड़ लिया।

2 जब दुर्वासा मुनि ने महाराज अम्बरीष के पाँव छुए तो वे अत्यन्त लज्जित हो उठे और जब उन्होंने यह देखा कि दुर्वासा उनकी स्तुति करने का प्रयास कर रहे हैं तो वे दयावश और भी अधिक सन्तप्त हो उठे। अतः उन्होंने तुरन्त ही भगवान के महान अस्त्र की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।

3 महाराज अम्बरीष ने कहा: हे सुदर्शन चक्र, तुम अग्नि हो, तुम परम शक्तिमान सूर्य हो तथा तुम सारे नक्षत्रों के स्वामी चन्द्रमा हो। तुम जल, पृथ्वी तथा आकाश हो, तुम पाँचों इन्द्रियविषय (ध्वनि, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गन्ध) हो और तुम्हीं इन्द्रियाँ भी हो।

4 हे भगवान अच्युत के परम प्रिय, तुम एक हजार अरों वाले हो। हे संसार के स्वामी, समस्त अस्त्रों के विनाशकर्ता, भगवान की आदि दृष्टि, मैं तुमको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपा करके इस ब्राह्मण को शरण दो तथा इसका कल्याण करो।

5 हे सुदर्शन चक्र, तुम धर्म हो, तुम सत्य हो, प्रेरणाप्रद कथन हो, यज्ञ हो तथा तुम्हीं यज्ञ-फल के भोक्ता हो। तुम अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता भगवान के हाथों में परम दिव्य तेज हो। तुम भगवान की मूल दृष्टि हो; अतएव तुम सुदर्शन कहलाते हो। सभी वस्तुएँ तुम्हारे कार्यकलापों से उत्पन्न की हुई हैं, अतएव तुम सर्वव्यापी हो।

6 हे सुदर्शन, तुम्हारी नाभि अत्यन्त शुभ है, अतएव तुम धर्म की रक्षा करने वाले हो। तुम अधार्मिक असुरों के लिए अशुभ पुच्छल तारे के समान हो। निस्सन्देह, तुम्हीं तीनों लोकों के पालक हो। तुम दिव्य तेज से पूर्ण हो, तुम मन के समान तीव्रगामी हो और अद्भुत कर्म करने वाले हो। मैं केवल नमः शब्द कहकर तुम्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

7 हे वाणी के स्वामी, धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्ण तुम्हारे तेज से संसार का अंधकार दूर हो जाता है और विद्वान पुरुषों या महात्माओं का ज्ञान प्रकट होता है। निस्सन्देह, कोई तुम्हारे तेज का पार नहीं पा सकता क्योंकि सारी वस्तुएँ, प्रकट अथवा अप्रकट, स्थूल अथवा सूक्ष्म, उच्च अथवा निम्न हों आपके तेज द्वारा प्रकट होने वाले आपके विभिन्न रूप ही हैं।

8 हे अजित, जब तुम भगवान द्वारा दैत्यों तथा दानवों के सैनिकों के बीच प्रवेश करने के लिए भेजे जाते हो तो तुम युद्धस्थल पर डटे रहते हो और निरन्तर उनके हाथों, पेट, जाँघों, पाँवों तथा सिर को विलग करते रहते हो।

9 हे विश्व के रक्षक, भगवान ईर्ष्यालु शत्रुओं को मारने के लिए तुमको अपने सर्वशक्तिशाली अस्त्र के रूप में प्रयोग करते हैं। हमारे सम्पूर्ण वंश के लाभ हेतु कृपया इस दीन ब्राह्मण पर दया कीजिये। निश्चय ही यह हम सब पर कृपा होगी।

10 यदि हमारे परिवार ने सुपात्रों को दान दिया है, कर्मकाण्ड तथा यज्ञ सम्पन्न किये हैं, अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों को ठीक से पूरा किया है और विद्वान ब्राह्मणों द्वारा मार्गदर्शन पाते रहे हैं तो मैं चाहूँगा कि उनके बदले में इस ब्राह्मण को आपके द्वारा उत्पन्न ताप से मुक्त कर दिया जाय।

11 यदि समस्त दिव्य गुणों के आगार तथा समस्त जीवों के प्राण तथा आत्मा अद्वितीय परमेश्वर हम पर प्रसन्न हैं तो हम चाहेंगे कि यह ब्राह्मण दुर्वासा मुनि दहन की पीड़ा से मुक्त हो जाय।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब राजा ने सुदर्शन चक्र एवं भगवान विष्णु की स्तुति की तो स्तुतियों के कारण सुदर्शन चक्र शान्त हुआ और उसने दुर्वासा मुनि नाम के इस ब्राह्मण को दहकाना बन्द कर दिया।

13 सुदर्शन चक्र की अग्नि से मुक्त किये जाने पर अति शक्तिशाली योगी दुर्वासा मुनि प्रसन्न हुए। तब उन्होंने महाराज अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उन्हें उत्तमोत्तम आशीष दिये।

14 दुर्वासा मुनि ने कहा: हे राजन, आज मैंने भगवान के भक्तों की महानता का अनुभव किया क्योंकि मेरे अपराधी होने पर भी आपने मेरे सौभाग्य के लिए प्रार्थना की।

15 जिन लोगों ने शुद्ध भक्तों के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्राप्त कर लिया है उनके लिए क्या करना असम्भव है और क्या त्यागना असम्भव है?

16 भगवान के दासों के लिए क्या असम्भव है? भगवान का पवित्र नाम सुनने मात्र से ही मनुष्य शुद्ध हो जाता है।

17 हे राजन, आपने मेरे अपराधों को अनदेखा करके मेरा जीवन बचाया है। इस तरह मैं आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ क्योंकि आप इतने दयावान हैं।

18 राजा ने दुर्वासा मुनि की वापसी की आशा से स्वयं भोजन नहीं किया था। अतएव जब मुनि लौटे तो राजा उनके चरणकमलों पर गिर पड़ा और उन्हें सभी प्रकार से तुष्ट करके भरपेट भोजन कराया।

19 इस प्रकार राजा ने बड़े आदर के साथ दुर्वासा मुनि का स्वागत किया। वे नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाकर इतने संतुष्ट हुए कि उन्होंने बड़े ही स्नेह के साथ राजा से भी खाने के लिए प्रार्थना की “कृपया भोजन ग्रहण करें।”

20 दुर्वासा मुनि ने कहा: हे राजन मैं आपसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। पहले मैंने आपको एक सामान्य व्यक्ति समझकर आपका आतिथ्य स्वीकार किया था, किन्तु बाद में अपनी बुद्धि से मैं समझ सका कि आप भगवान के अत्यन्त महान भक्त हैं। इसलिए मात्र आपके दर्शन और आपके चरणस्पर्श से तथा आपसे बातें करके मैं संतुष्ट हो गया हूँ और आपका अत्यन्त कृतज्ञ हो गया हूँ।

21 स्वर्गलोक की सारी सौभाग्यशाली स्त्रियाँ प्रतिक्षण आपके निर्मल चरित्र का गान करेंगी और इस संसार के लोग भी आपकी महिमा का निरन्तर कीर्तन करेंगे।

22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार सब तरह से संतुष्ट होकर महान योगी दुर्वासा मुनि ने अनुमति ली और वे राजा का निरन्तर यशोगान करते हुए वहाँ से चले गये। वे आकाश मार्ग से ब्रह्मलोक गये जो शुष्क ज्ञानियों से रहित है।

23 दुर्वासा मुनि महाराज अम्बरीष के स्थान से चले गये थे और जब तक वे वापस नहीं लौटे – पूरे एक वर्ष तक – तब तक राजा केवल जल पीकर उपवास करते रहे।

24 एक वर्ष बाद जब दुर्वासा मुनि लौटे तो राजा अम्बरीष ने उन्हें सभी प्रकार के व्यंजन भरपेट खिलाये और तब स्वयं भी भोजन किया। जब राजा ने देखा कि दुर्वासा दग्ध होने के महान संकट से मुक्त हो चुके हैं तो वे यह समझ सके कि भगवान की कृपा से वे स्वयं भी शक्तिमान हैं, किन्तु उन्होंने इसका श्रेय अपने को नहीं दिया क्योंकि यह सब भगवान ने किया था।

