भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।। -11- ।।
अवजानन्ति– उपहास करते हैं;माम्– मुझको;मूढाः– मूर्ख व्यक्ति;मानुषीम्– मनुष्य रूप में;तनुम्– शरीर;अश्रितम्– मानते हुए;परम्– दिव्य;भावम्– स्वभाव को;अजानन्तः– न जानते हुए;मम– मेरा;भूत– प्रत्येक वस्तु का;महा-ईश्वरम्– परम स्वामी।
भावार्थ : जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।
तात्पर्य : इस अध्याय के पूर्ववर्ती श्लोकों से यह स्पष्ट है कि यद्यपि भगवान् मनुष्य रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु वे सामान्य व्यक्ति नहीं होते। जो भगवान् सारे विराट जगत का सृजन, पालन तथा संहार करता हो वह मनुष्य नहीं हो सकता। तो भी अनेक मूर्ख हैं, जो कृष्ण को शक्तिशाली पुरुष के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। वस्तुतः वे आदि परमपुरुष हैं, जैसा कि ब्रह्मसंहिता में प्रमाण स्वरूप कहा गया है – ईश्वरः परमः कृष्णः – वे परम ईश्वर हैं।
ईश्वर या नियन्ता अनेक हैं और वे एक दूसरे से बढ़कर प्रतीत होते हैं। भौतिक जगत् में सामान्य प्रबन्धकार्यों का कोई न कोई निर्देशक होता है, जिसके ऊपर एक सचिव होता है, फिर उसके ऊपर मन्त्री तथा अन्य उससे भी ऊपर राष्ट्रपति होता है। इनमें से हर एक नियन्त्रक होता है, किन्तु एक दूसरे के द्वारा नियन्त्रित होता है। ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि कृष्ण परम नियन्ता हैं। निस्सन्देह भौतिक जगत् तथा वैकुण्ठलोक दोनों में ही कई-कई निर्देशक होते हैं, किन्तु कृष्ण परम नियन्ता हैं (ईश्वरः परमः कृष्णः) तथा उनका शरीर सच्चिदानन्द रूप अर्थात् अभौतिक होता है।
पिछले श्लोकों में जिन अद्भुत कार्यकलापों का वर्णन हुआ है, वे भौतिक शरीर द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकते। कृष्ण का शरीर सच्चिदानन्द रूप है। यद्यपि वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, किन्तु मूर्ख लोग उनका उपहास करते हैं और उन्हें मनुष्य मानते हैं। उनका शरीर यहाँ मानुषीम् कहा गया है, क्योंकि वे कुरुक्षेत्र युद्ध में एक राजनीतिज्ञ और अर्जुन के मित्र की भाँति सामान्य व्यक्ति बनकर कर्म करते हैं। वे अनेक प्रकार से सामान्य पुरुष की भाँति कर्म करते हैं, किन्तु उनका शरीर सच्चिदानन्द विग्रह रूप है। इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य में भी हुई है। सच्चिदानन्द रूपाय कृष्णाय – मैं भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो सच्चिदान्नद रूप हैं (गोपाल तापनी उपनिषद् १.१)। वेदों में ऐसे अन्य वर्णन भी हैं। तमेकं गोविन्दम् – आप इन्द्रियों तथा गायों के आनन्दस्वरूप गोविन्द हैं। सच्चिदान्नदविग्रहम् – तथा आपका रूप सच्चिदान्नद स्वरूप है (गोपाल तापनी उपनिषद् १.३५)।
भगवान् कृष्ण के सच्चिदानन्दस्वरूप होने पर भी ऐसे अनेक तथाकथित विद्वान तथा भगवद्गीता के टीकाकार हैं जो कृष्ण को सामान्य पुरुष कहकर उनका उपहास करते हैं। भले ही अपने पूर्व पुण्यों के कारण विद्वान असाधारण व्यक्ति के रूप में पैदा हुआ हो, किन्तु श्रीकृष्ण के बारे में ऐसी धारणा उसकी अल्पज्ञता के कारण होती है। इसीलिए वह मूढ़ कहलाता है, क्योंकि मूर्ख पुरुष ही कृष्ण को सामान्य पुरुष मानते हैं। ऐसे मूर्ख पुरुष कृष्ण को सामान्य पुरुष इसीलिए मानते हैं, क्योंकि वे कृष्ण के गुह्य कार्यों तथा उनकी विभिन्न शक्तियों से अपरिचित होते हैं। वे यह नहीं जानते कि कृष्ण का शरीर पूर्णज्ञान तथा आनन्द का प्रतीक है, वे प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं और किसी को भी मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। चूँकि वे कृष्ण के इतने सारे दिव्य गुणों को नहीं जानते, इसीलिए उनका उपहास करते हैं।
