jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय उन्नीस – पुंसवन व्रत का अनुष्ठान (6.19)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: हे प्रभो! आप पुंसवन व्रत के सम्बन्ध में पहले ही बता चुके हैं। अब मैं इसके विषय में विस्तार से सुनना चाहता हूँ क्योंकि मैं समझता हूँ कि इस व्रत का पालन करके भगवान विष्णु को प्रसन्न किया जा सकता है।

2-3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: स्त्री को चाहिए कि अगहन मास (नवम्बर-दिसम्बर) के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को अपने पति की अनुमति से इस नैमित्यिक भक्ति को, तप के व्रत सहित प्रारम्भ करे क्योंकि इससे सभी मनोकामनाएँ पूरी हो सकती है। भगवान विष्णु की उपासना करने के पूर्व स्त्री को चाहिए कि वह मरुतों के जन्म की कथा को सुने। योग्य ब्राह्मणों के निर्देशानुसार वह प्रातःकाल अपने दाँत साफ करे, नहाये, श्वेत साड़ी पहने और आभूषण धारण करे और फिर कलेवा करने के पूर्व भगवान विष्णु तथा लक्ष्मी की पूजा करे।

4 [तब वह भगवान की इस प्रकार से प्रार्थना करे] – हे भगवन! आप समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं किन्तु मैं ऐश्वर्य की कामना नहीं करती हूँ। मैं आपको सहज भाव से सादर नमस्कार करती हूँ। आप उन सम्पत्ति की देवी लक्ष्मी देवी के पति और स्वामी हैं, जो समस्त ऐश्वर्यों से युक्त हैं। आप समस्त योग के स्वामी हैं। मैं आपको केवल नमस्कार करती हूँ।

5 हे भगवन! आप अहैतुकी कृपा, समस्त ऐश्वर्य, समस्त तेज तथा समस्त महिमा, बल एवं दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण हर एक के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं।

6 [भगवान विष्णु को समुचित नमस्कार करने के बाद भक्तों को चाहिए कि वे धन-धान्य की देवी लक्ष्मी माता को सादर नमस्कार करें और इस प्रकार से प्रार्थना करें-] हे विष्णु-पत्नी, हे भगवान विष्णु की अन्तरंगा शक्ति! आप विष्णु के ही समान श्रेष्ठ हैं क्योंकि आपमें भी उनके सारे गुण तथा ऐश्वर्य निहित हैं। हे धन-धान्य की देवी! आप मुझ पर कृपालु हों। हे जगन्माता! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

7 “हे छहों ऐश्वर्यों से युक्त भगवान विष्णु! आप सर्वश्रेष्ठ भोक्ता एवं सर्वशक्तिमान हैं। हे माता लक्ष्मी के पति! मैं विष्वक्सेन जैसे पार्षदों की संगति में रहने वाले आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं आपको समस्त पूजा-सामग्री अर्पित करता हूँ।" मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन अत्यन्त मनोयोग से भगवान विष्णु की पूजा-यथा उनके हाथ, पाँव तथा मुख धोने के लिए और स्नान के लिए जल इत्यादि पूजा सामग्रियों से पूजा करते हुए इस मंत्र का उच्चारण करे। उसे चाहिए कि उन्हें वस्त्र, उपवीत, आभूषण, सुगन्धी, पुष्प, अगुरु तथा दीपक अर्पित करे।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: उपर्युक्त समस्त पूजा सामग्री से भगवान की पूजा करने के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह – "ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतये स्वाहा" इस मंत्र का जप करे और पवित्र अग्नि में बारह बार घी की आहुतियाँ दे।

9 यदि किसी को समस्त ऐश्वर्यों की चाहत है, तो उसका कर्तव्य है कि प्रतिदिन भगवान विष्णु की पूजा उनकी पत्नी लक्ष्मी सहित करे। उसे परम आदर से उपर्युक्त विधि से उनकी पूजा करनी चाहिए। भगवान विष्णु तथा ऐश्वर्य की देवी का अत्यन्त शक्तिशाली संयोग है। वे समस्त वरों को देनेवाले हैं तथा समस्त सौभाग्य के स्रोत हैं। अतः हर एक का कर्तव्य है कि लक्ष्मी-नारायण की पूजा करे।

