jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

भूमिरापोSनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।

अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा 4

 

भूमिः– पृथ्वी;आपः– जल;अनलः– अग्नि;वायुः– वायु;खम्– आकाश;मनः– मन;बुद्धिः– बुद्धि;एव– निश्चय ही;– तथा;अहंकार– अहंकार;इति– इस प्रकार;इयम्– ये सब;मे– मेरी;भिन्ना– पृथक्;प्रकृतिः– शक्तियाँ;अष्टधा– आठ प्रकार की।

भावार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं।

तात्पर्य : ईश्वर-विज्ञान भगवान् की स्वाभाविक स्थिति तथा उनकी विविध शक्तियों का विश्लेषण है। भगवान् के विभिन्न पुरुष अवतारों (विस्तारों) की शक्ति को प्रकृति कहा जाता है, जैसा कि सात्वततन्त्र में उल्लेख मिलता है –

विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरूषाख्यान्यथो विदुः।
एकं तु महतः स्त्रष्टृ द्वितीयं त्वण्डसंस्थितम् ।
तृतीयं सर्वभूतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते ।।

सृष्टि के लिए भगवान् कृष्ण का स्वांश तीन विष्णुओं का रूप धारण करता है। पहले महाविष्णु हैं, जो सम्पूर्ण भौतिक शक्ति महत्तत्व को उत्पन्न करते हैं। द्वितीय गर्भोदकशायी विष्णु हैं, जो समस्त ब्रह्माण्डों में प्रविष्ट होकर उनमें विविधता उत्पन्न करते हैं। तृतीय क्षीरोदकशायी विष्णु हैं जो समस्त ब्रह्माण्डों में सर्वव्यापी परमात्मा रूप में फैले हुए हैं और परमात्मा कहलाते हैं। वे प्रत्येक परमाणु तक के भीतर उपस्थित हैं। जो भी इन तीनों विष्णु रूपों को जानता है, वह भवबन्धन से मुक्त हो सकता है।”

यह भौतिक जगत् भगवान् की शक्तियों में से एक का क्षणिक प्राकट्य है। इस जगत् की सारी क्रियाएँ भगवान् कृष्ण के इन तीनों विष्णु अंशों द्वारा निर्देशित हैं। ये पुरुष अवतार कहलाते हैं। सामान्य रूप से जो व्यक्ति ईश्वर तत्त्व (कृष्ण) को नहीं जानता, वह यह मान लेता है कि यह संसार जीवों के भोग के लिए है और सारे जीव पुरुष हैं – भौतिक शक्ति के कारण, नियन्ता तथा भोक्ता हैं। भगवद्गीता के अनुसार यह नास्तिक निष्कर्ष झूठा है। प्रस्तुत श्लोक में कृष्ण को इस जगत् का आदि कारण माना गया है। श्रीमद्भागवत में भी इसकी पुष्टि होती है। भगवान् की पृथक्-पृथक् शक्तियाँ इस भौतिक जगत् के घटक हैं। यहाँ तक कि निर्विशेषवादियों का चरमलक्ष्य ब्रह्मज्योति भी एक अध्यात्मिक शक्ति है, जो परव्योम में प्रकट होती है। ब्रह्मज्योति में वैसी भिन्नताएँ नहीं, जैसी कि वैकुण्ठलोकों में हैं, फिर भी निर्विशेषवादी इस ब्रह्मज्योति को चरम शाश्वत लक्ष्य स्वीकार करते हैं। परमात्मा की अभिव्यक्ति भी क्षीरोदकशायी विष्णु का एक क्षणिक सर्वव्यापी पक्ष है। आध्यात्मिक जगत् में परमात्मा की अभिव्यक्ति शाश्वत नहीं होती। अतः यथार्थ परमसत्य तो श्रीभगवान् कृष्ण हैं। वे पूर्ण शक्तिमान पुरुष हैं और उनकी नाना प्रकार की भिन्ना तथा अन्तरंगा शक्तियाँ होती हैं।

जैसा की ऊपर कहा जा चुका है, भौतिक शक्ति आठ प्रधान रूपों में व्यक्त होती है। इनमें से प्रथम पाँच – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश स्थूल अथवा विराट सृष्टियाँ कहलाती हैं, जिनमें पाँच इन्द्रियविषय, जिनके नाम हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, तथा गंध – सम्मिलित रहते हैं। भौतिक विज्ञान में ये ही दस तत्त्व हैं। किन्तु अन्य तीन तत्त्वों को, जिनके नाम मन, बुद्धि तथा अहंकार हैं, भौतिकतावादी उपेक्षित रखते हैं। दार्शनिक भी, जो मानसिक कार्यकलापों से संबंध रखते हैं, पूर्णज्ञानी नहीं है, क्योंकि वे परम उद्गम कृष्ण को नहीं जानते। मिथ्या अहंकार – ‘मैं हूँ’ तथा ‘यह मेरा है’ – जो कि संसार का मूल कारण है इसमें विषयभोग की दस इन्द्रियों का समावेश है। बुद्धि महत्तत्व नामक समग्र भौतिक सृष्टि की सूचक है। अतः भगवान् की आठ विभिन्न शक्तियों से जगत् के चौबीस तत्त्व प्रकट हैं, जो नास्तिक सांख्यदर्शन के विषय हैं। ये मूलतः कृष्ण की शक्तियों की उपशाखाएँ हैं और उनसे भिन्न हैं, किन्तु नास्तिक सांख्य दार्शनिक अल्पज्ञान के कारण यह नहीं जान पाते कि कृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं। जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है, सांख्यदर्शन की विवेचना का विषय कृष्ण की बहिरंगा शक्ति का प्राकट्य है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय सात भगवदज्ञान

मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः 3

 

मनुष्याणाम्– मनुष्यों में से;सहस्त्रेषु– हजारों;कश्चित्– कोई एक;यतति– प्रयत्न करता है;सिद्धये– सिद्धि के लिए;यतताम्– इस प्रकार प्रयत्न करने वाले;अपि– निस्सन्देह;सिद्धानाम्– सिद्ध लोगों में से;कश्चित्– कोई एक;माम्– मुझको;वेत्ति– जानता है;तत्त्वतः– वास्तव में।
भावार्थ : कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई मुझे वास्तव में जान पाता है।

तात्पर्य : मनुष्यों की विभिन्न कोटियाँ हैं और हजारों मनुष्यों में से शायद विरला मनुष्य ही यह जानने में रूचि रखता है कि आत्मा क्या है, शरीर क्या है, और परमसत्य क्या है। सामान्यतया मानव आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन जैसी पशुवृत्तियों में लगा रहता है और मुश्किल से कोई एक दिव्यज्ञान में रूचि रखता है। गीता के प्रथम छह अध्याय उन लोगों के लिए हैं जिनकी रूचि दिव्यज्ञान में, आत्मा, परमात्मा तथा ज्ञानयोग, ध्यानयोग द्वारा अनुभूति की क्रिया में तथा पदार्थ से आत्मा के पार्थक्य को जानने में है। किन्तु कृष्ण तो केवल उन्हीं व्यक्तियों द्वारा ज्ञेय हैं जो कृष्णभावनाभावित हैं। अन्य योगी निर्विशेष ब्रह्म-अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि कृष्ण को जानने की अपेक्षा यह सुगम है। कृष्ण परमपुरुष हैं, किन्तु साथ ही वे ब्रह्म तथा परमात्मा-ज्ञान से परे हैं। योगी तथा ज्ञानीजन कृष्ण को नहीं समझ पाते। यद्यपि महानतम निर्विशेषवादी (मायावादी) शंकराचार्य ने अपने गीता – भाष्य में स्वीकार किया है कि कृष्ण भगवान् हैं, किन्तु उनके अनुयायी इसे स्वीकार नहीं करते, क्योंकि भले ही किसी को निर्विशेष ब्रह्म की दिव्य अनुभूति क्यों न हो, कृष्ण को जान पाना अत्यन्त कठिन है। कृष्ण भगवान् समस्त कारणों के कारण, आदि पुरुष गोविन्द हैं।

ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः।

अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्

अभक्तों के लिए उन्हें जान पाना अत्यन्त कठिन है। यद्यपि अभक्तगण यह घोषित करते हैं कि भक्ति का मार्ग सुगम है, किन्तु वे इस पर चलते नहीं। यदि भक्तिमार्ग इतना सुगम है जितना अभक्तगण कहते हैं तो फिर वे कठिन मार्ग को क्यों ग्रहण करते हैं? वास्तव में भक्तिमार्ग सुगम नहीं है। भक्ति के ज्ञान में हीन अनधिकारी लोगों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला तथाकथित भक्तिमार्ग भले ही सुगम हो, किन्तु जब विधि-विधानों के अनुसार दृढ़तापूर्वक इसका अभ्यास किया जाता है तो मीमांसक तथा दार्शनिक इस मार्ग से च्युत हो जाते हैं। श्रील रूप गोस्वामी अपनी कृति भक्तिरसामृत सिन्धु में (..१०१) लिखते हैं –

श्रुति स्मृतिपुराणादि पञ्चरात्रविधिं विना
एकान्तिकी हरेर्भक्तिरुत्पातायैव कल्पते

वह भगवद्भक्ति, जो उपनिषदों, पुराणों तथा नारद पंचरात्र जैसे प्रामाणिक वैदिक ग्रंथों की अवहेलना करती है, समाज में व्यर्थ ही अव्यवस्था फैलाने वाली है।”
ब्रह्मवेत्ता निर्विशेषवादी या परमात्मावेत्ता योगी भगवान् श्रीकृष्ण को यशोदा-नन्दन या पार्थसारथी के रूप में कभी नहीं समझ सकते। कभी-कभी बड़े-बड़े देवता भी कृष्ण के विषय में भ्रमित हो जाते हैं – मुह्यन्ति यत्सूरयः। मां तु वेद न कश्चचन – भगवान् कहते हैं कि कोई भी मुझे उस रूप में तत्त्वतः नहीं जानता, जैसा मैं हूँ। और यदि कोई जानता है – स महात्मा सुदुर्लभः – तो ऐसा महात्मा विरला होता है। अतः भगवान् की भक्ति किये बिना कोई भगवान् को तत्त्वतः नहीं जान पाता, भले ही वह महान विद्वान् या दार्शनिक क्यों न हो। केवल शुद्ध भक्त ही कृष्ण के अचिन्त्य गुणों को सब कारणों के कारण रूप में उनकी सर्वशक्तिमत्ता तथा ऐश्वर्य, उनकी सम्पत्ति, यश, बल, सौन्दर्य, ज्ञान तथा वैराग्य के विषय में कुछ-कुछ जान सकता है, क्योंकि कृष्ण अपने भक्तों पर दयालु होते हैं। ब्रह्म-साक्षात्कार की वे पराकाष्ठा हैं और केवल भक्तगण ही उन्हें तत्त्वतः जान सकते हैं। अतएव भक्तिरसामृत सिन्धु में (..२३४) कहा गया है –

