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अध्याय पन्द्रह – भगवान का योद्धा अवतार, परशुराम (9.15)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, पुरुरवा ने उर्वशी के गर्भ से छह पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे – आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय तथा जय।

2-3 श्रतायु का पुत्र वसुमन हुआ, सत्यायु का पुत्र श्रुतंजय हुआ, रय के पुत्र का नाम एक था, जय का पुत्र अमित था और विजय का पुत्र भीम हुआ। भीम का पुत्र कांचन, कांचन का पुत्र होत्रक और होत्रक का पुत्र जह्व था जिसने एक ही घूँट में गंगा का सारी पानी पी लिया था।

4 जह्व का पुत्र पुरु था, पुरु का बलाक, बलाक का अजक और अजक का पुत्र कुश हुआ। कुश के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे कुशाम्बुज, तनय, वसु तथा कुशनाभ। कुशाम्बुज का पुत्र गाधि था।

5-6 गाधि के एक पुत्री थी जिसका नाम सत्यवती था जिससे विवाह करने के लिए ऋचीक नामक ब्रह्मर्षि ने राजा से विनती की। किन्तु राजा गाधि ने इस ब्रह्मर्षि को अपनी पुत्री के लिए अयोग्य पति समझ कर उससे कहा, महोदय, मैं कुशवंशी हूँ। चूँकि हम लोग राजसी क्षत्रिय हैं अतएव आपको मेरी पुत्री के लिए कुछ दहेज देना होगा। अतः आप कम से कम एक हजार ऐसे घोड़े लायें जो चाँदनी की तरह उज्जवल हों और जिनके एक कान दायाँ या बायाँ, काला हो।

7 जब राजा गाधि ने यह माँग प्रस्तुत की तो महर्षि ऋचीक को राजा के मन की बात समझ में आ गई। अतएव वह वरुणदेव के पास गया और वहाँ से गाधि द्वारा माँगे गये एक हजार घोड़े ले आया। इन घोड़ों को भेंट करके मुनि ने राजा की सुन्दर पुत्री के साथ विवाह कर लिया।

8 तत्पश्चात ऋचीक मुनि की पत्नी तथा सास दोनों ने पुत्र की इच्छा से मुनि से प्रार्थना की कि वह चरु (आहुति) तैयार करे। तब मुनि ने अपनी पत्नी के लिए ब्राह्मण मंत्र से एक चरु और क्षत्रिय मंत्र से अपनी सास के लिए एक अन्य चरु तैयार किया। फिर वह स्नान करने चला गया।

9 इसी बीच सत्यवती की माता ने सोचा कि उसकी पुत्री के लिए तैयार की गई चरु अवश्य ही श्रेष्ठ होगी अतएव उसने अपनी पुत्री से वह चरु माँग ली। सत्यवती ने वह चरु अपनी माता को दे दी और स्वयं अपनी माता की चरु खा ली।

10 जब ऋषि ऋचीक स्नान करके घर लौटे और उन्हें यह पता लगा कि उनकी अनुपस्थिति में क्या घटना घटी है तो उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती से कहा, “तुमने बहुत बड़ी भूल की है। तुम्हारा पुत्र कट्टर क्षत्रिय होगा, जो हर एक को दण्ड दे सकेगा और तुम्हारा भाई अध्यात्म विद्या का पण्डित होगा।"

11 किन्तु सत्यवती ने मधुर वचनो से ऋचीक मुनि को शान्त किया और प्रार्थना की कि उसका पुत्र क्षत्रिय की तरह भयंकर न हो। ऋचीक मुनि ने उत्तर दिया, “तो तुम्हारा पौत्र क्षत्रिय गुणवाला होगा।" इस प्रकार सत्यवती के पुत्र रूप में जमदग्नि का जन्म हुआ।

12-13 बाद में सत्यवती समस्त संसार को पवित्र करने वाली कौशिकी नामक पुण्य नदी बन गई और उसके पुत्र जमदग्नि ने रेणु की पुत्री रेणुका से विवाह किया। रेणुका के गर्भ से वासुमान इत्यादि कई पुत्र हुए जिनमें से राम या परशुराम सबसे छोटा था।

14 विद्वान लोग इस परशुराम को भगवान वासुदेव का विख्यात अवतार मानते हैं जिसने कार्तवीर्य के वंश का विनाश किया। परशुराम ने पृथ्वी के सभी क्षत्रियों का इक्कीस बार वध किया।

15 जब राजवंश रजो तथा तमोगुणों के कारण अत्यधिक गर्वित होकर अधार्मिक बन गया और ब्राह्मणों द्वारा बनाये गये नियमों की उनको कोई परवाह नहीं रही तो परशुराम ने उन सबको मार डाला। यद्यपि उनके अपराध बड़े न थे, किन्तु धरती का भार कम करने के लिए उन्होंने उन्हें मार डाला।

16 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: अपनी इन्द्रियों को वश में रख न सकने वाले राजाओं का वह कौनसा अपराध था जिसके कारण भगवान के अवतार परशुराम ने क्षत्रियवंश का बारम्बार विनाश किया?

