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अध्याय दस – भगवान रामचन्द्र की लीलाएँ (9.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महाराज खटवांग का पुत्र दीर्घबाहु हुआ और उसके पुत्र विख्यात रघु महाराज हुए। महाराज रघु से अज उत्पन्न हुए और अज से महापुरुष महाराज दशरथ हुए।

2 देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर परम सत्य भगवान अपने अंश तथा अंशों के भी अंश के साथ साक्षात प्रकट हुए। उनके पावन नाम थे राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुध्न। ये सुविख्यात अवतार महाराज दशरथ के पुत्रों के रूप में चार स्वरूपों में प्रकट हुए।

3 हे राजा परीक्षित, भगवान रामचन्द्र के दिव्य कार्यकलापों का वर्णन उन साधु पुरुषों द्वारा किया गया है जिन्होंने सत्य का दर्शन किया है। चूँकि आप सीता माता के पति रामचन्द्र के विषय में बारम्बार सुन चुके हैं अतएव मैं इन कार्यकलापों का वर्णन संक्षेप में ही करूँगा। कृपया सुनें।

4 अपने पिता के वचनों को अक्षत रखने के लिए भगवान रामचन्द्र ने तुरन्त ही राजपद छोड़ दिया और अपनी पत्नी सीतादेवी के साथ एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने उन चरणकमलों से घूमते रहे जो इतने कोमल थे कि वे माता सीता की हथेलियों का स्पर्श भी सहन नहीं कर सकते थे। भगवान के साथ उनके अनुज लक्ष्मण तथा वानरराज हनुमान (या एक अन्य वानरराज सुग्रीव) भी थे। ये दोनों जंगल में घूमते हुए राम-लक्ष्मण की थकान मिटाने में सहायक बने। शूर्पणखा की नाक तथा कान काटकर उसे कुरूप बनाकर भगवान सीतादेवी से बिछुड़ गए। अतएव वे अपनी भौहें तानकर क्रुद्ध हुए जिससे सागर भयभीत हो गया और उसने भगवान को अपने ऊपर से होकर पुल बनाने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात रावण को मारने के लिए भगवान दावानल की भाँति उसके राज्य में प्रविष्ट हुए। ऐसे भगवान रामचन्द्र हम सबों की रक्षा करें।

5 अयोध्यानरेश भगवान रामचन्द्र ने विश्वामित्र द्वारा सम्पन्न किए गए यज्ञ के प्रक्षेत्र में अनेक राक्षसों तथा असभ्य जनों का वध किया जो तमोगुण से प्रभावित होकर रात में विचरण करते थे। ऐसे रामचन्द्र जिन्होंने लक्ष्मण की उपस्थिति में इन असुरों का वध किया, हमारी रक्षा करने की कृपा करें।

6-7 हे राजन, भगवान रामचन्द्र की लीलाएँ हाथी के किसी बच्चे के समान अत्यन्त अद्भुत थीं। उस सभाभवन में जिसमें सीतादेवी का स्वयंवर हो रहा था, उन्होंने इस संसार के वीरों के बीच भगवान शिव के धनुष को तोड़ दिया। यह धनुष इतना भारी था कि इसे तीन सौ व्यक्ति उठाकर लाए थे। भगवान रामचन्द्र ने इसे मोड़कर डोरी चढ़ाई और बीच से उसे वैसे ही तोड़ डाला जिस तरह हाथी का बच्चा गन्ने को तोड़ देता है। इस तरह भगवान ने सीतादेवी का पाणिग्रहण किया जो उन्हीं के समान दिव्य रूप, सौन्दर्य, आचरण, आयु तथा स्वभाव से युक्त थीं। दरअसल, वे भगवान के वक्षस्थल पर सतत विद्यमान लक्ष्मी थीं। प्रतियोगियों की सभा में से जीतकर उनके मायके से लौटते हुए भगवान रामचन्द्र को परशुराम मिले। यद्यपि परशुराम अत्यन्त घमण्डी थे क्योंकि उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार राजाओं से विहीन बनाया था, किन्तु वे क्षत्रियवंशी राजा भगवान राम से पराजित हो गये।