अतः श्रीकृष्णनामादि न भवेद्ग्राह्यमिन्द्रियैः।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः

कुंठित इन्द्रियों के द्वारा कृष्ण को तत्त्वतः नहीं समझा जा सकता। किन्तु भक्तों द्वारा की गई अपनी दिव्यसेवा से प्रसन्न होकर वे भक्तों को आत्मतत्त्व प्रकाशित करते हैं।”

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय छह ध्यानयोग

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः 47


योगिनाम्– योगियों में से;अपि– भी;सर्वेषाम्– समस्त प्रकार के;मत्-गतेन– मेरे परायण, सदैव मेरे विषय में सोचते हुए;अन्तः-आत्मना– अपने भीतर;श्रद्धावान्– पूर्ण श्रद्धा सहित;भजते– दिव्य प्रेमाभक्ति करता है;यः– जो;माम्– मेरी (परमेश्वर की);सः– वह;मे– मेरे द्वारा;युक्त-तमः– परम योगी;मतः– माना जाता है।

भावार्थ : और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।

तात्पर्य : यहाँ पर भजते शब्द महत्त्वपूर्ण है। भजते भज् धातु से बना है जिसका अर्थ है-सेवा करना। अंग्रेजी शब्द वर्शिप (पूजन) से यह भाव व्यक्त नहीं होता, क्योंकि इससे पूजा करना, सम्मान दिखाना तथा योग्य का सम्मान करना सूचित होता है। किन्तु प्रेम तथा श्रद्धापूर्वक सेवा तो श्रीभगवान् के निमित्त है। किसी सम्माननीय व्यक्ति या देवता की पूजा न करने वाले को अशिष्ट कहा जा सकता है, किन्तु भगवान् की सेवा न करने वाले की तो पूरी तरह भर्त्सना की जाती है। प्रत्येक जीव भगवान् का अंशस्वरूप है और इस तरह प्रत्येक जीव को अपने स्वभाव के अनुसार भगवान् की सेवा करनी चाहिए। ऐसा न करने से वह नीचे गिर जाता है। भागवत पुराण में (११..) इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है–

य एषां पुरुषं साक्षादात्मप्रभवमीश्वरम् ।

न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्भ्रष्टाः पतन्त्यधः ।

जो मनुष्य अपने जीवनदाता आद्य भगवान् की सेवा नहीं करता और अपने कर्तव्य में शिथिलता बरतता है, वह निश्चित रूप से अपनी स्वाभाविक स्थिति से नीचे गिरता है।
भागवत पुराण के इस श्लोक में भजन्ति शब्द व्यवहृत हुआ है। भजन्ति शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिए ही प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि वर्शिप (पूजन) का प्रयोग देवताओं या अन्य किसी सामान्य जीव के लिए किया जाता है-अवजानन्ति मां मूढाः – केवल मुर्ख तथा धूर्त भगवान् कृष्ण का उपहास करते हैं। ऐसे मुर्ख भगवद्भक्ति की प्रवृत्ति न होने पर भी भगवद्गीता का भाष्य कर बैठते हैं। फलतः वे भजन्ति तथा वर्शिप (पूजन) शब्दों के अन्तर को नहीं समझ पाते।

भक्तियोग समस्त योगों की परिणति है। अन्य योग तो भक्तियोग में भक्ति तक पहुँचने के साधन मात्र हैं। योग का वास्तविक अर्थ भक्तियोग है – अन्य सारे योग भक्तियोग रूपी गन्तव्य की दिशा में अग्रसर होते हैं। कर्मयोग से लेकर भक्तियोग तक का लम्बा रास्ता आत्म-साक्षात्कार तक जाता है। निष्काम कर्मयोग इस रास्ते (मार्ग) का आरम्भ है। जब कर्मयोग में ज्ञान तथा वैराग्य की वृद्धि होती है तो यह अवस्था ज्ञानयोग कहलाती है। जब ज्ञानयोग में अनेक भौतिक विधियों से परमात्मा के ध्यान में वृद्धि होने लगती है और मन उन पर लगा रहता है तो इसे अष्टांगयोग कहते हैं। इस अष्टांगयोग को पार करने पर जब मनुष्य श्रीभगवान् कृष्ण के निकट पहुँचता है तो वह भक्तियोग कहलाता है। यथार्थ में भक्तियोग ही चरम लक्ष्य है, किन्तु भक्तियोग का सूक्ष्म विश्लेषण करने के लिए अन्य योगों को समझना होता है। अतः जो योगी प्रगतिशील होता है वह शाश्वत कल्याण के सही मार्ग पर रहता है। जो किसी एक बिन्दु पर दृढ़ रहता है और आगे प्रगति नहीं करता वह कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, राजयोगी, हठयोगी आदि नामों से पुकारा जाता है। यदि कोई इतना भाग्यशाली होता है कि भक्तियोग को प्राप्त हो सके तो यह समझना चाहिए कि उसने समस्त योगों को पार कर लिया है। अतः कृष्णभावनाभावित होना योग की सर्वोच्च अवस्था है, ठीक उसी तरह जैसे कि हम यह कहते हैं कि विश्व भर के पर्वतों में हिमालय सबसे ऊँचा है, जिसकी सर्वोच्च चोटी एवरेस्ट है।

कोई विरला भाग्यशाली ही वैदिक विधान के अनुसार भक्तियोग के पथ को स्वीकार करके कृष्णभावनाभावित हो पाता है। आदर्श योगी श्यामसुन्दर कृष्ण पर अपना ध्यान एकाग्र करता है, जो बादल के समान सुन्दर रंग वाले हैं, जिनका कमल सदृश मुख सूर्य के समान तेजवान है, जिनका वस्त्र रत्नों से प्रभापूर्ण है और जिनका शरीर फूलों की माला से सुशोभित है। उनके अंगों को प्रदीप्त करने वाली उनकी ज्योति ब्रह्मज्योति कहलाती है। वे राम, नृसिंह, वराह तथा श्रीभगवान् कृष्ण जैसे विभिन्न रूपों में अवतरित होते हैं। वे सामान्य व्यक्ति की भाँति, माता यशोदा में पुत्र रूप में जन्म ग्रहण करते हैं और कृष्ण, गोविन्द तथा वासुदेव के नाम से जाने जाते हैं। वे पूर्ण बालक, पूर्ण पति, पूर्ण सखा तथा पूर्ण स्वामी हैं, और वे समस्त ऐश्वर्यों तथा दिव्य गुणों से ओतप्रोत हैं। जो श्रीभगवान् के इन गुणों से पूर्णतया अभिज्ञ रहता है वह सर्वोच्च योगी कहलाता है।

योगी की यह सर्वोच्च दशा केवल भक्तियोग से ही प्राप्त की जा सकती है जिसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.२३) –

यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।

जिन महात्माओं के हृदय में श्रीभगवान् तथा गुरु में परम श्रद्धा होती है उनमें वैदिक ज्ञान का सम्पूर्ण तात्पर्य स्वतः प्रकाशित हो जाता है।भक्तिरस्य भजनं तदिहामुत्रोपाधिनैरास्येनामुष्मिन् मनःकल्पनमेतदेव नैष्कर्म्यम् – भक्ति का अर्थ है, भगवान् की सेवा जो इस जीवन में या अगले जीवन में भौतिक लाभ की इच्छा से रहित होती है। ऐसी प्रवृत्तियों से मुक्त होकर मनुष्य को अपना मन परमेश्वर में लीन करना चाहिये। नैष्कर्म्य का यही प्रयोजन है (गोपाल-तापनी उपनिषद् १.)ये सभी कुछ ऐसे साधन हैं जिनसे योग की परसंसिद्धिमयी अवस्था भक्ति या कृष्णभावनामृत को सम्पन्न किया जा सकता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय छह ध्यानयोग

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समाः ।

श्रुचीनां श्रीमतां ग्रेहे योगभ्रष्टोSभिजायते 41

प्राप्य– प्राप्त करके;पुण्य-कृताम्– पुण्य कर्म करने वालों के;लोकान्– लोकों में;उषित्वा– निवास करके;शाश्वतीः– अनेक;समाः– वर्ष;शुचीनाम्– पवित्रात्माओं के;श्री-मताम्– सम्पन्न लोगों के;ग्रेहे– घर में;योग-भ्रष्टः– आत्म-साक्षात्कार के पथ से च्युत व्यक्ति;अभिजायते– जन्म लेता है।

भावार्थ : असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या धनवानों के कुल में जन्म लेता है।

तात्पर्य : असफल योगियों की दो श्रेणियाँ हैं – एक वे जो बहुत थोड़ी उन्नति के बाद ही भ्रष्ट होते हैं; दुसरे वे जो दीर्घकाल तक योगाभ्यास के बाद भ्रष्ट होते हैं। जो योगी अल्पकालिक अभ्यास के बाद भ्रष्ट होता है वह स्वर्गलोक को जाता है जहाँ केवल पुण्यात्माओं को प्रविष्ट होने दिया जाता है। वहाँ पर दीर्घकाल तक रहने के बाद उसे पुनः इस लोक में भेजा जाता है जिससे वह किसी सदाचारी ब्राह्मण वैष्णव के कुल में या धनवान वणिक के कुल में जन्म ले सके। योगाभ्यास का वास्तविक उद्देश्य कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करना है, जैसा कि इस अध्याय के अन्तिम श्लोक में बताया गया है, किन्तु जो इतने अध्यवसायी नहीं होते और जो भौतिक प्रलोभनों के कारण असफल हो जाते हैं, उन्हें अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करने की अनुमति दी जाती है। तत्पश्चात् उन्हें सदाचारी या धनवान परिवारों में सम्पन्न जीवन बिताने का अवसर प्रदान किया जाता है। ऐसे परिवारों में जन्म लेने वाले इन सुविधाओं का लाभ उठाते हुए अपने आपको पूर्ण कृष्णभावनामृत तक ऊपर ले जाते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय छह ध्यानयोग

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ॥ 17

युक्त– नियमित;आहार– भोजन;विहारस्य– आमोद-प्रमोद का;युक्त– नियमित;चेष्टस्य– जीवन निर्वाह के लिए कर्म करने वाले का;कर्मसु– कर्म करने में;युक्त– नियमित;स्वप्न-अवबोधस्य– नींद तथा जागरण का;योगः– योगाभ्यास;भवति– होता है;दुःख-हा– कष्टों को नष्ट करने वाला।

