jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव 55

मत्-कर्म-कृत- मेरा कर्म करने में रत;मत्-परमः- मुझको परम मानते हुए;मत्-भक्तः- मेरी भक्ति में रत;सङग-वर्जितः- सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त;निर्वैरः- किसी से शत्रुरहित;सर्व-भूतेषु- समस्त जीवों में;यः- जो;माम्- मुझको;एति- प्राप्त करता है;पाण्डव- हे पाण्डु के पुत्र।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन-लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है।
तात्पर्य : जो कोई चिन्मय व्योम के कृष्णलोक में परम पुरुष को प्राप्त करके भगवान् कृष्ण से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है, उसे स्वयं भगवान् द्वारा बताये गये इस मन्त्र को ग्रहण करना होगा, अतः यह श्लोक भगवद्गीता का सार माना जाता है। भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो उन बद्धजीवों की ओ लक्षित है, जो इस भौतिक संसार में प्रकृति पर प्रभुत्व जताने में लगे हुए हैं और वास्तविक आध्यात्मिक जीवन के बारे में नहीं जानते हैं। भगवद्गीता का उद्देश्य यह दिखाना है कि मनुष्य किस प्रकार अपने आध्यात्मिक अस्तित्व को तथा भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को समझ सकता है तथा उसे यह शिक्षा देना है कि वह भगवद्धाम को कैसे पहुँच सकता है। यह श्लोक उस विधि को स्पष्ट रूप से बताता है, जिससे मनुष्य अपने आध्यात्मिक कार्य में अर्थात् भक्ति में सफलता प्राप्त कर सकता है। भक्तिरसामृत सिन्धु में (.२५५) कहा गया है -

अनासक्तस्य विषयान्यथार्हमुपयुञ्जतः ।

निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते ।

ऐसा कोई कार्य न करे जो कृष्ण से सम्बन्धित न हो। यह कृष्णकर्म कहलाता है। कोई भले ही कितने कर्म क्यों न करे, किन्तु उसे उनके फल के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए। यह फल तो कृष्ण को ही अर्पित किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यापार में व्यस्त है, तो उसे इस व्यापार को कृष्णभावनामृत में परिणत करने के लिए, कृष्ण को अर्पित करना चाहे, तो वह ऐसा कर सकता है। यही कृष्णकर्म है। अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए विशाल भवन न बनवाकर, वह कृष्ण के लिए सुन्दर मन्दिर बनवा सकता है, कृष्ण का अर्चाविग्रह स्थापित कर सकता है और भक्ति के प्रामाणिक ग्रंथों में वर्णित अर्चाविग्रह की सेवा का प्रबन्ध करा सकता है। यह सब कृष्णकर्म है। मनुष्य को अपने कर्मफल में लिप्त नहीं होना चाहिए, अपितु इसे कृष्ण को अर्पित करके बची हुई वस्तु को केवल प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए। यदि कोई कृष्ण के लिए विशाल भवन बनवा देता है और उसमें कृष्ण का अर्चाविग्रह स्थापित कराता है, तो उसमें उसे रहने की मनाही नहीं रहती, लेकिन कृष्ण को ही इस भवन का स्वामी मानना चाहिए। यही कृष्णभावनामृत है। किन्तु यदि कोई कृष्ण के लिए मन्दिर नहीं बनवा सकता तो वह कृष्ण-मन्दिर की सफाई में तो लग सकता है, यह भी कृष्णकर्म है। वह बगीचे की देखभाल कर सकता है। जिसके पास थोड़ी सी भी भूमि है - जैसा कि भारत के निर्धन से निर्धन व्यक्ति के पास भी होती है - तो वह उसका उपयोग कृष्ण के लिए फूल उगाने के लिए कर सकता है। वह तुलसी के वृक्ष उगा सकता है, क्योंकि तुलसीदल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं और भगवद्गीता में कृष्ण ने उनको आवश्यक बताया है। पत्रं पुष्पं फलं तोयम्। कृष्ण चाहते हैं कि लोग उन्हें पत्र, पुष्प, फल या थोड़ा जल भेंट करे और इस प्रकार की भेंट से वे प्रसन्न रहते हैं। यह पत्र विशेष रूप से तुलसीदल ही है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह तुलसी का पौधा लगाकर उसे सींचे। इस तरह गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने को कृष्णसेवा में लगा सकता है। ये कतिपय उदाहरण हैं, जिस तरह कृष्णकर्म में लगा जा सकता है। मत्परमः शब्द उस व्यक्ति के लिए आता है जो अपने जीवन का परमलक्ष्य, भगवान् कृष्ण के परमधाम में उनकी संगति करना मानता है। ऐसा व्यक्ति चन्द्र, सूर्य या स्वर्ग जैसे उच्चतर लोकों में अथवा इस ब्रह्माण्ड के उच्चतम स्थान ब्रह्मलोक तक में भी जाने का इच्छुक नहीं रहता। उसे इसकी तनिक भी इच्छा नहीं रहती। उसकी आसक्ति तो आध्यात्मिक आकाश में जाने में रहती हैं। आध्यात्मिक आकाश में भी वह ब्रह्मज्योति से तादात्म्य प्राप्त करके भी संतुष्ट नहीं रहता, क्योंकि वह तो सर्वोच्च आध्यात्मिक लोक में जाना चाहता है, जिसे कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन कहते हैं। उसे उस लोक का पूरा ज्ञान रहता है, अतः वह अन्य किसी लोक को नहीं चाहता। जैसा कि मद्भक्तः शब्द से सूचित होता है, वह भक्ति में पूर्णतया रत रहता है। विशेष रूप से वह श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन - भक्ति के इन नौ साधनों में लगा रहता है। मनुष्य चाहे तो इन नवों साधनों में रत रह सकता है अथवा आठ में, सात में, नहीं तो कम से कम एक में तो रत रह सकता है। तब वह निश्चित रूप से कृतार्थ हो जाएगा।

सङग-वर्जितः शब्द भी महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य को चाहिए कि ऐसे लोगों से सम्बन्ध तोड़ ले जो कृष्ण के विरोधी हैं। न केवल नास्तिक लोक कृष्ण के विरुद्ध रहते हैं, अपितु वे भी हैं, जो सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के प्रति आसक्त रहते हैं। अतः भक्तिरसामृत सिन्धु में (..११) शुद्धभक्ति का वर्णन इस प्रकार हुआ है -
अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यानावृतम् ।
आनुकूल्येन कृष्णानुशिलनं भक्तिरुत्तमा ।।
इस श्लोक में श्रील रूप गोस्वामी स्पष्ट कहते हैं कि यदि कोई अनन्य भक्ति करना चाहता है, तो उसे समस्त प्रकार के भौतिक कल्मष से मुक्त होना चाहिए। उसे ऐसे व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए जो सकामकर्म तथा मनोधर्म में आसक्त हैं। ऐसी अवांछित संगति तथा भौतिक इच्छाओं के कल्मष से मुक्त होने पर ही वह कृष्ण ज्ञान का अनुशीलन कर सकता है, जिसे शुद्ध भक्ति कहते हैं। आनुकूल्यस्य वर्जनम् (रि भक्ति विलास ११.६७)मनुष्य को चाहिए कि अनुकूल भाव से कृष्ण के विषय में सोचे और उन्हीं ले लिए कर्म करे, प्रतिकूल भाव से नहीं। कंस कृष्ण का शत्रु था। वह कृष्ण के जन्म से ही उन्हें मारने की तरह-तरह की योजनाएँ बनाता रहा। किन्तु असफल होने के कारण वह सदैव कृष्ण का चिन्तन करता रहा, किन्तु उसकी वह कृष्णभावना अनुकूल न थी, अतः चौबीस घंटे कृष्ण का चिन्तन करते रहने पर भी वह असुर ही माना जाता रहा और अन्त में कृष्ण द्वारा मार डाला गया। निस्सन्देह कृष्ण द्वारा वध किये गये व्यक्ति को तुरन्त मोक्ष मिल जाता है, किन्तु शुद्धभक्त का उद्देश्य यह नहीं है। शुद्धभक्त तो मोक्ष की भी कामना नहीं करता। वह सर्वोच्चलोक, गोलोक वृन्दावन भी नहीं जाना चाहता। उसका एकमात्र उद्देश्य कृष्ण की सेवा करना है, चाहे वह जहाँ भी रहे।

कृष्णभक्त प्रत्येक से मैत्रीभाव रखता है। इसीलिए यहाँ उसे निर्वैरः कहा गया है अर्थात् उसका कोई शत्रु नहीं होता। यह कैसे सम्भव है? कृष्णभावनामृत में स्थित भक्त जानता है कि कृष्ण की भक्ति ही मनुष्य जीवन की समस्त समस्याओं से छुटकारा दिला सकती है। से उसका व्यक्तिगत अनुभव रहता है। फलतः वह इस प्रणाली को -कृष्णभावनामृत को- मानव समाज में प्रचारित करना चाहता है। भगवद्भक्तों का इतिहास साक्षी है कि ईश्वर चेतना का प्रचार करने के लिए कई बार भक्तों को अपने जीवन को संकटों में डालना पड़ा। सबसे उपयुक्त उदाहरण जीसस क्राइस्ट का है। उन्हें अभक्तों ने शूली पर चढ़ा दिया, किन्तु उन्होंने अपना जीवन कृष्णभावनामृत के प्रसार में उत्सर्ग किया। निस्सन्देह यह कहना कि वे मारे गये ठीक नहीं है। इसी प्रकार भारत में भी अनेक उदाहरण हैं, यथा प्रहलाद महाराज तथा ठाकुर हरिदास। ऐसा संकट उन्होंने क्यों उठाया? क्योंकि वे कृष्णभावनामृत का प्रसार करना चाहते थे और यह कठिन कार्य है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जानता है कि मनुष्य कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को भूलने के कारण ही कष्ट भोग रहा है। अतः मानव समाज की सबसे बड़ी सेवा होगी कि अपने पड़ोसी को समस्त भौतिक समस्याओं से उबारा जाय। इस प्रकार शुद्धभक्त भगवान् की सेवा में लगा रहता है। तभी हम समझ सकते हैं कि कृष्ण उन लोगों पर कितने कृपालु हैं, जो उनकी सेवा में लगे रहकर उनके लिए सभी प्रकार के कष्ट सहते हैं। अतः यह निश्चित है कि ऐसे लोग इस शरीर छोड़ने के बाद परमधाम को प्राप्त होते हैं।

सारांश यह कि कृष्ण ने अपने क्षणभंगुर विश्वरूप के साथ-साथ काल रूप जो सब कुछ भक्षण करने वाला है और यहाँ तक कि चतुर्भुज विष्णुरूप को भी दिखलाया। इस तरह कृष्ण इन समस्त स्वरूपों के उद्गम हैं। ऐसा नहीं है कि वे आदि विश्वरूप या विष्णु की ही अभिव्यक्ति हैं। वे समस्त रूपों के उद्गम हैं। विष्णु तो हजारों लाखों हैं, लेकिन भक्त के लिए कृष्ण का कोई अन्य रूप उतना महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना कि मूल दोभुजी श्यामसुन्दर रूप। ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि जो प्रेम या भक्तिभाव से कृष्ण के श्यामसुन्दर रूप के प्रति आसक्त हैं, वे सदैव उन्हें अपने हृदय में देख सकते हैं, और कुछ भी नहीं देख सकते। अतः मनुष्य को समझ लेना चाहिए कि इस ग्यारहवें अध्याय का तात्पर्य यही है कि कृष्ण का रूप ही सर्वोपरि है एवं परम सार है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय ग्यारह विराट रूप

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।54

भक्त्या- भक्ति से;तु- लेकिन;अनन्यया- सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित;शक्यः- सम्भव;अहम्- मैं;एवम्-विधः- इस प्रकार;अर्जुन- हे अर्जुन;ज्ञातुम्- जानने;द्रष्टुम्- देखने;- तथा;तत्त्वेन- वास्तव में;प्रवेष्टुम्- प्रवेश करने;- भी;परन्तप- हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।

भावार्थ : हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है। केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो।