8 अपनी पत्नी को दिये गये वचनों से बँधे पिता के आदेशों का पालन करते हुए भगवान रामचन्द्र ने उसी तरह अपना राज्य, ऐश्वर्य, मित्र, शुभचिन्तक, निवास तथा अन्य सभी कुछ त्याग दिया जिस तरह मुक्तात्मा अपना जीवन त्याग देता है। तब वे सीता सहित जंगल में चले गये।

9 जंगल में घूमते हुए, वहाँ पर अनेक कठिनाइयों को झेलते तथा अपने हाथ में महान धनुष-बाण लिए भगवान रामचन्द्र ने कामवासना से दूषित रावण की बहन के नाक-कान काटकर उसे कुरूप कर दिया। उन्होंने उसके चौदह हजार मित्रों को भी मार डाला जिनमें खर, त्रिशिर तथा दूषण मुख्य थे।

10 हे राजा परीक्षित, जब दस सिरों वाले रावण ने सीताजी के सुन्दर एवं आकर्षक स्वरूप के विषय में सुना तो उसका मन कामातुर हो उठा और वह उनको हरने चला गया। रावण ने भगवान रामचन्द्र को उनके आश्रम से दूर ले जाने के लिए सोने के मृग का रूप धारण किये मारीच को भेजा। जब भगवान ने उस अद्भुत मृग को देखा तो उन्होंने अपना आश्रम छोड़कर उसका पीछा करना शुरु कर दिया। अन्त में उसे तीक्ष्ण बाण से उसी तरह मार डाला जिस तरह वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति को मारा था।

11 जब रामचन्द्रजी जंगल में प्रविष्ट हुए और लक्ष्मण भी वहाँ नहीं थे तो दुष्ट राक्षस रावण ने विदेह राजा की पुत्री सीतादेवी का उसी तरह अपहरण कर लिया जिस तरह गडरिये की अनुपस्थिति में बाघ किसी असुरक्षित भेड़ को पकड़ लेता है। तब श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण के साथ जंगल में इस तरह भटकते रहे मानो कोई अत्यन्त दीन व्यक्ति अपनी पत्नी के वियोग में घूम रहा हो। इस तरह उन्होंने अपने व्यक्तिगत उदाहरण से एक स्त्री-अनुरक्त पुरुष जैसी दशा प्रदर्शित की।

12 भगवान रामचन्द्रजी ने, जिनके चरणकमल ब्रह्माजी तथा शिवजी द्वारा पूजित हैं, मनुष्य का रूप धारण किया था। उन्होंने जटायु का दाहसंस्कार किया, जिसे रावण ने मारा था। तत्पश्चात भगवान ने कबन्ध नामक असुर को मारा और वानरराजों से मैत्री स्थापित करके बालि का वध किया तथा सीतादेवी को छुड़ा लाने की व्यवस्था करके वे समुद्र के तट पर गये।

13 समुद्र तट पर पहुँच कर भगवान रामचन्द्र ने तीन दिन तक उपवास किया और वे साक्षात समुद्र के आने की प्रतीक्षा करते रहे। जब समुद्र नहीं आया तो भगवान ने अपनी क्रोध लीला प्रकट की और समुद्र पर दृष्टिपात करते ही समुद्र के सारे प्राणी, जिनमें घड़ियाल तथा मगर सम्मिलित थे, भय के मारे उद्विग्न हो उठे। तब डर के मारे शरीर धारण करके समुद्र पूजा की सारी सामग्री लेकर भगवान के पास पहुँचा। उसने भगवान के चरणकमलों पर गिरते हुए इस प्रकार कहा।

14 हे सर्वव्यापी परम पुरुष, हम लोग मन्द बुद्धि होने के कारण यह नहीं जान पाये कि आप कौन हैं, किन्तु अब हम जान पाये हैं कि आप सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी, अक्षर तथा आदि परम पुरुष हैं। देवता लोग सतोगुण से, प्रजापति रजोगुण से तथा भूतों के ईश तमोगुण द्वारा अन्धे हो जाते हैं, किन्तु आप इन समस्त गुणों के स्वामी हैं।

