jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय सोलह - कृष्ण द्वारा कालिय नाग को प्रताड़ना (10.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान श्रीकृष्ण ने यह देखकर कि काले सर्प कालिय ने यमुना नदी को दूषित कर रखा है, उसे शुद्ध करने की इच्छा की और इस तरह उन्होंने कालिय को उसमें से निकाल भगाया।

2 राजा परीक्षित ने पूछा: हे विद्वान मुनि, कृपा करके यह बतलाये कि किस तरह भगवान ने यमुना के अगाध जल में कालिय नाग को प्रताड़ित किया और वह कालिय किस तरह अनेक युगों से वहाँ पर रह रहा था?

3 हे ब्राह्मण, अनन्त भगवान अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र रूप से कर्म करते हैं। उन्होंने वृन्दावन में ग्वालबाल के रूप में जो अमृततुल्य उदार लीलाएँ सम्पन्न कीं भला उन्हें सुनकर कौन तृप्त हो सकता है?

4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कालिन्दी (यमुना) नदी के भीतर एक सरोवर (कुण्ड) था जिसमें कालिय नाग रह रहा था जिसके अग्नि-तुल्य विष से उसका जल निरन्तर उबलता रहता था। इस तरह से उत्पन्न भाप इतनी विषैली होती थी कि दूषित सरोवर के ऊपर से उड़ने वाले पक्षी उसमें गिर पड़ते थे।

5 उस घातक सरोवर के उपर से बहने वाली हवा जल की बूँदों को तट तक ले जाती थी। उस विषैली वायु के सम्पर्क में आने से ही तट की सारी वनस्पति तथा जीव जन्तु मर जाते थे।

6 भगवान कृष्ण ने देखा कि कालिय नाग ने किस तरह अपने अत्यन्त प्रबल विष से यमुना नदी को दूषित कर रखा था। चूँकि कृष्ण आध्यात्मिक जगत से ईर्ष्यालु असुरों का दमन करने के लिए ही विशेष रूप से अवतरित हुए थे इसलिए वे तुरन्त एक बहुत ऊँचे कदम्ब वृक्ष की चोटी पर चढ़ गये और उन्होंने युद्ध के लिये अपने को तैयार कर लिया। उन्होंने अपना फेंटा बाँधा, बाहुओं में ताल दी और फिर विषैले जल में कूद पड़े।

7 भगवान जब सर्प के सरोवर में कूदे तो सारे सर्प उत्तेजित हो उठे और तेजी से साँस लेने लगे जिसके कारण विष की मात्रा से जल और भी दूषित हो उठा। भगवान के प्रविष्ट होने के वेग से सरोवर चारों ओर उमड़ने लगा और भयंकर विषैली लहरों ने एक सौ धनुष-दूरी तक की सारी भूमि को आप्लावित कर दिया। किन्तु अनन्त शक्ति रखने वाले भगवान के लिए यह तनिक भी विस्मय – जनक नहीं है।

8 कालिय-सरोवर में कृष्ण अपनी विशाल बाँहें घुमाते और तरह-तरह से जल में गूँज पैदा करते हुए, शाही हाथी की तरह क्रीड़ा करने लगे। जब कालिय ने ये शब्द सुने तो वह जान गया कि कोई उसके सरोवर में घुस आया है। वह इसे सहन नहीं कर पाया अतः वह तुरन्त ही बाहर निकला।

9 कालिय ने देखा कि पीले रेशमी वस्त्र धारण किये श्रीकृष्ण अत्यन्त सुकोमल लग रहे थे, उनका आकर्षक शरीर सफेद बादलों की तरह चमक रहा था। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था, उनका मुखमण्डल सुमधुर हँसी से युक्त था और उनके चरणकमल फूल के गुच्छों के सदृश थे। भगवान निडर होकर जल में क्रीड़ा कर रहे थे। उनके अद्भुत रूप के बावजूद ईर्ष्यालु कालिय ने क्रुद्ध होकर उनके वक्षस्थल पर डस लिया और फिर उन्हें अपनी कुण्डली में पूरी तरह से लपेट लिया।

10 जब ग्वाल समुदाय के सदस्यों ने जिन्होंने कृष्ण को अपना सर्वप्रिय मित्र मान रखा था, उन्हें नाग की कुण्डली में लिपटा हुआ और गतिहीन देखा तो वे अत्यधिक विचलित हो उठे। उन्होंने कृष्ण को अपना सर्वस्व (-अपने आपको, अपने परिवार, अपनी सम्पत्ति, अपनी पत्नियाँ तथा सारे आनन्द--) अर्पित कर रखा था। भगवान को कालिय सर्प के चंगुल में देखकर उनकी बुद्धि शोक, पश्चाताप तथा भय से अभिभूत हो गई और वे पृथ्वी पर गिर पड़े।

11 गौवें, बैल तथा बछड़ियाँ सभी अत्यधिक दुखारी होकर करुणापूर्वक कृष्ण को पुकारने लगी। वे पशु उन पर अपनी दृष्टि गढ़ाये हुए भयवश बिना हिले-डुले खड़े रहे मानो चिल्लाना चाह रहे हों परन्तु आघात के कारण अश्रु न बहा सकते हों।

12 तब वृन्दावन क्षेत्र में सभी तीन प्रकार के – पृथ्वी, आकाश तथा जीवों के शरीर में होनेवाले भयावने अपशकुन प्रकट होने लगे जो तुरन्त आने वाले खतरे की चेतावनी कर रहे थे।

13-15 इन अपशकुनों के देखकर नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले भयभीत थे क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि उस दिन कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के बिना गाय चराने गये थे। चूँकि उन्होंने कृष्ण को अपना प्राण मानते हुए अपने मन उन्हीं पर वार दिये थे क्योंकि वे उनकी महान शक्ति तथा ऐश्वर्य से अनजान थे। इस तरह उन्होंने इन अपशकुनों से यह अर्थ निकाला कि कृष्ण की मृत्यु हो गई है और वे दु:, पश्चाताप तथा भय से अभिभूत हो गये थे। बालक, स्त्रियाँ तथा वृद्ध पुरुषों समेत वृन्दावन के सारे निवासी कृष्ण को उसी तरह मानते थे जिस तरह गाय अपने निरीह नवजात बछड़े को मानती है। इस तरह ये दीन-दुखी लोग उन्हें ढूँढने के इरादे से गाँव से बाहर दौड़ पड़े।

16 समस्त दिव्य ज्ञान के स्वामी भगवान बलराम हँसने लगे और वृन्दावनवासियों को इस तरह व्याकुल देखकर कुछ भी नहीं बोले क्योंकि उन्हें अपने छोटे भाई के असाधारण बल का पता था।

17 वृन्दावन के निवासी कृष्ण के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने सर्वप्रिय कृष्ण की खोज में यमुना के किनारे की ओर दौड़े चले गये क्योंकि उन पदचिन्हों में भगवान के अनूठे चिन्ह थे।

18 समस्त ग्वाल समुदाय के स्वामी भगवान कृष्ण के पदचिन्ह कमल के फूल, जौ, हाथी के अंकुश, वज्र तथा पताका से युक्त थे। हे राजा परीक्षित, मार्ग में गौवों के पदचिन्हों के बीच-बीच में उनके पदचिन्हों को देखते हुए वृन्दावन के निवासी तेजी से दौड़े चले गये।

19 ज्योंही वे यमुना नदी के किनारे की ओर भागे जा रहे थे त्योंही उन्होंने दूर से देखा कि कृष्ण सरोवर में काले साँप की कुण्डली में निश्चेष्ट पड़े हैं। उन्होंने यह भी देखा कि सारे ग्वालबाल मूर्छित होकर पड़े हैं और सारे पशु उनके चारों ओर खड़े होकर कृष्ण के लिए रँभा रहे हैं। यह दृश्य देखकर वृन्दावनवासी वेदना तथा भ्रम के कारण विह्वल हो उठे।

20 जब युवती गोपियों ने, जिनके मन निरन्तर अनन्त भगवान कृष्ण में अनुरक्त रहते थे, देखा कि वे कालिय के चंगुल में हैं, तो उन्हें उनकी मित्रता, उनकी मुसकान-भरी चितवन तथा उनके वचनों का स्मरण हो आया । अत्यन्त शोक से सन्तप्त होने के कारण उन्हें सारा ब्रह्माण्ड शून्य (रिक्त) दिखाई पड़ने लगा ।

21 यद्यपि प्रौढ़ गोपियों को उन्हीं के बराबर पीड़ा थी और उनमें शोकपूर्ण अश्रुओं की झड़ी लगी हुई थी किन्तु उन्होंने बलपूर्वक कृष्ण की माता को पकड़े रखा, जिनकी चेतना पूर्णतया अपने पुत्र में समा गयी थी। ये गोपियाँ शवों की तरह खड़ी रहकर, अपनी आँखें कृष्ण के मुख पर टिकाये, बारी बारी से व्रज के परम लाड़ले की लीलाएँ कहे जा रही थी।

22 तत्पश्चात भगवान बलराम ने देखा कि नन्द महाराज तथा कृष्ण को अपना जीवन अर्पित करनेवाले अन्य ग्वाले सर्प-सरोवर में प्रवेश करने जा रहे हैं। भगवान होने के नाते बलराम को कृष्ण की वास्तविक शक्ति का पूरा पूरा ज्ञान था अतएव उन्होंने उन सबको रोका।

23 भगवान कुछ काल तक सामान्य मर्त्यप्राणी के व्यवहार का अनुकरण करते हुए सर्प की कुण्डली के भीतर पड़े रहे। किन्तु जब उन्हें इसका भान हुआ कि उनके गोकुल ग्राम की स्त्रियाँ, बच्चे तथा अन्य निवासी अपने जीवन के एकमात्र आधार उनके प्रेम के कारण विकट दुखी हैं, तो वे कालिय सर्प के बन्धन से तुरन्त उठ खड़े हुए।

24 जब भगवान के शरीर का विस्तार होने से कालिय की कुण्डली दुखने लगी तो उसने उन्हें छोड़ दिया। तब वह सर्प बहुत ही क्रुद्ध होकर अपने फनों को ऊँचे उठाकर स्थिर खड़ा हो गया और जोर जोर से फुफकारने लगा। उसके नथुने विष पकाने के पात्रों जैसे लग रहे थे और उसके मुख पर स्थित घूरती आँखें आग की लपटों की तरह लग रही थी। इस तरह उस सर्प ने भगवान पर नजर डाली।

25 कालिय बारम्बार अपनी दोमुही जीभ से अपने होंठो को चाटता और विषैली विकराल अग्नि से पूर्ण अपनी दृष्टि से कृष्ण को घूरता जा रहा था। किन्तु कृष्ण ने मानो खेल-खेल में ही उसका उसी तरह चक्कर लगाया जिस तरह गरुड़ सर्प से खिलवाड़ करता है। प्रतिक्रिया के रूप में, कालिय भी उनके साथ-साथ घूमता जाता था और भगवान को काटने का अवसर ढूँढ रहा था।

26 लगातार चक्कर लगाते लगाते सर्प के बल को बुरी तरह क्षीण करके, समस्त वस्तुओं के मूल श्रीकृष्ण ने कालिय के उभरे हुए कन्धों को नीचे दबा दिया और उसके चौड़े फनों पर चढ़ गये। इस तरह समस्त कलाओं के आदि गुरु भगवान श्रीकृष्ण नृत्य करने लगे और सर्प के फनों पर स्थित असंख्य मणियों के स्पर्श से उनके चरण गहरे लाल रंग के हो गये।

27 भगवान को नाचते देखकर स्वर्गलोक के उनके सेवक—गन्धर्व, सिद्ध, मुनि, चारण तथा देवपत्नियाँ--वहाँ तुरन्त आ गये। वे मृदंग, पणव तथा आनक जैसे ढोल बजा-बजाकर के नृत्य का साथ देने लगे। उन्होंने गीत, फूल तथा स्तुतियों की भेंटें भी दी।

28 हे राजन, कालिय के 101 सिर थे और यदि इनमें से कोई एक नहीं झुकता था तो क्रूर कृत्य करनेवालों को दण्ड देनेवाले भगवान श्रीकृष्ण अपने पाद-प्रहार से उस उद्दण्ड सिर को कुचल देते थे। जब कालिय मृत्यु के निकट पहुँच गया तो वह अपने सिरों को चारों ओर घूमाने लगा अपने मुखों तथा नथुनों से बुरी तरह से रक्त वमन करने लगा। इस तरह सर्प को अत्यन्त पीड़ा तथा कष्ट का अनुभव होने लगा।

29 कालिय अपनी आँखों से विषैला कीचड़ निकालते हुए रह रहकर अपने किसी एक सिर को ऊपर उठाने का दुस्साहस करके क्रोध से फुफकारता था। तब भगवान उस पर नाचने लगते और अपने पाँव से नीचे झुकाकर उसका दमन कर देते। देवताओं ने इन सभी प्रदर्शनों को उचित अवसर जानकर आदि पुरुष की पूजा पुष्प-वर्षा द्वारा की।

30 हे राजा परीक्षित, भगवान कृष्ण के द्वारा विस्मयजनक शक्तिशाली नृत्य करने से कालिय के सभी एक हजार फण कुचलकर टूट गये। तब अपने मुखों से बुरी तरह रक्त वमन करते हुए सर्प ने श्रीकृष्ण को समस्त चराचर के शाश्वत स्वामी आदि भगवान श्रीनारायण के रूप में पहचाना। इस तरह कालिय ने मन ही मन भगवान की शरण ग्रहण कर ली।

31 जब कालिय की पत्नियों ने देखा कि अखिल ब्रह्माण्ड को अपने उदर में धारण करनेवाले भगवान कृष्ण के अत्यधिक भार से सर्प कितना थक गया है और किस तरह कृष्ण की एड़ियों के प्रहार से कालिय के छाते जैसे फन छिन्न-भिन्न हो गये हैं, तो उन्हें अतीव पीड़ा हुई। तब अपने वस्त्र, आभूषण तथा केश बिखराये हुए वे आदि भगवान के निकट आईं।

32 अत्यन्त उद्विग्नमना उन साध्वी स्त्रियों ने अपने बच्चों को आगे कर लिया और तब समस्त प्राणियों के स्वामी के समक्ष भूमि पर गिरकर साष्टांग प्रणाम किया। वे अपने पापी पति का मोक्ष एवं परम शरणदाता भगवान की शरण चाहती थीं अतः नम्रता से हाथ जोड़े हुए वे उनके निकट आईं।

33 कालिय सर्प की पत्नियों ने कहा: इस अपराधी को जो दण्ड मिला है, वह निस्सन्देह उचित ही है। आपने इस जगत में ईर्ष्यालु तथा क्रूर पुरुषों का दमन करने के लिए ही अवतार लिया है आप इतने निष्पक्ष हैं कि आप शत्रुओं तथा अपने पुत्रों को समान भाव से देखते हैं क्योंकि जब आप किसी जीव को दण्ड देते हैं, तो आप यह जानते होते हैं कि अन्ततः यह उसके हित के लिए है।

34 आपने जो कुछ यहाँ किया है, वह वास्तव में हम पर अनुग्रह है क्योंकि आप दुष्टों को जो दण्ड देते हैं वह निश्चित रूप से उनके कल्मष को दूर कर देता है। चूँकि यह बद्धजीव हमारा पति इतना पापी है कि इसने सर्प का शरीर धारण किया है अतएव आपका यह क्रोध उसके प्रति आपकी कृपा ही समझी जानी चाहिए।

35 क्या हमारे पति ने पूर्वजन्म में गर्वरहित होकर तथा अन्यों के प्रति आदरभाव से पूरित होकर सावधानी से तपस्या की थी? क्या इसीलिए आप उससे प्रसन्न हैं? अथवा क्या उसने किसी पूर्वजन्म में समस्त जीवों के प्रति दयापूर्वक धार्मिक कर्तव्य पूरा किया था और क्या इसीलिए समस्त जीवों के प्राणाधार आप अब उससे संतुष्ट हैं?

36 हे प्रभु, हम नहीं जानतीं कि इस कालिय नाग ने किस तरह आपके चरणकमलों की धूल को स्पर्श करने का सुअवसर प्राप्त किया। इसके लिए तो लक्ष्मीजी ने अन्य सारी इच्छाएँ त्यागकर कठोर व्रत धारण करके सैकड़ों वर्षों तक तपस्या की थी।

37 जिन्होंने आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त कर ली है वे न तो स्वर्ग का राज्य, न असीम वर्चस्व, न ब्रह्मा का पद, न ही पृथ्वी का साम्राज्य चाहते हैं। उन्हें योग की सिद्धियों अथवा मोक्ष तक में कोई रुचि नहीं रहती।

38 हे प्रभु, यद्यपि इस सर्पराज कालिय का जन्म तमोगुण में हुआ है और यह क्रोध के वशीभूत है किन्तु इसने अन्यों के लिए जो दुष्प्राप्य है उसे भी प्राप्त कर लिया है। इच्छाओं से पूर्ण होकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में भ्रमण करनेवाले देहधारी जीव आपके चरणकमलों की धूल प्राप्त करने से ही अपने समक्ष सारे आशीर्वादों को प्रकट होते देख सकते हैं।

39 हे भगवन, हम आपको सादर नमस्कार करती हैं। यद्यपि आप सभी जीवों के हृदयों में परमात्मा रूप में स्थित हैं, तो भी आप सर्वव्यापक हैं। यद्यपि आप सभी उत्पन्न भौतिक तत्त्वों के आदि आश्रय हैं किन्तु आप उनके सृजन के पूर्व से विद्यमान हैं। यद्यपि आप हर वस्तु के कारण हैं किन्तु परमात्मा होने से आप भौतिक कार्य-कारण से परे हैं।

40 हे परम सत्य, हम आपको नमस्कार करती हैं। आप समस्त दिव्य चेतना एवं शक्ति के आगार हैं और अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं। यद्यपि आप भौतिक गुणों एवं विकारों से पूर्णतया मुक्त हैं किन्तु आप भौतिक प्रकृति के आदि संचालक हैं।

41 हम आपको नमस्कार करती हैं। आप साक्षात काल, काल के आश्रय तथा काल की विभिन्न अवस्थाओं के साक्षी हैं। आप ब्रह्माण्ड हैं और इसके पृथक दृष्टा भी हैं। आप इसके स्रष्टा हैं और इसके समस्त कारणों के कारण हैं। आप भौतिक तत्त्वों के, अनुभूति के सूक्ष्म आधार के, इन्द्रियों के, प्राणवायु के तथा मन, बुद्धि एवं चेतना के परमात्मा हैं।

42-43 हम आपको नमस्कार करती हैं। आपकी ही व्यवस्था के फलस्वरूप सूक्ष्मतम चिन्मय आत्माएँ प्रकृति के तीनों गुणों के रूप में अपनी झूठी पहचान बनाती हैं। फलस्वरूप उनकी स्व की अनुभूति प्रच्छन्न हो जाती है। हे अनन्त भगवान, हे परम सूक्ष्म एवं सर्वज्ञ भगवान, हम आपको प्रणाम करती हैं, जो सदैव स्थायी दिव्यता में विद्यमान रहते हैं, विभिन्न वादों के विरोधी विचारों को स्वीकृति देते हैं और व्यक्त विचारों तथा उनको व्यक्त करनेवाले शब्दों को प्रोत्साहन देने वाली शक्ति हैं।

44 समस्त प्रमाणों के आधार, शास्त्रों के प्रणेता तथा परम स्रोत, इन्द्रिय तृप्ति को प्रोत्साहित करनेवाले (प्रवृत्ति मार्ग) तथा भौतिक जगत से विराग उत्पन्न करनेवाले वैदिक साहित्य में अपने को प्रकट करनेवाले, आपको हम बारम्बार नमस्कार करती हैं।

45 हम वसुदेव के पुत्र, भगवान कृष्ण तथा भगवान राम को और भगवान पद्युम्न तथा भगवान अनिरुद्ध को सादर नमस्कार करती हैं। हम विष्णु के समस्त सन्त सदृश भक्तों के स्वामी को सादर नमस्कार करती हैं।

46 नाना प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक गुणों को प्रकट करनेवाले, हे भगवन, आपको हमारा नमस्कार। आप अपने को भौतिक गुणों से छिपा लेते हैं किन्तु अन्ततः उन्हीं भौतिक गुणों के अन्तर्गत हो रहे कार्य आपके अस्तित्व को प्रकट कर देते हैं। आप साक्षी रूप में भौतिक गुणों से पृथक रहते हैं और एकमात्र अपने भक्तों द्वारा भलीभाँति ज्ञेय हैं।

47 हे इन्द्रियों के स्वामी, ऋषिकेश, हम आपको नमस्कार करती हैं क्योंकि आपकी लीलाएँ अचिन्त्य रूप से महिमामयी हैं। आपके अस्तित्व को समस्त दृश्य जगत के लिए स्रष्टा तथा प्रकाशक की आवश्यकता से समझा जा सकता है। यद्यपि आपके भक्त आपको इस रूप में समझ सकते हैं किन्तु अभक्तों के लिए आप आत्मलीन रहकर मौन बने रहते हैं।

48 उत्तम तथा अधम समस्त वस्तुओं के गन्तव्य को जाननेवाले तथा समस्त जगत के अध्यक्ष नियन्ता आपको हमारा नमस्कार। आप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि से पृथक हैं फिर भी आप वह मूलाधार हैं जिस पर भौतिक सृष्टि की माया का विकास होता है। आप इस माया के साक्षी भी हैं। निस्सन्देह आप अखिल जगत के मूल कारण हैं।

49 हे सर्वशक्तिमान प्रभु, यद्यपि आपके भौतिक कर्म में फँसने का कोई कारण नहीं है, फिर भी आप इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार की व्यवस्था करने के लिए अपनी शाश्वत कालशक्ति के माध्यम से कर्म करते हैं। इसे आप सृजन के पूर्व सुप्त पड़े प्रकृति के प्रत्येक गुण के विशिष्ट कार्य को जाग्रत करते हुए सम्पन्न करते हैं।

50 ब्रह्माण्ड-नियंत्रण के इन सारे कार्यों को आप खेल खेल में केवल अपनी चितवन से पूर्णतया सम्पन्न कर देते हैं। इसलिए तीनों लोकों में सारे भौतिक शरीर – जो सतोगुणी होने के कारण शान्त हैं, जो रजोगुणी होने से विक्षुब्ध हैं तथा जो तमोगुणी होने से मूर्ख हैं – आपकी ही सृष्टियाँ हैं। तो भी जिनके शरीर सतोगुणी हैं, वे आपको विशेष रूप से प्रिय हैं और उन्हीं के पालन हेतु तथा उन्हीं के धर्म की रक्षा करने के लिए ही अब आप इस पृथ्वी पर विद्यमान हैं।

51 स्वामी को चाहिए कि अपनी सन्तान या प्रजा द्वारा किये गये अपराध को कम से कम एक बार तो सह ले। इसलिए हे परम शान्त आत्मन, आप हमारे इस मूर्ख पति को क्षमा कर दें जो यह नहीं समझ पाया कि आप कौन हैं।

52 हे भगवन आप हम पर कृपालु हों। साधु पुरुष को हम-जैसी स्त्रियों पर दया करना उचित है। यह सर्प अपना प्राण त्यागने ही वाला है। कृपया हमारे जीवन तथा आत्मा रूप हमारे पति को हमें वापस कर दें।

53 अब कृपा करके अपनी दासियों को बतलायें कि हम क्या करें। यह निश्चित है कि जो भी आपकी आज्ञा को श्रद्धापूर्वक पूरा करता है, वह स्वतः सारे भय से मुक्त हो जाता है।

54 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह नागपत्नियों द्वारा प्रशंसित भगवान ने उस कालिय सर्प को छोड़ दिया, जो मूर्छित होकर गिर चुका था और जिसके सिर भगवान के चरणकमलों के प्रहार से क्षत-विक्षत हो चुके थे।

55 धीरे-धीरे कालिय को अपनी जीवनी शक्ति तथा इन्द्रियों की क्रियाशीलता प्राप्त हो गई। तब कष्टपूर्वक जोर-जोर से साँस लेते हुए बेचारे सर्प ने विनीत भाव से भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित किया।

56 कालिय नाग ने कहा: सर्प के रूप में जन्म से ही हम ईर्ष्यालु, अज्ञानी तथा निरन्तर क्रुद्ध बने हुए हैं। हे नाथ, मनुष्यों के लिए अपना बद्ध स्वभाव, जिससे वे असत्य से अपनी पहचान करते हैं, छोड़ पाना अत्यन्त कठिन है।

57 हे परम विधाता, आप ही भौतिक गुणों की विविध व्यवस्था से निर्मित इस ब्रह्माण्ड के बनाने वाले हैं। इस प्रक्रिया में आप नाना प्रकार के व्यक्तित्व तथा योनियाँ, नाना प्रकार के ऐन्द्रिय तथा शारीरिक शक्तियाँ तथा भाँति भाँति की मनोवृत्तियों एवं आकृतियों वाले माता-पिताओं को प्रकट करते हैं।

58 हे भगवन, आपकी भौतिक सृष्टि में जितनी भी योनियाँ है उनमें से हम सर्पगण स्वभाव से सदैव क्रोधी हैं। इस तरह आपकी दुस्त्यज मायाशक्ति से मुग्ध होकर भला हम उस स्वभाव को अपने आप कैसे त्याग सकते हैं?

59 हे ईश्वर, ब्रह्माण्ड के सर्वज्ञ भगवान होने के कारण आप मोह से छूटने के वास्तविक कारण हैं। कृपा करके आप जो भी उचित समझें, हमारे लिए व्यवस्था करें, चाहे हम पर कृपा करें या दण्ड दें।

60 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कालिय के शब्द सुनकर मनुष्य की भूमिका सम्पन्न कर रहे भगवान ने उत्तर दिया: हे सर्प, अब तुम यहाँ और अधिक मत रुको। तुरन्त ही अपने बच्चों, पत्नियों, अन्य मित्रों तथा सम्बन्धियों समेत समुद्र में लौट जाओ। अब इस नदी को गौवों तथा मनुष्यों द्वारा भोगी जाने दो।

61 यदि कोई व्यक्ति तुम्हें दिये गये मेरे इस आदेश का (वृन्दावन छोड़कर समुद्र में जाने का) स्मरण करता है और प्रातः तथा संध्या समय इस कथा को बाँचता है, तो वह तुमसे कभी भयभीत नहीं होगा।

62 यदि कोई व्यक्ति मेरी क्रीड़ा के इस स्थल पर स्नान करता है और इस सरोवर का जल देवताओं तथा अन्य पूज्य पुरुषों को अर्पित करता है अथवा यदि कोई उपवास करता है, मेरी पूजा करता है और मेरा स्मरण करता है, तो वह समस्त पापों से अवश्य छूट जाएगा।

63 तुम गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस सरोवर में शरण लेने आये थे। किन्तु अब तुम्हारे ऊपर मेरे चरणचिन्ह अंकित होने से, गरुड़ तुम्हें खाने का प्रयास कभी नहीं करेगा।

64 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, अद्भुत कार्यकलाप वाले भगवान कृष्ण के द्वारा छोड़े जाने पर कालिय नाग ने अपनी पत्नियों का बड़े ही हर्ष तथा आदर के साथ – भगवान की पूजा करने में साथ दिया।

65-67 कालिय ने सुन्दर वस्त्र, मालाएँ, मणियाँ तथा अन्य मूल्यवान आभूषण, दिव्य सुगन्धियाँ तथा लेप और कमलफूलों की बड़ी माला भेंट करते हुए जगत के स्वामी की पूजा की। इस तरह गरुड़-ध्वज भगवान को प्रसन्न करके कालिय को सन्तोष हुआ। जाने की अनुमति पाकर कालिय ने उनकी परिक्रमा की और उन्हें नमस्कार किया। तब अपनी पत्नियों, मित्रों तथा बच्चों को साथ लेकर वह समुद्र में स्थित अपने द्वीप चला गया। कालिय के जाते ही यमुना नदी अपने मूल रूप में, विष से विहीन तथा अमृतोपम जल से पूर्ण हो गई। यह सब उन भगवान की कृपा से सम्पन्न हुआ जो अपनी लीलाओं का आनन्द मनाने के लिए मनुष्य के रूप में प्रकट हुए थे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पन्द्रह - धेनुकासुर का वध (10.15)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वृन्दावन में रहते हुए जब राम तथा कृष्ण ने पौगण्ड अवस्था (6-10 वर्ष) प्राप्त कर ली तो ग्वालों ने उन्हें गौवें चराने के कार्य की अनुमति प्रदान कर दी। इस तरह अपने मित्रों के साथ इन दोनों बालकों ने वृन्दावन को अपने चरणकमलों के चिन्हों से अत्यन्त पावन बना दिया।

2 इस तरह अपनी लीलाओं का आनन्द उठाने की इच्छा से वंशी बजाते हुए और अपने गुणगान कर रहे ग्वालबालों से घिरे हुए तथा बलदेव के साथ जाते हुए माधव ने गौवों को अपने आगे कर लिया और वृन्दावन के जंगल में प्रवेश किया जो फूलों से लदा था और पशुओं के स्वास्थ्य-प्रद चारे से भरा पड़ा था।

3 भगवान ने उस जंगल पर दृष्टि दौड़ाई जो भौरों, पशुओं तथा पक्षियों की मनोहर गुंजार से गूँजायमान हो रहा था। इसकी शोभा महात्माओं के मन के समान स्वच्छ जल वाले सरोवर से तथा सौ पंखड़ियों वाले कमलों की सुगन्धि ले जाने वाली मन्द वायु से भी बढ़कर थी। यह सब देखकर भगवान कृष्ण ने इस पवित्र वातावरण का आनन्द लेने का निश्चय किया।

4 आदि परमेश्वर ने देखा कि शानदार वृक्ष अपनी सुन्दर लाल-लाल कलियों तथा फलों और फूलों के भार से लदकर अपनी शाखाओं के सिरों से उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए झुक रहे हैं। तब मन्द हास करते हुए वे अपने बड़े भाई से बोले।

5 भगवान ने कहा: हे देवश्रेष्ठ, देखें न, ये वृक्ष जो अमर देवताओं द्वारा पूज्य हैं आपके चरणकमलों पर किस तरह अपना सिर झुका रहे हैं। ये वृक्ष उस गहन अज्ञान को दूर करने के लिए आपको अपने फल तथा फूल अर्पित कर रहे हैं जिसके कारण उन्हें वृक्षों का जन्म धारण करना पड़ा है।

6 हे आदिपुरुष, ये भौरें अवश्य ही महान मुनि तथा आपके परम सिद्ध भक्त होंगे क्योंकि ये मार्ग में आपका अनुसरण करते हुए आपकी पूजा कर रहे हैं और आपके यश का कीर्तन कर रहे हैं, जो सम्पूर्ण जगत के लिए स्वयं तीर्थस्थल हैं। यद्यपि आपने इस जंगल में अपना वेश बदल रखा है किन्तु हे अनघ, वे अपने आराध्यदेव, आपको छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।

7 हे आराध्य ईश्वर, ये मोर प्रसन्नता के मारे आपके समक्ष नाच रहे हैं, हिरणियाँ अपनी स्नेहिल चितवनों से आपको गोपियों की भाँति प्रसन्न कर रही हैं। ये कोयलें आपका सम्मान वैदिक स्तुतियों द्वारा कर रही हैं। जंगल के ये सारे निवासी परम भाग्यशाली हैं और आपके प्रति इनका बर्ताव किसी महात्मा द्वारा अपने घर में आये अन्य महात्मा के स्वागत के अनुरूप है।

8 अब यह धरती परम धन्य हो गई है क्योंकि आपने अपने पैरों से इसकी घास तथा झाड़ियों का, अपने नाखूनों से इसके वृक्षों तथा लताओं का स्पर्श किया है और आपने इसकी नदियों पर्वतों, पक्षियों तथा पशुओं पर अपनी कृपा-दृष्टि डाली है। इनसे भी बढ़कर, आपने अपनी तरुणी गोपियों को अपनी दोनों भुजाओं में भरकर उनका आलिंगन किया है, जिसके लिए स्वयं लक्ष्मीजी लालायित रहती हैं।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार वृन्दावन के रम्य जंगल तथा वृन्दावन के निवासियों के प्रति सन्तोष व्यक्त करते हुए भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत की तलहटी में यमुना नदी के तट पर अपने मित्रों सहित गौवों तथा अन्य पशुओं को चराने का आनन्द लिया।

10-12 कभी कभी वृन्दावन में भौंरे आनन्द में इतने मग्न हो जाते थे कि वे अपनी आँखें बन्द करके गाने लगते थे। श्रीकृष्ण अपने ग्वालमित्रों तथा बलदेव के साथ जंगल में विचरण करते हुए अपने राग में उनके गुनगुनाने की नकल उतारते थे और उनके मित्र उनकी लीलाओं का गायन करते थे। भगवान कृष्ण कभी कोयल की बोली की नकल उतारते तो कभी हंसों के कलरव की नकल उतारते। कभी वे मोर के नृत्य की नकल उतारते जिस पर उनके ग्वालमित्र खिलखिला पड़ते। कभी-कभी वे बादलों जैसे गम्भीर गर्जन के स्वर में झुण्ड से दूर गये हुए पशुओं का नाम लेकर बड़े प्यार से पुकारते जिससे गौवें तथा ग्वालबाल मुग्ध हो जाते।

13 कभी-कभी वे चकोर, क्रौंच, चक्राह्व, भारद्वाज जैसी पक्षियों की नकल करके चिल्लाते और कभी छोटे पशुओं के साथ बाघों तथा शेरों के बनावटी भय से भागने लगते।

14 जब उनके बड़े भाई खेलते खेलते थककर अपना सिर किसी ग्वालबाल की गोद में रखकर लेट जाते तो भगवान कृष्ण स्वयं बलराम के पाँव दबाकर तथा अन्य सेवाएँ करके उनकी थकान दूर करते।

15 कभी-कभी, जब ग्वालबाल नाचते, गाते, इधर उधर घूमते और खेल खेल में एक दूसरे से झगड़ते तो पास ही हाथ में हाथ डाले खड़े होकर कृष्ण तथा बलराम अपने मित्रों के कार्यकलापों की प्रशंसा करते और हँसते।

16 कभी-कभी भगवान कृष्ण झगड़ने से थक जाते और वृक्ष की जड़ के पास कोमल टहनियों तथा कलियों से बने हुए बिस्तर पर अपने किसी ग्वालबाल सखा की गोद को तकिया बनाकर लेट जाते।

17 तब कुछ ग्वालबाल जो सब के सब महान आत्माएँ थे, उनके चरणकमल मलते और अन्य ग्वालबाल निष्पाप होने के कारण बड़ी ही कुशलतापूर्वक भगवान पर पंखा झलते।

18 हे राजन, अन्य बालक समयोचित मनोहर गीत गाते और उनके हृदय भगवान के प्रति प्रेम से द्रवित हो उठते।

19 इस तरह भगवान जिनके कोमल चरणकमलों की सेवा लक्ष्मीजी स्वयं करती हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा अपने दिव्य ऐश्वर्य को छिपाकर ग्वालपुत्र की तरह कार्य करते। अन्य ग्रामवासियों के साथ ग्रामीण बालक की भाँति विचरण करते हुए वे कभी कभी ऐसे करतब दिखलाते जो केवल ईश्वर ही कर सकता है।

20 एक बार राम तथा कृष्ण के अत्यन्त घनिष्ठ मित्र श्रीदामा, सुबल, स्तोककृष्ण तथा अन्य ग्वालबाल बड़े ही प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले।

21 [ग्वालबालों ने कहा]: हे राम, हे महाबाहु, हे कृष्ण, हे दुष्टों के संहर्ता, यहाँ से कुछ ही दूरी पर एक बहुत ही विशाल जंगल है, जो ताड़ वृक्षों की पाँतों से परिपूर्ण है।

22 उस तालवन में वृक्षों से अनेकानेक फल गिरते रहते हैं और बहुत से फल पहले से ही जमीन पर पड़े हुए हैं। किन्तु इन सारे फलों की रखवाली दुष्ट धेनुक द्वारा की जा रही है।

23 हे राम, हे कृष्ण, धेनुक अत्यन्त बलशाली असुर है और उसने गधे का वेश बना रखा है। उसके आसपास अनेक मित्र हैं जिन्होंने उसी जैसा ही रूप धारण कर रखा है और वे उसी के समान बलशाली हैं।

24 धेनुकासुर ने जीवित मनुष्यों को खा लिया है, इसलिए सारे लोग तथा पशु तालवन जाने से डरते हैं। हे शत्रुहन्ता, पक्षी तक उड़ने से डरते हैं।

25 तालवन में ऐसे मधुर गन्ध वाले फल हैं, जिन्हें किसी ने कभी नहीं चखा। तालफलों की चारों ओर फैली खुशबू को हम अब भी सूँघ सकते हैं। हे कृष्ण! आप हमारे लिए वे फल ला दें। हमारे मन उनकी सुगन्ध से अत्यधिक आकृष्ट हैं।

26 हे बलराम, उन फलों को पाने की हमारी इच्छा अत्यन्त प्रबल है। यदि आप सोचते हैं कि यह विचार अच्छा है, तो चलिये उस तालवन में चलें।

27 अपने प्रिय सखाओं के वचन सुनकर कृष्ण तथा बलराम हँस पड़े और उन्हें खुश करने के लिए वे अपने ग्वालमित्रों के साथ तालवन के लिए रवाना हो गये।

28 भगवान बलराम सबसे पहले तालवन में प्रविष्ट हुए। तब अपने दोनों हाथों से मतवाले हाथी का बल लगाकर वृक्षों को हिलाने लगे जिससे ताड़ के फल भूमि पर आ गिरे।

29 गिरते हुए फलों की ध्वनि सुनकर गर्दभ असुर धेनुक पृथ्वी तथा वृक्षों को थरथराता हुआ आक्रमण करने के लिए उनकी ओर दौड़ा।

30 वह बलशाली असुर बलराम की ओर झपटा और उनकी छाती पर अपने पिछले पैरों के खुरों से कठोर वार किया। तत्पश्चात धेनुक जोर जोर से रेंकता हुआ इधर-उधर दौड़ने लगा।

31 हे राजन, वह क्रुद्ध गधा फिर से बलराम की ओर बढ़ा और अपनी पीठ उनकी ओर करके खड़ा हो गया। तत्पश्चात क्रोध से रेंकते हुए उस असुर ने उन पर दुलत्ती चलाई।

32 बलराम ने धेनुक के खुर पकड़े, उसे एक हाथ से घुमाया और ताडवृक्ष की चोटी पर फेंक दिया। इस तरह तेजी से घूमने के कारण वह असुर मर गया।

33 बलराम ने धेनुकासुर के मृत शरीर को जंगल के सबसे ऊँचे ताड़ वृक्ष के ऊपर फेंक दिया और जब यह मृत शरीर उस वृक्ष की चोटी पर जा गिरा तो वह वृक्ष हिलने लगा। इस विशाल वृक्ष से पास का एक अन्य वृक्ष भी चरमराया और असुर के भार के कारण टूट गया। इसके निकट का वृक्ष भी इसी तरह हिलकर टूट गया। इस तरह एक एक करके जंगल के अनेक वृक्ष हिले और टूट गये।

34 बलराम द्वारा इस गर्दभ असुर के शरीर को सबसे ऊँचे ताड़वृक्ष के ऊपर फेंकने की लीला से सारे वृक्ष चरमराने लगे और एक दूसरे से भिड़ने लगे मानो प्रबल झंझा के द्वारा झकझोरे गये हों।

35 हे परीक्षित, बलराम को अनन्त भगवान एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियन्ता जान लेने पर बलराम द्वारा धेनुकासुर का मारा जाना उतना आश्चर्यजनक नहीं है। निस्सन्देह, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उन पर उसी प्रकार टिका है, जिस तरह बुना हुआ वस्त्र तानों-बानों पर टिका रहता है।

36 धेनुकासुर के घनिष्ठ मित्र, अन्य गर्दभ असुर, उसकी मृत्यु देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे और वे तुरन्त कृष्ण तथा बलराम पर आक्रमण करने के लिए दौड़े।

37 हे राजन, जब असुरों ने आक्रमण किया कृष्ण तथा बलराम ने उनकी पिछली टाँगों से पकड़-पकड़ कर उन सब को ताड़ वृक्षों के ऊपर फेंक दिया।

38 इस तरह फलों के ढेरों से तथा ताड़ वृक्ष की टूटी चोटियों में फँसे असुरों के मृत शरीरों से ढकी हुई पृथ्वी अत्यन्त सुन्दर लग रही थी मानो बादलों से आकाश अलंकृत हो।

39 दोनों भाइयों का यह सुन्दर करतब (लीला) सुनकर देवताओं तथा अन्य उच्चस्थ प्राणियों ने फूलों की वर्षा की और उनकी प्रशंसा में गीत गाये तथा स्तुतियाँ कीं।

40 जिस वन में धेनुकासुर मारा गया था, उसमें लोग मुक्त भाव से फिर से जाने लगे और निडर होकर ताड़ वृक्षों के फल खाने लगे। अब गौवें भी वहाँ पर स्वतंत्रतापूर्वक घास चरने लगीं।

41 तत्पश्चात कमलनेत्र भगवान श्रीकृष्ण, जिनके यश को सुनना और जिनका कीर्तन करना अत्यन्त पवित्र है, अपने बड़े भाई बलराम के साथ अपने घर व्रज लौट आये। रास्ते भर उनके श्रद्धावान अनुयायी ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया।

42 गौवों के द्वारा उड़ाई गई धूल से सने श्रीकृष्ण के बाल मोर पंख तथा जंगली फूलों से सज्जित किये गये थे। भगवान कृष्ण अपनी वंशी बजाते हुए मोहक दृष्टि से देख रहे थे और सुन्दर ढंग से हँस रहे थे तथा उनके संगी उनके यश का गान कर रहे थे। सारी गोपियाँ एकसाथ उनसे मिलने चली आई क्योंकि उनके नेत्र दर्शन करने के लिए अत्यन्त व्यग्र थे।

43 वृन्दावन की स्त्रियों ने अपने भ्रमर रूपी नेत्रों से मुकुन्द के सुन्दर मुख का मधुपान किया और इस तरह दिन में वियोग के समय उन्हें जो पीड़ा हुई थी उसे उन्होंने त्याग दिया। वृन्दावन की तरुण स्त्रियों ने भगवान पर तिरछी चितवन डाली जो लाज, हँसी तथा विनय से पूर्ण थी तथा कृष्ण ने इस चितवन को समुचित सम्मान मानते हुए गोप-ग्राम में प्रवेश किया।

44 माता यशोदा तथा रोहिणी ने अपने दोनों पुत्रों के प्रति अत्यधिक स्नेह दर्शाते हुए उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार तथा समयानुकूल उत्तमोत्तम वस्तुएँ प्रदान कीं।

45 स्नान तथा मालिश करने से उन दोनों की ग्रामीण रास्तों में चलने से उत्पन्न थकान दूर हो गई। इसके बाद उन्हें सुन्दर वस्त्रों से सजाया गया और दिव्य मालाओं तथा सुगन्धित पदार्थों से अलंकृत किया गया।

46 अपनी माताओं द्वारा प्रदत्त स्वादिष्ट भोजन को पेट-भर खाने तथा विविध प्रकार से दुलारे जाने के बाद वे दोनों भाई व्रज में अपने अपने उत्तम बिछौनो पर लेट गये और सुखपूर्वक सो गये।

47 हे राजन, इस प्रकार भगवान कृष्ण अपनी लीलाएँ करते हुए वृन्दावन क्षेत्र में विचरण करते थे। एक बार वे अपने मित्रों समेत यमुना नदी के तट पर गये। तब बलराम उनके साथ नहीं थे।

48 उस समय गौवें तथा ग्वालबाल ग्रीष्म की कड़ी धूप से अत्यन्त सन्तप्त हो उठे। प्यास से व्याकुल होने के कारण उन्होंने यमुना नदी का जल पिया। किन्तु यह जल विष से दूषित था।

49-50 विषैले जल का स्पर्श करते ही सारी गौवें तथा ग्वालबाल भगवान की दैवी शक्ति से अचेत हो गये और निर्जीव होकर नदी के तट पर गिर पड़े। हे कुरु-वीर, भक्तों को इस अवस्था में देखकर, भगवान कृष्ण को उन भक्तों पर दया आ गई क्योंकि उनका अन्य कोई स्वामी नहीं था। कृष्ण ने अपनी अमृत-चितवन की वृष्टि द्वारा उन्हें तुरन्त पुनर्जीवित कर दिया।

51 अपनी पूर्ण चेतना वापस पाकर सारी गौवें तथा बालक जल के बाहर आकर उठ खड़े हुए और बड़े ही आश्चर्य से एक दूसरे को देखने लगे। 

52 हे राजन, तब ग्वालबालों ने सोचा कि यद्यपि वे विषैला जल पीकर सचमुच ही मर चुके थे किन्तु गोविन्द की कृपादृष्टि से ही उनको पुनः जीवनदान मिला है और अपने बल पर उठ खड़े हुए हैं।

 

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय चौदह ब्रह्मा द्वारा कृष्ण की स्तुति (10.14)

1 ब्रह्मा ने कहा: हे प्रभु, आप ही एकमात्र पूज्य भगवान हैं अतएव आपको प्रसन्न करने के लिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ और आपकी स्तुति करता हूँ। हे ग्वालनरेश पुत्र, आपका दिव्य शरीर नवीन बादलों के समान गहरा नीला है; आपके वस्त्र बिजली के समान देदीप्यमान हैं और आपके मुखमण्डल का सौन्दर्य गुञ्जा के बने कुण्डलों से तथा सिर पर लगे मोरपंख से बढ़ जाता है। अनेक वन-फूलों तथा पत्तियों की माला पहने तथा चराने की छड़ी (लकुटी), शृंग और वंशी से सज्जित आप अपने हाथ में भोजन का कौर लिए हुए सुन्दर रीति से खड़े हुए हैं।

2 हे प्रभु, न तो मैं, न ही अन्य कोई आपके इस दिव्य शरीर के सामर्थ्य का अनुमान लगा सकता है, जिसने मुझ पर इतनी कृपा दिखाई है। आपका शरीर आपके शुद्ध भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए प्रकट होता है। यद्यपि मेरा मन भौतिक कार्यकलापों से पूरी तरह विरत है, तो भी मैं आपके साकार रूप को नहीं समझ सकता तो भला अन्यों के विषय में क्या कहा जाय?