10 भक्ति के साथ विनीत भाव से भगवान को नमस्कार करना चाहिए। भूमि पर दण्ड के समान गिरते समय (दण्डवत करते हुए) उपर्युक्त मंत्र का दस बार उच्चारण करना चाहिए। तब उसे निम्नानुसार प्रार्थना करनी चाहिए।

11 हे भगवान विष्णु तथा माता लक्ष्मी! आप दोनों समस्त सृष्टि के स्वामी हैं। वास्तव में इस सृष्टि के कारण आप ही हैं। माता लक्ष्मी को समझ पाना अधिक कठिन है क्योंकि वे इतनी शक्तिशाली हैं कि उनकी शक्ति की सीमा का पार पाना कठिन है। माता लक्ष्मी को भौतिक जगत में बहिरंगा शक्ति के रूप में अंकित किया जाता है, परन्तु वास्तव में वे सदैव ईश्वर की अन्तरंगा शक्ति हैं।

12 हे ईश्वर, आप शक्ति के स्वामी हैं, अतः आप परम पुरुष हैं। आप साक्षात यज्ञ हैं। आत्मक्रिया की प्रतिरूप लक्ष्मी आपको अर्पित उपासना की आदि रूपा हैं, जबकि आप समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।

13 यहाँ पर उपस्थित माता लक्ष्मी समस्त गुणों की आगार हैं जबकि आप इन गुणों के प्रकाशक तथा भोक्ता हैं। दरअसल, आप ही प्रत्येक वस्तु के भोक्ता हैं। आप समस्त जीवात्माओं के परमात्मा के रूप में रहते हैं और लक्ष्मी देवी उनके शरीर, इन्द्रिय तथा मन का रूप हैं। उनके भी पवित्र नाम तथा रूप हैं और आप समस्त नामों तथा रूपों के आधार हैं। आप उनके प्रकाशन का कारण हैं।

14 आप दोनों ही तीनों लोकों के परम अधिष्ठाता एवं वरदाता हैं, अतः हे उत्तमश्लोक भगवान! आपके अनुग्रह से मेरी अभिलाषाएँ पूर्ण हों।

15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार श्रीनिवास भगवान विष्णु की पूजा ऐश्वर्य की देवी माता लक्ष्मी जी के साथ साथ उपर्युक्त विधि से स्तुतियों द्वारा की जाये। फिर पूजा की सारी सामग्री हटाकर उनका हाथ-मुँह धुलाने के लिये जल अर्पित करे और फिर से उनकी पूजा करे।

16 तत्पश्चात मनुष्य अत्यन्त भक्ति एवं विनीत भाव से – भगवान विष्णु तथा माता लक्ष्मीजी की स्तुति करे। तब यज्ञावशेष को सूँघकर विष्णु तथा लक्ष्मी की पुनः पूजा करे।

17 पत्नी अपने पति को परमेश्वर का प्रतिनिधि मानकर और उसे प्रसाद देकर विशुद्ध भक्ति से उसकी पूजा करे। पति भी अपनी पत्नी से परम प्रमुदित होकर अपने परिवार के कार्यों में लग जाए।

18 पति-पत्नी दोनों में से कोई एक इस भक्ति को निष्पादित कर सकता है। उनके मधुर सम्बन्धों के कारण दोनों को फल मिलता है। अतः यदि पत्नी इस व्रत को करने में असमर्थ हो तो पति सावधानी से इसे करे। इससे उसकी आज्ञाकारिणी पत्नी को भी उसका फल मिलेगा।

19-20 मनुष्य को चाहिए कि इस भक्तिपूर्ण विष्णु-व्रत को माने और किसी अन्य कार्य में व्यस्त होने के लिए इसके पालन से विचलित न हो। उसे चाहिए कि नित्यप्रति ब्राह्मणों तथा उन सौभाग्यवती स्त्रियों अर्थात अपने पतियों के साथ शान्तिपूर्वक रहने वाली स्त्रियों को बचा हुआ प्रसाद, पुष्प माला, चन्दन तथा आभूषण अर्पित करके उनकी पूजा करे। पत्नी को चाहिए कि अत्यन्त भक्तिपूर्वक विधि-विधानों के अनुसार भगवान विष्णु की पूजा करे। तत्पश्चात भगवान विष्णु को शयन कराए और इसके बाद प्रसाद ग्रहण करे। इस प्रकार पति तथा पत्नी परिशुद्ध हो जाएँगे और उनकी समस्त कामनाएँ पूरी होंगी।