 भावार्थ : जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।

तात्पर्य : खाने, सोने, रक्षा करने तथा मैथुन करने में – जो शरीर की आवश्यकताएँ हैं – अति करने से योगाभ्यास की प्रगति रुक जाती है। जहाँ तक खाने का प्रश्न है, इसे तो प्रसादम् या पवित्रकृत भोजन के रूप में नियमित बनाया जा सकता है। भगवद्गीता (.२६) के अनुसार भगवान् कृष्ण को शाक, फूल, फल, अन्न , दुग्ध आदि भेंट किये जाते हैं। इस प्रकार एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को ऐसा भोजन न करने का स्वतः प्रशिक्षण प्राप्त रहता है, जो मनुष्य के खाने योग्य नहीं होता या सतोगुणी नहीं होता। जहाँ तक सोने का प्रश्न हैं, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्णभावनामृत में कर्म करने में निरन्तर सतर्क रहता है, अतः निद्रा में वह व्यर्थ समय नहीं गँवाता। अव्यर्थ-कालत्वम् – कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपना एक मिनट का समय भी भगवान् की सेवा के बिना नहीं बिताना चाहता। अतः वह कम से कम सोता है। इसके आदर्श श्रील रूप गोस्वामी हैं, जो कृष्ण की सेवा में निरन्तर लगे रहते थे और दिनभर में दो घंटे से अधिक नहीं सोते थे, और कभी-कभी तो उतना भी नहीं सोते थे। ठाकुर हरिदास तो अपनी माला में तीन लाख नामों का जप किये बिना तो प्रसाद ग्रहण करते थे और सोते ही थे। जहाँ तक कार्य का प्रश्न है, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जो कृष्ण से सम्बन्धित हो। इस प्रकार उसका कार्य सदैव नियमित रहता है और इन्द्रियतृप्ति से अदूषित। चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए इन्द्रियतृप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता, अतः उसे तनिक भी भौतिक अवकाश नहीं मिलता। चूँकि वह अपने कार्य, वचन, निद्रा, जागृति तथा अन्य शारीरिक कार्यों में नियमित रहता है, अतः उसे कोई भौतिक दुःख नहीं सताता।
(
समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पाँच कर्मयोग -- कृष्णभावनाभावित कर्म

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति 29

भोक्तारम्– भोगने वाला, भोक्ता;यज्ञ– यज्ञ;तपसाम्– तपस्या का;सर्वलोक– सम्पूर्ण लोकों तथा उनके देवताओं का;महा-ईश्वरम्– परमेश्वर;सुहृदम्– उपकारी;सर्व– समस्त;भूतानाम्– जीवों का;ज्ञात्वा– इस प्रकार जानकर;माम्– मुझ (कृष्ण) को;शान्तिम्– भौतिक यातना से मुक्ति;ऋच्छति– प्राप्त करता है।

भावार्थ : मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का पर भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है।

तात्पर्य : माया से वशीभूत सारे बद्धजीव इस संसार में शान्ति प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं। किन्तु भगवद्गीता के इस अंश में वर्णित शान्ति के सूत्र को वे नहीं जानते। शान्ति का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि भगवान् कृष्ण समस्त मानवीय कर्मों के भोक्ता हैं। मनुष्यों को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान् की दिव्यसेवा में अर्पित कर दें क्योंकि वे ही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले देवताओं के स्वामी हैं। उनसे बड़ा कोई नहीं है। वे बड़े बड़े देवता, शिव तथा ब्रह्मा से भी महान हैं। वेदों में (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.) भगवान् को तमीश्वराणां परमं महेश्वरम् कहा गया है। माया के वशीभूत होकर सारे जीव सर्वत्र अपना प्रभुत्व जताना चाहते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सर्वत्र भगवान् की माया का प्रभुत्व है। भगवान् प्रकृति (माया) के स्वामी हैं और बद्धजीव प्रकृति के कठोर अनुशासन के अन्तर्गत हैं। जब तक कोई इन तथ्यों को समझ नहीं लेता तब तक संसार में व्यष्टि या समष्टि रूप से शान्ति प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं है। कृष्णभावनामृत का यही अर्थ है। भगवान् कृष्ण परमेश्वर हैं तथा देवताओं सहित सारे जीव उनके आश्रित हैं। पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहकर ही पूर्ण शान्ति प्राप्त की जा सकती है।

यह पाँचवा अध्याय कृष्णभावनामृत की, जिसे सामान्यतया कर्मयोग कहते हैं, व्यावहारिक व्याख्या है। यहाँ पर इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि कर्मयोग से मुक्ति किस तरह प्राप्त होती है। कृष्णभावनामृत में कार्य करने का अर्थ है परमेश्वर के रूप में भगवान् के पूर्णज्ञान के साथ कर्म करना। ऐसा कर्म दिव्यज्ञान से भिन्न नहीं होता। प्रत्यक्ष कृष्णभावनामृत भक्तियोग है और ज्ञानयोग वह पथ है जिससे भक्तियोग प्राप्त किया जाता है। कृष्णभावनामृत का अर्थ है– परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का पूर्णज्ञान प्राप्त करके कर्म करना और इस चेतना की पूर्णता का अर्थ है – कृष्ण या श्रीभगवान् का पूर्णज्ञान। शुद्ध जीव भगवान् के अंश रूप में ईश्वर का शाश्वत दास है। वह माया पर प्रभुत्व जताने की इच्छा से ही माया के सम्पर्क में आता है और यही उसके कष्टों का मूल कारण है। जब तक वह पदार्थ के सम्पर्क में रहता है उसे भौतिक आवश्यकताओं के लिए कर्म कर्म करना पड़ता है। किन्तु कृष्णभावनामृत उसे पदार्थ की परिधि में स्थित होते हुए भी आध्यात्मिक जीवन में ले आता है क्योंकि भौतिक जगत् में भक्ति का अभ्यास करने पर जीव का दिव्य स्वरूप पुनः प्रकट होता है। जो मनुष्य जितना ही प्रगत है वह उतना ही पदार्थ के बन्धन से मुक्त रहता है। भगवान् किसी का पक्षपात नहीं करते। यह तो कृष्णभावनामृत के लिए व्यक्तिगत व्यावहारिक कर्तव्यपालन पर निर्भर करता है जिससे मनुष्य इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त करके इच्छा तथा क्रोध के प्रभाव को जीत लेता है। और जो कोई उपर्युक्त कामेच्छाओं को वश में करके कृष्णभावनामृत में दृढ़ रहता है वह ब्रह्मनिर्वाण या दिव्य अवस्था को प्राप्त होता है। कृष्णभावनामृत में अष्टांगयोग पद्धति का स्वयमेव अभ्यास होता है क्योंकि इससे अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति होती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि के अभ्यास द्वारा धीरे-धीरे प्रगति हो सकती है। किन्तु भक्तियोग में तो ये प्रस्तावना के स्वरूप हैं क्योंकि केवल इसी से मनुष्य को पूर्णशान्ति प्राप्त हो सकती है। यही जीवन की परम सिद्धि है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पाँच कर्मयोग -- कृष्णभावनाभावित कर्म

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः 22

ये– जो;हि– निश्चय हि;संस्पर्श-जा– भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न;भोगाः– भोग;दुःख– दुःख;योनयः– स्त्रोत, कारण;एव– निश्चय हि;ते– वे;आदि– प्रारम्भ;अन्तवन्त– अन्तकाले;कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र;– कभी नहीं;तेषु– उनमें;रमते– आनन्द लेता है;बुधः– बुद्धिमान् मनुष्य।

भावार्थ : बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता।

तात्पर्य: भौतिक इन्द्रियसुख उन इन्द्रियों के स्पर्श से उद्भूत् हैं जो नाशवान हैं क्योंकि शरीर स्वयं नाशवान है। मुक्तात्मा किसी नाशवान वस्तु में रूचि नहीं रखता। दिव्य आनन्द के सुखों से भलीभाँति अवगत वह भला मिथ्या सुख के लिए क्यों सहमत होगा? पद्मपुराण में कहा गया है–

रमन्ते योगिनोSनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि ।

इति राम पदे नासौ परं ब्रह्मा भिधीयते ।

योगीजन परमसत्य में रमण करते हुए अनन्त दिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीलिए परमसत्य को भी राम कहा जाता है। ”भागवत (..) में भी कहा गया है –

नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये ।

तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ।

हे पुत्रो! इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियसुख के लिए अधिक श्रम करना व्यर्थ है। ऐसा सुख तो सूकरों को भी प्राप्य है। इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में तप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाय और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको।”
अतः जो यथार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं वे इन्द्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरन्तर भवरोग के कारण हैं। जो भौतिकसुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पाँच कर्मयोग -- कृष्णभावनाभावित कर्म

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
श्रुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ 18

विद्या– शिक्षण;विनय– तथा विनम्रता से;सम्पन्ने– युक्त;ब्राह्मणे– ब्राह्मण में;गवि– गाय में;हस्तिनि– हाथी में;शुनि– कुत्ते में;– तथा;एव– निश्चय ही;श्वपाके- कुत्ताभक्षी (चाण्डाल) में;– क्रमशः;पण्डिताः– ज्ञानी;सम-दर्शिनः– समान दृष्टि से देखने वाले।

भावार्थ: विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।

तात्पर्य: कृष्णभावनाभावित व्यक्ति योनि या जाति में भेद नहीं मानता। सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मण तथा चाण्डाल भिन्न-भिन्न हो सकते हैं अथवा योनि के अनुसार कुत्ता, गाय तथा हाथी भिन्न हो सकते हैं, किन्तु विद्वान् योगी की दृष्टि में ये शरीरगत भेद अर्थहीन होते हैं। इसका कारण परमेश्वर से उनका सम्बन्ध है और परमेश्वर परमात्मा रूप में हर एक के हृदय में स्थित हैं। परमसत्य का ऐसा ज्ञान वास्तविक (यथार्थ) ज्ञान है। जहाँ तक विभिन्न जातियों या विभिन्न योनियों में शरीर का सम्बन्ध है, भगवान् सबों पर समान रूप से दयालु हैं क्योंकि वे प्रत्येक जीव को अपना मित्र मानते हैं फिर भी जीवों की समस्त परिस्थितियों में वे अपना परमात्मा स्वरूप बनाये रखते हैं। परमात्मा रूप में भगवान् चाण्डाल तथा ब्राह्मण दोनों में उपस्थित रहते हैं, यद्यपि इन दोनों के शरीर एक से नहीं होते। शरीर तो प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न हुए हैं, किन्तु शरीर के भीतर आत्मा तथा परमात्मा समान आध्यात्मिक गुण वाले हैं। परन्तु आत्मा तथा परमात्मा की यह समानता उन्हें मात्रात्मक दृष्टि से समान नहीं बनाती क्योंकि व्यष्टि आत्मा किसी विशेष शरीर में उपस्थित होता है, किन्तु परमात्मा प्रत्येक शरीर में है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को इसका पूर्णज्ञान होता है इसीलिए वह सचमुच ही विद्वान् तथा समदर्शी होता है। आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं क्योंकि दोनों चेतन, शाश्वत तथा आनन्दमय हैं। किन्तु अन्तर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहता है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है। परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।। 34 ।।