15 हे प्रभु, आप इच्छानुसार मेरे जल का उपयोग कर सकते हैं। निस्सन्देह, आप इसे पार करके उस रावण की पूरी में जा सकते हैं जो उपद्रवी है और तीनों जगतों को रुलाने वाला है। वह विश्रवा का पुत्र है, कृपया जाकर उसका वध करें और अपनी पत्नी सीतादेवी को फिर से प्राप्त करें। हे महान वीर, यद्यपि मेरे जल के कारण आपको लंका जाने में कोई बाधा नहीं होगी लेकिन आप इसके ऊपर पुल बनाकर अपने दिव्य यश का विस्तार करें। आपके इस अद्भुत असामान्य कार्य को देखकर भविष्य में सारे महान योद्धा तथा राजा आपकी महिमा का गान करेंगे।

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जल में उन पर्वत शृंगों को फेंककर जिनके सारे वृक्ष बन्दरों द्वारा हाथ से हिलाये गये थे, समुद्र के ऊपर पुल बना चुकने के बाद भगवान रामचन्द्र सीतादेवी को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका गये। रावण के भाई विभीषण की सहायता से भगवान सुग्रीव, नील, हनुमान इत्यादि वानर सैनिकों के साथ रावण के राज्य लंका में प्रविष्ट हुए जिसे हनुमानजी ने पहले भस्म कर दिया था।

17 लंका में प्रवेश करने के बाद सुग्रीव, नील, हनुमान आदि वानर सेनापतियों के नेतृत्व में वानर सैनिकों ने सारे विहारस्थलों, अन्न के गोदामों, खजानों, महलों के द्वारों, नगर के फाटकों, सभाभवनों, महल के छज्जों और यहाँ तक कि कबूतरघरों में अधिकार कर लिया। जब नगरी के सारे चौराहे, चबूतरे, झण्डे तथा गुम्बदों पर रखे सुनहरे गमले ध्वस्त कर दिये गये तो समूची लंका नगरी उस नदी के सदृश प्रतीत हो रही थी जिसे हाथियों के झुण्ड ने मथ दिया हो।

18 जब राक्षसपति रावण ने वानर सैनिकों द्वारा किये जा रहे उपद्रवों को देखा तो उसने निकुम्भ, कुम्भ, धुभ्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, तथा अन्य राक्षसों एवं अपने पुत्र इन्द्रजीत को भी बुलवाया। तत्पश्चात उसने प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन को और अन्त में कुम्भकर्ण को बुलवाया। इसके बाद उसने अपने सारे अनुयायियों को शत्रुओं से लड़ने के लिए उकसाया।

19 लक्ष्मण तथा सुग्रीव, हनुमान, गन्धमाद, नील, अंगद, जाम्बवन्त तथा पनस नामक वानर-सैनिकों से घिरे हुए भगवान रामचन्द्र ने उन राक्षस सैनिकों पर आक्रमण कर दिया जो विभिन्न अजेय हथियारों से, यथा तलवारों, भालों, बाणों, ऋष्टियों, शक्तिबाणों, खड्गों तथा तोमरों से सज्जित थे।

20 अंगद तथा रामचन्द्र के अन्य सेनापतियों ने शत्रुओं के हाथियों, पैदल सैनिकों, घोड़ों तथा रथों का सामना किया और उन पर बड़े-बड़े वृक्ष, पर्वत-शृंग, गदा तथा बाण फेंके। इस तरह भगवान रामचन्द्रजी के सैनिकों ने रावण के सैनिकों को, जिनका सौभाग्य पहले ही लुट चुका था, वध कर दिया क्योंकि सीतादेवी के क्रोध से रावण पहले ही ह्रासित हो चुका था।

21 तत्पश्चात जब राक्षसराज रावण ने देखा कि उसके सारे सैनिक मारे जा चुके हैं तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। अतएव वह अपने विमान में सवार हुआ जो फूलों से सजाया हुआ था और रामचन्द्रजी की ओर बढ़ा जो इन्द्र के सारथी मातली द्वारा लाये गये तेजस्वी रथ पर आसीन थे। तब रावण ने भगवान रामचन्द्र पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा की।