21 साध्वी स्त्री को चाहिए कि एक वर्ष के लिए इस भक्तिमय सेवा को निरन्तर करे। जब एक वर्ष बीत जाये तो उसे चाहिए कि कार्तिक मास (अक्तूबर-नवम्बर) की पूर्णिमा को उपवास करे।

22 दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान करके और भगवान कृष्ण की पूर्ववत पूजा करके गुह्य-सूत्रों के निर्देशानुसार वर्णित भोजन बनाए जैसा उत्सवों पर बनाया जाता है। घी से खीर तैयार करे और पति को चाहिए कि वह इस सामग्री से अग्नि में बारह बार आहुती दे।

23 तत्पश्चात वह (पति) ब्राह्मणों को संतुष्ट करे और जब ब्राह्मण प्रसन्न होकर आशीर्वाद दें तो अपने सिर के द्वारा उन्हें सादर प्रणाम करे और उनकी अनुमति लेकर प्रसाद ग्रहण करे।

24 पति को चाहिए कि भोजन करने के पूर्व सर्वप्रथम आचार्य को सुखद आसन दे और अपने मित्रों तथा स्वजनों के साथ, वाणी को वश में रखते हुए गुरु को प्रसाद भेंट करे। तब पत्नी को चाहिए कि घी में पकाई गई खीर की आहुती से बचे भाग को खाए। इस अवशेष को खाने से विद्वान तथा भक्त पुत्र की और समस्त सौभाग्य की प्राप्ति निश्चित हो जाती है।

25 यदि इस व्रत या अनुष्ठान को शास्त्र सम्मत विधि के अनुसार किया जाये तो इसी जीवन में मनुष्य को ईश्वर से मनवांछित आशीष (वर) प्राप्त हो सकते हैं। जो पत्नी इस अनुष्ठान को करती है उसे अवश्य ही सौभाग्य, ऐश्वर्य, पुत्र, दीर्घजीवी पति, ख्याति तथा अच्छा घरबार प्राप्त होता है।

26-28 यदि अविवाहित कन्या इस व्रत को रखती है, तो उसे सुन्दर पति मिल सकता है। यदि अवीरा स्त्री (जिसका कोई पति या पुत्र नहीं है) इस अनुष्ठान को करती है, तो उसे वैकुण्ठ जगत को भेजा जा सकता है। जिस स्त्री की सन्तानें जन्म लेने के बाद मर चुकी हों, उसे दीर्घजीवी सन्तान के साथ ही साथ सम्पत्ति भी प्राप्त होती है। अभागी स्त्री का भाग्य खुल जाता है और कुरूपा स्त्री सुन्दर हो जाती है। इस व्रत को रखने से रोगी पुरुष को रोग से मुक्ति मिल सकती है और कार्य करने के लिए स्वस्थ शरीर प्राप्त हो सकता है। यदि इस कथा को कोई अपने पितरों तथा देवों को आहुती देते समय विशेषतया श्राद्ध-पक्ष में सुनाता तो देवता तथा पितृलोक के वासी उससे अत्यन्त प्रसन्न होंगे और उसकी समस्त इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। इस अनुष्ठान के करने से भगवान विष्णु तथा माता लक्ष्मी उस पर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। हे राजा परीक्षित! मैंने पूरी तरह से बता दिया है कि दिति ने किस प्रकार इस व्रत को किया और उसे श्रेष्ठ पुत्र-मरुतगण तथा सुखी जीवन-प्राप्त हुए। मैंने तुम्हें यथाशक्ति विस्तार से सुनाने का प्रयत्न किया है।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (षष्ठ स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

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अध्याय अठारह – राजा इन्द्र का वध करने के लिए दिति का व्रत (6.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: पृश्नि, जो अदिति के पाँचवें पुत्र सविता की पत्नी थी, उनसे तीन पुत्रियाँ सावित्री, व्याह्यति तथा त्रयी और अग्निहोत्र, पशु, सोम, चार्तुमास्य तथा पंच महायज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुए।