3 जो लोग अपने प्रतिष्ठित सामाजिक पदों पर रहते हुए ज्ञान-विधि का तिरस्कार करते हैं और मन, वचन और कर्मों से आपके तथा आपके कार्यकलापों के गुणगान के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं और आप तथा आपके द्वारा गुंजित इन कथाओं में अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं, वे निश्चित रूप से आपको जीत लेते हैं अन्यथा आप तीनों लोकों में किसी के द्वारा भी अजेय हैं।

4 हे प्रभु, आत्म-साक्षात्कार का सर्वोत्तम मार्ग तो आपकी ही भक्ति है। यदि कोई इस मार्ग को त्याग करके ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है, तो उसे क्लेश उठाना होगा और वांछित फल भी नहीं मिल पाएगा। जिस तरह थोथी भूसी को पीटने से अन्न (गेहूँ) नहीं मिलता उसी तरह जो केवल चिन्तन करता है उसे आत्म-साक्षात्कार नहीं हो पाता। उसके हाथ केवल क्लेश लगता है।

5 हे सर्वशक्तिमान, भूतकाल में इस संसार में अनेक योगीजनों ने अपने कर्तव्य निभाते हुए तथा अपने सारे प्रयासों को आपको अर्पित करते हुए भक्तिपद प्राप्त किया है। हे अच्युत, आपके श्रवण तथा कीर्तन द्वारा सम्पन्न ऐसी भक्ति से वे आपको जान पाये और आपकी शरण में जाकर आपके परमधाम को प्राप्त कर सके।

6 किन्तु अभक्तगण आपके पूर्ण साकार रूप में आपका अनुभव नहीं कर सकते। फिर भी हृदय के अन्दर आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा वे निर्विशेष ब्रह्म के रूप में आपका अनुभव कर सकते हैं। किन्तु वे ऐसा तभी कर सकते हैं जब वे अपने मन तथा इन्द्रियों को सारी भौतिक उपाधियों तथा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति से शुद्ध कर लें। केवल इस विधि से ही उन्हें आपका निर्वेशेष स्वरूप प्रकट हो सकेगा।

7 समय के साथ, विद्वान दार्शनिक या विज्ञानी, पृथ्वी के सारे परमाणु, हिम के कण या शायद सूर्य, नक्षत्र तथा ग्रहों से निकलने वाले ज्योति कणों की भी गणना करने में समर्थ हो सकते हैं किन्तु इन विद्वानो में ऐसा कौन है, जो आप में अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर में निहित असीम दिव्य गुणों का आकलन कर सके। ऐसे भगवान समस्त जीवात्माओं के कल्याण के लिए इस धरती पर अवतरित हुए हैं।

8 हे प्रभु, जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन, वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा पाने की प्रतीक्षा करता है, वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है।

9 हे प्रभु, मेरी अशिष्टता को जरा देखें! आपकी शक्ति की परीक्षा करने के लिए मैंने अपनी मायामयी शक्ति से आपको आच्छादित करने का प्रयत्न किया जबकि आप असीम तथा आदि परमात्मा हैं, जो मायापतियों को भी मोहित करनेवाले हैं। आपके सामने भला मैं क्या हूँ? विशाल अग्नि की उपस्थिति में, मैं छोटी चिनगारी की तरह हूँ।

10 अतएव हे अच्युत भगवान, मेरे अपराधों को क्षमा कर दें। मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ और स्वयं को आपसे पृथक (स्वतंत्र) नियन्ता मानने के कारण मैं निरा मूर्ख हूँ। अज्ञान के अंधकार से मेरी आँखें अन्धी हो चुकी हैं जिसके कारण मैं अपने को ब्रह्माण्ड का अजन्मा स्रष्टा समझ रहा हूँ। किन्तु मुझे आप अपना सेवक मानें और अपनी दया का पात्र बना लें।

11 कहाँ मैं अपने हाथ के सात बालिश्तों के बराबर एक क्षुद्र प्राणी जो भौतिक प्रकृति, समग्र भौतिक शक्ति, मिथ्या अहंकार, आकाश, वायु, जल तथा पृथ्वी से बने घड़े-जैसे ब्रह्माण्ड से घिरा हुआ हूँ! और कहाँ आपकी महिमा! आपके शरीर के रोमकूपों से होकर असंख्य ब्रह्माण्ड उसी प्रकार आ-जा रहे हैं जिस तरह खिड़की की जाली के छेदों से धूल कण आते-जाते रहते हैं।

12 हे प्रभु अधोक्षज, क्या कोई माता अपने गर्भ के भीतर स्थित शिशु, द्वारा लात मारे जाने को अपराध समझती है? क्या आपके उदर के बाहर वास्तव में ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है, जिसे दार्शनिक जन "है" या "नहीं है" की उपाधि प्रदान कर सकें?

13 हे प्रभु, ऐसा कहा जाता है कि जब प्रलय के समय तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं, तो आपके अंश, नारायण, जल में लेट जाते हैं, उनकी नाभि से धीरे-धीरे एक कमल का फूल निकलता है और उस फूल से ब्रह्मा का जन्म होता है। अवश्य ही ये वचन झूठे नहीं हैं। तो क्या मैं आपसे उत्पन्न नहीं हूँ?

14 हे परम नियन्ता, प्रत्येक देहधारी जीव के आत्मा तथा समस्त लोकों के शाश्वत साक्षी होने के कारण क्या आप आदि नारायण नहीं है? निस्सन्देह, भगवान नारायण आपके ही अंश हैं और वे नारायण इसलिए कहलाते हैं क्योंकि ब्रह्माण्ड के आदि जल के जनक हैं। वे सत्य हैं, आपकी माया से उत्पन्न नहीं हैं।

15 हे प्रभु, यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को शरण देने वाला आपका यह दिव्य शरीर वास्तव में जल में शयन करता है, तो फिर आप मुझे तब क्यों नहीं दिखे जब मैं आपको खोज रहा था? और तब क्यों आप सहसा प्रकट नहीं हो गये थे यद्यपि मैं अपने हृदय में आपको ठीक से देख नहीं पाया था ।

16 हे प्रभु, आपने इसी अवतार में यह सिद्ध कर दिया है कि आप माया के परम नियंत्रक हैं। यद्यपि आप अब इस ब्रह्माण्ड के भीतर हैं किन्तु सारा ब्रह्माण्ड आपके दिव्य शरीर के भीतर है – आपने इस तथ्य को माता यशोदा के समक्ष अपने उदर के भीतर ब्रह्माण्ड दिखलाकर प्रदर्शित कर दिया है।

17 जिस तरह आप समेत यह सारा ब्रह्माण्ड आपके उदर में प्रदर्शित किया गया था उसी तरह अब यह उसी रूप में यहाँ पर प्रकट हुआ है। आपकी अचिन्त्य शक्ति की व्यवस्था के बिना भला ऐसा कैसे घटित हो सकता है?

18 क्या आपने आज मुझे यह नहीं दिखलाया कि आप स्वयं तथा इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु आपकी अचिन्त्य शक्ति के ही प्राकट्य हैं? सर्वप्रथम आप अकेले प्रकट हुए, तत्पश्चात आप वृन्दावन के बछड़ों तथा अपने मित्र ग्वालबालों के रूप में प्रकट हुए। इसके बाद आप उतने ही चतुर्भुजी विष्णु रूपों में प्रकट हुए जो मुझ समेत समस्त जीवों द्वारा पूजे जा रहे थे। तत्पश्चात आप उतने ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के रूप में प्रकट हुए। तदनन्तर आप अद्वितीय परम ब्रह्म के अपने अनन्त रूप में वापस आ गये हैं।

19 आपकी वास्तविक दिव्य स्थिति से अपरिचित व्यक्तियों के लिए आप इस जगत के अंश रूप में अपने को अपनी अचिन्त्य शक्ति के अंश द्वारा प्रकट करते हुए अवतरित होते हैं। इस तरह ब्रह्माण्ड के सृजन के लिए आप मेरे (ब्रह्मा) रूप में, इसके पालन के लिए अपने ही (विष्णु) रूप में तथा इसके संहार के लिए आप त्रिनेत्र (शिव) के रूप में प्रकट होते हैं।

20 हे प्रभु, हे परम स्रष्टा एवं स्वामी, यद्यपि आप अजन्मा हैं किन्तु श्रद्धाविहीन असुरों के मिथ्या गर्व को चूर करने तथा अपने सन्त-सदृश भक्तों पर दया दिखाने के लिए आप देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों, पशुओं तथा जलचरों तक के बीच में जन्म लेते हैं।

21 हे भूमन, हे भगवान, हे परमात्मा, हे योगेश्वर, आपकी लीलाएँ इन तीनों लोकों में निरन्तर चलती रहती हैं किन्तु इसका अनुमान कौन लगा सकता है कि आप कहाँ, कैसे और कब अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर रहे हैं और इन असंख्य लीलाओं को सम्पन्न कर रहे हैं? इस रहस्य को कोई नहीं समझ सकता कि आपकी आध्यात्मिक शक्ति किस प्रकार से कार्य करती है।

22 अतः यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जो कि स्वप्न के तुल्य है प्रकृति से असत है फिर भी असली (सत) प्रतीत होता है और इस तरह यह मनुष्य की चेतना को प्रच्छन्न कर लेता है और बारम्बार दुख का कारण बनता है। यह ब्रह्माण्ड सत्य इसलिए लगता है क्योंकि यह आपसे उद्भूत माया की शक्ति द्वारा प्रकट किया जाता है जिनके असंख्य दिव्य रूप– शाश्वत सुख तथा ज्ञान से पूर्ण हैं।

23 आप ही परमात्मा, आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, परम सत्य, स्वयंप्रकट, अनन्त तथा अनादि हैं। आप शाश्वत तथा अच्युत, पूर्ण, अद्वितीय तथा समस्त भौतिक उपाधियों से मुक्त हैं। न तो आपके सुख को रोका जा सकता है, न ही आपका भौतिक कल्मष से कोई नाता है। आप विनाशरहित और अमृत हैं।

24 जिन्होंने सूर्य जैसे आध्यात्मिक गुरु से ज्ञान की स्पष्ट दृष्टि प्राप्त कर ली है वे आपको समस्त आत्माओं की आत्मा तथा हर एक के परमात्मा के रूप में देख सकते हैं। इस तरह आपको आदि पुरुषस्वरूप समझकर वे मायारूपी भवसागर को पार कर सकते हैं।

25 जिस व्यक्ति को रस्सी से सर्प का भ्रम हो जाता है, वह भयभीत हो उठता है किन्तु यह अनुभव करने पर कि तथाकथित सर्प तो था ही नहीं, वह अपना भय त्याग देता है। इसी प्रकार जो लोग आपको समस्त आत्माओं (जीवों) के परमात्मा के रूप में नहीं पहचान पाते उनके लिए विस्तृत मायामय संसार उत्पन्न होता है किन्तु आपका ज्ञान होने पर वह तुरन्त दूर हो जाता है।

26 भवबन्धन तथा मोक्ष दोनों ही अज्ञान की अभिव्यक्तियाँ हैं। सच्चे ज्ञान की सीमा के बाहर होने के कारण, इन दोनों का अस्तित्व मिट जाता है जब मनुष्य ठीक से यह समझ लेता है कि शुद्ध आत्मा, पदार्थ से भिन्न है और सदैव पूर्णतया चेतन है। उस समय बन्धन तथा मोक्ष का कोई महत्व नहीं रहता जिस तरह सूर्य के परिप्रेक्ष्य में दिन तथा रात का कोई महत्व नहीं होता।

27 जरा उन अज्ञानी पुरुषों की मूर्खता तो देखिये जो आपको मोह की भिन्न अभिव्यक्ति मानते हैं और अपने (आत्मा) को, जो कि वास्तव में आप हैं, अन्य कुछ – भौतिक शरीर – मानते हैं। ऐसे मूर्खजन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परमात्मा की खोज परम पुरुष आप से बाहर अन्यत्र की जानी चाहिए।

28 हे अनन्त भगवान, सन्तजन आपसे भिन्न हर वस्तु का तिरस्कार करते हुए अपने ही शरीर के भीतर आपको खोज निकालते हैं। निस्सन्देह, विभेद करनेवाले व्यक्ति भला किस तरह अपने समक्ष पड़ी हुई रस्सी की असली प्रकृति को जान सकते हैं जब तक वे इस भ्रम का निराकरण नहीं कर लेते कि यह सर्प है?

29 हे प्रभु, यदि किसी पर आपके चरणकमलों की लेशमात्र भी कृपा हो जाती है, तो वह आपकी महानता को समझ सकता है। किन्तु जो लोग भगवान को समझने के लिए चिन्तन करते हैं, वे अनेक वर्षों तक वेदों का अध्ययन करते रहने पर भी आपको नहीं जान पाते।

30 अतः हे प्रभु, मेरी प्रार्थना है कि मैं इतना भाग्यशाली बन सकूँ कि इसी जीवन में ब्रह्मा के रूप में या दूसरे जीवन में जहाँ कहीं भी जन्म लूँ, मेरी गणना आपके भक्तों में हो। मैं प्रार्थना करता हूँ कि चाहे पशु योनि में ही सही, मैं जहाँ कहीं भी होऊँ, आपके चरणकमलों की भक्ति में लग सकूँ ।

31 हे सर्वशक्तिमान भगवान, वृन्दावन की गौवें तथा स्त्रियाँ कितनी भाग्यशालिनी हैं जिनके बछड़े तथा पुत्र बनकर आपने परम प्रसन्नतापूर्वक एवं सन्तोषपूर्वक उनके स्तनपान का अमृत पिया है! अनन्तकाल से अब तक सम्पन्न किये गये सारे वैदिक यज्ञों से भी आपको उतना सन्तोष नहीं हुआ होगा।

32 नन्द महाराज, सारे ग्वाले तथा व्रजभूमि के अन्य सारे निवासी कितने भाग्यशाली हैं! उनके सौभाग्य की कोई सीमा नहीं है क्योंकि दिव्य आनन्द के स्रोत परम सत्य अर्थात सनातन परब्रह्म उनके मित्र बन चुके हैं।

33 वृन्दावन के इन वासियों की सौभाग्य सीमा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता; फिर भी विविध इन्द्रियों के ग्यारह अधिष्ठाता देवता हम, जिनमें शिवजी प्रमुख हैं, परम भाग्यशाली हैं क्योंकि वृन्दावन के इन भक्तों की इन्द्रियाँ वे प्याले हैं जिनसे हम आपके चरणकमलों का अमृत तुल्य मादक मधुपेय बारम्बार पीते हैं।

34 मेरा सम्भावित परम सौभाग्य यह होगा कि मैं गोकुल के इस वन में जन्म ले सकूँ और इसके निवासियों में से किसी के भी चरणकमलों से गिरी हुई धूल से अपने सिर का अभिषेक करूँ। उनका सारा जीवनसार पूर्ण पुरषोत्तम भगवान मुकुन्द हैं जिनके चरणकमलों की धूल की खोज आज भी वैदिक मंत्रों में की जा रही है।

35 मेरा मन मोहग्रस्त हो जाता है जब मैं यह सोचने का प्रयास करता हूँ कि कहीं भी आपके अतिरिक्त अन्य कोई पुरस्कार (फल) क्या हो सकता है? आप समस्त वरदानों के साकार रूप हैं, जिन्हें आप वृन्दावन के ग्वाल जाति के निवासियों को प्रदान करते हैं। आपने पहले ही उस पूतना द्वारा भक्त का वेश बनाने के बदले में उसे तथा उसके परिवारवालों को अपने आप को दे डाला है। अतएव वृन्दावन के इन भक्तों को देने के लिए आपके पास बचा ही क्या है जिनके घर, धन, मित्रगण, प्रिय परिजन, शरीर, सन्तानें तथा प्राण और हृदय – सभी केवल आपको समर्पित हो चुके हैं?

36 हे भगवान कृष्ण, जब तक लोग आपके भक्त नहीं बन जाते तब तक उनकी भौतिक आसक्तियाँ तथा इच्छाएँ चोर बनी रहती हैं; उनके घर बन्दीगृह बने रहते हैं और अपने परिजनों के प्रति उनकी स्नेहपूर्ण भावनाएँ पाँवों की बेड़ियाँ बनी रहती है।

37 हे स्वामी, यद्यपि भौतिक जगत से आपको कुछ भी लेना-देना नहीं रहता किन्तु आप इस धरा पर आकर अपने शरणागत भक्तों के लिए आनन्द-भाव की विविधताओं को विस्तृत करने के लिए भौतिक जीवन का अनुकरण करते हैं।

38 ऐसे लोग भी है जो यह कहते हैं कि वे कृष्ण के विषय में सब कुछ जानते हैं – वे ऐसा सोचा करें। किन्तु जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं इस विषय में कुछ अधिक नहीं कहना चाहता। हे प्रभु, मैं तो इतना ही कहूँगा कि जहाँ तक आपके ऐश्वर्यों की बात है वे मेरे मन, शरीर तथा शब्दों की पहुँच से बाहर है।

39 हे कृष्ण, अब मैं आपसे विदा लेने की अनुमति के लिए विनीत भाव से अनुरोध करता हूँ। वास्तव में आप सारी वस्तुओं के ज्ञाता तथा दृष्टा हैं। आप समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं फिर भी मैं आपको यह एक ब्रह्माण्ड अर्पित करता हूँ।

40 हे कृष्ण, आप कमल तुल्य वृष्णि कुल को सुख प्रदान करनेवाले हैं और पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण तथा गौवों से युक्त महासागर को बढ़ाने वाले हैं। आप अधर्म के गहन अंधकार को दूर करते हैं और इस पृथ्वी में प्रकट हुए असुरों का विरोध करते हैं। हे भगवन, जब तक यह ब्रह्माण्ड बना रहेगा, जब तक सूर्य चमकेगा मैं आपको सादर नमस्कार करता रहूँगा।

41 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार स्तुति करने के बाद ब्रह्माजी ने अपने आराध्य अनन्त भगवान की तीन बार प्रदक्षिणा की और फिर उनके चरणों पर नतमस्तक हुए। तत्पश्चात ब्रह्माण्ड के नियुक्त स्रष्टा अपने लोक में लौट आये।

42 अपने पुत्र ब्रह्मा को प्रस्थान की अनुमति देकर भगवान ने बछड़ों को साथ ले लिया, जो अब भी वहीं थे जहाँ वे एक वर्ष पूर्व थे और उन्हें नदी के तट पर ले आये जहाँ पर भगवान स्वयं पहले भोजन कर रहे थे और जहाँ पर उनके ग्वालबाल मित्र पूर्ववत थे।

43 हे राजन, यद्यपि बालकों ने अपने प्राणेश से विलग रहकर पूरा एक वर्ष बिता दिया था किन्तु वे कृष्ण की मायाशक्ति से आवृत कर दिये गए थे अतः उन्होंने उस वर्ष को केवल आधा क्षण ही समझा।

44 जिनके मन भगवान की मायाशक्ति द्वारा मोहित हों, भला उन्हें क्या नहीं भूल जाता? माया की शक्ति से यह निखिल ब्रह्माण्ड निरन्तर मोहग्रस्त रहता है और इस विस्मृति के वातावरण में कोई अपनी पहचान नहीं समझ सकता।

45 ग्वाल मित्रों ने भगवान कृष्ण से कहा "तुम इतनी जल्दी आ गये ! तुम्हारी अनुपस्थिति में हमने एक कौर भी नहीं खाया। आओ और अच्छी तरह से अपना भोजन करो।"

46 तत्पश्चात भगवान ऋषिकेश ने हँसते हुए अपने गोपमित्रों के साथ अपना भोजन समाप्त किया। जब वे जंगल से व्रज में स्थित अपने घरों को लौट रहे थे तो भगवान कृष्ण ने ग्वालबालों को अघासुर अजगर की खाल दिखलाई।

47 भगवान कृष्ण का दिव्य शरीर मोरपंखों तथा फूलों से सजा था और जंगल के खनिजों से रँगा हुआ था और बाँस की उनकी वंशी उच्च एवं उल्लासपूर्ण स्वर में गूँज रही थी। जब वे बछड़ों का नाम लेकर पुकारते तो उनके ग्वालमित्र उनकी महिमा का गान करते और सारे संसार को पवित्र बना देते। इस तरह कृष्ण भगवान अपने पिता नन्द महाराज की चरागाह में प्रविष्ट हुए। उनके सौन्दर्य पर दृष्टि पड़ते ही समस्त गोपियों की आँखों के लिए एक महोत्सव सा उत्पन्न हो गया।

48 व्रज ग्राम पहुँचते ही बालकों ने गुणगान किया, “आज कृष्ण ने एक विशाल सर्प मारकर हम सबको बचाया है।" कुछ बालकों ने कृष्ण को यशोदानन्दन के रूप में तो कुछ ने नन्द महाराज के पुत्र के रूप में बखान किया।

49 राजा परीक्षित ने कहा:हे ब्राह्मण, ग्वालों की पत्नियों में एक पराये पुत्र कृष्ण के लिए ऐसा अभूतपूर्व शुद्ध प्रेम किस प्रकार उत्पन्न हुआ – ऐसा प्रेम जिसका अनुभव उन्हें अपने पुत्रों के प्रति भी नहीं उत्पन्न हुआ? कृपया इसे बतलाइये।"

50 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, प्रत्येक प्राणी को अपना आप ही सर्वाधिक प्रिय होता है। सन्तान, धन इत्यादि अन्य समस्त वस्तुओं की प्रियता केवल आत्म-प्रियता के कारण है।

51 अतएव हे राजाओं में श्रेष्ठ, देहधारी जीव आत्मकेन्द्रित होता है। वह सन्तान, धन तथा घर इत्यादि वस्तुओं की अपेक्षा अपने शरीर तथा अपनी ओर अधिक आसक्त होता है।

52 हे राजाओं में श्रेष्ठ, जो लोग शरीर को ही अपना सर्वस्व मानते हैं उनके लिए वे वस्तुएँ जिनका महत्व शरीर के लिए होता है कभी भी शरीर जितनी प्रिय नहीं होतीं।

53 यदि मनुष्य शरीर को "मैं" न मानकर "मेरा" मानने की अवस्था तक पहुँच जाता है, तो वह निश्चित रूप से शरीर को अपने आप जितना प्रिय नहीं मानेगा। यही कारण है कि शरीर के जीर्णशीर्ण हो जाने पर भी जीवित रहते जाने की आशा प्रबल रहती है।

54 इसलिए हर देहधारी जीव को अपना आप (स्वात्म) ही सर्वाधिक प्रिय है और इसी की तुष्टि के लिए यह समस्त चराचर जगत विद्यमान है।

55 तुम कृष्ण को समस्त जीवों की आदि आत्मा करके जानो। वे अपनी अहैतुकी की कृपावश, समस्त जगत के लाभ हेतु, सामान्य मानव के रूप में प्रकट हुए हैं। ऐसा उन्होंने अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर किया है।

56 इस जगत में जो लोग भगवान कृष्ण को यथारूप में समझते हैं, वे समस्त चर या अचर वस्तुओं को भगवान के व्यक्त रूप में देखते हैं। ऐसे प्रबुद्ध लोग भगवान कृष्ण से परे अन्य किसी यथार्थ (वास्तविकता) को नहीं मानते।

57 प्रकृति का आदि अव्यक्त रूप समस्त भौतिक वस्तुओं का स्रोत है और यहाँ तक कि इस सूक्ष्म प्रकृति के स्रोत तो भगवान कृष्ण हैं। तो भला उनसे पृथक किसको कहा जा सकता है?

58 दृश्यजगत के आश्रय एवं मुर राक्षस के शत्रु मुरारी के नाम से प्रसिद्ध भगवान के चरणकमल रूपी नाव को जिन्होंने स्वीकार किया है उनके लिए यह भवसागर बछड़े के खुर चिन्ह में भरे जल के समान है। उनका लक्ष्य परम् पदम् अर्थात वैकुण्ठ होता है जहाँ भौतिक विपदाओं का नामोनिशान नहीं होता, न ही पग पग पर कोई संकट होता है।

59 चूँकि आपने मुझसे पूछा था कि भूतकाल में घटित इन घटनाओं को वर्तमान में घटित होते क्यों वर्णन किया गया है? इसलिए मैंने भगवान हरि की उन लीलाओं का सम्पूर्ण वर्णन किया, जो उन्होंने अपनी आयु के पाँचवे वर्ष में सम्पन्न की थीं।

60 मुरारी द्वारा ग्वालबालों के साथ सम्पन्न इन लीलाओं को यथा – अघासुर वध, जंगल की घास पर बैठकर भोजन करना, भगवान द्वारा दिव्य रूपों का प्राकट्य तथा ब्रह्मा द्वारा की गई अद्भुत स्तुति को जो भी व्यक्ति सुनता है उनका कीर्तन करता है उसकी सारी आध्यात्मिक मनोकामनाएँ अवश्य पूरी होती हैं।

61 इस प्रकार व्रज भूमि में आँखमिचौनी का खेल खेलते, खेल में ही पुल बनाते, बन्दरों की तरह कूदफाँद करते तथा अन्य ऐसे ही खेलों में लगे रहकर बालकों ने अपना बाल्यकाल बिताया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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अध्याय तेरह ब्रह्मा द्वारा बालकों तथा बछड़ों की चोरी (10.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे भक्त शिरोमणि, परम भाग्यशाली परीक्षित, तुमने बहुत सुन्दर प्रश्न किया है क्योंकि भगवान की लीलाओं को निरन्तर सुनने पर भी तुम उनके कार्यों को नित्य नूतन रूप में अनुभव कर रहे हो।

2 जीवन-सार को स्वीकार करने वाले परम हंस भक्त अपने अन्तःकरण से कृष्ण के प्रति अनुरक्त होते हैं और कृष्ण ही उनके जीवन के लक्ष्य रहते हैं। प्रतिक्षण कृष्ण की ही चर्चा करना उनका स्वभाव होता है, मानो ये कथाएँ नित्य नूतन हों। वे इन कथाओं के प्रति उसी तरह अनुरक्त रहते हैं जिस तरह भौतिकतावादी लोग स्त्रियों तथा विषय-वासना की चर्चाओं में रस लेते हैं।

3 हे राजन, मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें। यद्यपि भगवान की लीलाएँ अत्यन्त गुह्य हैं और सामान्य व्यक्ति उन्हें नहीं समझ सकता किन्तु मैं तुमसे उनके विषय में कहूँगा क्योंकि गुरुजन विनीत शिष्य को गुह्य से गुह्य तथा कठिन से कठिन विषयों को भी बता देते हैं।

4 मृत्यु रूप अघासुर के मुख से बालकों तथा बछड़ों को बचाने के बाद भगवान कृष्ण उन सब को नदी के तट पर ले आये और उनसे निम्नलिखित शब्द कहे।

5 मित्रों, देखो न, यह नदी का किनारा अपने मोहक वातावरण के कारण कितना रम्य लगता है। देखो न, खिले कमल किस तरह अपनी सुगन्ध से भौरों तथा पक्षियों को आकृष्ट कर रहे हैं। भौरों की गुनगुनाहट तथा पक्षियों की चहचहाहट जंगल के सभी सुन्दर वृक्षों से प्रतिध्वनित हो रही है और यहाँ की बालू साफ तथा मुलायम है। अतः हमारे खेल तथा हमारी लीलाओं के लिए यह सर्वोत्तम स्थान है।

6 मेरे विचार में हम यहाँ भोजन करें क्योंकि विलम्ब हो जाने से हम भूखे हो उठे हैं। यहाँ बछड़े पानी पी सकते हैं और धीरे धीरे इधर-उधर जाकर घास चर सकते हैं।

7 भगवान कृष्ण के प्रस्ताव को मानकर ग्वालबालों ने बछड़ों को नदी में पानी पीने दिया और फिर उन्हें वृक्षों से बाँध दिया जहाँ हरी मुलायम घास थी। तब बालकों ने अपने भोजन की पोटलियाँ खोलीं और दिव्य आनन्द से पूरित होकर कृष्ण के साथ खाने लगे।

8 जिस तरह पंखुड़ियों तथा पत्तियों से घिरा हुआ कोई कमल-पुष्प कोश हो उसी तरह बीच में कृष्ण बैठे थे और उन्हें घेर कर पंक्तियों में उनके मित्र बैठे थे। वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे। उनमें से हर बालक यह सोचकर कृष्ण की ओर देखने का प्रयास कर रहा था कि शायद कृष्ण भी उसकी ओर देखें। इस तरह उन सबों ने जंगल में भोजन का आनन्द लिया।

9 ग्वालबालों में से किसी ने अपना भोजन फूलों पर किसी ने पत्तियों, फलों या पत्तों के गुच्छों पर, किसी ने वास्तव में अपनी ही डलिया (डिब्बे) में, तो किसी ने पेड़ की खाल पर तथा किसी ने चट्टानों पर रख लिया। बालकों ने खाते समय इन्हें ही अपनी प्लेटें (थालियाँ) मान लिया।

10 अपने अपने घर से लाये गये भोजन की किस्मों के भिन्न भिन्न स्वादों को एक-दूसरे को बतलाते हुए सारे ग्वालों ने कृष्ण के साथ भोजन का आनन्द लिया। वे एक-दूसरे का भोजन चख-चख कर हँसने तथा हँसाने लगे।

11 कृष्ण यज्ञ-भुक हैं – अर्थात वे केवल यज्ञ की आहुतियाँ ही खाते हैं किन्तु अपनी बाल-लीलाएँ प्रदर्शित करने के लिए वे अपनी वंशी को कमर के दाहिनी ओर कसे वस्त्र के बीच तथा सींग के बिगुल और गाय चराने की लाठी को बाईं और खोंस कर बैठ गये। वे अपने हाथ में दही तथा चावल का बना सुन्दर व्यंजन लेकर और अपनी अँगुलियों के बीच में उपयुक्त फलों के टुकड़े पकड़कर इस तरह बैठे थे जैसे कमल का कोश हो। वे आगे की ओर अपने सभी मित्रों को देख रहे थे और खाते-खाते उनसे उपहास करते जाते थे जिससे सभी ठहाका लगा रहे थे। उस समय स्वर्ग के निवासी यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि किस तरह यज्ञ-भुक भगवान अब अपने मित्रों के साथ जंगल में बैठकर खाना खा रहे हैं।

12 हे महाराज परीक्षित, एक ओर जहाँ अपने हृदय में कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी को न जानने वाले ग्वालबाल जंगल में भोजन करने में इस तरह व्यस्त थे वहीं दूसरी ओर बछड़े हरी घास से ललचाकर दूर घने जंगल में चरने निकल गये।

13 जब कृष्ण ने देखा कि उनके ग्वालबाल मित्र डरे हुए हैं, तो भय के भी भीषण नियन्ता ने, उनके भय को दूर करने के लिए कहा, “मित्रों, खाना मत बन्द करो। मैं स्वयं जाकर तुम्हारे बछड़ों को वापस लाये दे रहा हूँ।"

14 कृष्ण ने कहा,मुझे जाकर बछड़े ढूँढने दो। अपने आनन्द में खलल मत डालो।" फिर हाथ में दही तथा चावल लिए, भगवान कृष्ण तुरन्त ही अपने मित्रों को तुष्ट करने के लिए – उनके बछड़ों को सारे पर्वतों, गुफाओं, झाड़ियों तथा सँकरे मार्गों में खोजने लगे।

15 हे महाराज परीक्षित, स्वर्गलोक में वास करने वाले ब्रह्मा ने अघासुर के वध करने तथा मोक्ष देने के लिए सर्वशक्तिमान कृष्ण के कार्यकलापों को देखा था और वे अत्यधिक चकित थे। अब वही ब्रह्मा कुछ अपनी शक्ति दिखाना और उन कृष्ण की शक्ति देखना चाह रहे थे, जो सामान्य ग्वालबालों के साथ खेलते हुए अपनी बाल-लीलाएँ कर रहे थे। इसलिए कृष्ण की अनुपस्थिति में ब्रह्मा सारे बालकों तथा बछड़ों को किसी दूसरे स्थान पर लेकर चले गये। इस तरह वे फँस गये क्योंकि निकट भविष्य में वे देखेंगे कि कृष्ण कितने शक्तिशाली हैं।

16 तत्पश्चात जब कृष्ण बछड़ों को खोज न पाये तो वे यमुना के तट पर लौट आये, किन्तु वहाँ पर भी उन्होंने ग्वालबालों को नहीं देखा। इस तरह वे बछड़ों तथा बालकों को ऐसे ढूँढने लगे, मानों उनकी समझ में न आ रहा हो कि यह क्या हो गया।

17 जब कृष्ण बछड़ों तथा उनके पालक ग्वालबालकों को जंगल में कहीं भी ढूँढ न पाये तो वे तुरन्त समझ गये कि यह ब्रह्मा की ही करतूत है।

18 तत्पश्चात ब्रह्मा, बछड़ों एवं ग्वालबालों की माताओं को आनन्दित करने के लिए, समस्त ब्रह्माण्ड के स्रष्टा कृष्ण ने बछड़ों तथा बालकों के रूप में अपना विस्तार कर लिया।

19 अपने वासुदेव रूप में कृष्ण ने खोये हुए ग्वाल-बालकों तथा बछड़ों की जितनी संख्या थी, उतने ही वैसे ही शारीरिक स्वरूपों, उसी तरह के हाथों, पाँवों तथा अन्य अंगों वाले, उनकी लाठियों, तुरहियों तथा वंशियों, उनके भोजन के छींकों, विभिन्न प्रकार से पहनी हुई उनकी विशेष वेशभूषाओं तथा गहनों, उनके नामों, उम्रों तथा विशेष कार्यकलापों एवं गुणों से युक्त स्वरूपों में अपना विस्तार कर लिया।

20 इस प्रकार अपना विस्तार करके सुन्दर कृष्ण ने यह उक्ति सिद्ध कर दी – समग्र जगद विष्णुमयम – भगवान विष्णु सर्वव्यापी हैं। इस तरह अपना विस्तार करने के बाद जिससे वे सभी बछड़ों तथा बालकों की तरह लगें और साथ ही उनके अगुवा भी लगें, कृष्ण ने अब अपने पिता नन्द महाराज की व्रजभूमि में इस तरह प्रवेश किया जिस तरह वे उन सबके साथ आनन्द मनाते हुए सामान्यतया किया करते थे।

21 हे महाराज परीक्षित, जिन कृष्ण ने अपने को विभिन्न बछड़ों तथा भिन्न भिन्न ग्वालबालों में विभक्त कर लिया था, वे अब बछड़ों के रूप में–विभिन्न गोशालाओं में और बालकों के रूपों में–विभिन्न घरों में गये।

22 बालकों की माताओं ने अपने-अपने पुत्रों की वंशियों तथा बिगुलों की ध्वनि सुनकर अपना गृहकार्य छोड़कर उन्हें गोद में उठा लिया और उनका आलिंगन किया। प्रगाढ़ प्रेम के कारण विशेष रूप से कृष्ण के प्रति प्रेम के कारण स्तनों से बह रहा दूध वे उन्हें पिलाने लगीं। वस्तुतः कृष्ण सर्वस्व हैं लेकिन उस समय अत्यधिक स्नेह व्यक्त करती हुई वे परब्रह्म कृष्ण को दूध पिलाने में विशेष आनन्द का अनुभव करने लगी और कृष्ण ने उन माताओं का क्रमश: दूध पिया मानो वह अमृतमय पेय हो।

23 तत्पश्चात हे महाराज परीक्षित, अपनी लीलाओं के कार्यक्रमानुसार कृष्ण शाम को लौटते हुए, हर ग्वालबाल के घर में प्रवेश करते और असली बच्चों की तरह कार्य करते जिससे उनकी माताओं को दिव्य आनन्द प्राप्त होता। माताएँ अपने बालकों की देखभाल करतीं, उन्हें तेल लगातीं, उन्हें नहलातीं, चन्दन का लेप लगातीं, गहनों से सजातीं, रक्षा-मंत्र पढ़तीं, उनके शरीर पर तिलक लगातीं और उन्हें भोजन करातीं। इस तरह माताएँ अपने हाथों से कृष्ण की सेवा करतीं।

24 तत्पश्चात सारी गौवें अपने गोष्ठों में घुसतीं और बछड़ों को बुलाने के लिए जोर से रँभाने लगतीं। जब बछड़े आ जाते तो माताएँ उनके शरीरों को बारम्बार चाटतीं और उन्हें प्रचुर दूध पिलातीं।

25 प्रारम्भ से ही गोपियों का कृष्ण के प्रति मातृवत स्नेह था। कृष्ण के प्रति उनका यह स्नेह अपने पुत्रों के प्रति स्नेह से भी अधिक था। इस तरह अपने स्नेह-प्रदर्शन में वे कृष्ण तथा अपने पुत्रों में भेद बरतती थीं किन्तु अब वह भेद दूर हो चुका था।

26 यद्यपि व्रजभूमि के सारे निवासियों – ग्वालों तथा गोपियों – में पहले से ही कृष्ण के लिए अपने निजी पुत्रों से अधिक स्नेह था किन्तु अब एक वर्ष तक उनके अपने पुत्रों के प्रति यह स्नेह लगातार बढ़ता ही गया क्योंकि अब कृष्ण उनके पुत्र बन चुके थे। अब अपने पुत्रों के प्रति, जो कि कृष्ण ही थे, उनके प्रेम की वृद्धि का कोई वारापार (नि:सीम) न था। नित्य ही उन्हें अपने पुत्रों से कृष्ण जितना प्रेम करने की नई प्रेरणा प्राप्त हो रही थी।

27 इस तरह ग्वालबालों तथा बछड़ों का समूह बना लेने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अपने को उसी रूप में बनाये रहे। वे उसी प्रकार से वृन्दावन तथा जंगल दोनों ही जगहों में एक वर्ष तक अपनी लीलाएँ करते रहे।

28 एक दिन जबकि वर्ष पूरा होने में अभी पाँच-छह रातें शेष थीं कृष्ण बलराम सहित बछड़ों को चराते हुए जंगल में प्रविष्ट हुए।

29 तत्पश्चात गोवर्धन पर्वत की चोटी पर चरती हुई गौवों ने हरी घास खोजने के लिए नीचे देखा तो उन्होंने अपने बछड़ों को वृन्दावन के निकट चरते देखा जो अधिक दूरी पर नहीं था।

30 जब गायों ने गोवर्धन पर्वत की चोटी से अपने-अपने बछड़ों को देखा तो वे अधिक स्नेहवश अपने आपको तथा अपने चराने वालों को भूल गई और दुर्गम मार्ग होते हुए भी वे अपने बछड़ों की ओर अतीव चिन्तित होकर दौड़ी मानो वे दो पाँवों से ही दौड़ रही हों। उनके थन से दूध बह रहा था, सिर तथा पूछें उठी हुई थीं और उनके डिल्ले (कूबड़) गर्दन के साथ साथ हिल रहे थे। वे तब तक तेजी से दौड़ती रहीं जब तक वे अपने बच्चों के पास दूध पिलाने पहुँच नहीं गई।

31 गौवों ने नये बछड़ों को जन्म दिया था किन्तु गोवर्धन पर्वत से नीचे आते हुए, अपने पुराने बछड़ों के लिए अतीव स्नेह के कारण इन्हीं बछड़ों को अपने थन का दूध पीने दिया। वे चिन्तित होकर उनका शरीर चाटने लगीं मानो उन्हें निगल जाना चाहती हों।

32 गौवों को उनके बछड़ों के पास जाने से रोकने में असमर्थ ग्वाले लज्जित होने के साथ-साथ क्रुद्ध भी हुए। उन्होंने बड़ी कठिनाई से दुर्गम मार्ग पार किया किन्तु जब वे नीचे आए और अपने अपने पुत्रों को देखा तो वे अत्यधिक स्नेह से अभिभूत हो गये।

33 उस समय ग्वालों के सारे विचार अपने अपने पुत्रों को देखने से उत्पन्न वात्सल्य-प्रेम रस में विलीन हो गये। अत्यधिक आकर्षण का अनुभव करने से उनका क्रोध छू-मंतर हो गया। उन्होंने अपने पुत्रों को उठाकर बाँहों में भरकर आलिंगन किया और उनके सिरों को सूँघ कर सर्वोच्च आनन्द प्राप्त किया।

34 तत्पश्चात प्रौढ़ ग्वाले अपने पुत्रों के आलिंगन से अत्यन्त तुष्ट होकर बड़ी कठिनाई और अनिच्छा से उनका आलिंगन धीरे धीरे छोड़कर जंगल लौट आये। किन्तु जब उन्हें अपने पुत्रों का स्मरण हुआ तो उनकी आँखों से आँसू लुढ़क आये।

35 स्नेहाधिक्य के कारण गौवों को उन बछड़ों से भी निरन्तर अनुराग था, जो बड़े होने के कारण उनका दूध पीना छोड़ चुके थे। जब बलदेव ने यह अनुराग देखा तो इसका कारण उनकी समझ में नहीं आया अतः वे इस प्रकार सोचने लगे।

36 यह विचित्र घटना क्या है? सभी व्रजवासियों का, मुझ समेत, इन बालकों तथा बछड़ों के प्रति अपूर्व प्रेम उसी तरह बढ़ रहा है, जिस तरह सब जीवों के परमात्मा भगवान कृष्ण के प्रति हमारा प्रेम बढ़ता है।

37 यह योगशक्ति कौन है और कहाँ से आई है? क्या वह देवी है या कोई राक्षसी है? अवश्य ही वह मेरे प्रभु कृष्ण की माया होगी क्योंकि उसके अतिरिक्त मुझे और कौन मोह सकता है?

38 इस प्रकार सोचते हुए बलराम अपने दिव्य ज्ञान के चक्षुओं से देख सके कि ये सारे बछड़े तथा कृष्ण के साथी श्रीकृष्ण के ही अंश हैं।

39 भगवान बलदेव ने कहा:हे परम नियन्ता! ये बालक महान देवता नहीं हैं, न ही ये बछड़े नारद जैसे महान ऋषि हैं। अब मैं देख सकता हूँ कि तुम्हीं अपने को नाना प्रकार के रूप में प्रकट कर रहे हो। एक होते हुए भी तुम बछड़ों तथा बालकों के विविध रूपों में विद्यमान हो। कृपा करके मुझे यह विस्तार से बतलाओ।" बलदेव द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर कृष्ण ने सारी स्थिति समझा दी और बलदेव उसे समझ भी गये।

40 जब ब्रह्मा एक क्षण के बाद (अपनी गणना के अनुसार) वहाँ लौटे तो उन्होंने देखा कि यद्यपि मनुष्य की माप के अनुसार पूरा एक वर्ष बीत चुका है, तो भी कृष्ण उतने समय बाद भी उसी तरह अपने अंशरूप बालकों तथा बछड़ों के साथ खेलने में व्यस्त हैं।

41 भगवान ब्रह्मा ने सोचा: गोकुल के जितने भी बालक तथा बछड़े थे उन्हें मैंने अपनी योगशक्ति की सेज पर सुला रखा है और आज के दिन तक वे जगे नहीं हैं।

42 यद्यपि पूरे एक वर्ष तक कृष्ण के साथ उतने ही बालक तथा बछड़े खेलते रहे फिर भी ये मेरी योगशक्ति से मोहित बालकों से भिन्न हैं। ये कौन हैं? ये कहाँ से आये?