तात्पर्य : कृष्ण को केवल अनन्य भक्तियोग द्वारा समझा जा सकता है। इस श्लोक में वे इसे स्पष्टतया कहते हैं, जिससे ऐसे अनाधिकारी टीकाकार जो भगवद्गीता को केवल कल्पना के द्वारा समझाना चाहते हैं, वह जान सकें कि वे समय का अपव्यय कर रहे हैं। कोई यह नहीं जान सकता कि वे किस प्रकार चतुर्भुज रूप में माता के गर्भ से उत्पन्न हुए और फिर तुरन्त ही दो भुजाओं वाले रूप में बदल गये। ये बातें न तो वेदों के अध्ययन से समझी जा सकती है, न दार्शनिक चिन्तन द्वारा। अतः यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि न तो कोई उन्हें देख सकता है और न इन बातों का रहस्य ही समझ सकता है। किन्तु जो लोग वैदिक साहित्य के अनुभवी विद्यार्थी हैं वे अनेक प्रकार से वैदिक ग्रंथों के माध्यम से उन्हें जान सकते हैं। इसके लिए अनेक विधि-विधान हैं और यदि कोई सचमुच उन्हें जानना चाहता है तो उसे प्रामाणिक ग्रंथों में उल्लिखित विधियों का पालन करना चाहिए। वह इन नियमों के अनुसार तपस्या कर सकता है। उदाहरणार्थ, कठिन तपस्या के हेतु वह कृष्णजन्माष्टमी को, जो कृष्ण का आविर्भाव दिवस है, तथा मास की दोनों एकादशियों को उपवास कर सकता है। जहाँ तक दान का सम्बन्ध है, यह बात साफ़ है कि उन कृष्ण भक्तों को यह दान दिया जाय जो संसार भर में कृष्ण-दर्शन को या कृष्णभावनामृत को फैलाने में लगे हुए हैं। कृष्णभावनामृत मानवता के लिए वरदान है। रूप गोस्वामी ने भगवान् चैतन्य की प्रशंसा परम दानवीर के रूप में की है, क्योंकि उन्होंने कृष्ण प्रेम का मुक्तरीति से विस्तार किया, जिसे प्राप्त कर पाना बहुत कठिन है। अतः यदि कोई कृष्णभावनामृत का प्रचार करने वाले व्यक्तियों को अपना धन दान में देता है, तो कृष्णभावनामृत का प्रचार करने के लिए दिया गया यह दान संसार का सबसे बड़ा दान है। और यदि कोई मन्दिर में जाकर विधिपूर्वक पूजा करता है (भारत के मन्दिरों में सदा कोई न कोई मूर्ति, सामान्यतया विष्णु या कृष्ण की मूर्ति रहती है) तो यह भगवान् की पूजा करके तथा उन्हें सम्मान प्रदान करके उन्नति करने का अवसर होता है। नौसिखियों के लिए भगवान् की भक्ति करते हुए मन्दिर-पूजा अनिवार्य है, जिसकी पुष्टि श्वेताश्वर उपनिषद् में (.२३) हुई है -

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।

तस्यैते कथिता ह्यार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।

जिसमें भगवान् के लिए अविचल भक्तिभाव होता है और जिसका मार्गदर्शन गुरु करता है, जिसमें भी उसकी वैसी ही अविचल श्रद्धा होती है, वह भगवान् का दर्शन प्रकट रूप में कर सकता है। मानसिक चिन्तन (मनोधर्म) द्वारा कृष्ण को नहीं समझा जा सकता। जो व्यक्ति प्रामाणिक गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त नहीं करता, उसके लिए कृष्ण को समझने का शुभारम्भ कर पाना कठिन है। यहाँ पर तु शब्द का प्रयोग विशेष रूप से यह सूचित करने के लिए हुआ है कि अन्य विधि न तो बताई जा सकती है, न प्रयुक्त की जा सकती है, न ही कृष्ण को समझने में सफल हो सकती है।

कृष्ण को चतुर्भुज तथा द्विभुज साक्षात् रूप अर्जुन को दिखाए गये क्षणिक विश्वरूप से सर्वथा भिन्न हैं। नारायण का चतुर्भुज रूप तथा कृष्ण का द्विभुज रूप दोनों ही शाश्वत तथा दिव्य हैं, जबकि अर्जुन को दिखलाया गया विश्वरूप नश्वर है। सुदुर्दर्शम् शब्द का अर्थ ही है "देख पाने में कठिन", जिससे पता चलता है कि इस विश्वरूप को किसी ने नहीं देखा था। इससे यह भी पता चलता है कि भक्तों को इस रूप को दिखाने की आवश्यकता भी नहीं थी। इस रूप को कृष्ण ने अर्जुन कि प्रार्थना पर दिखाया था, जिससे भविष्य में यदि कोई अपने को भगवान् का अवतार कहे तो लो उससे कह सकें कि तुम अपना विश्वरूप दिखलाओ।

पिछले श्लोक में न शब्द की पुनरुक्ति सूचित करती है कि मनुष्य को वैदिक ग्रंथों के पाण्डित्य का गर्व नहीं होना चाहिए। उसे कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। तभी वह भगवद्गीता की टीका लिखने का प्रयास कर सकता है।

कृष्ण विश्वरूप से नारायण के चतुर्भुज रूप में और फिर अपने सहज द्विभुज रूप में परिणत होते हैं। इससे यह सूचित होता है कि वैदिक साहित्य में उल्लिखित चतुर्भुज रूप तथा अन्य रूप कृष्ण के आदि द्विभुज रूप ही से उद्भूत हैं। वे समस्त उद्भवों के उद्गम हैं। कृष्ण इनसे भी भिन्न हैं, निर्विशेष रूप की कल्पना का तो कुछ कहना ही नहीं। जहाँ तक कृष्ण के चतुर्भुजी रूपों का सम्बन्ध है, यह स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण का सर्वाधिक निकट चतुर्भुजी रूप (जो महाविष्णु के नाम से विख्यात हैं और जो कारणार्णव में शयन करते हैं तथा जिनके श्वास तथा प्रश्वास में अनेक ब्रह्माण्ड निकलते एवं प्रवेश करते रहते हैं) भी भगवान् का अंश है। जैसा कि ब्रह्मसंहिता में (.४८) कहा गया है -

यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजामि ।।

जिनके श्वास लेने से ही जिनमें अनन्त ब्रह्माण्ड प्रवेश करते हैं तथा पुनः बाहर निकल आते हैं, वे महाविष्णु कृष्ण के अंश रूप हैं। अतः मैं गोविन्द या कृष्ण की पूजा करता हूँ जो समस्त कारणों के कारण हैं। "अतः मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के साकार रूप को भगवान् मानकर पूजे, क्योंकि वही सच्चिदानन्द स्वरूप है। वे विष्णु के समस्त रूपों के उद्गम हैं, वे समस्त अवतारों के उद्गम हैं और आदि महापुरुष हैं, जैसा कि भगवद्गीता से पुष्ट होता है। गोपाल-तपनी उपनिषद् में (.) निम्नलिखित कथन आया है-

सच्चिदानन्दरूपाय कृष्णायाक्लिष्टकारिणे ।

नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे ।

"मैं कृष्ण को प्रणाम करता हूँ को सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, क्योंकि उनको जान लेने का अर्थ है, वेदों को जान लेना। अतः वे परम गुरु हैं।" उसी प्रकरण में कहा गया है - कृष्णो वै परमं दैवतम् - कृष्ण भगवान् हैं (गोपाल तापनी उपनिषद् १.)एको वशी सर्वगः कृष्ण इड्य: - वह कृष्ण भगवान् हैं और पूज्य हैं। एकोऽपि सन्बहुधा योऽवभाति - कृष्ण एक हैं, किन्तु वे अनन्त रूपों तथा अंश अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं (गोपाल तापनी १.२१)ब्रह्मसंहिता (.) का कथन है-

ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ।

"भगवान् तो कृष्ण हैं, जो सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। उनका कोई आदि नहीं है, क्योंकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं। वे समस्त कारणों के कारण हैं।" अन्यत्र भी कहा गया है - यात्रावतिर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म नराकृति - भगवान् एक व्यक्ति है, उसका नाम कृष्ण है और वह कभी-कभी इस पृथ्वी पर अवतरित होता है। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में भगवान् के सभी प्रकार के अवतारों का वर्णन मिलता है, जिसमें कृष्ण का भी नाम है। किन्तु यह कहा गया है कि यह कृष्ण ईश्वर के अवतार नहीं हैं, अपितु साक्षात् भगवान् हैं (एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्)

इसी प्रकार भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं - मत्तः परतरं नान्यत - मुझ भगवान् कृष्ण के रूप से कोई श्रेष्ठ नहीं है। अन्यत्र भी कहा गया है - अहम् आदिर्ही देवानाम् - मैं समस्त देवताओं का उद्गम हूँ। कृष्ण से भगवद्गीता ज्ञान प्राप्त करने पर अर्जुन भी इन शब्दों में इसकी पुष्टि करता है - परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । अब मैं भलीभाँति समझ गया कि आप परम सत्य भगवान् हैं और प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं। अतः कृष्ण ने अर्जुन को जो विश्वरूप दिखलाया वह उनका आदि रूप नहीं है। आदि रूप तो कृष्ण है। हजारों हाथों तथा हजारों सिरों वाला विश्वरूप तो उन लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए दिखलाया गया, जिनका ईश्वर से तनिक भी प्रेम नहीं है। यह ईश्वर का आदि रूप नहीं है।
विश्वरूप उन शुद्ध्भक्तों के लिए तनिक भी आकर्षक नहीं होता, जो विभिन्न दिव्य सम्बन्धों में भगवान् से प्रेम करते हैं। भगवान् अपने आदि कृष्ण रूप में ही प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं। अतः कृष्ण से घनिष्ठ मैत्री भाव से सम्बन्धित अर्जुन को यह विश्वरूप तनिक भी रुचिकर नहीं लगा, अपितु उसे भयानक लगा। कृष्ण के चिर सखा अर्जुन के पास अवश्य ही दिव्य दृष्टि रही होगी, वह भी सामान्य व्यक्ति न था। इसीलिए वह विश्वरूप से मोहित नहीं हुआ। यह रूप उन लोगों को भले ही अलौकिक लगे, जो अपने को सकाम कर्मों द्वारा ऊपर उठाना चाहते हैं, किन्तु भक्ति में रत व्यक्तियों के लिए तो दोभुजा वाले कृष्ण का रूप ही अत्यन्त प्रिय है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंSशसम्भवम् ।। 41 ।।

यत् – यत्– जो जो;विभूति– ऐश्वर्य ;मत्– युक्त;सत्त्वम्– अस्तित्व;श्री-मत्– सुन्दर;उर्जिवम्– तेजस्वी;एव– निश्चय ही;वा– अथवा;तत्-तत्– वे वे;एव– निश्चय ही;अवगच्छ– जानो;तवम्– तुम;मम– मेरे;तेजः– तेज का;अंश– भाग, अंश से;सम्भवम्– उत्पन्न।
भावार्थ : तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं।

तात्पर्य : किसी भी तेजस्वी या सुन्दर सृष्टि को, चाहे वह अध्यात्म जगत में हो या इस जगत में, कृष्ण की विभूति का अंश रूप ही मानना चाहिए। किसी भी अलौकिक तेजयुक्त वस्तु को कृष्ण की विभूति समझना चाहिए ।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। 12 ।।

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। 13 ।।

अर्जुन उवाच– अर्जुन ने कहा;परम्– परम;ब्रह्म– सत्य;परम्– परम;धाम– आधार;पवित्रम्– शुद्ध;परमम्– परम;भवान्– आप;पुरुषम्– पुरुष;शाश्वतम्– नित्य;दिव्यम्– दिव्य;आदि-देवम्– आदि स्वामी;अजम्– अजन्मा;विभुम्–सर्वोच्च;आहुः- कहते हैं;त्वाम्– आपको;ऋषयः– साधुगण;सर्वे– सभी;देव-ऋषि– देवताओं के ऋषि;नारदः– नारद;तथा– भी;असितः– असित;देवलः– देवल;व्यासः– व्यास;स्वयम्– स्वयं;– भी;एव– निश्चय ही;ब्रवीषि– आप बता रहे हैं;मे– मुझको।

भावार्थ : अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान्, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।