2 हे राजन! अदिति के छठे पुत्र भग की पत्नी का नाम सिद्धि था जिसके महिमा, विभु तथा प्रभु नामक तीन पुत्र तथा आशीष नामक एक अत्यन्त सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई।

3-4 अदिति के सातवें पुत्र धाता की चार पत्नियाँ थीं जिनके नाम थे कुहु, सिनीवाली, राका तथा अनुमति। इन चारों से क्रमशः सायम, दर्श, प्रातः तथा पूर्णमास नामक चार पुत्र हुए। अदिति के आठवें पुत्र विधाता की पत्नी का नाम क्रिया था जिससे पुरीष्य नामक पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। अदिति के नवें पुत्र वरुण की पत्नी चर्षणी थी जिसके गर्भ से ब्रह्मा के पुत्र भृगु ने फिर जन्म लिया।

5 भृगु तथा वाल्मीकि वरुण के विशिष्ट पुत्र थे, जबकि अगस्त्य तथा वशिष्ठ ऋषि वरुण तथा मित्र (अदिति के दसवें पुत्र) के संयुक्त पुत्र थे।

6 स्वर्ग-सुन्दरी उर्वशी को देखकर मित्र तथा वरुण दोनों का वीर्य स्खलित हो गया जिसे उन्होंने एक मिट्टी के पात्र में रख दिया। बाद में इसी पात्र से अगस्त्य तथा वसिष्ठ नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। ये मित्र तथा वरुण के संयुक्त (उभयनिष्ट) पुत्र हैं। मित्र को अपनी पत्नी रेवती से तीन पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम उत्सर्ग, अरिष्ट तथा पिप्पल थे।

7 हे राजा परीक्षित! अदिति के ग्यारहवें पुत्र एवं स्वर्गलोक के राजा इन्द्र की पत्नी पौलोमी के गर्भ से जयन्त, ऋषभ तथा मीढुष नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ऐसा हमने सुना है।

8 अनेक शक्तियों वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपनी शक्ति से बौने (वामन) के रूप में प्रकट हुए जो अदिति के बारहवें पुत्र उरुक्रम कहलाते हैं। उनकी पत्नी कीर्ति के गर्भ से बृहत्श्लोक नामक एक पुत्र ने जन्म लिया जिसके सौभग इत्यादि कई पुत्र हुए।

9 बाद में (आठवें स्कन्ध में) मैं यह वर्णन करूँगा कि किस प्रकार उरुक्रम अर्थात भगवान वामनदेव परम साधु कश्यप के पुत्र के रूप में प्रकट हुए और किस प्रकार तीनों लोकों को अपने पगों से नाप लिया। मैं उनके अपूर्व (असामान्य - uncommon) कर्मों, गुणों, शक्ति तथा अदिति के गर्भ से जन्म ग्रहण करने के सम्बन्ध में वर्णन करूँगा।

10 अब मैं दिति के उन पुत्रों का वर्णन करूँगा जो कश्यप के द्वारा उत्पन्न किये गये किन्तु जो असुर बने। इस असुर वंश में परम भक्त प्रह्लाद महाराज तथा बलि महाराज प्रकट हुए। असुरों को दैत्य कहा जाता है क्योंकि वे दिति के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

11 सर्वप्रथम दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष दो पुत्र उत्पन्न हुए। ये दोनों अत्यन्त शक्तिशाली थे और दैत्यों तथा दानवों द्वारा पूजित थे।

12-13 हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु नाम से विख्यात थी। वह जम्भ की पुत्री एवं दनु की वंशज थी। उसके एक एक करके चार पुत्र हुए जिनके नाम संह्लाद, अनुह्लाद, ह्लाद तथा प्रह्लाद थे। इन चारों भाइयों की बहन का नाम सिंहिका था। उसने विप्रचित नामक असुर से ब्याह करके राहू नामक असुर को जन्म दिया।

14 जब राहू वेश बदलकर देवताओं के बीच में अमृत पी रहा था, तो भगवान हरि ने उसका सिर काट लिया। संह्लाद की पत्नी का नाम कृति था। इन दोनों के संयोग से कृति के पंचजन नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

15 ह्लाद की पत्नी का नाम धमनि था। उसने वातापी तथा इल्वल नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। जब अगस्त्य मुनि इल्वल के अतिथि बने तो उसने वातापी को, जो मेढे के रूप में था, पकाकर भोजन करवाया।