तत्– विभिन्न यज्ञों के उस ज्ञान को;विद्धि– जानने का प्रयास करो;प्रणिपातेन– गुरु के पास जाकर के;परिप्रश्नेन– विनीत जिज्ञासा से;सेवया– सेवा के द्वारा;उपदेक्ष्यन्ति– दीक्षित करेंगे;ते– तुमको;ज्ञानम्– ज्ञान में;ज्ञानिनः– स्वरुपसिद्ध;तत्त्व– तत्त्व के;दर्शिनः– दर्शी।

भावार्थ: तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।

तात्पर्य : निस्सन्देह आत्म-साक्षात्कार का मार्ग कठिन है अतः भगवान् का उपदेश है कि उन्हीं से प्रारम्भ होने वाली परम्परा से प्रामाणिक गुरु की शरण ग्रहण की जाए। इस परम्परा के सिद्धान्त का पालन किये बिना कोई प्रामाणिक गुरु नहीं बन सकता। भगवान् आदि गुरु हैं, अतः गुरु-परम्परा का ही व्यक्ति अपने शिष्य को भगवान् का सन्देश प्रदान कर सकता है। कोई अपनी निजी विधि का निर्माण करके स्वरुपसिद्ध नहीं बन सकता जैसा कि आजकल के मुर्ख पाखंडी करने लगे हैं। श्रीमदभागवत का (..१९) कथन है – धर्मंतुसाक्षात्भगत्प्रणीतम – धर्मपथ का निर्माण स्वयं भगवान् ने किया है। अतएव मनोधर्म या शुष्क तर्क से सही पद प्राप्त नहीं हो सकता। न ही ज्ञानग्रंथों के स्वतन्त्र अध्ययन से ही कोई आध्यात्मिक जीवन में उन्नति कर सकता है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए उसे प्रामाणिक गुरु की शरण में जाना होगा। ऐसे गुरु को पूर्ण समर्पण करके ही स्वीकार करना चाहिए और अहंकाररहित होकर दास की भाँति गुरु की सेवा करनी चाहिए। स्वरुपसिद्ध गुरु की प्रसन्नता ही आध्यात्मिक जीवन की प्रगति का रहस्य है। जिज्ञासा और विनीत भाव के मेल से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है। बिना विनीत भाव तथा सेवा के विद्वान गुरु से की गई जिज्ञासाएँ प्रभावपूर्ण नहीं होंगी। शिष्य को गुरु-परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए और ब गुरु शिष्य में वास्तविक इच्छा देखता है तो स्वतः ही शिष्य को आध्यात्मिक ज्ञान का आशीर्वाद देता है। इस श्लोक में अन्धानुगमन तथा निरर्थक जिज्ञासा -- इन दोनों की भर्त्सना की गई है। शिष्य न केवल गुरु से विनीत होकर सुने, अपितु विनीत भाव तथा सेवा और जिज्ञासा द्वारा गुरु से स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करे। प्रामाणिक गुरु स्वभाव से शिष्य के प्रति दयालु होता है, अतः यदि शिष्य विनीत हो और सेवा में तत्पर रहे तो ज्ञान और जिज्ञासा का विनिमय पूर्ण हो जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।। 13 ।।

चातुः-वर्ण्यम्– मानव समाज के चार विभाग;मया– मेरे द्वारा;सृष्टम्– उत्पन्न किये हुए;गुण– गुण;कर्म- तथा कर्म का;विभागशः– विभाजन के अनुसार;तस्य– उसका;कर्तारम्– जनक;अपि– यद्यपि;माम्– मुझको;विद्धि– जानो;अकर्तारम्– न करने के रूप में;अव्ययम्- अपरिवर्तनीय को।

भावार्थ : प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।

तात्पर्य : भगवान् प्रत्येक वस्तु के स्रष्टा हैं। प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके ही द्वारा पालित है और प्रलय के बाद वस्तु उन्हीं में समा जाती है। अतः वे ही वर्णाश्रम व्यवस्था के स्रष्टा हैं जिसमें सर्वप्रथम बुद्धिमान् मनुष्यों का वर्ग आता है जो सतोगुणी होने के कारण ब्राह्मण कहलाते हैं। द्वितीय वर्ग प्रशासक वर्ग का है जिन्हें रजोगुणी होने के कारण क्षत्रिय कहा जाता है। वणिक वर्ग या वैश्य कहलाने वाले लोग रजो तथा तमोगुण के मिश्रण से युक्त होते हैं और शुद्र या श्रमिवर्ग के लोग तमोगुणी होते हैं। मानव समाज के इन चार विभागों की सृष्टि करने पर भी भगवान् कृष्ण इनमें से किसी विभाग (वर्ण) में नहीं आते, क्योंकि वे उन बद्धजीवों में से नहीं हैं जिनका एक अंश मानव समाज के रूप में है। मानव समाज भी किसी अन्य पशुसमाज के तुल्य है, किन्तु मनुष्यों को पशु-स्तर से ऊपर उठाने के लिए ही उपर्युक्त वर्णाश्रम की रचना की गई, जिससे क्रमिक रूप से कृष्णभावनामृत विकसित हो सके। किसी विशेष व्यक्ति की किसी कार्य के प्रति प्रवृत्ति का निर्धारण उसके द्वारा अर्जित प्रकृति के गुणों द्वारा किया जाता है। गुणों के अनुसार जीवन के लक्षणों का वर्णन इस ग्रंथ के अठारहवें अध्याय में हुआ है। किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ब्राह्मण से भी बढ़कर होता है। यद्यपि गुण के अनुसार ब्राह्मण को ब्रह्म या परमसत्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए, किन्तु उनमें से अधिकांश भगवान् कृष्ण के निर्विशेष ब्रह्मस्वरूप को ही प्राप्त कर पाते हैं, किन्तु जो मनुष्य ब्राह्मण के सीमित ज्ञान को लाँघकर भगवान् श्रीकृष्ण के ज्ञान तक पहुँच जाता है, वही कृष्णभावनाभावित होता है अर्थात् वैष्णव होता है। कृष्णभावनामृत में कृष्ण के विभिन्न अंशों यथा राम, नृसिंह, वराह आदि का ज्ञान सम्मिलित रहता है। और जिस तरह कृष्ण मानव समाज की इस चातुर्वर्ण्य प्रणाली से परे हैं, उसी तरह कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भी इस चातुर्वर्ण्य प्रणाली से परे होता है, चाहे हम इसे जाति का विभाग कहें, चाहे राष्ट्र अथवा सम्प्रदाय का।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।। 11 ।।

 ये– जो;यथा– जिस तरह;माम्– मेरी;प्रपद्यन्ते– शरण में जाते हैं;तान्– उनको;तथा– उसी तरह;एव– निश्चय ही;भजामि– फल देता हूँ;अहम्– मैं;मम– मेरे;वर्त्म– पथ का;अनुवर्तन्ते– अनुगमन करते हैं;मनुष्याः– सारे मनुष्य;पार्थ– हे पृथापुत्र;सर्वशः– सभी प्रकार से।

भावार्थ : जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।

तात्पर्य : प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण को उनके विभिन्न स्वरूपों में खोज रहा है। भगवान् श्रीकृष्ण को अंशतः उनके निर्विशेष ब्रह्मज्योति तेज में तथा प्रत्येक वस्तु के कण-कण में रहने वाले सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में अनुभव किया जाता है, लेकिन कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार तो उनके शुद्ध भक्त ही कर पाते हैं। फलतः कृष्ण प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूति के विषय हैं और इस तरह कोई भी और सभी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार तुष्ट होते हैं। दिव्य जगत् में भी कृष्ण अपने शुद्ध भक्तों के साथ दिव्य भाव से विनिमय करते हैं जिस तरह कि भक्त उन्हें चाहता है। कोई एक भक्त कृष्ण को परम स्वामी के रूप में चाह सकता है, दूसरा अपने सखा के रूप में, तीसरा अपने पुत्र के रूप में और चौथा अपने प्रेमी के रूप में। कृष्ण सभी भक्तों को समान रूप से उनके प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुसार फल देते हैं। भौतिक जगत् में भी ऐसी ही विनिमय की अनुभूतियाँ होती हैं और वे विभिन्न प्रकार के भक्तों के अनुसार भगवान् द्वारा समभाव से विनिमय की जाती हैं। शुद्ध भक्त यहाँ पर और दिव्यधाम में भी कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं और भगवान् की साकार सेवा कर सकते हैं। इस तरह वे उनकी प्रेमाभक्ति का दिव्य आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु जो निर्विशेषवादी सच्चिदानन्द भगवान् को स्वीकार नहीं करते, फलतः वे अपने व्यक्तित्व को मिटाकर भगवान् की दिव्य सगु भक्ति के आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकते। उनमें से कुछ जो निर्विशेष सत्ता में दृढ़तापूर्वक स्थित नहीं हो पाते, वे अपनी कार्य करने की सुप्त इच्छाओं को प्रदर्शित करने के लिए इस भौतिक क्षेत्र में वापस आते हैं। उन्हें वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने नहीं दिया जाता, किन्तु उन्हें भौतिक लोक के कार्य करने का अवसर प्रदान किया जाता है। जो सकामकर्मी हैं, भगवान् उन्हें यज्ञेश्वर के रूप में उनके कर्मों का वांछित फल देते हैं। जो योगी हैं और योगशक्ति की खोज में रहते हैं, उन्हें योगशक्ति प्रदान करते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति की विधियाँ एक ही पथ में सफलता की विभिन्न कोटियाँ हैं। अतः जब तक कोई कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि तक नहीं पहुँच जाता तब तक सारे प्रयास अपूर्ण रहते हैं, जैसा कि श्रीमदभागवत में (..१०) कहा गया है –

अकामः सर्वकामो व मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ।।

मनुष्य चाहे निष्काम हो या फल का इच्छुक या मुक्ति का इच्छुक ही क्यों न हो, उसे पूरे सामर्थ्य से भगवान् की सेवा करनी चाहिए जिससे उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सके, जिसका पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ।। 10 ।।