43 इस तरह दीर्घकाल तक विचार करते करते भगवान ब्रह्मा ने उन दो प्रकार के बालकों में अन्तर जानने का प्रयास किया जो एक-दूसरे से पृथक रह रहे थे। वे यह जानने का प्रयास करते रहे कि कौन असली है और कौन नकली है किन्तु वे कुछ भी नहीं समझ पाये।

44 चूँकि ब्रह्मा ने सर्वव्यापी भगवान कृष्ण को – जो कभी मोहित नहीं किये जा सकते अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को मोहित करने वाले हैं – , मोहित करना चाहा इसलिए वे स्वयं, अपनी ही योगशक्ति द्वारा मोह में फँस गये।

45 जिस तरह अँधेरी रात में बर्फ का अँधेरा तथा दिन के समय जुगनू के प्रकाश का कोई महत्व नहीं होता, उसी तरह निकृष्ट व्यक्ति की योगशक्ति महान शक्तिशाली व्यक्ति के विरुद्ध प्रयोग किये जाने पर कुछ भी नहीं कर पाती, उलटे उस निकृष्ट व्यक्ति की शक्ति कम हो जाती है।

46 जब ब्रह्मा देख रहे थे तो तुरन्त ही सारे बछड़े तथा उन्हें चराने वाले बालक नीले बादलों के रंग वाले स्वरूप में पीले रेशमी वस्त्र पहने हुए प्रकट होने लगे।

47-48 इन सबों के चार हाथ थे जिनमें शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये थे। वे अपने सिरों पर मुकुट पहने थे, उनके कानों में कुण्डल और गलों में जंगली फूलों के हार थे। उनके वक्षस्थलों के दाहिनी ओर के ऊपरी भाग में लक्ष्मी का चिन्ह था। वे अपनी बाँहों में बाजूबन्द, शंख जैसी तीन रेखाओं से अंकित गलों में कौस्तुभ मणि तथा कलाइयों में कंगन पहने थे। उनके टखनों में पाजेब थीं, पाँवों में आभूषण और कमर में पवित्र करधनी थी। वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।

49 पाँव से लेकर सिर तक उनके शरीर के सारे अंग तुलसी दल से बने ताजे मुलायम हारों से पूरी तरह सज्जित थे जिन्हें पुण्यकर्मों (श्रवण तथा कीर्तन) द्वारा भगवान की पूजा में लगे भक्तों ने अर्पित किया था।

50 वे विष्णु रूप जो चन्द्रमा के बढ़ते हुए प्रकाश के तुल्य थे, अपनी शुद्ध मुस्कान तथा अपनी लाल-लाल आँखों की तिरछी चितवन के द्वारा, अपने भक्तों की इच्छाओं को, मानो रजोगुण एवं तमोगुण से उत्पन्न करते तथा पालते थे।

51 चतुर्मुख ब्रह्मा से लेकर क्षुद्र से क्षुद्र जीव, चाहे वे चर हों या अचर, सबों ने स्वरूप प्राप्त कर रखा था और वे अपनी अपनी क्षमताओं के अनुसार नाच तथा गायन जैसी पूजा विधियों से उन विष्णु मूर्तियों की अलग अलग पूजा कर रहे थे।

52 वे सारी विष्णु मूर्तियाँ अणिमा इत्यादि सिद्धियों, अजा इत्यादि योगिसिद्धियों तथा महत तत्त्व आदि सृष्टि के 24 तत्त्वों से घिरी हुई थीं।

53 तब भगवान ब्रह्मा ने देखा कि काल, स्वभाव, संस्कार, काम, कर्म तथा गुण – ये सभी अपनी स्वतंत्रता खोकर पूर्णतया भगवान की शक्ति के अधीन होकर स्वरूप धारण किये हुए थे और उन विष्णु मूर्तियों की पूजा कर रहे थे।

54 वे समस्त विष्णु मूर्तियाँ शाश्वत, असीम स्वरूपों वाली, ज्ञान तथा आनन्द से पूर्ण एवं काल के प्रभाव से परे थीं। उपनिषदों के अध्ययन में रत ज्ञानीजन भी उनकी महती महिमा का स्पर्श तक नहीं कर सकते थे।

55 इस प्रकार भगवान ब्रह्मा ने परब्रह्म को देखा जिसकी शक्ति से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सारे चर तथा अचर प्राणियों समेत व्यक्त होता है। उन्होंने उसी के साथ ही सारे बछड़ों तथा बालकों को भगवान के अंशों के रूप में देखा।

56 उन विष्णु मूर्तियों की तेज शक्ति से ब्रह्मा की ग्यारहों इन्द्रियाँ आश्चर्य से क्षुब्ध तथा दिव्य आनन्द से स्तब्ध हो चुकी थीं अतः वे मौन हो गये मानो ग्राम्य देवता की उपस्थिति में किसी बच्चे की मिट्टी की बनी गुड़िया हो।

57 परब्रह्म मानसिक तर्क के परे है। वह स्वतः व्यक्त, अपने ही आनन्द में स्थित तथा भौतिक शक्ति के परे है। वह वेदान्त के द्वारा अप्रासंगिक ज्ञान के निरसन करने पर जाना जाता है। इस तरह जिन भगवान की महिमा विष्णु के सभी चतुर्भुज स्वरूपों की अभिव्यक्ति से प्रकट हुई थी उससे सरस्वती के प्रभु ब्रह्माजी मोहित थे। उन्होंने सोचा यह क्या है? और उसके बाद वे देख भी नहीं पाये। तब भगवान कृष्ण ने ब्रह्मा की स्थिति समझते हुए तुरन्त ही अपनी योगमाया का परदा हटा दिया।

58 तब ब्रह्मा की बाह्य चेतना वापस लौटी और वे इस तरह उठ खड़े हुए मानो मृत व्यक्ति जीवित हो उठा हो। बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खोलते हुए उन्होंने अपने सहित ब्रह्माण्ड को देखा।

59 तब सारी दिशाओं में देखने पर भगवान ब्रह्मा ने तुरन्त अपने समक्ष वृन्दावन देखा जो उन वृक्षों से पूरित था, जो निवासियों की जीविका के साधन थे और सारी ऋतुओं में समान रूप से प्रिय लगने वाले थे।

60 वृन्दावन भगवान का दिव्य धाम है जहाँ न भूख है, न क्रोध, न प्यास। यद्यपि मनुष्यों तथा हिंस्र पशुओं में स्वाभाविक वैर होता है किन्तु वे यहाँ दिव्य मैत्री-भाव से साथ साथ रहते हैं।

61 तब भगवान ब्रह्मा ने उस ब्रह्म (परम सत्य) को जो अद्वय है, ज्ञान से पूर्ण है और असीम है ग्वालों के परिवार में बालक-वेश धारण करके पहले की ही तरह हाथ में भोजन का कौर लिए बछड़ों को तथा अपने ग्वालमित्रों को खोजते हुए एकान्त में खड़े देखा।

62 यह देखकर ब्रह्मा तुरन्त अपने वाहन हंस से नीचे उतरे और भूमि पर सोने के दण्ड के समान गिर कर भगवान कृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श अपने सिर में धारण किये हुए चारों मुकुटों के अग्रभागों (सरों) से किया। उन्होंने नमस्कार करने के बाद अपने हर्ष-अश्रुओं के जल से कृष्ण के चरणकमलों को नहला दिया।

63 काफी देर तक भगवान कृष्ण के चरणकमलों पर बारम्बार उठते हुए और फिर नमस्कार करते हुए ब्रह्मा ने भगवान की उस महानता का पुनः पुनः स्मरण किया जिसे उन्होंने अभी अभी देखा था।

64 तब धीरे-धीरे उठते हुए और अपनी दोनों आँखें पोंछते हुए ब्रह्मा ने मुकुन्द की ओर देखा। फिर अपना सिर नीचे झुकाये, मन को एकाग्र किये तथा कम्पित शरीर से वे लड़खड़ाती वाणी से विनयपूर्वक भगवान कृष्ण की प्रशंसा करने लगे।

 

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय बारह - अघासुर का वध (10.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, एक दिन कृष्ण ने जंगल में विहार करते हुए कलेवा करना चाहा। उन्होंने बड़े सुबह उठकर सींग का बिगुल बजाया तथा उसकी मधुर आवाज से ग्वालबालों तथा बछड़ों को जगाया। फिर कृष्ण तथा सारे बालक अपने अपने बछड़ों के समूहों को आगे करके व्रजभूमि से जंगल की ओर बढ़े।

2 उस समय लाखों ग्वालबाल व्रजभूमि में अपने -अपने घरों से बाहर आ गये और अपने साथ के लाखों बछड़ों की टोलियों को अपने आगे करके कृष्ण से आ मिले। ये बालक अतीव सुन्दर थे। उनके पास कलेवा की पोटली, बिगुल, वंशी तथा बछड़े चराने की लाठियाँ थीं।

3 कृष्ण ग्वालबालों तथा उनके बछड़ों के समूहों के साथ बाहर निकले तो असंख्य बछड़े एकत्र हो गये। तब सारे लड़कों ने जंगल में परम प्रसन्न होकर खेलना प्रारम्भ कर दिया।

4 यद्यपि इन बालकों की माताओं ने पहले से इन्हें काच, गुञ्जा, मोती तथा सोने के आभूषणों से सजा रखा था किन्तु फिर भी जंगल में जाकर उन्होंने फलों, हरी पत्तियों, फूलों के गुच्छों, मोरपंखों तथा गेरु से अपने को सजाया।

5 सारे ग्वालबाल एक-दूसरे की कलेवा की पोटली चुराने लगे। जब कोई बालक जान जाता कि उसकी पोटली चुरा ली गयी है, तो दूसरे लड़के उसे दूर फेंक देते और वहाँ पर खड़े बालक उसे और दूर फेंक देते। जब पोटली का मालिक निराश हो जाता तो दूसरे बालक हँस पड़ते और मालिक रो देता तब वह पोटली उसे लौटा दी जाती।

6 कभी कभी कृष्ण जंगल की शोभा देखने के लिए दूर तक निकल जाते, तो सारे बालक उनके साथ जाने के लिए, यह कहते हुए दौड़ते, “दौड़कर कृष्ण को छूने वाला मैं पहला हूँगा । मैं कृष्ण को सबसे पहले छूऊँगा।” इस तरह वे कृष्ण को बारम्बार छू-छू कर जीवन का आनन्द लेते।

7-11 सारे बालक भिन्न भिन्न कार्यों में व्यस्त थे। कुछ अपनी बाँसुरियाँ बजा रहे थे, कुछ सींग का बिगुल बजा रहे थे। कुछ भौरों की गुंजार की नकल तो अन्य बालक कोयल की कुहू कुहू की नकल कर रहे थे। कुछ बालक उड़ती चिड़ियों की भूमि पर पड़ने वाली परछाइयों के पीछे दौड़कर उनकी नकल कर रहे थे, तो कुछ हंसों की सुन्दर गति तथा उनकी आकर्षक मुद्राओं की नकल उतार रहे थे। कुछ चुपचाप बगुलों के पास बैठ गये और अन्य बालक मोरों के नाच की नकल करने लगे। कुछ बालकों ने वृक्षों के बन्दरों को आकृष्ट किया, कुछ इन बन्दरों की नकल करते हुए पेड़ों पर कूदने लगे। कुछ बन्दरों जैसा मुँह बनाने लगे और कुछ एक डाल से दूसरी डाल पर कूदने लगे। कुछ बालक झरने के पास गये और उन्होंने मेंढकों के साथ उछलते हुए नदी पार की और पानी में अपनी परछाई देखकर हँसने लगे। वे अपनी प्रतिध्वनि की आवाज की निन्दा भी करते। इस तरह सारे बालक उन कृष्ण के साथ खेला करते जो ब्रह्मज्योति में लीन होने के इच्छुक ज्ञानियों के लिए उनके उद्गम हैं और उन भक्तों के लिए भगवान हैं जिन्होंने नित्यदासता स्वीकार कर रखी है किन्तु सामान्य व्यक्तियों के लिए वे ही, एक सामान्य बालक हैं। ग्वालबालों ने अनेक जन्मों के पुण्यकर्मों का फल संचित कर रखा था फलतः वे इस तरह भगवान के साथ रह रहे थे। भला उनके इस महाभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है?

12 भले ही योगी अनेक जन्मों तक यम, नियम, आसन तथा प्राणायाम द्वारा जिनमें से कोई भी सरलता से नहीं किया जा सकता है, कठोर से कठोर तपस्या करें फिर भी समय आने पर जब इन योगियों को मन पर नियंत्रण करने की सिद्धि प्राप्त हो जाती है, तो भी वे भगवान के चरणकमलों की धूल के एक कण तक का आस्वाद नहीं कर सकते। तो भला व्रजभूमि वृन्दावन के निवासियों के महाभाग्य के विषय में क्या कहा जाय जिनके साथ-साथ साक्षात भगवान रहे और जिन्होंने उनका प्रत्यक्ष दर्शन किया?

13 हे राजा परीक्षित, तत्पश्चात वहाँ पर एक विशाल असुर प्रकट हुआ जिसका नाम अघासुर था और देवता तक जिसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। यद्यपि देवता प्रतिदिन अमृत-पान करते थे फिर भी वे इस महान असुर से डरते थे और उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा में थे। यह असुर जंगल में ग्वालबालों द्वारा मनाये जा रहे दिव्य आनन्द को सहन नहीं कर सका।

14 कंस द्वारा भेजा गया अघासुर पूतना तथा बकासुर का छोटा भाई था। अतएव जब वह आया और उसने देखा कि कृष्ण सारे ग्वालबालों का मुखिया है, तो उसने सोचा, “इस कृष्ण ने मेरी बहन पूतना तथा मेरे भाई बकासुर का वध किया है। अतएव इन दोनों को तुष्ट करने के लिए मैं इस कृष्ण को इसके सहायक अन्य ग्वालबालों समेत मार डालूँगा।”

15 अघासुर ने सोचा: यदि मैं किसी तरह कृष्ण तथा उनके संगियों को अपने भाई तथा बहिन की दिवंगत आत्माओं के लिए तिल तथा जल की अन्तिम भेंट बना सकूँ, तो व्रजभूमि के सारे वासी, जिनके लिए ये बालक प्राणों के तुल्य हैं, स्वयमेव मर जायेंगे। यदि प्राण नहीं रहेंगे तो फिर शरीर की क्या आवश्यकता? फलस्वरूप अपने अपने पुत्रों के मरने पर व्रज के सारे वासी स्वतः मर जायेंगे।

16 यह निश्चय करने के बाद उस दुष्ट अघासुर ने एक विशाल अजगर का रूप धारण कर लिया, जो विशाल पर्वत की तरह मोटा तथा आठ मील तक लम्बा था। इस तरह अद्भुत अजगर का शरीर धारण करने के बाद उसने अपना मुँह पर्वत की एक बड़ी गुफा के तुल्य फैला दिया और रास्ते में कृष्ण तथा उनके संगी ग्वालबालों को निगल जाने की आशा से लेट गया।

17 उसका निचला होठ पृथ्वी पर था और ऊपरी होठ आकाश के बादलों को छू रहा था। उसके मुख की बगलें पर्वत की विशाल गुफाओं के समान थीं और मुख का मध्य भाग अत्यन्त अंधकारमय था। उसकी जीभ चौ मार्ग के तुल्य थी, उसकी श्वास गरम हवा जैसी थी और उसकी आँखें आग की लपटों जैसी जल रही थीं।

18 इस असुर का अद्भुत रूप विशाल अजगर के समान था। इसे देखकर बालकों ने सोचा कि हो न हो यह वृन्दावन का कोई रम्य स्थल है। तत्पश्चात उन्होंने कल्पना की कि यह विशाल अजगर के मुख के समान है। दूसरे शब्दों में, निर्भीक बालकों ने सोचा कि विशाल अजगर रूपी यह मूर्ति उनके क्रीड़ा-आनन्द के लिए बनाई गई है।

19 बालकों ने कहा: मित्रों क्या यह मृत है या सचमुच यह जीवित अजगर है, जिसने हम सबको निगलने के लिए अपना मुँह फैला रखा है? इस सन्देह को दूर करो न!

20 तत्पश्चात उन्होंने निश्चय किया: मित्रों, यह निश्चित रूप से हम सबको निगल जाने के लिए यहाँ बैठा हुआ कोई पशु है इसका ऊपरी होंठ सूर्य की धूप से रक्तिम हुए बादल की तरह है और निचला होंठ बादल की लाल-लाल परछाई-सा लगता है।

21 बाएँ तथा दाएँ दो खड्ड जैसी पर्वत-गुफाएँ दिखती हैं, वे इसकी गलफड़े हैं और पर्वत की ऊँची चोटियाँ इसके दाँत हैं।

22 इस पशु की जीभ की लम्बाई-चौड़ाई भी चौ मार्ग जैसी है और इसके मुख का भीतरी भाग अत्यन्त अंधकारमय है मानो पर्वत के भीतर की गुफा हो।

23 यह अग्नि जैसी गर्म हवा उसके मुँह से निकली हुई श्वास है, जिससे जलते हुए मांस की दुर्गन्ध आ रही है क्योंकि उसने बहुत शव खा रखे हैं।

24 तब बालकों ने कहा, “क्या यह प्राणी हम लोगों को निगलने आया है? यदि वह निगलेगा तो तुरन्त ही बकासुर की भाँति मार डाला जायेगा।” इस तरह उन्होंने बकासुर के शत्रु कृष्ण के सुन्दर मुख की ओर निहारा और ताली बजाकर जोर-जोर से हँसते हुए वे अजगर के मुँह में प्रविष्ट हो गये।

25 हर व्यक्ति के हृदय में स्थित अन्तर्यामी परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने बालकों को परस्पर नकली अजगर के विषय में बातें करते सुना। वे नहीं जानते थे कि यह वास्तव में अघासुर था, जो अजगर के रूप में प्रकट हुआ था। यह जानते हुए कृष्ण अपने मित्रों को असुर के मुख में प्रवेश करने से रोकना चाहते थे।

26 जब तक कि कृष्ण सारे बालकों को रोकने के बारे में सोचें, तब तक वे सभी असुर के मुख में घुस गये। किन्तु उस असुर ने उन्हें निगला नहीं क्योंकि वह कृष्ण द्वारा मारे गये अपने सम्बन्धियों के विषय में सोच रहा था और अपने मुख में कृष्ण के घुसने की प्रतीक्षा कर रहा था।

27 कृष्ण ने देखा कि सारे ग्वालबाल, जो उन्हें अपना सर्वस्व मानते थे, उनके हाथ से निकल कर साक्षात मृत्यु रूपी अघासुर के उदर की अग्नि में तिनकों जैसे प्रविष्ट हो जाने से असहाय हैं। कृष्ण के लिए अपने इन ग्वालबाल मित्रों से विलग होना असह्य था। अतएव यह देखते हुए कि यह सब उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा नियोजित किया प्रतीत होता है, कृष्ण आश्चर्यचकित हो उठे और निश्चय न कर पाये कि क्या किया जाय।

28 अब क्या करना होगा? इस असुर का वध और भक्तों का बचाव – एकसाथ दोनों को किस तरह सम्पन्न किया जाय? असीम शक्तिशाली होने से कृष्ण ने ऐसी बुद्धिगम्य युक्ति निकल आने तक प्रतीक्षा करने का निश्चय किया जिसके द्वारा वे बालकों को बचाने के साथ-साथ उस असुर का वध भी कर सकें। तत्पश्चात वे अघासुर के मुख में घुस गये।

29 जब कृष्ण अघासुर के मुख में घुस गये तो बादलों के पीछे छिपे देवतागण हाय हाय करने लगे। किन्तु अघासुर के मित्र, यथा कंस तथा अन्य असुरगण अत्यन्त हर्षित थे।

30 जब अजेय भगवान कृष्ण ने देवताओं को बादलों के पीछे से हाय हाय पुकारते सुना तो तुरन्त ही स्वयं तथा अपने संगी ग्वालबालों को असुर से बचाने के लिए, जिन्हें वह चूर्ण-चूर्ण कर देना चाहता था, उसके गले के भीतर अपना विस्तार कर लिया।

31 चूँकि कृष्ण ने अपने शरीर का आकार बढ़ा दिया था इसलिए असुर ने अपने शरीर को काफी बड़ा कर लिया। फिर भी उसकी श्वास रुक गई उसका दम घुट गया और उसकी आँखें इधर-उधर भटकने लगीं तथा बाहर निकल आई। किन्तु असुर के प्राण किसी भी छेद से निकल नहीं पा रहे थे अतः अन्त में उसके सिर के ऊपरी छेद से बाहर फूट पड़े।

32 जब उस असुर के सिर के ऊपरी छेद से सारी प्राणवायु निकल गई तो कृष्ण ने मृत बछड़ों तथा ग्वालबालों पर अपनी दृष्टि फेरकर उन्हें फिर से जीवित कर दिया। तब मुकुन्द जो किसी को भी मुक्ति दे सकते हैं अपने मित्रों तथा बछड़ों समेत उस असुर के मुख से बाहर आ गये।

33 उस विराट अजगर के शरीर से सारी दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ एक प्रकाशमान तेज निकला और आकाश में अकेले तब तक रुका रहा जब तक कृष्ण उस शव के मुख से बाहर नहीं आ गये। तत्पश्चात सारे देवताओं ने इस तेज को कृष्ण के शरीर में प्रवेश करते देखा।

34 तत्पश्चात हर एक के प्रसन्न होने पर देवता लोग नन्दन कानन से फूल बरसाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं और गायन के लिए प्रसिद्ध गन्धर्वगण स्तुति गाने लगे। ढोलकिये दुन्दुभी बजाने लगे तथा ब्राह्मण वैदिक स्तुतियाँ करने लगे। इस प्रकार स्वर्ग तथा पृथ्वी दोनों पर हर व्यक्ति भगवान की महिमा का गायन करते हुए अपना अपना कार्य करने लगा।

35 जब भगवान ब्रह्मा ने अपने लोक के निकट ही ऐसा अद्भुत उत्सव होते सुना, जिसके साथ साथ संगीत, गीत तथा जयजयकार हो रहा था, तो वे तुरन्त उस उत्सव को देखने चले आये। कृष्ण का ऐसा गुणगान देखकर वे अत्यन्त विस्मित थे।

36 हे राजा परीक्षित, जब अघासुर का अजगर के आकार का शरीर सूखकर विशाल चमड़ा बन गया तो यह वृन्दावनवासियों के देखने जाने के लिए अद्भुत स्थान बन गया और ऐसा बहुत समय तक बना रहा।

37 स्वयं तथा अपने साथियों को मृत्यु से बचाने तथा अजगर रूप अघासुर को मोक्ष देने की घटना तब घटी जब कृष्ण पाँच वर्ष के थे। इसका उद्धाटन व्रजभूमि में एक वर्ष बाद हुआ मानो यह उसी दिन की घटना हो।

38 कृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं। भौतिक जगत –उच्च तथा निम्न जगत –के कार्य-कारण आदि नियन्ता भगवान द्वारा ही सृजित होते हैं। जब कृष्ण नन्द महाराज तथा यशोदा के पुत्र रूप में प्रकट हुए तो उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा से ऐसा किया। अतः उनके लिए अपने असीम ऐश्वर्य का प्रदर्शन कोई विचित्र बात न थी। हाँ, उन्होंने ऐसी महती कृपा प्रदर्शित की कि सर्वाधिक पापी दुष्ट अघासुर भी ऊपर उठ गया, उनके संगियों में से एक बन गया और उसने सारूप्य मुक्ति प्राप्त की जो वस्तुतः भौतिक कलुषों से युक्त पुरुषों के लिए प्राप्त कर पाना असम्भव है।

39 यदि कोई एक बार या बलपूर्वक भी अपने मन में भगवान के स्वरूप को लाता है, तो उसे कृष्ण की दया से परम मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जिस प्रकार अघासुर को प्राप्त हुआ। तो फिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जाय जिनके हृदयों में भगवान अवतार लेकर प्रविष्ट होते हैं अथवा उनका जो सदैव भगवान के चरणकमलों का ही चिन्तन करते रहते हैं, जो सारे जीवों के लिए दिव्य आनन्द के स्रोत हैं और जो सारे मोह को पूरी तरह हटा देते हैं?

40 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: हे विद्वान सन्तों श्रीकृष्ण की बाल्यकाल की लीलाएँ अत्यन्त अद्भुत हैं। महाराज परीक्षित अपनी माता के गर्भ में उन्हें बचाने वाले कृष्ण की उन लीलाओं के विषय में सुनकर स्थिरचित्त हो गये और उन्होंने श्रील शुकदेव गोस्वामी से फिर कहा कि वे उन पुण्य लीलाओं को सुनायें।

41 महाराज परीक्षित ने पूछा: हे मुनि, भूतकाल में घटित इन घटनाओं को वर्तमान में घटित होते क्यों वर्णन किया गया है? भगवान कृष्ण ने अघासुर को मारने का कार्य तो अपनी कौमारावस्था में सम्पन्न किया था। तो फिर बालकों ने, उनकी पौगंड अवस्था में, इस घटना को अभी घटित क्यों बतलाया?

42 हे महायोगी, मेरे आध्यात्मिक गुरु, कृपा करके बतलायें कि यह कैसे हुआ? मैं यह जानने के लिए परम उत्सुक हूँ। मैं सोचता हूँ कि यह कृष्ण की माया के अतिरिक्त और कुछ न था।

43 हे प्रभु, हे मेरे आध्यात्मिक गुरु, यद्यपि हम क्षत्रियों में निम्नतम हैं, फिर भी हमारा अहोभाग्य है कि हम लाभान्वित हुए हैं क्योंकि हमें आपसे भगवान के अमृतमय पवित्र कार्यकलापों का निरन्तर श्रवण करते रहने का अवसर प्राप्त हुआ है।

44 सूत गोस्वामी ने कहा:हे सन्तों तथा भक्तों में सर्वश्रेष्ठ शौनक, जब महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से इस तरह पूछा तो तुरन्त अपने अन्तःकरण में कृष्ण-लीलाओं का स्मरण करते हुए अपनी इन्द्रियों के कार्यों से उनका बाह्य सम्पर्क टूट गया। तत्पश्चात बड़ी मुश्किल से उनकी बाह्य चेतना वापस आयी और वे कृष्ण-कथा के विषय में महाराज परीक्षित से बातें करने लगे।

(समर्पित एवं सेवारत -  जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय ग्यारह – कृष्ण की बाल-लीलाएँ (10.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे महाराज परीक्षित, जब यमलार्जुन वृक्ष गिर पड़े तो आसपास के सारे ग्वाले भयानक शब्द सुनकर वज्रपात की आशंका से उस स्थान पर गये ।

2 वहाँ उन सबने यमलार्जुन वृक्षों को जमीन पर गिरे हुए देखा किन्तु वे विमोहित थे क्योंकि वे आँखों के सामने वृक्षों को गिरे हुए तो देख रहे थे किन्तु उनके गिरने के कारण का पता नहीं लगा पा रहे थे ।

3 कृष्ण रस्सी द्वारा ओखली से बँधे थे जिसे वे खींच रहे थे। किन्तु उन्होंने वृक्षों को किस तरह गिरा लिया? वास्तव में यह किसने किया? इस घटना का स्रोत कहाँ है? इन आश्चर्यजनक बातों को सोच सोच कर सारे ग्वाले सशंकित तथा मोहग्रस्त थे ।

4 तब सारे ग्वालबालों ने कहा: इसे तो कृष्ण ने ही किया है। जब यह दो वृक्षों के बीच में था, तो ओखली तिरछी हो गई। कृष्ण ने ओखली को खींचा तो दोनों वृक्ष गिर गये। इसके बाद इन वृक्षों से दो सुन्दर व्यक्ति निकल आये। हमने इसे अपनी आँखों से देखा है।

5 तीव्र पितृ-स्नेह के कारण नन्द इत्यादि ग्वालों को विश्वास ही नहीं हुआ कि कृष्ण ने इतने आश्चर्यमय ढंग से वृक्षों को उखाड़ा है। अतएव उन्हें बच्चों के कहने पर विश्वास नहीं हुआ। किन्तु उनमें से कुछ को सन्देह था। वे सोच रहे थे, “चूँकि कृष्ण के लिए भविष्यवाणी की गई थी कि वह नारायण के तुल्य है अतएव हो सकता है कि उसी ने यह किया हो।

6 जब नन्द महाराज ने अपने पुत्र को रस्सी द्वारा लकड़ी की ओखली से बँधा और ओखली को घसीटते देखा तो वे मुसकाने लगे और उन्होंने कृष्ण को बन्धन से मुक्त कर दिया।

7 गोपियाँ कहतीं, “ हे कृष्ण यदि तुम नाचोगे तो तुम्हें आधी मिठाई मिलेगी। ऐसे शब्द कहकर या तालियाँ बजा-बजा कर सारी गोपियाँ कृष्ण को तरह-तरह से प्रेरित करतीं। ऐसे अवसरों पर वे परम शक्तिशाली भगवान होते हुए भी मुसका देते और उनकी इच्छानुसार नाचते मानों वे उनके हाथ की कठपुतली हों। कभी कभी वे उनके कहने पर जोर-जोर से गाते। इस तरह कृष्ण पूरी तरह से गोपियों के वश में आ गये।

8 "कभी-कभी माता यशोदा तथा उनकी गोपी सखियाँ कृष्ण से कहतीं" "जरा यह वस्तु लाना, जरा वह वस्तु लाना।" कभी वे उनको पीढ़ा लाने, तो कभी खड़ाऊँ या काठ का नपना लाने के लिए आदेश देतीं और कृष्ण माताओं द्वारा इस तरह आदेश दिये जाने पर उन वस्तुओं को लाने का प्रयास करते। किन्तु कभी कभी वे उन वस्तुओं को इस तरह छूते मानो उठाने में असमर्थ हों और वहीं खड़े रहते। अपने सम्बन्धियों का हर्ष बढ़ाने के लिए वे दोनों हाथों से ताल ठोंक कर दिखाते कि वे काफी बलवान हैं।

9 भगवान कृष्ण ने अपने कार्यकलापों को समझने वाले संसार-भर के शुद्ध भक्तों को दिखला दिया कि किस तरह वे अपने भक्तों अर्थात दासों द्वारा वश में किए जा सकते हैं। इस तरह अपनी बाल-लीलाओं से उन्होंने व्रजवासियों के हर्ष में वृद्धि की।

10 एक बार एक फल बेचने वाली स्त्री पुकार रही थी, “हे व्रजभूमिवासियों यदि तुम लोगों को फल खरीदने हैं, तो मेरे पास आओ।" यह सुनकर तुरन्त ही कृष्ण ने कुछ अन्न लिया और सौदा करने पहुँच गये मानो उन्हें कुछ फल चाहिए थे।

11 जब कृष्ण तेजी से फलवाली के पास जा रहे थे तो उनकी अँजुली में भरा बहुत-सा अन्न गिर गया। फिर भी फलवाली ने उनके दोनों हाथों को फलों से भर दिया। उधर उसकी फल की टोकरी तुरन्त रत्नों तथा सोने से भर गई।

12 यमुलार्जुन वृक्षों के उखड़ जाने के बाद एक बार रोहिणीदेवी राम तथा कृष्ण को, जो नदी के किनारे गये हुए थे और अन्य बालकों के साथ बड़े ध्यान से खेल रहे थे, बुलाने गई।

13 अन्य बालकों के साथ खेलने में अत्यधिक अनुरक्त होने के कारण वे रोहिणी के बुलाने पर वापस नहीं आये। अतः रोहिणी ने उन्हें वापस बुलाने के लिए माता यशोदा को भेजा क्योंकि वे कृष्ण तथा बलराम के प्रति अत्यधिक स्नेहिल थीं।

14 यद्यपि बहुत देर हो चुकी था किन्तु कृष्ण तथा बलराम अपने खेल में अनुरक्त होने के कारण अन्य बालकों के साथ खेलते रहे। इसलिए अब माता यशोदा ने भोजन करने के लिए उन्हें बुलाया। कृष्ण तथा बलराम के प्रति उत्कट प्रेम तथा स्नेह होने से उनके स्तनों से दूध बहने लगा।

15 माता यशोदा ने कहा: हे प्रिय पुत्र कृष्ण, कमलनयन कृष्ण, यहाँ आओ और दूध पियो। हे प्यारे, तुम भूख से तथा इतनी देर तक खेलने से बहुत थक गये होगे। अब और अधिक खेलना जरुरी नहीं।

16 हमारे परिवार के सर्वश्रेष्ठ मेरे प्यारे बलदेव, तुरन्त अपने छोटे भाई कृष्ण सहित आ जाओ। तुम दोनों ने सुबह ही खाया था और अब तुम्हें कुछ और खाना चाहिए।

17 अब व्रज के राजा नन्द महाराज खाने के लिए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। हे मेरे बेटे बलराम, वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं अतः हमारी प्रसन्नता के लिए तुम वापस आ जाओ। तुम्हारे साथ तथा कृष्ण के साथ खेल रहे सारे बालकों को अपने अपने घर जाना चाहिए।

18 माता यशोदा ने कृष्ण से आगे कहा:हे पुत्र, दिनभर खेलते रहने से तुम्हारा सारा शरीर धूल तथा रेत से भर गया है। आज तुम्हारे जन्म का शुभ नक्षत्र से चाँद मेल खा रहा है, अतः वापस आ जाओ, स्नान करो और शुद्ध होकर ब्राह्मणों को गौवों का दान करो।

19 जरा अपनी उम्र वाले–अपने सारे साथियों को तो देखो कि वे किस तरह अपनी माताओं द्वारा नहलाये-धुलाये तथा सुन्दर आभूषणों से सजाये गये हैं। तुम यहाँ आओ और स्नान करने, भोजन खाने तथा आभूषणों से अलंकृत होने के बाद फिर अपने सखाओं के साथ खेल सकते हो।

20 हे महाराज परीक्षित, अत्यधिक प्रेमवश माता यशोदा ने समस्त ऐश्वर्यों के शिखर पर आसीन कृष्ण को अपना पुत्र माना। इस तरह वे बलराम के साथ कृष्ण को हाथ से पकड़ कर घर ले आई जहाँ उन्हें नहलाने-धुलाने, वस्त्र पहनाने तथा भोजन खिलाने का, उन्होंने अपना काम पूरा किया।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: तब एक बार बृहद्वन में बड़े बड़े उपद्रव देखकर नन्द महाराज तथा वृद्ध ग्वाले एकत्र हुए और विचार करने लगे कि व्रज में लगातार होने वाले उपद्रवों को रोकने के लिए क्या किया जाय।

22 गोकुलवासियों की इस सभा में, उपानन्द नामक एक ग्वाले ने, जो आयु तथा ज्ञान में सर्वाधिक प्रौढ़ था और देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार अत्यधिक अनुभवी था, राम तथा कृष्ण के लाभ हेतु यह प्रस्ताव रखा।

23 उसने कहा: मेरे ग्वालमित्रों, इस गोकुल नामक स्थान की भलाई के लिए हमें इसे छोड़ देना चाहिए क्योंकि यहाँ पर राम तथा कृष्ण के मारने के उद्देश्य से सदैव अनेकानेक उपद्रव होते ही रहते हैं।

24 यह बालक कृष्ण, एकमात्र भगवान की दया से किसी न किसी तरह राक्षसी पूतना के हाथों से बच सका क्योंकि वह उन्हें मारने पर उतारु थी। फिर यह भगवान की ही कृपा थी कि वह छकड़ा इस बालक पर नहीं गिरा।

25 इसके बाद बवण्डर के रूप में आया तृणावर्त असुर इस बालक को मार डालने के लिए संकटमय आकाश में ले गया किन्तु वह असुर पत्थर की एक शिला पर गिर पड़ा। तब भी भगवान विष्णु या उनके संगियों की कृपा से यह बालक बच गया था।

26 यहाँ तक कि किसी और दिन, न तो कृष्ण न ही उनके खिलाड़ी साथी उन दोनों वृक्षों के गिरने से मरे यद्यपि ये बालक वृक्षों के निकट या उनके बीच ही में थे। इसे भी भगवान का अनुग्रह मानना चाहिये।

27 ये सारे उत्पात कुछ अज्ञात असुर द्वारा किये जा रहे हैं। इसके पूर्व कि वह दूसरा उत्पात करने आये, हमारा कर्तव्य है कि हम तब तक के लिए इन बालकों समेत कहीं और चले जाँय जब तक कि ये उत्पात बन्द न हो जाँय।

28 नन्देश्वर तथा महावन के मध्य वृन्दावन नामक एक स्थान है। यह स्थान अत्यन्त उपयुक्त है क्योंकि इसमें गौवों तथा अन्य पशुओं के लिए रसीली घास, पौधे तथा लताएँ हैं। वहाँ सुन्दर बगीचे तथा ऊँचे पर्वत हैं और यह स्थान गोपों, गोपियों तथा हमारे पशुओं के सुख के लिए सारी सुविधाओं से युक्त है।

29 अतएव हम आज ही तुरन्त चल दें। अब और अधिक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। यदि आप सबको मेरा प्रस्ताव मान्य हो तो हम अपनी सारी बैलगाड़ियाँ तैयार कर लें और गौवों को आगे करके वहाँ चले जायें।

30 उपानन्द की यह सलाह सुनकर ग्वालों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया और कहा, “बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।" इस तरह उन्होंने अपने घरेलू मामलों की छान-बीन की और अपने वस्त्र तथा अन्य सामान गाड़ियों पर रख लिये और तुरन्त वृन्दावन के लिए प्रस्थान कर दिया।

31-32 सारे बूढ़ों, स्त्रियों, बालकों तथा घरेलू सामग्री को बैलगाड़ियों में लादकर एवं सारी गौवों को आगे करके, ग्वालों ने सावधानी से अपने अपने तीर-कमान ले लिये और सींग के बने बिगुल बजाये। हे राजा परीक्षित, इस तरह चारों ओर बिगुल बज रहे थे तभी ग्वालों ने अपने पुरोहितों सहित यात्रा के लिए प्रस्थान किया।

33 बैलगाड़ियों में चढ़ी हुई गोपियाँ उत्तम से उत्तम वस्त्रों से सुसज्जित थीं और उनके शरीर, ताजे कुमकुम-चूर्ण से अलंकृत थे। बैलगाड़ियों पर चढ़ते समय वे अत्यन्त हर्षपूर्वक कृष्ण की लीलाओं का कीर्तन करने लगीं।

34 इस तरह माता यशोदा तथा रोहिणीदेवी कृष्ण तथा बलराम की लीलाओं को बड़े हर्ष से सुनती हुई, जिससे वे क्षण-भर के लिए भी उनसे वियुक्त न हों, एक बैलगाड़ी में उन दोनों के साथ चढ़ गई। इस दशा में वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।

35 इस तरह वे वृन्दावन में प्रविष्ट हुए जहाँ सभी ऋतुओं में रहना सुहावना लगता है। उन्होंने अपनी बैलगाड़ियों से अर्धचन्द्राकार अर्धवृत्त बनाकर रहने के लिए अस्थायी निवास बना लिया।

36 हे राजा परीक्षित, जब राम तथा कृष्ण ने वृन्दावन, गोवर्धन तथा यमुना नदी के तट देखे तो दोनों को बड़ा आनन्द आया।

37 इस तरह कृष्ण और बलराम छोटे बालकों की तरह क्रीड़ाएँ करते तथा तोतली बोली बोलते हुए व्रज के सारे निवासियों को दिव्य आनन्द देने लगे। समय आने पर वे बछड़ों की देखभाल करने के योग्य हो गये।

38 कृष्ण तथा बलराम अपने घर के पास ही सभी तरह के खिलौनों से युक्त होकर अन्य ग्वालों के साथ खेलने लगे एवं छोटे-छोटे बछड़ों को चराने लगे।

39-40 कृष्ण और बलराम कभी अपनी बाँसुरी बजाते, कभी वृक्षों से फल गिराने के लिए गुलेल चलाते, कभी केवल पत्थर फेंकते और कभी पाँवों के घुँघरुओं के बजते रहने के साथ साथ, वे बेल तथा आमलकी जैसे फलों से फुटबाल खेलते। कभी-कभी वे अपने ऊपर कम्बल डालकर गौवों तथा बैलों की नकल उतारते और जोर-जोर से शब्द करते हुए एक-दूसरे से लड़ते। कभी वे पशुओं की बोलियों की नकल करते। इस तरह वे दोनों सामान्य मानवी बालकों की तरह खेल का आनन्द लेते।

41 एक दिन जब राम तथा कृष्ण अपने साथियों के साथ यमुना नदी के किनारे अपने बछड़े चरा रहे थे तो उन्हें मारने की इच्छा से वहाँ एक अन्य असुर आया।

42 जब भगवान ने देखा कि असुर बछड़े का वेश धारण करके अन्य बछड़ों के समूह के बीच घुस आया है, तो उन्होंने बलदेव को इशारा किया, “यह रहा दूसरा असुर।" फिर वे असुर के पास धीरे-धीरे पहुँच गये मानो वे असुर के मनोभावों को समझ नहीं रहे थे।

43 तत्पश्चात श्रीकृष्ण ने उस असुर की पिछली टाँगें तथा पूँछ पकड़ ली और वे उसके शरीर को तब तक तेजी से घुमाते रहे जब तक वह मर नहीं गया। फिर उसे कैथे के पेड़ की चोटी पर फेंक दिया। वृक्ष उस असुर द्वारा धारण किये गये विशाल शरीर को लेकर भूमि पर गिर पड़ा।

44 असुर के मृत शरीर को देखकर सारे ग्वालबाल चिल्ला उठे, “बहुत खूब कृष्ण, बहुत अच्छे, बहुत अच्छे, धन्यवाद,” स्वर्गलोक में सारे देवता प्रसन्न थे अतः उन्होंने भगवान पर फूल बरसाये।

45 असुर को मारने के बाद कृष्ण तथा बलराम ने अपना सुबह का नाश्ता (कलेवा) किया और बछड़ों की रखवाली करते हुए वे इधर-उधर टहलते रहे। भगवान कृष्ण तथा बलराम ने जो सम्पूर्ण सृष्टि के पालक हैं, ग्वालबालों की तरह बछड़ों का भार सँभाला।

46 एक दिन कृष्ण तथा बलराम समेत सारे बालक, अपने अपने बछड़ों का समूह लेकर, जलाशय के पास बछड़ों को पानी पिलाने लाये। जब पशु जल पी चुके तो बालकों ने भी वहाँ पानी पिया।

47 जलाशय के पास ही बालकों ने एक विराट शरीर देखा जो उस पर्वत की चोटी के समान था, जो वज्र के द्वारा टूट पड़ी हो। वे ऐसे विशाल जीव को देखकर ही भयभीत थे।

48 वह विशालकाय असुर बकासुर था। उसने अत्यन्त तेज चोंच वाले बगुले का शरीर धारण कर लिया था। वहाँ आकर उसने तुरन्त ही कृष्ण को निगल लिया।

49 जब बलराम तथा अन्य बालकों ने देखा कि कृष्ण विशाल बगुले द्वारा निगले जा चुके हैं, तो वे बेहोश जैसे हो गये मानों प्राणरहित इन्द्रियाँ हों।

50 कृष्ण जो ब्रह्मा के पिता हैं किन्तु ग्वाले के पुत्र की भूमिका निभा रहे थे, अग्नि के समान बनकर असुर के गले के निचले भाग को जलाने लगे जिससे बकासुर ने तुरन्त ही उन्हें उगल दिया। जब असुर ने देखा कि निगले जाने पर भी कृष्ण को कोई क्षति नहीं पहुँची, तो फिर उसने तुरन्त ही अपनी तेज चोंच से कृष्ण पर वार कर दिया।

51 जब वैष्णवों के नायक कृष्ण ने यह देखा कि कंस का मित्र बकासुर उन पर आक्रमण करने का प्रयास कर रहा है, तो उन्होंने अपने हाथों से उसकी चोंच के दोनों भागों (ठोरों) को पकड़ लिया और सारे ग्वालबालों की उपस्थिति में उसे उसी प्रकार चीर डाला जिस तरह वीरण घास (गाँडर) के डंठल को बच्चे चीर डालते हैं। कृष्ण द्वारा इस प्रकार असुर के मारे जाने से स्वर्ग के निवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए।