तात्पर्य : इन दो श्लोकों में भगवान् आधुनिक दार्शनिक को अवसर प्रदान करते हैं, क्योंकि यहाँ यह स्पष्ट है कि परमेश्वर जीवात्मा से भिन्न हैं। इस अध्याय के चार महत्त्वपूर्ण श्लोकों को सुनकर अर्जुन की सारी शंकाएँ जाती रहीं और उसने कृष्ण को भगवान् स्वीकार कर लिया। उसने तुरन्त ही उद्घोष किया “आप परब्रह्म हैं।इसके पूर्व कृष्ण कह चुके हैं कि वे प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक प्राणी के आदि कारण हैं। प्रत्येक देवता तथा प्रत्येक मनुष्य उन पर आश्रित है। वे अज्ञानवश अपने को भगवान् से पर स्वतन्त्र मानते हैं। ऐसा अज्ञान भक्ति करने से पूरी तरह मिट जाता है। भगवान् ने पिछले श्लोक में इसकी पूरी व्याख्या की है। अब भगवत्कृपा से अर्जुन उन्हें परमसत्य रूप में स्वीकार कर रहा है, जो वैदिक आदेशों के सर्वथा अनुरूप है। ऐसा नहीं है कि पर सखा होने के कारण अर्जुन कृष्ण की चाटुकारी करते हुए उन्हें परम सत्य भगवान् क रहा है। इन दो श्लोकों में अर्जुन जो भी कहता है, उसकी पुष्टि वैदिक सत्य द्वारा होती है। वैदिक आदेश इसकी पुष्टि करते हैं कि जो कोई परमेश्वर की भक्ति करता है, वही उन्हें समझ सकता है, अन्य कोई नहीं। श्लोकों में अर्जुन द्वारा कहे शब्द वैदिक आदेशों द्वारा पुष्ट होते हैं।

केन उपनिषद् में कहा गया है परब्रह्म प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं और कृष्ण पहले ही क चुके हैं कि सारी वस्तुएँ उन्हीं पर आश्रित हैं। मुण्डक उपनिषद् में पुष्टि की गई है कि जिन परमेश्वर पर सब कुछ आश्रित है, उन्हें उनके चिन्तन में रत रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है। कृष्ण का यह निरन्तर चिन्तन स्मरणम् है, जो भक्ति की नव विधियों में से हैं। भक्ति के द्वारा ही मनुष्य कृष्ण की स्थिति को समझ सकता है और इस भौतिक देह से छुटकारा पा सकता है।

वेदों में परमेश्वर को पवित्र माना गया है। जो व्यक्ति कृष्ण को पर पवित्र मानता है, वह समस्त पापकर्मों से शुद्ध हो जाता है। भगवान् की शरण में गये बिना पापकर्मों से शुद्धि नहीं हो पाती। अर्जुन द्वारा कृष्ण को परम पवित्र मानना वेदसम्मत है। इसकी पुष्टि नारद आदि ऋषियों द्वारा भी हुई है।

कृष्ण भगवान् हैं और मनुष्य को चाहिए कि वह निरन्तर उनका ध्यान करते हुए उनसे दिव्य सम्बन्ध स्थापित करे। वे पर अस्तित्व हैं। वे समस्त शारीरिक आवश्यकताओं तथा जन्म-मरण से मुक्त हैं। इसकी पुष्टि अर्जुन ही नहीं, अपितु सारे वे पुराण तथा इतिहास ग्रंथ करते हैं। सारे वैदिक साहित्य में कृष्ण का ऐसा वर्णन मिलता है और भगवान् स्वयं चौथे अध्याय में कहते हैं, “यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, किन्तु धर्म की स्थापना के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट होता हूँ।वे परम पुरुष हैं, उनका कोई कारण नहीं है, क्योंकि वे समस्त कारणों के कारण हैं और सब कुछ उन्हीं से उद्भूत है। ऐसा पूर्णज्ञान केवल भगवत्कृपा से प्राप्त होता है।

यहाँ पर अर्जुन कृष्ण की कृपा से ही अपने विचार व्यक्त करता है। यदि हम भगवद्गीता को समझना चाहते हैं तो हमें इन दोनों श्लोकों के कथनों को स्वीकार करना होगा। यह परम्परा-प्रणाली कहलाती है अर्थात् गुरु-परम्परा को मानना । परम्परा-प्रणाली के बिना भगवद्गीता को नहीं समझा जा सकता। यह तथाकथित विद्यालयी शिक्षा द्वारा सम्भव नहीं है। दुर्भाग्यवश जिन्हें अपनी उच्च शिक्षा पर घमण्ड है, वे वैदिक साहित्य के इतने प्रमाणों के होते हुए ही अपने इस दुराग्रह पर अड़े रहते हैं कि कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।। 11 ।।

तेषाम्– उन पर;एव– निश्चय ही;अनुकम्पा-अर्थम्– विशेष कृपा करने के लिए;अहम्– मैं;अज्ञान-जम्– अज्ञान के कारण;तमः– अंधकार;नाशयामि– दूर करता हूँ;आत्म-भाव– उनके हृदयों में;स्थः– स्थित;ज्ञान– ज्ञान के;दीपेन– दीपक द्वारा;भास्वता– प्रकाशमान हुए।

भावार्थ : मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।

तात्पर्य : जब भगवान् चैतन्य बनारस में हरे कृष्ण के कीर्तन का प्रवर्तन कर रहे थे, तो हजारों लोग उनका अनुसरण कर रहे थे। तत्कालीन बनारस के अत्यन्त प्रभावशाली एवं विद्वान प्रकाशानन्द सरस्वती उनको भावुक कहकर उनका उपहास करते थे। कभी-कभी भक्तों की आलोचना दार्शनिक यह सोचकर करते हैं कि भक्तगण अंधकार में हैं और दार्शनिक दृष्टि से भोले-भोले भावुक हैं, किन्तु यह तथ्य नहीं है। ऐसे अनेक बड़े-बड़े विद्वान पुरुष हैं, जिन्होंने भक्ति का दर्शन प्रस्तुत किया है। किन्तु यदि कोई भक्त उनके इस साहित्य का या अपने गुरु का लाभ न भी उठाये और यदि वह अपनी भक्ति में एकनिष्ठ रहे, तो उसके अन्तर से कृष्ण स्वयं उसकी सहायता करते हैं। अतः कृष्णभावनामृत में रत एकनिष्ठ भक्त ज्ञानरहित नहीं हो सकता। इसके लिए इतनी ही योग्यता चाहिए कि वह पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहकर भक्ति सम्पन्न करता रहे।

आधुनिक दार्शनिकों का विचार है कि बिना विवेक के शुद्ध ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। उनके लिए भगवान् का उत्तर है – जो लोग शुद्धभक्ति में रत हैं, भले ही वे पर्याप्त शिक्षित न हों तथा वैदिक नियमों से पूर्णतया अवगत न हो, किन्तु भगवान् उनकी सहायता करते ही हैं, जैसा कि इस श्लोक में बताया गया है।

भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि मात्र चिन्तन से परम सत्य भगवान् को समझ पाना असम्भव है, क्योंकि भगवान् इतने महान हैं कि कोरे मानसिक प्रयास से उन्हें न तो जाना जा सकता है, न ही प्राप्त किया जा सकता है भले ही कोई लाखों वर्षों तक चिन्तन करता रहे, किन्तु यदि भक्ति नहीं करता, यदि वह परम सत्य का प्रेमी नहीं है, तो उसे कभी भी कृष्ण या पर सत्य समझ में नहीं आएँगे। पर सत्य, कृष्ण, केवल भक्ति से प्रसन्न होते हैं और अपनी अचिन्त्य शक्ति से वे शुद्ध भक्त के हृदय में स्वयं प्रकट हो सकते हैं। शुद्धभक्त के हृदय में तो कृष्ण निरन्तर रहते हैं और कृष्ण की उपस्थिति सूर्य के समान है, जिसके द्वारा अज्ञान का अंधकार तुरन्त दूर हो जाता है। शुद्धभक्त पर भगवान् की यही विशेष कृपा है।

करोड़ो जन्मों के भौतिक संसर्ग के कल्मष के कारण मनुष्य का हृदय भौतिकता के मल (धूलि) से आच्छादित हो जाता है, किन्तु जब मनुष्य भक्ति में लगता है और निरन्तर हरे कृष्ण का जप करता है तो यह मल तुरन्त दूर हो जाता है और उसे शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है। पर लक्ष्य विष्णु को इसी जप तथा भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है, अन्य किसी प्रकार के मनोधर्म या तर्क द्वारा नहीं। शुद्ध भक्त जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के लिए चिन्ता नहीं करता है, न तो उसे कोई और चिन्ता करने की आवश्यकता है, क्योंकि हृदय से अंधकार हट जाने पर भक्त की प्रेमाभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् स्वतः सब कुछ प्रदान करते हैं। यही भगवद्गीता का उपदेश-सार है। भगवद्गीता के अध्ययन से मनुष्य भगवान् के शरणागत होकर शुद्धभक्ति में लग जाता है। जैसे ही भगवान् अपने ऊपर भार ले लेते हैं, मनुष्य सारे भौतिक प्रयासों से मुक्त हो जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।। 10 ।।

तेषाम्– उन;सतत-युक्तानाम्– सदैव लीन रहने वालों को;भजताम्– भक्ति करने वालों को;प्रीति-पूर्वकम्– प्रेमभावसहित;ददामि– देता हूँ;बुद्धि-योगम्– असली बुद्धि;तम्– वह;येन– जिससे;माम्– मुझको;उपयान्ति– प्राप्त होते हैं;ते– वे।

भावार्थ : जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।

तात्पर्य : इस श्लोक में बुद्धि-योगम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हमें स्मरण हो कि द्वितीय अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था कि मैं तुम्हें अनेक विषयों के बारे में बता चुका हूँ और अब मैं तुम्हें बुद्धियोग की शिक्षा दूँगा। अब उसी बुद्धियोग की व्याख्या की जा रही है। बुद्धियोग कृष्णभावनामृत में रहकर कार्य करने को कहते हैं और यही उत्तम बुद्धि है। बुद्धि का अर्थ है बुद्धि और योग का अर्थ है यौगिक गतिविधियाँ अथवा यौगिक उन्नति। जब कोई भगवद्धाम को जाना चाहता है और भक्ति में वह कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर लेता है, तो उसका यह कार्य बुद्धियोग कहलाता है। दूसरे शब्दों में, बुद्धियोग वह विधि है, जिससे मनुष्य भवबन्धन से छुटना चाहता है। उन्नति करने का चरम लक्ष्य कृष्णप्राप्ति है। लोग इसे नहीं जानते, अतः भक्तों तथा प्रामाणिक गुरु की संगति आवश्यक है। मनुष्य को ज्ञात होना चाहिए कि कृष्ण ही लक्ष्य हैं और जब लक्ष्य निर्दिष्ट है, तो पथ पर मन्दगति से प्रगति करने पर भी अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो जाता है।

जब मनुष्य लक्ष्य तो जानता है, किन्तु कर्मफल में लिप्त रहता है, तो वह कर्मयोगी होता है। यह जानते हुए कि लक्ष्य कृष्ण हैं, जब कोई कृष्ण को समझने के लिए मानसिक चिन्तन का सहारा लेता है, तो वह ज्ञानयोग में लीन होता है। किन्तु जब वह लक्ष्य को जानकर कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में कृष्ण की खोज करता है, तो वह भक्तियोगी या बुद्धियोगी होता है और यही पूर्णयोग है। यह पूर्णयोग ही जीवन की सिद्धावस्था है।

जब व्यक्ति प्रामाणिक गुरु के होते हुए तथा आध्यात्मिक संघ से सम्बद्ध रहकर भी प्रगति नहीं कर पाता, क्योंकि वह बुद्धिमान नहीं है, तो कृष्ण उसके अन्तर से उपदेश देते हैं, जिससे वह सरलता से उन तक पहुँच सके। इसके लिए जिस योग्यता की अपेक्षा है, वह यह है कि कृष्णभावनामृत में निरन्तर रहकर प्रेम तथा भक्ति के साथ सभी प्रकार की सेवा की जाए। उसे कृष्ण के लिए कुछ न कुछ कार्य करते रहना चाहिए, किन्तु प्रेमपूर्वक। यदि भक्त इतना बुद्धिमान नहीं है कि आत्म-साक्षात्कार के पथ पर प्रगति कर सके, किन्तु यदि वह एकनिष्ठ रहकर भक्तिकार्यों में रत रहता है, तो भगवान् उसे अवसर देते हैं कि वह उन्नति करके अन्त में उनके पास पहुँच जाये।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। 9 ।।

मत्-चित्ताः– जिनके मन मुझमें रमे हैं;मत्-गत-प्राणाः– जिनके जीवन मुझ में अर्पित हैं;बोधयन्तः– उपदेश देते हुए;परस्परम्– एक दूसरे से, आपस में;– भी;कथयन्तः– बातें करते हुए;– भी;माम्– मेरे विषय में;नित्यम्– निरन्तर;तुष्यन्ति– प्रसन्न होते हैं;– भी;रमन्ति– दिव्य आनन्द भोगते हैं;– भी।

भावार्थ : मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए पर सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।