वीत– मुक्त;राग– आसक्ति;भय– भय;क्रोधाः– तथा क्रोध से;मत्-मया– पूर्णतया मुझमें;माम्– मुझमें;उपाश्रिताः– पूर्णतया स्थित;बहवः– अनेक;ज्ञान– ज्ञान की;तपसा– तपस्या से;पूताः– पवित्र हुआ;मत्-भावम्– मेरे प्रति दिव्य प्रेम को;आगताः– प्राप्त।

भावार्थ : आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं। इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है।

तात्पर्य: जैसा कि पहले कहा जा चुका है विषयों में आसक्त व्यक्ति के लिए परमसत्य के स्वरूप को समझ पाना अत्यन्त कठिन है। सामान्यतया जो लोग देहात्मबुद्धि में आसक्त होते हैं, वे भौतिकतावाद में इतने लीन रहते हैं कि उनके लिए यह समझ पाना असम्भव सा है कि परमात्मा व्यक्ति भी हो सकता है। ऐसे भौतिकतावादी व्यक्ति इसकी कल्पना तक नहीं कर पाते कि ऐसा भी दिव्य शरीर है जो नित्य तथा सच्चिदानन्दमय है। भौतिकतावादी धारणा के अनुसार शरीर नाशवान्, अज्ञानमय तथा अत्यन्त दुखमय होता है। अतः जब लोगों को भगवान् के साकार रूप के विषय में बताया जाता है तो उनके मन में शरीर की यही धारणा बनी रहती है। ऐसे भौतिकतावादी पुरुषों के लिए विराट भौतिक जगत् का स्वरूप ही परमतत्त्व है। फलस्वरूप वे परमेश्वर को निराकार मानते हैं और भौतिकता में इतने तल्लीन रहते हैं कि भौतिक पदार्थ से मुक्ति के बाद भी अपना स्वरूप बनाये रखने के विचार से डरते हैं। जब उन्हें यह बताया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्तिगत तथा साकार होता है तो वे पुनः व्यक्ति बनने से भयभीत हो उठते हैं, फलतः वे निराकार शून्य में तदाकार होना पसंद करते हैं। सामान्यतया वे जीवों की तुलना समुद्र के बुलबुलों से करते हैं, जो टूटने पर समुद्र में ही लीन हो जाते हैं। पृथक् व्यक्तित्व से रहित आध्यात्मिक जीवन की यह चरम सिद्धि है। यह जीवन की भयावह अवस्था है, जो आध्यात्मिक जीवन के पूर्णज्ञान से रहित है। इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक जीवन को तनिक भी नहीं समझ पाते। अनेक वादों तथा दार्शनिक चिन्तन की विविध विसंगतियों से परेशान होकर वे उब उठते हैं या क्रुद्ध हो जाते हैं और मूर्खतावश यह निष्कर्ष निकालते हैं कि परम कारण जैसा कुछ नहीं है, अतः प्रत्येक वस्तु अन्ततोगत्वा शून्य है। ऐसे लोग जीवन की रुग्णावस्था में होते हैं। कुछ लोग भौतिकता में इतने आसक्त रहते हैं कि वे आध्यात्मिक जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं देते और कुछ लोग तो निराशावश सभी प्रकार के आध्यात्मिक चिन्तनों से क्रुद्ध होकर प्रत्येक वस्तु पर अविश्वास करने लगते हैं। इस अन्तिम कोटि के लोग किसी न किसी मादक वस्तु का सहारा लेते हैं और उनके मति-विभ्रम को कभी-कभी आध्यात्मिक दृष्टि मान लिया जाता है। मनुष्य को भौतिक जगत् के प्रति आसक्ति की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाना होता है – ये हैं आध्यात्मिक जीवन की अपेक्षा, आध्यात्मिक साकार रूप का भय तथा जीवन की हताशा से उत्पन्न शून्यवाद की कल्पना। जीवन की इन तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाने के लिए प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान् की शरण ग्रहण करना और भक्तिमय जीवन के नियम तथा विधि-विधानों का पालन करना आवश्यक है। भक्तिमय जीवन की अन्तिम अवस्था भाव या दिव्य श्वरीय प्रेम कहलाती है।

भक्तिरसामृतसिन्धु (..१५-१६) के अनुसार भक्ति का विज्ञान इस प्रकार है –

आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोSथ भजनक्रिया
ततोSनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रूचिस्ततः ।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्यदञ्चति
साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः ।

प्रारम्भ में आत्म-साक्षात्कार की समान्य इच्छा होनी चाहिए। इससे मनुष्य ऐसे व्यक्तियों की संगति करने का प्रयास करता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से उठे हुए हैं। अगली अवस्था में गुरु से दीक्षित होकर नवदीक्षित भक्त उसके आदेशानुसार भक्तियोग प्रारम्भ करता है। इस प्रकार सद्गुरु के निर्देश में भक्ति करते हुए वह समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाता है, उसके आत्म-साक्षात्कार में स्थिरता आती है और वह श्रीभगवान् कृष्ण के विषय में श्रवण करने के लिए रूचि विकसित करता है। इस रूचि से आगे चलकर कृष्णभावनामृत में आसक्ति उत्पन्न होती है जो भाव में अथवा भगवत्प्रेम के प्रथम सोपान में परिपक्व होती है। ईश्वर के प्रति प्रेम ही जीवन की सार्थकता है।” प्रेम-अवस्था में भक्त भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लीन रहता है। अतः भक्ति की मन्द विधि से प्रामाणिक गुरु के निर्देश में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की जा सकती है और समस्त भौतिक आसक्ति, व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्वरूप के भय तथा शून्यवाद से उत्पन्न हताशा से मुक्त हुआ जा सकता है। तभी मनुष्य को अन्त में भगवान् के धाम की प्राप्ति हो सकती है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोSर्जुन।। 9 ।।

जन्म– जन्म;कर्म– कर्म;– भी;मे– मेरे;दिव्यम्– दिव्य;एवम्– इस प्रकार;यह– जो कोई;वेत्ति– जानता है;तत्त्वतः– वास्तविकता में;त्यक्त्वा– छोड़कर;देहम्– इस शरीर को;पुनः– फिर;जन्म– जन्म;– कभी नहीं;एति– प्राप्त करता है;माम्– मुझको;एति– प्राप्त करता है;सः– वह;अर्जुन– हे अर्जुन।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

तात्पर्य : छठे श्लोक में भगवान् के दिव्यधाम से उनके अवतरण की व्याख्या हो चुकी है। जो मनुष्य भगवान् के अविर्भाव के सत्य को समझ लेता है वह इस भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और इस शरीर को छोड़ते ही वह तुरन्त भगवान् के धाम को लौट जाता है। भवबन्धन से जीव की ऐसी मुक्ति सरल नहीं है। निर्विशेषवादी तथा योगीजन पर्याप्त कष्ट तथा अनेकानेक जन्मों के बाद ही मुक्ति प्राप्त कर पाते हैं। इतने पर भी उन्हें जो मुक्ति भगवान् की निराकार ब्रह्मज्योति में तादात्म्य प्राप्त करने के रूप में मिलती है, वह आंशिक होती है और इस भौतिक संसार में लौट जाने का भय बना रहता है। किन्तु भगवान् के शरीर की दिव्य प्रकृति तथा उनके कार्यकलापों को समझने मात्र से भक्त इस शरीर का अन्त होने पर भगवद्धाम को प्राप्त करता है और उसे इस संसार में लौट आने का भय नहीं रह जाता। ब्रह्मसंहिता में (.३३) यह बताया गया है कि भगवान् के अनेक रूप तथा अवतार हैं – अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् । यद्यपि भगवान् के अनेक दिव्य रूप हैं, किन्तु फिर भी वे अद्वय भगवान् हैं। इस तथ्य को विश्वासपूर्वक समझना चाहिए, यद्यपि यह संसारी विद्वानों तथा ज्ञानयोगियों के लिए अगम्य है। जैसा कि वेदों (पुरुष बोधिनी उपनिषद्) में कहा गया है –

एको देवो नित्यलीलानुरक्तो भक्तव्यापी हृद्यन्तरात्मा ।।

एक भगवान् अपने निष्काम भक्तों के साथ अनेकानेक दिव्य रूपों में सदैव सम्बन्धित हैं।इस वेदवचन की स्वयं भगवान् ने गीता के इस श्लोक में पुष्टि की है। जो इस सत्य को वेद तथा भगवान् के प्रमाण के आधार पर स्वीकार करता है और शुष्क चिन्तन में समय नहीं गँवाता वह मुक्ति की चरम सिद्धि प्राप्त करता है। इस सत्य को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करने से मनुष्य निश्चित रूप से मुक्ति-लाभ कर सकता है। इस प्रसंग में वैदिक वाक्य तत्त्वमसि लागू होता है। जो कोई भगवान् कृष्ण को परब्रह्म करके जानता है या उनसे यह कहता है कि “आप वही परब्रह्म श्रीभगवान् हैं” वह निश्चित रूप से अविलम्ब मुक्त हो जाता है, फलस्वरूप उसे भगवान् की दिव्यसंगति की प्राप्ति निश्चित हो जाती है। दूसरे शब्दों में, ऐसा श्रद्धालु भगवद्भक्त सिद्धि प्राप्त करता है। इसकी पुष्टि निम्नलिखित वेदवचन से होती है –

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेSयनाय ।

श्री भगवान् को जान लेने से ही मनुष्य जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति की पूर्ण अवस्था प्राप्त कर सकता है। इस सिद्धि को प्राप्त करने का कोई अन्य विकल्प नहीं है।(श्वेताश्वतर उपनिषद् ३.) इसका कोई विकल्प नहीं है का अर्थ यही है कि जो श्रीकृष्ण को श्रीभगवान् के रूप में नहीं मानता वह अवश्य ही तमोगुणी है और मधुपात्र को केवल बाहर से चाटकर या भगवद्गीता की विद्वता पूर्ण संसारी विवेचना करके मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। इसे शुष्क दार्शनिक भौतिक जगत् में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हो सकते हैं, किन्तु वे मुक्ति के अधिकारी नहीं होते। ऐसे अभिमानी संसारी विद्वानों को भगवद् भक्त की अहैतुकी कृपा की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। अतः मनुष्य को चाहिए कि श्रद्धा तथा ज्ञान के साथ कृष्णभावनामृत का अनुशीलन करे और सिद्धि प्राप्त करने का यही उपाय है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। 8 ।।

