अध्याय दस - यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार (10.10)
1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: हे महान एवं शक्तिशाली सन्त, नारदमुनि द्वारा नलकूवर तथा मणिग्रीव को शाप दिये जाने का क्या कारण था? उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दनीय कार्य किया कि देवर्षि नारद तक उन पर क्रुद्ध हो उठे? कृपया मुझे कह सुनायें।
2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, चूँकि कुबेर के दोनों पुत्रों को भगवान शिवजी के पार्षद होने का गौरव प्राप्त था, फलतः वे अत्यधिक गर्वित हो उठे थे। उन्हें मन्दाकिनी नदी के तट पर कैलाश पर्वत से सटे हुए बाग में विचरण करने की अनुमति प्राप्त थी। इसका लाभ उठाकर वे दोनों वारुणी नाम की मदिरा पिया करते थे। वे अपने साथ गायन करती स्त्रियों को लेकर उस फूलों के बाग में घूमा करते थे। उनकी आँखें नशे से सदैव घूमती रहती थीं।
4 कमल के फूलों के उद्यानों से आवृत मन्दाकिनी गंगा के जल के भीतर ये कुबेर के दोनों पुत्र युवतियों के साथ क्रीड़ा करते थे।
5 हे महाराज परीक्षित, उन दोनों बालकों के सौभाग्य से एक बार देवर्षि नारद संयोगवश वहाँ प्रकट हो गये। उन्हें नशे में उन्मत्त तथा आँखें घुमाते हुए देखकर नारद उनकी दशा समझ गये।
6 नारद को देखकर देव-कुमारियाँ अत्यन्त लज्जित हुई। उन्होंने शापित होने के डर से अपने शरीर को वस्त्रों से ढक लिया। किन्तु कुबेर के दोनों पुत्रों ने ऐसा नहीं किया। उलटे, नारद की परवाह न करते हुए वे निर्वस्त्र ही रहे।
7 देवताओं के दोनों पुत्रों को ऐश्वर्य और झूठी प्रतिष्ठा गर्व के नशे में उन्मत्त देखकर देवर्षि नारद ने उनके कल्याण की इच्छा से शाप देकर अपनी अहैतुकी कृपा प्रदर्शित की ।
8 नारदमुनि ने कहा: भौतिक भोग के समस्त आकर्षणों – (धन, सुन्दर शारीरिक रूप, उच्च कुल में जन्म तथा विद्वत्ता ) – इन सब में से धन का आकर्षण, बुद्धि को अधिक भ्रमित करने वाला है। यदि कोई अशिक्षित व्यक्ति धन से गर्वित हो जाता है, तो वह अपना सारा धन शराब, स्त्रियों तथा जुआ खेलने के आनन्द में लगा देता है।
9 अपनी इन्द्रियों को वश में करने में असमर्थ धूर्त लोग, जिन्हें अपने धन पर मिथ्या गर्व रहता है या जो राजसी परिवार में जन्म लिये रहते हैं, इतने निष्ठुर होते हैं कि वे अपने नश्वर शरीरों को बनाये रखने के लिए, उन्हें अजर-अमर सोचते हुए, बेचारे पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध करते हैं। कभी कभी वे केवल अपनी मौज-मस्ती के लिए पशुओं को मार डालते हैं।
10 जीवित रहते हुए मनुष्य अपने को बड़ा आदमी, मंत्री, राष्ट्रपति या देवता सोचते हुए अपने शरीर पर गर्व कर सकता है किन्तु वह चाहे जो भी हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर कीट, मल या राख में परिणत हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर की क्षणिक इच्छाओं की तुष्टि के लिए निरीह पशुओं का वध करता है, तो वह यह नहीं जानता कि उसे अगले जीवन में कष्ट भोगना होगा क्योंकि ऐसे पापी को नरक जाना पड़ेगा और अपने कर्मफल भोगने पड़ेंगे।