52 उस समय स्वर्गलोक के वासियों ने बकासुर के शत्रु कृष्ण पर नन्दन-कानन में उगी मल्लिका के फूलों की वर्षा की। उन्होंने दुन्दुभि तथा शंख बजाकर एवं स्तुतियों द्वारा उनको बधाई दी। यह देखकर सारे ग्वालबाल आश्चर्यचकित थे।

53 जिस प्रकार चेतना तथा प्राण वापस आने पर इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं उसी तरह जब कृष्ण इस संकट से उबर आये तो बलराम समेत सारे बालकों ने सोचा मानो उन्हें फिर से जीवन प्राप्त हुआ हो। उन्होंने कृष्ण का पूरी चेतना के साथ आलिंगन किया और अपने बछड़ों को समेट कर वे व्रजभूमि लौट आये जहाँ उन्होंने जोर-जोर से इस घटना का बखान किया।

54 जब ग्वालों तथा गोपियों ने जंगल में बकासुर के मारे जाने का समाचार सुना तो वे अत्यधिक विस्मित हो उठे। कृष्ण को देखकर तथा उनकी कहानी सुनकर उन्होंने कृष्ण का स्वागत बड़ी उत्सुकता से यह सोचते हुए किया कि कृष्ण तथा अन्य बालक मृत्यु के मुख से वापस आ गये हैं। अतः वे कृष्ण तथा उन बालकों को मौन नेत्रों से देखते रहे। अब जबकि बालक सुरक्षित थे, उनकी आँखें उनसे हटना नहीं चाह रही थीं।

55 नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले विचार करने लगे: यह बड़े आश्चर्य की बात है कि यद्यपि इस बालक कृष्ण ने अनेक बार मृत्यु के विविध कारणों का सामना किया है किन्तु भगवान की कृपा से भय के इन कारणों का ही विनाश हो गया और उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ।

56 यद्यपि मृत्यु के कारणरूप दैत्यगण अत्यन्त भयावने थे किन्तु वे इस बालक कृष्ण को मार नहीं पाये। चूँकि वे निर्दोष बालकों को मारने आये थे इसलिए ज्योंही वे उनके निकट पहुँचे त्योंही वे उसी तरह मारे गये जिस तरह अग्नि पर आक्रमण करने वाले पतंगे मारे जाते हैं।

57 ब्रह्मज्ञान से युक्त पुरुषों के शब्द कभी झूठे नहीं निकलते। यह बड़े ही आश्चर्य की बात है कि गर्गमुनि ने जो भी भविष्यवाणी की थी उसे ही हम विस्तार से वस्तुतः अनुभव कर रहे हैं।

58 इस तरह नन्द समेत सारे ग्वालों को कृष्ण तथा बलराम की लीलाओं सम्बन्धी कथाओं में बड़ा ही दिव्य आनन्द आया और उन्हें भौतिक कष्टों का पता तक नहीं चला।

59 इस तरह कृष्ण तथा बलराम ने व्रजभूमि में बच्चों के खेलों में, यथा आँख-मिचौनी खेलने, समुद्र में पुल बनाने का स्वांग करने तथा बन्दरों की तरह इधर-उधर कूदने-फाँदने में अपनी बाल्यावस्था व्यतीत की।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय दस - यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार (10.10)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: हे महान एवं शक्तिशाली सन्त, नारदमुनि द्वारा नलकूवर तथा मणिग्रीव को शाप दिये जाने का क्या कारण था? उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दनीय कार्य किया कि देवर्षि नारद तक उन पर क्रुद्ध हो उठे? कृपया मुझे कह सुनायें।

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, चूँकि कुबेर के दोनों पुत्रों को भगवान शिवजी के पार्षद होने का गौरव प्राप्त था, फलतः वे अत्यधिक गर्वित हो उठे थे। उन्हें मन्दाकिनी नदी के तट पर कैलाश पर्वत से सटे हुए बाग में विचरण करने की अनुमति प्राप्त थी। इसका लाभ उठाकर वे दोनों वारुणी नाम की मदिरा पिया करते थे। वे अपने साथ गायन करती स्त्रियों को लेकर उस फूलों के बाग में घूमा करते थे। उनकी आँखें नशे से सदैव घूमती रहती थीं।

4 कमल के फूलों के उद्यानों से आवृत मन्दाकिनी गंगा के जल के भीतर ये कुबेर के दोनों पुत्र युवतियों के साथ क्रीड़ा करते थे।

5 हे महाराज परीक्षित, उन दोनों बालकों के सौभाग्य से एक बार देवर्षि नारद संयोगवश वहाँ प्रकट हो गये। उन्हें नशे में उन्मत्त तथा आँखें घुमाते हुए देखकर नारद उनकी दशा समझ गये।

6 नारद को देखकर देव-कुमारियाँ अत्यन्त लज्जित हुई। उन्होंने शापित होने के डर से अपने शरीर को वस्त्रों से ढक लिया। किन्तु कुबेर के दोनों पुत्रों ने ऐसा नहीं किया। उलटे, नारद की परवाह न करते हुए वे निर्वस्त्र ही रहे।

7 देवताओं के दोनों पुत्रों को ऐश्वर्य और झूठी प्रतिष्ठा गर्व के नशे में उन्मत्त देखकर देवर्षि नारद ने उनके कल्याण की इच्छा से शाप देकर अपनी अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की ।

8 नारदमुनि ने कहा: भौतिक भोग के समस्त आकर्षणों – (धन, सुन्दर शारीरिक रूप, उच्च कुल में जन्म तथा विद्वत्ता ) – इन सब में से धन का आकर्षण, बुद्धि को अधिक भ्रमित करने वाला है। यदि कोई अशिक्षित व्यक्ति धन से गर्वित हो जाता है, तो वह अपना सारा धन शराब, स्त्रियों तथा जुआ खेलने के आनन्द में लगा देता है।

9 अपनी इन्द्रियों को वश में करने में असमर्थ धूर्त लोग, जिन्हें अपने धन पर मिथ्या गर्व रहता है या जो राजसी परिवार में जन्म लिये रहते हैं, इतने निष्ठुर होते हैं कि वे अपने नश्वर शरीरों को बनाये रखने के लिए, उन्हें अजर-अमर सोचते हुए, बेचारे पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध करते हैं। कभी कभी वे केवल अपनी मौज-मस्ती के लिए पशुओं को मार डालते हैं।

10 जीवित रहते हुए मनुष्य अपने को बड़ा आदमी, मंत्री, राष्ट्रपति या देवता सोचते हुए अपने शरीर पर गर्व कर सकता है किन्तु वह चाहे जो भी हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर कीट, मल या राख में परिणत हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर की क्षणिक इच्छाओं की तुष्टि के लिए निरीह पशुओं का वध करता है, तो वह यह नहीं जानता कि उसे अगले जीवन में कष्ट भोगना होगा क्योंकि ऐसे पापी को नरक जाना पड़ेगा और अपने कर्मफल भोगने पड़ेंगे।

11 जीवित रहते हुए यह शरीर उसके अन्नदाता का होता है, या स्वयं का, अथवा पिता, माता या नाना का? क्या यह बलपूर्वक ले जाने वाले का, इसे खरीदने वाले स्वामी का या उन पुत्रों का होता है, जो इसे अग्नि में जला देते हैं? और यदि शरीर जलाया नहीं जाता तो क्या यह उन कुत्तों का होता है, जो इसे खाते हैं? आखिर इतने सारे दावेदारों में असली दावेदार कौन है? इसका पता लगाने के बजाय, पापकर्मों द्वारा इस शरीर का पालन करना अच्छा नहीं है।

12 यह सर्वसामान्य गुण है कि शरीर अव्यक्त प्रकृति द्वारा उत्पन्न किया जाता है और नष्ट होकर पुनः प्राकृतिक तत्त्वों में विलीन हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में जो धूर्त होगा वही इस सम्पत्ति को अपनी होने का दावा करेगा और उसे बनाये रखते हुए अपनी इच्छाओं की तुष्टि के लिए पशुओं की हत्या जैसे पापकर्म करता रहता है। केवल मूढ़ ही ऐसे पापकर्म कर सकता है।

13 नास्तिक मूर्ख तथा धूर्त धन के मद के कारण वस्तुओं को यथारूप में नहीं देख पाते। अतएव उन्हें दरिद्र बनाना ही सर्वोत्तम काजल है, जिसे वे आँखों में लगाकर वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में देख सकते हैं और कुछ नहीं तो, जो दरिद्र है, वह इसका तो अनुभव कर ही सकता है कि दरिद्रता कितनी दुखद होती है। अतएव वह कभी नहीं चाहेगा कि अन्य लोग उसकी तरह दुखमय स्थिति में रहें।

14 जिसके शरीर में काँटे चुभ चुके हैं वह दूसरों के चेहरों को देखकर ही उनकी पीड़ा समझ सकता है कि उन्हें काँटे चुभ रहे हैं। वह यह अनुभव करते हुए कि यह पीड़ा सबों के लिए एक समान है, यह नहीं चाहता कि अन्य लोग इस तरह से कष्ट भोगें। किन्तु जिसे कभी काँटे गड़े ही नहीं वह इस पीड़ा को नहीं समझ सकता ।

15 दरिद्र व्यक्ति को स्वतः तपस्या करनी पड़ती है क्योंकि उसके पास अपना कहने के नाम पर कोई सम्पत्ति नहीं होती। इस तरह उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है। वह सदैव भोजन, आश्रय तथा वस्त्र की आवश्यकता अनुभव करता रहता है, अतः दैव-कृपा से जो भी उसे मिल जाता है उसी से उसे संतुष्ट रहना पड़ता है। अनिवार्यतः इस तरह की तपस्या करते रहना उसके लिए अच्छा है क्योंकि इससे उसकी शुद्धि हो जाती है और वह मिथ्या अहंकार से मुक्त हो जाता है।

16 दरिद्र व्यक्ति सदैव भूखा रहने और पर्याप्त भोजन की चाह करने के कारण धीरे धीरे क्षीण होता जाता है। अतिरिक्त बल न रहने से उसकी इन्द्रियाँ स्वतः शान्त पड़ जाती है। इसलिए दरिद्र मनुष्य हानिप्रद ईर्ष्यापूर्ण कार्य करने में अशक्त होता है। दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यक्ति को उन तपस्याओं का फल स्वतः प्राप्त हो जाता है, जिसे सन्त-पुरुष स्वेच्छा से करते हैं।

17 सन्त-पुरुष दरिद्रों के साथ बिना रोकटोक के घुलमिल सकते हैं किन्तु धनी व्यक्तियों के साथ नहीं। दरिद्र व्यक्ति ऐसे साधु पुरुषों की संगति से तुरन्त ही भौतिक इच्छाओं से विमुख हो जाता है और उसके मन का सारा मैल धूल जाता है।

18 सन्त-पुरुष (साधुजन) रात-दिन कृष्ण का चिन्तन करते रहते हैं। उनकी और कोई रुचि नहीं रहती। तो फिर लोग ऐसे आध्यात्मिक पुरुषों की संगति की उपेक्षा करके क्यों उन भौतिकतावादियों की संगति करने का प्रयास करते हैं तथा उन अभक्तों की शरण लेते हैं जिनमें से अधिकांश अभिमानी तथा धनी हैं?

19 इसलिए ये दोनों व्यक्ति वारुणी या माध्वी नामक शराब पीकर तथा अपनी इन्द्रियों को वश में न रख सकने के कारण स्वर्ग के ऐश्वर्य-गर्व से अन्धे और स्त्रियों के प्रति अनुरक्त हो चुके हैं। मैं उनको इस झूठी प्रतिष्ठा से विहीन कर दूँगा।

20-22 ये दोनों युवक, नलकूवर तथा मणिग्रीव, भाग्यवश महान देवता कुबेर के पुत्र हैं किन्तु मिथ्या प्रतिष्ठा तथा शराब पीने से उत्पन्न उन्मत्तता के कारण ये इतने पतित हो चुके हैं कि यह नहीं समझ पा रहे कि वे निर्वस्त्र हैं। अतः वृक्षों के तरह रहने वाले इन दोनों युवकों को वृक्षों का शरीर मिलना चाहिए। यही इनके लिए समुचित दण्ड होगा। फिर भी वृक्ष बनने से लेकर अपने उद्धार के समय तक इन्हें मेरी कृपा से अपने विगत पापकर्मों की याद बनी रहेगी। यही नहीं, मेरी विशेष कृपा से, देवताओं के सौ वर्ष बीतने के बाद ये भगवान वासुदेव का दर्शन पाकर, भक्तों के रूप में अपना असली स्वरूप प्राप्त कर सकेंगे।

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह कहकर देवर्षि नारद अपने नारायण-आश्रम को लौट गये और नलकूवर तथा मणिग्रीव जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष (यमलार्जुन) बन गये।

24 सर्वोच्च भक्त नारद के वचनों को सत्य बनाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण धीरे धीरे उस स्थान पर गये जहाँ दोनों अर्जुन वृक्ष खड़े थे।

25 “यद्यपि ये दोनों युवक अत्यन्त धनी कुबेर के पुत्र हैं और उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु देवर्षि नारद मेरा अत्यन्त प्रिय तथा वत्सल भक्त है और क्योंकि उसने चाहा था कि मैं इनके समक्ष आऊँ अतएव इनकी मुक्ति के लिए मुझे ऐसा करना चाहिए।"

26 इस तरह कहकर कृष्ण तुरन्त ही दो अर्जुन वृक्षों के बीच प्रविष्ट हुए जिससे वह बड़ी ओखली जिससे वे बाँधे गये थे तिरछी हो गई और उनके बीच फँस गई।

27 अपने पेट से बँधी ओखली को बलपूर्वक अपने पीछे घसीटते हुए बालक कृष्ण ने दोनों वृक्षों को उखाड़ दिया। परम पुरुष की महान शक्ति से दोनों वृक्ष अपने तनों, पत्तों तथा टहनियों समेत बुरी तरह से हिले और तड़तड़ाते हुए भूमि पर गिर पड़े।

28 तत्पश्चात जिस स्थान पर दोनों अर्जुन वृक्ष गिरे थे वहीं पर दोनों वृक्षों से दो महान सिद्ध पुरुष, जो साक्षात अग्नि जैसे लग रहे थे, बाहर निकल आये। उनके सौन्दर्य का तेज चारों ओर प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने नतमस्तक होकर कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर निम्नलिखित शब्द कहे।

29 हे कृष्ण, हे कृष्ण, आपकी योगशक्ति अचिन्त्य है। आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आप समस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रहकर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं। विद्वान ब्राह्मण जानते हैं (सर्व खल्विदम ब्रह्म – इस वैदिक कथन के आधार पर) कि आप सर्वेसर्वा हैं और यह विराट विश्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।

30-31 आप हर वस्तु के नियन्ता भगवान हैं। आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार इन्द्रियाँ तथा काल हैं। आप परम पुरुष, अक्षय नियन्ता विष्णु हैं। आप तात्कालिक कारण और तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो) वाली भौतिक प्रकृति हैं। आप इस भौतिक जगत के आदि कारण हैं। आप परमात्मा हैं। अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं।

32 हे प्रभु, आप सृष्टि के पूर्व से विद्यमान हैं। अतः इस जगत में भौतिक गुणों वाले शरीर में बन्दी रहने वाला ऐसा कौन है, जो आपको समझ सके?

33 अपनी ही शक्ति से आच्छादित महिमा वाले हे प्रभु, आप भगवान हैं। आप सृष्टि के उद्गम, संकर्षण, हैं और चतुर्व्युह के उद्गम – वासुदेव, हैं। आप सर्वस्व होने से परब्रह्म हैं अतएव हम आपको नमस्कार करते हैं।

34-35 आप मत्स्य, कूर्म, वराह जैसे शरीरों में प्रकट होकर ऐसे प्राणियों द्वारा सम्पन्न न हो सकने वाले, असीम शक्ति वाले अतुलनीय दिव्य कार्य-प्रदर्शित करते है। अतएव आपके ये शरीर भौतिक तत्त्वों से नहीं बने होते अपितु आपके अवतार होते हैं। आप वही भगवान हैं, जो अब अपनी पूर्ण शक्ति के साथ इस जगत के सारे जीवों के लाभ के लिए प्रकट हुए हैं।

36 हे परम कल्याण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं क्योंकि आप परम शुभ हैं। हे यदुवंश के प्रसिद्ध वंशज तथा नियन्ता, हे वसुदेव-पुत्र, हे परम शान्त, हम आपके चरणकमलों में सादर नमस्कार करते हैं।

37 हे परम रूप, हम सदैव आपके दासों के, विशेष रूप से नारदमुनि के दास हैं। अब आप हमें अपने घर जाने की अनुमति दें। यह तो नारदमुनि की कृपा है कि हम आपका साक्षात दर्शन कर सके।

38 अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा का श्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इन्द्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यों में लगें तथा हमारे मन सदैव आपके चरणकमलों का चिन्तन करें। हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कार करें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप हैं और हमारी आँखें आपसे अभिन्न वैष्णवों के रूपों का दर्शन करें।

39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह दोनों देवताओं ने भगवान की स्तुति की। यद्यपि भगवान कृष्ण सबों के स्वामी हैं और गोकुलेश्वर थे किन्तु वे गोपियों की रस्सियों द्वारा लकड़ी की ओखली से बाँध दिये गये थे इसलिए उन्होंने हँसते हुए कुबेर के पुत्रों से ये शब्द कहे।

40 भगवान ने कहा: परम सन्त नारदमुनि अत्यन्त कृपालु हैं। उन्होंने अपने शाप से तुम दोनों पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है क्योंकि तुम दोनों भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त होकर अन्धे बन चुके थे। यद्यपि तुम दोनों स्वर्गलोक से गिरकर वृक्ष बने थे किन्तु उन्होंने तुम दोनों पर सर्वाधिक कृपा की। मैं प्रारम्भ से ही इन घटनाओं को जानता था।

41 जब कोई व्यक्ति सूर्य के समक्ष होता है, तो उसकी आँखों में अँधेरा नहीं रह जाता। इसी तरह जब कोई व्यक्ति ऐसे साधु या भक्त के समक्ष होता है, जो पूर्णतया दृढ़ तथा भगवान के शरणागत होता है, तो उसका भवबन्धन छूट जाता है।

42 हे नलकूवर तथा मणिग्रीव, अब तुम दोनों अपने घर वापस जा सकते हो। चूँकि तुम मेरी भक्ति में सदैव लीन रहना चाहते हो अतः मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न करने की तुम दोनों की इच्छा पूरी होगी और अब तुम उस पद से कभी भी नीचे नहीं गिरोगे।

43 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार कहे जाने पर, उन दोनों देवताओं ने लकड़ी की ओखली से बँधे भगवान की परिक्रमा की और उनको नमस्कार किया। भगवान कृष्ण से अनुमति लेने के बाद वे अपने अपने धामों को वापस चले गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय नौ माता यशोदा द्वारा कृष्ण का बाँधा जाना (10.9)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: एक दिन जब माता यशोदा ने देखा कि सारी नौकरानियाँ अन्य घरेलू कामकाजों में व्यस्त हैं, तो वे स्वयं ही दही मथने लगीं। दही मथते समय उन्होंने कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का स्मरण किया और गीत बनाते हुए उन्हें गुनगुनाकर आनन्द लेने लगीं।

3 केसरिया-पीली साड़ी पहने, अपनी स्थूल कमर में करधनी बाँधे माता यशोदा मथानी की रस्सी खींचने में काफी परिश्रम कर रही थीं, उनकी चुड़ियाँ तथा कान के कुण्डल हिल-डुल रहे थे और उनका पूरा शरीर हिल रहा था। उनकी भौंहें अत्यन्त सुन्दर थीं और उनका मुखमण्डल पसीने से तर था। उनके बालों से मालती के फूल गिर रहे थे।

4 जब यशोदा दही मथ रही थीं तो दुग्ध-पान करने की इच्छा से कृष्ण उनके पास आये। माता यशोदा के दिव्य आनन्द को बढ़ाने के लिए उन्होंने मथानी पकड़ ली और दही मथने से उन्हें रोकने लगे। अगाध स्नेह के कारण माता के स्तन से दूध बहने लगा।

5 माता यशोदा ने कृष्ण को सीने से लगाया, अपनी गोद में बैठाया और जब कृष्ण दुग्ध पान कर रहे थे तो माता बड़े स्नेह से अपने पुत्र के मुख की सुन्दरता निहारती जा रही थीं। किन्तु जब उन्होंने देखा कि आग के ऊपर रखी कड़ाही से दूध उबल कर बाहर गिर रहा है, तो वे बच्चे को दूध पिलाना छोड़कर उफनते दूध को बचाने के लिए तुरन्त चली गई।

6 अत्यधिक क्रुद्ध होकर, अपने लाल-लाल होंठों को दाँतों से काटते हुए और आँखों में नकली आँसू भरते हुए कृष्ण ने एक कंकड़ मार कर मटकी तोड़ दी। इसके बाद वे कमरे के एकान्त स्थान में जाकर ताजा मक्खन खाने लगे।

7 गर्म दूध को अँगीठी से उतार कर माता यशोदा मथने के स्थान पर लौटीं और जब देखा कि मटकी टूटी पड़ी है और कृष्ण वहाँ नहीं हैं, तो वे जान गई कि यह कृष्ण की ही करतूत है।

8 कृष्ण उस समय मसाला पीसने वाली लकड़ी की ओखली को उल्टा करके उस पर बैठे हुए थे और मक्खन तथा दही जैसी दूध की बनी वस्तुएँ अपनी इच्छानुसार बन्दरों को बाँट रहे थे। चोरी करने के कारण वे चिन्तित होकर चारों ओर देख रहे थे कि कहीं उनकी माता आकर उन्हें डाँटें नहीं। माता यशोदा ने उन्हें देखा तो वे पीछे से चुपके से उनके पास पहुँची।

9 जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माता को छड़ी लिए हुए देखा तो वे तेजी से ओखली के ऊपर से नीचे उतर आये और इस तरह भागने लगे मानो अत्यधिक भयभीत हों। जिन्हें योगीजन बड़ी बड़ी तपस्याएँ करके ब्रह्म-तेज में प्रवेश करने की इच्छा से परमात्मा के रूप में ध्यान के द्वारा पकड़ने का प्रयत्न करने पर भी उन तक नहीं पहुँच पाते उन्हीं भगवान कृष्ण को अपना पुत्र समझ कर पकड़ने के लिए माता यशोदा उनका पीछा करने लगीं।

10 तेजी से कृष्ण का पीछा करने के कारण उनके बाल शिथिल पड़ गये थे और उनमें लगे फूल उनके पीछे पीछे गिर रहे थे। फिर भी वे अपने पुत्र कृष्ण को पकड़ने में सफल हुई।

11 माता यशोदा द्वारा पकड़े जाने पर कृष्ण और अधिक डर गये और उन्होंने अपनी गलती स्वीकार कर ली। ज्योंही माता यशोदा ने कृष्ण पर दृष्टि डाली तो देखा कि वे रो रहे थे। उनके आँसू आँखों के काजल से मिल गये और हाथों से आँखें मलने के कारण उनके पुरे मुखमण्डल में वह काजल पुत गया। माता यशोदा ने अपने सलोने पुत्र का हाथ पकड़ते हुए धीरे से डाँटना शुरु किया।

12 यह जाने बिना कि कृष्ण कौन हैं या वे कितने शक्तिमान हैं, माता यशोदा कृष्ण के लिए अगाध प्रेम में सदैव विह्वल रहती थीं। कृष्ण के लिए मातृ-स्नेह के कारण उन्हें इतना तक जानने की परवाह नहीं रहती थी कि कृष्ण हैं कौन? अतएव जब उन्होंने देखा कि उनका पुत्र अत्यधिक डर गया है, तो अपने हाथ से छड़ी फेंक कर उन्होंने उसे बाँधना चाहा जिससे और आगे उद्दण्डता न कर सके।

13-14 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का न आदि है, न अन्त, न बाह्य है न भीतर, न आगा है न पीछा। दूसरे शब्दों में, वे सर्वव्यापी हैं। चूँकि वे काल तत्त्व के वशीभूत नहीं हैं अतएव उनके लिए भूत, वर्तमान तथा भविष्य में कोई अन्तर नहीं है। वे सदा-सर्वदा अपने दिव्य स्वरूप में रहते हैं। सर्वोपरि तथा परम होने के कारण सभी वस्तुओं के कारण-कार्य होते हुए भी वे कारण-कार्य के अन्तरों से मुक्त रहते हैं। वही अव्यक्त पुरुष जो इन्द्रियातीत हैं, अब मानवीय बालक के रूप में प्रकट हुए थे और माता यशोदा ने उन्हें सामान्य सा अपना ही बालक समझ कर रस्सी के द्वारा ओखली से बाँध दिया।

15 जब माता यशोदा उत्पाती बालक को बाँधने का प्रयास कर रही थीं तो उन्होंने देखा कि बाँधने की रस्सी दो अँगुल छोटी पड़ रही थी। अतः उसमें जोड़ने के लिए वे दूसरी रस्सी ले आईं ।

16 यह नई रस्सी भी दो अँगुल छोटी पड़ गई जब इसमें दूसरी रस्सी लाकर जोड़ दी गई तब भी वह दो अँगुल छोटी ही पड़ी। उन्होंने जितनी भी रस्सियाँ जोड़ी, वे व्यर्थ गईं–वे छोटी ही पड़ती गईं।

17 इस तरह माता यशोदा ने घर-भर की सारी रस्सियों को जोड़ डाला किन्तु तब भी वे कृष्ण को बाँध न पाई। पड़ोस की वृदधा गोपिकाएँ, जो माता यशोदा की सखियाँ थीं मुस्कुरा रही थीं और इस तमाशे का आनन्द ले रही थीं। इसी तरह माता यशोदा श्रम करते हुए भी मुस्कुरा रही थीं। वे सभी आश्चर्यचकित थीं।

18 माता यशोदा द्वारा कठिन परिश्रम किये जाने से उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया और उनके केशों में लगी कंघी और गूँथे हुए फूल गिरे जा रहे थे। जब बालक कृष्ण ने अपनी माता को इतना थका-हारा देखा तो वे दयार्द्र हो उठे और अपने को बँधाने के लिए राजी हो गये।

19 हे महाराज परीक्षित, शिवजी, ब्रह्माजी तथा इन्द्र जैसे महान एवं उच्चस्थ देवताओं समेत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भगवान के वश में हैं। फिर भी भगवान का एक दिव्य गुण यह है कि वे अपने भक्तों के वश में हो जाते हैं। यही बात इस लीला में कृष्ण द्वारा दिखलाई गई है।

20 इस भौतिक जगत से मोक्ष दिलाने वाले भगवान की ऐसी कृपा न तो कभी ब्रह्माजी, न शिवजी, न ही भगवान की अर्धांगिनी लक्ष्मीजी ही प्राप्त कर सकें, जैसी माता यशोदा ने प्राप्त की।

21 माता यशोदा के पुत्र भगवान कृष्ण स्वत; स्फूर्त प्रेमाभक्ति में लगे भक्तों के लिए सुलभ हैं किन्तु वे मनोधर्मियों, घोर तपों द्वारा आत्म-साक्षात्कार के लिये प्रयास करने वालों अथवा शरीर को ही आत्मा मानने वालों के लिए सुलभ नहीं होते।

22 जब माता यशोदा घरेलू कार्यों में अत्यधिक व्यस्त थीं तभी भगवान कृष्ण ने दो जुड़वाँ वृक्ष देखे, जिन्हें यमलार्जुन कहा जाता था। ये पूर्व युग में कुबेर के देव-पुत्र थे।

23 पूर्वजन्म में नलकूवर तथा मणिग्रीव नामक ये दोनों पुत्र अत्यन्त ऐश्वर्यवान तथा भाग्यशाली थे। किन्तु गर्व तथा मिथ्या प्रतिष्ठा के कारण उन्होंने किसी की परवाह नहीं की इसलिए नारदमुनि ने उन्हें वृक्ष बन जाने का शाप दे डाला।

(समर्पित एवं सेवारत -  जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय आठ – भगवान कृष्ण द्वारा अपने मुख के भीतर विराट रूप का प्रदर्शन (10.8)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, तब यदुकुल के पुरोहित एवं तपस्या में बढ़े चढ़े गर्गमुनि को वसुदेव ने प्रेरित किया कि वे नन्द महाराज के घर जाकर उन्हें मिलें।

2 जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि को अपने घर में उपस्थित देखा तो वे उनके स्वागत में दोनों हाथ जोड़े उठ खड़े हुए। यद्यपि गर्गमुनि को नन्द महाराज अपनी आँखों से देख रहे थे किन्तु वे उन्हें अधोक्षज मान रहे थे अर्थात वे भौतिक इन्द्रियों से दिखाई पड़ने वाले सामान्य पुरुष न थे।

3 जब अतिथि रूप में गर्गमुनि का स्वागत हो चुका और वे ठीक से आसन ग्रहण कर चुके तो नन्द महाराज ने भद्र तथा विनीत शब्दों में निवेदन किया; महोदय, भक्त होने के कारण आप सभी प्रकार से परिपूर्ण हैं। फिर भी आपकी सेवा करना मेरा कर्तव्य है। कृपा करके आज्ञा दें कि मैं आपके लिए क्या करूँ?

4 हे महानुभाव, हे महान भक्त, आप जैसे पुरुष अपने स्वार्थ के लिए नहीं अपितु दीनचित्त गृहस्थों के लिए ही स्थान-स्थान पर जाते रहते हैं। अन्यथा इस तरह जगह-जगह घूमने में उन्हें कोई रुचि नहीं रहती।

5 हे सन्त पुरुष, आपने ज्योतिष ज्ञान को संकलित किया है, जिससे कोई भी मनुष्य अदृश्य भूत और वर्तमान बातों को समझ सकता है। इस ज्ञान के बल पर कोई भी मनुष्य यह समझ सकता है कि पिछले जीवन में उसने क्या किया और वर्तमान जीवन पर उसका कैसा प्रभाव पड़ेगा। आप इसे जानते हैं।

6 हे प्रभु, आप ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं विशेषतया, क्योंकि आप ज्योतिष शास्त्र से भलीभाँति अवगत हैं। अतएव आप सहज ही हर व्यक्ति के आध्यात्मिक गुरु हैं। ऐसा होते हुए चूँकि आप कृपा करके मेरे घर आए हैं अतएव आप मेरे दोनों पुत्रों का संस्कार करें।

7 गर्गमुनि ने कहा: हे नन्द महाराज, मैं यदुकुल का पुरोहित हूँ। यह सर्वविदित है। अतः यदि मैं आपके पुत्रों का संस्कार सम्पन्न कराता हूँ तो कंस समझेगा कि वे देवकी के पुत्र हैं।

8-9 कंस बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ होने के साथ ही अत्यन्त पापी है। अतः देवकी की पुत्री योगमाया से यह सुनने के बाद कि उसके मारने वाला बालक अन्यत्र कहीं जन्म ले चुका है और यह सुन चुकने पर कि देवकी के आठवे गर्भ से पुत्री उत्पन्न नहीं हो सकती और यह जानते हुए कि वसुदेव से आपकी मित्रता है जब कंस यह सुनेगा कि यदुकुल के पुरोहित मेरे द्वारा संस्कार कराया गया है, तो इन सब बातों से उसे निश्चित रूप से सन्देह हो जायेगा कि कृष्ण देवकी तथा वसुदेव का पुत्र है। तब वह कृष्ण को मार डालने के उपाय करेगा और यह महान विपत्ति सिद्ध होगी।

10 नन्द महाराज ने कहा: हे महामुनि यदि आप सोचते हैं कि आपके द्वारा संस्कार विधि सम्पन्न कराये जाने से कंस सशंकित होगा तो चुपके से वैदिक मंत्रोच्चार करें और मेरे घर की इस गोशाला में ही यह द्विज संस्कार पूरा करें जिससे और तो और मेरे सम्बन्धी तक न जान पायें क्योंकि यह संस्कार अत्यावश्यक है।

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि से विशेष प्रार्थना की कि वे जो कुछ पहले से करना चाहते थे उसे करें, तो उन्होंने एकान्त स्थान में कृष्ण तथा बलराम का नामकरण संस्कार सम्पन्न किया।

12 गर्गमुनि ने आगे कहा: यह रोहिणी-पुत्र अपने दिव्य गुणों से – सम्बन्धियों तथा मित्रों को सभी तरह का सुख प्रदान करेगा। अतः यह राम कहलाएगा और असाधारण शारीरिक बल का प्रदर्शन करने के कारण यह बलराम कहलायेगा। चूँकि यह दो परिवारों – वसुदेव तथा नन्द महाराज के परिवारों – को जोड़ने वाला है, अतः यह संकर्षण भी कहलायेगा।

13 आपका यह पुत्र कृष्ण हर युग में अवतार के रूप में प्रकट होता है। भूतकाल में उसने तीन विभिन्न रंग—गौर, लाल तथा पीला धारण किये और अब वह श्याम (काले) रंग में उत्पन्न हुआ है। [अन्य द्वापर युग में वह शुक (तोता) के रंग में (भगवान रामचन्द्र के रूप में) उत्पन्न हुआ। अब ऐसे सारे अवतार कृष्ण में एकत्र हो गए हैं ]

14 अनेक कारणों से आपका यह सुन्दर पुत्र पहले कभी वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट हुआ था। अतएव जो विद्वान हैं, वे इस बालक को कभी-कभी वासुदेव कहते हैं।

15 तुम्हारे इस पुत्र के अपने दिव्य गुणों एवं कर्मों के अनुसार विविध रूप तथा नाम हैं। ये सब मुझे ज्ञात हैं किन्तु सामान्य लोग उन्हें नहीं जानते।

16 यह बालक गोकुल के ग्वालों के दिव्य आनन्द को बढ़ाने हेतु सदैव शुभ कर्म करेगा। इसकी ही कृपा से तुम लोग सारी कठिनाईयों को पार कर सकोगे।

17 हे नन्द महाराज, जैसा कि इतिहास बतलाता है – जब अनियमित अशक्त शासन था, इन्द्र को अपदस्थ कर दिया गया था और लोग चोरों द्वारा सताये जा रहे थे उस समय लोगों की रक्षा करने तथा उनकी समृद्धि के लिए यह बालक प्रकट हुआ और इसने चोर-उचक्कों का दमन कर दिया।

18 देवताओं के पक्ष में सदैव भगवान विष्णु के रहने से असुरगण देवताओं को हानि नहीं पहुँचा सकते। इसी तरह कोई भी व्यक्ति या समुदाय जो कृष्ण के प्रति अनुरक्त है अत्यन्त भाग्यशाली है। चूँकि ऐसे लोग कृष्ण से अत्यधिक स्नेह रखते हैं अतएव वे कंस के संगियों यथा असुरों (या आन्तरिक शत्रु तथा इन्द्रियों) द्वारा कभी परास्त नहीं किये जा सकते।

19 अतएव हे नन्द महाराज, निष्कर्ष यह है कि आपका यह पुत्र नारायण के सदृश है। यह अपने दिव्य गुण, ऐश्वर्य, नाम, यश तथा प्रभाव से नारायण के ही समान है। आप इस बालक का बड़े ध्यान और सावधानी से पालन करें।

20 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब नन्द महाराज को कृष्ण के विषय में उपदेश देकर गर्गमुनि अपने घर चले गये तो नन्द महाराज अत्यधिक प्रसन्न हुए और अपने को परम भाग्यशाली समझने लगे।

21 कुछ समय बीतने के बाद राम तथा कृष्ण दोनों भाई अपने घुटनों तथा हाथों के बल व्रज के आँगन में रेंगने लगे और इस तरह बालपन के खेल का आनन्द उठाने लगे।

22 जब कृष्ण तथा बलराम अपने पैरों के बल व्रजभूमि में गोबर तथा गोमूत्र से उत्पन्न कीचड़ वाली जगहों में रेंगते थे तो उनका रेंगना सरी सृपों के रेंगने जैसा लगता था और उनके पैरों के घुँघरुओं की आवाज अत्यन्त मनोहर लगती थी। वे अन्य लोगों के घुँघरुओं की आवाज से अत्यधिक प्रसन्न होकर उनके पीछे पीछे चल देते मानो अपनी माताओं के पास जा रहे हों। किन्तु जब वे यह देखते कि वे दूसरे लोग हैं, तो भयभीत होकर, अपनी असली माताओं – यशोदा तथा रोहिणी, के पास लौट आते।

23 दोनों बालक गोबर तथा गोमूत्र मिले कीचड़ से सने हुए अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे और जब वे दोनों अपनी माताओं के पास गये तो यशोदा तथा रोहिणी दोनों ने बड़े प्यार से उन्हें उठा लिया, छाती से लगाया और दूध पिलाया। स्तन-पान करते हुए दोनों बालक मुसका रहे थे और उनकी दँतुलियाँ दिख रही थीं। उनके सुन्दर छोटे-छोटे दाँत देखकर उनकी माताओं को परम आनन्द हुआ।

24 ग्वालबालाएँ नन्द महाराज के घर के भीतर राम तथा कृष्ण दोनों बालकों की लीलाएँ देखकर हर्षित होतीं। बच्चे बछड़ों की पूँछ के पिछले भाग पकड़ लेते तो बछड़े उन्हें इधर-उधर घसीटते। जब स्त्रियाँ ये लीलाएँ देखतीं, तो निश्चय ही अपना कामकाज करना बन्द कर देतीं और हँसने लगतीं तथा इन घटनाओं का आनन्द लूटतीं।

25 कृष्ण तथा बलराम दोनों ही इतने चंचल थे कि माता यशोदा तथा रोहिणी अपने-अपने गृहकार्यों में व्यस्त रहते हुए उन्हें –गायों, आग, पंजे तथा दाँत वाले पशुओं (यथा – बन्दरों, कुत्तों, बिल्लियों ), काँटों, जमीन पर रखी तलवारों तथा अन्य हथियारों से होने वाली दुर्घटनाओं से बचाने का प्रयत्न करती रहतीं।

26 हे राजा परीक्षित, थोड़े ही समय में राम तथा कृष्ण दोनों ही उठकर खड़े होने लगे और कुछ-कुछ चलने लगे।

27 तत्पश्चात भगवान कृष्ण, बलराम सहित, ग्वालों के अन्य बच्चों के साथ खेलने लगे और वे सब मिलकर गोपियों को तथा विशेष रूप से यशोदा तथा रोहिणी को परमानन्द प्रदान करते।

28 कृष्ण की अति आकर्षक बाल-सुलभ चंचलता को देखकर पड़ोस की सारी गोपियाँ कृष्ण की क्रीड़ाओं के विषय में बारम्बार सुनने के लिए माता यशोदा के पास पहुँचती और उनसे इस प्रकार कहतीं।

29 हे सखी यशोदा, आपका बेटा कभी कभी हमारे घरों में गौवें दुहने के पहले आ जाता है और बछड़ों को खोल देता है और जब घर का मालिक क्रोध करता है, तो आपका बेटा केवल मुसका देता है। कभी कभी वह कोई ऐसी युक्ति निकालता है, जिससे वह स्वादिष्ट दही, मक्खन तथा दूध चुरा लेता है और तब उन्हें खाता-पीता है। जब बन्दर एकत्र होते हैं, तो वह उनमें ये सब बाँट देता है और जब उनके पेट भर जाते हैं और वे अधिक नहीं खा पाते तो वह बर्तनों को तोड़ जाता है। कभी कभी, यदि उसे घर से मक्खन या दूध चुराने का अवसर नहीं मिलता तो वह घरवालों पर क्रोधित होता है और बदला लेने के लिए वह छोटे-छोटे बच्चों को चिकुटी काटकर भड़का जाता है और जब बच्चे रोने लगते हैं, तो कृष्ण भाग लेता है।

30 जब दूध तथा दही की मटकी को छत से लटकते छींके में ऊँचा रख दिया जाता है और कृष्ण तथा बलराम उस छींके तक नहीं पहुँच पाते तो वे पीढ़ों (लकड़ी की चौकी) को जुटाकर तथा मसाले पीसने की ओखली को उलटकर उस पर चढ़कर उस तक पहुँच जाते हैं। बर्तन के भीतर क्या है, वे अच्छी तरह जानते हैं अतः उसमें छेद कर देते हैं। जब सयानी गोपिकाएँ कामकाज में लगी रहती है, तो कभी-कभी कृष्ण तथा बलराम अँधेरी कोठरी में चले जाते हैं और अपने शरीर में पहने हुए मूल्यवान आभूषणों की मणियों की चमक से उस स्थान को प्रकाशित करके चोरी कर जाते हैं।

31 जब कृष्ण नटखटपन करते पकड़े जाते हैं, तो घर के मालिक उससे कहते, “अरे चोर" और उस पर बनावटी क्रोध प्रकट करते, तब कृष्ण उत्तर देते "मैं चोर नहीं हूँ। चोर तुम हो।" कभी-कभी कृष्ण क्रोध में आकर हमारे साफ-सुथरे घरों में मल-मूत्र विसर्जन कर देता है। किन्तु हे सखी यशोदा, अब वही दक्ष चोर तुम्हारे सामने अच्छे लड़के की तरह बैठा है। कभी-कभी सभी गोपियाँ कृष्ण को भयातुर आँखें किए बैठे देखती थीं, ताकि माता डाँटे फटकारे नहीं और जब वे कृष्ण का सुन्दर मुखड़ा देखतीं तो उसे डाँटने की बजाय वे उनके मुखड़े को देखती ही रह जातीं और दिव्य आनन्द का अनुभव करतीं। माता यशोदा इस खिलवाड़ पर मन्द-मन्द मुसकातीं और उनका मन अपने भाग्यशाली दिव्य बालक को डाँटने को करता ही नहीं था।

32 एक दिन जब कृष्ण अपने छोटे साथियों के साथ बलराम तथा अन्य गोप-पुत्रों के साथ खेल रहे थे तो उनके सारे साथियों ने एकत्र होकर माता यशोदा से शिकायत की कि ”कृष्ण ने मिट्टी खाई है।”

33 कृष्ण के साथियों से यह सुनकर, हितैषिणी माता यशोदा ने कृष्ण के मुख के भीतर देखने तथा डाँटने के लिए उन्हें हाथों से ऊपर उठा लिया। वे डरी डरी आँखों से अपने पुत्र से इस प्रकार बोलीं।

34 हे कृष्ण, तुम इतने चंचल क्यों हो कि एकान्त स्थान में तुमने मिट्टी खा ली? यह शिकायत तुम्हारे बड़े भाई बलराम समेत तुम्हारे संगी-साथियों ने की है। यह क्योंकर हुआ?

35 श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया;हे माता, मैंने मिट्टी कभी नहीं खाई। मेरी शिकायत करने वाले ये सारे मित्र झूठे हैं। यदि आप सोचती हैं कि वे सच बोल रहे हैं, तो आप मेरे मुँह के भीतर प्रत्यक्ष देख सकती हैं।

36 माता यशोदा ने कृष्ण को धमकाया:यदि तुमने मिट्टी नहीं खाई है, तो अपना मुँह पूरी तरह खोलो।” इस पर नन्द तथा यशोदा के पुत्र कृष्ण ने मानवी बालक की तरह लीला करने के लिए अपना मुँह खोला। यद्यपि समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान कृष्ण ने अपनी माता के वात्सल्य-प्रेम को ठेस नहीं लगाई, फिर भी उनका ऐश्वर्य स्वत: प्रदर्शित हो गया क्योंकि कृष्ण का ऐश्वर्य किसी भी स्थिति में विनष्ट नहीं होता अपितु उचित समय पर प्रकट होता है।

37-39 जब कृष्ण ने माता यशोदा के आदेश से अपना पूरा मुँह खोला तो उन्होंने कृष्ण के मुख के भीतर सभी चर-अचर प्राणी, बाह्य आकाश, सभी दिशाएँ, पर्वत, द्वीप, समुद्र, पृथ्वीतल, बहती हवा, अग्नि, चन्द्रमा तथा तारे देखे। उन्होंने गृह, जल, प्रकाश, वायु, आकाश तथा अहंकार के रूपान्तर द्वारा सृष्टि देखी। उन्होंने इन्द्रियाँ, मन, तन्मात्राएँ, तीनों गुण (सतो, रजो तथा तमो) भी देखे। उन्होंने जीवों की आयु, प्राकृतिक स्वभाव तथा कर्मफल देखे। उन्होंने इच्छाएँ और विभिन्न प्रकार के चर-अचर शरीर देखे। विराट जगत के इन विविध पक्षों के साथ ही स्वयं को तथा वृन्दावन-धाम को देखकर वे अपने पुत्र के स्वभाव से सशंकित तथा भयभीत हो उठीं।

40 [माता यशोदा अपने में ही तर्क करने लगीं]: क्या यह सपना है या बहिरंगा शक्ति की मोहमयी सृष्टि है? कहीं यह मेरी ही बुद्धि से तो प्रकट नहीं हुआ? अथवा यह मेरे बालक की कोई योगशक्ति है?

