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अध्याय तीन – सुकन्या तथा च्यवन मुनि का विवाह (9.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, मनु का दूसरा पुत्र राजा शर्याति वैदिक ज्ञान में पारंगत था। उसने अंगीर वंशियों द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञ के दूसरे दिन के उत्सवों के विषय में आदेश दिए।

2 शर्याति की सुकन्या नामक एक सुन्दर कमलनेत्री कन्या थी जिसके साथ वे जंगल में च्यवन मुनि के आश्रम को देखने गये।

3 जब वह सुकन्या जंगल में अपनी सहेलियों से घिरी हुई, वृक्षों से विविध प्रकार के फल एकत्र कर रही थी तो उसने बाँबी के छेद में दो जुगनू जैसी चमकीली वस्तुएँ देखीं।

4 मानो विधाता से प्रेरित होकर उस तरुणी ने बिना जाने उन दोनों जुगनुओं को एक काँटे से छेद दिया जिससे उनमें से रक्त फुटकर बाहर आने लगा।

5 उसके बाद ही शर्याति के सारे सैनिकों को तुरन्त ही मल-मूत्र में अवरोध होने लगा। यह देखकर शर्याति बड़े अचम्भे में आकर अपने संगियों से बोला।

6 यह कितनी विचित्र बात है कि हममें से किसी ने भृगुपुत्र च्यवन मुनि का कुछ अहित करने का प्रयास किया है। निश्चय ही, ऐसा लगता है कि हममें से किसी ने इस आश्रम को अपवित्र कर दिया है।

7 अत्यन्त भयभीत सुकन्या ने अपने पिता से कहा: मैंने कुछ गलती की है क्योंकि मैंने अज्ञानवश इन दो चमकीली वस्तुओं को काँटे से छेद दिया है।

8 अपनी पुत्री से यह सुनकर राजा शर्याति अत्यधिक डर गये। उन्होंने अनेक प्रकार से च्यवन मुनि को शान्त करने का प्रयत्न किया क्योंकि वे ही उस बाँबी के छेद के भीतर बैठे थे।

9 अत्यन्त विचारमग्न होकर और च्यवन मुनि के प्रयोजन को समझकर राजा शर्याति ने मुनि को अपनी कन्या दान में दे दी। इस प्रकार बड़ी मुश्किल से संकट से मुक्त होकर उसने च्यवन मुनि से अनुमति ली और वह घर लौट गया।

10 च्यवन मुनि अत्यन्त क्रोधी थे, किन्तु क्योंकि सुकन्या ने उन्हें पतिरूप में प्राप्त किया था, अतः उसने सावधानी से उनके मनोनुकूल व्यवहार किया एवं बिना घबराए उनकी सेवा की।

11 कुछ काल बीतने के बाद दोनों अश्विनीकुमार जो स्वर्गलोक के वैद्य थे, च्यवन मुनि के आश्रम पधारे। उनका सत्कार करने के बाद च्यवन मुनि ने उनसे यौवन प्रदान करने के लिए प्रार्थना की क्योंकि वे ऐसा करने में सक्षम थे।

12 च्यवन मुनि ने कहा: यद्यपि तुम दोनों यज्ञ में सोमरस पीने के पात्र नहीं हो, किन्तु मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें सोमरस का पूरा कलश भरकर दूँगा। कृपा करके मेरे लिए सौन्दर्य तथा तरुणाई की व्यवस्था करो क्योंकि तरुणी स्त्रियों को ये आकर्षक लगते हैं।

13 उन महान वैद्य अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने उस ब्राह्मण से कहा "आप इस सिद्धिदायक झील में डुबकी लगाईये। (जो इस झील में नहाता है उसकी कामनाएँ पूरी होती हैं)

14 यह कहकर अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि को पकड़ा जो वृद्ध थे और जिनके रुग्ण शरीर की चमड़ी झूल रही थी, बाल सफ़ेद थे तथा सारे शरीर में नसें दिख रही थीं और वे तीनों उस सरोवर में घुस गये।

15 तत्पश्चात झील से तीन अत्यन्त सुन्दर स्वरूप वाले व्यक्ति ऊपर उठे। वे सुन्दर वस्त्र धारण किए थे और कुण्डलों तथा कमल की मालाओं से विभूषित तीनों ही समान सुन्दरता वाले थे।

16 साध्वी एवं अति सुन्दरी सुकन्या अपने पति एवं उन दोनों अश्विनीकुमारों में भेद न कर पाई क्योंकि वे समान रूप से सुन्दर थे। अतएव अपने असली पति को पहचान पाने में असमर्थ होने के कारण उसने अश्विनीकुमारों की शरण ग्रहण की।

17 दोनों अश्विनीकुमार सुकन्या के सतीत्व एवं निष्ठा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। अतः उन्होंने उसे उसके पति च्यवन मुनि को दिखलाया और फिर उनसे अनुमति लेकर वे अपने विमान से स्वर्गलोक को वापस लौट गये।

18 तत्पश्चात यज्ञ सम्पन्न करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आवास में गये। वहाँ उन्होंने अपनी पुत्री के बगल में सूर्य के समान तेजस्वी एक सुन्दर तरुण पुरुष को देखा।

19 राजा की पुत्री ने पिता के चरणों में वन्दना की, किन्तु राजा आशीष देने की बजाय, उससे अत्यधिक अप्रसन्न हुआ और इस प्रकार बोला।