16 अनुह्लाद की पत्नी सूर्या थी। उसने बाष्कल तथा महिष नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। प्रह्लाद के विरोचन नामक एक पुत्र हुआ जिसकी पत्नी से बलि महाराज ने जन्म लिया।

17 इसके पश्चात अशना की कोख से महाराज बलि को एक सौ पुत्र प्राप्त हुए जिनमें राजा बाण ज्येष्ठ था। बलि महाराज का चरित्र (महिमा) अत्यन्त प्रशंसनीय है और उनका वर्णन आगे (आठवे स्कन्ध) में होगा।

18 चूँकि राजा बाण शिवजी का उपासक था, अतः वह उनके सर्वश्रेष्ठ पार्षदों (गणों) में से एक बन गया। आज भी शिवजी राजा बाण की राजधानी की रक्षा करते हैं और सदैव उसके निकट खड़े रहते हैं।

19 दिति के गर्भ से उनचास मरुतदेव भी उत्पन्न हुए। इनमें से किसी के सन्तान नहीं हुई। यद्यपि दिति ने उन्हें जन्मा था किन्तु इन्द्र ने उन्हें देव पद प्रदान किया।

20 राजा परीक्षित ने पूछा – हे प्रभो! जन्म के कारण वे उनचासों मरुत आसुरी वृत्ति से परिपूर्ण रहे होंगे तो फिर स्वर्ग के राजा इन्द्र ने उन्हें देवता क्यों बनाया? क्या उन्होंने कोई पुण्यकर्म या अनुष्ठान किए थे?

21 हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! मैं तथा यहाँ पर उपस्थित सभी साधुजन इसे जानने के लिए परम उत्सुक हैं। अतः हे महात्मन! हमसे इसका कारण बताएँ।

22 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: हे महर्षि शौनक! महाराजा परीक्षित को सविनय एवं संक्षेप में आवश्यक विषयों पर बोलते हुए सुनकर सर्वज्ञाता श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उनके प्रयत्नों की प्रशंसा की और इस प्रकार उत्तर दिया।

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले: इन्द्र की सहायता करने मात्र के लिए भगवान विष्णु ने हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष नामक दोनों भाइयों का वध कर दिया। उनके मारे जाने से उनकी माता दिति शोक तथा क्रोध से परिपूर्ण होकर इस प्रकार सोचने लगी।

24 अत्यन्त इन्द्रियलोलुप इन्द्र ने हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष इन दोनों भाइयों का वध भगवान विष्णु के माध्यम से किया है। अतः वह क्रूर, कठोर हृदय एवं पापी है। मैं कब उसे मारकर शान्तचित्त होकर दम ले सकूँ गी?

25 समस्त राजाओं तथा महान नायकों के शरीर मृत्यु के पश्चात कीड़ों, विष्ठा अथवा राख़ में परिणत हो जाएँगे। यदि कोई ऐसे शरीर की रक्षा के लिए ईर्ष्यावश अन्यों का वध करता है, तो क्या वह जीवन के वास्तविक हित को जानता है? निश्चय ही वह नहीं जानता क्योंकि अन्य जीवों के प्रति ईर्ष्या करने से वह अवश्य ही नरक को जाता है।

26 दिति ने विचार किया कि इन्द्र अपने शरीर को शाश्वत समझकर अनियंत्रित हो गया है। अतः मैं ऐसा पुत्र चाहूँगी जो इन्द्र की उन्मत्तता को दूर कर दे। इसके लिए मैं कुछ न कुछ उपाय करती हूँ।

27 इस प्रकार सोचती हुई (इन्द्र को मारने के लिए एक ऐसे पुत्र की इच्छा से) दिति निरन्तर अपने पति कश्यप को अपने मोहक आचरण से प्रसन्न रखने लगी।

28 हे राजन! दिति कश्यप की सभी आज्ञाओं का अत्यन्त निष्ठा से पालन करती रही। वह सेवा, प्रेम, विनय तथा आत्म-संयम एवं अपनी मृदुल वाणी से और अपनी मन्द हँसी और बाँकी चितवन से कश्यप के मन को आकृष्ट करते हुए उसने उन्हें अपने वश में कर लिया।