41 अतएव मैं उन भगवान की शरण ग्रहण करती हूँ और उन्हें नमस्कार करती हूँ जो मनुष्य की कल्पना, मन, कर्म, विचार तथा तर्क से परे हैं, जो इस विराट जगत के आदि-कारण हैं, जिनसे यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पालित है और जिनसे हम इस जगत के अस्तित्व का अनुभव करते हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार ही कर सकती हूँ क्योंकि वे मेरे चिन्तन, अनुमान तथा ध्यान से परे हैं। वे मेरे समस्त भौतिक कर्मों से भी परे हैं।

42 यह तो भगवान की माया का प्रभाव है, जो मैं मिथ्या ही सोचती हूँ कि नन्द महाराज मेरे पति हैं, कृष्ण मेरा पुत्र है और चूँकि मैं नन्द महाराज की महारानी हूँ इसलिए गौवों तथा बछड़ों की सम्पत्ति मेरे अधिकार में है और सारे ग्वाले तथा उनकी पत्नियाँ मेरी प्रजा हैं। वस्तुतः मैं भी भगवान के नित्य अधीन हूँ। वे ही मेरे अनन्तिम आश्रय हैं।

43 माता यशोदा भगवान की कृपा से असली सत्य को समझ गई लेकिन अन्तरंगा शक्ति, योगमाया के प्रभाव से परम प्रभु ने उन्हें प्रेरित किया कि वे अपने पुत्र के गहन मातृ-प्रेम में लीन हो जाँय।

44 कृष्ण ने अपने मुँह के भीतर जिस विराट रूप को दिखलाया था, योगमाया के उस भ्रम को तुरन्त ही भूलकर माता यशोदा ने अपने पुत्र को पूर्ववत अपनी गोद में ले लिया और अपने दिव्य बालक के प्रति उनके हृदय में और अधिक स्नेह उमड़ आया।

45 भगवान की महिमा का अध्ययन तीनों वेदों, उपनिषदों, सांख्य योग के ग्रन्थों तथा अन्य वैष्णव साहित्य के माध्यम से किया जाता है। फिर भी माता यशोदा परम पुरुष को अपना सामान्य बालक मानती रहीं।

46 माता यशोदा के परम सौभाग्य को सुनकर परीक्षित महाराज ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: हे विद्वान ब्राह्मण, भगवान द्वारा माता यशोदा का स्तन-पान किया गया। उन्होंने तथा नन्द महाराज ने भूतकाल में कौन-से पुण्यकर्म किये जिनसे उन्हें ऐसी प्रेममयी सिद्धि प्राप्त हुई?

47 यद्यपि कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी से इतने प्रसन्न थे कि वे उनके पुत्र रूप में अवतरित हुए किन्तु वे दोनों ही कृष्ण की उदार बाल-लीलाओं का आनन्द नहीं उठा पाये। ये लीलाएँ इतनी महान हैं कि इनका उच्चार करने मात्र से संसार का कल्मष दूर हो जाता है। किन्तु नन्द महाराज तथा यशोदा ने इन लीलाओं का पूर्ण आनन्द प्राप्त किया अतएव उनकी स्थिति वसुदेव तथा देवकी से सदैव श्रेष्ठतर है।

48 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान ब्रह्माजी के आदेश का पालन करने के लिए वसुओं में श्रेष्ठ द्रोण ने अपनी पत्नी धरा समेत ब्रह्मा से इस प्रकार कहा।

49 द्रोण तथा धरा ने कहा: कृपा करके हमें अनुमति दें कि हम पृथ्वी पर जन्म लें जिससे परब्रह्म परम नियन्ता तथा समस्त लोकों के स्वामी भगवान भी प्रकट हों और भक्ति का प्रसार करें जो जीवन का चरम लक्ष्य है और जिसे ग्रहण करके इस भौतिक जगत में उत्पन्न होने वाले लोग सरलता से भौतिकतावादी जीवन की दुखमय स्थिति से उबर सकें।

50 जब ब्रह्मा ने कहा, “हाँ, ऐसा ही हो" तो परम भाग्यशाली द्रोण जो भगवान के समान था, व्रजपुर वृन्दावन में विख्यात नन्द महाराज के रूप में और उनकी पत्नी धरा माता यशोदा के रूप में प्रकट हुए।

51 हे भारत श्रेष्ठ महाराज परीक्षित, तत्पश्चात जब भगवान कृष्ण नन्द महाराज तथा यशोदा के पुत्र बने तो उन दोनों ने निरन्तर, अचल दिव्य वात्सल्य-प्रेम बनाए रखा तथा उनके सानिध्य में वृन्दावन के अन्य सभी निवासी, गोप तथा गोपियों ने कृष्ण-भक्ति-संस्कृति का विकास किया।

52 इस तरह ब्रह्मा के वर को सत्य करने के लिए भगवान कृष्ण बलराम समेत व्रजभूमि वृन्दावन में रहे। उन्होंने विभिन्न बाल-लीलाएँ प्रदर्शित करते हुए नन्द तथा वृन्दावन के अन्य वासियों के दिव्य आनन्द को वर्धित किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय सात तृणावर्त का वध (10.7) 

1-2 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु श्रील शुकदेव गोस्वामी, भगवान के अवतारों द्वारा प्रदर्शित विविध लीलाएँ निश्चित रूप से कानों को तथा मन को सुहावनी लगने वाली हैं। इन लीलाओं के श्रवणमात्र से मनुष्य के मन का मैल तत्क्षण धुल जाता है। सामान्यतया हम भगवान की लीलाओं को सुनने में आनाकानी करते हैं किन्तु कृष्ण की बाल-लीलाएँ इतनी आकर्षक हैं कि वे स्वतः ही मन तथा कानों को सुहावनी लगती हैं। इस तरह भौतिक वस्तुओं के विषय में सुनने की अनुरक्ति, जो भवबन्धन का मूल कारण है, समाप्त हो जाती है। मनुष्य में धीरे धीरे भगवान के प्रति भक्ति एवं अनुरक्ति उत्पन्न होती है और भक्तों के साथ जो हमें कृष्णभावनामृत का योगदान देते हैं, मैत्री बढ़ती है। यदि आप उचित समझते हैं, तो कृपा करके भगवान की इन लीलाओं के विषय में कहें।

3 कृपया भगवान की अन्य लीलाओं का वर्णन करें जो मानवी बालक का रूप धारण करके और पूतना वध जैसे अद्भुत कार्यकलाप करते हुए इस पृथ्वी-लोक में प्रकट हुए।

4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब यशोदा का नन्हा शिशु उठने तथा करवट बदलने का प्रयत्न करने लगा तो वैदिक उत्सव मनाया गया। ऐसे उत्सव में, जिसे उत्थान कहा जाता है और जो बालक द्वारा घर से पहली बार बाहर निकलने के अवसर पर मनाया जाता है, बालक को ठीक से नहलाया जाता है। जब कृष्ण तीन मास के पूरे हुए तो माता यशोदा ने पड़ोस की अन्य औरतों के साथ इस उत्सव को मनाया। उस दिन चन्द्रमा तथा रोहिणी नक्षत्र का योग था। इस महोत्सव को माता यशोदा ने ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्र के उच्चारण तथा पेशेवर गायकों के सहयोग से सम्पन्न किया।

5 बच्चे का स्नान उत्सव पूरा हो जाने के बाद माता यशोदा ने ब्राह्मणों का स्वागत किया और उनको प्रचुर अन्न तथा अन्य भोज्य पदार्थ, वस्त्र, वांछित गौवें तथा मालाएँ भेंट करके उनकी उचित सम्मान के साथ पूजा की। ब्राह्मणों ने इस शुभ उत्सव पर उचित रीति से वैदिक मंत्र पढ़े। जब मंत्रोच्चार समाप्त हुआ और माता यशोदा ने देखा कि बालक उनींदा हो रहा है, तो वे उसे लेकर बिस्तर पर तब तक लेटी रहीं जब तक वह शान्त होकर सो नहीं गया।

6 उत्थान उत्सव मनाने में मग्न उदार माता यशोदा मेहमानों का स्वागत करने, आदर-सहित उनकी पूजा करने तथा उन्हें वस्त्र, गौवें, मालाएँ और अन्न भेंट करने में अत्यधिक व्यस्त थीं। अतः वे बालक के रोने को सुन नहीं पाईं। उस समय बालक कृष्ण अपनी माता का दूध पीना चाहता था अतः क्रोध में आकर वह अपने पाँव ऊपर की ओर उछालने लगा।

7 श्रीकृष्ण आँगन के एक कोने में छकड़े के नीचे लेटे हुए थे और यद्यपि उनके पाँव कोंपलों की तरह कोमल थे किन्तु जब उन्होंने अपने पाँवों से छकड़े पर लात मारी तो वह भड़भड़ा कर उलटने से टूट-फुट गया। पहिए धुरे से विलग होकर बिखर गये, गाड़ी का लट्ठा टूट गया और गाड़ी पर रखे सब छोटे-छोटे धातु के बर्तन-भांडे इधर-उधर छितरा गये।

8 जब माता यशोदा तथा उत्थान उत्सव के अवसर पर जुटी स्त्रियाँ तथा नन्द महाराज इत्यादि सभी पुरुषों ने यह अद्भुत दृश्य देखा तो वे आश्चर्य करने लगे कि यह छकड़ा किस तरह अपने आप चूर-चूर हो गया है। वे इसका कारण ढूँढने के लिए इधर-उधर घूमने लगे किन्तु कुछ भी तय न कर पाये।

9 वहाँ पर जुटे ग्वाले तथा गोपियाँ सोचने लगे कि यह घटना कैसे घटी? वे पूछने लगे, “कहीं यह किसी असुर या अशुभ ग्रह का काम तो नहीं है?” उस समय वहाँ पर उपस्थित बालकों ने स्पष्ट कहा कि बालक कृष्ण ने ही इस छकड़े को लात से मार कर दूर फेंका है। रोते बालक ने ज्योंही छकड़े के पहिये पर अपने पाँव मारे त्योंही पहिये सहित छकड़ा ध्वस्त हो गया, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

10 वहाँ एकत्र गोपियों तथा गोपों को यह विश्वास नहीं हुआ कि बालक कृष्ण में इतनी अचिन्त्य शक्ति हो सकती है क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत नहीं थे कि कृष्ण सदैव असीम हैं। उन्हें बालकों की बातों पर विश्वास नहीं हुआ अतएव बच्चों की भोली-भाली बातें जानकर, उन्होंने उनकी उपेक्षा की।

11 यह सोचकर कि कृष्ण पर किसी अशुभ ग्रह का आक्रमण हुआ है, माता यशोदा ने रोते बालक को उठा लिया और उसे स्तन-पान कराया। तब उन्होंने वैदिक स्तुतियों का उच्चारण तथा शुभ अनुष्ठान सम्पन्न करने के लिए अनुभवी ब्राह्मणों को बुला भेजा ।

12 जब बलिष्ठ गठीले ग्वालों ने बर्तन-भांडे तथा अन्य सामग्री को छकड़े के ऊपर पहले की भाँति व्यवस्थित कर दिया, तो ब्राह्मणों ने बुरे ग्रह को शान्त करने के लिए अग्नि-यज्ञ का अनुष्ठान किया और तब चाँवल, कुश, जल तथा दही से भगवान की पूजा की।

13-16 जब ब्राह्मणजन ईर्ष्या, झूठ, मिथ्या अहंकार, द्वेष, अन्यों के वैभव को देखकर मचलने तथा मिथ्या प्रतिष्ठा से मुक्त होते हैं, तो उनके आशीर्वाद व्यर्थ नहीं जाते। यह सोचकर नन्द महाराज ने गम्भीर होकर कृष्ण को अपनी गोद में ले लिया और इन सत्यनिष्ठ ब्राह्मणों को साम, ऋग तथा यजुर्वेद के पवित्र स्तोत्रों के अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न करने के लिए आमंत्रित किया। जब मंत्रोच्चार हो रहा था, तो नन्द ने बच्चे को शुद्ध जड़ी-बूटियों से मिश्रित जल से स्नान कराया और अग्नि-यज्ञ करने के बाद सभी ब्राह्मणों को उत्तम अन्न तथा अन्य प्रकार के पदार्थों का स्वादिष्ट भोजन कराया। नन्द महाराज ने अपने पुत्र के अभ्युदय हेतु ब्राह्मणों को गौवें दान में दीं जो वस्त्रों, फूल-मालाओं तथा सुनहरे हारों से सजाई गई थीं। ये गौवें जो प्रचुर दूध देने वाली थीं ब्राह्मणों को दान में दी गई थीं और ब्राह्मणों ने उन्हें स्वीकार किया। बदले में उन्होंने समूचे परिवार को तथा विशेष रूप से कृष्ण को आशीर्वाद दिया।

17 वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पूरी तरह से पटु ब्राह्मण योगशक्तियों से सम्पन्न योगी थे। वे जो भी आशीर्वाद देते वह कभी निष्फल नहीं जाता था।

18 कृष्ण के आविर्भाव के एक वर्ष बाद, एक दिन माता यशोदा पुत्र को अपनी गोद में दुलार रही थीं, तभी सहसा उन्हें वह बालक पर्वत की चोटी से भी भारी लगने लगा और वे उसका भार सहन नहीं कर पाईं।

19 बालक को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के बराबर भारी अनुभव करते हुए, अतएव यह सोचते हुए कि बालक को कोई दूसरा भूत-प्रेत या असुर सता रहा है, चकित माता यशोदा ने बालक को जमीन पर रख दिया और नारायण का चिन्तन करने लगीं। उत्पात की आशंका से उन्होंने इस भारीपन के शमन हेतु ब्राह्मणों को बुला भेजा और फिर घर के कामकाज में लग गई। उनके पास नारायण के चरणकमलों को स्मरण करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प न था क्योंकि वे यह नहीं समझ पाई कि कृष्ण ही हर वस्तु के मूल स्रोत हैं।

20 जब बालक जमीन पर बैठा हुआ था, तो तृणावर्त नामक असुर, जो कंस का दास था, वहाँ पर कंस के बहकाने पर बवण्डर के रूप में आया और बड़ी आसानी से बालक को अपने साथ उड़ाकर आकाश में ले गया।

21 उस असुर ने प्रबल बवण्डर के रूप में सारे गोकुल प्रदेश को धूल के कणों से ढकते हुए सभी लोगों की दृष्टि ढक ली और भयावनी आवाज करता हुआ सारी दिशाओं को कँपाने लगा।

22 क्षण भर के लिए समूचा चरागाह धूल भरी अंधड़ के घने अंधकार से ढक गया और माता यशोदा अपने पुत्र को उस स्थान में न पा सकीं जहाँ उसे बिठाया था।

23 तृणावर्त द्वारा फेंके गये बालू के कणों के कारण लोग न तो स्वयं को देख सकते थे न अन्य किसी और को। इस तरह वे मोहित तथा विचलित थे।

24 प्रबल बवण्डर से उठे अंधड़ के कारण माता यशोदा न तो अपने पुत्र का कोई पता लगा सकीं, न ही कोई कारण समझ पाईं। वे जमीन पर इस तरह गिर पड़ीं मानों किसी गाय ने अपना बछड़ा खो दिया हो। वे अत्यन्त करुण-भाव से विलाप करने लगीं।

25 जब अंधड़ तथा बवण्डर का वेग घट गया तो यशोदा का करुण क्रंदन सुनकर उनकी सखियाँ (गोपियाँ) उनके पास आई, कृष्ण को वहाँ न देखकर अत्यन्त उद्विग्न हुईं और माता यशोदा के साथ वे भी रोने लगीं।

26 तृणावर्त असुर बवण्डर का रूप धारण करके कृष्ण को आकाश में बहुत ऊँचाई तक ले गया किन्तु जब कृष्ण असुर से भारी हो गये तो असुर का वेग रुक गया जिससे वह और आगे नहीं जा सका।

27 कृष्ण के भार के कारण तृणावर्त उन्हें विशाल पर्वत या लोह का पिण्ड मान रहा था। किन्तु कृष्ण ने असुर की गर्दन पकड़ रखी थी इसलिए वह उन्हें फेंक नहीं पा रहा था। इसलिए उसने सोचा कि यह बालक अद्भुत है, जिसके कारण मैं न तो उसे ले जा सकता हूँ न ही इस भार को दूर फेंक सकता हूँ।

28 कृष्ण ने तृणावर्त को गले से पकड़ रखा था इसलिए उसका दम घुट रहा था जिससे वह न तो कराह सकता था, न ही अपने हाथ-पैर हिला-डुला सकता था। उसकी आँखें बाहर निकल आई थी, उसके प्राण निकल गये और वह उस छोटे बालक सहित व्रज की भूमि पर नीचे आ गिरा।

29 जब वहाँ एकत्र गोपियाँ कृष्ण के लिए रो रही थीं तो वह असुर आकाश से पत्थर की एक बड़ी चट्टान पर आ गिरा, जिससे उसके सारे अंग छिन्न-भिन्न हो गये मानो भगवान शिवजी के बाण से बेधा गया त्रिपुरासुर हो।

30 गोपियों ने तुरन्त ही कृष्ण को असुर की छाती से उठाकर माता यशोदा को लाकर सौंप दिया। वे समस्त अशुभों से मुक्त थे। चूँकि बालक को असुर द्वारा आकाश में ले जाये जाने पर भी किसी प्रकार की चोट नहीं आई थी और वह अब सारे खतरों तथा दुर्भाग्य से मुक्त था इसलिए नन्द महाराज समेत सारे ग्वाले तथा गोपियाँ अत्यन्त प्रसन्न थे।

31 यह सबसे अधिक आश्चर्य की बात है कि यह अबोध बालक, राक्षस द्वारा खाये जाने के लिए दूर ले जाया जाकर भी सकुशल वापस लौट आया। चूँकि राक्षस ईर्ष्यालु, क्रूर तथा पापी था, इसलिए वह अपने पापपूर्ण कृत्यों के लिए मारा गया। यही प्रकृति का नियम है। निर्दोष भक्त की रक्षा सदैव भगवान द्वारा की जाती है और पापी व्यक्ति को अपने पापमय जीवन के लिए दण्ड दिया जाता है।

32 नन्द महाराज तथा अन्य लोगों ने कहा: हमने अवश्य ही पूर्वजन्म में दीर्घकाल तक तपस्या की होगी, भगवान की पूजा की होगी, जनता के लिए सड़कें तथा कुएँ बनवाकर पुण्य कर्म किये होंगे और दान भी दिया होगा जिसके फलस्वरूप मृत्यु के मुख में गया हुआ यह बालक अपने सम्बन्धियों को आनन्द प्रदान करने के लिए लौट आया है।

33 बृहद्वन में इन सारी घटनाओं को देखकर नन्द महाराज अधिकाधिक आश्चर्यचकित हुए और उन्हें वसुदेव के वे शब्द स्मरण हो आये जो उन्होंने मथुरा में कहे थे।

34 एक दिन माता यशोदा कृष्ण को अपनी गोद में बैठाकर उन्हें दूध पिला रही थीं।

35-36 हे राजा परीक्षित, जब बालक कृष्ण अपनी माता का दूध पीना लगभग बन्द कर चुके थे और माता यशोदा उनके सुन्दर कान्तिमान हँसते मुख को छूते निहार रही थीं तो बालक ने जम्हाई ली और माता यशोदा ने देखा कि उनके मुँह में पूरा आकाश, उच्चलोक तथा पृथ्वी, सभी दिशाओं के तारे, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदी, जंगल तथा चर-अचर सभी प्रकार के जीव समाये हुए हैं।

37 जब यशोदा माता ने अपने पुत्र के मुखारविन्द में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखा तो उनका हृदय धक-धक करने लगा तथा आश्चर्यचकित होकर वे अपने अधीर नेत्र बन्द करना चाह रही थीं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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पूतना वध (10.6)

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अध्याय  छह -  पूतना वध (10.6) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब नन्द महाराज घर वापस आ रहे थे तो उन्होंने विचार किया कि वसुदेव ने जो कुछ कहा था वह असत्य या निरर्थक नहीं हो सकता। अवश्य ही गोकुल में उत्पातों के होने का कुछ खतरा रहा होगा। ज्योंही नन्द महाराज ने अपने सुन्दर पुत्र कृष्ण के लिए खतरे के विषय में सोचा त्योंही वे भयभीत हो उठे और उन्होंने परम नियन्ता के चरणकमलों में शरण ली।

2 जब नन्द महाराज गोकुल लौट रहे थे तो वही विकराल पूतना, जिसे कंस ने बच्चों को मारने के लिए पहले से नियुक्त कर रखा था, नगरों तथा गाँवों में घूम घूम कर अपना नृशंस कृत्य कर रही थी।

3 हे राजन! जहाँ भी लोग कीर्तन तथा श्रवण द्वारा भक्तिकार्यों की अपनी वृत्तियों में लगे रहते हैं (श्रवणम कीर्तनं विष्णो:) वहाँ बुरे लोगों से किसी प्रकार का खतरा नहीं रहता। जब साक्षात भगवान वहाँ विद्यमान हों तो गोकुल के विषय में किसी प्रकार की चिन्ता की आवश्यकता नहीं थी।

4 एक बार स्वेच्छा से विचरण करने वाली पूतना राक्षसी बाह्य आकाश (अन्तरिक्ष) में घूम रही थी तो वह अपनी योगशक्ति से अपने को अति सुन्दर स्त्री के रूप में बदलकर नन्द महाराज के स्थान गोकुल में प्रविष्ट हुई।

5-6 वह अत्यन्त सुन्दर वस्त्र धारण किये थी। उसके केश मल्लिका फूल की माला से सुसज्जित थे जो उसके सुन्दर मुख पर बिखरे हुए थे। उसके कान के कुण्डल चमकीले थे। वह हर व्यक्ति पर दृष्टि डालते हुए आकर्षक ढंग से मुस्कुरा रही थी। उसकी सुन्दरता ने व्रज के सारे निवासियों का विशेष रूप से पुरुषों का ध्यान आकृष्ट कर रखा था। जब गोपियों ने उसे देखा तो उन्होंने सोचा कि हाथ में कमल का फूल लिए लक्ष्मीजी अपने पति कृष्ण को देखने आई हैं।

7 छोटे-छोटे बालकों को ढूँढती हुई बच्चों का वध करने वाली पूतना बिना किसी रोक टोक के नन्द महाराज के घर में घुस गई क्योंकि वह भगवान की परा शक्ति द्वारा भेजी गई थी। वह किसी से पूछे बिना नन्द महाराज के उस कमरे में गई जहाँ उसने बालक को बिस्तर पर सोते देखा जो राख में ढकी अग्नि के समान असीम शक्ति-सम्पन्न था। वह समझ गई कि यह बालक कोई साधारण बालक नहीं है, अपितु सारे असुरों का वध करने के लिये आया है।

8 बिस्तर पर लेटे सर्वव्यापी परमात्मा कृष्ण ने समझ लिया कि छोटे बालकों को मारने में पटु यह डायन पूतना मुझे मारने आई है। अतएव उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं मानो उससे डर गये हों। तब पूतना ने अपने विनाश-रूप कृष्ण को गोद में ले लिया जिस तरह कि बुद्धिहीन मनुष्य सोते साँप को रस्सी समझ कर अपनी गोद में ले लेता है।

9 पूतना राक्षसी का हृदय कठोर एवं क्रूर था किन्तु ऊपर से वह अत्यन्त स्नेहमयी माता सदृश लग रही थी। वह मुलायम म्यान के भीतर तेज तलवार जैसी थी। यद्यपि यशोदा तथा रोहिणी ने उसे कमरे के भीतर देखा किन्तु उसके सौन्दर्य से अभिभूत होने के कारण उन्होंने उसे रोका नहीं अपितु वे मौन रह गई क्योंकि वह बच्चे के साथ मातृवत व्यवहार कर रही थी।

10 उसी जगह भयानक तथा खूँखार राक्षसी ने कृष्ण को गोद में ले लिया और उनके मुँह में अपना स्तन दे दिया, जिसमें तुरन्त प्रभाव दिखाने वाला विष चुपड़ा हुआ था। किन्तु भगवान कृष्ण उस पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए, स्तन को हाथों से पकड़ कर कड़ाई से निचोड़ा और विष तथा प्राण दोनों चूस डाले।

11 प्रत्येक मर्मस्थल में असह्य दबाव से पूतना चिल्ला उठी, “मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो! अब मेरा स्तनपान मत करो।" पसीने से तर, फटी हुई आँखें तथा हाथ और पैर पटकती हुई वह बार-बार जोर-जोर से चिल्लाने लगी।

12 पूतना की गहन तथा जोरदार चीत्कार से पर्वतों, पृथ्वी तथा ग्रहों समेत आकाश डगमगाने लगा। नीचे के लोक तथा सारी दिशाएँ थरथरा उठीं और लोग इस आशंका से गिर पड़े कि उन पर बिजली गिर रही हो।

13 इस तरह कृष्ण द्वारा स्तन पर दबाव डालने से अत्यन्त व्यथित पूतना ने अपने प्राण त्याग दिये।

14 हे राजा परीक्षित, वह राक्षसी अपना मुँह फैलाये, हाथ--पाँव पसारे और बाल फैलाये, मूल रूप में गोचर में गिर पड़ी मानो इन्द्र के वज्र से आहत वृत्रासुर गिरा हो। हे राजा परीक्षित, जब पूतना का विशाल शरीर भूमि पर गिरा तो उससे बारह मील के दायरे के सारे वृक्ष चूर चूर हो गये। अपने विशाल शरीर में प्रकट होने से वह सचमुच असामान्य थी।

15-17 राक्षसी के मुँह में दाँत हल के फाल (कुशी) जैसे थे, उसके नथुने पर्वत-गुफाओं की तरह गहरे थे और उसके स्तन पर्वत से गिरे हुए बड़े-बड़े शिलाखण्डों के समान थे। उसके बिखरे बाल ताम्र रंग के थे, आँखों के गड्डे गहरे अन्धे (भूपट्ट) कुओं जैसे थे, भयानक जाँघें नदी के किनारों जैसी थी, बाजू, टाँगें तथा पाँव बड़े बड़े पुलों की तरह थीं तथा पेट सूखी झील की तरह लग रहा था। राक्षसी की चीख से ग्वालों तथा उनकी पत्नियों के हृदय, कान तथा सिर पहले ही दहल चुके थे और जब उन्होंने उसके अद्भुत शरीर को देखा तो वे और भी ज्यादा सहम गये।

18 बालक कृष्ण भी निडर होकर पूतना की छाती के ऊपरी भाग पर खेल रहा था और जब गोपियों ने बालक के अद्भुत कार्यकलाप को देखा तो उन्होंने अत्यन्त हर्षित होकर आगे बढ़ते हुए उसे उठा लिया।

19 तत्पश्चात माता यशोदा तथा रोहिणी ने अन्य प्रौढ़ गोपियों समेत बालक श्रीकृष्ण को पूर्ण संरक्षण देने के लिए चँवर डुलाया।

20 बालक को गोमूत्र से अच्छी तरह नहलाया गया और गोधूलि से लेप किया गया। फिर उनके शरीर में बारह अंगों पर, तिलक लगाने की भाँति माथे से शुरू करके, गोबर से भगवान के विभिन्न नाम अंकित किए गये। इस तरह बालक को सुरक्षा प्रदान की गई।

21 गोपियों ने सर्वप्रथम अपने दाहिने हाथ से जल का एक घूँट पी कर आचमन किया। उन्होंने अपने शरीरों तथा हाथों को न्यास-मंत्र से शुद्ध बनाया और तब उन्होंने बालक के शरीर को भी उसी मंत्र से परिशुद्ध किया।

22-23 (श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को बतलाया कि गोपियों ने कृष्ण की रक्षा उपयुक्त विधि के अनुसार निम्नलिखित मंत्र द्वारा की) – अज तुम्हारे पाँवों की, मणिमान तुम्हारे घुटनों की, यज्ञ तुम्हारी जाँघों की, अच्युत तुम्हारी कमर के ऊपरी भाग की तथा हयग्रीव तुम्हारे उदर की रक्षा करें। केशव तुम्हारे हृदय की, ईश तुम्हारे वक्षस्थल की, सूर्यदेव तुम्हारे गले की, विष्णु तुम्हारे भुजाओं की, उरुक्रम तुम्हारे मुँह की तथा ईश्वर तुम्हारे सिर की रक्षा करें। चक्री आगे से, गदाधारी हरि पीछे से तथा धनुर्धर मधुहा एवं खड़ग भगवान विष्णु दोनों ओर से तुम्हारी रक्षा करें। शंखधारी उरुगाय समस्त कोणों से तुम्हारी रक्षा करें। उपेन्द्र ऊपर से, गरुड़ धरती पर तथा परम पुरुष हलधर चारों ओर से तुम्हारी रक्षा करें।

24 हृषिकेश तुम्हारी इन्द्रियों की तथा नारायण तुम्हारे प्राणवायु की रक्षा करें। श्वेतद्वीप के स्वामी तुम्हारे चित्त की तथा योगेश्वर तुम्हारे मन की रक्षा करें।

25-26 भगवान प्रश्निगर्भ बुद्धि की तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान आत्मा की रक्षा करें। खेलते समय गोविन्द तथा सोते समय माधव तुम्हारी रक्षा करें। भगवान वैकुण्ठ तुम्हारे चलते समय तथा लक्ष्मीपति नारायण तुम्हारे बैठते समय तुम्हारी रक्षा करें। इस तरह भगवान यज्ञभुक, जिनसे सारे दुष्टग्रह भयभीत रहते हैं तुम्हारे भोग के समय सदैव तुम्हारी रक्षा करें।

27-29 माता यशोदा का दृढ़ विश्वास था कि वे अपने पुत्र की रक्षा – डाकिनी, यातुधानी, कुष्माण्ड, भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका तथा इसी प्रकार के अन्य भूत-प्रेतों से कर सकेंगी – जो इन्द्रियों, प्राणों को कष्ट पहुँचाते हैं और जो मनुष्यों को उनके निजी अस्तित्व के बारे में भुलवा देते हैं। किन्तु भगवान विष्णु के नामोच्चार से ही उन्हें नष्ट किया जा सकता है क्योंकि जब भगवान विष्णु का नाम प्रतिध्वनित होता है, तो वे सब डर जाते हैं और दूर भाग जाते हैं।

30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: माता यशोदा समेत सारी गोपियाँ मातृस्नेह से बँधी हुई थीं। इस तरह बालक की रक्षा के लिए मंत्रोच्चारण के बाद माता यशोदा ने बच्चे को दूध पिलाया और उसे बिस्तर पर लिटा दिया।

31 तब तक नन्द महाराज समेत सारे ग्वाले मथुरा से लौट आये और जब उन्होंने रास्ते में पूतना के विशालकाय शरीर को मृत पड़ा देखा तो वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हुए।

32 नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले चिल्ला पड़े: मित्रों, जान लो कि आनकदुन्दुभि अर्थात वसुदेव बहुत बड़ा सन्त या योगेश्वर बन चुका है। अन्यथा वह इस उत्पात को पहले से कैसे देख सकता था और हमसे इसकी भविष्य वाणी कैसे कर सकता था?

33 व्रजवासियों ने पूतना के शरीर को फरसों से खण्ड खण्ड कर डाला। फिर उन खण्डों को दूर फेंक दिया और उन्हें लकड़ी से ढककर भस्मीभूत कर डाला।

34 चूँकि कृष्ण ने उस राक्षसी पूतना का स्तनपान किया था, इस तरह जब कृष्ण ने उसे मारा तो वह तुरन्त समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो गई। उसके सारे पाप स्वतः ही दूर हो गये अतएव जब उसके विशाल शरीर को जलाया जा रहा था तो उसके शरीर से निकलने वाला धुआँ अगुरु की सुगन्ध सा महक रहा था।

35-36 पूतना सदा ही मानव शिशुओं की खून की प्यासी रहती थी और इसी अभिलाषा से वह कृष्ण को मारने आई थी। किन्तु कृष्ण को स्तनपान कराने से उसे सर्वोच्च पद प्राप्त हो गया। तो भला उनके विषय में क्या कहा जाय जिनमें माताओं के रूप में कृष्ण के लिए सहज भक्ति तथा स्नेह था और जिन्होंने अपना स्तनपान कराया या कोई अत्यन्त प्रिय वस्तु भेंट की थी जैसा कि माताएँ करती रहती हैं।

37-38 ब्रह्माजी तथा भगवान शिवजी जैसे पूज्य पुरुषों द्वारा सदैव वन्दनीय, भगवान कृष्ण शुद्ध भक्तों के हृदय में सदैव स्थित रहते हैं। चूँकि कृष्ण ने पूतना के शरीर का आलिंगन अत्यन्त प्रेमपूर्वक किया था और भूतनी होते हुए भी उन्होंने उसका स्तनपान किया था इसीलिए उसे दिव्य लोक में माता की गति और सर्वोच्च सिद्धि मिली। तो भला उन गौवों के विषय में क्या कहा जाय जिनका स्तनपान कृष्ण बड़े ही आनन्द से करते थे और जो बड़े ही प्यार से माता के ही समान कृष्ण को अपना दूध देती थीं?

39-40 भगवान कृष्ण अनेक वरों के प्रदाता हैं जिनमें कैवल्य अर्थात ब्रह्म तेज में तादात्म्य भी सम्मिलित है। उन भगवान के लिए गोपियों ने सदैव मातृ-प्रेम का अनुभव किया और कृष्ण ने पूर्ण संतोष के साथ उनका स्तनपान किया। अतएव माता-पुत्र के सम्बन्ध के कारण विविध पारिवारिक कार्यों में संलग्न रहने पर भी किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि अपना शरीर त्यागने पर वे इस भौतिक जगत में लौट आई।

41 पूतना के जलते शरीर से निकले धुएँ की सुगन्ध को सूँघकर दूर दूर के अनेक व्रजवासी आश्चर्यचकित थे और पूछ रहे थे, “यह सुगन्धि कहाँ से आ रही है?” इस तरह वे उस स्थान तक गये जहाँ पर पूतना का शरीर जलाया जा रहा था।

42 जब दूर दूर से आये व्रजवासियों ने पूरी कथा सुनी कि किस तरह पूतना आई और फिर कृष्ण द्वारा मारी गई तो वे हतप्रभ रह गये और उन्होंने पूतना के मारने के अद्भुत कार्य के लिए उस बालक को आशीर्वाद दिया। निस्सन्देह नन्द महाराज वसुदेव के अत्यन्त कृतज्ञ थे जिन्होंने इस घटना को पहले ही देख लिया था। उन्होंने यह सोचकर वसुदेव को धन्यवाद दिया कि वे कितने अद्भुत हैं।

43 हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, नन्द महाराज अत्यन्त उदार एवं सरल स्वभाव के थे। उन्होंने तुरन्त अपने पुत्र कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया मानो कृष्ण मृत्यु के मुख से लौटे हों और अपने पुत्र के सिर को सूँघ कर निस्सन्देह दिव्य आनन्द का अनुभव किया।

44 जो कोई भी भगवान कृष्ण द्वारा पूतना के मारे जाने के विषय में श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक श्रवण करता है और कृष्ण की ऐसी बाल लीलाओं के सुनने में अपने को लगाता है उसे निश्चय ही आदि पुरुष रूप गोविन्द के प्रति अनुरक्ति प्राप्त होती है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय पाँच - नन्द महाराज तथा वसुदेव की भेंट (10.5)

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: नन्द महाराज स्वभाव से अत्यन्त उदार थे अतः जब भगवान श्रीकृष्ण ने उनके पुत्र रूप में जन्म लिया तो वे हर्ष के मारे फूले नहीं समाए। अतएव स्नान द्वारा अपने को शुद्ध करके तथा समुचित ढंग से वस्त्र धारण करके उन्होंने वैदिक मंत्रों का पाठ करने वाले ब्राह्मणों को बुला भेजा। जब ये योग्य ब्राह्मण शुभ वैदिक स्तोत्रों का पाठ कर चुके तो नन्द ने अपने नवजात शिशु के जात-कर्म को विधिवत सम्पन्न किए जाने की व्यवस्था की। उन्होंने देवताओं तथा पूर्वजों की पूजा का भी प्रबन्ध किया।

3 नन्द महाराज ने ब्राह्मणों को वस्त्रों तथा रत्नों से अलंकृत बीस लाख गौवें दान में दीं। उन्होंने रत्नों तथा सुनहरे गोटे वाले वस्त्रों से ढके तिल से बनाये गये सात पहाड़ भी दान में दिए।

4 हे राजन, समय बीतने के साथ ही, धरती तथा अन्य सम्पत्ति शुद्ध हो जाती है, स्नान से शरीर शुद्ध होता है और सफाई करने से मलिन वस्तुएँ शुद्ध होती हैं। संस्कार अनुष्ठानों से जन्म शुद्ध होता है, तपस्या से इन्द्रियाँ शुद्ध होती हैं तथा पूजा से और ब्राह्मणों को दान देने से भौतिक सम्पत्ति शुद्ध होती है। संतोष से मन शुद्ध होता है और आत्मज्ञान अर्थात कृष्णभावनामृत से आत्मा शुद्ध होता है।

5 ब्राह्मणों ने मंगलकारी वैदिक स्तोत्र सुनाए जिनकी ध्वनि से वातावरण शुद्ध हो गया। प्राचीन इतिहासों या पुराणों को सुनाने वाले, राजपरिवारों के इतिहास सुनाने वाले तथा सामान्य वाचकों ने गायन किया जबकि गवैयों ने भेरी, दुन्दुभी आदि अनेक प्रकार के वाद्य यंत्रों की संगत में गाया।

6 नन्द महाराज का निवास व्रजपुर रंग-बिरंगी झण्डियों तथा झण्डों से पूरी तरह सजाया गया था और विभिन्न स्थानों पर नाना प्रकार के फूलों की मालाओं, वस्त्रों तथा आम की पत्तियों से तोरण बनाए गए थे। आँगन, सड़कों के पास के दरवाजे तथा घरों के कमरों के भीतर की सारी वस्तुएँ अच्छी तरह से झाड़ बुहार कर पानी से धोई गई थीं।

7 गौवों, बैलों तथा बछड़ों के सारे शरीर में हल्दी तथा तेल के साथ नाना प्रकार के खनिजों का लेप किया गया था। उनके मस्तकों को मोर पंखों से सजाया गया था, उन्हें मालाएँ पहनाई गई थीं और ऊपर से वस्त्र तथा सुनहरे गहनों से आच्छादित किया गया था।

8 हे राजा परीक्षित, ग्वाले अत्यन्त मूल्यवान गहने तथा कंचुक और पगड़ी जैसे वस्त्रों से खूब सजे-धजे थे। इस तरह से सजधज कर तथा अपने हाथों में तरह-तरह की भेंटें लेकर वे नन्द महाराज के घर आए।

9 गोपियाँ यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्न थीं कि माता यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है, अतः वे उपयुक्त वस्त्रों, गहनों, काजल आदि से अपने को सजाने लगीं।

10 अपने कमल जैसे असाधारण सुन्दर मुखों को केसर तथा नवविकसित कुमकुम से अलंकृत करके गोपियाँ अपने हाथों में भेंटें लेकर माता यशोदा के घर के लिए तेजी से चल पड़ीं।

11 गोपियों के कानों में चमचमाती रत्नजटित बालियाँ थीं और उनके गले में धातुओं के हाँस लटक रहे थे। उनके हाथ चूड़ियों से विभूषित थे, उनकी वेशभूषाएँ विविध रंगों की थीं और उनके बालों में लगे फूल रास्तों पर गिर रहे थे मानो वर्षा हो रही हो। इस प्रकार नन्द महाराज के घर जाते समय गोपियाँ, उनके कुण्डल, तथा मालाएँ अतीव सुन्दर लग रही थीं।

12 ग्वालों की पत्नियों तथा पुत्रियों ने नवजात शिशु, कृष्ण को आशीर्वाद देते हुए कहा, “आप व्रज के राजा बनें और यहाँ के सारे निवासियों का दीर्घकाल तक पालन करें।" उन्होंने अजन्मा भगवान पर हल्दी, तेल तथा जल का मिश्रण छिड़का और प्रार्थनाएँ कीं।

13 चूँकि अब सर्वव्यापी, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी, अनन्त भगवान कृष्ण महाराज नन्द की पुरी में पदार्पण कर चुके थे, अतएव इस महान उत्सव के उपलक्ष्य में नाना प्रकार के वाद्ययंत्र बजाये गये।

14 ग्वालों ने प्रसन्न होकर एक दूसरे के शरीरों में दही, खीर, मक्खन तथा जल का घोल छिड़ककर इस महोत्सव का आनन्द लिया। उन्होंने एक दूसरे पर मक्खन फेंका और एक दूसरे के शरीरों में पोता भी।

15-16 उदारचेता महाराज नन्द ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ग्वालों को वस्त्र, आभूषण तथा गाएँ दान में दीं। इस तरह उन्होंने अपने पुत्र की दशा को सभी प्रकार से सँवारा। उन्होंने सूतों, मागधों, वन्दीजनों तथा अन्य वृत्ति वाले लोगों को उनकी शैक्षिक योग्यता के अनुसार दान दिया और हर एक की इच्छाओं को तुष्ट किया।

17 बलदेव की माता अति-भाग्यशालिनी रोहिणी नन्द महाराज तथा यशोदा द्वारा अभिनन्दित हुई। उन्होंने भी शानदार वस्त्र पहन रखे थे और गले के हार, माला तथा अन्य गहनों से अपने को सजा रखा था। वे उस उत्सव में अतिथि-स्त्रियों का स्वागत करने के लिए इधर-उधर आ-जा रही थीं।

18 हे महाराज परीक्षित, नन्द महाराज का घर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तथा उनके दिव्य गुणों का शाश्वत धाम है फलतः उसमें समस्त सम्पदाओं का ऐश्वर्य सदैव निहित है। फिर भी कृष्ण के आविर्भाव के दिन से ही वह घर देवी लक्ष्मी की क्रीड़ास्थली बन गया।

19 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंश के सर्वश्रेष्ठ रक्षक, उसके बाद नन्द महाराज ने स्थानीय ग्वालों को गोकुल की रक्षा के लिए नियुक्त किया और स्वयं राजा कंस को वार्षिक कर देने मथुरा चले गये।

20 जब वसुदेव ने सुना कि उनके अत्यन्त प्रिय मित्र तथा भाई नन्द महाराज मथुरा पधारे हैं और वे कंस को कर भुगतान कर चुके हैं, तो वे तुरन्त उस स्थान में गये जहाँ नन्द महाराज ठहरे थे।

21 जब नन्द महाराज ने वसुदेव को देखा, तो उन्हें लगा मानो नया जीवनदान मिला हो। नन्द भी भावविभोर होकर खड़े हो गये और उन्होंने वसुदेव का आलिंगन किया ।

22 हे महाराज पारीक्षित, नन्द महाराज द्वारा, इस प्रकार आदरपूर्वक सत्कार एवं स्वागत किए जाने पर वसुदेव बड़ी ही शान्ति से बैठ गए और अपने दोनों पुत्रों के प्रति अगाध-प्रेम के कारण उनके विषय में पूछा।

23 मेरे भाई नन्द महाराज, इस वृद्धावस्था में भी आपका कोई पुत्र न था और आप निराश हो चुके थे। अतः अब जबकि आपको पुत्र प्राप्त हुआ है, तो यह अत्यधिक सौभाग्य का लक्षण है।

24 यह मेरा सौभाग्य ही है कि मैं आपके दर्शन कर रहा हूँ। इस अवसर को प्राप्त करके मुझे ऐसा लग रहा है मानो मैंने फिर से जन्म लिया हो। इस जगत में उपस्थित रहकर भी मनुष्य के लिए अपने घनिष्ठ मित्रों तथा सम्बन्धियों से मिल पाना अत्यन्त कठिन होता है।

25 लकड़ी के फट्टे और छड़ियाँ एकसाथ रुकने में असमर्थ होने से नदी की लहरों के वेग से बहा लिए जाते हैं। इसी तरह हम अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हुए भी अपने नाना प्रकार के विगत कर्मों तथा काल की लहरों के कारण एकसाथ रहने में असमर्थ होते हैं।

26 हे मित्र नन्द महाराज, आप जिस स्थान में रह रहे हैं क्या वहाँ का जंगल पशुओं-गौवों के लिए अनुकूल है? आशा है कि वहाँ रोग या कोई असुविधा नहीं होगी। वह स्थान जल, घास तथा अन्य पौधों से भरा-पूरा होगा।

27 आप तथा यशोदा देवी द्वारा पाले जाने के कारण मेरा पुत्र बलदेव आप दोनों को अपना माता-पिता मानता तो है न, वह आपके घर में अपनी असली माता रोहिणी के साथ शान्तिपूर्वक रह रहा है न!