11 जीवित रहते हुए यह शरीर उसके अन्नदाता का होता है, या स्वयं का, अथवा पिता, माता या नाना का? क्या यह बलपूर्वक ले जाने वाले का, इसे खरीदने वाले स्वामी का या उन पुत्रों का होता है, जो इसे अग्नि में जला देते हैं? और यदि शरीर जलाया नहीं जाता तो क्या यह उन कुत्तों का होता है, जो इसे खाते हैं? आखिर इतने सारे दावेदारों में असली दावेदार कौन है? इसका पता लगाने के बजाय, पापकर्मों द्वारा इस शरीर का पालन करना अच्छा नहीं है।
12 यह सर्वसामान्य गुण है कि शरीर अव्यक्त प्रकृति द्वारा उत्पन्न किया जाता है और नष्ट होकर पुनः प्राकृतिक तत्त्वों में विलीन हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में जो धूर्त होगा वही इस सम्पत्ति को अपनी होने का दावा करेगा और उसे बनाये रखते हुए अपनी इच्छाओं की तुष्टि के लिए पशुओं की हत्या जैसे पापकर्म करता रहता है। केवल मूढ़ ही ऐसे पापकर्म कर सकता है।
13 नास्तिक मूर्ख तथा धूर्त धन के मद के कारण वस्तुओं को यथारूप में नहीं देख पाते। अतएव उन्हें दरिद्र बनाना ही सर्वोत्तम काजल है, जिसे वे आँखों में लगाकर वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में देख सकते हैं और कुछ नहीं तो, जो दरिद्र है, वह इसका तो अनुभव कर ही सकता है कि दरिद्रता कितनी दुखद होती है। अतएव वह कभी नहीं चाहेगा कि अन्य लोग उसकी तरह दुखमय स्थिति में रहें।
14 जिसके शरीर में काँटे चुभ चुके हैं वह दूसरों के चेहरों को देखकर ही उनकी पीड़ा समझ सकता है कि उन्हें काँटे चुभ रहे हैं। वह यह अनुभव करते हुए कि यह पीड़ा सबों के लिए एक समान है, यह नहीं चाहता कि अन्य लोग इस तरह से कष्ट भोगें। किन्तु जिसे कभी काँटे गड़े ही नहीं वह इस पीड़ा को नहीं समझ सकता ।
15 दरिद्र व्यक्ति को स्वतः तपस्या करनी पड़ती है क्योंकि उसके पास अपना कहने के नाम पर कोई सम्पत्ति नहीं होती। इस तरह उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है। वह सदैव भोजन, आश्रय तथा वस्त्र की आवश्यकता अनुभव करता रहता है, अतः दैव-कृपा से जो भी उसे मिल जाता है उसी से उसे संतुष्ट रहना पड़ता है। अनिवार्यतः इस तरह की तपस्या करते रहना उसके लिए अच्छा है क्योंकि इससे उसकी शुद्धि हो जाती है और वह मिथ्या अहंकार से मुक्त हो जाता है।
16 दरिद्र व्यक्ति सदैव भूखा रहने और पर्याप्त भोजन की चाह करने के कारण धीरे धीरे क्षीण होता जाता है। अतिरिक्त बल न रहने से उसकी इन्द्रियाँ स्वतः शान्त पड़ जाती है। इसलिए दरिद्र मनुष्य हानिप्रद ईर्ष्यापूर्ण कार्य करने में अशक्त होता है। दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यक्ति को उन तपस्याओं का फल स्वतः प्राप्त हो जाता है, जिसे सन्त-पुरुष स्वेच्छा से करते हैं।
17 सन्त-पुरुष दरिद्रों के साथ बिना रोकटोक के घुलमिल सकते हैं किन्तु धनी व्यक्तियों के साथ नहीं। दरिद्र व्यक्ति ऐसे साधु पुरुषों की संगति से तुरन्त ही भौतिक इच्छाओं से विमुख हो जाता है और उसके मन का सारा मैल धूल जाता है।
18 सन्त-पुरुष (साधुजन) रात-दिन कृष्ण का चिन्तन करते रहते हैं। उनकी और कोई रुचि नहीं रहती। तो फिर लोग ऐसे आध्यात्मिक पुरुषों की संगति की उपेक्षा करके क्यों उन भौतिकतावादियों की संगति करने का प्रयास करते हैं तथा उन अभक्तों की शरण लेते हैं जिनमें से अधिकांश अभिमानी तथा धनी हैं?