परित्राणाय– उद्धार के लिए;साधूनाम्– भक्तों के;विनाशाय– संहार के लिए;– तथा;दुष्कृताम्– दुष्टों के;धर्म– धर्म के;संस्थापन-अर्थाय– पुनः स्थापित करने के लिए;सम्भवामि– प्रकट होता हूँ;युगे– युग;युगे– युग में।

भावार्थ : भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।

तात्पर्य: भगवद्गीता के अनुसार साधु (पवित्र पुरुष) कृष्णभावनाभावित व्यक्ति है। अधार्मिक लगने वाले व्यक्ति में यदि पूर्ण कृष्णचेतना हो, तो उसे साधु समझना चाहिए। दुष्कृताम् उन व्यक्तियों के लिए आया है जो कृष्णभावनामृत की परवाह नहीं करते। ऐसे दुष्कृताम् या उपद्रवी, मुर्ख तथा अधम व्यक्ति कहलाते हैं, भले ही वे सांसारिक शिक्षा से विभूषित क्यों न हो। इसके विपरीत यदि कोई शत-प्रतिशत कृष्णभावनामृत में लगा रहता है तो वह विद्वान् या सुसंस्कृत न भी हो फिर भी वह साधु माना जाता है। जहाँ तक अनीश्ववादियों का प्रश्न है, भगवान् के लिए आवश्यक नहीं कि वे इनके विनाश के लिए उस रूप में अवतरित हों जिस रूप में वे राव तथा कंस का वध करने के लिए हुए थे। भगवान् के ऐसे अनेक अनुचर हैं जो असुरों का संहार करने में सक्षम हैं। किन्तु भगवान् तो अपने उन निष्काम भक्तों को तुष्ट करने के लिए विशेष रूप से अवतार लेते हैं जो असुरों द्वारा निरन्तर तंग किये जाते हैं। असुर भक्त को तंग करता है, भले ही वह उसका सगा-सम्बन्धी क्यों न हो। यद्यपि प्रह्लाद् महाराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे, किन्तु तो भी वे अपने पिता द्वारा उत्पीड़ित थे। इसी प्रकार कृष्ण की माता देवकी यद्यपि कंस की बहन थीं, किन्तु उन्हें तथा उनके पति वासुदेव को इसीलिए दण्डित किया गया था क्योंकि उनसे कृष्ण को जन्म लेना था। अतः भगवान् कृष्ण मुख्यतः देवकी के उद्धार करने के लिए प्रकट हुए थे, कंस को मारने के लिए नहीं। किन्तु ये दोनों कार्य एकसाथ सम्पन्न हो गये। अतः यह कहा जाता है कि भगवान् भक्त का उद्धार करने तथा दुष्ट असुरों का संहार करने के लिए विभिन्न अवतार लेते हैं।

कृष्णदास कविराज कृत चैतन्य चरितामृत के निम्नलिखित श्लोकों (मध्य २०.२६३-२६४) से अवतार के सिद्धान्तों का सारांश प्रकट होता है –

सृष्टिहेतु एइ मूर्ति प्रपञ्चे अवतरे ।
सेइ ईश्वरमूर्ति ‘अवतार’ नाम धरे ।
मायातीत परव्योमे सबार अवस्थान ।
विश्वे अवतरी’ धरे ‘अवतार’ नाम ।

अवतार अथवा ईश्वर का अवतार भगवद्धाम से भौतिक प्राकट्य हेतु होता है। ईश्वर का वह विशिष्ट रूप जो इस प्रकार अवतरित होता है अवतार कहलाता है। ऐसे अवतार भगवद्धाम में स्थित रहते हैं। जब यह भौतिक सृष्टि में उतरते हैं, तो उन्हें अवतार कहा जाता है।अवतार इसी तरह के होते हैं था पुरुषावतार, गुणावतार, लीलावतार, शक्त्यावेश अवतार, मन्वन्तर अवतार तथा युगावतार – इ सबका इस ब्रह्माण्ड में क्रमानुसार अवतरण होता है। किन्तु भगवान कृष्ण आदि भगवान् हैं और समस्त अवतारों के उद्गम हैं। भगवान् श्रीकृष्ण शुद्ध भक्तों की चिन्ताओं को दूर करने के विशिष्ट प्रयोजन से अवतार लेते हैं, जो उन्हें उनकी मूल वृन्दावन लीलाओं के रूप में देखने के उत्सुक रहते हैं। अतः कृष्ण अवतार का मूल उद्देश्य अपने निष्काम भक्तों को प्रसन्न करना है।

भगवान् का वचन है कि वे प्रत्येक युग में अवतरित होते रहते हैं। इससे सूचित होता है कि वे कलियुग में भी अवतार लेते हैं। जैसा कि श्रीमदभागवत में कहा गया है कि कलियुग के अवतार भगवान् चैतन्य महाप्रभु हैं जिन्होंने संकीर्तन आन्दोलन के द्वारा कृष्णपूजा का प्रसार किया और पूरे भारत में कृष्णभावनामृत का विस्तार किया। उन्होंने यह भविष्यवाणी की कि संकीर्तन की यह संस्कृति सारे विश्व के नगर-नगर तथा ग्राम-ग्राम में फैलेगी। भगवान् चैतन्य को गुप्त रूप में, किन्तु प्रकट रूप में नहीं, उपनिषदों, महाभारत तथा भागवत जैसे शास्त्रों के गुह्य अंशों में वर्णित किया गया है। भगवान् कृष्ण के भक्तगण भगवान् चैतन्य के संकीर्तन आन्दोलन द्वारा अत्यधिक आकर्षित रहते हैं। भगवान् का यह अवतार दुष्टों का विनाश नहीं करता, अपितु अपनी अहैतुकी कृपा से उनका उद्धार करता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।7

यदा यदा– जब भी और जहाँ भी;हि– निश्चय ही;धर्मस्य– धर्म की;ग्लानिः– हानि, पतन;भवति– होती है;भारत– हे भारतवंशी;अभ्युत्थानम्– प्रधानता;अधर्मस्य– अधर्म की;तदा– उस समय;आत्मानम्– अपने को;सृजामि– प्रकट करता हूँ;अहम्– मैं।

भावार्थ: हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।

तात्पर्य : यहाँ पर सृजामि शब्द महत्त्वपूर्ण है। सृजामि सृष्टि के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हो सकता, क्योंकि पिछले श्लोक के अनुसार भगवान् के स्वरूप या शरीर की सृष्टि नहीं होती, क्योंकि उनके सारे स्वरूप शाश्वत रूप से विद्यमान रहने वाले हैं। अतः सृजामि का अर्थ है कि भगवान् स्वयं यथारूप प्रकट होते हैं। यद्यपि भगवान् कार्यक्रमानुसार अर्थात् ब्रह्मा के एक दिन में सातवें मनु के २८ वें युग में द्वापर के अन्त में प्रकट होते हैं, किन्तु वे इस समय का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं, क्योंकि वे स्वेच्छा से कर्म करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतः जब भी अधर्म की प्रधानता तथा धर्म का लोप होने लगता है, तो वे स्वेच्छा से प्रकट होते हैं। धर्म के नियम वेदों में दिये हुए हैं और यदि इन नियमों के पालन में कोई त्रुटि आती है तो मनुष्य अधार्मिक हो जाता है। श्रीमदभागवत में बताया गया है कि ऐसे नियम भगवान् के नियम हैं। केवल भगवान् ही किसी धर्म की व्यवस्था कर सकते हैं। वेद भी मूलतः ब्रह्मा के हृदय में से भगवान् द्वारा उच्चारित माने जाते हैं। अतः धर्म के नियम भगवान् के प्रत्यक्ष आदेश हैं (धर्मं तु साक्षाद् भगवत्प्रणीतम्)भगवद्गीता में आद्योपान्त इन्हीं नियमों का संकेत है। वेदों का उद्देश्य परमेश्वर के आदेशानुसार ऐसे नियमों की स्थापना करना है और गीता के अन्त में भगवान् स्वयं आदेश देते हैं कि सर्वोच्च धर्म उनकी ही शरण ग्रहण करना है। वैदिक नियम जीव को पूर्ण शरणागति की ओर अग्रसर कराने वाले हैं और जब भी असुरों द्वारा इन नियमों में व्यावधान आता है तभी भगवान् प्रकट होते हैं। श्रीमदभागवत पुराण से हम जानते हैं की बुद्ध कृष्ण के अवतार हैं, जिनका प्रादुर्भाव उस समय हुआ जब भौतिकतावादी का बोलबाला था और भौतिकतावादी लोग वेदों को प्रमाण बनाकर उसकी आड़ ले रहे थे। भगवान् बुद्ध इस अनाचार को रोकने तथा अहिंसा के वैदिक नियमों की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए। अतः भगवान् के प्रत्येक अवतार का विशेष उद्देश्य होता है और इन सबका वर्णन शास्त्रों में हुआ है। यह तथ्य नहीं है कि केवल भारत की धरती में भगवान् अवतरित होते हैं। वे कहीं भी और किसी भी काल में इच्छा होने पर प्रकट हो सकते हैं। वे प्रत्येक अवतार लेने पर धर्म के विषय में उतना ही कहते हैं, जितना कि उस परिस्थिति में जन-समुदाय विशेष समझ सकता है। लेकिन उद्देश्य एक ही रहता है – लोगों को ईश भावना भावित करना तथा धार्मिक नियमों के प्रति आज्ञाकारी बनाना। कभी वे स्वयं प्रकट होते हैं तो कभी अपने प्रामाणिक प्रतिनिधि को अपने पुत्र या दास के रूप में भेजते हैं, या वेश बदल कर स्वयं ही प्रकट होते हैं। भगवद्गीता के सिद्धान्त अर्जुन से कहे गये थे, अतः वे किसी भी महापुरुष के प्रति हो सकते थे, क्योंकि अर्जुन संसार के अन्य भागों के सामान्य पुरुषों की अपेक्षा अधिक जागरूक था। दो और दो मिलाकर चार होते हैं, यह गणितीय नियम प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी के लिए उतना ही सत्य है, जितना कि उच्च कक्षा के विद्यार्थी के लिए। तो भी गणित उच्चस्तर तथा निम्नस्तर का होता है। अतः भगवान् प्रत्येक अवतार में एक-जैसे सिद्धान्तों की शिक्षा देते हैं, जो परिस्थितियों के अनुसार उच्च या निम्न प्रतीत होते हैं। जैसा कि आगे बताया जाएगा धर्म के उच्चतर सिद्धान्त चारों वर्णाश्रमों को स्वीकार करने से प्रारम्भ होते हैं। अवतारों का एकमात्र उद्देश्य सर्वत्र कृष्णभावनामृत को उद्बोधित करना है। परिस्थिति के अनुसार यह भावनामृत प्रकट तथा अप्रकट होता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

अजोSपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोSपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।। 6 ।।

अजः– अजन्मा;अपि– तथापि;सन्– होते हुए;अव्यय– अविनाशी;आत्मा– शरीर;भूतानाम्– जन्म लेने वालों के;इश्वरः– परमेश्वर;अपि– यद्यपि;सन्– होने पर;प्रकृतिम्– दिव्य रूप में;स्वाम्– अपने;अधिष्ठाय– इस तरह स्थित;सम्भवामि– मैं अवतार लेता हूँ;आत्म-मायया– अपनी अन्तरंगा शक्ति से।

भावार्थ :यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ।

तात्पर्य: भगवान् ने अपने जन्म की विलक्षणता बतलाई है। यद्यपि वे सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट हो सकते हैं, किन्तु उन्हें विगत अनेकानेक “जन्मों” की पूर्ण स्मृति बनी रहती है, जबकि सामान्य पुरुष को कुछ ही घंटे पूर्व की घटना स्मरण नहीं रहती। यदि कोई पूछे कि एक दिन पूर्व इसी समय तुम क्या कर रहे थे, तो सामान्य व्यक्ति के लिए इसका तत्काल उत्तर दे पाना कठिन होगा। उसे उसको स्मरण करने के लिए अपनी बुद्धि को कुरेदना पड़ेगा कि वह कल इसी समय क्या कर रहा था। फिर भी लोग प्रायः अपने को ईश्वर या कृष्ण घोषित करते रहते हैं। मनुष्य को ऐसी निरर्थक घोषणाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए। अब भगवान् दुबारा अपनी प्रकृति या स्वरूप की व्याख्या करते हैं। प्रकृति का अर्थ स्वभाव तथा स्वरूप दोनों है। भगवान् कहते हैं कि वे अपने ही शरीर में प्रकट होते हैं। वे सामान्य जीव की भाँति शरीर-परिवर्तन नहीं करते। इस जन्म में बद्धजीव का एक प्रकार का शरीर हो सकता है, किन्तु अगले जन्म में दूसरा शरीर रहता है। भौतिक जगत् में जीव का कोई स्थायी शरीर नहीं है, अपितु वह एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण करता रहता है। किन्तु भगवान् ऐसा नहीं करते। जब भी वे प्रकट होते हैं तो अपनी अन्तरंगा शक्ति से वे अपने उसी आद्य शरीर में प्रकट होते हैं। दूसरे शब्दों में, श्रीकृष्ण इस जगत् में अपने आदि शाश्वत स्वरूप में दो भुजाओं में बाँसुरी धारण किये अवतरित होते हैं। वे इस भौतिक जगत् से निष्कलुषित रह कर अपने शाश्वत शरीर सहित प्रकट होते हैं। यद्यपि वे अपने उसी दिव्य शरीर में प्रकट होते हैं और ब्रह्माण्ड के स्वामी होते हैं तो भी ऐसा लगता है कि वे सामान्य जीव की भाँति प्रकट हो रहे हैं। यद्यपि उनका शरीर भौतिक शरीर की भाँति क्षीण नहीं होता फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् कृष्ण बालपन से कुमारावस्था तथा कुमारावस्था से तरुणावस्था प्राप्त करते हैं। किन्तु आश्चर्य तो यह है कि वे कभी युवावस्था से आगे नहीं बढ़ते। कुरुक्षेत्र युद्ध के समय उनके अनेक पुत्र थे या दूसरे शब्दों में, वे भौतिक गणना के अनुसार काफी वृद्ध थे। फिर भी वे बीस-पच्चीस वर्ष के युवक जैसे लगते थे। हमें कृष्ण की वृद्धावस्था का कोई चित्र नहीं दिखता, क्योंकि वे कभी भी हमारे समान वृद्ध नहीं होते यद्यपि वे तीनों काल में – भूत, वर्तमान तथा भविष्यकाल में – सबसे वयोवृद्ध पुरुष हैं। न तो उनका शरीर और न ही बुद्धि कभी क्षीण होती या बदलती है। अतः यस्पष्ट है कि इस जगत् में रहते हुए भी वे उसी अजन्मा सच्चिदानन्द रूप वाले हैं, जिनके दिव्य शरीर तथा बुद्धि में कोई परिवर्तन नहीं होता। वस्तुतः उनका अविर्भाव और तिरोभाव सूर्य के उदय तथा अस्त के समान है जो हमारे सामने से घूमता हुआ हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है। जब सूर्य हमारी दृष्टि से ओझल रहता है तो हम सोचते हैं कि सूर्य अस्त हो गया है और जब वह हमारे समक्ष होता है तो हम सोचते हैं कि वह क्षितिज में है। वस्तुतः सूर्य स्थिर है, किन्तु अपनी अपूर्ण तथा त्रुटिपूर्ण इन्द्रियों के कारण हम सूर्य को उदय और अस्त होते परिकल्पित करते हैं। और चूँकि भगवान् का प्राकट्य तथा तिरोधान सामान्य जीव से भिन्न हैं अतः स्पष्ट है कि वे शाश्वत हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण आनन्दस्वरूप हैं और इस भौतिक प्रकृति द्वारा कभी कलुषित नहीं होते। वेदों द्वारा भी पुष्टि की जाती है कि भगवान् अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में अवतरित होते रहते हैं, किन्तु तो भी वे शरीर-परिवर्तन नहीं करते। श्रीमदभागवत में वे अपनी माता के समक्ष नारायण रूप में चार भुजाओं तथा षड्ऐश्वर्यो से युक्त होकर प्रकट होते हैं। उनका आद्य शाश्वत रूप में प्राकट्य उनकी अहैतुकी कृपा है जो जीवों को प्रदान की जाती है जिससे वे भगवान् के यथारूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें न कि निर्विशेषवादियों द्वारा मनोधर्म या कल्पनाओं पर आधारित रूप में। विश्वकोश के अनुसार माया या आत्म-माया शब्द भगवान् की अहैतुकी कृपा का सूचक है भगवान् अपने समस्त पूर्व अविर्भाव-तिरोभावों से अवगत रहते हैं, किन्तु सामान्य जीव को जैसे ही नवीन शरीर प्राप्त होता है वह अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ भूल जाता है। वे समस्त जीवों के स्वामी हैं, क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वे आश्चर्यजनक तथा अतिमानवीय लीलाएँ करते रहते हैं। अतः भगवान् निरन्तर वही परमसत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं होता। अब य प्रश्न किया जा सकता है कि इस संसार में भगवान् क्यों आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं? अगले श्लोक में इसकी व्याख्या की गई है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

स एवायं मया तेSद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोSसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।। 3 ।।

सः– वही;एव– निश्चय ही;मया– मेरे द्वारा;ते– तुमसे;अद्य– आज;योगः– योगविद्या;प्रोक्तः– कही गयी;पुरातनः– अत्यन्त प्राचीन;भक्तः– भक्त;असि– हो;मे– मेरे;सखा– मित्र;– भी;इति– अतः;रहस्यम्– रहस्य;एतत्– यह;उत्तमम्– दिव्य।

भावार्थ: आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो।

तात्पर्य : मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं – भक्त तथा असुर । भगवान् ने अर्जुन को इस विद्या का पात्र इसीलिए चुना क्योंकि वह उनका भक्त था। किन्तु असुर के लिए इस परम गुह्यविद्या को समझ पाना सम्भव नहीं है। इस परम ज्ञानग्रंथ के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ भक्तों की टीकाएँ हैं और कुछ असुरों की। जो टीकाएँ भक्तों द्वारा की गई हैं वे वास्तविक हैं, किन्तु जो असुरों द्वारा की गई हैं वे व्यर्थ हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण को भगवान् के रूप में मानता है, अतः जो गीता भाष्य अर्जुन के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए किया गया है वह इस परमविद्या के पक्ष में वास्तविक सेवा है। किन्तु असुर भगवान् कृष्ण को उस रूप में नहीं मानते। वे कृष्ण के विषय में तरह-तरह की मनगढ़ंत बातें करते हैं और वे कृष्ण के उपदेश-मार्ग से सामान्य जनता को गुमराह करते रहते हैं। ऐसे कुमार्गों से बचने के लिए यह एक चेतावनी है। मनुष्य को चाहिए कि अर्जुन की परम्परा का अनुसरण करे और श्रीमद्भगवद्गीता के इस परमविज्ञान से लाभान्वित हो।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।। 2।।

एवम्– इस प्रकार;परम्परा– गुरु-परम्परा से;प्राप्तम्– प्राप्त;इमम्– इस विज्ञान को;राज-ऋषयह– साधू राजाओं ने;विदुः– जाना;सः– वह ज्ञान;कालेन– कालक्रम में;इह– इस संसार में;महता– महान;योगः– परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, योगविद्या;नष्टः– छिन्न-भिन्न हो गया;परन्तप– हे शत्रुओं को दमन करने वाले, अर्जुन।

भावार्थ: इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा। किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।

तात्पर्य: यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि गीता विशेष रूप से राजर्षियों के लिए थी क्योंकि वे इसका उपयोग प्रजा के ऊपर शासन करने में करते थे। निश्चय ही भगवद्गीता कभी भी आसुरी पुरुषों के लिए नहीं थी जिनसे किसी को भी इसका लाभ न मिलता और जो अपनी-अपनी सनक के अनुसार विभिन्न प्रकार की विवेचना करते। अतः जैसे ही असाधु भाष्यकारों के निहित स्वार्थों से गीता का मूल उद्देश्य उच्छिन्न हुआ वैसे ही पुनः गुरु-परम्परा स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। पाँच हजार वर्ष पूर्व भगवान् ने स्वयं देखा कि गुरु-परम्परा टूट चुकी है, अतः उन्होंने घोषित किया कि गीता का उद्देश्य नष्ट हो चुका है। इसी प्रकार इस समय गीता के इतने संस्करण उपलब्ध हैं (विशेषतया अंग्रेजी में) कि उनमें से प्राय: सभी प्रामाणिक गुरु-परम्परा के अनुसार नहीं है। विभिन्न संसारी विद्वानों ने गीता की असंख्य टीकाएँ की हैं, किन्तु वे प्राय: सभी श्रीकृष्ण को स्वीकार नहीं करते, यद्यपि वे कृष्ण के नाम पर अच्छा व्यापार चलाते हैं। यह आसुरी प्रवृत्ति है, क्योंकि असुरगण ईश्वर में विश्वास नहीं करते, वे केवल परमेश्वर के गुणों का लाभ उठाते हैं। अतएव अंग्रेजी में गीता के एक संस्करण की नितान्त आवश्यकता थी जो परम्परा (गुरु-परम्परा) से प्राप्त हो। प्रस्तुत प्रयास इसी आवश्यकता की पूर्ति के उद्देश्य से किया गया है। भगवद्गीता यथारूप मानवता के लिए महान वरदान है, किन्तु यदि इसे मानसिक चिन्तन समझा जाय तो यह समय का अपव्यय होगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चार दिव्य ज्ञान