22 भगवान रामचन्द्र ने रावण से कहा: तुम मानवभक्षियों में अत्यन्त गर्हित हो निस्सन्देह, तुम उनकी विष्ठा तुल्य हो। तुम कुत्ते के समान हो क्योंकि वह घर के मालिक के न होने पर रसोई से खाने की वस्तु चुरा लेता है। तुमने मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी सीतादेवी का अपहरण किया है। इसलिए जिस तरह यमराज पापी व्यक्तियों को दण्ड देता है उसी तरह मैं भी तुम्हें दण्ड दूँगा। तुम अत्यन्त नीच, पापी तथा निर्लज्ज हो। अतएव आज मैं तुम्हें दण्ड दूँगा क्योंकि मेरा वार कभी खाली नहीं जाता।

23 इस प्रकार रावण को धिक्कारने के बाद भगवान रामचन्द्र ने अपने धनुष पर बाण साधा और रावण को निशाना बनाकर बाण छोड़ा जो रावण के हृदय को वज्र के समान बेध गया। इसे देखकर रावण के अनुयायी आर्तनाद करते हुए चिल्लाये "हाय!हाय।" 'क्या हो गया?' क्योंकि रावण अपने दसों मुखों से रक्त वमन करता हुआ अपने विमान से उसी तरह नीचे गिर पड़ा जिस प्रकार कोई पुण्यात्मा अपने पुण्यों के चुक जाने पर स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गिरता है।

24 तत्पश्चात वे सारी स्त्रियाँ जिनके पति युद्ध में मारे जा चुके थे, रावण की पत्नी मन्दोदरी के साथ लंका से बाहर आई। वे अनवरत विलाप करती हुई रावण तथा अन्य राक्षसों के शवों के समीप पहुँचीं।

25 लक्ष्मण के बाणों द्वारा मारे गये अपने-अपने पतियों के शोक में छाती पीटती हुई स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों का आलिंगन किया और फिर वे कातर स्वर में रुदन करने लगीं जो हर एक को द्रवित कर देने वाला था।

26 हे नाथ! हे स्वामी! तुम अन्यों की यंत्रणा की प्रतिमूर्ति थे, अतएव तुम रावण कहलाते थे। किन्तु अब जब तुम पराजित हो चुके हो, हम भी पराजित हैं क्योंकि तुम्हारे बिना इस लंका के राज्य को शत्रु ने जीत लिया है। बताओ न अब लंका किसकी शरण में जायेगी?

27 हे परम सौभाग्यवान, तुम कामवासना के वशीभूत हो गये थे, अतएव तुम सीतादेवी के प्रभाव (तेज) को नहीं समझ सके। तुम भगवान रामचन्द्र द्वारा मारे जाकर सीताजी के शाप से इस दशा को प्राप्त हुए हो।

28 हे राक्षसकुल के हर्ष, तुम्हारे ही कारण अब लंका-राज्य तथा हम सबका भी कोई संरक्षक नहीं रहा। तुमने अपने कृत्यों के ही कारण अपने शरीर को गीधों का आहार और अपनी आत्मा को नरक जाने का पात्र बना दिया है।

29 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: रावण के पवित्र भाई तथा रामचन्द्र के भक्त विभीषण को कोसल के राजा भगवान रामचन्द्र से अनुमति प्राप्त हो गई तब विभीषण ने अपने परिवार के सदस्यों को नरक जाने से बचाने के लिए आवश्यक अन्त्येष्टि कर्म सम्पन्न किये।

30 तत्पश्चात भगवान रामचन्द्र ने सीतादेवी को अशोकवन में शिशपा नामक वृक्ष के नीचे एक छोटी सी कुटिया में बैठी पाया। वे राम के वियोग के कारण दुखी होने से अत्यन्त दुर्बल हो गई थीं।

31 अपनी पत्नी को उस दशा में देखकर भगवान रामचन्द्र अत्यधिक दयार्द्र हो उठे। जब वे पत्नी के समक्ष आए तो वे भी अपने प्रियतम को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और उनके कमल सदृश मुख से आह्लाद झलकने लगा।

