हिन्दी भाषी संघ (237)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।। 34 ।।

तत्– विभिन्न यज्ञों के उस ज्ञान को;विद्धि– जानने का प्रयास करो;प्रणिपातेन– गुरु के पास जाकर के;परिप्रश्नेन– विनीत जिज्ञासा से;सेवया– सेवा के द्वारा;उपदेक्ष्यन्ति– दीक्षित करेंगे;ते– तुमको;ज्ञानम्– ज्ञान में;ज्ञानिनः– स्वरुपसिद्ध;तत्त्व– तत्त्व के;दर्शिनः– दर्शी।

भावार्थ: तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।। 13 ।।

चातुः-वर्ण्यम्– मानव समाज के चार विभाग;मया– मेरे द्वारा;सृष्टम्– उत्पन्न किये हुए;गुण– गुण;कर्म- तथा कर्म का;विभागशः– विभाजन के अनुसार;तस्य– उसका;कर्तारम्– जनक;अपि– यद्यपि;माम्– मुझको;विद्धि– जानो;अकर्तारम्– न करने के रूप में;अव्ययम्- अपरिवर्तनीय को।

भावार्थ : प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।। 11 ।।

 ये– जो;यथा– जिस तरह;माम्– मेरी;प्रपद्यन्ते– शरण में जाते हैं;तान्– उनको;तथा– उसी तरह;एव– निश्चय ही;भजामि– फल देता हूँ;अहम्– मैं;मम– मेरे;वर्त्म– पथ का;अनुवर्तन्ते– अनुगमन करते हैं;मनुष्याः– सारे मनुष्य;पार्थ– हे पृथापुत्र;सर्वशः– सभी प्रकार से।

भावार्थ : जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे प
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ।। 10 ।।

वीत– मुक्त;राग– आसक्ति;भय– भय;क्रोधाः– तथा क्रोध से;मत्-मया– पूर्णतया मुझमें;माम्– मुझमें;उपाश्रिताः– पूर्णतया स्थित;बहवः– अनेक;ज्ञान– ज्ञान की;तपसा– तपस्या से;पूताः– पवित्र हुआ;मत्-भावम्– मेरे प्रति दिव्य प्रेम को;आगताः– प्राप्त।

भावार्थ : आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ।। 10 ।।

वीत– मुक्त;राग– आसक्ति;भय– भय;क्रोधाः– तथा क्रोध से;मत्-मया– पूर्णतया मुझमें;माम्– मुझमें;उपाश्रिताः– पूर्णतया स्थित;बहवः– अनेक;ज्ञान– ज्ञान की;तपसा– तपस्या से;पूताः– पवित्र हुआ;मत्-भावम्– मेरे प्रति दिव्य प्रेम को;आगताः– प्राप्त।

भावार्थ : आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोSर्जुन।। 9 ।।

जन्म– जन्म;कर्म– कर्म;– भी;मे– मेरे;दिव्यम्– दिव्य;एवम्– इस प्रकार;यह– जो कोई;वेत्ति– जानता है;तत्त्वतः– वास्तविकता में;त्यक्त्वा– छोड़कर;देहम्– इस शरीर को;पुनः– फिर;जन्म– जन्म;– कभी नहीं;एति– प्राप्त करता है;माम्– मुझको;एति– प्राप्त करता है;सः– वह;अर्जुन– हे अर्जुन।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जा
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।। 2।।

एवम्– इस प्रकार;परम्परा– गुरु-परम्परा से;प्राप्तम्– प्राप्त;इमम्– इस विज्ञान को;राज-ऋषयह– साधू राजाओं ने;विदुः– जाना;सः– वह ज्ञान;कालेन– कालक्रम में;इह– इस संसार में;महता– महान;योगः– परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, योगविद्या;नष्टः– छिन्न-भिन्न हो गया;परन्तप– हे शत्रुओं को दमन करने वाले, अर्जुन।

भावार्थ: इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प
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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय तीन कर्मयोग

श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥ 37

श्री-भगवान् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा;कामः– विषयवासना;एषः– यह;क्रोधः– क्रोध;एषः– यः;रजो-गुण– रजोगुण से;समुद्भवः– उत्पन्न;महा-अशनः– सर्वभक्षी;महा-पाप्मा– महान पापी;विद्धि– जानो;एनम्– इसे;इह– इस संसार में;वैरिणम्– महान शत्रु।

भावार्थ : श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और

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श्रील प्रभुपाद की जय हो ! (All Glories to Sril Prabhupada)

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अध्याय तेरह – श्रीमद भागवत की महिमा (12.13)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र तथा मरुतगण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद-क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते है

