भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय चार दिव्य ज्ञान
चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।। 13 ।।
चातुः-वर्ण्यम्– मानव समाज के चार विभाग;मया– मेरे द्वारा;सृष्टम्– उत्पन्न किये हुए;गुण– गुण;कर्म- तथा कर्म का;विभागशः– विभाजन के अनुसार;तस्य– उसका;कर्तारम्– जनक;अपि– यद्यपि;माम्– मुझको;विद्धि– जानो;अकर्तारम्– न करने के रूप में;अव्ययम्- अपरिवर्तनीय को।
भावार्थ : प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।
तात्पर्य : भगवान् प्रत्येक वस्तु के स्रष्टा हैं। प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके ही द्वारा पालित है और प्रलय के बाद वस्तु उन्हीं में समा जाती है। अतः वे ही वर्णाश्रम व्यवस्था के स्रष्टा हैं जिसमें सर्वप्रथम बुद्धिमान् मनुष्यों का वर्ग आता है जो सतोगुणी होने के कारण ब्राह्मण कहलाते हैं। द्वितीय वर्ग प्रशासक वर्ग का है जिन्हें रजोगुणी होने के कारण क्षत्रिय कहा जाता है। वणिक वर्ग या वैश्य कहलाने वाले लोग रजो तथा तमोगुण के मिश्रण से युक्त होते हैं और शुद्र या श्रमिकवर्ग के लोग तमोगुणी होते हैं। मानव समाज के इन चार विभागों की सृष्टि करने पर भी भगवान् कृष्ण इनमें से किसी विभाग (वर्ण) में नहीं आते, क्योंकि वे उन बद्धजीवों में से नहीं हैं जिनका एक अंश मानव समाज के रूप में है। मानव समाज भी किसी अन्य पशुसमाज के तुल्य है, किन्तु मनुष्यों को पशु-स्तर से ऊपर उठाने के लिए ही उपर्युक्त वर्णाश्रम की रचना की गई, जिससे क्रमिक रूप से कृष्णभावनामृत विकसित हो सके। किसी विशेष व्यक्ति की किसी कार्य के प्रति प्रवृत्ति का निर्धारण उसके द्वारा अर्जित प्रकृति के गुणों द्वारा किया जाता है। गुणों के अनुसार जीवन के लक्षणों का वर्णन इस ग्रंथ के अठारहवें अध्याय में हुआ है। किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ब्राह्मण से भी बढ़कर होता है। यद्यपि गुण के अनुसार ब्राह्मण को ब्रह्म या परमसत्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए, किन्तु उनमें से अधिकांश भगवान् कृष्ण के निर्विशेष ब्रह्मस्वरूप को ही प्राप्त कर पाते हैं, किन्तु जो मनुष्य ब्राह्मण के सीमित ज्ञान को लाँघकर भगवान् श्रीकृष्ण के ज्ञान तक पहुँच जाता है, वही कृष्णभावनाभावित होता है अर्थात् वैष्णव होता है। कृष्णभावनामृत में कृष्ण के विभिन्न अंशों यथा राम, नृसिंह, वराह आदि का ज्ञान सम्मिलित रहता है। और जिस तरह कृष्ण मानव समाज की इस चातुर्वर्ण्य प्रणाली से परे हैं, उसी तरह कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भी इस चातुर्वर्ण्य प्रणाली से परे होता है, चाहे हम इसे जाति का विभाग कहें, चाहे राष्ट्र अथवा सम्प्रदाय का।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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