भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोSर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ 16 ॥
आ-ब्रह्म-भुवनात्– ब्रह्मलोक तक;लोकाः– सारे लोक;पुनः– फिर;आवर्तिनः– लौटने वाले;अर्जुन– हे अर्जुन;माम्– मुझको;उपेत्य– पाकर;तु– लेकिन;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;पुनःजन्म– पुनर्जन्म;न– कभी नहीं;विद्यते– होता है।
भावार्थ : इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
तात्पर्य : समस्त योगियों को चाहें वे कर्मयोगी हों, ज्ञानयोगी या हठयोगी – अन्ततः भक्तियोग या कृष्णभावनामृत में भक्ति की सिद्धि प्राप्त करनी होती है, तभी वे कृष्ण के दिव्य धाम को जा सकते हैं, जहाँ से वे फिर वापस नहीं आते। किन्तु जो सर्वोच्च भौतिक लोकों अर्थात् देवलोकों को प्राप्त होता है, उसका पुनर्जन्म होते रहता है। जिस प्रकार इस पृथ्वी के लोग उच्चलोकों को जाते हैं, उसी तरह ब्रह्मलोक, चन्द्रलोक तथा इन्द्रलोक जैसे उच्चतर लोकों से लोग पृथ्वी पर गिरते रहते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में जिस पञ्चाग्नि विद्या का विधान है, उससे मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है, किन्तु यदि ब्रह्मलोक में वह कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं करता, तो उसे पृथ्वी पर फिर से लौटना पड़ता है। जो उच्चतर लोकों में कृष्णभावनामृत में प्रगति करते हैं, वे क्रमशः और ऊपर जाते रहते हैं और प्रलय के समय वे नित्य परमधाम को भेज दिये जाते हैं। श्रीधर स्वामी ने अपने भगवद्गीता भाष्य में यह श्लोक उद्धृत किया है –
ब्रह्मणा सह ते सर्वे सम्प्राप्ते प्रतिसञ्चरे ।
परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशन्ति परं पदम् ।।
“जब इस भौतिक ब्रह्माण्ड का प्रलय होता है, तो ब्रह्मा तथा कृष्णभावनामृत में निरन्तर प्रवृत्त उनके भक्त अपनी इच्छानुसार आध्यात्मिक ब्रह्माण्ड को तथा विशिष्ट वैकुण्ठ लोकों को भेज दिये जाते हैं।”
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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