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अध्याय बारह – श्रीमदभागवत की संक्षिप्त विषय-सूची (12.12)

"भगवान हरि उस व्यक्ति का सारा कष्ट स्वयं हर लेते हैं, जो उनकी महिमा का श्रवण/कीर्तन करता है ।"

1 सूत गोस्वामी ने कहा: परम धर्म भक्ति को, परम स्रष्टा भगवान कृष्ण को तथा समस्त ब्राह्मणों को नमस्कार करके, अब मैं धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा।

2 हे ऋषियों, मैं आप लोगों से भगवान विष्णु की अद्भुत लीलाएँ कह चुका हूँ, क्योंकि आप लोगों ने इनके विषय में मुझसे पूछा था। ऐसी कथाओं का सुनना उस व्यक्ति के लिए उचित है, जो वास्तव में मानव है।

3

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अध्याय ग्यारह – महापुरुष का संक्षिप्त वर्णन (12.11)

1 श्री शौनक ने कहा: हे सूत, आप सर्वश्रेष्ठ विद्वान तथा भगवद्भक्त हैं। अतएव अब हम आपसे समस्त तंत्र शास्त्रों के अन्तिम निर्णय के विषय में पूछते हैं।

2-3 आपका कल्याण हो, कृपा करके हम जिज्ञासुओं को लक्ष्मीपति दिव्य भगवान की नियमित पूजा द्वारा सम्पन्न की जानेवाली क्रिया योग विधि बतायें। कृपा करके यह भी बतलायें कि भक्तगण उनके अंगों, संगियों, आयुधों तथा आभूषणों की किन विशेष भौतिक वस्तुओं से कल्पना करते हैं। भगवान की दक्षतापूर्वक पूजा करके मर्त्य प्राण

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अध्याय दस – शिवजी तथा उमा द्वारा मार्कण्डेय ऋषि का गुणगान (12.10)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: भगवान नारायण के द्वारा नियोजित मोहमयी शक्ति के ऐश्वर्यशाली प्रदर्शन का अनुभव करके मार्कण्डेय ऋषि ने भगवान की शरण ग्रहण की।

2 श्री मार्कण्डेय ने कहा: हे भगवान हरि, शरण ग्रहण करनेवालों को अभय दान देने वाले आपके चरणकमलों के तलवों की, मैं शरण ग्रहण करता हूँ। बड़े-बड़े देवता भी आपकी माया से मोहित रहते हैं जो ज्ञान के रूप में उनके समक्ष प्रकट होती है।

3 सूत गोस्वामी ने कहा: एक बार जब भगवान शिवजी – माता पार्वती सहित

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अध्याय नौ – मार्कण्डेय ऋषि को भगवान की मायाशक्ति के दर्शन (12.9)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: नर के मित्र भगवान नारायण, बुद्धिमान मुनि मार्कण्डेय द्वारा की गई उपयुक्त स्तुति से तुष्ट हो गये। अतएव वे उन श्रेष्ठ भृगुवंशी से बोले।

2 भगवान ने कहा: हे मार्कण्डेय, तुम समस्त विद्वान ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हो। तुमने अविचल भक्ति, तपस्या, वेदाध्ययन एवं विधि-विधानों द्वारा परमात्मा पर ध्यान स्थिर करके अपने जीवन को सफल बना लिया है।

3 हम तुम्हारे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत से पूर्णतया संतुष्ट हैं, तुम्हारा कल्याण हो। मै

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अध्याय आठ – मार्कण्डेय द्वारा नर-नारायण ऋषि की स्तुति (12.8)

1 श्री शौनक ने कहा: हे सूत, आप दीर्घायु हों। हे साधु, हे वक्ताओं में श्रेष्ठ, आप हमसे इसी तरह बोलते रहें। निस्सन्देह, आप ही मनुष्यों को उस अज्ञान से निकलने का मार्ग दिखा सकते हैं जिसमें वे विचरण कर रहे हैं।

2-5 विद्वानों का कहना है कि मृकण्डु के पुत्र मार्कण्डेय ऋषि, अति दीर्घ आयु वाले मुनि थे और ब्रह्मा के दिन के अन्त होने पर वे ही एकमात्र बचे हुए थे जबकि सारा ब्रह्माण्ड प्रलय की बाढ़ में जलमग्न हुआ था। किन्तु यही मार्कण्डेय ऋषि, जोकि भ

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अध्याय सात – पौराणिक साहित्य (12.7)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: सुमन्तु ऋषि, ने अथर्ववेद संहिता अपने शिष्य कबन्ध को पढ़ाई और उन्होंने इसे पाठ्य और वेददर्श से कही।