17-19 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: क्षत्रियश्रेष्ठ हैहयराज कार्तवीर्यार्जुन ने भगवान नारायण के स्वांश दत्तात्रेय की पूजा करके एक हजार भुजाएँ प्राप्त कीं। वह शत्रुओं द्वारा अपराजेय बन गया और उसे अव्याहत इन्द्रिय शक्ति, सौन्दर्य, प्रभाव, बल, यश तथा अणिमा, लघिमा जैसी आठ योग सिद्धियाँ प्राप्त करने की योग शक्ति मिल गई। इस तरह पूर्ण ऐश्वर्यशाली बनकर वह सारे संसार में वायु की तरह बेरोकटोक घूमने लगा।

20 एक बार नर्मदा नदी के जल में क्रीड़ा करते हुए सुन्दरी स्त्रियों से घिरे एवं विजय की माला धारण किये हुए गर्वोन्नत कार्तवीर्यार्जुन ने अपनी बाँहों से जल के प्रवाह को रोक दिया।

21 चूँकि कार्तवीर्यार्जुन ने जलप्रवाह की दिशा पलट दी थी अतः नर्मदा नदी के तट पर महिष्मती नगर के निकट लगा रावण का खेमा जलमग्न हो गया। यह दस सिरों वाले रावण के लिए असह्य हो उठा क्योंकि वह अपने को महान वीर मानता था और वह कार्तवीर्यार्जुन के बल को सहन नहीं कर सका।

22 जब रावण ने स्त्रियों के समक्ष कार्तवीर्यार्जुन का अपमान करना चाहा और उसे नाराज कर दिया तो उसने रावण को खेल-खेल में उसी प्रकार बन्दी बनाकर महिष्मती नगर के कारागार में डाल दिया जिस प्रकार कोई बन्दर को पकड़ ले। बाद में उसने उपेक्षापूर्ण भाव से उसे मुक्त कर दिया।

23 एक बार जब कार्तवीर्यार्जुन बिना किसी कार्यक्रम के एकान्त जंगल में घूमकर शिकार कर रहा था तो वह जमदग्नि के आश्रम के निकट पहुँचा।

24 जंगल में कठिन तपस्या में रत ऋषि जमदग्नि ने सैनिकों, मंत्रियों तथा पालकी वाहकों समेत राजा का अच्छी तरह स्वागत किया। उन्होंने इन अतिथियों को पूजा करने की सारी सामग्री जुटाई क्योंकि उनके पास कामधेनु गाय थी जो हर वस्तु प्रदान करने में सक्षम थी।

25 कार्तवीर्यार्जुन ने सोचा कि जमदग्नि उसकी तुलना में अधिक शक्तिशाली एवं सम्पन्न है क्योंकि उसके पास कामधेनु रूपी रत्न है अतएव उसने तथा उसके हैहयजनों ने जमदग्नि के सत्कार की अधिक प्रशंसा नहीं की। उल्टे, वे उस कामधेनु को लेना चाहते थे जो अग्निहोत्र यज्ञ के लिए लाभदायक थी।

26 भौतिक शक्ति से गर्वित कार्तवीर्यार्जुन ने अपने व्यक्तियों को जमदग्नि की कामधेनु चुरा लेने के लिए उकसाया। फलतः वे व्यक्ति रोती-विलपति कामधेनु गाय को उसके बछड़े समेत बलपूर्वक कार्तवीर्यार्जुन की राजधानी महिष्मती ले आये।

27 जब कामधेनु सहित कार्तवीर्यार्जुन चला गया तो जमदग्नि का सबसे छोटा पुत्र परशुराम आश्रम में लौटा। जब उसने कार्तवीर्यार्जुन के दुष्कृत्य के विषय में सुना तो वह कुचले हुए साँप की तरह क्रुद्ध हो उठा।

28 अपना भयानक फरसा, ढाल, धनुष तथा तरकस लेकर अत्यधिक क्रुद्ध परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन का पीछा किया जिस तरह कोई सिंह हाथी का पीछा करता है।