तात्पर्य : यहाँ जिन शुद्ध भक्तों के लक्षणों का उल्लेख हुआ है, वे निरन्तर भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में रमे रहते हैं। उनके मन कृष्ण के चरणकमलों से हटते नहीं। वे दिव्य विषयों की ही चर्चा चलाते हैं। इस श्लोक में शुद्ध भक्तों के लक्षणों का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है। भगवद्भक्त परमेश्वर के गुणों तथा उनकी लीलाओं के गान में अहर्निश लगे रहते हैं। उनके हृदय तथा आत्माएँ निरन्तर कृष्ण में निमग्न रहती हैं और वे अन्य भक्तों से भगवान् के विषय में बातें करने में आनन्दानुभव करते हैं।

भक्ति की प्रारम्भिक अवस्था में वे सेवा में ही दिव्य आनन्द उठाते हैं और परिपक्वावस्था में वे ईश्वर-प्रेम को प्राप्त होते हैं। जब वे इस दिव्य स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे सर्वोच्च सिद्धि का स्वाद लेते हैं, जो भगवद्धाम में प्राप्त होती है। भगवान् चैतन्य दिव्य भक्ति की तुलना जीव के हृदय में बीज बोने से करते हैं। ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों में असंख्य जीव विरण करते रहते हैं। इनमें से कुछ ही भाग्यशाली होते हैं, जिनकी शुद्धभक्त से भेंट हो पाती है और जिन्हें क्ति समझने का अवसर प्राप्त हो पाता है। यह भक्ति बीज के सदृश है। यदि इसे जीव के हृदय में बो दिया जाये और जीव हरे कृष्ण का श्रवण तथा कीर्तन करता रहे तो बीज अंकुरित होता है, जिस प्रकार कि नियमतः सींचते रहने से वृक्ष का बीज फलता है। भक्ति रूपी आध्यात्मिक पौधा क्रमशः बढ़ता रहता है, जब तक ह ब्रह्माण्ड के आवरण को भेदकर ब्रह्मज्योति में प्रवेश नहीं कर जाता। ब्रह्मज्योति में भी पौधा तब तक बढ़ता जाता है, जब तक उस उच्चतम लोक को नहीं प्राप्त कर लेता, जिसे गोलोक वृन्दावन या कृष्ण का परमधाम कहते हैं। अन्ततोगत्वा यह पौधा भगवान् के चरणकमलों की शरण प्राप्त कर वहीं विश्राम पाता है। जिस प्रकार पौधे में क्रम से फूल तथा फल आते हैं, उसी प्रकार भक्तिरूपी पौधे में भी फल आते हैं और कीर्तन तथा श्रवण के रूप में उसका सिंचन चलता रहता है। चैतन्य चरितामृत में (मध्य लीला , अध्याय १९) भक्तिरूपी पौधे का विस्तार से वर्णन हुआ है। यहाँ यह बताया गया है कि जब पूर्ण पौधा भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण कर लेता है तो मनुष्य पूर्णतया भगवत्प्रेम में लीन हो जाता है, तब तक एक क्षण भी परमेश्वर के बिना नहीं रह पाता, जिस प्रकार कि मछली जल के बिना नहीं रह सकती। ऐसी अवस्था में भक्त वास्तव में परमेश्वर के संसर्ग से दिव्यगुण प्राप्त कर लेता है।

श्रीमद्भागवत में भी भगवान् तथा उनके भक्तों के सम्बन्ध के विषय में ऐसी अनेक कथाएँ हैं। इसीलिए श्रीमद्भागवत भक्तों को अत्यन्त प्रिय है जैसा कि भागवत में ही (१२.१३.१८) कहा गया है – श्रीमद्भागवतं पुराणं अमलं यद्वैष्णवानां प्रियम् । ऐसी कथा में भौतिक कार्यों, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मोक्ष के विषय में कुछ भी नहीं है। श्रीमद्भागवत ही एकमात्र ऐसी कथा है, जिसमें भगवान् तथा उनके भक्तों की दिव्य प्रकृति का पूर्ण वर्णन मिलता है। फलतः कृष्णभावनामृत जीव ऐसे दिव्य साहित्य के श्रवण में दिव्य रूचि दिखाते हैं, जिस प्रकार तरुण तथा तरुणी को परस्पर मिलने में आनन्द प्राप्त होता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय दस श्रीभगवान का ऐश्वर्य

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।। 8 ।।

अहम्– मैं;सर्वस्य– सबका;प्रभवः– उत्पत्ति का कारण;मत्तः– मुझसे;सर्वम्– सारी वस्तुएँ;प्रवर्तते– उद्भूत होती हैं;इति– इस प्रकार;मत्वा– जानकर;भजन्ते– भक्ति करते हैं;माम्– मेरी;बुधाः– विद्वानजन;भाव-समन्विताः– अत्यन्त मनोयोग से।

भावार्थ : मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।

तात्पर्य : जिस विद्वान ने वेदों का ठीक से अध्ययन किया हो और भगवान् चैतन्य जैसे अधिकारियों से ज्ञान प्राप्त किया हो तथा यह जानता हो कि इन उपदेशों का किस प्रकार उपयोग करना चाहिए, वही यह समझ सकता है कि भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों के मूल श्रीकृष्ण ही हैं। इस प्रकार के ज्ञान से वह भगवद्भक्ति में स्थिर हो जाता है। वह व्यर्थ की टीकाओं से या मूर्खों के द्वारा कभी पथभ्रष्ट नहीं होता। सारा वैदिक साहित्य स्वीकार करता है कि कृष्ण ही ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं के स्त्रोत हैं। अथर्ववेद में (गोपालतापनी उपनिषद् १.२४) कहा गया है – यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च गापयति स्म कृष्णः – प्रारम्भ में कृष्ण ने ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान प्रदान किया और उन्होंने भूतकाल में वैदिक ज्ञान का प्रचार किया। पुनः नारायण उपनिषद् में () कहा गया है – अथ पुरुषो ह वै नारायणोSकामयत प्रजाः सृजेयते – तब भगवान् ने जीवों की सृष्टि करनी चाही। उपनिषद् में आगे भी कहा गया है –

नारायणाद् ब्रह्मा जायते नारायणाद् प्रजापतिः प्रजायते नारायणाद् इन्द्रो जायते ।

नारायणादष्टौ वसवो जायन्ते नारायणादेकादश रुद्रा जायन्ते नारायणाद्द्वादशादित्याः

नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, नारायण से प्रजापति उत्पन्न होते हैं, नारायण से इन्द्र और आठ वासु उत्पन्न होते हैं और नारायण से ही ग्यारह रूद्र तथा बारह आदित्य उत्पन्न होते हैं।यह नारायण कृष्ण के ही अंश हैं।

वेदों का ही कथन है – ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रः – देवकी पुत्र, कृष्ण, ही भगवान् हैं (नारायण उपनिषद् ४)तब यह कहा गया – एको वै आसीन्न ब्रह्मा न ईशानो नापो नाग्निसमौ नेमे द्यावापृथिवी न नाक्षत्राणि न सूर्यः – सृष्टि के प्रारम्भ में केवल भगवान् नारायण थे। न ब्रह्मा थे, न शिव । न अग्नि थी, न चन्द्रमा, न नक्षत्र और न सूर्य (महा उपनिषद् १)महा उपनिषद् में यह भी कहा गया है कि शिवजी परमेश्वर के मस्तक से उत्पन्न हुए। अतः वेदों का कहना है कि ब्रह्मा तथा शिव के स्रष्टा भगवान् की ही पूजा की जानी चाहिए। मोक्षधर्म में कृष्ण कहते हैं –

प्रजापतिं च रूद्र चाप्यहमेव सृजामि वै ।

तौ हि मां न विजानीतो मम मायाविमोहितौ ।

 

मैंने ही प्रजापतियों को, शिव तथा अन्यों को उत्पन्न किया, किन्तु वे मेरी माया से मोहित होने के कारण यह नहीं जानते कि मैंने ही उन्हें उत्पन्न किया।वराह पुराण में भी कहा गया है –

नारायणः परो देवस्तस्माज्जातश्चतुर्मुखः ।

तस्माद्र रुद्रोSभवद्देवः स च सर्वज्ञतां गतः ।।

नारायण भगवान् हैं, जिनसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए और फिर ब्रह्मा से शिव उत्पन्न हुए।भगवान् कृष्ण समस्त उत्पत्तियों से स्रोत हैं और वे सर्वकारण कहलाते हैं। वे स्वयं कहते हैं, “चूँकि सारी वस्तुएँ मुझसे उत्पन्न हैं, अतः मैं सबों का मूल कारण हूँ। सारी वस्तुएँ मेरे अधीन हैं, मेरे ऊपर कोई भी नहीं हैं।कृष्ण से बढ़कर कोई परम नियन्ता नहीं है। जो व्यक्ति प्रामाणिक गुरु से या वैदिक साहित्य से इस प्रकार कृष्ण को जान लेता है, वह अपनी सारी शक्ति कृष्णभावनामृत में लगाता है और सचमुच विद्वान पुरुष बन जाता है। उसकी तुलना में अन्य लोग, जो कृष्ण को ठीक से नहीं जानते, मात्र मूर्ख सिद्ध होते हैं। केवल मूर्ख ही कृष्ण को सामान्य व्यक्ति समझेगा। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को चाहिए कि कभी मूर्खों द्वारा मोहित न हो, उसे भगवद्गीता की समस्त अप्रामाणिक टीकाओं एवं व्याख्याओं से दूर रहना चाहिए और दृढ़तापूर्वक कृष्णभावनामृत में अग्रसर होना चाहिए।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु ।

मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः 34 ।।

मत्–मनाः- सदैव मेरा चिन्तन करने वाला;भव– होओ;मत्– मेरा;भक्तः– भक्त;मत्– मेरा;याजी– उपासक;माम्– मुझको;नमस्कुरु– नमस्कार करो;माम्– मुझको;एव– निश्चय ही;एष्यसि– पाओगे;युक्त्वा– लीन होकर;एवम्– इस प्रकार;आत्मानम्– अपनी आत्मा को;मत्-परायणः– मेरी भक्ति में अनुरक्त।

भावार्थ : अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे।

तात्पर्य : इस श्लोक में स्पष्ट इंगित है कि इस कल्मषग्रस्त भौतिक जगत् से छुटकारा पाने का एकमात्र साधन कृष्णभावनामृत है। कभी-कभी कपटी भाष्यकार इस स्पष्ट कथन को तोड़मरोड़ कर अर्थ करते हैं : कि सारी भक्ति भगवान् कृष्ण को समर्पित की जानी चाहिए। दुर्भाग्यवश ऐसे भाष्यकार पाठकों का ध्यान ऐसी बात की ओर आकर्षित करते हैं जो सम्भव नहीं है। ऐसे भाष्यकार यह नहीं जानते कि कृष्ण के मन तथा कृष्ण में कोई अन्तर नहीं है। कृष्ण कोई सामान्य मनुष्य नहीं है, वे परमेश्वर हैं। उनका शरीर, उनका मन तथा स्वयं वे एक हैं और परम हैं। जैसा कि कूर्मपुराण में कहा गया है और भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ने चैतन्यचरितामृत (पंचम अध्याय, आदि लीला ४१-४८) के अनुभाष्य में उद्धृत किया है – देहदेहीविभेदोSयं नेश्वरे विद्यते क्वचित् – अर्थात् परमेश्वर कृष्ण में तथा उनके शरीर में कोई अन्तर नहीं है। लेकिन इस कृष्णतत्त्व को न जानने के कारण भाष्यकार कृष्ण को छिपाते हैं और उनको उनके मन या शरीर से पृथक् बताते हैं। यद्यपि यह कृष्णतत्त्व के प्रति निरी अज्ञानता है, किन्तु कुछ लोग जनता को भ्रमित करके धन कमाते हैं।

कुछ लोग आसुरी होते हैं, वे भी कृष्ण का चिन्तन करते हैं किन्तु ईर्ष्यावश, जिस तरह कि कृष्ण का मामा कंस करता था। वह भी कृष्ण का निरन्तर चिन्तन करता रहता था, किन्तु वह उन्हें शत्रु रूप में सोचता था। वह सदैव चिन्ताग्रस्त रहता था और सोचता रहता था कि न जाने कब कृष्ण उसका वध कर दें। इस प्रकार के चिन्तन से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं है। मनुष्य को चाहिए कि भक्तिमय प्रेम में उनका चिन्तन करे। यही भक्ति है। उसे चाहिए कि वह निरन्तर कृष्णतत्त्व का अनुशीलन करे। तो वह उपयुक्त अनुशीलन क्या है? यह प्रामाणिक गुरु से सीखना है। कृष्ण भगवान् हैं और हम कई बार क चुके हैं कि उनका शरीर भौतिक नहीं है अपितु सच्चिदानन्द स्वरूप है। इस प्रकार की चर्चा से मनुष्य को भक्त बनने में सहायता मिलेगी। अन्यथा अप्रामाणिक साधन से कृष्ण का ज्ञान प्राप्त करना व्यर्थ होगा।