19 इसलिए ये दोनों व्यक्ति वारुणी या माध्वी नामक शराब पीकर तथा अपनी इन्द्रियों को वश में न रख सकने के कारण स्वर्ग के ऐश्वर्य-गर्व से अन्धे और स्त्रियों के प्रति अनुरक्त हो चुके हैं। मैं उनको इस झूठी प्रतिष्ठा से विहीन कर दूँगा।
20-22 ये दोनों युवक, नलकूवर तथा मणिग्रीव, भाग्यवश महान देवता कुबेर के पुत्र हैं किन्तु मिथ्या प्रतिष्ठा तथा शराब पीने से उत्पन्न उन्मत्तता के कारण ये इतने पतित हो चुके हैं कि यह नहीं समझ पा रहे कि वे निर्वस्त्र हैं। अतः वृक्षों के तरह रहने वाले इन दोनों युवकों को वृक्षों का शरीर मिलना चाहिए। यही इनके लिए समुचित दण्ड होगा। फिर भी वृक्ष बनने से लेकर अपने उद्धार के समय तक इन्हें मेरी कृपा से अपने विगत पापकर्मों की याद बनी रहेगी। यही नहीं, मेरी विशेष कृपा से, देवताओं के सौ वर्ष बीतने के बाद ये भगवान वासुदेव का दर्शन पाकर, भक्तों के रूप में अपना असली स्वरूप प्राप्त कर सकेंगे।
23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह कहकर देवर्षि नारद अपने नारायण-आश्रम को लौट गये और नलकूवर तथा मणिग्रीव जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष (यमलार्जुन) बन गये।
24 सर्वोच्च भक्त नारद के वचनों को सत्य बनाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण धीरे धीरे उस स्थान पर गये जहाँ दोनों अर्जुन वृक्ष खड़े थे।
25 “यद्यपि ये दोनों युवक अत्यन्त धनी कुबेर के पुत्र हैं और उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु देवर्षि नारद मेरा अत्यन्त प्रिय तथा वत्सल भक्त है और क्योंकि उसने चाहा था कि मैं इनके समक्ष आऊँ अतएव इनकी मुक्ति के लिए मुझे ऐसा करना चाहिए।"
26 इस तरह कहकर कृष्ण तुरन्त ही दो अर्जुन वृक्षों के बीच प्रविष्ट हुए जिससे वह बड़ी ओखली जिससे वे बाँधे गये थे तिरछी हो गई और उनके बीच फँस गई।
27 अपने पेट से बँधी ओखली को बलपूर्वक अपने पीछे घसीटते हुए बालक कृष्ण ने दोनों वृक्षों को उखाड़ दिया। परम पुरुष की महान शक्ति से दोनों वृक्ष अपने तनों, पत्तों तथा टहनियों समेत बुरी तरह से हिले और तड़तड़ाते हुए भूमि पर गिर पड़े।
28 तत्पश्चात जिस स्थान पर दोनों अर्जुन वृक्ष गिरे थे वहीं पर दोनों वृक्षों से दो महान सिद्ध पुरुष, जो साक्षात अग्नि जैसे लग रहे थे, बाहर निकल आये। उनके सौन्दर्य का तेज चारों ओर प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने नतमस्तक होकर कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर निम्नलिखित शब्द कहे।
29 हे कृष्ण, हे कृष्ण, आपकी योगशक्ति अचिन्त्य है। आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आप समस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रहकर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं। विद्वान ब्राह्मण जानते हैं (सर्व खल्विदम ब्रह्म – इस वैदिक कथन के आधार पर) कि आप सर्वेसर्वा हैं और यह विराट विश्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।
30-31 आप हर वस्तु के नियन्ता भगवान हैं। आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार इन्द्रियाँ तथा काल हैं। आप परम पुरुष, अक्षय नियन्ता विष्णु हैं। आप तात्कालिक कारण और तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो) वाली भौतिक प्रकृति हैं। आप इस भौतिक जगत के आदि कारण हैं। आप परमात्मा हैं। अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं।
32 हे प्रभु, आप सृष्टि के पूर्व से विद्यमान हैं। अतः इस जगत में भौतिक गुणों वाले शरीर में बन्दी रहने वाला ऐसा कौन है, जो आपको समझ सके?