29 यद्यपि कश्यप मुनि एक विद्वान पुरुष थे, किन्तु वे दिति के बनावटी व्यवहार से मोहित हो गए जिससे वे उसके वश में आ गये। अतः उन्होंने अपनी पत्नी को विश्वास दिलाया कि वे उसकी इच्छाओं की पूर्ति करेंगे। पति द्वारा ऐसा वचन तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।

30 सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माण्ड की जीवात्माओं के पिता ब्रह्माजी ने देखा कि समस्त जीवात्मा विरक्त हो रहे हैं। अतः उन्होंने जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य से पुरुष के आधे अंग से स्त्री की रचना की क्योंकि स्त्री का आचरण मनुष्य के मन को हर लेता है।

31 हे प्रिय! अपनी पत्नी दिति के विनम्र आचरण से अत्यधिक प्रसन्न होकर परम शक्तिशाली साधु पुरुष कश्यप हँस पड़े और इस प्रकार बोले।

32 कश्यप मुनि ने कहा: हे अनिंद्य सुन्दरी! मैं तुम्हारे आचरण से परम प्रसन्न हूँ, अतः तुम चाहे जो भी वर माँग सकती हो। यदि पति प्रसन्न हो तो चाहे इस लोक की या अन्य लोक की वह कौन सी इच्छा है, जो पूरी न हो सके?

33-34 पति ही स्त्रियों के लिए परम देवता होता है। लक्ष्मीपति भगवान वासुदेव सबों के हृदय में स्थित हैं और सकाम भक्तों द्वारा विभिन्न नामों तथा देव-रूपों में पूजे जाते हैं। इसी प्रकार पति भगवान के रूप में पत्नी के लिए पूजा की वस्तु है।

35 हे सुन्दर शरीर वाली, तन्वंगी प्रिये! कर्तव्य-निष्ठा पत्नी को सदाचारिणी और अपने पति की आज्ञाकारिणी होना चाहिए। उसे अपने पति की पूजा वासुदेव के प्रतिनिधि के रूप में भक्तिपूर्वक करनी चाहिए।

36 हे कल्याणी! तुमने मुझे श्रीभगवान का प्रतिनिधि मानकर अत्यन्त भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की है, अतः मैं तुम्हारी इच्छाओं को पूरा करके तुम्हें पुरस्कृत करूँगा, जो किसी अ-सती पत्नी के लिए दुर्लभ है।

37 दिति ने उत्तर दिया -- हे पतिदेव! हे महात्मन! मैं अपने दो पुत्र खो चुकी हूँ। यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं, तो मैं ऐसा अमर पुत्र चाहूँगी जो इन्द्र का वध कर सके। मैं इसलिए यह प्रार्थना कर रही हूँ क्योंकि इन्द्र ने विष्णु की सहायता से मेरे दो पुत्रों, हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु, का वध किया है।

38 दिति की प्रार्थना सुनकर कश्यप मुनि अत्यधिक उद्विग्न हो गये। वे पश्चाताप करने लगे, “हाय, अब मेरे समक्ष इन्द्र को वध करने के अपवित्र कार्य का संकट आया है।

39 कश्यप मुनि ने सोचा, ओह! मैं अब भौतिक सुख के प्रति अत्यधिक आसक्त हो चुका हूँ। अतः इस अवसर का लाभ उठाकर मेरा मन श्रीभगवान की माया द्वारा स्त्री (अपनी पत्नी) के रूप में आकृष्ट हुआ है। अतः मैं अत्यन्त नीच हूँ और अवश्य ही नरक में जा गिरूँगा।

40 मेरी इस पत्नी ने उस साधन का सहारा लिया है, जो उसकी प्रकृति का अनुगामी है, अतः उसको दोष नहीं दिया जा सकता। किन्तु मैं तो पुरुष हूँ। सारा दोष तो मेरा है क्योंकि मैं तनिक भी जान न पाया कि मेरी भलाई किसमें है क्योंकि मैं अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सका।

41 स्त्री का मुख शरदकालीन खिले हुए कमल-पुष्प के समान आकर्षक तथा सुन्दर होता है। उसके शब्द अत्यन्त मधुर और कानों को प्रिय लगने वाले होते हैं, किन्तु यदि उसके हृदय का अध्ययन किया जाये, तो पता चलेगा कि वह छुरे की धार के समान अत्यन्त पैना है। भला ऐसा कौन है, जो स्त्री के कार्यकलापों को जान सके?