अतः मनुष्य को कृष्ण के आदि रूप में मन को स्थिर करना चाहिए, उसे अपने मन में यह दृढ़ विश्र्वास करके पूजा करने में प्रवृत्त होना चाहिए कि कृष्ण ही परम हैं। कृष्ण की पूजा के लिए भारत में हजारों मन्दिर हैं, जहाँ पर भक्ति का अभ्यास किया जाता है। जब ऐसा अभ्यास हो रहा हो तो मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण को नमस्कार करे। उसे अर्चाविग्रह के समक्ष नतमस्तक होकर मनसा वाचा कर्मणा हर प्रकार से प्रवृत्त होना चाहिए। इससे वह कृष्णभाव में पूर्णतया तल्लीन हो सकेगा। इससे वह कृष्णलोक को जा सकेगा। उसे चाहिए कि कपटी भाष्यकारों के बहकावे में न आए। उसे श्रवण, कीर्तन आदि नवधा भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए। शुद्ध भक्ति मानव समाज की चरम उपलब्धि है।

भगवद्गीता के सातवें तथा आठवें अध्यायों में भगवान् की ऐसी शुद्ध भक्ति की व्याख्या की गई है, जो कल्पना, योग तथा सकाम कर्म से मुक्त है। जो पूर्णतया शुद्ध नहीं हो पाते वे भगवान् के विभिन्न स्वरूपों द्वारा तथा निर्विशेषवादी ब्रह्मज्योति तथा अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा आकृष्ट होते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त तो परमेश्वर की साक्षात् सेवा करता है।
कृष्ण सम्बन्धी एक उत्तम पद्य में कहा गया है कि जो व्यक्ति देवताओं की पूजा में रत हैं, वे सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उन्हें कभी भी कृष्ण का चरम वरदान प्राप्त नहीं हो सकता। हो सकता है कि प्रारम्भ में कोई भक्त अपने स्तर से नीचे गिर जाये, तो भी उसे अन्य सारे दार्शनिक तथा योगियों से श्रेष्ठ मानना चाहिए। जो व्यक्ति निरन्तर कृष्ण भक्ति में लगा रहता है, उसे पूर्ण साधुपुरुष समझना चाहिए। क्रमशः उसके आकस्मिक भक्ति-विहीन कार्य कम होते जाएँगे और उसे शीघ्र ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी। वास्तव में शुद्ध भक्त के पतन का कभी कोई अवसर नहीं आता, क्योंकि भगवान् स्वयं ही अपने शुद्ध भक्तों की रक्षा करते हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह सीधे कृष्णभावनामृत पथ को ग्रहण करे और संसार में सुखपूर्वक जीवन बिताए। अन्ततोगत्वा वह कृष्ण रूपी परम पुरस्कार प्राप्त करेगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मांहिपार्थव्यपाश्रित्ययेSपिस्यु: पापयोनयः ।

स्त्रियोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेSपियान्तिपरांगतिम् ।। 32 ।।

माम् –मेरी;हि– निश्चय ही;पार्थ– हे पृथापुत्र;व्यपाश्रित्य– शरण ग्रहण करके;ये– जो;अपि– भी;स्युः– हैं;पाप-योनयः– निम्नकुल में उत्पन्न;स्त्रियः– स्त्रियाँ;वैश्याः– वणिक लोग;तथा– भी;शूद्राः– निम्न श्रेणी के व्यक्ति;ते अपि– वे भी;यान्ति– जाते हैं;पराम्– परम;गतिम्– गन्तव्य को।

भावार्थ : हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शुद्र (श्रमिक) क्यों न हों, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं।

तात्पर्य : यहाँ पर भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि भक्ति में उच्च तथा निम्न जाति के लोगों का भेद नहीं होता। भौतिक जीवन में ऐसा विभाजन होता है, किन्तु भगवान् की दिव्य भक्ति में लगे व्यक्ति पर यह लागू नहीं होता। सभी परमधाम के अधिकारी हैं। श्रीमद्भागवत में (..१८) कथन है कि अधम योनी चाण्डाल भी शुद्ध भक्त के संसर्ग से शुद्ध हो जाते हैं। अतः भक्ति तथा शुद्ध भक्त द्वारा पथप्रदर्शन इतने प्रबल हैं कि वहाँ ऊँचनीच का भेद नहीं रह जाता और कोई भी इसे ग्रहण कर सकता है। शुद्ध भक्त की शरण ग्रहण करके सामान्य से सामान्य व्यक्ति शुद्ध हो सकता है। प्रकृति के विभिन्न गुणों के अनुसार मनुष्यों को सात्त्विक (ब्राह्मण), रजोगुणी (क्षत्रिय) तथा तामसी (वैश्य तथा शुद्र) कहा जाता है। इनसे भी निम्न पुरुष चाण्डाल कहलाते हैं और वे पापी कुलों में जन्म लेते हैं। सामान्य रूप से उच्चकुल वाले इन निम्नकुल में जन्म लेने वालों की संगति नहीं करते। किन्तु भक्तियोग इतना प्रबल होता है कि भगवद्भक्त समस्त निम्नकुल वाले व्यक्तियों को जीवन की पर सिद्धि प्राप्त करा सकते हैं। यह तभी सम्भव है जब कोई कृष्ण की शरण में जाये। जैसा कि व्यपाश्रित्य शब्द से सूचित है, मनुष्य को पूर्णतया कृष्ण की शरण ग्रहण करनी चाहिए। तब वह बड़े से बड़े ज्ञानी तथा योगी से भी महान बन सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। 30 ।।

अपि– भी;चेत्– यदि;सु-दुराचारः– अत्यन्त गर्हित कर्म करने वाला;भजते– सेवा करता है;माम्– मेरी;अनन्य-भाक्– बिना विचलित हुए;साधुः– साधु पुरुष;एव– निश्चय ही;सः– वह;मन्तव्यः– मानने योग्य;सम्यक्– पूर्णतया;व्यवसितः– संकल्प करना;हि– निश्चय ही;सः– वह।

भावार्थ : यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।

तात्पर्य : इस श्लोक का सुदुराचारः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, अतः हमें इसे ठीक से समझना होगा। जब मनुष्य बद्ध रहता है तो उसके दो प्रकार के कर्म होते हैं – प्रथम बद्ध और द्वितीय स्वाभाविक। जिस प्रकार शरीर की रक्षा करने या समाज तथा राज्य के नियमों का पालन करने के लिए तरह-तरह के कर्म करने होते हैं, उसी प्रकार से बद्ध जीवन के प्रसंग में भक्तों के लिए कर्म होते हैं, जो बद्ध कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त, जो जीव अपने अध्यात्मिक स्वभाव से पूर्णतया भिज्ञ रहता है और कृष्णभावनामृत में या भगवद्भक्ति में लगा रहता है, उसके लिए भी कर्म होते हैं, जो दिव्य कहलाते हैं। ऐसे कार्य उसकी स्वाभाविक स्थिति में सम्पन्न होते हैं और शास्त्रीय दृष्टि से भक्ति कहलाते हैं। बद्ध अवस्था में कभी-कभी भक्ति और शरीर की बद्ध सेवा एक दूसरे के समान्तर चलती हैं। किन्तु पुनः कभी-कभी वे एक दूसरे के विपरीत हो जाती हैं। जहाँ तक सम्भव होता है, भक्त सतर्क रहता है कि वह ऐसा कोई कार्य न करे, जिससे यह अनुकूल स्थिति भंग हो। वह जानता है कि उसकी कर्म-सिद्धि उसके कृष्णभावनामृत की अनुभूति की प्रगति पर निर्भर करती है। किन्तु कभी-कभी यह देखा जाता है कि कृष्णभावनामृत में रत व्यक्ति सामाजिक या राजनीतिक दृष्टि से निन्दनीय कार्य कर बैठता है। किन्तु इस प्रकार के क्षणिक पतन से वह अयोग्य नहीं हो जाता। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि यदि कोई पतित हो जाय, किन्तु यदि भगवान् की दिव्य सेवा में लगा रहे तो हृदय में वास करने वाले भगवान् उसे शुद्ध कर देते हैं और उस निन्दनीय कार्य के लिए क्षमा कर देते हैं। भौतिक कल्मष इतना प्रबल है कि भगवान् की सेवा में लगा योगी भी कभी-कभी उसके जाल में आ फँसता है। लेकिन कृष्णभावनामृत इतना शक्तिशाली होता है कि इस प्रकार का आकस्मिक पतन तुरन्त रुक जाता है। इसीलिए भक्तियोग सदैव सफल होता है, क्योंकि जैसा कि अगले श्लोक में बताया गया है कि ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत में पूर्णतया स्थित हो जाता है, ऐसे आकस्मिक पतन कुछ समय के पश्चात् रुक जाते हैं।

अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित है और अनन्य भाव से हरे कृष्ण मन्त्र का जप करता है, उसे दिव्य स्थिति में आसीन समझना चाहिए, भले ही देववशात् उसका पतन क्यों न हो चुका हो। साधुरेव शब्द अत्यन्त प्रभावात्मक हैं। ये अभक्तों को सावधान करते हैं कि आकस्मिक पतन के कारण भक्त का उपहास नहीं किया जाना चाहिए, उसे तब भी साधु ही मानना चाहिए। मन्तव्यः शब्द तो इससे भी अधिक बलशाली है। यदि कोई इस नियम को नहीं मानता और भक्त पर उसके पतन के कारण हँसता है तो वह भगवान् के आदेश की अवज्ञा करता है। भक्त की एकमात्र योग्यता यह है कि वह अविचल तथा अनन्य भाव से भक्ति में तत्पर रहे –नृसिंह पुराण में निम्नलिखित कथन प्राप्त है –

भगवति च हरावनन्यचेताभृशमलिनोऽपि विराजते मनुष्यः ।

न हि शशकलुषच्छबिः कदाचित्तिमिरपराभवतामुपैति चन्द्रः ।।

कहने का अर्थ यह है कि यदि भगवद्भक्ति में तत्पर व्यक्ति कभी घृणित कार्य करता पाया जाये तो इन कार्यों को उन धब्बों की तरह मान लेना चाहिए, जिस प्रकार चाँद में खरगोश के धब्बे हैं। इन धब्बों से चाँदनी के विस्तार में बाधा नहीं आती। इसी प्रकार साधु-पथ से भक्त का आकस्मिक पतन उसे निन्दनीय नहीं बनाता।

किन्तु इसी के साथ यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि दिव्य भक्ति करने वाला भक्त सभी प्रकार के निन्दनीय कर्म कर सकता है। इस श्लोक में केवल इसका उल्लेख है कि भौतिक सम्बन्धों की प्रबलता के कारण कभी कोई दुर्घटना हो सकती है। भक्ति तो एक प्रकार से माया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा है। जब तक मनुष्य माया से लड़ने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं होता, तब तक आकस्मिक पतन हो सकते हैं। किन्तु बलवान होने पर ऐसे पतन नहीं होते, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। मनुष्य को इस श्लोक का दुरूपयोग करते हुए अशोभनीय कर्म नहीं करना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि इतने पर भी वह भक्त बना रह सकता है। यदि वह भक्ति के द्वारा अपना चरित्र नहीं सुधार लेता तो उसे उच्चकोटि का भक्त नहीं मानना चाहिए।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

समोSहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योSस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। 29 ।।

समः– समभाव;अहम्– मैं;सर्व-भूतेषु– समस्त जीवों में;– कोई नहीं;मे– मुझको;द्वेष्यः– द्वेषपूर्ण;अस्ति– है;– न तो;प्रियः– प्रिय;ये– जो;भजन्ति– दिव्यसेवा करते हैं;तु– लेकिन;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति से;मयि– मुझमें हैं;ते– वे व्यक्ति;तेषु– उनमें;– भी;अपि– निश्चय ही;अहम्– मैं।

भावार्थ : मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ। मैं सबों के लिए समभाव हूँ। किन्तु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, मुझमें स्थित रहता है और मैं भी उसका मित्र हूँ।