25 इस प्रकार अपनी भक्ति के कारण नाना प्रकार के दिव्य गुणों से युक्त महाराज अम्बरीष ब्रह्म, परमात्मा तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से भलीभाँति अवगत हो गये और सम्यक रीति से भक्ति करने लगे। अपनी भक्ति के कारण उन्हें इस भौतिक जगत का सर्वोच्चलोक भी नरक तुल्य लगने लगा।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: तत्पश्चात भक्तिमय जीवन की उन्नत दशा के कारण अम्बरीष भौतिक वस्तुओं की किसी तरह से इच्छा न रखते हुए सक्रिय गृहस्थ जीवन से निवृत्त हो गये। उन्होंने अपनी सम्पत्ति अपने ही समान योग्य पुत्रों में बाँट दी और स्वयं वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार करके भगवान वासुदेव में अपना मन पूर्णतः एकाग्र करने के लिए जंगल चले गये।

27 जो कोई भी इस कथा को बार-बार पढ़ता है या महाराज अम्बरीष के कार्यकलापों से सम्बन्धित इस कथा का चिन्तन करता है वह अवश्य ही भगवान का शुद्ध भक्त बन जाता है।

28 भगवतकृपा से जो लोग महान भक्त महाराज अम्बरीष के कार्यकलापों के विषय में सुनते हैं, वे अवश्य ही मुक्त हो जाते हैं या तुरन्त भक्त बन जाते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत -  जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10885853898?profile=RESIZE_400x

अध्याय चार – दुर्वासा मुनि द्वारा अम्बरीष महाराज का अपमान (9.4)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: नभग का पुत्र नाभाग बहुत काल तक अपने गुरु के पास रहा। अतएव उसके भाइयों ने सोचा कि अब वह गृहस्थ नहीं बनना चाहता और वापस नहीं आएगा। फलस्वरूप उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति में उसका हिस्सा न रखकर उसे आपस में बाँट लिया। जब नाभाग अपने गुरु के स्थान से वापस आया तो उन्होंने उसके हिस्से के रूप में उसे अपने पिता को दे दिया।

2 नाभाग ने पूछा, “मेरे भाइयों, आप लोगों ने पिता की सम्पत्ति में से मेरे हिस्से में मुझे क्या दिया है?” उसके भाई बोले, “हमने तुम्हारे हिस्से में पिताजी को रख छोड़ा है।" तब नाभाग अपने पिता के पास गया और बोला, “ हे पिताजी, मेरे भाइयों ने मेरे हिस्से में आपको दिया है।" इस पर पिता ने उत्तर दिया, “ मेरे बेटे, तुम इनके ठगने वाले शब्दों पर भरोसा मत करना। मैं तुम्हारी सम्पत्ति नहीं हूँ।"

3 नाभाग के पिता ने कहा: अंगिरा के वंशज इस समय एक महान यज्ञ सम्पन्न करने जा रहे हैं, यद्यपि वे अत्यन्त बुद्धिमान हैं किन्तु वे हर छठे दिन यज्ञ करते हुए मोहग्रस्त होंगे और अपने नैतिक कर्मों में त्रुटि करेंगे।

4-5 नाभाग के पिता ने आगे कहा: "उन महात्माओं के पास जाओ और उन्हें वैश्वदेव सम्बन्धी दो वैदिक मंत्र सुनाओ। जब वे महात्मा यज्ञ समाप्त करके स्वर्गलोक को जा रहे होंगे तो वे यज्ञ में प्राप्त शेष दक्षिणा तुम्हें दे देंगे। अतएव तुम तुरन्त जाओ।" इस तरह नाभाग ने वैसा ही किया जैसा उसके पिता ने सलाह दी थी और अंगिरा वंश के सारे मुनियों ने उसे अपना सारा धन दे दिया और फिर वे स्वर्गलोक को चले गये।

6 जब नाभाग सारा धन ले रहा था तो उत्तर दिशा से एक काला कलूटा व्यक्ति उसके पास आया और बोला, “इस यज्ञशाला की सारी सम्पदा मेरी है।"

7 तब नाभाग ने कहा:यह धन मेरा है। इसे ऋषियों ने मुझे प्रदान किया है।" जब नाभाग ने यह कहा तो उस काले कलूटे ने उत्तर दिया "चलो तुम्हारे पिता के पास चलें और उनसे इसका निपटारा करने के लिए कहें।" तदनुसार नाभाग ने अपने पिता से पूछा।

8 नाभाग के पिता ने कहा: ऋषियों ने दक्ष यज्ञशाला में जो भी आहुति दी थी, वह शिवजी को उनके भाग के रूप में दी गई थी। अतएव इस यज्ञशाला की प्रत्येक वस्तु निश्चित रूप से शिवजी की है।

9 तत्पश्चात शिवजी को नमस्कार करने के बाद नाभाग ने कहा: हे पूज्यदेव, इस यज्ञशाला की प्रत्येक वस्तु आपकी है – ऐसा मेरे पिता का मत है। अब मैं विनम्रतापूर्वक आपके समक्ष अपना सिर झुकाकर आपसे कृपा की भीख माँगता हूँ।

10 शिवजी ने कहा: तुम्हारे पिता ने जो कुछ कहा है वह सत्य है और तुम भी वही सत्य कह रहे हो। अतएव वेदमंत्रों का ज्ञाता मैं तुम्हें दिव्य ज्ञान बतलाऊँगा।

11 शिवजी ने कहा:अब तुम यज्ञ का बचा सारा धन ले सकते हो क्योंकि मैं इसे तुम्हें दे रहा हूँ।" यह कहकर धार्मिक सिद्धान्तों में अटल रहने वाले शिवजी उस स्थान से अदृश्य हो गये।

12 जो कोई इस कथा को प्रातःकाल एवं सायंकाल अत्यन्त ध्यानपूर्वक सुनता या स्मरण करता है वह निश्चय ही विद्वान, वैदिकी स्तोत्रों को समझने वाला एवं स्वरूपसिद्ध हो जाता है।

13 नाभाग से महाराज अम्बरीष ने जन्म लिया। महाराज अम्बरीष उच्च भक्त थे और अपने महान गुणों के लिए विख्यात थे। यद्यपि उन्हें एक अच्युत ब्राह्मण ने शाप दिया था, किन्तु वह शाप उनका स्पर्श भी न कर पाया।

14 राजा परीक्षित ने पूछा: हे महानुभाव, महाराज अम्बरीष निश्चय ही अत्यन्त उच्चस्थ एवं सच्चरित्र थे। मैं उनके विषय में सुनना चाहता हूँ। यह कितना आश्चर्यजनक है कि एक ब्राह्मण का दुर्लंघ्य शाप उन पर अपना कोई प्रभाव नहीं दिखला सका।

15-16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अत्यन्त भाग्यवान महाराज अम्बरीष ने सात द्वीपों वाले सम्पूर्ण विश्व पर शासन किया और पृथ्वी पर अक्षय असीम ऐश्वर्य तथा सम्पन्नता प्राप्त की। यद्यपि ऐसा पद विरले ही मिलता है, किन्तु महाराज अम्बरीष ने इसकी तनिक भी परवाह नहीं की क्योंकि उन्हें पता था कि ऐसा सारा ऐश्वर्य भौतिक है। ऐसा ऐश्वर्य स्वप्नतुल्य है और अन्ततोगत्वा विनष्ट हो जायेगा। राजा जानता था कि कोई भी अभक्त ऐसा ऐश्वर्य प्राप्त करके प्रकृति के तमोगुण में अधिकाधिक डूबता जाता है।

17 महाराज अम्बरीष भगवान वासुदेव के तथा भगवदभक्त सन्त पुरुषों के महान भक्त थे। इस भक्ति के कारण वे सारे विश्व को एक पत्थर के टुकड़े के समान नगण्य मानते थे।

18-20 महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में, अपने शब्दों को भगवान का गुणगान करने में, अपने हाथों को भगवान का मन्दिर झाड़ने-बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे। वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह, कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों, यथा मथुरा तथा वृन्दावन, को देखने में लगाते रहे। वे अपनी स्पर्श-इन्द्रिय को भगवद भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में, अपनी घ्राणेन्द्रिय को भगवान पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूँघने में और अपनी जीभ को भगवान का प्रसाद चखने में लगाते रहे। उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान की सेवा करने में लगाया। निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा। वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे। भगवान के प्रति आसक्ति बढ़ाने और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णत: मुक्त होने की यही विधि है।

