अध्याय सत्रह -- कालिय का इतिहास (10.17)
1 [इस प्रकार कृष्ण ने कालिय की प्रताड़णा की उसे सुनकर] राजा परीक्षित ने पूछा: कालिय ने सर्पों के निवास रमणक द्वीप को क्यों छोड़ा और गरुड़ उसीका इतना विरोधी क्यों बन गया?
2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: गरुड़ द्वारा खाये जाने से बचने के लिए सर्पों ने पहले से उससे यह समझौता कर रखा था कि उनमें से हर सर्प मास में एक बार अपनी भेंट लाकर वृक्ष के नीचे रख जाया करेगा। इस तरह हे महाबाहु परीक्षित, प्रत्येक मास हर सर्प अपनी रक्षा के मूल्य के रूप में विष्णु के शक्तिशाली वाहन को अपनी भेंट चढ़ाता था।
4 यद्यपि अन्य सभी सर्पगण ईमानदारी से गरुड़ को भेंट दे जाया करते थे किन्तु एक सर्प, कद्रु-पुत्र अभिमानी कालिय, इन सभी भेंटों को गरुड़ के पाने से पहले ही खा जाया करता था। इस तरह कालिय भगवान विष्णु के वाहन का प्रत्यक्ष अनादर करता था।
5 हे राजन, जब भगवान के अत्यन्त प्रिय, परम शक्तिशाली गरुड़ ने यह सुना तो वह क्रुद्ध हो उठा। वह कालिय को मार डालने के लिए उसकी ओर तेजी से झपटा।
6 ज्योंही गरुड़ तेजी से कालिय पर झपटा त्योंही विष के हथियार से लैस उसने वार करने के लिए अपने अनेक सिर उठा लिये। अपनी भयावनी जीभें दिखलाते और अपनी उग्र आँखें फैलाते हुए विषैले दाँतों से गरुड़ को काट लिया।
7 ताक्षर्य का क्रुद्ध पुत्र गरुड़, कालिय के वार को पीछे धकेलने के लिए प्रचण्ड वेग से आगे बढ़ा। उस अत्यन्त शक्तिशाली भगवान मधुसूदन के वाहन ने कद्रु के पुत्र पर अपने स्वर्ण जैसे चमकीले बाएँ पंख से प्रहार किया।
8 गरुड़ के पंख की चोट खाने से कालिय अत्यधिक बैचेन हो उठा अतः उसने यमुना नदी के निकटस्थ सरोवर में शरण ले ली। गरुड़ इस सरोवर में नहीं घुस सका। निस्सन्देह, वह वहाँ तक पहुँच भी नहीं सका ।
9 उसी सरोवर में गरुड़ ने एक बार एक मछ्ली को जो कि उसका सामान्य भक्ष्य है, खाना चाहा। जल के भीतर ध्यानमग्न सौभरि मुनि के मना करने पर भी गरुड़ ने साहस किया और भूखा होने के कारण उस मछली को पकड़ लिया।
10 उस सरोवर की अभागिनी मछलियों को अपने स्वामी की मृत्यु के कारण अत्यन्त दुखी देखकर सौभरि मुनि ने इस आशय से शाप दे दिया कि वे उस सरोवर के रहने वालों के कल्याण हेतु कृपापूर्ण कर्म कर रहे हैं।
11 यदि गरुड़ ने फिर कभी इस सरोवर में घुसकर मछलियाँ खाई तो वह तुरन्त अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य है।
12 "सारे सर्पों में केवल कालिय" ही इस बात को जानता था और गरुड़ के भय से उसने यमुना के सरोवर में अपना निवास बना रखा था । बाद में कृष्ण ने उसे निकाल भगाया।
