भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय आठ भगवत्प्राप्ति
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ 6 ॥
यम् यम्– जिस;वा अपि– किसी भी;स्मरन्– स्मरण करते हुए;भावम्– स्वभाव को;त्यजति– परित्याग करता है;अन्ते– अन्त में;कलेवरम्– शरीर को;तम् तम्– वैसा ही;एव– निश्चय ही;एति– प्राप्त करता है;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;सदा– सदैव;तत्– उस;भाव– भाव;भावितः– स्मरण करता हुआ।
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
तात्पर्य : यहाँ पर मृत्यु के समय अपना स्वभाव बदलने की विधि का वर्णन है। जो व्यक्ति अन्त समय कृष्ण का चिन्तन करते हुए शरीर त्याग करता है, उसे परमेश्वर का दिव्य स्वभाव प्राप्त होता है। किन्तु यह सत्य नहीं है कि यदि कोई मृत्यु के समय कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ सोचता है तो उसे भी दिव्य अवस्था प्राप्त होती है। हमें इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए। तो फिर कोई मन की सही अवस्था में किस प्रकार मरे? महापुरुष होते हुए भी महाराज भरत ने मृत्यु के समय एक हिरण का चिन्तन किया, अतः अगले जीवन में हिरण के शरीर में उनका देहान्तरण हुआ। यद्यपि हिरण के रूप में उन्हें अपने विगत कर्मों की स्मृति थी, किन्तु उन्हें पशु शरीर धारण करना ही पड़ा। निस्सन्देह मनुष्य के जीवन भर के विचार संचित होकर मृत्यु के समय उसके विचारों को प्रभावित करते हैं, अतः उस जीवन से उसका अगला जीवन बनता है। अगर कोई इस जीवन में सतोगुणी होता है और निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है तो सम्भावना यही है कि मृत्यु के समय उसे कृष्ण का स्मरण बना रहे। इससे उसे कृष्ण के दिव्य स्वभाव को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। यदि कोई दिव्यरूप से कृष्ण की सेवा में लीन रहता है तो उसका अगला शरीर दिव्य (आध्यात्मिक) ही होगा, भौतिक नहीं। अतः जीवन के अन्त समय अपने स्वभाव को सफलतापूर्वक बदलने के लिए हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ का जप सर्वश्रेष्ठ विधि है।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे🙏