भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय चार दिव्य ज्ञान
स एवायं मया तेSद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोSसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।। 3 ।।
सः– वही;एव– निश्चय ही;मया– मेरे द्वारा;ते– तुमसे;अद्य– आज;योगः– योगविद्या;प्रोक्तः– कही गयी;पुरातनः– अत्यन्त प्राचीन;भक्तः– भक्त;असि– हो;मे– मेरे;सखा– मित्र;च– भी;इति– अतः;रहस्यम्– रहस्य;एतत्– यह;उत्तमम्– दिव्य।
भावार्थ: आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो।
तात्पर्य : मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं – भक्त तथा असुर । भगवान् ने अर्जुन को इस विद्या का पात्र इसीलिए चुना क्योंकि वह उनका भक्त था। किन्तु असुर के लिए इस परम गुह्यविद्या को समझ पाना सम्भव नहीं है। इस परम ज्ञानग्रंथ के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ भक्तों की टीकाएँ हैं और कुछ असुरों की। जो टीकाएँ भक्तों द्वारा की गई हैं वे वास्तविक हैं, किन्तु जो असुरों द्वारा की गई हैं वे व्यर्थ हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण को भगवान् के रूप में मानता है, अतः जो गीता भाष्य अर्जुन के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए किया गया है वह इस परमविद्या के पक्ष में वास्तविक सेवा है। किन्तु असुर भगवान् कृष्ण को उस रूप में नहीं मानते। वे कृष्ण के विषय में तरह-तरह की मनगढ़ंत बातें करते हैं और वे कृष्ण के उपदेश-मार्ग से सामान्य जनता को गुमराह करते रहते हैं। ऐसे कुमार्गों से बचने के लिए यह एक चेतावनी है। मनुष्य को चाहिए कि अर्जुन की परम्परा का अनुसरण करे और श्रीमद्भगवद्गीता के इस परमविज्ञान से लाभान्वित हो।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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