अध्याय पाँच – दुर्वासा मुनि को जीवन-दान (9.5)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान विष्णु ने दुर्वासा मुनि को इस प्रकार सलाह दी तो सुदर्शन चक्र से अत्यधिक उत्पीड़ित मुनि तुरन्त ही महाराज अम्बरीष के पास पहुँचे। अत्यन्त दुखित होने के कारण वे राजा के समक्ष लोट गये और उनके चरणकमलों को पकड़ लिया।
2 जब दुर्वासा मुनि ने महाराज अम्बरीष के पाँव छुए तो वे अत्यन्त लज्जित हो उठे और जब उन्होंने यह देखा कि दुर्वासा उनकी स्तुति करने का प्रयास कर रहे हैं तो वे दयावश और भी अधिक सन्तप्त हो उठे। अतः उन्होंने तुरन्त ही भगवान के महान अस्त्र की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।
3 महाराज अम्बरीष ने कहा: हे सुदर्शन चक्र, तुम अग्नि हो, तुम परम शक्तिमान सूर्य हो तथा तुम सारे नक्षत्रों के स्वामी चन्द्रमा हो। तुम जल, पृथ्वी तथा आकाश हो, तुम पाँचों इन्द्रियविषय (ध्वनि, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गन्ध) हो और तुम्हीं इन्द्रियाँ भी हो।
4 हे भगवान अच्युत के परम प्रिय, तुम एक हजार अरों वाले हो। हे संसार के स्वामी, समस्त अस्त्रों के विनाशकर्ता, भगवान की आदि दृष्टि, मैं तुमको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपा करके इस ब्राह्मण को शरण दो तथा इसका कल्याण करो।
5 हे सुदर्शन चक्र, तुम धर्म हो, तुम सत्य हो, प्रेरणाप्रद कथन हो, यज्ञ हो तथा तुम्हीं यज्ञ-फल के भोक्ता हो। तुम अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता भगवान के हाथों में परम दिव्य तेज हो। तुम भगवान की मूल दृष्टि हो; अतएव तुम सुदर्शन कहलाते हो। सभी वस्तुएँ तुम्हारे कार्यकलापों से उत्पन्न की हुई हैं, अतएव तुम सर्वव्यापी हो।
6 हे सुदर्शन, तुम्हारी नाभि अत्यन्त शुभ है, अतएव तुम धर्म की रक्षा करने वाले हो। तुम अधार्मिक असुरों के लिए अशुभ पुच्छल तारे के समान हो। निस्सन्देह, तुम्हीं तीनों लोकों के पालक हो। तुम दिव्य तेज से पूर्ण हो, तुम मन के समान तीव्रगामी हो और अद्भुत कर्म करने वाले हो। मैं केवल नमः शब्द कहकर तुम्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
7 हे वाणी के स्वामी, धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्ण तुम्हारे तेज से संसार का अंधकार दूर हो जाता है और विद्वान पुरुषों या महात्माओं का ज्ञान प्रकट होता है। निस्सन्देह, कोई तुम्हारे तेज का पार नहीं पा सकता क्योंकि सारी वस्तुएँ, प्रकट अथवा अप्रकट, स्थूल अथवा सूक्ष्म, उच्च अथवा निम्न हों आपके तेज द्वारा प्रकट होने वाले आपके विभिन्न रूप ही हैं।
8 हे अजित, जब तुम भगवान द्वारा दैत्यों तथा दानवों के सैनिकों के बीच प्रवेश करने के लिए भेजे जाते हो तो तुम युद्धस्थल पर डटे रहते हो और निरन्तर उनके हाथों, पेट, जाँघों, पाँवों तथा सिर को विलग करते रहते हो।
9 हे विश्व के रक्षक, भगवान ईर्ष्यालु शत्रुओं को मारने के लिए तुमको अपने सर्वशक्तिशाली अस्त्र के रूप में प्रयोग करते हैं। हमारे सम्पूर्ण वंश के लाभ हेतु कृपया इस दीन ब्राह्मण पर दया कीजिये। निश्चय ही यह हम सब पर कृपा होगी।
10 यदि हमारे परिवार ने सुपात्रों को दान दिया है, कर्मकाण्ड तथा यज्ञ सम्पन्न किये हैं, अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों को ठीक से पूरा किया है और विद्वान ब्राह्मणों द्वारा मार्गदर्शन पाते रहे हैं तो मैं चाहूँगा कि उनके बदले में इस ब्राह्मण को आपके द्वारा उत्पन्न ताप से मुक्त कर दिया जाय।
11 यदि समस्त दिव्य गुणों के आगार तथा समस्त जीवों के प्राण तथा आत्मा अद्वितीय परमेश्वर हम पर प्रसन्न हैं तो हम चाहेंगे कि यह ब्राह्मण दुर्वासा मुनि दहन की पीड़ा से मुक्त हो जाय।
12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब राजा ने सुदर्शन चक्र एवं भगवान विष्णु की स्तुति की तो स्तुतियों के कारण सुदर्शन चक्र शान्त हुआ और उसने दुर्वासा मुनि नाम के इस ब्राह्मण को दहकाना बन्द कर दिया।
13 सुदर्शन चक्र की अग्नि से मुक्त किये जाने पर अति शक्तिशाली योगी दुर्वासा मुनि प्रसन्न हुए। तब उन्होंने महाराज अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उन्हें उत्तमोत्तम आशीष दिये।
14 दुर्वासा मुनि ने कहा: हे राजन, आज मैंने भगवान के भक्तों की महानता का अनुभव किया क्योंकि मेरे अपराधी होने पर भी आपने मेरे सौभाग्य के लिए प्रार्थना की।
15 जिन लोगों ने शुद्ध भक्तों के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्राप्त कर लिया है उनके लिए क्या करना असम्भव है और क्या त्यागना असम्भव है?