ये मूढ़ यह भी नहीं जानते कि इस जगत् में भगवान् का अवतरण उनकी अन्तरंगा शक्ति का प्राकट्य है। वे भौतिक शक्ति (माया) के स्वामी हैं। जैसा कि अनेक स्थलों पर कहा जा चुका है (मम माया दुरत्यया), भगवान् का दावा है कि यद्यपि भौतिक शक्ति अत्यन्त प्रबल है, किन्तु वह उनके वश में रहती है और जो भी उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, वह इस माया के वश से बाहर निकल आता है। यदि कृष्ण का शरणागत जीव माया के प्रभाव से बाहर निकल सकता है, तो भला परमेश्वर जो सम्पूर्ण विराट जगत् का सृजन, पालन तथा संहारकर्ता है, हम लोगों जैसा शरीर कैसे धारण कर सकता है? अतः कृष्ण विषयक ऐसी धारणा मूर्खतापूर्ण है। फिर भी मूर्ख व्यक्ति यह नहीं समझ सकते कि सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट होने वाले भगवान् समस्त परमाणुओं तथा इस विराट ब्रह्माण्ड के नियन्ता किस तरह हो सकते हैं। बृहत्तम तथा सूक्ष्मतम तो उनकी विचार शक्ति से परे होते हैं, अतः वे यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्य-जैसा रूप कैसे एक साथ विशाल को तथा अणु को वश में कर सकता है। यद्यपि कृष्ण असीम तथा ससीम को नियन्त्रित करते हैं, किन्तु वे इस जगत् से विलग रहते हैं। उनके योगमैश्वरम् या अचिन्त्य दिव्य शक्ति के विषय में कहा गया है कि वे एकसाथ ससीम तथा असीम को वश में रख सकते हैं, किन्तु जो शुद्ध भक्त हैं वे इसे स्वीकार करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि कृष्ण भगवान् हैं। अतः वे पूर्णतया उनकी शरण में जाते हैं और कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की भक्ति में अपने को रत रखते हैं।
सगुणवादियों तथा निर्गुणवादियों में भगवान् के मनुष्य रूप में प्रकट होने को लेकर काफी मतभेद है। किन्तु यदि हम भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे प्रामाणिक ग्रंथों का अनुशीलन कृष्णतत्त्व समझने के लिए करें तो हम समझ सकते हैं कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं। यद्यपि वे इस धराधाम में सामान्य व्यक्ति की भाँति प्रकट हुए थे, किन्तु वे सामान्य व्यक्ति हैं नहीं। श्रीमद्भागवत में (१.१.२०) जब शौनक आदि मुनियों ने सूत गोस्वामी से कृष्ण के कार्यकलापों के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा –
कृतवान् किल कर्माणि सह रामेण केशवः ।
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः ।।