21 राजा के रूप में अपने नियत कर्तव्यों का पालन करते हुए महाराज अम्बरीष अपने राजसी कार्यकलापों के फल को सदैव भगवान कृष्ण को अर्पित करते थे, जो प्रत्येक वस्तु के भोक्ता हैं और भौतिक इन्द्रियों के बोध के परे हैं। वे निश्चित रूप से निष्ठावान भगवद्भक्त ब्राह्मणों से सलाह लेते थे और इस प्रकार वे बिना किसी कठिनाई के पृथ्वी पर शासन करते थे।

22 महाराज अम्बरीष ने उस मरुस्थल में जिसमें से होकर सरस्वती नदी बहती है अश्वमेध जैसे महान यज्ञ सम्पन्न किये और समस्त यज्ञों के स्वामी भगवान को प्रसन्न किया। ऐसे यज्ञ महान ऐश्वर्य तथा उपयुक्त सामग्री द्वारा तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर सम्पन्न किये जाते थे और इन यज्ञों का निरीक्षण वसिष्ठ, असित तथा गौतम जैसे महापुरुषों द्वारा किया जाता था जो यज्ञों के सम्पन्नकर्ता राजा के प्रतिनिधि होते थे।

23 महाराज अम्बरीष द्वारा आयोजित यज्ञ में सभा के सदस्य तथा पुरोहित (विशेष रूप से होता, उदगाता, ब्रह्मा तथा अध्वर्यु) वस्त्रों से बहुत अच्छी तरह से सज्जित थे वे सब देवताओं की तरह लग रहे थे। उन्होंने उत्सुकतापूर्वक यज्ञ को समुचित रूप से सम्पन्न कराया।

24 महाराज अम्बरीष की प्रजा भगवान के महिमामय कार्यकलापों के विषय में कीर्तन एवं श्रवण करने की आदी थी। इस प्रकार वह कभी भी देवताओं के अत्यधिक प्रिय स्वर्गलोक में जाने की इच्छा नहीं करती थी।

25 जो लोग भगवान की सेवा करने के दिव्य सुख से परिपूर्ण हैं वे महान योगियों की उपलब्धियों में भी कोई रुचि नहीं रखते क्योंकि ऐसी उपलब्धियाँ उस भक्त के द्वारा अनुभव किये गये दिव्य आनन्द को वर्धित नहीं करती जो अपने हृदय के भीतर सदैव कृष्ण का चिन्तन करता रहता है।

26 इस लोक के राजा महाराज अम्बरीष ने इस तरह भगवान की भक्ति की और इस प्रयास में उन्होंने कठिन तपस्या की। उन्होंने अपने वैधानिक कार्यकलापों से भगवान को सदैव प्रसन्न करते हुए धीरे-धीरे सारी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया।

27 महाराज अम्बरीष ने घरेलू कार्यों, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों तथा सम्बन्धियों, श्रेष्ठ शक्तिशाली हाथियों, सुन्दर रथों, गाड़ियों, घोड़ों, अक्षय रत्नों, गहनों, वस्त्रों तथा अक्षय कोश के प्रति सारी आसक्ति छोड़ दी। उन्होंने इन वस्तुओं को नश्वर तथा भौतिक मानकर आसक्ति छोड़ दी।

28 महाराज अम्बरीष की अनन्य भक्ति से अतीव प्रसन्न होकर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने राजा को अपना चक्र प्रदान किया जो शत्रुओं के लिए भयावह है और जो शत्रुओं तथा विपत्तियों से भक्तों की सदैव रक्षा करता है।

29 महाराज अम्बरीष ने अपने ही समान सुयोग्य अपनी रानी के साथ भगवान कृष्ण की पूजा करने के लिए एक वर्ष तक एकादशी तथा द्वादशी का व्रत रखा।

30 एक वर्ष तक उस व्रत को रखने के बाद, तीन रातों तक उपवास रखकर तथा यमुना में स्नान करके महाराज अम्बरीष ने कार्तिक के महीने में भगवान हरि की मधुवन में पूजा की।

31-32 महाभिषेक के विधि-विधानों के अनुसार महाराज अम्बरीष ने सारी सामग्री से भगवान कृष्ण के अर्चाविग्रह को स्नान कराया। फिर उन्हें सुन्दर वस्त्रों, आभूषणों, सुगन्धित फूलों की मालाओं तथा पूजा की अन्य सामग्री से अलंकृत किया। उन्होंने ध्यानपूर्वक तथा भक्तिपूर्वक कृष्ण की तथा भौतिक इच्छाओं से मुक्त अत्यन्त भाग्यशाली ब्राह्मणों की पूजा की।

33-35 तत्पश्चात महाराज अम्बरीष ने अपने घर में आये सारे अतिथियों को, विशेषकर ब्राह्मणों को संतुष्ट किया। उन्होंने साठ करोड़ गौवें दान में दीं जिनके सिंग सोने के पत्तर से और खुर चाँदी के पत्तर से मढ़े थे। सारी गौवें वस्त्रों से खूब सजाई गई थीं और उनके थन दूध से भरे थे। वे सुशील, तरुण तथा सुन्दर थीं और अपने-अपने बछड़ों के साथ थीं। इन गौवों का दान देने के बाद राजा ने सर्वप्रथम सारे ब्राह्मणों को भर पेट भोजन कराया और जब वे पूरी तरह संतुष्ट हो गये तो वे उनकी आज्ञा से एकादशी व्रत तोड़कर उसका पारण करने वाले थे। किन्तु ठीक उसी समय महान एवं शक्तिशाली दुर्वासा मुनि अनामंत्रित अतिथि के रूप में वहाँ पर आ पहुँचे।

36 दुर्वासा मुनि का स्वागत करने के लिए राजा अम्बरीष ने खड़े होकर उन्हें आसन तथा पूजा की सामग्री प्रदान की। तब उनके पाँवों के पास बैठकर राजा ने मुनि से भोजन करने के लिए अनुनय किया।

37 दुर्वासा मुनि ने प्रसन्नतापूर्वक महाराज अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली, किन्तु आवश्यक अनुष्ठान करने के लिए वे यमुना नदी में गये। वहाँ उन्होंने पवित्र यमुना नदी के जल में डुबकी लगाई और निराकार ब्रह्म का ध्यान किया।

38 तब तक व्रत तोड़ने के लिए द्वादशी का केवल आधा मुहूर्त शेष था,फलस्वरूप व्रत को तुरन्त तोड़ा जाना अनिवार्य था। ऐसी विकट परिस्थिति में राजा ने विद्वान ब्राह्मणों से परामर्श किया।

39-40 राजा ने कहा:ब्राह्मणों के प्रति सत्कार के नियमों का उल्लंघन करना निश्चय ही महान अपराध है। दूसरी ओर यदि कोई द्वादशी की तिथि में अपने व्रत को नहीं तोड़ता तो व्रत के पालन में दोष आता है। अतएव हे ब्राह्मणों, यदि आप लोग यह सोचें कि यह शुभ है तथा अधर्म नहीं है तो मैं जल पीकर व्रत तोड़ दूँ।" इस प्रकार ब्राह्मणों से परामर्श करने के बाद राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि ब्राह्मणों के मतानुसार जल पी लेना, भोजन करने की तरह माना भी जा सकता है, और नहीं भी।

41 हे कुरुश्रेष्ठ, थोड़ा सा जल पीकर राजा अम्बरीष ने अपने मन में भगवान का ध्यान किया और फिर वे महान योगी दुर्वासा मुनि के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे।

42 दोपहर के समय सम्पन्न होनेवाले अनुष्ठानों को सम्पन्न कर लेने के बाद दुर्वासा मुनि यमुना के तट से वापस आये। राजा ने अच्छी प्रकार से उनका स्वागत किया, किन्तु दुर्वासा मुनि ने अपने योगबल से जान लिया कि राजा ने उनकी अनुमति के बिना जल पी लिया है।

43 भूखे, काँपते शरीर, टेढ़े मुँह तथा क्रोध से टेढ़ी भौहें किये दुर्वासा मुनि ने अपने समक्ष हाथ जोड़े खड़े राजा अम्बरीष से क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा।

44 ओह! जरा इस निर्दय व्यक्ति का आचरण तो देखो, यह भगवान विष्णु का भक्त नहीं है। यह अपने ऐश्वर्य तथा पद के गर्व के कारण अपने आपको ईश्वर समझ रहा है। देखो न, इसने धर्म के नियमों का उल्लंघन किया है।