तात्पर्य : यहाँ पर प्रश्न किया जा सकता है कि जब कृष्ण का सबों के लिए समभाव है और उनका कोई विशिष्ट मित्र नहीं है तो फिर वे उन भक्तों में विशेष रूचि क्यों लेते हैं, जो उनकी दिव्यसेवा में सदैव लगे रहते हैं? किन्तु यह भेदभाव नहीं है, यह तो सहज है। इस जगत् में हो सकता है कि कोई व्यक्ति अत्यन्त उपकारी हो, किन्तु तो भी वह अपनी सन्तानों में विशेष रूचि लेता है। भगवान् का कहना है कि प्रत्येक जीव, चाहे वह जिस योनी का हो, उनका पुत्र है, अतः वे हर एक को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करते हैं। वे उस बादल के सदृश हैं जो सबों के ऊपर जलवृष्टि करता है, चाहे यह वृष्टि चट्टान पर हो या स्थल पर, या जल में हो। किन्तु भगवान् अपने भक्तों का विशेष ध्यान रखते हैं। ऐसे ही भक्तों का यहाँ उल्लेख हुआ है–वे सदैव कृष्णभावनामृत में रहते हैं, फलतः वे निरन्तर कृष्ण में लीन रहते हैं। कृष्णभावनामृत शब्द ही बताता है है कि जो लोग ऐसे भावनामृत में रहते हैं वे सजीव अध्यात्मवादी हैं और उन्हीं में स्थित हैं। भगवान् यहाँ स्पष्ट रूप से कहते हैं – मयि ते अर्थात् वे मुझमें हैं। फलतः भगवान् भी उनमें हैं। इससे ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् की भी व्याख्या हो जाती है – जो मेरी शरण में आ जाता है, उसकी मैं उसी रूप में रखवाली करता हूँ। यह दिव्य आदान-प्रदान भाव विद्यमान रहता है, क्योंकि भक्त तथा भगवान् दोनों सचेतन हैं। जब हीरे को सोने की अँगूठी में जड़ दिया जाता है तो वह अत्यन्त सुन्दर लगता है। इससे सोने की महिमा बढती है, किन्तु साथ ही हीरे की भी महिमा बढती है। भगवान् तथा जीव निरन्तर चमकते रहते हैं और जब कोई जीव भगवान् की सेवा में प्रवृत्त होता है तो वह सोने की भाँति दिखता है। भगवान् हीरे के समान हैं, अतः यह संयोग अत्युत्तम होता है। शुद्ध अवस्था में जीव भक्त कहलाते हैं। परमेश्वर अपने भक्तों के भी भक्त बन जाते हैं। यदि भगवान् तथा भक्त में आदान-प्रदान का भाव न रहे तो सगुणवादी दर्शन ही न रहे। मायावादी दर्शन में परमेश्वर तथा जीव के मध्य ऐसा आदान-प्रदान का भाव नहीं मिलता, किन्तु सगुणवादी दर्शन में ऐसा होता है।

प्रायः यह दृष्टान्त दिया जाता है कि भगवान् कल्पवृक्ष के समान हैं और मनुष्य इस वृक्ष से जो भी माँगता है, भगवान् उसकी पूर्ति करते हैं। किन्तु यहाँ पर जो व्याख्या दी गई है वह अधिक पूर्ण है। यहाँ पर भगवान् को भक्त का पक्ष लेने वाला कहा गया है। यह भक्त के प्रति भगवान् की विशेष कृपा की अभिव्यक्ति है। भगवान् के आदान-प्रदान भाव को कर्म के नियम के अन्तर्गत नहीं मानना चाहिए। यह तो उस दिव्य अवस्था से सम्बन्धित रहता है जिसमें भगवान् तथा उनके भक्त कर्म करते हैं। भगवद्भक्ति इस जगत का कार्य नहीं है, यह तो उस अध्यात्म का अंश है, जहाँ शाश्वत आनन्द तथा ज्ञान का प्राधान्य रहता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् 27

यत्– जो कुछ;करोषि– करते हो;यत्– जो भी;अश्नासि– खाते हो;यत्– जो कुछ;जुहोषि– अर्पित करते हो;ददासि– दान देते हो;यत्– जो;यत्– जो भी;तपस्यसि– तप करते हो;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;तत्– वह;कुरुष्व– करो;अर्पणम्– भेंट रूप में।
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो।

तात्पर्य : इस प्रकार यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि अपने जीवन को इस प्रकार ढाले कि वह किसी भी दशा में कृष्ण को न भूल सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन-निर्वाह के लिए कर्म करना पड़ता है और कृष्ण यहाँ पर आदेश देते हैं कि हर व्यक्ति उनके लिए ही कर्म करे। प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए कुछ न कुछ खाना पड़ता है अतः उसे चाहिए कि कृष्ण को अर्पित भोजन के उच्छिष्ट को ग्रहण करे। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ धार्मिक अनुष्ठान करने होते हैं, अतः कृष्ण कि संस्तुति है, “इसे मेरे हेतु करो”। यही अर्चन है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ दान देता है, अतः कृष्ण कहते हैं, “यह मुझे दो” जिसका अर्थ यह है कि अधिक धन का उपयोग कृष्णभावनामृत आन्दोलन की उन्नति के लिए करो। आजकल लोग ध्यान विधि के प्रति विशेष रूचि दिखाते हैं, यद्यपि इस युग के लिए यह व्यावहारिक नहीं है, किन्तु यदि कोई चौबीस घण्टे हरे कृष्ण का जप अपनी माला में करे तो वह निश्चित रूप से महानतम ध्यानी तथा योगी है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता के छठे अध्याय में की गई है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्तयुपहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः 26

पत्रम्– पत्ती;पुष्पम्– फूल;फलम्- फल;तोयम्– जल;यः– जो कोई;मे– मुझको;भक्त्या– भक्तिपूर्वक;प्रयच्छति– भेंट करता है;तत्– वह;अहम्– मैं;भक्ति-उपहृतम्– भक्तिभाव से अर्पित;अश्नामि– स्वीकार करता हूँ;प्रयत-आत्मनः– शुद्धचेतना वाले से।

भावार्थ : यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।

तात्पर्य : नित्य सुख के लिए स्थायी, आनन्दमय धाम प्राप्त करने हेतु बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह कृष्णभावनाभावित होकर भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में तत्पर रहे। ऐसा आश्चर्यमय फल प्राप्त करने की विधि इतनी सरल है की निर्धन से निर्धन व्यक्ति को योग्यता का विचार किये बिना इसे पाने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए एकमात्र योग्यता इतनी ही है कि वह भगवान् का शुद्धभक्त हो। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि कोई क्या है और कहाँ स्थित है। यह विधि इतनी सरल है कि यदि प्रेमपूर्वक एक पत्ती, थोड़ा सा जल या फल ही भगवान् को अर्पित किया जाता है तो भगवान् उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। अतः किसी को भी कृष्णभावनामृत से रोका नहीं जा सकता, क्योंकि यह सरल है और व्यापक है। ऐसा कौन मूर्ख होगा जो इस सरल विधि से कृष्णभावनाभावित नहीं होना चाहेगा और सच्चिदानन्दमय जीवन की परम सिद्धि नहीं चाहेगा? कृष्ण को केवल प्रेमाभक्ति चाहिए और कुछ भी नहीं। कृष्ण तो अपने शुद्धभक्त से एक छोटा सा फूल तक ग्रहण करते हैं। किन्तु अभक्त से वे कोई भेंट नहीं चाहते। उन्हें किसी से कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि वे आत्मतुष्ट हैं, तो भी वे अपने भक्त की भेंट प्रेम तथा स्नेह के विनिमय मे स्वीकार करते हैं। कृष्णभावनामृत विकसित करना जीवन का चरमलक्ष्य है। इस श्लोक मे भक्ति शब्द का उल्लेख दो बार यह करने के लिए हुआ है कि भक्ति ही कृष्ण के पास पहुँचने का एकमात्र साधन है। किसी अन्य शर्त से, यथा ब्राह्मण, विद्वान, धनी या महान विचारक होने से, कृष्ण किसी प्रकार कि भेंट लेने को तैयार नहीं होते। भक्ति ही मूलसिद्धान्त है, जिसके बिना वे किसी से कुछ भी लेने के लिए प्रेरित नहीं किये जा सकते। भक्ति कभी हैतुकी नहीं होती। यह शाश्वत विधि है। यह परब्रह्म की सेवा में प्रत्यक्ष कर्म है।

यह बतला कर कि वे ही एकमात्र भोक्ता, आदि स्वामी और समस्त यज्ञ-भेंटों के वास्तविक लक्ष्य हैं, अब भगवान् कृष्ण यह बताते हैं कि वे किस प्रकार की भेंट पसंद करते हैं। यदि कोई शुद्ध होने तथा जीवन के लक्ष्य तक पहुँचने के उद्देश्य से भगवद्भक्ति करना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह पता करे कि भगवान् उससे क्या चाहते हैं। कृष्ण से प्रेम करने वाला उन्हें उनकी इच्छित वस्तु देगा और कोई ऐसी वस्तु भेंट नहीं करेगा जिसकी उन्हें इच्छा न हो, या उन्होंने न माँगी हो। इस प्रकार कृष्ण को मांस, मछली या अण्डे भेंट नहीं किये जाने चाहिए। यदि उन्हें इन वस्तुओं की इच्छा होती तो वे उनका उल्लेख करते। उल्टे वे स्पष्ट आदेश देते हैं कि उन्हें पत्र, पुष्प, जल तथा फल अर्पित किये जायें और वे इन्हें स्वीकार करेंगे। शाक, अन्न, फल, दूध तथा जल – ये ही मनुष्यों के उचित भोजन हैं और भगवान् कृष्ण ने भी इन्हीं का आदेश दिया है। इनके अतिरिक्त हम जो भी खाते हों, वह उन्हें अर्पित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे उसे ग्रहण नहीं करेंगे। यदि हम ऐसा भोजन उन्हें अर्पित करेंगे तो हम प्रेमाभक्ति नहीं कर सकेंगे।

तृतीय अध्याय के तेरहवें श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि यज्ञ का उच्छिष्ट ही शुद्ध होता है, अतः जो लोग जीवन की प्रगति करने तथा भवबन्धन से मुक्त होने के इच्छुक हैं, उन्हें इसी को खाना चाहिए। उसी श्लोक मे वे यह भी बताते हैं कि जो लोग अपने भोजन को अर्पित नहीं करते वे पाप भक्षण करते हैं। दूसरे शब्दों में, उनका प्रत्येक कौर इस संसार की जटिलताओं में उन्हें बाँधने वाला है। अच्छा सरल शाकाहारी भोजन बनाकर उसे भगवान् कृष्ण के चित्र या अर्चाविग्रह के समक्ष अर्पित करके तथा नतमस्तक होकर इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करने की प्रार्थना करने से मनुष्य अपने जीवन में निरन्तर प्रगति करता है, उसका शरीर शुद्ध होता है और मस्तिष्क के श्रेष्ठ तन्तु उत्पन्न होते हैं, जिससे शुद्ध चिन्तन हो पाता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ह समर्पण अत्यन्त प्रेमपूर्वक करना चाहिए। कृष्ण को किसी तरह के भोजन कि आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि उनके पास सब कुछ है, किन्तु यदि कोई उन्हें इस प्रकार प्रसन्न करना चाहता है, तो वे इस भेंट को स्वीकार करते हैं। भोजन बनाने, सेवा करने तथा भेंट करने में जो सबसे मुख्य बात रहती है, वह है कृष्ण के प्रेमवश कर्म करना।

वे मायावादी चिन्तक भगवद्गीता के इस श्लोक का अर्थ नहीं समझ सकेंगे, जो य मानकर चलते हैं कि परब्रह्म इन्द्रियरहित है। उनके लिए यह या तो रूपक है या भगवद्गीता के उद्घोषक कृष्ण के मानवीय चरित्र का प्रमाण है। किन्तु वास्तविकता तो यह है कि कृष्ण इन्द्रियों से युक्त हैं और यह कहा गया है कि उनकी इन्द्रियाँ परस्पर परिवर्तनशील हैं। दूसरे शब्दों में, एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय का कार्य कर सकती है। कृष्ण को परम ब्रह्म कहने का आशय यही है। इन्द्रियरहित होने पर उन्हें समस्त ऐश्वर्यों से युक्त नहीं माना जा सकता। सातवें अध्याय मे कृष्ण ने बतलाया है कि वे प्रकृति के गर्भ मे जीवों को स्थापित करते हैं। इसे वे प्रकृति पर दृष्टिपात करके करते हैं। अतः यहाँ पर भी भक्तों द्वारा भोजन अर्पित करते हुए भक्तों को प्रेमपूर्ण शब्द सुनना कृष्ण के द्वारा भोजन करने तथा उसके स्वाद लेने के ही समरूप है। इस बात पर इसीलिए बल देना होगा क्योंकि अपनी सर्वोच्च स्थिति के कारण उनका सुनना उनके भोजन करने के ही समरूप है। केवल भक्त ही बिना तर्क के यह समझ सकता है कि परब्रह्म भोजन कर सकते हैं और उसका स्वाद ले सकते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोSपि माम् ।। 25 ।।