श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेSब्रवीत् ।। 1 ।।

 

श्री-भगवान् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा;इमम्– इस;विवस्वते– सूर्यदेव को;योगम्– परमेश्वर क्र साथ अपने सम्बन्ध की विद्या को;प्रोक्तवान्– उपदेश दिया;अहम्– मैंने;अव्ययम्– अमर;विवस्वान्– विवस्वान् (सूर्यदेव के नाम) ने;मनवे– मनुष्यों के पिता (वैवस्वत) से;प्राह– कहा;मनुः– मनुष्यों के पिता ने;इक्ष्वाकवे– राजा इक्ष्वाकु से;अब्रवीत्– कहा।

भावार्थ: भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।

तात्पर्य : यहाँ पर भगवद्गीता का इतिहास प्राप्त होता है। यह अत्यन्त प्राचीन बताया गया है, जब इसे सूर्यलोक इत्यादि सम्पूर्ण लोकों के राजा को प्रदान किया गया था। समस्त लोकों के राजा विशेष रूप से निवासियों की रक्षा के निमित्त होते हैं, अतः राजन्यवर्ग को भगवद्गीता की विद्या को समझना चाहिए जिससे वे नागरिकों (प्रजा) पर शासन कर सकें और उन्हें काम-रूपी भवबन्धन से बचा सकें। मानव जीवन का उद्देश्य भगवान् के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध के आध्यात्मिक ज्ञान का विकास है और सारे राज्यों तथा समस्त लोकों के शासनाध्यक्षों को चाहिए कि शिक्षा, संस्कृति तथा भक्ति द्वारा नागरिकों को यह पाठ पढ़ाएँ। दूसरे शब्दों में, सारे राज्य के शासनाध्यक्ष कृष्णभावनामृत विद्या का प्रचार करने के लिए होते हैं, जिससे जनता इस महाविद्या का लाभ उठा सके और मनुष्य जीवन के अवसर का लाभ उठाते हुए सफल मार्ग का अनुसरण कर सके। इस मन्वन्तर में सूर्यदेव विवस्वान् कहलाता है यानी सूर्य का राजा, जो सौरमंडल के अन्तर्गत समस्त ग्रहों (लोकों) का उद्गम है। ब्रह्संहिता में (.५२) कहा गया है –

यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।

ब्रह्माजी ने कहा, “मैं उन श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो आदि पुरुष हैं और जिनके आदेश से समस्त लोकों का राजा सूर्य प्रभूत शक्ति तथा ऊष्मा धारण करता है। यह सूर्य भगवान् के नेत्र तुल्य है और यह उनकी आज्ञानुसार अपनी कक्षा को तय करता है।सूर्य सभी लोकों का राजा है तथा सूर्यदेव (विवस्वान्) सूर्य ग्रह पर शासन करता है, जो ऊष्मा तथा प्रकाश प्रदान करके अन्य समस्त लोकों को अपने नियन्त्रण में रखता है। सूर्य कृष्ण के आदेश पर घूमता है और भगवान् कृष्ण ने विवस्वान् को भगवद्गीता की विद्या समझाने के लिए अपना पहला शिष्य चुना। अतः गीता किसी मामूली सांसारिक विद्यार्थी के लिए कोई काल्पनिक भाष्य नहीं, अपितु ज्ञान का मानक ग्रंथ है, जो अनन्त काल से चला आ रहा है। महाभारत में (शान्ति पर्व ३४८.५१-५२) हमें गीता का इतिहास इस रूप में प्राप्त होता है –

त्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान्मनवे ददौ ।
मनुश्च लोकभृत्यर्थं सुतायेक्ष्वाक्वे ददौ ।
इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थितः ।।

त्रेतायुग के आदि में विवस्वान् ने परमेश्वर सम्बन्धी इस विज्ञान का उपदेश मनु को दिया और मनुष्यों के जनक मनु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया। इक्ष्वाकु इस पृथ्वी के शासक थे और उस रघुकुल के पूर्वज थे, जिसमें भगवान् श्रीराम ने अवतार लिया।इससे प्रमाणित होता है कि मानव समाज में महाराज इक्ष्वाकु के काल से ही भगवद्गीता विद्यमान थी। इस समय कलियुग के केवल ५,००० वर्ष व्यतीत हुए हैं जबकि इसकी पूर्णायु 4,32,000 वर्ष है। इसके पूर्व द्वापरयुग (8,00,000 वर्ष) था और इसके भी पूर्व त्रेतायुग (12,00,000 वर्ष) था। इस प्रकार लगभग 20,05,000 वर्ष पूर्व मनु ने अपने शिष्य तथा पुत्र इक्ष्वाकु से जो इस पृथ्वी के राजा थे, श्रीमद्भगवद्गीता कही। वर्तमान मनु की आयु लगभग ३०,५३,००,००० वर्ष अनुमानित की जाती है जिसमें से १२,०४,००,००० वर्ष बीत चुके हैं। यह मानते हुए कि मनु के जन्म के पूर्व भगवान् ने अपने शिष्य सूर्यदेव विवस्वान् को गीता सुनाई, मोटा अनुमान यह है कि गीता कम से कम १२,०४,००,००० वर्ष पहले कही गई और मानव समाज में य२० लाख वर्षों से विद्यमान रही। इसे भगवान् ने लगभग ५,००० वर्ष पूर्व अर्जुन से पुनः कहा। गीता के अनुसार ही तथा इसके वक्ता भगवान् कृष्ण के कथन के अनुसार य गीता के इतिहास का मोटा अनुमान है। सूर्यदेव विवस्वान् को इसीलिए गीता सुनाई गई क्योंकि वह क्षत्रिय थे और उन समस्त क्षत्रियों के जनक है जो सूर्यवंशी हैं। चूँकि भगवद्गीता वेदों के ही समान है क्योंकि इसे श्रीभगवान् ने कहा था, अतः य ज्ञान अपौरुषेय है। चूँकि वैदिक आदेशों को यथारूप में बिना किसी मानवीय विवेचना के स्वीकार किया जाना चाहिए। संसारी तार्किकजन अपनी-अपनी विधि से गीता के विषय में चिन्तन कर सकते है, किन्तु यह यथारूप भगवद्गीता नहीं है। अतः भगवद्गीता को गुरु-परम्परा से यथारूप में ग्रहण करना चाहिए। यहाँ पर यह वर्णन हुआ है कि भगवान् ने इसे सूर्यदेव से कहा, सूर्यदेव ने अपने पुत्र मनु से और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय तीन कर्मयोग

श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥ 37

श्री-भगवान् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा;कामः– विषयवासना;एषः– यह;क्रोधः– क्रोध;एषः– यः;रजो-गुण– रजोगुण से;समुद्भवः– उत्पन्न;महा-अशनः– सर्वभक्षी;महा-पाप्मा– महान पापी;विद्धि– जानो;एनम्– इसे;इह– इस संसार में;वैरिणम्– महान शत्रु।

भावार्थ : श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।

तात्पर्य: जब जीवात्मा भौतिक सृष्टि के सम्पर्क में आता है तो उसका शाश्वत कृष्ण-प्रेम रजोगुण की संगति से काम में परिणत हो जाता है। अथवा दुसरे शब्दों में, ईश्वर-प्रेम का भाव काम में उसी तरह बदल जाता है जिस तरह इमली के संसर्ग से दूध दही में बदल जाता है और जब काम की संतुष्टि नहीं होती तो यह क्रोध में परिणत हो जाता है, क्रोध मोह में और मोह इस संसार में निरन्तर बना रहता है। अतः जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु काम है और यकाम ही है जो विशुद्ध आत्मा को इस संसार में फँसे रहने के लिए प्रेरित करता है। क्रोध तमोगुण का प्राकट्य है। ये गुण अपने आपको क्रोध तथा अन्य रूपों में प्रकट करते हैं। अतः यदि रहने तथा कार्य करने की विधियों द्वारा रजोगुण को तमोगुण में न गिरने देकर सतोगुण तक ऊपर उठाया जाय तो मनुष्य को क्रोध में पतित होने से आध्यात्मिक आसक्ति के द्वारा बचाया जा सकता है।

अपने नित्य वर्धमान चिदानन्द के लिए भगवान् ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तारित कर लिया और जीवात्माएँ उनके इस चिदानन्द के ही अंश हैं। उनको भी आंशिक स्वतन्त्रता प्राप्त है, किन्तु अपनी इस स्वतन्त्रता का दुरूपयोग करके जब वे सेवा को इन्द्रियसुख में बदल देती हैं तो वे काम की चपेट में आ जाती हैं। भगवान् ने इस सृष्टि की रचना जीवात्माओं के लिए इन कामपूर्ण रुचियों की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित्त की और जब जीवात्माएँ दीर्घकाल तक काम-कर्मों में फँसे रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती हैं, तो वे अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगती हैं। यही जिज्ञासा वेदान्त-सूत्र का प्रारम्भ है जिसमें य कहा गया है – अथातो ब्रह्मजिज्ञासा – मनुष्य को परम तत्त्व की जिज्ञासा करनी चाहिए। और इस परम तत्त्व की परिभाषा श्रीमद्भागवत में इस प्रकार दी गई है – जन्माद्यस्य यतोSन्वयादितरतश्च – सारी वस्तुओं का उद्गम परब्रह्म है। अतः काम का उद्गम भी परब्रह्म से हुआ। अतः यदि काम को भगवत्प्रेम में या कृष्णभावना में परिणत कर दिया जाय, या दूसरे शब्दों में कृष्ण के लिए ही सारी इच्छाएँ हों तो काम तथा क्रोध दोनों ही आध्यात्मिक बन सकेंगे। भगवान् राम के अनन्य सेवक हनुमान ने राव की स्वर्णपुरी को जलाकर अपना क्रोध प्रकट किया, किन्तु ऐसा करने से वे भगवान् के सबसे बड़े भक्त बन गये। यहाँ पर भी श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वे शत्रुओं पर अपना क्रोध भगवान् को प्रसन्न करने के लिए दिखाए। अतः काम तथा क्रोध कृष्णभावनामृत में प्रयुक्त होने पर हमारे शत्रु न रह कर मित्र बन जाते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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