45 महाराज अम्बरीष, तुमने मुझे अतिथि के रूप में भोजन के लिए बुलाया लेकिन मुझे न खिलाकर तुमने स्वयं पहले खा लिया है। तुम्हारे इस दुर्व्यवहार के कारण मैं तुमको इसका मजा चखाऊँगा।

46 जब दुर्वासा मुनि ने ऐसा कहा तो क्रोध से उनका मुख लाल पड़ गया। उन्होंने अपने सिर की जटा से एक बाल उखाड़कर महाराज अम्बरीष को दण्ड देने के लिए एक कृत्या उत्पन्न कर दी जो प्रलयाग्नि के समान प्रज्ज्वलित हो रही थी।

47 वह जाज्वल्यमान कृत्या अपने हाथ में त्रिशूल लेकर तथा अपने पदचाप से धरती को कम्पाती हुई महाराज अम्बरीष के सामने आई। किन्तु उसे देखकर राजा तनिक भी विचलित नहीं हुआ और अपने स्थान से रंचभर भी नहीं हटा।

48 जिस प्रकार दावाग्नि किसी क्रुद्ध सर्प को तुरन्त जला देती है उसी प्रकार पहले से आदिष्ट भगवान के सुदर्शन चक्र ने भगवद्भक्त की रक्षा करने के लिए उस सृजित कृत्या को जलाकर क्षार कर दिया।

49 जब दुर्वासा मुनि ने देखा कि उनका निजी प्रयास विफल हो गया है और सुदर्शन चक्र उनकी ओर बढ़ रहा है तो वे अत्यधिक भयभीत हो उठे और अपनी जान बचाने के लिए सारी दिशाओं में दौड़ने लगे।

50 जिस प्रकार दावाग्नि की लपटें साँप का पीछा करती है उसी तरह भगवान का चक्र दुर्वासा मुनि का पीछा करने लगा। दुर्वासा मुनि ने देखा कि यह चक्र उनकी पीठ को छूने वाला है अतएव वे तेजी से दौड़कर सुमेरु पर्वत की गुफा में घुस जाना चाह रहे थे।

51 अपनी रक्षा करने के लिए दुर्वासा मुनि सर्वत्र भागते रहे – वे आकाश, पृथ्वीतल, गुफाओं, समुद्र, तीनों लोकों के शासकों के विभिन्न लोकों तथा स्वर्गलोक में भी गये, किन्तु जहाँ-जहाँ गये वहीं उन्होंने सुदर्शन चक्र की असह्य अग्नि को उनका पीछा करते देखा।

52 दुर्वासा मुनि भयभीत मन से इधर उधर शरण खोजते रहे किन्तु जब उन्हें कोई शरण न मिल सकी तो अन्ततः ब्रह्माजी के पास पहुँचे और कहा – हे प्रभु, हे ब्रह्माजी, कृपा करके भगवान द्वारा भेजे गये इस ज्वलित सुदर्शन चक्र से मेरी रक्षा कीजिये।

53-54 ब्रह्माजी ने कहा: द्वि-परार्ध के अन्त में, जब भगवान की लीलाएँ समाप्त हो जाती हैं तो भगवान विष्णु अपनी एक भृकुटि को टेढ़ी करके सारे ब्रह्माण्ड का, जिसमें हमारे निवास स्थान भी सम्मिलित हैं, विनाश कर देते हैं। मैं तथा शिवजी जैसे महापुरुष तथा दक्ष, भृगु इत्यादि प्रधान ऋषिमुनि एवं जीवों के शासक, मानव समाज के शासक एवं देवताओं के शासक, हम सभी उन भगवान विष्णु को अपने सिर झुकाकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु उनके आदेशों का पालन करने के लिए उनकी शरण में जाते हैं।

55 जब सुदर्शन चक्र की ज्वलित अग्नि से सन्तप्त दुर्वासा को ब्रह्माजी ने इस प्रकार मना कर दिया तो उन्होंने कैलाश लोक में सदैव निवास करने वाले शिवजी की शरण लेने का प्रयास किया।

56 शिवजी ने कहा: हे पुत्र, मैं, ब्रह्माजी तथा अन्य देवता जो अपनी-अपनी महानता की भ्रान्त धारणा के कारण इस ब्रह्माण्ड के भीतर चक्कर लगाते रहते हैं, भगवान से स्पर्धा करने की क्षमता नहीं रखते, क्योंकि भगवान के निर्देशन मात्र से असंख्य ब्रह्माण्डों एवं इनके निवासियों की उत्पत्ति और संहार होता रहता है।

57-59 मैं (शिवजी), सनत्कुमार, नारद, परम आदरणीय ब्रह्माजी, कपिल (देवहुति पुत्र) अपान्तरतम (व्यास देवजी), देवल, यमराज, आसुरि, मरीचि इत्यादि अनेक सन्तपुरुष एवं सिद्धिप्राप्त अन्य अनेक लोग भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानने वाले हैं। फिर भी भगवान की माया से प्रच्छन्न होने के कारण हम यह नहीं समझ पाते कि यह माया कितनी विस्तीर्ण है। तुम उन्हीं भगवान की शरण में जाओ क्योंकि यह सुदर्शन चक्र हम लोगों के लिए भी दुःसह है। तुम भगवान विष्णु के पास जाओ। वे अवश्य ही दयार्द्र होकर तुम्हें सौभाग्य प्रदान करेंगे।

60 तत्पश्चात शिवजी के द्वारा भी शरण न दिये जाने से निराश होकर दुर्वासा मुनि वैकुण्ठधाम गये जहाँ भगवान नारायण अपनी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी के साथ निवास करते हैं।

61 सुदर्शन चक्र की गर्मी से झुलसे हुए महान योगी दुर्वासा मुनि नारायण के चरणकमलों पर गिर पड़े और कँपकपाते हुए बोले – “हे अच्युत, हे अनन्त, हे समस्त ब्रह्माण्ड के रक्षक, आप ही सभी भक्तों के अभीष्ट हैं। हे प्रभु, मैं महान अपराधी हूँ। कृपया मुझे संरक्षण प्रदान करें।

62 हे प्रभु, हे परम नियन्ता, मैंने आपकी असीम शक्ति समझे बिना आपके परम प्रिय भक्त के प्रति अपराध किया है। कृपया मुझे इस अपराध के फल से बचा लें। आप हर काम कर सकते हैं क्योंकि यदि कोई व्यक्ति नरक जाने लायक हो, उसके भी हृदय में अपने पवित्र नाम को जगाकर आप उसका उद्धार कर सकते हैं।

63 भगवान ने उस ब्राह्मण से कहा: मैं पूर्णत: अपने भक्तों के वश में हूँ। निस्सन्देह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ। चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ। मुझे मेरे भक्त ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं।

64 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं उन साधुपुरुषों के बिना अपना दिव्य आनन्द तथा अपने परम ऐश्वर्यों का भोग नहीं करना चाहता जिनके लिए मैं ही एकमात्र गन्तव्य हूँ।

65 चूँकि शुद्ध भक्तगण इस जीवन में या अगले जीवन में किसी भौतिक उन्नति की इच्छा से रहित होकर अपने घर, पत्नियों, बच्चों, , धन और यहाँ तक कि अपने जीवन का भी परित्याग, मात्र मेरी सेवा करने के लिए करते हैं तो मैं ऐसे भक्तों को कभी भी किस तरह छोड़ सकता हूँ।

66 जिस तरह सती स्त्रियाँ अपने भद्र पतियों को अपनी सेवा से अपने वश में कर लेती है उसी प्रकार से समदर्शी एवं हृदय से मुझमें अनुरक्त शुद्ध भक्तगण मुझको पूरी तरह अपने वश में कर लेते हैं।

67 मेरे जो भक्त मेरी प्रेमाभक्ति में लगे रहकर सदैव संतुष्ट रहते हैं वे मोक्ष के चार सिद्धान्तों (सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य तथा साष्टि) में भी तनिक रुचि नहीं रखते यद्यपि उनकी सेवा से ये उन्हें स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। तो फिर स्वर्गलोक जाने के नश्वर सुख के विषय में क्या कहा जाए?