32 भगवान रामचन्द्र ने विभीषण को लंका के राक्षसों पर एक कल्प तक राज्य करने का अधिकार सौंपकर सीतादेवी को पुष्पों से सुसज्जित विमान (पुष्पक विमान) में बैठाया और फिर वे स्वयं उसमें बैठ गये। भगवान अपने वनवास की अवधि समाप्त होने पर, हनुमान, सुग्रीव तथा अपने भाई लक्ष्मण समेत अयोध्या लौट आये।

33 जब भगवान रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौटे तो मार्ग पर लोकपालों ने उनके स्वागतार्थ, सुन्दर सुगन्धित फूलों की वर्षा की और ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं जैसे महापुरुषों ने परम प्रसन्न होकर भगवान के कार्यों का यशोगान किया।

34 अयोध्या पहुँचकर भगवान रामचन्द्र ने सुना कि उनकी अनुपस्थिति में उनका भाई भरत गोमूत्र में पकाये जौ खाता था, अपने शरीर पर वृक्षों की छाल ओढ़ता था, सिर पर जटा बढ़ाये, कुशों की चटाई पर सोता था। अत्यन्त कृपालु भगवान ने इस पर अत्यधिक सन्ताप व्यक्त किया।

35-38 जब भरत को पता चला कि भगवान रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौट रहे हैं तो तुरन्त ही वे भगवान की खड़ाऊँ अपने सिर पर रखे और नन्दिग्राम स्थित अपने खेमे से बाहर आ गये। भरत के साथ मंत्री, पुरोहित, अन्य भद्र नागरिक, मधुर गायन करते पेशेवर गवैये तथा वैदिक मंत्रों का उच्चस्वर से पाठ करने वाले विद्वान ब्राह्मण थे। उनके पीछे जुलूस में रथ थे जिनमें सुन्दर घोड़े जूते थे जिनकी लगामें सुनहरी रस्सियों की थीं। ये रथ सुनहरी किनारी वाली पताकाओं तथा अन्य विविध आकार-प्रकार की पताकाओं से सजाये गये थे। सैनिक सुनहरे कवचों से लैस थे, नौकर पान-सुपारी लिए थे और साथ में अनेक विख्यात सुन्दर गणिकाएँ थीं। अनेक नौकर पैदल चल रहे थे और वे छाता, चामर, बहुमूल्य रत्न तथा उपयुक्त विविध राजसी सामान लिए हुए थे। इस तरह प्रेमानन्द से आर्द्र हृदय एवं अश्रुओं से पूरित नेत्रोंवाले भरत भगवान रामचन्द्र के समीप पहुँचे और अत्यन्त भावविभोर होकर उनके चरणकमलों पर गिर गये।

39-40 भगवान रामचन्द्र के समक्ष खड़ाऊँ को रखकर भरतजी आँखों में आँसू भरकर और दोनों हाथ जोड़कर खड़े रहे। भगवान रामचन्द्र भरत को अपनी दोनों भुजाओं में भरकर देर तक गले से लगाये रहे और उन्होंने अपने आँसुओं से उन्हें नहला दिया। तत्पश्चात सीतादेवी तथा लक्ष्मण के साथ रामचन्द्र ने विद्वान ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों को नमस्कार किया। समस्त अयोध्यावासियों ने भगवान को सादर प्रणाम किया।

41 अयोध्या के नागरिकों ने दीर्घकाल के बाद अपने राजा को लौटे देखकर उन्हें फूल की मालाएँ अर्पित कीं, अपने उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे) हिलाए और वे अति प्रसन्न होकर खूब नाचे।

42-43 हे राजन, भरत भगवान राम की खड़ाऊँ लिये थे, सुग्रीव तथा विभीषण चँवर तथा सुन्दर पंखा लिये थे, हनुमान सफेद छाता लिये हुए थे, शत्रुध्न धनुष तथा दो तरकस लिए थे तथा सीतादेवी तीर्थस्थानों के जल से भरा कलश लिए थीं। अंगद तलवार लिए थे और ऋक्षराज जाम्बवान सुनहरी ढाल लिए थे।