28 जब किसी के मित्र तथा सम्बन्धीगण अपने-अपने पदों पर ठीक तरह से बँधे रहते हैं, तो वैदिक साहित्य में उल्लिखित उनके धर्म, अर्थ तथा काम लाभप्रद होते हैं। अन्यथा, मित्रों तथा सम्बन्धियों के क्लेशग्रस्त होने पर इन तीनों से कोई सुख नहीं मिल पाता।

29 नन्द महाराज ने कहा: हाय ! राजा कंस ने देवकी से उत्पन्न तुम्हारे अनेक बालकों को मार डाला और तुम्हारी सन्तानों में सबसे छोटी एक कन्या स्वर्गलोक को चली गई।

30 प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रारब्ध द्वारा नियंत्रित होता है क्योंकि उसी से मनुष्य के सकाम कर्मों के फल निर्धारित होते हैं। दूसरे शब्दों में, अदृष्ट प्रारब्ध के कारण ही मनुष्य को पुत्र या पुत्री प्राप्त होती है और जब पुत्र या पुत्री नहीं रहते, तो वह भी अदृष्ट प्रारब्ध के ही कारण होता है। प्रारब्ध ही हर एक का अनंतिम नियंत्रक है। जो इसे जानता है, वह कभी मोहग्रस्त नहीं होता।

31 वसुदेव ने नन्द महाराज से कहा: मेरे भाई, अब तो आपने कंस को वार्षिक कर चुका दिया है और मुझसे भी भेंट कर ली है, अतः इस स्थान पर अब अधिक दिन मत रुको। गोकुल लौट जाना बेहतर है क्योंकि मैं जानता हूँ कि वहाँ कुछ उपद्रव हो सकते हैं।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब वसुदेव ने नन्द महाराज को इस प्रकार सलाह दी तो नन्द महाराज तथा उनके संगी ग्वालों ने वसुदेव से अनुमति ली, अपनी-अपनी गाड़ियों में बैल जोते और सवार होकर गोकुल के लिए प्रस्थान कर गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय चार राजा कंस के अत्याचार (10.4) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, घर के भीतरी तथा बाहरी दरवाजे पूर्ववत बन्द हो गए। तत्पश्चात घर के रहने वालों ने, विशेष रूप से द्वारपालों ने, नवजात शिशु का क्रन्दन सुना और अपने बिस्तरों से उठ खड़े हुए।

2 तत्पश्चात सारे द्वारपाल जल्दी से भोजवंश के शासक राजा कंस के पास गए और उसे देवकी से शिशु के जन्म लेने का समाचार बतलाया। अत्यन्त उत्सुकता से इस समाचार की प्रतीक्षा कर रहे कंस ने तुरन्त ही कार्यवाही की।

3 कंस तुरन्त ही बिस्तर से यह सोचते हुए उठ खड़ा हुआ, “यह रहा काल, जिसने मेरा वध करने के लिए जन्म लिया है।" इस तरह उद्विग्न एवं अपने सिर के बाल बिखराए कंस तुरन्त ही उस स्थान पर पहुँचा जहाँ शिशु ने जन्म लिया था।

4 असहाय तथा कातर भाव से देवकी ने कंस से विनती की-- मेरे भाई, तुम्हारा कल्याण हो। तुम इस बालिका को मत मारो। यह तुम्हारी पुत्र-वधू बनेगी। तुम्हें शोभा नहीं देता कि एक कन्या का वध करो।

5 हे भ्राता, तुम दैववश मेरे अनेक सुन्दर तथा अग्नि जैसे तेजस्वी शिशुओं को पहले ही मार चुके हो। किन्तु कृपा करके इस कन्या को छोड़ दो। इसे उपहार स्वरूप मुझे दे दो।

6 हे प्रभु, हे मेरे भाई, मैं अपने सारे बालकों से विरहित होकर अत्यन्त दीन हूँ, फिर भी तुम्हारी छोटी बहन हूँ अतएव यह तुम्हारे अनुरूप ही होगा कि तुम इस अन्तिम शिशु को मुझे भेंट में दे दो।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: अपनी पुत्री को दीनतापूर्वक सीने से लगाये हुए तथा बिलखते हूए देवकी ने कंस से अपनी सन्तान के प्राणों की भीख माँगी, किन्तु वह इतना निर्दयी था कि उसने देवकी को फटकारते हूए उसके हाथों से उस बालिका को बलपूर्वक झपट लिया।

8 अपने विकट स्वार्थ के कारण अपनी बहन से सारे सम्बन्ध तोड़ते हूए घुटनों के बल बैठे कंस ने नवजात शिशु के पाँवों को पकड़ा और उसे पत्थर पर पटकना चाहा।

9 वह कन्या, योगमाया देवी जो भगवान विष्णु की छोटी बहन थी, कंस के हाथ से छूट कर ऊपर की ओर चली गई और आकाश में हथियारों से युक्त आठ भुजाओं वाली देवी – देवी दुर्गा – के रूप में प्रकट हुई।

10-11 देवी दुर्गा फूलों की मालाओं से सुशोभित थीं, वे चन्दन का लेप किए थीं और सुन्दर वस्त्र पहने तथा बहुमूल्य रत्नों से जटित आभूषणों से युक्त थीं। वे अपने हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र तथा गदा धारण किए हूए थीं। अप्सराएँ, किन्नर, उरग, सिद्ध, चारण तथा गन्धर्व तरह-तरह की भेंट अर्पित करते हूए उनकी प्रशंसा और पूजा कर रहे थे। ऐसी देवी दुर्गा इस प्रकार बोलीं।

12 अरे मूर्ख कंस, मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा? तेरा जन्मजात शत्रु तथा वध करने वाला पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अन्यत्र कहीं जन्म ले चुका है। अतः तू व्यर्थ ही अन्य बालकों का वध मत कर।

13 कंस से इस तरह कहकर देवी दुर्गा अर्थात योगमाया वाराणसी इत्यादि जैसे विभिन्न स्थानों में प्रकट हुई और अन्नपूर्णा, दुर्गा, काली तथा भद्रा जैसे विभिन्न नामों से विख्यात हुई।

14 देवी दुर्गा के शब्दों को सुनकर कंस अत्यन्त विस्मित हुआ। तब वह अपनी बहन देवकी तथा बहनोई वसुदेव के निकट गया, उन्हें बेड़ियों से विमुक्त कर दिया तथा अति विनीत भाव में इस प्रकार बोला।

15 हाय मेरी बहन! हाय मेरे बहनोई! मैं सचमुच उस मानव-भक्षी (राक्षस) के तुल्य पापी हूँ जो अपने ही शिशु को मारकर खा जाता है क्योंकि मैंने तुमसे उत्पन्न अनेक पुत्रों को मार डाला है।

16 मैंने दयाविहीन तथा क्रूर होने के कारण अपने सारे सम्बन्धियों तथा मित्रों का परित्याग कर दिया है। अतः मैं नहीं जानता कि ब्राह्मण का वध करने वाले व्यक्ति के समान मृत्यु के बाद या इस जीवित अवस्था में, मैं किस लोक को जाऊँगा?

17 हाय! कभी-कभी न केवल मनुष्य झूठ बोलते हैं अपितु विधाता भी झूठ बोलता है और मैं इतना पापी हूँ कि मैंने विधाता की भविष्यवाणी को मानते हूए अपनी ही बहन के इतने बच्चों का वध कर दिया।

18 हे महान आत्माओं, तुम दोनों के पुत्रों को अपने ही दुर्भाग्य का फल भोगना पड़ा है। अतः तुम उनके लिए शोक मत करो। सारे जीव परमेश्वर के नियंत्रण में होते है और वे सदैव एकसाथ नहीं रह सकते।

19 इस संसार में हम देखते हैं कि बर्तन, खिलौने तथा पृथ्वी के अन्य पदार्थ प्रकट होते हैं, टूटते हैं और फिर पृथ्वी में मिलकर विलुप्त हो जाते हैं। ठीक इसी तरह बद्धजीवों के शरीर विनष्ट होते रहते हैं, किन्तु पृथ्वी की ही तरह ये जीव अपरिवर्तित रहते हैं और कभी विनष्ट नहीं होते (न हन्यते हन्यमाने शरीरे)

20 जो व्यक्ति शरीर तथा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को नहीं समझता वह देहात्मबुद्धि के प्रति अत्यधिक अनुरक्त रहता है। फलस्वरूप शरीर तथा उसके प्रतिफलों के प्रति अनुरक्ति के कारण वह अपने परिवार, समाज तथा राष्ट्र के साथ संयोग तथा वियोग का अनुभव करता है। जब तक ऐसा बना रहता है तब तक वह भौतिक जीवन बिताता है (अन्यथा मुक्त है)

21 मेरी बहन देवकी, तुम्हारा कल्याण हो। हर व्यक्ति प्रारब्ध के अधीन अपने ही कर्मों के फल भोगता है। अतएव, दुर्भाग्यवश मेरे द्वारा मारे गए अपने पुत्रों के लिए शोक मत करो।

22 देहात्मबुद्धि होने पर आत्म-साक्षात्कार के अभाव में मनुष्य यह सोचकर अँधेरे में रहता है कि "मुझे मारा जा रहा है" अथवा "मैंने अपने शत्रुओं को मार डाला है।" जब तक मूर्ख व्यक्ति इस प्रकार अपने को मारने वाला या मारा गया सोचता है तब तक वह भौतिक बन्धनों में रहता है और उसे सुख-दुख भोगना पड़ता है।

23 कंस ने याचना की, “ हे मेरी बहन तथा मेरे बहनोई, मुझ जैसे क्षुद्र-हृदय व्यक्ति पर कृपालु होयें क्योंकि तुम दोनों ही साधु सदृश व्यक्ति हो। मेरी क्रूरताओं को क्षमा कर दें।" यह कहकर खेद के साथ आँखों में अश्रु भरकर कंस वसुदेव तथा देवकी के चरणों में गिर पड़ा।

24 देवी दुर्गा की वाणी में पूरी तरह विश्वास करते हूए कंस ने देवकी तथा वसुदेव को तुरन्त ही लोहे की शृंखलाओं से मुक्त करते हूए पारिवारिक स्नेह का प्रदर्शन किया।

25 जब देवकी ने देखा कि उसका भाई पूर्वनिर्धारित घटनाओं की व्याख्या करते हूए वास्तव में पश्चाताप कर रहा है, तो उनका सारा क्रोध जाता रहा। इसी प्रकार, वसुदेव भी क्रोध मुक्त हो गए। उन्होंने हँसकर कंस से कहा।

26 हे महापुरुष कंस, केवल अज्ञान के प्रभाव के ही कारण मनुष्य भौतिक देह तथा अभिमान स्वीकार करता है। आपने इस दर्शन के विषय में जो कुछ कहा वह सही है। आत्म-ज्ञान से रहित देहात्मबुद्धि वाले व्यक्ति "यह मेरा है,” "ये पराया है" के रूप में भेदभाव बरतते हैं।

27 भेदभाव की दृष्टि रखने वाले व्यक्ति शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह तथा मद जैसे भौतिक गुणों से समन्वित होते हैं। वे उस आसन्न (उपादान) कारण से प्रभावित होते हैं जिसका निराकरण करने में वे लगे रहते हैं क्योंकि उन्हें दूरस्थ परम कारण (निमित्त कारण) अर्थात भगवान का कोई ज्ञान नहीं होता।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: शान्तमना देवकी तथा वसुदेव द्वारा शुद्धभाव से इस तरह सम्बोधित किए जाने पर कंस अत्यन्त हर्षित हुआ और उनकी अनुमति लेकर वह अपने घर चला गया।

29 रात बीत जाने पर कंस ने अपने सारे मंत्रियों को बुलाकर वह सब उन्हें बतलाया जो योगमाया ने कहा था (जिसने यह रहस्य बताया था कि कंस को मारने वाला कहीं अन्यत्र उत्पन्न हो चुका है)

30 अपने स्वामी की बात सुनकर, देवताओं के शत्रु तथा अपने कामकाज में अकुशल, ईर्ष्यालु असुरों ने कंस को यह सलाह दी।

31 हे भोजराज, यदि ऐसी बात है, तो हम आज से उन सारे बालकों को जो पिछले दस या उससे कुछ अधिक दिनों में सारे गाँवों, नगरों तथा चारागाहों में उत्पन्न हूए हैं, मार डालेंगे।

32 सारे देवता आपकी धनुष की डोरी (प्रत्यंचा) की आवाज से सदैव भयभीत रहते हैं। वे सदैव चिन्तित रहते हैं और लड़ने से डरते हैं। अतः वे अपने प्रयत्नों से आपको किस प्रकार हानि पहुँचा सकते हैं?

33 आपके द्वारा चारों दिशाओं में छोड़े गए बाणों के समूहों से छिदकर कुछ सुरगण जो घायल हो चुके थे, किन्तु जिन्हें जीवित रहने की उत्कण्ठा थी युद्धभूमि छोड़कर अपनी जान लेकर (बचाकर) भाग निकले।

34 हार जाने पर तथा सारे हथियारों से विहीन होकर कुछ देवताओं ने लड़ना छोड़ दिया और हाथ जोड़कर आपकी प्रशंसा करने लगे और उनमें से कुछ अपने वस्त्र तथा केश खोले हूए आपके समक्ष कहने लगे, “हे प्रभु, हम आपसे अत्यधिक भयभीत हैं।"

35 जब देवतागण रथविहीन हो जाते हैं, जब वे अपने हथियारों का प्रयोग करना भूल जाते हैं, जब वे भयभीत रहते हैं या लड़ने के अलावा किसी दूसरे काम में लगे रहते हैं या जब अपने धनुषों के टूट जाने के कारण युद्ध करने की शक्ति खो चुके होते हैं, तो आप उनका वध नहीं करते।

36 देवतागण युद्धभूमि से दूर रहकर व्यर्थ ही डींग मारते हैं। वे वहीं अपने पराक्रम का प्रदर्शन कर सकते हैं, जहाँ युद्ध नहीं होता। अतएव ऐसे देवताओं से हमें किसी प्रकार का भय नहीं है। जहाँ तक भगवान विष्णु की बात है, वे तो केवल योगियों के हृदय में एकान्तवास करते हैं और भगवान शिव, वे तो जंगल चले गये हैं। ब्रह्मा सदैव तपस्या तथा ध्यान में लीन रहते हैं। इन्द्र इत्यादि अन्य सारे देवता पराक्रमविहीन हैं। अतः आपको कोई भय नहीं है।

37 फिर भी हमारा मत है कि उनकी शत्रुता के कारण देवताओं के साथ लापरवाही नहीं की जानी चाहिए। अतएव उनको समूल नष्ट करने के लिए आप हमें उनके साथ युद्ध में लगाइए क्योंकि हम आपका अनुगमन करने के लिए तैयार हैं।

38 जिस तरह शुरु में रोग की उपेक्षा करने से वह गम्भीर तथा दुःसाध्य हो जाता है या जिस तरह प्रारम्भ में नियंत्रित न करने से, बाद में इन्द्रियाँ वश में नहीं रहतीं उसी तरह यदि आरम्भ में शत्रु की उपेक्षा की जाती है तो बाद में वह दुर्जेय हो जाता है।

39 समस्त देवताओं के आधार भगवान विष्णु हैं जिनका वास वहीं होता है जहाँ धर्म, परम्परागत संस्कृति, वेद, गौवें, ब्राह्मण, तपस्या तथा दक्षिणायुत यज्ञ होते हैं।

40 हे राजन, हम आपके सच्चे अनुयायी हैं, अतः वैदिक ब्राह्मणों, यज्ञ तथा तपस्या में लगे व्यक्तियों तथा उन गायों का, जो अपने दूध से यज्ञ के लिए घी प्रदान करती हैं, वध कर डालेंगे।

41 ब्राह्मण, गौवें, वैदिक ज्ञान, तपस्या, सत्य, मन तथा इन्द्रियों का संयम, श्रद्धा, दया, सहिष्णुता तथा यज्ञ – ये भगवान विष्णु के शरीर के विविध अंग हैं और दैवी सभ्यता के ये ही साज-सामान हैं।

42 प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में वास करने वाले परमात्मा स्वरूप भगवान विष्णु असुरों के परम शत्रु हैं और इसीलिए वे असुरद्विट् कहलाते हैं। वे सारे देवताओं के अगुआ हैं क्योंकि भगवान शिव तथा भगवान ब्रह्मा समेत सारे देवता उन्हीं के संरक्षण में रह रहे हैं। बड़े-बड़े ऋषि, साधु तथा वैष्णव भी उन्हीं पर आश्रित रहते हैं। अतः वैष्णवों का उत्पीड़न करना ही विष्णु को मारने का एकमात्र उपाय है।

43 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार अपने बुरे मंत्रियों की सलाह पर विचार करके यमराज के नियमों से बँधा हुआ होने तथा असुर होने से बुद्धिहीन उस कंस ने सौभाग्य प्राप्त करने के उद्देश्य से साधु पुरुषों तथा ब्राह्मणों को सताने का निश्चय किया।

44 कंस के अनुयायी ये राक्षसगण अन्यों को, विशेष रूप से वैष्णवों को सताने में दक्ष थे और इच्छानुसार कोई भी रूप धर सकते थे। इन असुरों को सभी दिशाओं में जाकर साधु पुरुषों को सताने की अनुमति देकर कंस अपने महल के भीतर चला गया।

45 रजो तथा तमोगुण से पूरित तथा अपने हित या अहित को न जानते हूए उन असुरों ने, जिनकी मृत्यु उनके सिर पर नाच रही थी, साधु पुरुषों को सताना प्रारम्भ कर दिया।

46 हे राजन, जब कोई व्यक्ति महापुरुषों को सताता है, तो उसकी दीर्घायु, सौन्दर्य, यश, धर्म, आशीर्वाद तथा उच्चलोकों को जाने के सारे वर विनष्ट हो जाते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय तीन -- कृष्ण जन्म (10.3)

1-5 तत्पश्चात भगवान के आविर्भाव की शुभ बेला में सारा ब्रह्माण्ड सतोगुण, सौन्दर्य तथा शान्ति से युक्त हो गया। रोहिणी नक्षत्र तथा अश्विनी जैसे तारे निकल आए। सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र एवं गृह अत्यन्त शान्त थे। सारी दिशाएँ अत्यन्त सुहावनी लगने लगीं और मनभावन नक्षत्र निरभ्र आकाश में टिमटिमाने लगे। नगरों, ग्रामों, खानों तथा चरागाहों से अलंकृत पृथ्वी सर्व-मंगलमय प्रतीत होने लगी। निर्मल जल से युक्त नदियाँ प्रवाहित होने लगीं और सरोवर तथा विशाल जलाशय कमलों तथा कुमुदिनियों से पूर्ण होकर अत्यधिक सुन्दर लगने लगे। फूलों-पत्तियों से पूर्ण एवं देखने में सुहावने लगने वाले वृक्षों और हरे पौधों में कोयलों जैसे पक्षी तथा भौरों के झुण्ड देवताओं के लिए मधुर ध्वनि में गुंजार करने लगे। निर्मल मन्द वायु बहने लगी जिसका स्पर्श सुखद था और जो फूलों की गन्ध से युक्त थी। जब कर्मकाण्ड में लगे ब्राह्मणों ने वैदिक नियमानुसार अग्नि प्रज्ज्वलित की तो अग्नि इस वायु से अविचलित रहती हुई स्थिर भाव से जलने लगी। इस तरह जब अजन्मा भगवान विष्णु प्रकट होने को हुए तो कंस जैसे असुरों तथा उसके अनुचरों द्वारा सताए गए साधुजनों तथा ब्राह्मणों को अपने हृदयों के भीतर शान्ति प्रतीत होने लगी और उसी समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बज उठीं।

6 किन्नर तथा गन्धर्व शुभ गीत गाने लगे, सिद्धों तथा चारणों ने शुभ पार्थनाएँ कीं तथा अप्सराओं के साथ विद्याधरियाँ प्रसन्नता से नाचने लगीं।

7-8 देवताओं तथा महान साधु पुरुषों ने प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा की और आकाश में बादल उमड़ आए तथा मन्द स्वर से गर्जन करने लगे मानो समुद्र की लहरों की ध्वनि हो। तब हर हृदय में स्थित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु रात्रि के गहन अंधकार में देवकी के हृदय से उसी तरह प्रकट हुए जिस तरह पूर्वी क्षितिज में पूर्ण चन्द्रमा उदय हुआ हो क्योंकि देवकी श्रीकृष्ण की ही कोटि की थीं।

9-10 तब वसुदेव ने उस नवजात शिशु को देखा जिनकी अद्भुत आँखें कमल जैसी थीं और जो अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म चार आयुध धारण किये थे। उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था और उनके गले में चमकीला कौस्तुभ मणि था। वह पीताम्बर धारण किए थे, उनका शरीर श्याम घने बादल की तरह, उनके बिखरे बाल बड़े-बड़े तथा उनका मुकुट और कुण्डल असाधारण तौर पर चमकते वैदूर्यमणि के थे। वे करधनी, बाजूबन्द, कंगन तथा अन्य आभूषणों से अलंकृत होने के कारण अत्यन्त अद्भुत लग रहे थे।

11 जब वसुदेव ने अपने विलक्षण पुत्र को देखा तो उनकी आँखें आश्चर्य से विस्फारित रह गई। उन्होंने परम हर्ष में, मन ही मन दस हजार गाएँ एकत्र कीं और उन्हें ब्राह्मणों में वितरित कर दिया मानो कोई दिव्य उत्सव हो।

12 हे भरतवंशी, महाराज परीक्षित, वसुदेव यह जान गए कि यह बालक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण है। इस निष्कर्ष पर पहुँचते ही वे निर्भय हो गए। हाथ जोड़े, मस्तक नवाये तथा एकाग्रचित्त होकर वे उस बालक की स्तुति करने लगे जो अपने सहज प्रभाव के द्वारा अपने जन्म-स्थान को जगमग कर रहा था।

13 श्री वसुदेव ने कहा: हे भगवान, आप इस भौतिक जगत से परे परम पुरुष हैं और आप परमात्मा हैं। आपके स्वरूप का अनुभव उस दिव्य ज्ञान द्वारा हो सकता है, जिससे आप भगवान के रूप में समझे जा सकते हैं। अब आपकी स्थिति मेरी समझ में भलीभाँति आ गई है।

14 हे भगवन, आप वही पुरुष हैं जिसने प्रारम्भ में अपनी बहिरंगा शक्ति से इस भौतिक जगत की सृष्टि की। तीन गुणों (सत्त्व, रजस तथा तमस) वाले इस जगत की सृष्टि के बाद ऐसा लगता है कि आपने उसके भीतर प्रवेश किया है यद्यपि यथार्थ तो यह है कि आपने प्रवेश नहीं किया।

15-17 सम्पूर्ण भौतिक शक्ति (महत तत्त्व) अविभाज्य है, किन्तु भौतिक गुणों के कारण यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश में विलग होती सी प्रतीत होती है। ये विलग हुई शक्तियाँ जीवभूत के कारण मिलकर विराट जगत को दृश्य बनाती है, किन्तु तथ्य तो यह है कि विराट जगत की सृष्टि के पहले से ही महत तत्त्व विद्यमान रहता है। अतः महत तत्त्व का वास्तव में सृष्टि में प्रवेश नहीं होता है। इसी तरह यद्यपि आप अपनी उपस्थिति के कारण हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हैं, किन्तु आप न तो हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हो पाते हैं न ही हमारे मन या वचनों द्वारा अनुभव किए जाते हैं। हम अपनी इन्द्रियों से कुछ ही वस्तुएँ देख पाते हैं, सारी वस्तुएँ नहीं। उदाहरणार्थ, हम अपनी आँखों का प्रयोग देखने के लिए कर सकते हैं, आस्वाद के लिए नहीं। फलस्वरूप आप इन्द्रियों के परे हैं। यद्यपि आप प्रकृति के तीनों गुणों से सम्बद्ध हैं, आप उनसे अप्रभावित रहते हैं। आप हर वस्तु के मूल कारण हैं, सर्वव्यापी अविभाज्य परमात्मा हैं। अतएव आपके लिए कुछ भी बाहरी या भीतरी नहीं है। आपने कभी भी देवकी के गर्भ में प्रवेश नहीं किया प्रत्युत आप पहले से वहाँ उपस्थित थे।

18 जो व्यक्ति प्रकृति के तीन गुणों से बने अपने दृश्य शरीर को आत्मा से स्वतंत्र मानता है, वह अस्तित्व के आधार से ही अनजान होता है और इसलिए वह मूढ़ है। जो विद्वान हैं, वे इस निर्णय को नहीं मानते क्योंकि विवेचना द्वारा यह समझा जा सकता है कि आत्मा से निराश्रित दृश्य शरीर तथा इन्द्रियाँ सारहीन हैं। यद्यपि इस निर्णय को अस्वीकार कर दिया गया है, किन्तु मूर्ख व्यक्ति इसे सत्य मानता है।

19 हे प्रभु, विद्वान वैदिक पण्डित कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व का सृजन, पालन एवं संहार आपके द्वारा होता है तथा आप प्रयास से मुक्त, प्रकृति के गुणों से अप्रभावित तथा अपनी दिव्य स्थिति में अपरिवर्तित रहते हैं। आप परब्रह्म हैं और आप में कोई विरोध नहीं है। प्रकृति के तीनों गुण – सतो, रजो तथा तमोगुण आपके नियंत्रण में हैं अतः सारी घटनाएँ स्वतः घटित होती हैं।

20 हे भगवन, आपका स्वरूप तीनों भौतिक गुणों से परे है फिर भी तीनों लोकों के पालन हेतु आप सतोगुणी विष्णु का श्वेत रंग धारण करते हैं, सृजन के समय जो रजोगुण से आवृत होता है आप लाल प्रतीत होते हैं और अन्त में अज्ञान से आवृत संहार के समय आप श्याम प्रतीत होते हैं।

21 हे परमेश्वर, हे समस्त सृष्टि के स्वामी, आप इस जगत की रक्षा करने की इच्छा से मेरे घर में प्रकट हुए हैं। मुझे विश्वास है कि आप क्षत्रियों का बाना धारण करने वाले राजनीतिज्ञों के नायकत्व में जो असुरों की सेनाएँ संसार भर में विचरण कर रही हैं उनका वध करेंगे। निर्दोष जनता की सुरक्षा के लिए आपके द्वारा इनका वध होना ही चाहिए।

22 हे परमेश्वर, हे देवताओं के स्वामी, यह भविष्यवाणी सुनकर कि आप हमारे घर में जन्म लेंगे और उसका वध करेंगे, इस असभ्य कंस ने आपके कई अग्रजों को मार डाला है। वह ज्योंही अपने सेनानायकों से सुनेगा कि आप प्रकट हुए हैं, वह आपको मारने के लिए हथियार समेत तुरन्त ही आ धमकेगा।

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात यह देखकर कि उनके पुत्र में भगवान के सारे लक्षण हैं, कंस से अत्यधिक भयभीत तथा असामान्य रूप से विस्मित देवकी भगवान से प्रार्थना करने लगीं।

24 श्रीमती देवकी ने कहा: हे भगवन, वेद अनेक हैं। उसमें से कुछ आपको शब्दों तथा मन द्वारा अव्यक्त बतलाते हैं फिर भी आप सम्पूर्ण विश्व के उद्गम हैं। आप ब्रह्म हैं, सभी वस्तुओं से बड़े और सूर्य के समान तेज से युक्त । आपका कोई भौतिक कारण नहीं, आप परिवर्तन तथा विचलन से मुक्त हैं और आपकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं है। इस तरह वेदों का कथन है कि आप ही सार हैं। अतः हे प्रभु, आप समस्त वैदिक कथनों के उद्गम हैं और आपको समझ लेने पर मनुष्य हर वस्तु धीरे-धीरे समझ जाता है। आप ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा से भिन्न हैं फिर भी आप उनसे भिन्न नहीं हैं। आपसे ही सब वस्तुएँ उद्भूत हैं। दरअसल आप ही समस्त कारणों के कारण हैं, आप समस्त दिव्य ज्ञान की ज्योति भगवान विष्णु हैं।

25 लाखों वर्षों बाद विश्व-संहार के समय जब सारी व्यक्त तथा अव्यक्त वस्तुएँ काल के वेग से नष्ट हो जाती हैं, तो पाँचों स्थूल तत्त्व सूक्ष्म स्वरूप ग्रहण करते हैं और व्यक्त वस्तुएँ अव्यक्त बन जाती हैं। उस समय आप ही रहते हैं और आप अनन्त शेषनाग कहलाते हैं।

26 हे भौतिक शक्ति के प्रारम्भकर्ता, यह अद्भुत सृष्टि शक्तिशाली काल के नियंत्रण में कार्य करती है, जो सेकण्ड, मिनट, घण्टा तथा वर्षों में विभाजित है। यह काल तत्त्व, जो लाखों वर्षों तक फैला हुआ है, भगवान विष्णु का ही अन्य रूप है। आप अपनी लीलाओं के लिए काल के नियंत्रक की भूमिका अदा करते हैं, किन्तु आप समस्त सौभाग्य के आगार हैं। मैं पूरी तरह आपकी शरणागत हूँ।

27 इस भौतिक जगत में कोई भी व्यक्ति जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग – इन चार नियमों से छूट नहीं पाया भले ही वह विविध लोकों में क्यों न भाग जाए। किन्तु हे प्रभु, अब चूँकि आप प्रकट हो चुके हैं अतः मृत्यु आपके भय से दूर भाग रही है और सारे जीव आपकी दया से आपके चरणकमलों की शरण प्राप्त करके पूर्ण मानसिक शान्ति की नींद सो रहे हैं।

28 हे प्रभु, आप अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले हैं अतएव आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप कंस के विकराल भय से हमें बचाइए और हमें संरक्षण प्रदान कीजिए। योगीजन ध्यान में आपके विष्णु रूप का अनुभव करते हैं। कृपया इस रूप को उनके लिए अदृश्य बना दीजिए जो केवल भौतिक आँखों से देख सकते हैं।

29 हे मधुसूदन, आपके प्रकट होने से मैं कंस के भय से अधिकाधिक अधीर हो रही हूँ। अतः कुछ ऐसा कीजिए कि वह पापी कंस यह न समझ पाए कि आपने मेरे गर्भ से जन्म लिया है।

30 हे प्रभु आप सर्वव्यापी भगवान हैं और आपका यह चतुर्भुज रूप, जिसमें आप शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किए हुए हैं, इस जगत के लिए अप्राकृत है। कृपया इस रूप को समेट लीजिए और सामान्य मानवी बालक बन जाइए जिससे मैं आपको कहीं छिपाने का प्रयास कर सकूँ ।

31 संहार के समय चर तथा अचर जीवों से युक्त सारी सृष्टियाँ आपके दिव्य शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और बिना कठिनाई के वहीं ठहरी रहती हैं। किन्तु अब वही दिव्य रूप मेरे गर्भ से जन्म ले चुका है। लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे और मैं हँसी की पात्र बन जाऊँगी।

32 श्रीभगवान ने उत्तर दिया: हे सती माता, आप अपने पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मनु कल्प में पृश्नि नाम से विख्यात थीं और वसुदेव सुतपा नामक अत्यन्त पवित्र प्रजापति थे।

33 जब भगवान ब्रह्मा ने तुम दोनों को सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया तो तुम दोनों ने पहले अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए कठोर तपस्या की।

34-35 हे माता-पिता, तुम लोगों ने विभिन्न ऋतुओं के अनुसार वर्षा, तूफान, कड़ी धूप तथा कड़ाके की ठंड, सभी प्रकार की असुविधाएँ सही थीं। तुमने शरीर के भीतर वायु रोकने के लिए प्राणायाम करके तथा केवल हवा और वृक्षों से गिरे सूखे पत्ते खाकर अपने मन से सारे मैल को साफ कर दिया था। इस तरह मेरे वर की इच्छा से तुम लोगों ने शान्त चित्त से मेरी पूजा की थी।

36 इस तरह तुम दोनों ने मेरी चेतना (कृष्णभावना) में कठिन तपस्या करते हुए बारह हजार दिव्य वर्ष बिता दिए।

37-38 हे निष्पाप, माता देवकी, उन बारह हजार दिव्य वर्षों के बीत जाने पर, जिनमें तुम अपने हृदय में परम श्रद्धा, भक्ति तथा तपस्यापूर्वक निरन्तर मेरा ध्यान करती रही, मैं तुम से अत्यन्त प्रसन्न हुआ था। चूँकि मैं वर देने वालों में सर्वश्रेष्ठ हूँ, अतः मैं इसी कृष्ण रूप में प्रकट हुआ कि तुम मनवांछित वर माँगो। तब तुमने मेरे सदृश पुत्र-प्राप्ति की इच्छा प्रकट की थी।

39 पति-पत्नी रूप में सन्तानहीन होने से आप लोग विषयी-जीवन के प्रति आकृष्ट हुए क्योंकि देवमाया के प्रभाव अर्थात दिव्य प्रेम से तुम लोग मुझे अपने पुत्र के रूप में प्राप्त करना चाह रहे थे इसलिए तुम लोगों ने इस जगत से कभी भी मुक्त होना नहीं चाहा।

40 जब तुम वर प्राप्त कर चुके और मैं अन्तर्धान हो गया तो तुम मुझ जैसा पुत्र प्राप्त करने के उद्देश्य से विषयभोग में लग गए और मैंने तुम्हारी इच्छा पूरी कर दी।

41 चूँकि मुझे सरलता तथा शील के दूसरे गुणों में तुम जैसा बढ़ा-चढ़ा अन्य कोई व्यक्ति नहीं मिला अतः मैं पृश्नि-गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ।

42 मैं अगले युग में तुम दोनों से, माता अदिति तथा पिता कश्यप से पुनः प्रकट हुआ। मैं उपेन्द्र नाम से विख्यात हुआ और बौना होने के कारण मैं वामन भी कहलाया।

43 हे परम सती माता, मैं वही व्यक्ति अब तीसरी बार तुम दोनों के पुत्र रूप में प्रकट हुआ हूँ। मेरे वचनों को सत्य मानें।

44 मैंने तुम लोगों को यह विष्णु-रूप मात्र अपने पूर्वजन्मों का स्मरण करने के लिए दिखलाया है। अन्यथा यदि मैं सामान्य बालक की तरह प्रकट होता तो तुम लोगों को विश्वास न हो पाता कि भगवान विष्णु सचमुच प्रकट हुए हैं।

45 तुम पति-पत्नी निरन्तर अपने पुत्र के रूप में मेरा चिन्तन करते हो, किन्तु तुम यह जानते रहते हो कि मैं भगवान हूँ। इस तरह निरन्तर स्नेहपूर्वक मेरा चिन्तन करते हुए तुम लोग सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करोगे अर्थात भगवदधाम वापस जाओगे।

46 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने माता-पिता को इस तरह उपदेश देने के बाद भगवान कृष्ण मौन रहे। तब उन्हीं के सामने अपनी अन्तरंगा शक्ति से उन्होंने अपने आप को एक छोटे शिशु के रूप में बदल लिया। (दूसरे शब्दों में, उन्होंने स्वयं को अपने आदि रूप में रूपान्तरित कर दिया – (कृष्णस्तु भगवान स्वयं)

47 तत्पश्चात भगवान की प्रेरणा से जब वसुदेव नवजात शिशु को सूतिकागृह से ले जाने वाले थे तो बिलकुल उसी क्षण भगवान की आध्यात्मिक शक्ति योगमाया ने महाराज नन्द की पत्नी की पुत्री के रूप में जन्म लिया।

48-49 योगमाया के प्रभाव से सारे द्वारपाल गहरी नींद में सो गए, उनकी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गई और घर के अन्य लोग भी गहरी नींद में सो गए। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकार स्वतः छिप जाता है उसी तरह वासुदेव के प्रकट होने पर लोहे की कीलों से जड़े तथा भीतर से लोहे की जंजीरों से जकड़े हुए बन्द दरवाजे स्वतः खुल गए। चूँकि आकाश में बादल मन्द गर्जना कर रहे थे और झड़ी लगाए हुए थे अतः भगवान के अंश अनन्त नाग दरवाजे से ही वसुदेव तथा दिव्य शिशु की रक्षा करने के लिए अपने फण फैलाकर वसुदेव के पीछे लग लिए।

50 इन्द्र द्वारा बरसायी गयी निरन्तर वर्षा के कारण यमुना नदी में पानी चढ़ आया था और उसमें भयानक भँवरों के साथ फेन उठ रहा था। किन्तु जिस तरह पूर्वकाल में हिन्द महासागर ने भगवान रामचन्द्र को सेतु बनाने की अनुमति देकर रास्ता प्रदान किया था उसी तरह यमुना नदी ने वसुदेव को रास्ता देकर उन्हें नदी पार करने दी।

51 जब वसुदेव नन्द महाराज के घर पहुँचे तो देखा कि सारे ग्वाले गहरी नींद में सोए हुए थे। उन्होंने अपने पुत्र को यशोदा के पलंग में रख दिया, उसकी पुत्री को, जो योगमाया की अंश थी, उठाया और अपने घर कंस के बन्दीगृह वापस लौट आए।

52 वसुदेव ने लड़की को देवकी के पलंग पर रख दिया और अपने पाँवों में बेड़ियाँ पहन लीं तथा पहले की तरह बन गए।

53 शिशु जनने की पीड़ा से थककर यशोदा नींद के वशीभूत हो गई और यह नहीं समझ पाईं कि उन्हें लड़का हुआ है या लड़की।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय दो देवताओं द्वारा गर्भस्थ कृष्ण की स्तुति 

1-2 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: मगधराज जरासन्ध के संरक्षण में शक्तिशाली कंस द्वारा यदुवंशी राजाओं को सताया जाने लगा। इसमें उसे प्रलम्ब, बक, चाणुर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशी, धेनुक, बाणासुर, नरकासुर तथा पृथ्वी के अनेक दूसरे असुर राजाओं का सहयोग प्राप्त था।

3 असुर राजाओं द्वारा सताये जाने पर यादवों ने अपना राज्य छोड़ दिया और कुरुओं, पञ्चालों, केकयों, शाल्वों, विदर्भों, निषधों, विदेहों तथा कोशलों के राज्य में प्रविष्ट हुए। किन्तु उनके कुछ सम्बन्धी कंस के इशारों पर चलने लगे और उसकी नौकरी करने लगे।

4-5 जब उग्रसेन का पुत्र कंस देवकी के छह पुत्रों का वध कर चुका तो देवकी के गर्भ में कृष्ण का स्वांश प्रविष्ट हुआ जिससे उसमें कभी सुख की तो कभी दुख की वृद्धि होती। यह स्वांश महान मुनियों द्वारा अनन्त नाम से जाना जाता है और कृष्ण के द्वितीय चतुर्व्युह से सम्बन्धित है।

6 कंस के आक्रमण से अपने निजी भक्त, यदुओं, की रक्षा करने के लिए विश्वात्मा भगवान ने योगमाया को इस प्रकार आदेश दिया।

7 भगवान ने योगमाया को आदेश दिया: हे समस्त जगत द्वारा पूज्या तथा समस्त जीवों को सौभाग्य प्रदान करने वाली शक्ति, तुम व्रज जाओ जहाँ अनेक ग्वाले तथा उनकी पत्नियाँ रहती हैं। उस सुन्दर प्रदेश में जहाँ अनेक गौवें निवास करती हैं, वसुदेव की पत्नी रोहिणी नन्द महाराज के घर में रह रही है। वसुदेव की अन्य पत्नियाँ भी कंस के भय से वहीं अज्ञातवास कर रही हैं। कृपा करके वहाँ जाओ।

8 देवकी के गर्भ में संकर्षण या शेष नाम का मेरा अंश है। तुम उसे बिना किसी कठिनाई के रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दो।

9 हे सर्व-कल्याणी योगमाया, तब मैं अपने छहों ऐश्वर्यों से युक्त होकर देवकी के पुत्र रूप में प्रकट होऊँगा और तुम महाराज नन्द की महारानी माता यशोदा की पुत्री के रूप में प्रकट होगी।

10 सामान्य लोग पशुओं की बलि करके विविध सामग्री से तुम्हारी भव्य पूजा करेंगे क्योंकि तुम हर एक की भौतिक इच्छाएँ पूरी करने में सर्वोपरि हो ।

11-12 भगवान कृष्ण ने मायादेवी को यह कहकर आशीर्वाद दिया: लोग तुम्हें पृथ्वी पर विभिन्न स्थानों में विभिन्न नामों से पुकारेंगे – यथा दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा तथा अम्बिका ।

13 देवकी के गर्भ से निकल कर रोहिणी के गर्भ में भेजे जाने के कारण रोहिणी का पुत्र संकर्षण भी कहलाएगा । वह गोकुल के सारे निवासियों को प्रसन्न रखने की क्षमता होने के कारण राम कहलाएगा और अपनी प्रचुर शारीरिक शक्ति के कारण बलभद्र कहलाएगा ।

14 भगवान से इस तरह आदेश पाकर योगमाया ने उसे तुरन्त स्वीकार कर लिया। उसने वैदिक मंत्र ॐ के साथ पुष्टि की कि उससे जो कहा गया है उसे वह करेगी। इसके बाद उसने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की परिक्रमा की और वह पृथ्वी पर स्थित नन्दगोकुल नामक स्थान के लिए चल पड़ी। वहाँ उसने वैसा ही किया जैसा उसे आदेश मिला था।

15 जब योगमाया द्वारा देवकी का बालक खींच करके रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया गया तो देवकी को लगा कि उसे गर्भपात हो गया। फलतः महल के सारे निवासी जोर-जोर से यह कहकर विलाप करने लगे, “हाय! देवकी का बच्चा जाता रहा।”

16 इस तरह समस्त जीवों के परमात्मा तथा अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वसुदेव के मन में अपने पूर्ण ऐश्वर्य के समेत प्रविष्ट हो गये।

17 वसुदेव अपने हृदय के भीतर भगवान के स्वरूप को धारण किये हुए भगवान के दिव्य प्रकाशमान तेज को वहन कर रहे थे जिसके कारण वे सूर्य के समान चमकीले बन गये। अतः उनकी ओर लौकिक दृष्टि द्वारा देखना या उन तक पहुँचना कठिन था, यहाँ तक कि वे कंस जैसे पराक्रमी व्यक्ति के लिए ही नहीं, अपितु सारे जीवों के लिए भी दुर्धर्ष थे।

18 तत्पश्चात परम तेजस्वी, सम्पूर्ण जगत के लिए सर्वमंगलमय समस्त ऐश्वर्यों से युक्त भगवान अपने स्वांशों समेत वसुदेव के मन से देवकी के मन में स्थानान्तरित कर दिये गये। इस तरह वसुदेव से दीक्षा प्राप्त करने से देवकी सबों की आदि चेतना, समस्त कारणों के कारण भगवान कृष्ण को अपने अन्तःकरण में धारण करने के कारण सुन्दर बन गई जिस तरह उदित चन्द्रमा को पाकर पूर्व दिशा सुन्दर बन जाती है।

19 तब देवकी ने समस्त कारणों के कारण, समग्र ब्रह्माण्ड के आधार भगवान को अपने भीतर रखा किन्तु कंस के घर के भीतर बन्दी होने से वे किसी पात्र की दीवालों से ढकी हुई अग्नि की लपटों की तरह या उस व्यक्ति की तरह थीं जो अपने ज्ञान को जनसमुदाय के लाभ हेतु वितरित नहीं करता।

20 गर्भ में भगवान के होने से देवकी जिस स्थान में बन्दी थीं वहाँ के सारे वातावरण को वे आलोकित करने लगीं। उसे प्रसन्न, शुद्ध तथा हँसमुख देखकर कंस ने सोचा, “इसके भीतर स्थित भगवान विष्णु अब मेरा वध करेंगे। इसके पूर्व देवकी कभी भी इतनी तेजवान तथा प्रसन्न नहीं दिखी।"

21 कंस ने सोचा: अब मुझे क्या करना चाहिए? अपना लक्ष्य जानने वाले भगवान (परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम) अपना पराक्रम त्यागने वाले नहीं है। देवकी स्त्री है, वह मेरी बहन है और गर्भवती है। यदि मैं उसे मार डालूँ तो मेरे यश, ऐश्वर्य तथा आयु निश्चित रूप से नष्ट हो जाएँगे।