16 भगवान के दासों के लिए क्या असम्भव है? भगवान का पवित्र नाम सुनने मात्र से ही मनुष्य शुद्ध हो जाता है।
17 हे राजन, आपने मेरे अपराधों को अनदेखा करके मेरा जीवन बचाया है। इस तरह मैं आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ क्योंकि आप इतने दयावान हैं।
18 राजा ने दुर्वासा मुनि की वापसी की आशा से स्वयं भोजन नहीं किया था। अतएव जब मुनि लौटे तो राजा उनके चरणकमलों पर गिर पड़ा और उन्हें सभी प्रकार से तुष्ट करके भरपेट भोजन कराया।
19 इस प्रकार राजा ने बड़े आदर के साथ दुर्वासा मुनि का स्वागत किया। वे नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाकर इतने संतुष्ट हुए कि उन्होंने बड़े ही स्नेह के साथ राजा से भी खाने के लिए प्रार्थना की “कृपया भोजन ग्रहण करें।”
20 दुर्वासा मुनि ने कहा: हे राजन मैं आपसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। पहले मैंने आपको एक सामान्य व्यक्ति समझकर आपका आतिथ्य स्वीकार किया था, किन्तु बाद में अपनी बुद्धि से मैं समझ सका कि आप भगवान के अत्यन्त महान भक्त हैं। इसलिए मात्र आपके दर्शन और आपके चरणस्पर्श से तथा आपसे बातें करके मैं संतुष्ट हो गया हूँ और आपका अत्यन्त कृतज्ञ हो गया हूँ।
21 स्वर्गलोक की सारी सौभाग्यशाली स्त्रियाँ प्रतिक्षण आपके निर्मल चरित्र का गान करेंगी और इस संसार के लोग भी आपकी महिमा का निरन्तर कीर्तन करेंगे।
22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार सब तरह से संतुष्ट होकर महान योगी दुर्वासा मुनि ने अनुमति ली और वे राजा का निरन्तर यशोगान करते हुए वहाँ से चले गये। वे आकाश मार्ग से ब्रह्मलोक गये जो शुष्क ज्ञानियों से रहित है।
23 दुर्वासा मुनि महाराज अम्बरीष के स्थान से चले गये थे और जब तक वे वापस नहीं लौटे – पूरे एक वर्ष तक – तब तक राजा केवल जल पीकर उपवास करते रहे।
24 एक वर्ष बाद जब दुर्वासा मुनि लौटे तो राजा अम्बरीष ने उन्हें सभी प्रकार के व्यंजन भरपेट खिलाये और तब स्वयं भी भोजन किया। जब राजा ने देखा कि दुर्वासा दग्ध होने के महान संकट से मुक्त हो चुके हैं तो वे यह समझ सके कि भगवान की कृपा से वे स्वयं भी शक्तिमान हैं, किन्तु उन्होंने इसका श्रेय अपने को नहीं दिया क्योंकि यह सब भगवान ने किया था।
25 इस प्रकार अपनी भक्ति के कारण नाना प्रकार के दिव्य गुणों से युक्त महाराज अम्बरीष ब्रह्म, परमात्मा तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से भलीभाँति अवगत हो गये और सम्यक रीति से भक्ति करने लगे। अपनी भक्ति के कारण उन्हें इस भौतिक जगत का सर्वोच्चलोक भी नरक तुल्य लगने लगा।
26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: तत्पश्चात भक्तिमय जीवन की उन्नत दशा के कारण अम्बरीष भौतिक वस्तुओं की किसी तरह से इच्छा न रखते हुए सक्रिय गृहस्थ जीवन से निवृत्त हो गये। उन्होंने अपनी सम्पत्ति अपने ही समान योग्य पुत्रों में बाँट दी और स्वयं वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार करके भगवान वासुदेव में अपना मन पूर्णतः एकाग्र करने के लिए जंगल चले गये।
27 जो कोई भी इस कथा को बार-बार पढ़ता है या महाराज अम्बरीष के कार्यकलापों से सम्बन्धित इस कथा का चिन्तन करता है वह अवश्य ही भगवान का शुद्ध भक्त बन जाता है।
28 भगवतकृपा से जो लोग महान भक्त महाराज अम्बरीष के कार्यकलापों के विषय में सुनते हैं, वे अवश्य ही मुक्त हो जाते हैं या तुरन्त भक्त बन जाते हैं।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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