13-14 [कृष्ण द्वारा कालिय की प्रताड़णा का वर्णन फिर से प्रारम्भ करते हुए श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा] : कृष्ण दिव्य मालाएँ, सुगन्धियाँ तथा वस्त्र धारण किये अनेक उत्तम मणियों से आच्छादित एवं स्वर्ण से अलंकृत होकर उस सरोवर से ऊपर उठे। जब ग्वालों ने उन्हें देखा तो वे सब तुरन्त उठ खड़े हो गये मानो किसी मूर्छित व्यक्ति की इन्द्रियाँ पुनः जीवित हो उठी हों। उन्होंने अतीव हर्ष से सराबोर होकर स्नेहपूर्वक उनको गले लगा लिया।
15 अपनी जीवनदायी चेतनाएँ वापस पाकर यशोदा, रोहिणी, नन्द तथा अन्य सारी गोपियाँ एवं ग्वाले कृष्ण के समीप पहुँच गये। हे कुरुवंशी, ऐसे में सूखे वृक्ष भी सजीव हो उठे।
16 भगवान बलराम ने अपने अच्युत भाई का आलिंगन किया और कृष्ण की शक्ति को अच्छी तरह जानते हुए हँसने लगे। अत्यधिक प्रेमभाव के कारण बलराम ने कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया और बारम्बार उनकी ओर देखा। गौवों, साँडों तथा बछियों को भी परम आनन्द प्राप्त हुआ।
17 सारे गुरुजन ब्राह्मण अपनी पत्नियों सहित नन्द महाराज को बधाई देने आये। उन्होंने उनसे कहा, “तुम्हारा पुत्र कालिय के चंगुल में था किन्तु देवकृपा से अब वह छूट आया है।"
18 तब, ब्राह्मणों ने नन्द महाराज को सलाह दी, “तुम्हारा पुत्र कृष्ण सदैव संकट से मुक्त रहे इससे आश्वस्त रहने के लिए तुम्हें चाहिए कि ब्राह्मणों को दान दो।“ हे राजन, तब प्रसन्नचित्त नन्द महाराज ने हर्षपूर्वक उन्हें गौवों तथा स्वर्ण की भेंटें दीं।
19 परम भाग्यशालिनी माता यशोदा ने अपने खोये हुए पुत्र को फिर से पाकर उसे अपनी गोद में ले लिया। उनको बारम्बार गले लगाते हुए उस साध्वी ने आँसुओं की झड़ी लगा दी।
20 हे नृपश्रेष्ठ (परीक्षित), चूँकि वृन्दावन के निवासी भूख, प्यास तथा थकान के कारण अत्यन्त निर्बल हो रहे थे। अतः उन्होंने तथा गौवों ने रात्रि विश्राम कालिन्दी के तट पर किया।
21 रात्रि में जब वृन्दावन के सभी लोग सोये हुए थे तो सूखे ग्रीष्मकालीन जंगल में भीषण आग भड़क उठी। इस आग ने चारों ओर से व्रजवासियों को घेर लिया और उन्हें झुलसाने लगी।
22 तब उन्हें जलाने जा रही विशाल अग्नि से अत्यधिक विचलित होकर वृन्दावनवासी जाग गये। उन्होंने दौड़कर भगवान कृष्ण की शरण ली जो आध्यात्मिक शक्ति से सामान्य मनुष्य रूप में प्रकट हुए थे।
23 वृन्दावनवासियों ने कहा: हे कृष्ण, हे कृष्ण, हे समस्त वैभव के स्वामी, हे असीम शक्ति के स्वामी राम, यह अत्यन्त भयानक अग्नि आपके भक्तों को निगल ही जाएगी।
24 हे प्रभु, हम आपके सच्चे मित्र तथा भक्त हैं। कृपा करके आप इस दुर्लंघ्य कालरूपी अग्नि से हमारी रक्षा कीजिये, समस्त भय को भगाने वाले आपके चरणकमलों को हम कभी नहीं त्याग सकते।
25 अपने भक्तों को इतना व्याकुल देखकर, असीम शक्ति को धारण करनेवाले – जगत के अनन्त स्वामी भगवान श्रीकृष्ण ने उस भयंकर दावाग्नि को निगल लिया।
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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