2 शौक्लायनी, ब्रह्मवलि, मोदोष तथा पिप्पलायनि वेददर्श के शिष्य थे। मुझसे पथ्य के भी शिष्यों के नाम सुनो। हे ब्राह्मण, वे हैं-कुमुद, शुनक तथा जाजलि। वे सभी अथर्ववेद को अच्छी तरह जानते थे।

3 बभ्रु तथा सैंधवायन नामक शुनक के शिष्यों ने अपने गुरु द्वारा संकलित अथर्ववेद के दो भागों का अध्ययन किया। सैंधवायन के शिष्य सावर्ण तथा अन्य ऋषियों के शिष्यों

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अध्याय छह - महाराज परीक्षित का निधन (12.6)

1 सूत गोस्वामी ने कहा: व्यासदेव के पुत्र, स्वरूपसिद्ध तथा समदृष्टि वाले श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा जो कहा गया था उसे सुनकर महाराज परीक्षित नम्रतापूर्वक उनके चरणकमलों के पास गये। मुनि के चरणों पर अपना शीश झुकाते हुए, हाथ जोड़े, जीवन-भर भगवान विष्णु के संरक्षण में रह चुके राजा परीक्षित ने इस प्रकार कहा।

2 महाराज परीक्षित ने कहा: आपने आदि तथा अन्त से रहित भगवान हरि की यह कथा सुना कर मुझ पर इतनी महती कृपा प्रदर्शित की है कि मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त

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अध्याय पाँच – महाराज परीक्षित को श्रील शुकदेव गोस्वामी का अन्तिम उपदेश (12.5)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस श्रीमदभागवत की विविध कथाओं में भगवान हरि का विस्तार से वर्णन हुआ है जिनके प्रसन्न होने पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं और उनके क्रोध से रुद्र का जन्म होता है।

2 हे राजन, तुम यह सोचने की पशु-मनोवृत्ति कि, “मैं मरने जा रहा हूँ" त्याग दो। तुम शरीर से सर्वथा भिन्न हो क्योंकि तुमने जन्म नहीं लिया है। विगतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब तुम नहीं थे और तुम विनष्ट होनेवाले भी नहीं हो।

3 तुम अपने

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अध्याय चार – ब्रह्माण्ड के प्रलय की चार कोटियाँ (12.4)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, मैं पहले ही तुम्हें एक परमाणु की गति से मापे जाने वाले सबसे छोटे अंश से लेकर ब्रह्मा की कुल आयु तक काल की माप बतला चुका हूँ। मैंने ब्रह्माण्ड के इतिहास के विभिन्न युगों की माप भी बतला दी है। अब ब्रह्मा के दिन तथा प्रलय की प्रक्रिया के विषय में सुनो।

2 चार युगों के एक हजार चक्रों से ब्रह्मा का एक दिन होता है, जो कल्प कहलाता है। हे राजा, इस अवधि में चौदह मनु आते-जाते हैं।

3 ब्रह्मा के एक दिन के बाद, उनकी

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भूमि गीत (12.3)

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अध्याय तीन – भूमि गीत (12.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस जगत के राजाओं को अपने पर विजय प्राप्त करने के प्रयास में जुटे देखकर, पृथ्वी हँसने लगी। उसने कहा: “जरा देखो तो इन राजाओं को जो मृत्यु के हाथों में खिलौनों जैसे हैं, मुझ पर विजय पाने की इच्छा कर रहे हैं।"

2 मनुष्यों के महान शासक जो कि विद्वान भी हैं, भौतिक कामेच्छा के कारण हताशा तथा असफलता को प्राप्त होते हैं। ये राजा काम से प्रेरित होकर, मांस के मृत पिण्ड में, जिसे हम शरीर कहते हैं, अत्यधिक आशा तथा श्रद्धा रखते हैं यद्यपि भौतिक ढाँचा

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अध्याय दो – कलियुग के लक्षण (12.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, तब कलियुग के प्रबल प्रभाव से धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, शारीरिक बल तथा स्मरणशक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होते जायेंगे।

2 कलियुग में एकमात्र सम्पत्ति को ही मनुष्य के उत्तम जन्म, उचित व्यवहार तथा उत्तम गुणों का लक्षण माना जायेगा। कानून तथा न्याय तो मनुष्य के बल के अनुसार ही लागू होंगे।

3 पुरुष तथा स्त्रियाँ केवल ऊपरी आकर्षण के कारण एकसाथ रहेंगे और व्यापार की सफलता कपट पर निर्भर करेगी। पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व का निर्ण

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