यान्ति– जाते हैं;देव-व्रताः– देवताओं के उपासक;देवान्– देवताओं के पास;पितृृन्– पितरों के पास;यान्ति– जाते हैं;पितृ-व्रताः– पितरों के उपासक;भूतानि– भूत-प्रेतों के पास;यान्ति– जाते हैं;भूत-इज्याः– भूत-प्रेतों के उपासक;यान्ति– जाते हैं;मत्– मेरे;याजिनः– भक्तगण;अपि– लेकिन;माम्– मेरे पास।

भावार्थ : जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं।

तात्पर्य : यदि कोई चन्द्रमा, सूर्य या अन्य लोक को जाना चाहता है तो वह अपने गन्तव्य को बताये गये विशिष्ट वैदिक नियमों का पालन करके प्राप्त कर सकता है। इनका विशद वर्णन वेदों के कर्मकाण्ड अंश दर्शपौर्णमासी में हुआ है, जिसमें विभिन्न लोकों में स्थित देवताओं के लिए विशिष्ट पूजा का विधान है। इसी प्रकार विशिष्ट यज्ञ करके पितृलोक प्राप्त किया जा सकता है। पिशाच पूजा को काला जादू कहते हैं। अनेक लोग इस काले जादू का अभ्यास करते हैं और सोचते हैं कि यह अध्यात्म है, किन्तु ऐसे कार्यकलाप नितान्त भौतिकतावादी हैं। इसी तरह शुद्धभक्त केवल भगवान् की पूजा करके निस्सन्देह वैकुण्ठलोक तथा कृष्णलोक की प्राप्ति करता है। इस श्लोक के माध्यम से यह समझना सुगम है कि जब देवताओं की पूजा करके कोई स्वर्ग प्राप्त कर सकता है, तो फिर शुद्धभक्त कृष्ण या विष्णु के लोक क्यों नहीं प्राप्त कर सकता? दुर्भाग्यवश अनेक लोगों को कृष्ण तथा विष्णु के दिव्यलोकों की सूचना नहीं है, अतः न जानने के कारण वे नीचे गिर जाते हैं। यहाँ तक निर्विशेषवादी भी ब्रह्मज्योति से नीचे गिरते हैं। इसीलिए कृष्णभावनामृत आन्दोलन इस दिव्य सूचना को समूचे मानव समाज में वितरित करता है कि केवल हरे कृष्ण मन्त्र के जाप से ही मनुष्य सिद्ध हो सकता है और भगवद्धाम को वापस जा सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् 22

अनन्याः– जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से;चिन्तयन्तः– चिन्तन करते हुए;माम्– मुझको;ये– जो;जनाः– व्यक्ति;पर्युपासते– ठीक से पूजते हैं;तेषाम्– उन;नित्य– सदा;अभियुक्तानाम्– भक्ति में लीन मनुष्यों की;योग– आवश्यकताएँ;क्षेमम्– सुरक्षा, आश्रय;वहामि– वहन करता हूँ;अहम्– मैं।

भावार्थ : किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ।

तात्पर्य : जो एक क्षण भी कृष्णभावनामृत के बिना नहीं रह सकता, वह चौबीस घण्टे कृष्ण का चिन्तन करता है और श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, वन्दन, अर्चन, दास्य, सख्यभाव तथा आत्मनिवेदन के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की सेवा में रत रहता है। ऐसे कार्य शुभ होते हैं और आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण होते हैं, जिससे भक्त को आत्म-साक्षात्कार होता है और उसकी यही एकमात्र कामना रहती है कि वह भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करे। ऐसा भक्त निश्चित रूप से बिना किसी कठिनाई के भगवान् के पास पहुँचता है। यह योग कहलाता है। ऐसा भक्त भगवत्कृपा से इस संसार में पुनः नहीं आता। क्षेम का अर्थ है भगवान् द्वारा कृपामय संरक्षण। भगवान् योग द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने में सहायक बनते हैं और जब भक्त पूर्ण कृष्णभावनाभावित हो जाता है तो भगवान् उसे दुखमय बद्धजीवन में फिर से गिरने से उसकी रक्षा करते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।

नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते ।। 14 ।।

सततम्– निरन्तर;कीर्तयन्तः– कीर्तन करते हुए;माम्– मेरे विषयमें;यतन्तः– प्रयास करते हुए;– भी;दृढ़-व्रताः– संकल्पपूर्वक;नमस्यन्तः–नमस्कार करते हुए;– तथा;माम्– मुझको;भक्त्या– भक्ति में;नित्य-युक्ताः–सदैव रत रहकर;उपासते– पूजा करते हैं।

भावार्थ : ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं।

तात्पर्य : सामान्य पुरुष को रबर की मुहर लगाकर महात्मा नहीं बनाया जाता। यहाँ पर उसके लक्षणों का वर्णन किया गया है – महात्मा सदैव भगवान् कृष्ण के गुणों का कीर्तन करता रहता है, उसके पास कोई दूसरा कार्य नहीं रहता। वह सदैव कृष्ण के गुण-गान में व्यस्त रहता है। दूसरे शब्दों में, वह निर्विशेषवादी नहीं होता। जब गुण-गान का प्रश्न उठे तो मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् के पवित्र नाम, उनके नित्य रूप, उनके दिव्य गुणों तथा असामान्य लीलाओं की प्रशंसा करते हुए परमेश्वर को महिमान्वित करे। उसे इन सारी वस्तुओं को महिमान्वित करना होता है, अतः महात्मा भगवान् के प्रति आसक्त रहता है।

जो व्यक्ति परमेश्वर के निराकार रूप, ब्रह्मज्योति, के प्रति आसक्त होता है उसे भगवद्गीता में महात्मा नहीं कहा गया। उसे अगले श्लोक में अन्य प्रकार से वर्णित किया गया है। महात्मा सदैव भक्ति के विविध कार्यों में, यथा विष्णु के श्रवण-कीर्तन में, व्यस्त रहता है, जैसा कि श्रीमद्भागवत में उल्लेख है। यही भक्ति श्रवणं कीर्तनं विष्णोः तथा स्मरणं है। ऐसा महात्मा अन्ततः भगवान् के पाँच दिव्य रसों में से किसी एक रस में उनका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए दृढव्रत होता है। इसे प्राप्त करने के लिए वह मनसा वाचा कर्मणा अपने सारे कार्यकलाप भगवान् कृष्ण की सेवा में लगाता है। यही पूर्ण कृष्णभावनामृत कहलाता है।
भक्ति में कुछ कार्य हैं जिन्हें दृढव्रत कहा जाता है, यथा प्रत्येक एकादशी को तथा भगवान् के आविर्भाव दिवस (जन्माष्टमी) पर उपवास करना। ये सारे विधि-विधान महान आचार्यों द्वारा उन लोगों के लिए बनाये गये हैं जो दिव्यलोक में भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं। महात्माजन इन विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करते हैं। फलतः उनके लिए वाञ्छित फल की प्राप्ति निश्चित रहती है।

जैसा कि इसी अध्याय के द्वितीय श्लोक में कहा गया है, यह भक्ति न केवल सरल है अपितु, इसे सुखपूर्वक किया जा सकता है। इसके लिए कठिन तपस्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मनुष्य सक्षम गुरु के निर्देशन में इस जीवन को गृहस्थ, संन्यासी या ब्रह्मचारी रहते हुए भक्ति में बिता सकता है। वह संसार में किसी भी अवस्था में कहीं भी भगवान् की भक्ति करके वास्तव में महात्मा बन सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। 13 ।।

महा-आत्मनः– महापुरुष;तु– लेकिन;माम्– मुझको;पार्थ– हे पृथापुत्र;देवीम्– दैवी;प्रकृतिम्– प्रकृति के;आश्रिताः– शरणागत;भजन्ति– सेवा करते हैं;अनन्य-मनसः– अविचलित मन से;ज्ञात्वा– जानकर;भूत– सृष्टि का;आदिम्– उद्गम;अव्ययम्– अविनाशी।
भावार्थ : हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं।

तात्पर्य : इस श्लोक में महात्मा का वर्णन हुआ है। महात्मा का सबसे पहला लक्षण यह है कि वह दैवी प्रकृति में स्थित रहता है। वह भौतिक प्रकृति के अधीन नहीं होता और यह होता कैसे है? इसकी व्याख्या सातवें अध्याय में की गई है – जो भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता है वह तुरन्त भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है। यही वह पात्रता है। ज्योंही कोई भगवान् का शरणागत हो जाता है वह भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है। यही मूलभूत सूत्र है। तटस्था शक्ति होने के कारण जीव ज्योंही भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त होता है त्योंही वह आध्यात्मिक प्रकृति के निर्देशन में चला जाता है। आध्यात्मिक प्रकृति का निर्देशन ही दैवी प्रकृति कहलाती है। इस प्रकार से जब कोई भगवान् के शरणागत होता है तो उसे महात्मा पद की प्राप्ति होती है।

महात्मा अपने ध्यान को कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी ओर नहीं ले जाता, क्योंकि वह भलीभाँति जानता है कि कृष्ण ही आदि परम् पुरुष, समस्त कारणों के कारण हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। ऐसा महात्मा अन्य महात्माओं या शुद्धभक्तों की संगति से प्रगति करता है। शुद्धभक्त तो कृष्ण के अन्य स्वरूपों, यथा चतुर्भुज महाविष्णु रूप से भी आकृष्ट नहीं होते। वे न तो कृष्ण के अन्य किसी रूप से आकृष्ट होते हैं, न ही वे देवताओं या मनुष्यों के किसी रूप की परवाह करते हैं। वे कृष्णभावनामृत में केवल कृष्ण का ध्यान करते हैं। वे कृष्णभावनामृत में निरन्तर भगवान् की अविचल सेवा में लगे रहते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ।। 12 ।।

मोघ-आशाः– निष्फल आशा;मोघ-कर्माणः– निष्फल सकाम कर्म;मोघ-ज्ञानाः– विफल ज्ञान;विचेतसः– मोहग्रस्त;राक्षसीम्– राक्षसी;आसुरीम्– आसुरी;– तथा;एव– निश्चय ही;प्रकृतिम्– स्वभाव को;मोहिनीम्– मोहने वाली;श्रिताः– शरण ग्रहण किये हुए।
भावार्थ : जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।

तात्पर्य : ऐसे अनेक भक्त हैं जो अपने को कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में रत दिखलाते हैं, किन्तु अन्तः-करण से वे भगवान् कृष्ण को परब्रह्म नहीं मानते। ऐसे लोगों को कभी भी भक्ति-फल—भगवद्धाम गमन-प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार जो पुण्यकर्मों में लगे रहकर अन्ततोगत्वा इस भवबन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, वे भी सफल नहीं हो पाते, क्योंकि वे कृष्ण का उपहास करते हैं। दूसरे शब्दों में, जो लोग कृष्ण पर हँसते हैं, उन्हें आसुरी या नास्तिक समझना चाहिए। जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जा चुका है, ऐसे आसुरी दुष्ट कभी भी कृष्ण की शरण में नहीं जाते। अतः परमसत्य तक पहुँचने के उनके मानसिक चिन्तन उन्हें इस मिथ्या परिणाम को प्राप्त कराते हैं कि सामान्य जीव तथा कृष्ण एक समान हैं। ऐसी मिथ्या धारणा के कारण वे सोचते हैं कि अभी तो ह शरीर प्रकृति द्वारा केवल आच्छादित है और ज्योंही व्यक्ति मुक्त होगा, तो उसमें तथा ईश्वर में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। कृष्ण से समता का यह प्रयास भ्रम के कारण निष्फल हो जाता है। इस प्रकार का आसुरी तथा नास्तिक ज्ञान-अनुशीलन सदैव व्यर्थ रहता है, यही इस श्लोक का संकेत है। ऐसे व्यक्तियों के लिए वेदान्त सूत्र तथा उपनिषदों जैसे वैदिक वाङ्मय के ज्ञान का अनुशीलन सदा निष्फल होता है। अतः भगवान् कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानना घोर अपराध है। जो ऐसा करते हैं वे निश्चित रूप से मोहग्रस्त रहते हैं, क्योंकि वे कृष्ण के शाश्वत रूप को नहीं समझ पाते। बृहद्विष्णु स्मृति का कथन है –