20 हे दुष्ट लड़की, तुमने यह क्या कर दिया? तुमने अपने अत्यन्त सम्माननीय पति को धोखा दिया है क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि उसके वृद्ध, रोगग्रस्त तथा अनाकर्षक होने के कारण तुमने उसका साथ छोड़कर इस तरुण पुरुष को अपना पति बनाना चाहा है जो गली-कूचों का भिखारी जैसा प्रतीत होता है।

21 हे सम्माननीय कुल में उत्पन्न मेरी पुत्री, तुमने अपनी चेतना को किस तरह इतना नीचे गिरा दिया है? तुम किस तरह इतनी निर्लज्जतापूर्वक परपति को अपने हृदय में रख रही हो? इस तरह तुम अपने पिता तथा अपने पति दोनों के कुलों को नरक में धकेल कर बदनाम करोगी।

22 किन्तु अपने सतीत्व पर गर्वित सुकन्या अपने पिता की डॉट फटकार सुनकर मुस्काने लगी। उसने हँसते हुए कहा "हे पिता, मेरी बगल में बैठा यह तरुण व्यक्ति आपका असली दामाद, भृगुवंश में उत्पन्न, च्यवन मुनि ही है।"

23 तब सुकन्या ने बतलाया कि किस तरह उसके पति को तरुण पुरुष का सुन्दर शरीर प्राप्त हुआ। जब राजा ने इसे सुना तो वह अत्यधिक चकित हुआ और अत्यधिक हर्षित होकर उसने अपनी प्रिय पुत्री को गले से लगा लिया।

24 च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से राजा शर्याति से सोमयज्ञ सम्पन्न कराया। मुनि ने अश्विनीकुमारों को सोमरस का पूरा पात्र प्रदान किया यद्यपि वे इसे पीने के अधिकारी नहीं थे।

25 उद्विग्न एवं क्रुद्ध होने से इन्द्र ने च्यवन मुनि को मार डालना चाहा अतएव उसने बिना सोचे-विचारे अपना वज्र धारण कर लिया। लेकिन च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से इन्द्र की उस बाँह को संज्ञाशून्य कर दिया जिससे उसने वज्र पकड़ रखा था।

26 यद्यपि अश्विनीकुमार मात्र वैद्य थे और इसी कारण से उन्हें यज्ञों में सोमरस-पान से अलग रखा जाता था, किन्तु देवताओं ने इसके बाद उन्हें सोमरस पीने के लिए अनुमति प्रदान कर दी।

27 राजा शर्याति के उत्तानबर्हि, आनर्त तथा भूरिषेण नामक तीन पुत्र हुए। आनर्त के पुत्र का नाम रेवत था।

28 हे शत्रुओं के दमनकर्ता महाराज परीक्षित, इस रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नामक राज्य निर्माण कराया। वहाँ रहकर उसे आनर्त इत्यादि भूखण्डों पर शासन किया। उसके एक सौ सुन्दर पुत्र थे जिनमें सबसे बड़ा ककुद्भि था।

29 ककुद्भि अपनी पुत्री रेवती को लेकर ब्रह्मलोक में ब्रह्मा के पास गया जो भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं और उसके लिए पति के विषय में पूछताछ की ।

30 जब ककुद्भि वहाँ पहुँचा तो ब्रह्माजी गन्धर्वों का संगीत सुनने में व्यस्त थे और उन्हें बात करने की तनिक भी फुरसत न थी। अतएव ककुद्भि प्रतीक्षा करता रहा और संगीत समाप्त होने पर उसने ब्रह्माजी को नमस्कार करके अपनी चिरकालीन इच्छा व्यक्त की।

31 उसके वचन सुनकर शक्तिशाली ब्रह्माजी जोर से हँसे और ककुद्भि से बोले: हे राजा, तुमने अपने हृदय में जिन लोगों को अपना दामाद बनाने का निश्चय किया है वे कालक्रम से मर चुके हैं।

32 सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। तुमने जिन लोगों को रेवती का पति बनाना चाहा होगा वे अब सब चले गए हैं और उनके पुत्र, पौत्र तथा अन्य वंशज भी नहीं रहे हैं। अब तुम्हें उनके नाम भी नहीं सुनाई पड़ेंगे।

33 हे राजन, तुम यहाँ से जाओ और अपनी पुत्री भगवान बलदेव को अर्पित करो जो अभी भी उपस्थित हैं। वे अत्यन्त शक्तिशाली हैं। निस्सन्देह, वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं और उनके स्वांश विष्णु हैं। उन्हें दान में दिये जाने के लिए तुम्हारी पुत्री सर्वथा उपयुक्त है।

34 बलदेव भगवान हैं। जो कोई उनके विषय में श्रवण और उनका कीर्तन करता है वह पवित्र हो जाता है। चूँकि वे समस्त जीवों के सतत हितैषी हैं अतएव वे अपने सारे साज-सामान सहित सारे जगत को शुद्ध करने तथा इसका भार कम करने के लिए अवतरित हुए हैं।

35 ब्रह्माजी से यह आदेश पाकर ककुद्भि ने उन्हें नमस्कार किया और अपने निवासस्थान को लौट गया। तब उसने देखा कि उसका आवास रिक्त है, उसके भाई तथा अन्य कुटुम्बी उसे छोड़कर चले गए हैं और यक्षों जैसे उच्चतर जीवों के भय से वे समस्त दिशाओं में रह रहे हैं।

36 तत्पश्चात राजा ने अपनी सुन्दरी पुत्री परम शक्तिशाली बलदेव को दान में दे दी और सांसारिक जीवन से विरक्त होकर वह नर-नारायण को प्रसन्न करने के लिए बदरिकाश्रम चला गया।

( समर्पित एवं सेवारत -जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

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    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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