22 अत्यधिक क्रूर व्यक्ति को जीवित रहते हुए भी मृत माना जाता है क्योंकि उसके जीवित रहते हुए या उसकी मृत्यु के बाद भी हर कोई उसकी निन्दा करता है। देहात्मबुद्धिवाला व्यक्ति मृत्यु के बाद भी अंधतम नरक को भेजा जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह तर्क-वितर्क करते हुए कंस यद्यपि भगवान के प्रति शत्रुता बनाये रखने के लिए दृढ़ था किन्तु अपनी बहन का जघन्य वध करने से कतराता रहा। उसने भगवान के जन्म लेने तक प्रतीक्षा करने और तब जो आवश्यक हो, करने का निश्चय किया ।

24 सिंहासन पर अथवा अपने कमरे में बैठे, बिस्तर पर लेटे या कहीं भी रहते हुए, खाते, सोते या घूमते हुए कंस केवल अपने शत्रु भगवान हृषिकेश को ही देखता था। दूसरे शब्दों में – कंस प्रतिकूल भाव से, अपने सर्वव्यापक शत्रु का चिन्तन करते करते कृष्णभावनाभावित हो गया था।

25 ब्रह्माजी तथा शिवजी, नारद, देवल तथा व्यास जैसे महामुनियों एवं इन्द्र, चन्द्र तथा वरुण जैसे देवताओं के साथ अदृश्य रूप में देवकी के कक्ष में पहुँचे जहाँ सबों ने मिलकर वरदायक भगवान को प्रसन्न करने के लिए सादर स्तुतियाँ कीं ।

26 देवताओं ने प्रार्थना की; हे प्रभो, आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा ही पूर्ण रहता है क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता। सृष्टि, पालन तथा संहार – जगत की इन तीन अवस्थाओं में विद्यमान रहने से आप परम सत्य हैं। कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं बन सकता जब तक वह पूरी तरह आज्ञाकारी न हो अतः इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते। आप सृष्टि के सारे अवयवों में असली सत्य हैं इसीलिए आप अन्तर्यामी कहलाते हैं। आप सबों पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं। आप आदि सत्य हैं अतः हम नमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं। आप हमारी रक्षा करें।

27 शरीर को अलंकारिक रूप में "आदि वृक्ष" कहा जा सकता है। यह वृक्ष भौतिक प्रकृति की भूमि पर आश्रित होता है और उसमें दो प्रकार के – सुख भोग के तथा दुख भोग के – फल लगते हैं। इसकी जड़े तीन गुणों--सतो, रजो तथा तमो गुणों के साथ इस वृक्ष के कारणस्वरूप हैं। शारीरिक सुख रूपी फलों के स्वाद चार प्रकार के होते हैं – धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष जो पाँच ज्ञान इन्द्रियों द्वारा छह प्रकार की परिस्थितियों – शोक, मोह, जरा, मृत्यु, भूख तथा प्यास के माध्यम से अनुभव किए जाते हैं। इस वृक्ष की छाल में सात परतें होती हैं – त्वचा, रक्त, पेशी, वसा, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य। इस वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं जिनमें से पाँच स्थूल तत्त्व तथा तीन सूक्ष्म तत्त्व हैं – क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन, मन, बुद्धि तथा अहंकार। शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र (कोठर) हैं – आँखें, कान, नथुने, मुँह, गुदा तथा जननेन्द्रियाँ। इसमें दस पत्तियाँ हैं, जो शरीर से निकलने वाली दस वायु हैं। इस शरीररूपी वृक्ष में दो पक्षी हैं – एक आत्मा तथा दूसरा परमात्मा ।

28 हे प्रभु, आप ही कई रूपों में अभिव्यक्त इस भौतिक जगत रूपी मूल वृक्ष के प्रभावशाली कारणस्वरूप हैं। आप ही इस जगत के पालक भी हैं और संहार के बाद आप ही ऐसे हैं जिसमें सारी वस्तुएँ संरक्षण पाती हैं। जो लोग माया से आवृत हैं, वे इस जगत के पीछे आपका दर्शन नहीं कर पाते क्योंकि उनकी दृष्टि विद्वान भक्तों जैसी नहीं होती।

29 हे ईश्वर, आप सदैव ज्ञान से पूर्ण रहने वाले हैं और सारे जीवों का कल्याण करने के लिए आप विविध रूपों में अवतरित होते हैं, जो भौतिक सृष्टि के परे होते हैं। जब आप इन अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं, तो आप पुण्यात्माओं तथा धार्मिक भक्तों के लिए मोहक लगते हैं किन्तु अभक्तों के लिए आप संहारकर्ता हैं।

30 हे कमलनयन प्रभु, सम्पूर्ण सृष्टि के आगार रूप आपके चरणकमलों में अपना ध्यान एकाग्र करके तथा उन्हीं चरणकमलों को संसार-सागर को पार करने वाली नाव मानकर मनुष्य महाजनों (महान सन्तों, मुनियों तथा भक्तों) के चरणचिन्हों का अनुसरण करता है। इस सरल सी विधि से वह अज्ञान सागर को इतनी आसानी से पार कर लेता है मानो कोई बछड़े के खुर का चिन्ह पार कर रहा हो।

31 हे द्युतिपूर्ण प्रभु, आप अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए सदा तैयार रहते हैं इसीलिए आप वाँछा-कल्पतरु कहलाते हैं। जब आचार्यगण अज्ञान के भयावह भवसागर को तरने के लिए आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, तो वे अपने पीछे अपनी वह विधि छोड़े जाते हैं जिससे वे पार करते हैं। चूँकि आप अपने अन्य भक्तों पर अत्यन्त कृपालु रहते हैं अतएव उनकी सहायता करने के लिए आप इस विधि को स्वीकार करते हैं।

32 (कोई कह सकता है कि भगवान के चरणकमलों की शरण खोजने वाले भक्तों के अतिरिक्त भी ऐसे लोग हैं, जो भक्त नहीं हैं किन्तु जिन्होंने मुक्ति प्राप्त करने के लिए भिन्न विधियाँ अपना रखी हैं। तो उनका क्या होता है? इसके उत्तर में ब्रह्माजी तथा अन्य देवता कहते हैं) हे कमलनयन भगवान, भले ही कठिन तपस्याओं से परम पद प्राप्त करने वाले अभक्तगण अपने को मुक्त हुआ मान लें किन्तु उनकी बुद्धि अशुद्ध रहती है। वे कल्पित श्रेष्ठता के अपने पद से नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि उनके मन में आपके चरणकमलों के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहीं होता ।

33 हे माधव, पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, हे लक्ष्मीपति भगवान, यदि आपके प्रेमी भक्तगण कभी भक्तिमार्ग से च्युत होते हैं, तो वे अभक्तों की तरह नहीं गिरते क्योंकि आप तब भी उनकी रक्षा करते हैं। इस तरह वे निर्भय होकर अपने प्रतिद्वन्द्वियों के मस्तकों को झुका देते हैं और भक्ति में प्रगति करते रहते हैं।

34 हे परमेश्वर, पालन करते समय आप त्रिगुणातीत दिव्य शरीर वाले अनेक अवतारों को प्रकट करते हैं। जब आप इस तरह प्रकट होते हैं, तो जीवों को वैदिक कर्म-यथा अनुष्ठान, योग, तपस्या, समाधि तथा आपके चिन्तन में भावपूर्ण तल्लीनता--में युक्त होने की शिक्षा देकर उन्हें सौभाग्य प्रदान करते हैं। इस तरह आपकी पूजा वैदिक नियमों के अनुसार की जाती है।

35 हे कारणों के कारण ईश्वर, यदि आपका दिव्य शरीर गुणातीत न होता तो मनुष्य पदार्थ तथा अध्यात्म के अन्तर को न समझ पाता। आपकी उपस्थिति से ही आपके दिव्य स्वभाव को जाना जा सकता है क्योंकि आप प्रकृति के नियन्ता हैं। आपके दिव्य स्वरूप की उपस्थिति से प्रभावित हुए बिना आपके दिव्य स्वभाव को समझना कठिन है।

36 हे परमेश्वर, आपके दिव्य नाम तथा स्वरूप का उन व्यक्तियों को पता नहीं लग पाता, जो केवल कल्पना के मार्ग पर चिन्तन करते हैं। आपके नाम, रूप तथा गुणों का केवल भक्ति द्वारा ही पता लगाया जा सकता है।

37 विविध कार्यों में लगे रहने पर भी जिन भक्तों के मन आपके चरणकमलों में पूरी तरह लीन रहते हैं और जो निरन्तर आपके दिव्य नामों तथा रूपों का श्रवण, कीर्तन, चिन्तन करते हैं तथा अन्यों को स्मरण कराते हैं, वे सदैव दिव्य पद पर स्थित रहते हैं और इस प्रकार से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को समझ सकते हैं।

38 हे प्रभु, हम भाग्यशाली हैं कि आपके प्राकट्य से इस धरा पर असुरों के कारण जो भारी बोझ है, वह शीघ्र ही दूर हो जाता है। निस्सन्देह हम अत्यन्त भाग्यशाली हैं क्योंकि हम इस धरा में तथा स्वर्गलोक में भी आपके चरणकमलों को अलंकृत करने वाले शंख, चक्र, पद्म तथा गदा के चिन्हों को देख सकेंगे।

39 हे परमेश्वर आप कोई सामान्य जीव नहीं जो सकाम कर्मों के अधीन इस भौतिक जगत में उत्पन्न होता है। अतः इस जगत में आपका प्राकट्य या जन्म एकमात्र ह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। इसी तरह आपके अंश रूप सारे जीवों के कष्टों – यथा जन्म, मृत्यु तथा जरा का कोई दूसरा कारण नहीं सिवाय इसके कि ये सभी आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा संचालित होते हैं ।

40 हे परम नियन्ता, आप इसके पूर्व अपनी कृपा से सारे विश्व की रक्षा करने के लिए मत्स्य, अश्व, कच्छप, नृसिंहदेव, वराह, हंस, भगवान रामचन्द्र, परशुराम का तथा देवताओं में से वामन के रूप में अवतरित हुए हैं। अब आप इस संसार के उत्पातों को कम करके अपनी कृपा से पुनः हमारी रक्षा करें। हे यदुश्रेष्ठ कृष्ण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

41 हे माता देवकी, आपके तथा हमारे सौभाग्य से भगवान अपने सभी स्वांशों यथा बलदेव समेत आपके गर्भ में हैं। अतएव आपको उस कंस से भयभीत नहीं होना है, जिसने भगवान के हाथों से मारे जाने की ठान ली है। आपका शाश्वत पुत्र कृष्ण सारे यदुवंश का रक्षक होगा।

42 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की इस तरह स्तुति करने के बाद सारे देवता ब्रह्माजी तथा शिवजी को आगे करके अपने अपने स्वर्ग-आवासों को लौट गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय एक - भगवान श्रीकृष्ण का अवतार-परिचय (10.1)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु, आपने चन्द्रदेव तथा सूर्यदेव दोनों के वंशों का, उनके राजाओं के महान तथा अद्भुत चरित्रों सहित विशद वर्णन किया है।

2 हे मुनिश्रेष्ठ, आप परम पवित्र तथा धर्मशील यदुवंशियों का भी वर्णन कर चुके हैं। अब हो सके तो कृपा करके उन भगवान विष्णु या कृष्ण के अद्भुत महिमामय कार्यकलापों का वर्णन करें जो यदुवंश में अपने अंश बलदेव के साथ प्रकट हुए हैं।

3 परमात्मा अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण, जो विराट जगत के कारण हैं, यदुवंश में प्रकट हुए। आप कृपा करके मुझे उनके यशस्वी कार्यकलापों तथा उनके चरित्र का आदि से लेकर अन्त तक वर्णन करें।

4 भगवान की महिमा का वर्णन परम्परा-पद्धति से किया जाता है अर्थात यह आध्यात्मिक गुरु से शिष्य तक पहुँचाया जाता है। ऐसे वर्णन का आनन्द उन लोगों को मिलता है, जो इस जगत के मिथ्या, क्षणिक वर्णन में रुचि नहीं रखते। भगवान का गुणगान जन्म-मृत्यु के चक्कर में फँसे बद्धजीवों के लिए उपयुक्त औषधि है। अतएव कसाई (पशुघाती) या अपने को ही मारने वाले (आत्मघाती) के अतिरिक्त भगवान की महिमा को सुनना कौन नहीं चाहेगा?

5-7 कृष्ण के चरणकमल रूपी नाव को लेकर मेरे बाबा अर्जुन तथा अन्यों ने उस कुरुक्षेत्र युद्धस्थल रूपी सागर को पार कर लिया जिसमें भीष्मदेव जैसे सेनापति उन बड़ी-बड़ी मछलियों के तुल्य थे, जो उन्हें आसानी से निगल गई होतीं। मेरे पितामह ने भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से इस दुर्लंघ्य सागर को इतनी सरलता से पार कर लिया मानो कोई गोखुर का चिन्ह हो। चूँकि मेरी माता ने सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी अतः उन्होंने उनके गर्भ में प्रवेश करके मुझे बचा लिया जो कौरवों तथा पाण्डवों का अन्तिम बचा हुआ उत्तराधिकारी था और जिसे अश्वत्थामा ने अपने ब्रह्मास्त्र से नष्टप्राय कर दिया था। भगवान कृष्ण ने समस्त देहधारी जीवों के भीतर तथा बाहर शाश्वत काल के रूपों में – यथा परमात्मा तथा विराट रूपों में – अपनी शक्ति से प्रकट होकर हर एक को क्रूर मृत्यु के रूप में या जीवन के रूप में मोक्ष प्रदान दिया। कृपया उनके दिव्य गुणों का वर्णन करके मुझे प्रबुद्ध कीजिए।

8 हे श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप पहले ही बता चुके हैं कि द्वितीय चतुर्व्युह से सम्बन्धित संकर्षण रोहिणी के पुत्र बलराम के रूप में प्रकट हुए। यदि बलराम को एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित न किया गया होता तो यह कैसे सम्भव हो पाता कि वे पहले देवकी के गर्भ में रहते और बाद में रोहिणी के गर्भ में? कृपया मुझसे इसकी व्याख्या कीजिए।

9 भगवान कृष्ण ने अपने पिता वसुदेव का घर क्यों छोड़ा और अपने को वृन्दावन में नन्द के घर क्यों स्थानान्तरित किया? यदुवंश के स्वामी अपने सम्बन्धियों के साथ वृन्दावन में कहाँ रहे?

10 भगवान कृष्ण वृन्दावन तथा मथुरा दोनों जगह रहे तो वहाँ उन्होंने क्या किया? उन्होंने अपनी माता के भाई (मामा) कंस को क्यों मारा जबकि शास्त्र ऐसे वध की रंचमात्र भी अनुमति नहीं देते?

11 भगवान कृष्ण का शरीर भौतिक नहीं है फिर भी वे मानव के रूप में प्रकट होते हैं। वे वृष्णि के वंशजों के साथ कितने वर्षों तक रहे? उनकी कितनी पत्नियाँ थीं? वे द्वारका में कितने वर्षों तक रहे?

12 हे महामुनि, आप कृष्ण के विषय में सब कुछ जानते हैं अतएव उन सारे कार्यकलापों का वर्णन विस्तार से करें जिनके बारे में मैंने पूछा है तथा उनके बारे में भी जिनके विषय में मैंने नहीं पूछा क्योंकि उन पर मेरा पूर्ण विश्वास है और मैं उन सबको सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।

13 मृत्यु द्वार पर होते हुए अपने व्रत के कारण मैंने जल ग्रहण करना भी छोड़ दिया है फिर भी आपके कमलमुख से निकले कृष्ण-कथा रूपी अमृत का पान करने से मेरी असह्य भूख तथा प्यास मुझे किसी तरह भी बाधा नहीं पहुँचा रही।

14 सूत गोस्वामी ने कहा: हे भृगुपुत्र (शौनक ऋषि), परम आदरणीय व्यासपुत्र भक्त श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित के शुभ प्रश्नों को सुनकर राजा को सादर धन्यवाद दिया। फिर उन्होंने कृष्णकथा के विषय में वार्ता प्रारम्भ की जो इस कलियुग के समस्त कष्टों के लिए औषधि है।

15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजर्षियों में श्रेष्ठ, चूँकि आप वासुदेव की कथाओं के प्रति अत्यधिक आकृष्ट हैं अतः निश्चित रूप से आपकी बुद्धि आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिर है, जो मानवता का एकमात्र असली लक्ष्य है। चूँकि यह आकर्षण अनवरत रहता है अतएव निश्चित रूप से उत्कृष्ट है।

16 भगवान विष्णु के चरणों के अँगूठे से निकलने वाली गंगा तीनों लोकों – ऊपरी, मध्य तथा अधःलोकों – को पवित्र बनाने वाली है। इसी तरह जब कोई व्यक्ति भगवान वासुदेव कृष्ण की लीलाओं तथा गुणों के विषय में प्रश्न करता है, तो तीन प्रकार के व्यक्ति–वक्ता या उपदेशक, प्रश्नकर्ता तथा सुनने वाले मनुष्य–शुद्ध हो जाते हैं।

17 एक बार माता पृथ्वी राजाओं के वेश में गर्वित लाखों असुरों की सेना से बोझिल हो उठी तो वह इससे छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मा के पास पहुँची।

18 माता पृथ्वी ने गाय का रूप धारण किया। वह अत्यन्त दुखियारी, अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान ब्रह्मा के समक्ष प्रकट हुई और उनसे अपनी विपदा कही।

19 विपदा सुनकर ब्रह्माजी--माता पृथ्वी, शिवजी एवं अन्य समस्त देवताओं के साथ क्षीरसागर के तट पर जा पहुँचे।

20 क्षीर सागर के तट पर पहुँचकर सारे देवताओं ने समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी, समस्त देवताओं के परम ईश तथा हर एक का पालन करने वाले और उनके दुखों को दूर करने वाले भगवान विष्णु की पूजा की। उन्होंने बड़े ही मनोयोग से पुरुषसूक्त नामक वैदिक मंत्रों के पाठ द्वारा क्षीर सागर में शयन करने वाले भगवान विष्णु की पूजा की।

21 ब्रह्माजी जब समाधि में थे, भगवान विष्णु के शब्दों को आकाश में ध्वनित होते सुना। तब उन्होंने देवताओं से कहा, “अरे देवताओं! मुझसे परम पुरुष क्षीरोदकशायी विष्णु का आदेश सुनो और बिना देर लगाए उसे ध्यानपूर्वक पूरा करो।"

22 भगवान ब्रह्माजी ने देवताओं को बतलाया: हमारे द्वारा याचना करने के पूर्व ही भगवान पृथ्वी के संकट से अवगत हो चुके थे। फलतः जब तक भगवान अपनी काल शक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार कम करने के लिए पृथ्वी पर गतिशील रहें तब तक तुम सभी देवताओं को यदुओं के परिवार में उनके पुत्रों तथा पौत्रों के अंश के रूप में अवतीर्ण होना होगा।

23 सर्वशक्तिमान भगवान कृष्ण वसुदेव के पुत्र रूप में स्वयं प्रकट होंगे। अतः देवताओं की सारी स्त्रियों को भी उन्हें प्रसन्न करने के लिए प्रकट होना चाहिए।

24 कृष्ण का सबसे अग्रणी स्वरूप संकर्षण है, जो अनन्त कहलाता है। वह इस भौतिक जगत में सारे अवतारों का उद्गम है। भगवान कृष्ण के प्राकट्य के पूर्व यह आदि संकर्षण कृष्ण को उनकी दिव्य लीलाओं में प्रसन्न करने के लिए बलदेव के रूप में प्रकट होगा।

25 विष्णु माया कहलाने वाली भगवान की शक्ति जो भगवान के ही समान है, भगवान कृष्ण के साथ-साथ ही प्रकट होगी। यह शक्ति विभिन्न पदों पर कार्य करती हुई भौतिक तथा आध्यात्मिक सभी जगतों को मोहने वाली है। वह अपने स्वामी के आग्रह पर भगवान का कार्य सम्पन्न करने के लिए अपनी विविध शक्तियों सहित प्रकट होगी।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह देवताओं को सलाह देकर तथा माता पृथ्वी को आश्वस्त करते हुए अत्यन्त शक्तिशाली ब्रह्माजी, जो समस्त प्रजापतियों के स्वामी होने से प्रजापति-पति कहलाते हैं, अपने धाम ब्रह्मलोक लौट गये।

27 प्राचीन काल में यदुवंश का मुखिया शूरसेन मथुरा नामक नगरी में रहने के लिए गया। वहाँ उसने माथुर तथा शूरसेन नामक स्थानों का भोग किया।

28 उस समय से मथुरा नगरी सारे यदुवंशी राजाओं की राजधानी बनी रही। मथुरा नगरी तथा मथुरा जनपद कृष्ण से घनिष्ठतापूर्वक जुड़े हैं क्योंकि वहाँ कृष्ण का नित्य वास है।

29 कुछ समय पूर्व देववंश (या शूरवंश) के वसुदेव ने देवकी से विवाह किया। विवाह के बाद वह अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ घर लौटने के लिए अपने रथ पर आरूढ़ हुआ।

30 राजा उग्रसेन के पुत्र कंस ने अपनी बहन देवकी को उसके विवाह के अवसर पर प्रसन्न करने की दृष्टि से घोड़ों की लगामें अपने हाथ में थाम लीं और स्वयं रथचालक (सारथी) बन गया। वह सैकड़ों सुनहरे रथों से घिरा था।

31-32 देवकी का पिता राजा देवक अपनी पुत्री को अत्यधिक स्नेह करता था। अतएव जब देवकी तथा उसका पति घर से विदा होने लगे तो उसने दहेज में सोने के हारों से सुसज्जित चार सौ हाथी दिए। साथ ही दस हजार घोड़े, अठारह हजार रथ तथा दो सौ अत्यन्त सुन्दर तथा गहनों से अच्छी तरह अलंकृत युवा दासियाँ दीं।

33 हे प्रिय पुत्र महाराज परीक्षित, जब दूल्हा तथा दुल्हन विदा होने लगे तो उनकी शुभ विदाई पर शंख, तुरही, मृदंग तथा नगाढ़े एकसाथ बजने लगे।

34 जब कंस घोड़ों की लगाम थामे मार्ग पर रथ हाँक रहा था, तो किसी अशरीरी आवाज ने उसको सम्बोधित किया, “अरे मूर्ख दुष्ट! तुम जिस स्त्री को लिए जा रहे हो उसकी आठवीं सन्तान तुम्हारा वध करेगी।"

35 कंस भोजवंश का अधम व्यक्ति था क्योंकि वह ईर्ष्यालु तथा पापी था। इसलिए उसने जब यह आकाशवाणी सुनी तो उसने बाएँ हाथ से अपनी बहन के बाल पकड़ लिए और उसके सिर को धड़ से अलग करने के लिए दाहिने हाथ से अपनी तलवार निकाली।

36 कंस इतना क्रूर तथा ईर्ष्यालु था कि वह निर्लज्जतापूर्वक अपनी बहन को मारने के लिए तैयार था अतः उसे शान्त करने के लिए कृष्ण के होने वाले पिता महात्मा वसुदेव ने उससे निम्नलिखित शब्द कहे।

37 वसुदेव ने कहा: हे साले महाशय, तुम्हारे भोज परिवार को तुम पर गर्व है और बड़े-बड़े शूरवीर तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करते हैं। भला तुम्हारे जैसा योग्य व्यक्ति एक स्त्री को, जो उसी की बहन है, विशेष रूप से उसके विवाह के अवसर पर, मार कैसे सकता है?

38 हे शूरवीर, जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है, क्योंकि शरीर के ही साथ मृत्यु का उद्भव होता है। कोई चाहे आज मरे या सौ वर्षों बाद, किन्तु प्रत्येक जीव की मृत्यु निश्चित है।

39 जब यह शरीर मिट्टी बन जाता है और फिर से पाँच तत्त्वों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश—में परिणत हो जाता है, तो शरीर का स्वामी जीव स्वतः अपने सकाम कर्मों के अनुसार भौतिक तत्त्वों से बना दूसरा शरीर प्राप्त करता है। अगला शरीर प्राप्त होने पर वह वर्तमान शरीर को त्याग देता है।

40 जिस तरह रास्ते पर चलते हुए मनुष्य अपना एक पाँव जमीन पर टिकाता है और फिर दूसरे पाँव को उठाता है या जिस तरह वनस्पति का एक कीड़ा पहले एक पत्ती पर बैठता है और फिर इसे छोड़ कर दूसरी पत्ती पर जाता है उसी तरह जब बद्धजीव दूसरे शरीर का आश्रय ग्रहण करता है तब पिछले शरीर को त्याग देता है।

41 किसी परिस्थिति को देखकर या सुनकर ही मनुष्य उसके बारे में चिन्तन-मनन करता है और अपने इस शरीर का विचार न करते हुए उसके वशीभूत हो जाता है। इसी तरह मानसिक संतुलन द्वारा वह रात में भिन्न शरीरों तथा भिन्न परिस्थितियों में रहकर सपना देखता है और अपनी वास्तविक स्थिति को भूल जाता है। उसी प्रक्रिया के अन्तर्गत वह अपना वर्तमान शरीर त्यागकर दूसरा शरीर ग्रहण करता है (तथा देहांतरप्राप्ति:)

42 मृत्यु के समय मनुष्य सकाम कर्मों में निहित मन के सोचने, अनुभव करने और चाहने के अनुसार ही शरीर-विशेष प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में, मन के कार्यकलापों के अनुसार ही शरीर विकास करता है। शरीर के परिवर्तन मन की चंचलता के कारण हैं अन्यथा आत्मा तो मूल आध्यात्मिक शरीर में रह सकता है।

43 जब आकाश में स्थित नक्षत्र जैसे सूर्य, चन्द्रमा तथा तारे तेल या जल जैसे तरल पदार्थों में प्रतिबिम्बित होते हैं, तो वायु के वेग के कारण वे विभिन्न आकारों के लगते हैं कभी गोल, कभी लम्बे तो कभी और कुछ । इसी तरह जब जीवात्मा भौतिकतावादी विचारों में मग्न रहता है, तो वह अज्ञान के कारण विविध रूपों को अपनी पहचान के रूप में ग्रहण करता है। दूसरे शब्दों में, प्रकृति के भौतिक गुणों से विचलित होने के कारण वह मनोरथों के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है।

44 चूँकि ईर्ष्यालु एवं अपवित्र कार्य ऐसे शरीर का कारण बनते हैं जिससे अगले जीवन में कष्ट भोगना पड़ता है इसलिए मनुष्य अपवित्र कार्य करे ही क्यों? अपने कल्याण को ध्यान में रखते हुए मनुष्य को चाहिए कि वह किसी से ईर्ष्या न करे क्योंकि ईर्ष्यालु व्यक्ति को इस जीवन में या अगले जीवन में अपने शत्रुओं से सदा हानि का भय बना रहता है।

45 तुम्हारी छोटी बहन बेचारी देवकी तुम्हारी पुत्री के समान है और वह लाड़-प्यार से पाले जाने योग्य है। तुम दयालु हो, अतः तुम्हें इसका वध नहीं करना चाहिए। निस्सन्देह यह तुम्हारे स्नेह की पात्र है।

46 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुवंश में श्रेष्ठ! कंस अत्यन्त क्रूर था और वास्तव में राक्षसों का अनुयायी था। अतएव वसुदेव के सदुपदेशों से उसे न तो समझाया-बुझाया जा सकता था, न ही भयभीत किया जा सकता था। उसे इस जीवन में या अगले जीवन में पापकर्मों के फलों की कोई चिन्ता नहीं थी।

47 जब वसुदेव ने देखा कि कंस देवकी को मार डालने पर तुला हुआ है, तो उन्होंने गम्भीरतापूर्वक कंस को रोकने का दूसरा उपाय सोचा।

48 बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जब तक बुद्धि तथा शारीरिक पराक्रम रहे, तब तक मृत्यु से बचने का प्रयास करता रहे। हर देहधारी का यही कर्तव्य है। यदि उद्यम करने पर भी मृत्यु को टाला नहीं जा सके, तो मृत्यु को वरण करने वाला मनुष्य अपराधी नहीं है।

49-50 वसुदेव ने विचार किया: मैं मृत्यु रूपी कंस को अपने सारे पुत्र देकर देवकी के प्राण बचा सकता हूँ। हो सकता है कि कंस मेरे पुत्रों के जन्म के पूर्व ही मर जाए, या फिर जब उसे मेरे पुत्र के हाथों मरना लिखा है, तो मेरा कोई पुत्र उसे मारे ही। इस समय मुझे चाहिए कि मैं कंस को अपने सारे पुत्रों को सौंपने की प्रतिज्ञा कर लूँ जिससे कंस अपनी यह धमकी त्याग दे और यदि आगे चलकर कंस मर जाता है, तो फिर मुझे डरने की कोई बात नहीं रह जाती।

51 जब किसी अदृश्य कारण से आग लकड़ी के एक टुकड़े से लपक कर दूसरे खण्ड को जला देती है, तो इसका कारण प्रारब्ध है।

52 इसी तरह जब जीव एक प्रकार का शरीर स्वीकार करके दूसरे का परित्याग करता है, तो इसमें अदृश्य प्रारब्ध के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं होता। वसुदेव ने बुद्धिमतापूर्ण विचार कर, आदरपूर्वक --पापी कंस के समक्ष अपना प्रस्ताव रखा।

53 वसुदेव का मन चिन्ता से पूर्ण था क्योंकि उनकी पत्नी संकट में थी, किन्तु क्रूर, निर्लज्ज तथा पापी कंस को प्रसन्न करने के उद्देश्य से बनावटी हँसी लाते हुए वे इस प्रकार बोले।

54 वसुदेव ने कहा: हे भद्र-श्रेष्ठ, तुमने अदृश्यवाणी से जो भी सुना है उसके लिए तुम्हें अपनी बहन देवकी से तनिक भी डरने की कोई बात नहीं है। तुम्हारी मृत्यु का कारण उसके पुत्र होंगे अतः मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि जब उसके पुत्र उत्पन्न होंगे, जिनसे तुम्हें डर है, तो उन सबको लाकर मैं तुम्हें सौंप दिया करूँगा।

55 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: कंस वसुदेव के तर्कों से सहमत हो गया और वसुदेव के वचनों पर पूरा भरोसा करके उसने अपनी बहन को मारने का विचार छोड़ दिया। वसुदेव ने कंस से प्रसन्न होकर उसे और भी सांत्वना दी और अपने घर में प्रवेश किया।

56 तत्पश्चात प्रति-वर्ष समय आने पर ईश्वर तथा अन्य देवताओं की माता देवकी ने एक शिशु को जन्म दिया। इस तरह उनके आठ पुत्र तथा सुभद्रा नामक एक कन्या उत्पन्न हुई।

57 वसुदेव अत्यधिक विह्वल थे कि कहीं उनका वचन भंग हुआ तो वे झूठे साबित होंगे। इस तरह उन्होंने बड़ी ही वेदना के साथ अपने प्रथम पुत्र कीर्तिमान को कंस के हाथों में सौंप दिया।

58 वे साधु पुरुष जो सत्य पर अटल रहते हैं, उनके लिए क्या पीड़ादायक है? उन शुद्ध भक्तों के लिए जो भगवान को तत्त्व के रूप में जानते हैं, भला स्वतंत्रता क्यों नहीं होती? निम्नचरित्र वाले पुरुषों के लिए कौन से कार्य वर्जित हैं? जिन्होंने भगवान कृष्ण के चरणकमलों पर अपने को पूरी तरह समर्पित कर दिया है वे कृष्ण के लिए भला कौन सी वस्तु नहीं त्याग सकते?

59 हे राजा परीक्षित, जब कंस ने देखा कि वसुदेव सत्य में स्थिर रहते हुए अपनी सन्तान उसे सौंपने में समभाव बने रहे, तो वह अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने हँसते हुए यह कहा।

60 हे वसुदेव, तुम अपने बच्चे को वापस घर ले जा सकते हो। मैं तो तुम्हारी और देवकी की आठवीं सन्तान से चिन्तित हूँ, जिसके हाथों मेरी मृत्यु लिखी है।

61 वसुदेव मान गये और वे अपना पुत्र घर वापस ले आए, किन्तु कंस चरित्रहीन तथा आत्मसंयमविहीन व्यक्ति था अतएव वसुदेव जानते थे कि कंस के शब्दों का कोई भरोसा नहीं।

62-63 हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित, नन्द महाराज तथा उनके संगी ग्वाले तथा उनकी स्त्रियाँ स्वर्गलोक की ही वासी थीं। इसी तरह वसुदेव आदि वृष्णिवंशी तथा देवकी एवं यदुवंश की अन्य स्त्रियाँ भी स्वर्गलोक की वासी थीं। नन्द महाराज तथा वसुदेव के मित्र, सम्बन्धी, शुभचिन्तक तथा उपर से कंस के अनुयायी लगने वाले व्यक्ति सभी देवता ही थे।

64 एक बार नारद मुनि कंस के पास गये और उसे यह बताया कि पृथ्वी के अत्यन्त भारस्वरूप असुर व्यक्तियों का किस प्रकार वध किया जाने वाला है। इस तरह कंस अत्यधिक भय तथा संशय में पड़ गया।

65-66 नारद ऋषि के चले जाने पर कंस ने सोचा कि यदुवंश के सारे लोग देवता हैं और देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाली कोई भी सन्तान विष्णु हो सकती है। अतः अपनी मृत्यु के भय से कंस ने वसुदेव तथा देवकी को बन्दी बना लिया और उनके लोहे की जंजीरें डाल दीं। कंस ने इस भविष्यवाणी से सशंकित होकर कि विष्णु उसका वध करेंगे, हर सन्तान को इस आशंका से कि वह कहीं विष्णु न हो, एक एक करके मार डाला।

67 इस पृथ्वी पर इन्द्रियतृप्ति के लालची राजा प्रायः सदा अपने शत्रुओं का अंधाधुंध वध करते हैं। वे अपनी सनक की पूर्ति के लिए किसी का भी, यहाँ तक कि अपनी माता, पिता, भाइयों या मित्रों का भी वध कर सकते हैं।

68 पूर्वजन्म में कंस कालनेमि नामक महान असुर था और विष्णु द्वारा मारा गया था। नारद से यह जानकर कंस यदुवंश से सम्बन्धित हर किसी से द्वेष करने लगा।

69 कंस ने अपने पिता उग्रसेन को, जो यदु, भोज तथा अंधक वंशों का राजा था, बन्दी बना लिया। उसने वसुदेव के पिता शूरसेन के राज्य पर भी अधिकार जमा लिया और इन राज्यों का शासन स्वयं चलाने लगा।

(समर्पित एवं सेवारत–जगदीश चन्द्र चौहान)

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अध्याय चौबीस – भगवान श्रीकृष्ण (9.24)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने पिता द्वारा लाई गई उस लड़की के गर्भ से विदर्भ को तीन पुत्र प्राप्त हुए – कुश, क्रथ तथा रोमपाद। रोमपाद विदर्भ कुल का अत्यन्त प्रिय था।

2 रोमपाद का पुत्र बभ्रु हुआ जिससे कृति नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई। कृति का पुत्र उशिक हुआ और उशिक का पुत्र चेदि, चेदि से चैद्य तथा अन्य राजा (पुत्र) उत्पन्न हुए।

3-4 क्रथ का पुत्र कुन्ति, कुन्ति का पुत्र वृष्णि, वृष्णि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह, दशार्ह का व्योम, व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ तथा नवरथ का पुत्र दशरथ हुआ।

5 दशरथ का पुत्र शकुनि हुआ और शकुनि का पुत्र करम्भि था करम्भि का पुत्र देवरात हुआ जिसका पुत्र देवक्षत्र था। देवक्षत्र का पुत्र मधु था और उसका पुत्र कुरुवश था जिसके अनु नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।

6-8 अनु का पुत्र पुरुहोत्र हुआ जिसके पुत्र अयु का पुत्र सात्वत था। हे महान आर्य राजा, सात्वत के सात पुत्र थे – भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक तथा महाभोज। भजमान की एक पत्नी से निम्लोचि, किंकण तथा ध्रुष्टि नामक तीन पुत्र हुए और दूसरी पत्नी से शताजित, सहस्राजित तथा अयुताजित--ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए।

9 देवावृध का पुत्र बभ्रु था। देवावृध तथा बभ्रु से सम्बन्धित दो प्रसिद्ध प्रार्थनामय गीत हैं जिन्हें हमारे पूर्वज गाते रहे हैं और जिन्हें हमने दूर से सुना है। आज भी मैं वही गीत उनके गुणों के विषय में सुनता हूँ। (क्योंकि जो पहले सुना गया है, अभी भी लगातार गाया जाता है)

10-11 “यह तय हुआ कि मनुष्यों में बभ्रु सर्वश्रेष्ठ है और देवावृध देवता तुल्य है। बभ्रु तथा देवावृध की संगति से उनके सारे वंशज, जिनकी संख्या 14065 थी, मोक्ष के भागी हुए।" राजा महाभोज अत्यन्त धर्मात्मा था और उसके कुल में भोज राजा गण हुए हैं।

12 हे शत्रुओं के दमन करने वाले राजा परीक्षित, वृष्णि के पुत्र सुमित्र तथा युधाजित थे। युधाजित से शिनी तथा अनमित्र उत्पन्न हुए। अनमित्र के एक पुत्र था जिसका नाम निघ्न था।

13 निघ्न के दो पुत्र हुए—सत्राजित तथा प्रसेन। अनमित्र का दूसरा पुत्र एक अन्य शिनी था जिसका पुत्र सत्यक था।

14 सत्यक का पुत्र युयुधान था जिसका पुत्र जय हुआ। जय के एक पुत्र हुआ जिसका नाम कुणी था। कुणी का पुत्र युगन्धर था। अनमित्र का दूसरा पुत्र वृष्णि था।

15 वृष्णि से श्वफ़ल्क तथा चित्ररथ नाम के दो पुत्र हुए। श्वफ़ल्क की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर उत्पन्न हुआ। अक्रूर सबसे बड़ा था, किन्तु उसके अतिरिक्त बारह पुत्र और थे जो सभी विख्यात थे।

16-18 इन बारहों के नाम थे – आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुवित, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमाद तथा प्रतिबाहु। इन भाइयों की एक बहन थी जिसका नाम सुचारा था। अक्रूर के दो पुत्र हुए जिनके नाम देववन तथा उपदेव थे। चित्ररथ के पृथु, विदूरथ इत्यादि कई पुत्र थे। ये सभी वृष्णिवंशी कहलाये।

19 अन्धक के चार पुत्र हुए – कुकुर, भजमान, शुचि तथा कम्बलबर्हिष। कुकुर का पुत्र वह्री था और वह्री का पुत्र विलोमा हुआ।

20 विलोमा का पुत्र कपोतरोमा था जिसका पुत्र अनु हुआ और उसका मित्र तुम्बुरु था। अनु से अन्धक का जन्म हुआ, अन्धक से दुन्दुभि, दुन्दुभि से अविद्योत और अविद्योत से पुनर्वसु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

21-23 पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी थी। आहुक के दो पुत्र थे – देवक तथा उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए – देववान, उपदेव, सुदेव तथा देववर्धन। उसके सात कन्याएँ भी थीं जिनके नाम शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा, देवकी तथा धृतदेवा थे। इनमें धृतदेवा सबसे बड़ी थी। कृष्ण के पिता वसुदेव ने इन सबों के साथ विवाह किया।

24 उग्रसेन के पुत्रों के नाम थे – कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहु, राष्ट्रपाल, ध्रुष्टि तथा तुष्टिमान।

25 उग्रसेन की पुत्रियाँ कंसा, कंसावती, कंका, शूरभू तथा राष्ट्रपलिका थीं। वे वसुदेव के छोटे भाइयों की पत्नियाँ बनी।

26 चित्ररथ का पुत्र विदूरथ था, जिसका पुत्र शूर था और शूर का पुत्र भजमान था। भजमान का पुत्र शिनी हुआ, शिनी का पुत्र भोज था और भोज का पुत्र हृदिक था।

27 हृदिक के तीन पुत्र हुए –देवमीढ, शतधनु तथा कृतवर्मा। देवमीढ का पुत्र शूर था जिसकी पत्नी का नाम मारिषा था।

28-31 राजा शूर को अपनी पत्नी मारिषा से वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृञ्जय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक तथा वृक नामक दस पुत्र उत्पन्न हुए। ये विशुद्ध पवित्र पुरुष थे। जब वसुदेव का जन्म हुआ था तो देवताओं ने स्वर्ग से दुन्दुभियाँ बजाई थीं। इसीलिए वसुदेव का नाम आनकदुन्दुभि पड़ गया। इन्होंने भगवान कृष्ण के प्राकट्य के लिए समुचित स्थान प्रदान किया। शूर के पाँच कन्याएँ भी जन्मीं, जिनके नाम थे पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा तथा राजाधिदेवी। ये वसुदेव की बहनें थीं। शूर ने अपने मित्र कुन्ति को अपनी पुत्री पृथा दे दी क्योंकि उसके कोई सन्तान नहीं थी, इसलिए पृथा का दूसरा नाम कुन्ती था।

32 एक बार जब दुर्वासा पृथा के पिता कुन्ति के घर पर अतिथि बने तो पृथा ने अपनी सेवा से उन्हें प्रसन्न कर लिया। अतएव उसे ऐसी योगशक्ति प्राप्त हुई जिससे वह किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी। पवित्र कुन्ती ने इस योगशक्ति के प्रभाव की परीक्षा करने के लिए तुरन्त ही सूर्यदेव का आवाहन किया।

33 ज्योंही कुन्ती ने सूर्यदेव का आवाहन किया वे तुरन्त उसके समक्ष प्रकट हो गए। इस पर वह अत्यधिक चकित हो गई। उसने सूर्यदेव से कहा "मैं तो इस योगशक्ति के प्रभाव की परीक्षा ही कर रही थी। खेद है कि मैंने आपको व्यर्थ ही बुलाया है। कृपया वापस जाएँ और मुझे क्षमा कर दें।"

34 सूर्यदेव ने कहा: हे सुन्दरी पृथा, देवताओं से तुम्हारी भेंट व्यर्थ नहीं जा सकती। अतएव उपहार स्वरूप मैं तुम्हें एक पुत्र प्रदान करूँगा। मैं तुम्हारे कौमार्य को अक्षत रखने की व्यवस्था कर दूँगा क्योंकि तुम अब भी अविवाहिता लड़की हो।

35 यह कहकर सूर्यदेव स्वर्गलोक वापस चले गये। उसके तुरन्त बाद कुन्ती ने एक पुत्र को जन्म दिया जो दूसरे सूर्य की तरह था।

36 चूँकि कुन्ती लोगों की आलोचनाओं से भयभीत थी अतएव उसे बड़ी कठिनाई से पुत्र-स्नेह छोड़ना पड़ा। अनचाहे उसने बालक को एक मंजूषा (टोकरी) में बन्द करके नदी के जल में प्रवाहित कर दिया। हे महाराज परीक्षित, बाद में पवित्र तथा पराक्रमी तुम्हारे बाबा पाण्डु ने कुन्ती से विवाह कर लिया।

37 करुष के राजा वृद्धशर्मा ने कुन्ती की बहन श्रुतदेवा के साथ विवाह किया और उसके गर्भ में दन्तवक्र उत्पन्न हुआ। सनकादि मुनियों से शापित होने के कारण दन्तवक्र पूर्वजन्म में दिति के पुत्र हिरण्याक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ था।

38 केकयराज धृष्टकेतु ने कुन्ती की अन्य बहिन श्रुतकीर्ति के साथ विवाह किया। श्रुतकीर्ति के सन्तर्दन इत्यादि पाँच पुत्र उत्पन्न हुए।

39 कुन्ती की एक अन्य बहन राजाधिदेवी के गर्भ से जयसेन ने विन्द तथा अनुविन्द नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। इसी प्रकार चेदि राज्य के राजा दमघोष ने श्रुतश्रवा से विवाह किया।

40 श्रुतश्रवा का पुत्र शिशुपाल था जिसके जन्म का वर्णन पहले ही (श्रीमदभागवत के सातवें स्कन्ध में) किया जा चुका है। वसुदेव के भाई देवभाग की पत्नी कंसा ने दो पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम थे चित्रकेतु तथा बृहद्वल।

41 वसुदेव के भाई देवश्रवा ने कंसावती से विवाह किया जिसने सुविर तथा इषुमान दो पुत्रों को जन्म दिया। कंक को अपनी पत्नी कंका से तीन पुत्र प्राप्त हुए जिनके नाम थे बक, सत्यजित तथा पुरुजित।