यो वेति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः।

स सर्वस्माद् बहिष्कार्यः श्रौतस्मार्तविधानतः ।

मुखं तस्यावलोक्यापि सचेलं स्नानमाचरेत् ।।

जो कृष्ण के शरीर को भौतिक मानता है उसे श्रुति तथा स्मृति के समस्त अनुष्ठानों से वंचित कर देना चाहिए। यदि कोई भूल से उसका मुँह देख ले तो उसे तुरन्त गंगा स्नान करना चाहिए , जिसे छूत दूर हो सके।लोग कृष्ण की हँसी उड़ाते हैं क्योंकि वे भगवान् से ईर्ष्या करते हैं। उनके भाग्य में जन्म-जन्मान्तर नास्तिक तथा असुर योनियों में रहे आना लिखा है। उनका वास्तविक ज्ञान सदैव के लिए भ्रम में रहेगा और धीरे-धीरे वे सृष्टि के गहनतम अन्धकार में गिरते जायेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय नौ परम गुह्य ज्ञान

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्  ।। -11- ।।

अवजानन्ति– उपहास करते हैं;माम्– मुझको;मूढाः– मूर्ख व्यक्ति;मानुषीम्– मनुष्य रूप में;तनुम्– शरीर;अश्रितम्– मानते हुए;परम्– दिव्य;भावम्– स्वभाव को;अजानन्तः– न जानते हुए;मम– मेरा;भूत– प्रत्येक वस्तु का;महा-ईश्वरम्– परम स्वामी।
भावार्थ : जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।

तात्पर्य : इस अध्याय के पूर्ववर्ती श्लोकों से यह स्पष्ट है कि यद्यपि भगवान् मनुष्य रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु वे सामान्य व्यक्ति नहीं होते। जो भगवान् सारे विराट जगत का सृजन, पालन तथा संहार करता हो वह मनुष्य नहीं हो सकता। तो भी अनेक मूर्ख हैं, जो कृष्ण को शक्तिशाली पुरुष के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। वस्तुतः वे आदि परमपुरुष हैं, जैसा कि ब्रह्मसंहिता में प्रमाण स्वरूप कहा गया है – ईश्वरः परमः कृष्णः – वे परम ईश्वर हैं।

ईश्वर या नियन्ता अनेक हैं और वे एक दूसरे से बढ़कर प्रतीत होते हैं। भौतिक जगत् में सामान्य प्रबन्धकार्यों का कोई न कोई निर्देशक होता है, जिसके ऊपर एक सचिव होता है, फिर उसके ऊपर मन्त्री तथा अन्य उससे भी ऊपर राष्ट्रपति होता है। इनमें से हर एक नियन्त्रक होता है, किन्तु एक दूसरे के द्वारा नियन्त्रित होता है। ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि कृष्ण परम नियन्ता हैं। निस्सन्देह भौतिक जगत् तथा वैकुण्ठलोक दोनों में ही कई-कई निर्देशक होते हैं, किन्तु कृष्ण परम नियन्ता हैं (ईश्वरः परमः कृष्णः) तथा उनका शरीर सच्चिदानन्द रूप अर्थात् अभौतिक होता है।

पिछले श्लोकों में जिन अद्भुत कार्यकलापों का वर्णन हुआ है, वे भौतिक शरीर द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकते। कृष्ण का शरीर सच्चिदानन्द रूप है। यद्यपि वे सामान्य व्यक्ति नहीं हैं, किन्तु मूर्ख लोग उनका उपहास करते हैं और उन्हें मनुष्य मानते हैं। उनका शरीर यहाँ मानुषीम् कहा गया है, क्योंकि वे कुरुक्षेत्र युद्ध में एक राजनीतिज्ञ और अर्जुन के मित्र की भाँति सामान्य व्यक्ति बनकर कर्म करते हैं। वे अनेक प्रकार से सामान्य पुरुष की भाँति कर्म करते हैं, किन्तु उनका शरीर सच्चिदानन्द विग्रह रूप है। इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य में भी हुई है। सच्चिदानन्द रूपाय कृष्णाय – मैं भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो सच्चिदान्नद रूप हैं (गोपाल तापनी उपनिषद् १.)वेदों में ऐसे अन्य वर्णन भी हैं। तमेकं गोविन्दम् – आप इन्द्रियों तथा गायों के आनन्दस्वरूप गोविन्द हैं। सच्चिदान्नदविग्रहम् – तथा आपका रूप सच्चिदान्नद स्वरूप है (गोपाल तापनी उपनिषद् १.३५)

भगवान् कृष्ण के सच्चिदानन्दस्वरूप होने पर भी ऐसे अनेक तथाकथित विद्वान तथा भगवद्गीता के टीकाकार हैं जो कृष्ण को सामान्य पुरुष कहकर उनका उपहास करते हैं। भले ही अपने पूर्व पुण्यों के कारण विद्वान असाधारण व्यक्ति के रूप में पैदा हुआ हो, किन्तु श्रीकृष्ण के बारे में ऐसी धारणा उसकी अल्पज्ञता के कारण होती है। इसीलिए वह मूढ़ कहलाता है, क्योंकि मूर्ख पुरुष ही कृष्ण को सामान्य पुरुष मानते हैं। ऐसे मूर्ख पुरुष कृष्ण को सामान्य पुरुष इसीलिए मानते हैं, क्योंकि वे कृष्ण के गुह्य कार्यों तथा उनकी विभिन्न शक्तियों से अपरिचित होते हैं। वे यह नहीं जानते कि कृष्ण का शरीर पूर्णज्ञान तथा आनन्द का प्रतीक है, वे प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं और किसी को भी मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। चूँकि वे कृष्ण के इतने सारे दिव्य गुणों को नहीं जानते, इसीलिए उनका उपहास करते हैं।

ये मूढ़ यह भी नहीं जानते कि इस जगत् में भगवान् का अवतरण उनकी अन्तरंगा शक्ति का प्राकट्य है। वे भौतिक शक्ति (माया) के स्वामी हैं। जैसा कि अनेक स्थलों पर कहा जा चुका है (मम माया दुरत्यया), भगवान् का दावा है कि यद्यपि भौतिक शक्ति अत्यन्त प्रबल है, किन्तु वह उनके वश में रहती है और जो भी उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, वह इस माया के वश से बाहर निकल आता है। यदि कृष्ण का शरणागत जीव माया के प्रभाव से बाहर निकल सकता है, तो भला परमेश्वर जो सम्पूर्ण विराट जगत् का सृजन, पालन तथा संहारकर्ता है, हम लोगों जैसा शरीर कैसे धारण कर सकता है? अतः कृष्ण विषयक ऐसी धारणा मूर्खतापूर्ण है। फिर भी मूर्ख व्यक्ति यह नहीं समझ सकते कि सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट होने वाले भगवान् समस्त परमाणुओं तथा इस विराट ब्रह्माण्ड के नियन्ता किस तरह हो सकते हैं। बृहत्तम तथा सूक्ष्मतम तो उनकी विचार शक्ति से परे होते हैं, अतः वे यह सोच भी नहीं सकते कि मनुष्य-जैसा रूप कैसे एक साथ विशाल को तथा अणु को वश में कर सकता है। यद्यपि कृष्ण असीम तथा ससीम को नियन्त्रित करते हैं, किन्तु वे इस जगत् से विलग रहते हैं। उनके योगमैश्वरम् या अचिन्त्य दिव्य शक्ति के विषय में कहा गया है कि वे एकसाथ ससीम तथा असीम को वश में रख सकते हैं, किन्तु जो शुद्ध भक्त हैं वे इसे स्वीकार करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि कृष्ण भगवान् हैं। अतः वे पूर्णतया उनकी शरण में जाते हैं और कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की भक्ति में अपने को रत रखते हैं।

सगुणवादियों तथा निर्गुणवादियों में भगवान् के मनुष्य रूप में प्रकट होने को लेकर काफी मतभेद है। किन्तु यदि हम भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे प्रामाणिक ग्रंथों का अनुशीलन कृष्णतत्त्व समझने के लिए करें तो हम समझ सकते हैं कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं। यद्यपि वे इस धराधाम में सामान्य व्यक्ति की भाँति प्रकट हुए थे, किन्तु वे सामान्य व्यक्ति हैं नहीं। श्रीमद्भागवत में (..२०) जब शौनक आदि मुनियों ने सूत गोस्वामी से कृष्ण के कार्यकलापों के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा –

कृतवान् किल कर्माणि सह रामेण केशवः ।

अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः ।।

भगवान् श्रीकृष्ण ने बलराम के साथ-साथ मनुष्य की भाँति क्रीड़ा की और इस तरह प्रच्छन्न रूप में उन्होंने अनेक अतिमानवीय कार्य किये।मनुष्य के रूप में भगवान् का प्राकट्य मूर्ख को मोहित बना देता है। कोई भी मनुष्य उन अलौकिक कार्यों को सम्पन्न नहीं कर सकता जिन्हें उन्होंने इस धरा पर करके दिखा दिया था। जब कृष्ण अपने पिता तथा माता (वसुदेव तथा देवकी) के समक्ष प्रकट हुए तो वे चार भुजाओं से युक्त थे। किन्तु माता-पिता की प्रार्थना पर उन्होंने एक सामान्य शिशु का रूप धारण कर लिया – बभूव प्राकृतः शिशुः (भागवत १०..४६)वे एक सामान्य शिशु, एक सामान्य मानव बन गये। यहाँ पर भी यह इंगित होता है कि सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट होना उनके दिव्य शरीर का एक गुण है। भगवद्गीता के ग्याहरवें अध्याय में भी कहा गया है कि अर्जुन ने कृष्ण से अपना चतुर्भुज रूप दिखलाने के लिए प्रार्थना की (तैनेव रूपेण चतुर्भुजेन)इस रूप को प्रकट करने के बाद अर्जुन के प्रार्थना करने पर उन्होंने पूर्व मनुष्य रूप धारण कर लिया (मानुषं रूपम्)भगवान् के ये विभिन्न गुण निश्चय ही सामान्य मनुष्य जैसे नहीं हैं।

कतिपय लोग, जो कृष्ण का उपहास करते हैं और मायावादी दर्शन से प्रभावित होते हैं, श्रीमद्भागवत के निम्नलिखित श्लोक (.२१-२९) को यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत करते हैं कि कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति थे। अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा – परमेश्वर समस्त जीवों में विद्यमान हैं। अच्छा हो कि इस श्लोक को हम जीव गोस्वामी तथा विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जैसे वैष्णव आचार्यों से ग्रहण करें, न की कृष्ण का उपहास करने वाले अनधिकारी व्यक्तियों की व्याख्याओं से। जीव गोस्वामी इस श्लोक की टीका करते हुए कहते हैं कि कृष्ण समस्त चराचरों में अपने अंश विस्तार परमात्मा के रूप में स्थित हैं। अतः कोई भी नवदीक्षित भक्त जो मन्दिर में भगवान् की अर्चामूर्ति पर ही ध्यान देता है और अन्य जीवों का सम्मान नहीं करता वह वृथा ही मन्दिर में भगवान् की पूजा में लगा रहता है। भगवद्भक्तों के तीन प्रकार हैं, जिनमें से नवदीक्षित सबसे निम्न श्रेणी के हैं। नवदीक्षित भक्त अन्य भक्तों की अपेक्षा मन्दिर के अर्चविग्रह पर अधिक ध्यान देते हैं, अतः विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर चेतावनी देते हैं कि इस प्रकार की मानसिकता को सुधारना चाहिए। भक्त को समझना चाहिए कि चूँकि कृष्ण परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर का निवास या मन्दिर है, इसीलिए जिस तरह कोई भक्त भगवान् के मन्दिर का सम्मान करता है, वैसे ही उसे प्रत्येक व्यक्ति का समुचित सम्मान करना चाहिए, कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

ऐसे अनेक निर्विशेष वादी है जो मन्दिरपूजा का उपहास करते हैं। वे कहते हैं कि चूँकि भगवान् सर्वत्र हैं तो फिर अपने को हम मन्दिरपूजा तक ही सीमित क्यों रखें? यदि ईश्वर सर्वत्र हैं तो क्या वे मन्दिर या अर्चविग्रह में नहीं होंगे? यद्यपि सगुणवादी तथा निर्विशेषवादी निरन्तर लड़ते रहेंगे, किन्तु कृष्णभावनामृत में पूर्ण भक्त यह जानता है कि यद्यपि कृष्ण भगवान् हैं, किन्तु इसके साथ वे सर्वव्यापी भी हैं, जिसकी पुष्टि ब्रह्मसंहिता में हुई है। यद्यपि उनका निजी धाम गोलोक वृन्दावन है और वे वहीं निरन्तर वास करते हैं, किन्तु वे अपनी शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियों द्वारा तथा अपने स्वांश द्वारा भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत् में सर्वत्र विद्यमान रहते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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