68 शुद्ध भक्त मेरे हृदय में सदैव रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ। मेरे भक्त मेरे सिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता।

69 हे ब्राह्मण, अब मैं तुम्हारी रक्षा के लिए उपदेश देता हूँ। मुझसे सुनो। तुमने महाराज अम्बरीष का अपमान करके आत्म-द्वेष से कार्य किया है। अतएव तुम एक क्षण की भी देरी किये बिना तुरन्त उनके पास जाओ। जो व्यक्ति अपनी तथाकथित शक्ति का प्रयोग भक्त पर करता है उसकी वह शक्ति प्रयोक्ता को ही हानि पहुँचाती है इस प्रकार कर्ता (विषयी) को हानि पहुँचती है, विषय को नहीं।

70 ब्राह्मण के लिए तपस्या तथा विद्या निश्चय ही कल्याणप्रद है, किन्तु जब तपस्या तथा विद्या ऐसे व्यक्ति के पास होती है जो विनीत नहीं है तो वे अत्यन्त घातक होती हैं।

71 अतएव हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, तुम तुरन्त महाराज नाभाग के पुत्र राजा अम्बरीष के पास जाओ। मैं तुम्हारे कल्याण की कामना करता हूँ। यदि तुम महाराज अम्बरीष को प्रसन्न कर सके तो तुम्हें शान्ति मिल जायेगी।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

Read more…

10885780689?profile=RESIZE_710x

अध्याय तीन – सुकन्या तथा च्यवन मुनि का विवाह (9.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, मनु का दूसरा पुत्र राजा शर्याति वैदिक ज्ञान में पारंगत था। उसने अंगीर वंशियों द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञ के दूसरे दिन के उत्सवों के विषय में आदेश दिए।

2 शर्याति की सुकन्या नामक एक सुन्दर कमलनेत्री कन्या थी जिसके साथ वे जंगल में च्यवन मुनि के आश्रम को देखने गये।

3 जब वह सुकन्या जंगल में अपनी सहेलियों से घिरी हुई, वृक्षों से विविध प्रकार के फल एकत्र कर रही थी तो उसने बाँबी के छेद में दो जुगनू जैसी चमकीली वस्तुएँ देखीं।

4 मानो विधाता से प्रेरित होकर उस तरुणी ने बिना जाने उन दोनों जुगनुओं को एक काँटे से छेद दिया जिससे उनमें से रक्त फुटकर बाहर आने लगा।

5 उसके बाद ही शर्याति के सारे सैनिकों को तुरन्त ही मल-मूत्र में अवरोध होने लगा। यह देखकर शर्याति बड़े अचम्भे में आकर अपने संगियों से बोला।

6 यह कितनी विचित्र बात है कि हममें से किसी ने भृगुपुत्र च्यवन मुनि का कुछ अहित करने का प्रयास किया है। निश्चय ही, ऐसा लगता है कि हममें से किसी ने इस आश्रम को अपवित्र कर दिया है।

7 अत्यन्त भयभीत सुकन्या ने अपने पिता से कहा: मैंने कुछ गलती की है क्योंकि मैंने अज्ञानवश इन दो चमकीली वस्तुओं को काँटे से छेद दिया है।

8 अपनी पुत्री से यह सुनकर राजा शर्याति अत्यधिक डर गये। उन्होंने अनेक प्रकार से च्यवन मुनि को शान्त करने का प्रयत्न किया क्योंकि वे ही उस बाँबी के छेद के भीतर बैठे थे।

9 अत्यन्त विचारमग्न होकर और च्यवन मुनि के प्रयोजन को समझकर राजा शर्याति ने मुनि को अपनी कन्या दान में दे दी। इस प्रकार बड़ी मुश्किल से संकट से मुक्त होकर उसने च्यवन मुनि से अनुमति ली और वह घर लौट गया।

10 च्यवन मुनि अत्यन्त क्रोधी थे, किन्तु क्योंकि सुकन्या ने उन्हें पतिरूप में प्राप्त किया था, अतः उसने सावधानी से उनके मनोनुकूल व्यवहार किया एवं बिना घबराए उनकी सेवा की।

11 कुछ काल बीतने के बाद दोनों अश्विनीकुमार जो स्वर्गलोक के वैद्य थे, च्यवन मुनि के आश्रम पधारे। उनका सत्कार करने के बाद च्यवन मुनि ने उनसे यौवन प्रदान करने के लिए प्रार्थना की क्योंकि वे ऐसा करने में सक्षम थे।

12 च्यवन मुनि ने कहा: यद्यपि तुम दोनों यज्ञ में सोमरस पीने के पात्र नहीं हो, किन्तु मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें सोमरस का पूरा कलश भरकर दूँगा। कृपा करके मेरे लिए सौन्दर्य तथा तरुणाई की व्यवस्था करो क्योंकि तरुणी स्त्रियों को ये आकर्षक लगते हैं।

13 उन महान वैद्य अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने उस ब्राह्मण से कहा "आप इस सिद्धिदायक झील में डुबकी लगाईये। (जो इस झील में नहाता है उसकी कामनाएँ पूरी होती हैं)

14 यह कहकर अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि को पकड़ा जो वृद्ध थे और जिनके रुग्ण शरीर की चमड़ी झूल रही थी, बाल सफ़ेद थे तथा सारे शरीर में नसें दिख रही थीं और वे तीनों उस सरोवर में घुस गये।

15 तत्पश्चात झील से तीन अत्यन्त सुन्दर स्वरूप वाले व्यक्ति ऊपर उठे। वे सुन्दर वस्त्र धारण किए थे और कुण्डलों तथा कमल की मालाओं से विभूषित तीनों ही समान सुन्दरता वाले थे।

16 साध्वी एवं अति सुन्दरी सुकन्या अपने पति एवं उन दोनों अश्विनीकुमारों में भेद न कर पाई क्योंकि वे समान रूप से सुन्दर थे। अतएव अपने असली पति को पहचान पाने में असमर्थ होने के कारण उसने अश्विनीकुमारों की शरण ग्रहण की।

17 दोनों अश्विनीकुमार सुकन्या के सतीत्व एवं निष्ठा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। अतः उन्होंने उसे उसके पति च्यवन मुनि को दिखलाया और फिर उनसे अनुमति लेकर वे अपने विमान से स्वर्गलोक को वापस लौट गये।

18 तत्पश्चात यज्ञ सम्पन्न करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आवास में गये। वहाँ उन्होंने अपनी पुत्री के बगल में सूर्य के समान तेजस्वी एक सुन्दर तरुण पुरुष को देखा।

19 राजा की पुत्री ने पिता के चरणों में वन्दना की, किन्तु राजा आशीष देने की बजाय, उससे अत्यधिक अप्रसन्न हुआ और इस प्रकार बोला।

20 हे दुष्ट लड़की, तुमने यह क्या कर दिया? तुमने अपने अत्यन्त सम्माननीय पति को धोखा दिया है क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि उसके वृद्ध, रोगग्रस्त तथा अनाकर्षक होने के कारण तुमने उसका साथ छोड़कर इस तरुण पुरुष को अपना पति बनाना चाहा है जो गली-कूचों का भिखारी जैसा प्रतीत होता है।

21 हे सम्माननीय कुल में उत्पन्न मेरी पुत्री, तुमने अपनी चेतना को किस तरह इतना नीचे गिरा दिया है? तुम किस तरह इतनी निर्लज्जतापूर्वक परपति को अपने हृदय में रख रही हो? इस तरह तुम अपने पिता तथा अपने पति दोनों के कुलों को नरक में धकेल कर बदनाम करोगी।

22 किन्तु अपने सतीत्व पर गर्वित सुकन्या अपने पिता की डॉट फटकार सुनकर मुस्काने लगी। उसने हँसते हुए कहा "हे पिता, मेरी बगल में बैठा यह तरुण व्यक्ति आपका असली दामाद, भृगुवंश में उत्पन्न, च्यवन मुनि ही है।"

23 तब सुकन्या ने बतलाया कि किस तरह उसके पति को तरुण पुरुष का सुन्दर शरीर प्राप्त हुआ। जब राजा ने इसे सुना तो वह अत्यधिक चकित हुआ और अत्यधिक हर्षित होकर उसने अपनी प्रिय पुत्री को गले से लगा लिया।

24 च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से राजा शर्याति से सोमयज्ञ सम्पन्न कराया। मुनि ने अश्विनीकुमारों को सोमरस का पूरा पात्र प्रदान किया यद्यपि वे इसे पीने के अधिकारी नहीं थे।