29 अभी राजा कार्तवीर्यार्जुन अपनी राजधानी महिष्मती पुरी में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने भृगुवंशियों में श्रेष्ठ भगवान परशुराम को फरसा, ढाल, धनुष तथा बाण लिए अपना पीछा करते देखा। परशुरामजी ने काले हिरण की खाल पहन रखी थी और उनका जटाजूट सूर्य के तेज जैसा प्रतीत हो रहा था।

30 परशुराम को देखते ही कार्तवीर्यार्जुन डर गया और उसने उनसे युद्ध करने के लिए तुरन्त ही अनेक हाथी, रथ, घोड़े तथा पैदल सैनिक भेजे जो गदा, तलवार, बाण, ऋष्टि, शतघ्नी, शक्ति इत्यादि विविध हथियारों से युक्त थे। उसने परशुराम को रोकने के लिए पूरे सत्रह अक्षौहिणी सैनिक भेजे, किन्तु भगवान परशुराम ने अकेले ही सबों का सफाया कर दिया।

31 शत्रु की सेना को मारने में दक्ष भगवान परशुराम ने मन तथा वायु की गति से काम करते हुए अपने फरसे से शत्रुओं के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। वे जहाँ-जहाँ गये सारे शत्रु खेत होते रहे, उनके पाँव, हाथ तथा धड़ अलग-अलग हो गये, उनके सारथी मार डाले गये और वाहन, हाथी तथा घोड़े सभी विनष्ट कर दिये गये।

32 अपने फरसे तथा बाणों को व्यवस्थित करके परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन के सिपाहियों की ढालों, झण्डों, धनुषों तथा उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले जो युद्धभूमि में गिर गये और जिनके रक्त से भूमि पंकिल (कीचड़ से युक्त) हो गई। अपनी पराजय होते देखकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर कार्तवीर्यार्जुन युद्धभूमि की ओर लपका।

33 तब कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम को मारने के लिए एक हजार भुजाओं में एकसाथ पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ा लिए। किन्तु श्रेष्ठ योद्धा भगवान परशुराम ने एक ही धनुष से इतने बाण छोड़े कि कार्तवीर्यार्जुन के हाथों के सारे धनुष तथा बाण तुरन्त कटकर टुकड़े-टुकड़े हो गये।

34 जब कार्तवीर्यार्जुन के बाण छिन्न-भिन्न हो गये तो उसने अपने हाथों से अनेक वृक्ष तथा पर्वत उखाड़ लिए और वह फिर से परशुराम को मारने के लिए उनकी ओर तेजी से दौड़ा। किन्तु परशुराम ने अपने फरसे से अत्यन्त वेग से कार्तवीर्यार्जुन की भुजाएँ काट लीं जिस तरह कोई सर्प के फनों को काट ले।

35-36 तत्पश्चात परशुराम ने बाँह-कटे कार्तवीर्यार्जुन के सिर को पर्वतशृंग के समान काट दिया। जब कार्तवीर्यार्जुन के दस हजार पुत्रों ने अपने पिता को मारा गया देखा तो वे सब डर के मारे भाग गये। तब शत्रु का वध करके परशुराम ने कामधेनु को छुड़ाया, जिसे काफी कष्ट मिल चुका था, वे उसे बछड़े समेत घर ले आये तथा अपने पिता जमदग्नि को सौंप दिया।

37 परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन के वध सम्बन्धी अपने कार्यकलापों का वर्णन अपने पिता तथा भाइयों से किया। इन कार्यों को सुनकर जमदग्नि अपने पुत्र से इस प्रकार बोले।

38 हे वीर, हे पुत्र परशुराम, तुमने व्यर्थ ही राजा को मार डाला है क्योंकि वह सारे देवताओं का मूर्तरूप माना जाता है। इस प्रकार तुमने पाप किया है।

39 हे पुत्र, हम सभी ब्राह्मण हैं और अपनी क्षमाशीलता के कारण जनसामान्य के लिए पूज्य बने हुए हैं। इस गुण के कारण ही इस ब्रह्माण्ड के परम गुरु ब्रह्माजी को उनका पद प्राप्त हुआ है।

40 ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे क्षमाशीलता के गुण का संवर्धन करें क्योंकि यह सूर्य के समान तेजोमय है। भगवान हरि क्षमाशील व्यक्तियों से प्रसन्न होते हैं।

41 हे प्रिय पुत्र, एक सम्राट का वध ब्राह्मण की हत्या से भी अधिक पापमय है। किन्तु अब यदि तुम कृष्णभावनाभावित होकर तीर्थस्थलों की पूजा करो तो इस महापाप का प्रायश्चित हो सकता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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