42 राजा सृञ्जय के उसकी पत्नी राष्ट्रपलिका से वृष, दुर्मर्षण इत्यादि पुत्र हुए। राजा श्यामक के उसकी पत्नी शूरभूमि से दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम थे हरिकेश तथा हिरण्याक्ष।

43 तत्पश्चात राजा वत्सक की पत्नी मिश्रकेशी नाम की अप्सरा से वृक इत्यादि पुत्र उत्पन्न हुए। वृक की पत्नी दुर्वाक्षी ने तक्षक, पुष्कर, शाल इत्यादि पुत्रों को जन्म दिया।

44 समीक की पत्नी सुदामिनी ने अपने गर्भ से सुमित्र, अर्जुनपाल तथा अन्य पुत्रों को जन्म दिया। राजा आनक ने अपनी पत्नी कर्णिका के गर्भ से ऋतधामा तथा जय नामक दो पुत्र उत्पन्न किये।

45 देवकी, पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला इत्यादि आनक-दुन्दुभी (वसुदेव) की पत्नियाँ थी। इनमें देवकी प्रमुख थी।

46 वसुदेव ने अपनी पत्नी के गर्भ से बल, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव, कृत तथा अन्य पुत्रों को उत्पन्न किया।

47-48 पौरवी के गर्भ से बारह पुत्र हुए जिनमें भूत, सुभद्र, भद्रबाहु, दुर्मद तथा भद्र के नाम आते हैं। मदिरा के गर्भ से नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर इत्यादि पुत्र उत्पन्न हुए। कौशल्या (भद्रा) ने केवल एक पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम था केशी।

49 वसुदेव ने रोचना नामक पत्नी से हस्त, हेमांगद इत्यादि पुत्रों को उत्पन्न किया और इला नामक पत्नी से उरुवल्क इत्यादि पुत्रों को उत्पन्न किया जो यदुवंश के प्रधान पुरुष थे।

50 धृतदेवा पत्नी के गर्भ से आनकदुन्दुभी (वसुदेव) को विपृष्ठ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। वसुदेव की दूसरी पत्नी शान्तिदेवा के गर्भ से प्रशम, प्रसित इत्यादि पुत्रों ने जन्म लिया।

51 वसुदेव की उपदेवा नामक पत्नी थी जिससे राजन्य, कल्प, वर्ष इत्यादि दस पुत्र उत्पन्न हुए। अन्य पत्नी श्रीदेवा से वसु, हंस, सुवंश इत्यादि छह पुत्र जन्में ।

52 वसुदेव की पत्नी देवरक्षिता के गर्भ से नौ पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें गदा प्रमुख था। साक्षात धर्मस्वरूप वसुदेव की अन्य पत्नी सहदेवा के गर्भ से श्रुत, प्रवर इत्यादि आठ पुत्र हुए।

53-55 सहदेवा से उत्पन्न प्रवर और श्रुत इत्यादि आठों पुत्र स्वर्ग के आठों वसुओं के हूबहू अवतार थे। वसुदेव ने देवकी के गर्भ से भी आठ योग्य पुत्र उत्पन्न किये। इनमें कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, सम्मर्दन, भाद्र तथा शेषावतार संकर्षण सम्मिलित हैं। आठवें पुत्र साक्षात भगवान कृष्ण थे। परम सौभाग्यवती सुभद्रा एकमात्र कन्या तुम्हारी दादी थी।

56 जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब परम नियन्ता भगवान श्री हरि स्वेच्छा से प्रकट होते हैं।

57 हे महाराज परीक्षित, भगवान के प्राकट्य, तिरोधान या कर्मों का एकमात्र कारण उनकी निजी इच्छा है, कोई अन्य कारण नहीं है। परमात्मा रूप में वे सर्वज्ञ हैं फलस्वरूप ऐसा कोई कारण नहीं जो उन्हें प्रभावित करता हो, यहाँ तक कि सकाम कर्मों के फल भी नहीं।

58 भगवान अपनी माया के माध्यम से इस विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार का कार्य करते हैं जिससे वे अपनी दया से जीव का उद्धार कर सकें और जीव के जन्म, मृत्यु तथा भौतिक जीवन की अवधि को रोक सकें। इस तरह वे जीव को भगवदधाम लौटने में सक्षम बनाते है।

59 यद्यपि सरकार हथियाने वाले असुरगण सरकारी व्यक्तियों जैसा वेश बनाये रहते हैं, किन्तु उन्हें सरकार के कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता। फलस्वरूप ईश्वर की व्यवस्था से ऐसे बड़े-बड़े सैन्य शक्तिसम्पन्न असुर एक-दूसरे से लड़ते-भिड़ते हैं और इस तरह पृथ्वी की सतह से असुरों का भारी बोझ घटता है। ये असुर भगवान की इच्छा से अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाते हैं जिससे उनकी संख्या घट जाए और भक्तों को कृष्णभावनामृत में प्रगति करने का अवसर प्राप्त हो।

60 भगवान कृष्ण ने संकर्षण बलराम के सहयोग से ऐसे कार्यकलाप कर दिखलाये जो ब्रह्माजी तथा शिवजी जैसे देवताओं की भी समझ के परे हैं ( उदाहरणार्थ कृष्ण ने सारे संसार को राक्षसों से छुटकारा दिलाने के लिए असुरों का वध करने के लिए कुरुक्षेत्र युद्ध की आयोजना की )

61 भगवान ने इस कलियुग में भविष्य में जन्म लेने वाले भक्तों पर अहैतुकी कृपा दर्शाने के लिए इस तरह से कार्य किया कि मात्र उनका स्मरण करने से मनुष्य संसार के सारे शोक-संताप से मुक्त हो जायेगा। ( दूसरे शब्दों में, उन्होंने इस तरह कार्य किया, जिससे सारे भावी भक्तजन भगवदगीता में कथित कृष्णभावनामृत के उपदेशों को ग्रहण करके संसार के कष्टों से छुटकारा पा सकें )

62 शुद्ध हुए दिव्य कानों से भगवान के यश को ग्रहण करने मात्र से भक्तगण प्रबल भौतिक इच्छाओं एवं सकाम कर्मों की संलग्नता से तुरन्त ही मुक्त हो जाते हैं।

63-64 भगवान कृष्ण ने भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृञ्जय तथा पाण्डु के वंशजों की सहायता से विविध कार्यकलाप सम्पन्न किये। अपनी मोहक मुस्कान, अपने स्नेहिल आचरण, अपने उपदेशों और गोवर्धन पर्वत धारण करने जैसी अलौकिक लीलाओं के द्वारा भगवान ने अपने दिव्य शरीर में प्रकट होकर सारे मानव समाज को प्रमुदित किया।

65 कृष्ण का मुखमण्डल मकराकृति के कुण्डलों से सुसज्जित है। उनके कान सुन्दर हैं, उनके गाल चमकीले हैं और उनकी हँसी हर एक को आकृष्ट करने वाली है। जो भी कृष्ण का दर्शन करता है मानो उत्सव देख रहा हो। उनका मुख तथा शरीर देखने में हर एक को पूर्णतया तुष्ट करनेवाले हैं लेकिन भक्तगण स्रष्टा से क्रुद्ध हैं कि उन्होंने भक्तों की आँखों के झपकने से व्यवधान उत्पन्न कर दिया है।

66 भगवान कृष्ण लीला पुरुषोत्तम कहलाते हैं। वे वसुदेव के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, किन्तु तुरन्त ही अपने पिता का घर छोड़कर अपने विश्वासपात्र भक्तों के साथ प्रेम व्यवहार बढ़ाने के लिए वृन्दावन चले गये । वृन्दावन में उन्होंने अनेक असुरों का वध किया और फिर द्वारका लौट गये जहाँ उन्होंने वैदिक नियमों के अनुसार अनेक श्रेष्ठतम स्त्रियों के साथ विवाह किये उनसे सैकड़ों पुत्र उत्पन्न किये और गृहस्थ जीवन के सिद्धान्तों को स्थापित करने के लिए अपनी ही पूजा के लिए अनेक यज्ञ सम्पन्न किये ।

67 तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने संसार का भार कम करने के लिए पारिवारिक सदस्यों के बीच मनमुटाव उत्पन्न किया। उन्होंने अपनी चितवन मात्र से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में सारे आसुरी राजाओं का संहार कर दिया और अर्जुन को विजयी घोषित किया। अन्त में वे उद्धव को दिव्य जीवन तथा भक्ति के विषय में उपदेश देकर अपने आदि रूप में अपने धाम को वापस चले गये।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (नवम स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

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अध्याय तेईस – ययाति के पुत्रों की वंशावली (9.23)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ययाति के चौथे पुत्र अनु के तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे – सभानर, चक्षु तथा परेष्णु। हे राजन, सभानर के कालनर नाम का एक पुत्र हुआ और कालनर से सृञ्जय नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

2 सृञ्जय का पुत्र जनमेजय हुआ, जनमेजय का पुत्र महाशाल, महाशाल का पुत्र महामना और महामना के दो पुत्र उशीनर तथा तितिक्षु हुए।

3-4 उशीनर के चार पुत्र थे – शिवि, वर, कृमि तथा दक्ष। शिवि के भी चार पुत्र हुए – वृषादर्भ, सुधीर, मद्र तथा आत्मतत्त्वित केकय। तितिक्षु का पुत्र रुषद्रथ था, रुषद्रथ का पुत्र होम था, होम का सुतपा और सुतपा का पुत्र बलि था।

5 चक्रवती राजा बलि की पत्नी के गर्भ से दीर्घतमा मुनि ने छह पुत्र उत्पन्न किए जिनके नाम थे अंग, वाङ, कलिंग, सुह्य, पुण्ड्र तथा ओड्र।

6 बाद में अंगादि ये छहों पुत्र भारत के पूर्व दिशा में छह राज्यों के राजा बने। ये राज्य अपने-अपने राजा के नाम के अनुसार विख्यात हुए। अंग से खलपान नामक पुत्र हुआ जिससे दिविरथ उत्पन्न हुआ।

7-10 दिविरथ का पुत्र धर्मरथ हुआ और उसका पुत्र चित्ररथ था जो रोमपाद के नाम से विख्यात था। किन्तु रोमपाद के कोई सन्तान न थी अतएव उसके मित्र महाराज दशरथ ने उसे अपनी पुत्री शान्ता दे दी। रोमपाद ने उसे पुत्री रूप में स्वीकार किया। तत्पश्चात उस पुत्री ने ऋष्यशृंग से विवाह कर लिया। जब स्वर्गलोक के देवताओं ने वर्षा नहीं की तो ऋष्यशृंग को गणिकाओं के द्वारा आकर्षित करके जंगल से लाया गया और उसे एक यज्ञ सम्पन्न करने के लिए पुरोहित नियुक्त किया गया। ये गणिकाएँ नाचकर तथा संगीत के साथ नाटक करके और उनका आलिंगन तथा पूजन करके उन्हें ले आई थी। ऋष्यशृंग के आने के बाद वर्षा हुई। तत्पश्चात ऋष्यशृंग ने महाराज दशरथ के लिए पुत्र-यज्ञ किया क्योंकि उनका कोई पुत्र न था। इससे महाराज दशरथ को पुत्र-प्राप्ति हुई। ऋष्यशृंग की कृपा से रोमपाद के एक पुत्र चतुरंग हुआ और चतुरंग से पृथुलाक्ष का जन्म हुआ।

11 पृथुलाक्ष के पुत्र थे बृहद्रथ, बृहत्कर्मा तथा बृहदभानु। ज्येष्ठ पुत्र बृहद्रथ से बृहन्मना नाम का पुत्र हुआ और बृहन्मना से जयद्रथ हुआ।

12 जयद्रथ की पत्नी सम्भूति के गर्भ से विजय उत्पन्न हुआ, विजय से धृति, धृति से धृतिव्रत, धृतिव्रत से सत्कर्मा तथा सत्कर्मा से अधिरथ हुआ।

13 गंगा नदी के तट पर खेलते समय अधिरथ को एक टोकरी में बन्द एक शिशु प्राप्त हुआ। इस शिशु को कुन्ती ने छोड़ दिया था क्योंकि यह उसके विवाह होने के पूर्व उत्पन्न हुआ था। चूँकि अधिरथ के कोई पुत्र न था अतएव उसने इस शिशु को अपने पुत्र की तरह पाला पोसा। (बाद में यही पुत्र कर्ण कहलाया)

14 हे राजन कर्ण का एकमात्र पुत्र वृषसेन था। ययाति के तृतीय पुत्र द्रहयु का पुत्र बभ्रु था वभ्रु का पुत्र सेतु था।

15 सेतु का पुत्र आरब्ध था, आरब्ध का पुत्र गान्धार हुआ और गान्धार का पुत्र धर्म था। धर्म का पुत्र धृत, धृत का दुर्मद और दुर्मद का पुत्र प्रचेता था जिसके एक सौ पुत्र हुए।

16 प्रचेताओं (प्रचेता के पुत्रों) ने भारत की उत्तरी दिशा में कब्जा कर लिया जो वैदिक सभ्यता से विहीन थी और वे वहाँ के राजा बन गये। ययाति का दूसरा पुत्र तुर्वसु था। तुर्वसु का पुत्र वह्री था, वह्री का पुत्र भर्ग था और भर्ग का पुत्र भानुमान था।

17 भानुमान का पुत्र त्रिभानु था और उसका पुत्र उदारचेता करन्धम था। करन्धम का पुत्र मरुत था जिसके कोई पुत्र न था अतएव उसने पुरुवंशी पुत्र (महाराज दुष्मन्त) को पुत्र रूप में गोद ले लिया।

18-19 महाराज दुष्मन्त सिंहासन में बैठने की इच्छा से अपने मूलवंश (पुरुवंश) में लौट गये यद्यपि वे मरुत को अपना पिता स्वीकार कर चुके थे। हे महाराज परीक्षित, अब मैं महाराज ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ। यह वर्णन अत्यन्त पवित्र है और मानवसमाज के सारे पापों के फलों को दूर करने वाला है। इस वर्णन को सुनने मात्र से मनुष्य सारे पापों के फलों से मुक्त हो जाता है।

20-21 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण, जो सारे जीवों के हृदयों में परमात्मा स्वरूप हैं, मनुष्य के अपने आदि रूप में यदु कुल में अवतरित हुए। यदु के चार पुत्र थे – सहस्रजित, क्रोष्टा, नल तथा रिपु। इन चारों में से सबसे बड़े सहस्रजित के एक पुत्र था जिसका नाम शतजित था। उसके तीन पुत्र हुए – महाहय, रेणुहय तथा हैहय।

22 हैहय का पुत्र धर्म था और धर्म का पुत्र नेत्र था जो कुन्ति का पिता था कुन्ति से सोहञ्जि, सोहञ्जि से महिष्मान तथा महिष्मान से भद्रसेनक उत्पन्न हुए।

23 भद्रसेन के पुत्र दुर्मद तथा धनक कहलाये। धनक कृतवीर्य के अतिरिक्त कृताग्नि, कृतवर्मा तथा कृतीजा का भी पिता था।

24 कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह (कार्तवीर्यार्जुन) सातों द्वीप वाले सारे संसार का सम्राट बन गया। उसे भगवान के अवतार दत्तात्रेय से योगशक्ति प्राप्त हुई थी। इस तरह उसने अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं।

25 इस संसार का कोई भी राजा यज्ञ, दान, तपस्या, योगशक्ति, शिक्षा, बल या दया में कार्तवीर्यार्जुन की बराबरी नहीं कर सकता था।

26 कार्तवीर्यार्जुन ने लगातार पचासी हजार वर्षों तक पूर्ण शारीरिक बल तथा त्रुटिरहित स्मरण शक्ति से भौतिक ऐश्वर्यों का भोग किया। दूसरे शब्दों में, उसने अपनी छहों इन्द्रियों से अक्षय भौतिक ऐश्वर्यों का भोग किया।

27 कार्तवीर्यार्जुन के एक हजार पुत्रों में से परशुराम से युद्ध करने के बाद केवल पाँच पुत्र जीवित बचे। उनके नाम थे जयध्वज, शुरसेन, वृषभ, मधु तथा ऊर्जित।

28 जयध्वज के तालजंघ नाम का एक पुत्र था जिसके एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए। उस तालजंघ नामक वंश के सारे क्षत्रियों का विनाश महाराज सगर द्वारा किया गया जिन्हें और्व ऋषि से महान शक्ति प्राप्त हुई थी।

29 तालजंघ के पुत्रों में से वीतिहोत्र सबसे बड़ा था। वीतिहोत्र का पुत्र मधु था जिसका पुत्र वृष्णि विख्यात था। मधु के एक सौ पुत्र हुए जिनमें वृष्णि सबसे बड़ा था। यादव, माधव तथा वृष्णि नामक वंशों का उद्गम यदु, मधु, तथा वृष्णि से हुआ।

30-31 हे महाराज परीक्षित, चूँकि यदु, मधु तथा वृष्णि में से हर एक ने वंश चलाये अतएव उनके वंश यादव, माधव तथा वृष्णि कहलाते हैं। यदु के पुत्र कोष्टा के वृजीनवान नाम का एक पुत्र हुआ। वृजीनवान का पुत्र स्वाहित था, स्वाहित का विषदगु, विषदगु का चित्ररथ और चित्ररथ का पुत्र शशबिन्दु हुआ जो महान योगी था और चौदहों ऐश्वर्यों से युक्त था तथा वह चौदह महान रत्नों का स्वामी था। इस तरह वह संसार का सम्राट बना।

32 सुप्रसिद्ध शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं और उनमें से हर एक से एक लाख पुत्र उत्पन्न हुए। इसलिए उसके पुत्रों की संख्या एक अरब थी।

33 इन अनेक पुत्रों में से छह अग्रणी थे यथा पृथुश्रवा तथा पृथुकीर्ति। पृथुश्रवा का पुत्र धर्म कहलाया और उसका पुत्र उशना कहलाया। उशना ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये।

34 उशना का पुत्र रुचक था जिसके पाँच पुत्र थे – पुरुजित, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु तथा ज्यामघ। कृपया मुझसे इनके विषय में सुनें।

35-36 ज्यामघ के कोई पुत्र न था, चूँकि वह अपनी पत्नी शैब्या से डरता था अतएव उसने दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार ज्यामघ किसी शत्रु राजा के खेमे से एक लड़की ले आया जो एक गणिका थी। किन्तु उसे देखकर शैब्या अत्यन्त क्रुद्ध हुई और उसने अपने पति से कहा "क्यों रे धूर्त! यह लड़की कौन है जो रथ में मेरे आसान पर बैठी है?” तब ज्यामघ ने उत्तर दिया "यह लड़की तुम्हारी बहू (पुत्रवधू) होगी।" इन विनोदपूर्ण शब्दों को सुनकर शैब्या ने हँसते हुए उत्तर दिया।

37 शैब्या ने कहा, “मैं बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। भला यह लड़की मेरी बहू (पुत्रवधू) कैसे बन सकती है?” ज्यामघ ने उत्तर दिया, “मेरी रानी! मैं देखूँगा कि तुम्हारे पुत्र होगा और यह लड़की तुम्हारी बहू बनेगी।"

38 बहुत काल पूर्व ज्यामघ ने देवताओं तथा पितरों की पूजा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया था। अब उन्हीं की दया से ज्यामघ के शब्द सही उतरे। यद्यपि शैब्या बाँझ थी लेकिन देवताओं की कृपा से वह गर्भिणी हुई और समय आने पर उसने विदर्भ नामक शिशु को जन्म दिया। चूँकि शिशु के जन्म के पूर्व ही उस लड़की को बहू रूप में स्वीकार किया जा चुका था अतएव जब विदर्भ सयाना हुआ तो विदर्भ ने उसके साथ विवाह कर लिया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय बाईस – अजमीढ के वंशज (9.22)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन दिवोदास का पुत्र मित्रायु था और मित्रायु के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे च्यवन, सुदास, सहदेव तथा सोमक।

2 सोमक जन्तु का पिता था। सोमक के एक सौ पुत्र थे जिनमें सबसे छोटा पृषत था। पृषत से राजा द्रुपद उत्पन्न हुआ जो सभी प्रकार से ऐश्वर्यवान था।

3 महाराज द्रुपद से द्रौपदी उत्पन्न हुई। महाराज द्रुपद के कई पुत्र भी थे जिनमें धृष्टद्युम्न प्रमुख था। उसके पुत्र का नाम धृष्टकेतु था। ये सारे पुरुष भर्म्याश्व के वंशज या पाञ्चालवंशी कहलाते हैं।

4-5 अजमीढ का दूसरा पुत्र ऋक्ष नाम से विख्यात था। ऋक्ष से संवरण, संवरण के उसकी पत्नी सूर्यपुत्री तपती के गर्भ से कुरु हुआ जो कुरुक्षेत्र का राजा बना। कुरु के चार पुत्र थे – परीक्षि, सुधनु, जह्व तथा निषध। सुधनु से सुहोत्र, सुहोत्र से च्यवन और च्यवन से कृती उत्पन्न हुआ।

6 कृती का पुत्र उपरिचर वसु था और उसके पुत्रों में जिनमें बृहद्रथ प्रमुख था, कुशाम्ब, मत्स्य, प्रत्यग्र तथा चेदीप थे। उपरिचर वसु के सारे पुत्र चेदी राज्य के शासक बने।

7 बृहद्रथ से कुशाग्र उत्पन्न हुआ, कुशाग्र से ऋषभ, ऋषभ से सत्यहित, सत्यहित से पुष्पवान तथा पुष्पवान से जहु उत्पन्न हुआ।

8 बृहद्रथ की दूसरी पत्नी के गर्भ से दो आधे आधे खण्डों में एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब माता ने इन दो आधे आधे खण्डों को देखा तो उसने इन्हें फेंक दिया, किन्तु बाद में जरा नाम की एक राक्षसी ने खेल-खेल में उन्हें जोड़ते हुए कहा, “जीवित हो उठो, जीवित हो उठो।" इस तरह जरासन्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

9 जरासन्ध से सहदेव नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। फिर सहदेव से सोमापि और सोमापि से श्रुतश्रवा हुआ। कुरु के पुत्र परीक्षि के कोई पुत्र नहीं था, किन्तु कुरुपुत्र जह्व के एक पुत्र था जिसका नाम सुरथ था।

10 सुरथ के विदूरथ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ और विदूरथ से सार्वभौम हुआ। सार्वभौम से जयसेन, जयसेन से राधिक तथा राधिक से अयुतायु उत्पन्न हुआ।

11 अयुतायु का पुत्र अक्रोधन, अक्रोधन का देवातिथि, देवातिथि का ऋक्ष, ऋक्ष का दिलीप और दिलीप का पुत्र प्रतीप हुआ।

12-13 प्रतीप के तीन पुत्र थे – देवापि, शान्तनु तथा बाह्वीक। देवापि अपने पिता का राज्य त्याग कर जंगल चला गया अतएव शान्तनु राजा हुआ। शान्तनु अपने पूर्वजन्म में महाभिष नाम से विख्यात था। उसमें किसी को भी अपने हाथों के स्पर्श द्वारा बूढ़े से जवान में बदलने की शक्ति थी।

14-15 चूँकि यह राजा अपने हाथ के स्पर्श मात्र से ही सबको इन्द्रियतृप्ति के लिए सुखी बनाने में समर्थ था इसीलिए इसका नाम शान्तनु था। एक बार जब राज्य में बारह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई तो राजा ने विद्वान ब्राह्मणों से परामर्श किया। उन्होंने कहा, “तुम अपने बड़े भाई की सम्पत्ति भोगने के दोषी हो। तुम अपने राज्य तथा अपने घर की उन्नति के लिए यह राज्य उसे लौटा दो।"

16-17 जब ब्राह्मणों ने इस प्रकार कहा तो महाराज शान्तनु जंगल चला गया और उसने अपने बड़े भाई देवापि से प्रार्थना की कि वह राज्य का भार ग्रहण करे क्योंकि प्रजा का पालन करना राजा का धर्म है। किन्तु इसके पूर्व शान्तनु के मंत्री अश्वार ने कुछ ब्राह्मणों को फुसलाकर देवापि से वेदों के आदेशों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित किया था जिससे वह शासक पद के अयोग्य हो गया था। ब्राह्मणों ने देवापि को वैदिक सिद्धान्तों के मार्ग से विचलित कर दिया था अतएव जब शान्तनु ने शासक पद ग्रहण करने के लिए कहा तो उसने मना कर दिया। उल्टे, वह वैदिक सिद्धान्तों की निन्दा करने लगा अतएव पतित हो गया। ऐसी परिस्थिति में शान्तनु पुनः राजा बन गया और इन्द्र ने प्रसन्न होकर वर्षा की। बाद में देवापि ने अपने मन तथा इन्द्रियों का दमन करने के लिए योगमार्ग का अनुसरण किया और वह कलापग्राम नामक गाँव में चला गया जहाँ वह अब भी जीवित है।

18-19 इस कलियुग में सोमवंश के समाप्त होने पर और अगले सतयुग के प्रारम्भ में देवापि पुनः इस संसार में सोमवंश की स्थापना करेगा। (शान्तनु के भाई) बाह्वीक से सोमदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसके तीन पुत्र हुए – भूरि, भूरिश्रवा तथा शल। शान्तनु की दूसरी पत्नी गंगा के गर्भ से भीष्म उत्पन्न हुआ जो स्वरूपसिद्ध, सभी धार्मिक व्यक्तियों में श्रेष्ठ, महान भक्त एवं विद्वान था।

20 भीष्मदेव सारे योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ था। जब उसने भगवान परशुराम को युद्ध में हरा दिया तो परशुराम उससे अत्यन्त संतुष्ट हुए। शान्तनु और सत्यवती के संयोग से चित्रांगद ने जन्म लिया।

21-24 चित्रांगद जिसका छोटा भाई विचित्रवीर्य था, चित्रांगद नाम के ही गन्धर्व द्वारा मारा गया। सत्यवती ने शान्तनु से विवाह होने के पूर्व वेदों के ज्ञाता व्यासदेव को जन्म दिया था। ये कृष्ण द्वैपायन कहलाये और पराशर मुनि से उत्पन्न हुए थे। व्यासदेव से मैं (शुकदेव गोस्वामी) उत्पन्न हुआ और मैंने उनसे इस महान ग्रन्थ श्रीमदभागवत का अध्ययन किया। भगवान के अवतार वेदव्यास ने पैल इत्यादि अपने शिष्यों को छोड़कर मुझे श्रीमदभागवत पढ़ाया क्योंकि मैं सभी भौतिक कामनाओं से मुक्त था। जब काशीराज की दो कन्याओं, अम्बिका और अम्बालिका का बलपूर्वक अपहरण हो गया तो विचित्रवीर्य ने उनसे विवाह कर लिया, किन्तु इन दोनों पत्नियों से अत्यधिक आसक्त रहने के कारण उसे तपेदिक हो गया जिससे वह मर गया।

25 बादरायण, श्री व्यासदेव, ने अपनी माता सत्यवती के आदेशानुसार तीन पुत्र उत्पन्न किए – दो पुत्र अपने भाई विचित्रवीर्य की पत्नियों अम्बिका तथा अम्बालिका के गर्भ से और तीसरा विचित्रवीर्य की दासी से। तीनों पुत्रों के नाम थे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर।

26 हे राजन, धृतराष्ट्र की पत्नी गान्धारी ने एक सौ पुत्र तथा एक कन्या को जन्म दिया। सबसे बड़ा पुत्र दुर्योधन था और कन्या का नाम दु:शला था।

27-28 एक मुनि के द्वारा शापित होने से पाण्डु का विषयी जीवन बाधित हो गया अतएव उसकी पत्नी कुन्ती के गर्भ से तीन पुत्र युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन उत्पन्न हुए जो क्रमशः धर्मराज, वायुदेव तथा इन्द्रदेव के पुत्र थे। पाण्डु की दूसरी पत्नी माद्री ने नकुल तथा सहदेव को जन्म दिया जो दोनों अश्विनीकुमार द्वारा उत्पन्न थे। युधिष्ठिर इत्यादि पाँचों भाइयों ने द्रौपदी के गर्भ से पाँच पुत्र उत्पन्न किए। ये पाँचों पुत्र तुम्हारे चाचा थे।

29 युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीम से श्रुतसेन, अर्जुन से श्रुतकीर्ति तथा नकुल से शतानीक नामक पुत्र हुए।

30-31 हे राजा, सहदेव का पुत्र श्रुतकर्मा था। यही नहीं, युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों की अन्य पत्नियों से और भी पुत्र उत्पन्न हुए। युधिष्ठिर ने पैरवी के गर्भ से देवक को और भीमसेन ने अपनी पत्नी हिडिम्बा के गर्भ से घटोत्कच तथा अपनी अन्य पत्नी काली के गर्भ से सर्वगत नामक पुत्रों को जन्म दिया। इसी प्रकार सहदेव को उसकी पत्नी विजया से सुहोत्र नाम का पुत्र प्राप्त हुआ। विजया पर्वतों के राजा की पुत्री थी।

32 नकुल की पत्नी करेणुमती से नरमित्र नामक पुत्र हुआ। इसी प्रकार अर्जुन को नागकन्या उलुपी नामक अपनी पत्नी से इरावान नामक पुत्र तथा मणिपुर की राजकुमारी के गर्भ से बभ्रुवाहन नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। बभ्रुवाहन मणिपुर के राजा का दत्तक पुत्र बन गया।

33 हे राजा परीक्षित, तुम्हारे पिता अभिमन्यु अर्जुन के पुत्र रूप में सुभद्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए। वे सभी अतिरथों (जो एक हजार रथवानों से युद्ध कर सके) के विजेता थे। उनके द्वारा विराटराज की पुत्री उत्तरा के गर्भ से तुम उत्पन्न हुए।

34 जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कुरुवंश का विनाश हो गया तो तुम भी द्रोणाचार्य के पुत्र द्वारा छोड़े गए ब्रह्मास्त्र के द्वारा विनष्ट होने वाले थे, किन्तु भगवान कृष्ण की कृपा से तुम्हें मृत्यु से बचा लिया गया।

35 हे राजा, तुम्हारे चारों पुत्र–जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन तथा उग्रसेन अत्यन्त शक्तिशाली हैं। जनमेजय उनमें सबसे बड़ा है।

36 तक्षक सर्प द्वारा तुम्हारी मृत्यु हो जाने के कारण तुम्हारा पुत्र जनमेजय अत्यन्त क्रुद्ध होगा और संसार के सारे सर्पों को मारने के लिए यज्ञ करेगा।

37 सारे संसार को जीतने के बाद और कलष के पुत्र तुर को अपना पुरोहित बनाकर, जनमेजय अश्वमेध यज्ञ करेगा जिसके कारण वह तुरग-मेधषाट कहलायेगा।

38 जनमेजय का पुत्र शतानीक ऋषि याज्ञवल्क्य से तीनों वेद और कर्मकाण्ड सम्पन्न करने की कला को सीखेगा। वह कृपाचार्य से सैन्य कला भी सीखेगा तथा शौनक मुनि से दिव्य ज्ञान प्राप्त करेगा।

39 शतानीक का पुत्र सहस्रानीक होगा और उसके पुत्र का नाम अश्वमेधज होगा। अश्वमेधज से असीमकृष्ण उत्पन्न होगा और उसका पुत्र नेमिचक्र होगा।

40 जब हस्तिनापुर नगरी (नई दिल्ली) नदी की बाढ़ से जलमग्न हो जायेगी तो नेमिचक्र कौशाम्बी नामक स्थान में निवास करेगा। उसका पुत्र चित्ररथ होगा और चित्ररथ का पुत्र शुचिरथ होगा।

41 शुचिरथ का पुत्र वृष्टिमान होगा और उसका पुत्र सुषेण नाम का चक्रवर्ती सम्राट होगा। सुषेण का पुत्र सुनीत होगा, उसका पुत्र नृचक्षु होगा और नृचक्षु का पुत्र सुखीनल होगा।

42 सुखीनल का पुत्र परिप्लव, परिप्लव का सुनय और सुनय का पुत्र मेधावी होगा। मेधावी से नृपञ्जय, नृपञ्जय से दूर्व और दूर्व से तिमि का जन्म होगा।

43 तिमि का पुत्र बृहद्रथ, बृहद्रथ का सुदास, सुदास का शतानीक, शतानीक का दुर्दमन और दुर्दमन का पुत्र महीनर होगा।

44-45 महीनर का पुत्र दण्डपाणी होगा और उसका पुत्र निमि होगा जिससे राजा क्षेमक की उत्पत्ति होगी। मैंने अभी तुमसे सोमवंश का वर्णन किया है जो ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का उद्गम है और देवताओं तथा ऋषियों-मुनियों द्वारा पूजित है। इस कलियुग में क्षेमक अन्तिम राजा होगा। अब मैं तुमसे मागध वंश का भविष्य बतलाऊँगा।

46-48 जरासन्ध पुत्र सहदेव के पुत्र का नाम मार्जारि होगा। मार्जारि से श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवा से युतायु, युतायु से निरमित्र, निरमित्र से सुनक्षत्र, सुनक्षत्र से बृहत्सेन, बृहत्सेन से कर्मजित, कर्मजित से सुतञ्जय, सुतञ्जय से विप्र, विप्र से शुचि, शुचि से क्षेम, क्षेम से सुव्रत, सुव्रत से धर्मसूत्र, धर्मसूत्र से सम, सम से द्युमत्सेन, द्युमत्सेन से सुमति और सुमति से सुबल नाम का पुत्र उत्पन्न होगा।

49 सुबल से सुनीत, सुनीत से सत्यजित, सत्यजित से विश्वजित एवं विश्वजित से रिपुञ्जय उत्पन्न होगा। ये सभी पुरुष बृहद्रथवंशी होंगे और ये विश्व पर एक हजार वर्षों तक राज्य करेंगे।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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भरत का वंश (9-21)

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अध्याय इक्कीस – भरत का वंश (9.21)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: चूँकि मरुतगणों ने भरद्वाज को लाकर दिया था इसलिए वह वितथ कहलाया। वितथ के पुत्र का नाम मन्यु था जिसके पाँच पुत्र हुए – बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर, तथा गर्ग। इन पाँचों में से नर के पुत्र का नाम संकृति था।

2 हे महाराज परीक्षित, हे पाण्डु के वंशज, संकृति के दो पुत्र थे – गुरु तथा रन्तिदेव। रन्तिदेव इस लोक में तथा परलोक दोनों में ही विख्यात हैं क्योंकि उनकी महिमा का गान न केवल मानव समाज में अपितु देव समाज में भी होता है।

3-5 रन्तिदेव ने कभी कुछ भी कमाने का यत्न नहीं किया। उसे भाग्य से जो मिल जाता उसे ही भोगता, किन्तु जब अतिथि आ जाते तो वह हर वस्तु उन्हें दे देता था। इस तरह उसे तथा उसके साथ परिवार के सदस्यों को अति कष्ट सहना पड़ा। वह तथा उसके परिवार के लोग अन्न तथा जल के अभाव से गम्भीर रहते थे फिर भी रन्तिदेव धीर बना रहता। एक बार अड़तालीस दिनों तक उपवास करने के बाद रन्तिदेव को प्रातःकाल थोड़ा जल तथा घी और दूध से बने कुछ व्यंजन प्राप्त हुए, किन्तु जब वह तथा उसके परिवार वाले भोजन करने ही वाले थे तो एक ब्राह्मण अतिथि आ पहुँचा।

6 चूँकि रन्तिदेव को सर्वत्र एवं हर जीव में भगवान की उपस्थिति का आभास होता था अतएव वह बड़े ही श्रद्धा-सम्मान से अतिथि का स्वागत करता और उसे भोजन का एक अंश देता था। उस ब्राह्मण अतिथि ने अपना भाग खाया और फिर चला गया।

7 तत्पश्चात शेष भोजन को अपने परिवार वालों में बाँट देने के बाद रन्तिदेव अपना हिस्सा खाने जा ही रहे थे कि एक शूद्र अतिथि वहाँ आ गया। इस शूद्र को भगवान से सम्बन्धित देखकर राजा रन्तिदेव ने उसे भी भोजन में से एक अंश दिया।

8 जब शूद्र चला गया तो एक दूसरा मेहमान आया जिसके साथ कुत्ते थे। उसने कहा, “हे राजा, मैं तथा मेरे साथ के ये कुत्ते अत्यन्त भूखे हैं। कृपया हमें कुछ खाने को दें।

9 राजा रन्तिदेव ने अतिथि रूप में आये कुत्तों और कुत्तों के मालिक को अत्यन्त आदरपूर्वक बचा हुआ भोजन दे दिया। राजा ने उनका सभी प्रकार से आदर किया और नमस्कार किया।

10 तत्पश्चात केवल पीने का जल ही बच रहा था जो केवल एक व्यक्ति को संतुष्ट करने के लिए ही पर्याप्त था। किन्तु ज्योंही राजा जल पीने को हुआ कि एक चाण्डाल वहाँ आया और कहने लगा, “हे राजा, मैं निम्नकुल में उत्पन्न (नीच) हूँ। कृपा करके मुझे पीने के लिए थोड़ा जल दें।"

11 बेचारे थके चाण्डाल के दयनीय वचनों को सुनकर दुखित महाराज रन्तिदेव ने इस प्रकार के अमृततुल्य वचन कहे।

12 मैं ईश्वर से न तो योग की अष्ट-सिद्धियों के लिए प्रार्थना करता हूँ न जन्म-मृत्यु के चक्र से मोक्ष की कामना करता हूँ। मैं तो सारे जीवों के बीच निवास करके उनके लिए सारे कष्टों को भोगना चाहता हूँ जिससे वे कष्ट से मुक्त हो सकें।

13 जीवन के लिए संघर्ष करते हुए बेचारे चाण्डाल की जान बचाने के लिए अपना जल देकर मैं सारी भूख, प्यास, थकान, शरीर-कम्पन, खिन्नता, क्लेश, सन्ताप तथा मोह से मुक्त हो गया हूँ।

14 इस तरह कहकर प्यास के मारे मरते हुए राजा रन्तिदेव ने बिना किसी हिचक के अपने हिस्से का जल चाण्डाल को दे दिया क्योंकि राजा स्वभाव से अत्यन्त दयालु तथा गम्भीर था।

15 तत्पश्चात लोगों को इच्छित फल देकर उनकी सारी भौतिक इच्छाओं को पूरा करने वाले ब्रह्माजी तथा शिवजी जैसे देवताओं ने राजा रन्तिदेव के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट किया क्योंकि वे ही ब्राह्मण, शूद्र, चाण्डाल इत्यादि के रूप में उनके पास आये थे।

16 राजा रन्तिदेव को देवताओं से किसी प्रकार का भौतिक लाभ प्राप्त करने की कोई आकांक्षा न थी। उसने उन्हें प्रणाम किया, किन्तु भगवान विष्णु अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव में अनुरक्त होने के कारण उसने मन को भगवान विष्णु के चरणकमलों में स्थिर कर लिया।

17 हे महाराज परीक्षित, चूँकि राजा रन्तिदेव शुद्ध भक्त, सदैव कृष्णभावनाभावित तथा पूर्णरूपेण निष्काम था अतएव भगवान की माया उसके समक्ष प्रकट नहीं हो सकी। विपरीत इसके, माया स्वप्न के समान पूरी तरह नष्ट हो गई।

18 जिन लोगों ने राजा रन्तिदेव के सिद्धान्तों का पालन किया उन सबको उनकी कृपा प्राप्त हुई और वे भगवान नारायण के शुद्ध भक्त बन गये। इस तरह वे सभी श्रेष्ठ योगी बन गये।

19-20 गर्ग से शिनी नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका पुत्र गार्ग्य हुआ। यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, किन्तु उससे ब्राह्मण कुल की उत्पत्ति हुई। महावीर्य का पुत्र दुरितक्षय हुआ, जिसके तीन पुत्र थे – त्रय्यारुणि, कवि तथा पुष्करारुणि। यद्यपि दुरितक्षय के ये पुत्र क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु उन्हें भी ब्राह्मण पद प्राप्त हुआ। बृहत्क्षत्र का एक पुत्र हस्ती था जिसने हस्तिनापुर नामक नगर (आज की नई दिल्ली) की स्थापना की।

21 राजा हस्ती के तीन पुत्र हुए – अजमीढ, द्विमीढ तथा पुरुमीढ। अजमीढ के वंशजों में प्रियमेध प्रमुख था और उन सबों ने ब्राह्मण पद प्राप्त किया।

22 अजमीढ का पुत्र बृहदीषू था, बृहदीषू का पुत्र बृहध्दनु था, बृहध्दनु का पुत्र बृहत्काय था और बृहत्काय से जयद्रथ नामक पुत्र हुआ।

23 जयद्रथ का पुत्र विशद था और उसका पुत्र स्येनजीत था। स्येनजीत के पुत्रों के नाम थे रुचिराश्व, दृढहनु, काश्य तथा वत्स।

24 रुचिराश्व का पुत्र पार था और पार के पुत्र पृथुसेन तथा नीप थे। नीप के एक सौ पुत्र थे।

25 शुक की पुत्री अर्थात नीप की पत्नी कृत्वी के गर्भ से राजा नीप के ब्रह्मदत्त नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मदत्त महान योगी था। उसकी पत्नी सरस्वती के गर्भ से विष्वक्सेन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।

26 जैगीषव्य ऋषि के उपदेशानुसार विष्वक्सेन ने योगपद्धति का विस्तृत वर्णन संकलित किया। विष्वक्सेन से उदक्सेन उत्पन्न हुआ और उदक्सेन से भल्लाट । ये सभी पुत्र बृहदीषू के वंशज थे।

27 द्विमीढ का पुत्र यवीनर था और उसका पुत्र कृतिमान था। कृतिमान का पुत्र सत्यधृति के नाम से विख्यात था। सत्यधृति से दृढनेमि नाम का पुत्र हुआ जो सुपार्श्व का पिता बना।

28-29 सुपार्श्व से सुमति नाम का पुत्र, सुमति से सन्नतिमान तथा सन्नतिमान से कृति उत्पन्न हुआ जिसने ब्रह्मा से योगशक्ति प्राप्त की और सामवेद के प्राच्यसाम नामक श्लोकों की छह संहिताएँ कही। कृति का पुत्र नीप था, नीप का पुत्र उदग्रायुध हुआ, उदग्रायुध का पुत्र क्षेम्य हुआ, क्षेम्य से सुवीर नामक पुत्र हुआ तथा सुवीर का पुत्र रिपुञ्जय था।

30 रिपुञ्जय का पुत्र बहुरथ हुआ। पुरुमीढ निःसन्तान था। अजमीढ को अपनी पत्नी नलिनी से नील नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। नील का पुत्र शान्ति था।

31-33 शान्ति का पुत्र सुशान्ति था, सुशान्ति का पुत्र पुरुज हुआ, पुरुज का अर्क और अर्क का पुत्र भम्यार्श्व था। भम्यार्श्व के पाँच पुत्र हुए – मुद्गल, यवीनर, बृहद्विश्व, काम्पिल्ल तथा संजय। भम्यार्श्व ने अपने बेटों से कहा: मेरे बेटो, तुम लोग मेरे पाँचों राज्यों का भार सँभालों क्योंकि तुम ऐसा करने के लिए पर्याप्त सक्षम हो। इस तरह उसके पाँचों पुत्र पंचाल कहलाये। मुद्गल से ब्राह्मणों का गोत्र चला जो मौद्गल्य कहलाया।

34 भम्यार्श्व के पुत्र मुद्गल के जुड़वाँ सन्तान हुई जिसमें एक पुत्र था और एक कन्या। पुत्र का नाम दिवोदास रखा गया और कन्या का नाम अहल्या। गौतम मुनि की पत्नी अहल्या के गर्भ से शतानन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

35 शतानन्द का पुत्र सत्यधृति था जो धनुर्विद्या में अत्यन्त पटु था। सत्यधृति का पुत्र शरद्वान हुआ। जब शरद्वान की भेंट उर्वशी से हुई तो शर नामक घास के गुच्छे पर उसका वीर्यपात हो गया जिससे से दो शुभ शिशु उत्पन्न हुए जिनमें से एक लड़का था और दूसरा लड़की।

36 जब महाराज शान्तनु शिकार करने गये तो उन्होंने जंगल में जुड़वाँ शिशुओं को पड़ा देखा। वे दयावश उन्हें अपने घर ले आये। फलस्वरूप, बालक क्रुप नाम से विख्यात हुआ और बालिका का नाम कृपी पड़ा। बाद में कृपी द्रोणाचार्य की पत्नी बनी।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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