25 उद्विग्न एवं क्रुद्ध होने से इन्द्र ने च्यवन मुनि को मार डालना चाहा अतएव उसने बिना सोचे-विचारे अपना वज्र धारण कर लिया। लेकिन च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से इन्द्र की उस बाँह को संज्ञाशून्य कर दिया जिससे उसने वज्र पकड़ रखा था।

26 यद्यपि अश्विनीकुमार मात्र वैद्य थे और इसी कारण से उन्हें यज्ञों में सोमरस-पान से अलग रखा जाता था, किन्तु देवताओं ने इसके बाद उन्हें सोमरस पीने के लिए अनुमति प्रदान कर दी।

27 राजा शर्याति के उत्तानबर्हि, आनर्त तथा भूरिषेण नामक तीन पुत्र हुए। आनर्त के पुत्र का नाम रेवत था।

28 हे शत्रुओं के दमनकर्ता महाराज परीक्षित, इस रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नामक राज्य निर्माण कराया। वहाँ रहकर उसे आनर्त इत्यादि भूखण्डों पर शासन किया। उसके एक सौ सुन्दर पुत्र थे जिनमें सबसे बड़ा ककुद्भि था।

29 ककुद्भि अपनी पुत्री रेवती को लेकर ब्रह्मलोक में ब्रह्मा के पास गया जो भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं और उसके लिए पति के विषय में पूछताछ की ।

30 जब ककुद्भि वहाँ पहुँचा तो ब्रह्माजी गन्धर्वों का संगीत सुनने में व्यस्त थे और उन्हें बात करने की तनिक भी फुरसत न थी। अतएव ककुद्भि प्रतीक्षा करता रहा और संगीत समाप्त होने पर उसने ब्रह्माजी को नमस्कार करके अपनी चिरकालीन इच्छा व्यक्त की।

31 उसके वचन सुनकर शक्तिशाली ब्रह्माजी जोर से हँसे और ककुद्भि से बोले: हे राजा, तुमने अपने हृदय में जिन लोगों को अपना दामाद बनाने का निश्चय किया है वे कालक्रम से मर चुके हैं।

32 सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। तुमने जिन लोगों को रेवती का पति बनाना चाहा होगा वे अब सब चले गए हैं और उनके पुत्र, पौत्र तथा अन्य वंशज भी नहीं रहे हैं। अब तुम्हें उनके नाम भी नहीं सुनाई पड़ेंगे।

33 हे राजन, तुम यहाँ से जाओ और अपनी पुत्री भगवान बलदेव को अर्पित करो जो अभी भी उपस्थित हैं। वे अत्यन्त शक्तिशाली हैं। निस्सन्देह, वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं और उनके स्वांश विष्णु हैं। उन्हें दान में दिये जाने के लिए तुम्हारी पुत्री सर्वथा उपयुक्त है।

34 बलदेव भगवान हैं। जो कोई उनके विषय में श्रवण और उनका कीर्तन करता है वह पवित्र हो जाता है। चूँकि वे समस्त जीवों के सतत हितैषी हैं अतएव वे अपने सारे साज-सामान सहित सारे जगत को शुद्ध करने तथा इसका भार कम करने के लिए अवतरित हुए हैं।

35 ब्रह्माजी से यह आदेश पाकर ककुद्भि ने उन्हें नमस्कार किया और अपने निवासस्थान को लौट गया। तब उसने देखा कि उसका आवास रिक्त है, उसके भाई तथा अन्य कुटुम्बी उसे छोड़कर चले गए हैं और यक्षों जैसे उच्चतर जीवों के भय से वे समस्त दिशाओं में रह रहे हैं।

36 तत्पश्चात राजा ने अपनी सुन्दरी पुत्री परम शक्तिशाली बलदेव को दान में दे दी और सांसारिक जीवन से विरक्त होकर वह नर-नारायण को प्रसन्न करने के लिए बदरिकाश्रम चला गया।

( समर्पित एवं सेवारत -जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…

10885751079?profile=RESIZE_584x

अध्याय दो – मनु के पुत्रों की वंशावलियाँ (9.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इसके पश्चात जब वैवस्वत मनु (श्राद्धदेव) के पुत्र सुद्युम्न वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करने के लिए जंगल में चले गये तो मनु ने और अधिक सन्तान प्राप्त करने की इच्छा से यमुना नदी के तट पर सौ वर्षों तक कठिन तपस्या की।

2 तब पुत्र कामना से श्राद्धदेव नामक मनु ने देवों के देव भगवान हरि की पूजा की। इस तरह उसे अपने ही सदृश दस पुत्र प्राप्त हुए। इनमें से इक्ष्वाकु सबसे बड़ा था।

3 इन पुत्रों में से पृषध्र अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए गायों की रखवाली में लग गया। गायों की रक्षा के लिए वह सारी रात हाथ में तलवार लिए खड़ा रहता।

4 एक बार रात्रि में जब वर्षा हो रही थी, एक बाघ गोशाला में घुस आया। उसे देखकर भूमि में लेटी हुई सारी गाएँ डर के मारे खड़ी हो गई और भू-क्षेत्र में तितर-बितर हो गई।

5-6 जब अत्यन्त बलवान बाघ ने एक गाय को झपट लिया, तो वह भयभीत होकर चीत्कारने लगी। पृषध्र ने यह चीत्कार सुनी और वह तुरन्त इस आवाज का पीछा करने लगा। उसने अपनी तलवार निकाल ली, लेकिन चूँकि तारे बादलों से ढके थे, अतएव उसने गाय को बाघ समझकर अत्यन्त बलपूर्वक धोखे में गाय का सिर काट लिया।

7 चूँकि तलवार की नोक से बाघ का कान कट गया था, अतएव वह अत्यधिक भयभीत हो गया और उस स्थान से रास्ते भर कान से खून बहाता हुआ भाग खड़ा हुआ।

8 अपने शत्रु का दमन करने में समर्थ पृषध्र ने प्रातःकाल जब देखा कि उसने गाय का वध कर दिया है, यद्यपि रात में उसने सोचा था कि उसने बाघ को मारा है, तो वह अत्यन्त दुखी हुआ।

9 यद्यपि पृषध्र ने अनजाने में यह पाप किया था, किन्तु उसके कुलपुरोहित वसिष्ठ ने उसे यह शाप दिया, “तुम अपने अगले जन्म में क्षत्रिय नहीं बन सकोगे, प्रत्युत गोवध करने के कारण तुम्हें शूद्र बनकर जन्म लेना पड़ेगा।"

10 जब उस वीर पृषध्र को उसके गुरु ने इस प्रकार शाप दे दिया, तो उसने हाथ जोड़कर वह शाप अंगीकार कर लिया। तत्पश्चात अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए, उसने समस्त मुनियों द्वारा अनुमोदित ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया।

11-13 तत्पश्चात पृषध्र ने सारे उत्तरदायित्वों से निवृत्ति ले ली और शान्तचित्त होकर अपनी समग्र इन्द्रियों को वश में किया। भौतिक परिस्थितियों से अप्रभावित, भगवान की कृपा से शरीर तथा आत्मा को साथ में बनाए रखने के लिए जो भी मिल जाय, उसी से संतुष्ट एवं सब पर समभाव रखते हुए, वह कल्मषरहित परमात्मा भगवान वासुदेव पर ही अपना सारा ध्यान लगाने लगा। इस प्रकार शुद्ध ज्ञान से पूर्णतः संतुष्ट होकर एवं अपने मन को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में लगाकर, पृषध्र ने भगवान की शुद्ध भक्ति प्राप्त की और सारे विश्व में विचरण करने लगा। उसे भौतिक कार्यकलापों से कोई लगाव न रहा मानो वह बहरा, गूँगा तथा अन्धा हो।

14 इस मनोवृत्ति से पृषध्र महान सन्त बन गया और जब वह जंगल में प्रविष्ट हुआ और उसने जंगल में धधकती आग देखी, तो उसने अवसर पाकर उस अग्नि में अपने शरीर को भस्म करने के अवसर को ग्रहण किया। इस तरह उसे दिव्य आध्यात्मिक जगत की प्राप्ति हुई।

15 मनु के सबसे छोटे पुत्र कवि ने भौतिक भोगों को अस्वीकार करते हुए युवावस्था में पहुँचने के पूर्व ही राजपाट त्याग दिया। वह आत्म-तेजस्वी भगवान का अपने हृदय में सदैव चिन्तन करते हुए अपने मित्रों सहित जंगल में चला गया। इस प्रकार उसने सिद्धि प्राप्त की।