“भगवान् श्रीकृष्ण ने बलराम के साथ-साथ मनुष्य की भाँति क्रीड़ा की और इस तरह प्रच्छन्न रूप में उन्होंने अनेक अतिमानवीय कार्य किये।” मनुष्य के रूप में भगवान् का प्राकट्य मूर्ख को मोहित बना देता है। कोई भी मनुष्य उन अलौकिक कार्यों को सम्पन्न नहीं कर सकता जिन्हें उन्होंने इस धरा पर करके दिखा दिया था। जब कृष्ण अपने पिता तथा माता (वसुदेव तथा देवकी) के समक्ष प्रकट हुए तो वे चार भुजाओं से युक्त थे। किन्तु माता-पिता की प्रार्थना पर उन्होंने एक सामान्य शिशु का रूप धारण कर लिया – बभूव प्राकृतः शिशुः (भागवत १०.३.४६)। वे एक सामान्य शिशु, एक सामान्य मानव बन गये। यहाँ पर भी यह इंगित होता है कि सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट होना उनके दिव्य शरीर का एक गुण है। भगवद्गीता के ग्याहरवें अध्याय में भी कहा गया है कि अर्जुन ने कृष्ण से अपना चतुर्भुज रूप दिखलाने के लिए प्रार्थना की (तैनेव रूपेण चतुर्भुजेन)। इस रूप को प्रकट करने के बाद अर्जुन के प्रार्थना करने पर उन्होंने पूर्व मनुष्य रूप धारण कर लिया (मानुषं रूपम्)। भगवान् के ये विभिन्न गुण निश्चय ही सामान्य मनुष्य जैसे नहीं हैं।
कतिपय लोग, जो कृष्ण का उपहास करते हैं और मायावादी दर्शन से प्रभावित होते हैं, श्रीमद्भागवत के निम्नलिखित श्लोक (३.२१-२९) को यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत करते हैं कि कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति थे। अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा – परमेश्वर समस्त जीवों में विद्यमान हैं। अच्छा हो कि इस श्लोक को हम जीव गोस्वामी तथा विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जैसे वैष्णव आचार्यों से ग्रहण करें, न की कृष्ण का उपहास करने वाले अनधिकारी व्यक्तियों की व्याख्याओं से। जीव गोस्वामी इस श्लोक की टीका करते हुए कहते हैं कि कृष्ण समस्त चराचरों में अपने अंश विस्तार परमात्मा के रूप में स्थित हैं। अतः कोई भी नवदीक्षित भक्त जो मन्दिर में भगवान् की अर्चामूर्ति पर ही ध्यान देता है और अन्य जीवों का सम्मान नहीं करता वह वृथा ही मन्दिर में भगवान् की पूजा में लगा रहता है। भगवद्भक्तों के तीन प्रकार हैं, जिनमें से नवदीक्षित सबसे निम्न श्रेणी के हैं। नवदीक्षित भक्त अन्य भक्तों की अपेक्षा मन्दिर के अर्चविग्रह पर अधिक ध्यान देते हैं, अतः विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर चेतावनी देते हैं कि इस प्रकार की मानसिकता को सुधारना चाहिए। भक्त को समझना चाहिए कि चूँकि कृष्ण परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर का निवास या मन्दिर है, इसीलिए जिस तरह कोई भक्त भगवान् के मन्दिर का सम्मान करता है, वैसे ही उसे प्रत्येक व्यक्ति का समुचित सम्मान करना चाहिए, कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
ऐसे अनेक निर्विशेष वादी है जो मन्दिरपूजा का उपहास करते हैं। वे कहते हैं कि चूँकि भगवान् सर्वत्र हैं तो फिर अपने को हम मन्दिरपूजा तक ही सीमित क्यों रखें? यदि ईश्वर सर्वत्र हैं तो क्या वे मन्दिर या अर्चविग्रह में नहीं होंगे? यद्यपि सगुणवादी तथा निर्विशेषवादी निरन्तर लड़ते रहेंगे, किन्तु कृष्णभावनामृत में पूर्ण भक्त यह जानता है कि यद्यपि कृष्ण भगवान् हैं, किन्तु इसके साथ वे सर्वव्यापी भी हैं, जिसकी पुष्टि ब्रह्मसंहिता में हुई है। यद्यपि उनका निजी धाम गोलोक वृन्दावन है और वे वहीं निरन्तर वास करते हैं, किन्तु वे अपनी शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियों द्वारा तथा अपने स्वांश द्वारा भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत् में सर्वत्र विद्यमान रहते हैं।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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