भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।। 15 ।।
सर्वस्य- समस्त प्राणियों;च- तथा;अहम्- मैं;हृदि- हृदय में;सन्निविष्टः- स्थित;मत्तः- मुझ से;स्मृतिः- स्मरणशक्ति;ज्ञानम्- ज्ञान;अपोहनम्- विस्मृति;च- तथा;वेदैः- वेदों के द्वारा;च- भी;सर्वैः- समस्त;अहम्- मैं हूँ;एव- निश्चय ही;वेद्यः- जानने योग्य, ज्ञेय;वेदान्त-कृत- वेदान्त के संकलकर्ता;वेदवित्- वेदों का ज्ञाता;एव- निश्चय ही;च- तथा;अहम्- मैं।
भावार्थ : मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।
तात्पर्य : परमेश्वर परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेरित होते हैं। जीव अपने विगत जीवन की सारी बातें भूल जाता है, लेकिन उसे परमेश्वर के निर्देशानुसार कार्य करना होता है, जो उसके सारे कर्मों के साक्षी है। अतएव वह अपने विगत कर्मों के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करता है। इसके लिए आवश्यक ज्ञान तथा स्मृति उसे प्रदान की जाती है। लेकिन वह विगत जीवन के विषय में भूलता रहता है। इस प्रकार भगवान् न केवल सर्वव्यापी हैं, अपितु वे प्रत्येक हृदय में अन्तर्यामी भी हैं। वे विभिन्न कर्मफल प्रदान करने वाले हैं। वे न केवल निराकार ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में पूजनीय हैं, अपितु वे वेदों के अवतार के रूप में भी पूजनीय हैं। वेद लोगों को सही दिशा बताते हैं, जिससे वे समुचित ढंग से अपना जीवन ढाल सकें और भगवान् के धाम को वापस जा सकें। वेद भगवान् कृष्ण विषयक ज्ञान प्रदान करते हैं और अपने अवतार व्यासदेव के रूप में कृष्ण ही वेदान्तसूत्र के संकलनकर्ता हैं। व्यासदेव द्वारा श्रीमद्भागवत के रूप में किया गया वेदान्तसूत्र का भाष्य वेदान्तसूत्र की वास्तविक सूचना प्रदान करता है। भगवान् इतने पूर्ण हैं कि बद्धजीवों के उद्धार हेतु वे उसके अन्न के प्रदाता एवं पाचक हैं, उसके कार्यकलापों के साक्षी हैं तथा वेदों के रूप में ज्ञान के प्रदाता हैं। वे भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में भगवद्गीता के शिक्षक हैं। वे बद्धजीव द्वारा पूज्य हैं। इस प्रकार ईश्वर सर्वकल्याणप्रद तथा सर्वदयामय हैं।
अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानाम् । जीव ज्योंही अपने इस शरीर को छोड़ता है, इसे भूल जाता है, लेकिन परमेश्वर द्वारा प्रेरित होने पर वह फिर से काम करने लगता है। यद्यपि जीव भूल जाता है, लेकिन भगवान् उसे बुद्धि प्रदान करते हैं, जिससे वह अपने पूर्वजन्म के अपूर्ण कार्य को फिर से करने लगता है। अतएव जीव अपने हृदय में स्थित परमेश्वर के आदेशानुसार इस जगत् में सुख या दुख का केवल भोग ही नहीं करता है, अपितु उनसे वेद समझने का अवसर भी प्राप्त करता है। यदि कोई ठीक से वैदिक ज्ञान पाना चाहे तो कृष्ण उसे आवश्यक बुद्धि प्रदान करते हैं। वे किस लिए वैदिक ज्ञान प्रस्तुत करते हैं ? इसलिए कि जीव को कृष्ण को समझने की आवश्यकता है। इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है - योSसौ सर्वैर्वेदैर्गीयते। चारों वेदों , वेदान्त सूत्र तथा उपनिषदों एवं पुराणों समेत सारे वैदिक साहित्य में परमेश्वर की कीर्ति का गान है। उन्हें वैदिक अनुष्ठानों द्वारा, वैदिक दर्शन की व्याख्या द्वारा तथा भगवान् की भक्तिमय पूजा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अतएव वेदों का उद्देश्य कृष्ण को समझना है। वेद हमें निर्देश देते हैं, जिससे कृष्ण को जाना जा सकता है और उनकी अनुभूति की जा सकती है। भगवान् ही चरम लक्ष्य है। वेदान्तसूत्र (१.१.४) में इसकी पुष्टि इन शब्दों में हुई है - तत्तु समन्वयात् । मनुष्य तीन अवस्थाओं में सिद्धि प्राप्त करता है। वैदिक साहित्य के ज्ञान से भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को समझा जा सकता है, विभिन्न विधियों को सम्पन्न करके उन तक पहुँचा जा सकता है और अन्त में उस परम लक्ष्य श्रीभगवान् की प्राप्ति की जा सकती है। इस श्लोक में वेदों के प्रयोजन, वेदों के ज्ञान तथा वेदों के लक्ष्य को स्पष्टतः परिभाषित किया गया है।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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