33 अपनी ही शक्ति से आच्छादित महिमा वाले हे प्रभु, आप भगवान हैं। आप सृष्टि के उद्गम, संकर्षण, हैं और चतुर्व्युह के उद्गम – वासुदेव, हैं। आप सर्वस्व होने से परब्रह्म हैं अतएव हम आपको नमस्कार करते हैं।
34-35 आप मत्स्य, कूर्म, वराह जैसे शरीरों में प्रकट होकर ऐसे प्राणियों द्वारा सम्पन्न न हो सकने वाले, असीम शक्ति वाले अतुलनीय दिव्य कार्य-प्रदर्शित करते है। अतएव आपके ये शरीर भौतिक तत्त्वों से नहीं बने होते अपितु आपके अवतार होते हैं। आप वही भगवान हैं, जो अब अपनी पूर्ण शक्ति के साथ इस जगत के सारे जीवों के लाभ के लिए प्रकट हुए हैं।
36 हे परम कल्याण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं क्योंकि आप परम शुभ हैं। हे यदुवंश के प्रसिद्ध वंशज तथा नियन्ता, हे वसुदेव-पुत्र, हे परम शान्त, हम आपके चरणकमलों में सादर नमस्कार करते हैं।
37 हे परम रूप, हम सदैव आपके दासों के, विशेष रूप से नारदमुनि के दास हैं। अब आप हमें अपने घर जाने की अनुमति दें। यह तो नारदमुनि की कृपा है कि हम आपका साक्षात दर्शन कर सके।
38 अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा का श्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इन्द्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यों में लगें तथा हमारे मन सदैव आपके चरणकमलों का चिन्तन करें। हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कार करें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप हैं और हमारी आँखें आपसे अभिन्न वैष्णवों के रूपों का दर्शन करें।
39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह दोनों देवताओं ने भगवान की स्तुति की। यद्यपि भगवान कृष्ण सबों के स्वामी हैं और गोकुलेश्वर थे किन्तु वे गोपियों की रस्सियों द्वारा लकड़ी की ओखली से बाँध दिये गये थे इसलिए उन्होंने हँसते हुए कुबेर के पुत्रों से ये शब्द कहे।
40 भगवान ने कहा: परम सन्त नारदमुनि अत्यन्त कृपालु हैं। उन्होंने अपने शाप से तुम दोनों पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है क्योंकि तुम दोनों भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त होकर अन्धे बन चुके थे। यद्यपि तुम दोनों स्वर्गलोक से गिरकर वृक्ष बने थे किन्तु उन्होंने तुम दोनों पर सर्वाधिक कृपा की। मैं प्रारम्भ से ही इन घटनाओं को जानता था।
41 जब कोई व्यक्ति सूर्य के समक्ष होता है, तो उसकी आँखों में अँधेरा नहीं रह जाता। इसी तरह जब कोई व्यक्ति ऐसे साधु या भक्त के समक्ष होता है, जो पूर्णतया दृढ़ तथा भगवान के शरणागत होता है, तो उसका भवबन्धन छूट जाता है।
42 हे नलकूवर तथा मणिग्रीव, अब तुम दोनों अपने घर वापस जा सकते हो। चूँकि तुम मेरी भक्ति में सदैव लीन रहना चाहते हो अतः मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न करने की तुम दोनों की इच्छा पूरी होगी और अब तुम उस पद से कभी भी नीचे नहीं गिरोगे।
43 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार कहे जाने पर, उन दोनों देवताओं ने लकड़ी की ओखली से बँधे भगवान की परिक्रमा की और उनको नमस्कार किया। भगवान कृष्ण से अनुमति लेने के बाद वे अपने अपने धामों को वापस चले गये।
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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