16 मनु के अन्य पुत्र करुष से कारुष वंश चला, जो एक क्षत्रिय कुल था। कारुष क्षत्रिय उत्तरी दिशा के राजा हुए। वे ब्राह्मण संस्कृति के विख्यात रक्षक थे और सभी अत्यन्त धार्मिक थे।

17 मनु के पुत्र धृष्ट से धाष्ट्र नामक क्षत्रिय जाति निकली, जिसके सदस्यों ने इस जगत में ब्राह्मणों का पद प्राप्त किया। तत्पश्चात मनु के पुत्र नृग से सुमति और सुमति से भूतज्योति और भूतज्योति से वसु उत्पन्न हुए।

18 वसु का पुत्र प्रतीक था और प्रतीक का पुत्र ओघवान हुआ। ओघवान का पुत्र भी ओघवान ही कहलाया और उसकी पुत्री का नाम ओघवती था। उसका विवाह सुदर्शन के साथ हुआ।

19 नरिष्यन्त का पुत्र चित्रसेन हुआ और उसका पुत्र ऋक्ष हुआ। ऋक्ष से मीढ्वान, मीढ्वान से पूर्ण और पूर्ण से इन्द्रसेन हुआ।

20 इन्द्रसेन से वितिहोत्र और वितिहोत्र से सत्यश्रवा, उससे उरुश्रवा और उरुश्रवा से देवदत्त नामक पुत्र हुआ।

21 देवदत्त का पुत्र अग्निवेश्य हुआ, जो साक्षात अग्निदेव था। यह पुत्र प्रख्यात सन्त था और कानीन तथा जातुकर्ण्य के नाम से विख्यात हुआ।

22 हे राजा, अग्निवेश्य से आग्निवेश्यायन नामक ब्राह्मण कुल उत्पन्न हुआ। चूँकि मैं नरिष्यन्त के वंशजों का वर्णन कर चुका हूँ, अतएव अब दिष्ट के वंशजों का वर्णन करूँगा। कृपया मुझसे सुनें।

23-24 दिष्ट का पुत्र नाभाग हुआ। यह नाभाग जो आगे वर्णित होने वाले नाभाग से भिन्न था, वृत्ति से वैश्य बन गया। नाभाग का पुत्र भलन्दन हुआ, भलन्दन का पुत्र वत्सप्रीति हुआ और उसका पुत्र प्रांशु था। प्रांशु का पुत्र प्रमति था प्रमति का पुत्र खनित्र और खनित्र का पुत्र चाक्षुष था, जिसका पुत्र विविंशति हुआ।

25 विविंशति के पुत्र का नाम रम्भ था, जिसका पुत्र महान एवं धार्मिक राजा खनीनेत्र हुआ। हे राजा, खनीनेत्र का पुत्र राजा करन्धम हुआ।

26 करन्धम से अवीक्षित नामक पुत्र हुआ, जिसका पुत्र मरुत्त था जो सम्राट था। महान योगी अंगिरा-पुत्र संवर्त ने यज्ञ सम्पन्न करने के लिए मरुत्त को लगाया।

27 राजा मरुत्त के यज्ञ का साज-समान अत्यन्त सुन्दर था, क्योंकि सारी वस्तुएँ सोने की बनी थीं। निस्सन्देह, उसके यज्ञ की तुलना किसी भी दूसरे यज्ञ से नहीं की जा सकती।

28 उस यज्ञ में सोमरस की बहुत अधिक मात्रा पीने से राजा इन्द्र मदान्ध हो गया। ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा मिली, जिससे वे संतुष्ट थे। उस यज्ञ में मरुतों के विविध देवताओं ने खाना परोसा और विश्वेदेव सभा के सदस्य थे।

29 मरुत्त का पुत्र दम हुआ, दम का पुत्र राज्यवर्धन था और उसका पुत्र सुधृति और सुधृति का पुत्र नर था।

30 नर का पुत्र केवल हुआ और उसका पुत्र धुन्धुमान था, जिसका पुत्र वेगवान हुआ। वेगवान का पुत्र बुध था और बुध का पुत्र तृणबिन्दु था, जो इस पृथ्वी का राजा बना।

31 अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ, अत्यन्त गुणी कन्या अलम्बूषा ने अपने ही समान सुयोग्य तृणबिन्दु को पतिरूप में स्वीकार किया। उसने कुछ पुत्र तथा इलविला नाम की एक कन्या को जन्म दिया।

32 महान सन्त योगेश्वर विश्रवा ने अपने पिता से परम विद्या प्राप्त करके इलविला के गर्भ से परम विख्यात पुत्र, धन प्रदाता कुबेर को उत्पन्न किया।

33 तृणबिन्दु के तीन पुत्र थे---विशाल, शून्यबन्धु तथा धूम्रकेतु। इन तीनों में विशाल ने एक वंश चलाया और वैशाली नामक एक महल बनवाया।

34 विशाल का पुत्र हेमचन्द्र कहलाया और उसका पुत्र धूम्राक्ष हुआ, जिसका पुत्र संयम था और उसके पुत्रों के नाम देवज तथा कृशाश्व थे।

35-36 कृशाश्व का पुत्र सोमदत्त हुआ, जिसने अश्वमेध यज्ञ किए और इस प्रकार भगवान विष्णु को संतुष्ट किया। भगवान की पूजा करने से उसे ऐसा उच्च पद प्राप्त हुआ, जो बड़े-बड़े योगियों को मिलता है। सोमदत्त का पुत्र सुमति था, जिसका पुत्र जनमेजय हुआ। विशाल वंश में प्रकट होकर इन सारे राजाओं ने राजा तृणबिन्दु के विख्यात पद को बनाये रखा।

 

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र चौहान)

Read more…

10885744279?profile=RESIZE_584x

अध्याय एक – राजा सुद्युम्न का स्त्री बनना (9.1)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप विभिन्न मनुओं से सारे कालों का विस्तार से वर्णन कर चुके हैं और उनमें असीम शक्तिमान पूर्ण भगवान के अद्भुत कार्यकलापों का भी वर्णन कर चुके हैं। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने आपसे ये सारी बातें सुनीं।

2-3 द्रविड़ देश के साधु सदृश राजा सत्यव्रत को भगवतकृपा से गत कल्प के अन्त में आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और वह अगले मन्वन्तर में विवस्वान का पुत्र वैवस्वत मनु बना। मुझे इसका ज्ञान आपसे प्राप्त हुआ है। मैंने यह भी जाना कि इक्ष्वाकु इत्यादि राजा उसके पुत्र थे, जैसा कि आप पहले बतला चुके हैं।

4 हे परम भाग्यशाली श्रील शुकदेव गोस्वामी, हे महान ब्राह्मण, कृपा करके हमको उन सारे राजाओं के वंशों तथा गुणों का पृथक-पृथक वर्णन कीजिये, क्योंकि हम आपसे ऐसे विषयों को सुनने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं।

5 कृपा करके हमें वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न उन समस्त विख्यात राजाओं के पराक्रम के विषय में बतलायें जो पहले हो चुके हैं, जो भविष्य में होंगे तथा जो इस समय विद्यमान हैं।

6 सूत गोस्वामी ने कहा: जब वैदिक ज्ञान के पण्डितों की सभा में सर्वश्रेष्ठ धर्मज्ञ श्रील शुकदेव गोस्वामी से महाराज परीक्षित ने इस प्रकार से प्रार्थना की, तो वे इस प्रकार बोले।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे शत्रुओं का दमन करने वाले राजा, अब तुम मुझसे मनु के वंश के विषय में विस्तार से सुनो। मैं यथासम्भव तुम्हें बतलाऊँगा, यद्यपि सौ वर्षों में भी उसके विषय में पूरी तरह नहीं बतलाया जा सकता।

8 जीवन की उच्च तथा निम्न अवस्थाओं में पाये जाने वाले जीवों के परमात्मा दिव्य परम पुरुष कल्प के अन्त में विद्यमान थे, जब न तो यह ब्रह्माण्ड था, न अन्य कुछ था। तब केवल वे ही विद्यमान थे।

9 हे राजा परीक्षित, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की नाभि से एक सुनहला कमल उत्पन्न हुआ, जिस पर चार मुखों वाले ब्रह्माजी ने जन्म लिया।

10 ब्रह्माजी के मन से मरीचि ने जन्म लिया। दक्ष महाराज की कन्या और मरीचि के संयोग से कश्यप प्रकट हुए। कश्यप द्वारा अदिति के गर्भ से विवस्वान ने जन्म लिया।