44 हे राजा परीक्षित, अपने पुष्पक विमान पर बैठे भगवान रामचन्द्र स्त्रियों द्वारा स्तुति किये जाने पर तथा बन्दीजनों द्वारा गुणगान किये जाने पर ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों तारों तथा ग्रहों के बीच चन्द्रमा हो।

45-46 तत्पश्चात अपने भाई भरत द्वारा स्वागत किये जाकर भगवान रामचन्द्र ने एक उत्सव के बीच अयोध्या नगरी में प्रवेश किया। जब वे महल में प्रविष्ट हुए, तो उन्होंने कैकेयी तथा महाराज दशरथ की अन्य पत्नी एवं अपनी माता कौशल्या – इन सभी माताओं को नमस्कार किया। उन्होंने अपने गुरुओं को, यथा वसिष्ठ सहित सभी को भी प्रणाम किया। उनके हमउम्र मित्रों तथा उनसे कम आयु वाले मित्रों ने उनकी पूजा की। उन्होंने भी उनका अभिवादन किया। लक्ष्मण तथा सीतादेवी ने भी वैसा ही किया। इस प्रकार वे सभी महल में प्रविष्ट हुए।

47 अपने पुत्रों को देखकर राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुध्न की माताएँ तुरन्त उठ खड़ी हुईं मानो अचेत शरीर में चेतना आ गई हो। माताओं ने अपने पुत्रों को अपनी गोद में भर लिया और उन्हें आँसुओं से नहलाकर अपने दीर्घकालीन बिछोह के सन्ताप से छुटकारा पा लिया।

48 कुलगुरु वसिष्ठ ने भगवान रामचन्द्र के सिर की जटाएँ मुँड़वा दीं। तत्पश्चात कुल के वरिष्ठ जनों के सहयोग से उन्होंने चारों समुद्रों के जल तथा अन्य सामग्रियों के द्वारा भगवान रामचन्द्र का अभिषेक उसी तरह सम्पन्न किया जिस तरह राजा इन्द्र का हुआ था।

49 भलीभाँति स्नान करके तथा अपना सिर घुटा करके भगवान रामचन्द्र ने अपने आपको सुन्दर परिधानों से सज्जित और माला तथा आभूषणों से अलंकृत किया। इस प्रकार वे अपने ही समान वस्त्र तथा आभूषण धारण किये अपने भाइयों तथा पत्नी के साथ अत्यन्त तेजोमय लग रहे थे।

50 तब भरत की पूर्ण शरणागति से प्रसन्न होकर भगवान रामचन्द्र ने राजसिंहासन स्वीकार किया। वे प्रजा की रक्षा पिता की भाँति करने लगे और प्रजा ने भी वर्ण तथा आश्रम के अनुसार अपने-अपने वृत्तिपरक कार्यों में लगकर उन्हें पितृतुल्य स्वीकार किया।

51 भगवान रामचन्द्र त्रेतायुग में राजा बने थे, परन्तु वह युग सत्ययुग जैसा प्रतीत होता था। प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक एवं पूर्ण सुखी था।

52 हे भरतश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, भगवान रामचन्द्र के राज में सारे वन, नदियाँ, पर्वत, राज्य, सातों द्वीप तथा सातों समुद्र सारे जीवों को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करने के लिए अनुकूल थे।

53 जब भगवान रामचन्द्र इस जगत के राजा थे तो सारे शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, रोग, बुढ़ापा, बिछोह, पश्चाताप, दुख, डर तथा थकावट का नामोनिशान न था। यहाँ तक कि न चाहने वालों के लिए भी मृत्यु नहीं थी।

54 भगवान रामचन्द्र ने एक पत्नी रखने का व्रत ले रखा था। उनका चरित्र अति पावन था और वे एक साधु-सदृश राजा थे। उन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, सामान्य जनता को और विशेष रूप से गृहस्थों को वर्णाश्रम धर्म के रूप में सदाचरण का पाठ सिखाया।

55 सीतादेवी अत्यन्त विनीत, आज्ञाकारिणी, लज्जाशील तथा सत्यवती थीं और सदा अपने पति के भाव को समझने वाली थीं। अपने चरित्र, प्रेम तथा सेवा से सीतादेवी ने भगवान के मन को मोहित कर लिया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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