भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय छह ध्यानयोग
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समाः ।
श्रुचीनां श्रीमतां ग्रेहे योगभ्रष्टोSभिजायते ॥ 41 ॥
प्राप्य– प्राप्त करके;पुण्य-कृताम्– पुण्य कर्म करने वालों के;लोकान्– लोकों में;उषित्वा– निवास करके;शाश्वतीः– अनेक;समाः– वर्ष;शुचीनाम्– पवित्रात्माओं के;श्री-मताम्– सम्पन्न लोगों के;ग्रेहे– घर में;योग-भ्रष्टः– आत्म-साक्षात्कार के पथ से च्युत व्यक्ति;अभिजायते– जन्म लेता है।
भावार्थ : असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या धनवानों के कुल में जन्म लेता है।
तात्पर्य : असफल योगियों की दो श्रेणियाँ हैं – एक वे जो बहुत थोड़ी उन्नति के बाद ही भ्रष्ट होते हैं; दुसरे वे जो दीर्घकाल तक योगाभ्यास के बाद भ्रष्ट होते हैं। जो योगी अल्पकालिक अभ्यास के बाद भ्रष्ट होता है वह स्वर्गलोक को जाता है जहाँ केवल पुण्यात्माओं को प्रविष्ट होने दिया जाता है। वहाँ पर दीर्घकाल तक रहने के बाद उसे पुनः इस लोक में भेजा जाता है जिससे वह किसी सदाचारी ब्राह्मण वैष्णव के कुल में या धनवान वणिक के कुल में जन्म ले सके। योगाभ्यास का वास्तविक उद्देश्य कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करना है, जैसा कि इस अध्याय के अन्तिम श्लोक में बताया गया है, किन्तु जो इतने अध्यवसायी नहीं होते और जो भौतिक प्रलोभनों के कारण असफल हो जाते हैं, उन्हें अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करने की अनुमति दी जाती है। तत्पश्चात् उन्हें सदाचारी या धनवान परिवारों में सम्पन्न जीवन बिताने का अवसर प्रदान किया जाता है। ऐसे परिवारों में जन्म लेने वाले इन सुविधाओं का लाभ उठाते हुए अपने आपको पूर्ण कृष्णभावनामृत तक ऊपर ले जाते हैं।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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