11-12 हे भारतवंश के श्रेष्ठ राजा, संज्ञा के गर्भ से विवस्वान को श्राद्धदेव मनु प्राप्त हुए। श्राद्धदेव मनु ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था। उन्हें अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र प्राप्त हुए। इन पुत्रों के नाम थे – इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करुषक, पृषध्र, नभग तथा कवि।

13 आरम्भ में मनु को एक भी पुत्र नहीं था। अतएव आध्यात्मिक ज्ञान में अत्यन्त शक्ति सम्पन्न महर्षि वसिष्ठ ने (उसको पुत्र प्राप्ति के लिए) मित्र तथा वरुण देवताओं को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ सम्पन्न किया।

14 उस यज्ञ के दौरान मनु की पत्नी श्रद्धा, जो केवल दूध पीकर जीवित रहने का व्रत कर रही थी, यज्ञ करने वाले पुरोहित के निकट गई, उन्हें प्रणाम किया और उनसे एक पुत्री की याचना की।

15 प्रधान पुरोहित द्वारा यह कहे जाने पर "अब आहुति डालो" आहुति डालने वाले (होता) ने आहुति डालने के लिए घी लिया। तब उसे मनु की पत्नी की याचना स्मरण हो आई और उसने वषट शब्दोच्चार करते हुए यज्ञ सम्पन्न किया।

16 मनु ने वह यज्ञ पुत्र प्राप्ति के लिए प्रारम्भ किया था, किन्तु मनु की पत्नी के अनुरोध पर पुरोहित के विपथ होने से इला नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। इस पुत्री को देखकर मनु अधिक प्रसन्न नहीं हुए। अतएव वे अपने गुरु वसिष्ठ से इस प्रकार बोले।

17 हे प्रभु, आप लोग वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पटु हैं। तो फिर वांछित फल से विपरीत फल क्यों निकला? यही मेरे लिए शोक का विषय है। वैदिक मंत्रों का ऐसा उल्टा प्रभाव नहीं होना चाहिए था।

18 आप सभी संयमित, मन से संतुलित तथा परम सत्य से परिचित हो। आप सबने अपनी तपस्याओं के द्वारा सारे भौतिक कल्मषों से अपने आप को पूरी तरह स्वच्छ कर लिया है। आप सबके वचन देवताओं के वचनों की तरह कभी मिथ्या नहीं होते। तो फिर यह कैसे सम्भव हुआ कि आप सबका संकल्प विफल हो गया?

19 मनु के इन वचनों को सुनकर अत्यन्त शक्तिसम्पन्न प्रपितामह वसिष्ठ पुरोहित की त्रुटि को समझ गए। अतः वे सूर्यपुत्र से इस प्रकार बोले।

20 तुम्हारे पुरोहित द्वारा मूल उद्देश्य में विचलन के कारण लक्ष्य में यह त्रुटि हुई है। फिर भी मैं अपने पराक्रम से तुम्हें एक अच्छा पुत्र प्रदान करूँगा।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, अत्यन्त सुविख्यात एवं शक्तिसम्पन्न वसिष्ठ ने यह निर्णय लेने के बाद, परम पुरुष भगवान विष्णु से इला को पुरुष में परिणत करने के लिए प्रार्थना की।

22 परम नियन्ता परमेश्वर ने वसिष्ठ से प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वरदान दिया। इस तरह इला सुद्युम्न नामक एक सुन्दर पुरुष में परिणत हो गई।

23-24 हे राजा परीक्षित, एक बार वीर सुद्युम्न अपने कुछ मंत्रियों और साथियों के साथ, सिंधुप्रदेश से लाये गये घोड़े पर सवार होकर शिकार करने जंगल में गया। वह कवच पहने था और धनुष-बाण से सुसज्जित था। वह अत्यन्त सुन्दर था। वह पशुओं का पीछा करते हुए तथा उनको मारते हुए जंगल के उत्तरी भाग में पहुँच गया।

25 वहाँ उत्तर में मेरु पर्वत की तलहटी में सुकुमार नामक एक वन है जहाँ शिवजी सदैव उमा के साथ आनन्द-विहार करते हैं। सुद्युम्न उस वन में प्रविष्ट हुआ।

26 हे राजा परीक्षित, ज्योंही अपने शत्रुओं को दमन करने में निपुण सुद्युम्न उस जंगल में प्रविष्ट हुआ, त्योंही उसने देखा कि वह एक स्त्री में और उसका घोड़ा एक घोड़ी में परिणत हो गये हैं।

27 जब उसके साथियों ने भी अपने स्वरूपों एवं अपने लिंग को विपरीत लिंग में परिणत हुआ देखा, तो वे सभी अत्यन्त खिन्न हो गये और एक दूसरे की ओर देखते रह गये।

28 महाराज परीक्षित ने कहा: हे सर्वश्रेष्ठ शक्तिसम्पन्न ब्राह्मण, यह स्थान इतना शक्तिशाली क्यों था और किसने इसे इतना शक्तिशाली बनाया था? कृपा करके इस प्रश्न का उत्तर दीजिये, क्योंकि मैं इसके विषय में जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।

29 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार आध्यात्मिक अनुष्ठानों का दृढ़ता से पालन करने वाले महान साधु पुरुष उस जंगल में शिवजी का दर्शन करने आए। उनके तेज से समस्त दिशाओं का सारा अंधकार दूर हो गया।

30-31 जब देवी अम्बिका ने इन महान साधु पुरुषों को देखा, तो वे अत्यधिक लज्जित हुईं। साधु पुरुषों ने देखा कि गौरीशंकर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिए वे वहाँ से लौट गए और नर-नारायण आश्रम की ओर चल पड़े।

32 तत्पश्चात अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए शिवजी ने कहा, “कोई भी पुरुष इस स्थान में प्रवेश करते ही तुरन्त स्त्री बन जाएगा।”

33 उस समय से कोई भी पुरुष ने उस जंगल में प्रवेश नहीं किया था। किन्तु अब राजा सुद्युम्न स्त्री रूप में परिणत होकर अपने साथियों समेत एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमने लगा।

34 सुद्युम्न सर्वोत्तम सुन्दर स्त्री रूप में परिणत कर दिया गया था और वह अन्य स्त्रियों से घिरी हुई थी। चन्द्रमा के पुत्र बुध को इस सुन्दरी को अपने आश्रम के निकट विचरण करते देखकर उसके साथ भोग करने की चाहत हुई।

35 उस सुन्दर स्त्री ने भी चन्द्रमा के राजकुमार बुध को अपना पति बनाना चाहा। इस तरह बुध ने उसके गर्भ से पुरूरवा नामक एक पुत्र प्राप्त किया।

36 मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि मनु-पुत्र सुद्युम्न ने इस प्रकार स्त्रीत्व प्राप्त करके अपने कुलगुरु वसिष्ठ का स्मरण किया।

37 सुद्युम्न की इस शोचनीय स्थिति को देखकर वसिष्ठ अत्यधिक दुखी हुए। उन्होंने सुद्युम्न को उसका पुरुषत्व वापस दिलाने की इच्छा से फिर से शिवजी की पूजा प्रारम्भ कर दी।

38-39 हे राजा परीक्षित, शिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हुए। अतएव शिवजी ने उन्हें संतुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन को रखने के उद्देश्य से उस सन्त पुरुष से कहा, “आपका शिष्य सुद्युम्न एक मास तक नर रहेगा और दूसरे मास नारी होगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।

40 इस प्रकार गुरु की कृपा पाकर शिवजी के वचनों के अनुसार सुद्युम्न को प्रत्येक दूसरे मास में उसका इच्छित पुरुषत्व फिर से प्राप्त हो जाता था और इस तरह उसने राज्य पर शासन चलाया, यद्यपि नागरिक इससे संतुष्ट नहीं थे।

41 हे राजन, सुद्युम्न के तीन अत्यन्त पवित्र पुत्र हुए जिनके नाम थे उत्कल, गय तथा विमल, जो दक्षिणा-पथ के राजा बने।

42 तत्पश्चात, समय आने पर जब जगत का राजा सुद्युम्न काफी वृद्ध हो गया, तो उसने अपना सारा साम्राज्य अपने पुत्र पुरूरवा को सौंप दिया और स्वयं जंगल में चला गया।

( समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र चौहान )

 

Read more…