42 अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए स्त्रियाँ मनुष्यों के साथ ऐसा व्यवहार करती हैं मानो वे उनकी सर्वाधिक प्रिय हों, किन्तु वास्तव में उनका कोई प्रिय नहीं होता। स्त्रियों को अति साधु स्वभाव का माना जाता है, किन्तु अपने स्वार्थ के लिए वे अपने पति, पुत्र या भाई की भी हत्या कर सकती हैं या दूसरों से करा सकती हैं।

43 मैंने उसे एक वर देने का वचन दिया है, जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता, लेकिन इन्द्र वध किये जाने योग्य नहीं है। इस स्थिति में मैंने जो उपाय (हल) सोचा है, वह उपयुक्त है।

44 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार विचारते हुए कश्यप मुनि कुछ-कुछ क्रुद्ध हो गये। हे कुरुवंशी महाराज परीक्षित! वे अपने आपको धिक्कारते हुए दिति से इस प्रकार बोले।

45 कश्यप मुनि ने कहा: हे कल्याणी! यदि तुम अपने इस व्रत के सम्बन्ध में मेरे उपदेशों का कम से कम एक वर्ष तक पालन करोगी तो तुम्हें निश्चित रूप से पुत्र प्राप्त होगा जो इन्द्र का वध करने में सक्षम होगा। किन्तु यदि तुम वैष्णव नियमों का पालन करनेवाले इस व्रत से तनिक भी विचलित होगी तो तुम्हें जो पुत्र प्राप्त होगा वह इन्द्र का अनुयायी होगा।

46 दिति ने उत्तर दिया – हे ब्राह्मण! मैं आपके परामर्श को स्वीकार करती हूँ। मैं व्रत का पालन करूँगी। कृपा करके यह सब स्पष्ट बताएँ कि मुझे क्या करना है, क्या नहीं करना है और किस प्रकार यह व्रत भंग नहीं हो सकेगा ?

47 कश्यप मुनि ने कहा: हे प्रिये! इस व्रत का पालन करते समय न तो उग्र बने, न ही किसी को कष्ट पहुँचाए। न तो किसी को शाप दे, न असत्य भाषण करे। न तो अपने नाखून तथा बाल काटे और न हड्डियों तथा खोपड़ी जैसी अशुद्ध वस्तुओं का स्पर्श करे।

48 कश्यप मुनि ने आगे कहा: हे कल्याणी! नहाते समय पानी में कभी न जाएँ, कभी क्रोध न करे और न दुष्ट लोगों से कभी बोले या संगति करें। कभी भी बिना धुले वस्त्र न पहने और पहले धारण की गई माला को कभी न पहने।

49 कभी भी जूठा भोजन न खायें, देवी काली (दुर्गा) को चढ़ाया हुआ प्रसाद न खायें और मांस या मछ्ली से मिश्रित कोई भी वस्तु न खायें। रजस्वला स्त्री द्वारा देखी गई किसी भी सामग्री को न खायें। अंजुली से पानी न पिये।

50 भोजन करने के पश्चात तुम्हें मुँह, हाथ तथा पाँव धोये बिना बाहर (सड़क पर) नहीं जाना चाहिए। तुम्हें न तो शाम को या बाल खोले हुए और न आभूषणों से सज्जित हुए बिना बाहर जाना चाहिए। जब तक वाणी का संयम न हो और शरीर ठीक से ढका न हो तब तक तुम्हें घर से बाहर नहीं जाना चाहिए।

51 तुम्हें न तो दोनों पाँव धोये बिना या शुद्ध हुए बिना, न ही गीले पाँव अथवा अपना सिर पश्चिम या उत्तर करके सोना चाहिए। सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय, निर्वस्त्र होकर तथा अन्य स्त्रियों के साथ नहीं लेटना चाहिए।

52 मनुष्य को चाहिए कि धुला वस्त्र पहनकर, सदैव शुद्ध रहकर तथा हल्दी, चन्दन और अन्य मांगलिक सामग्रियों से अलंकृत होकर कलेवा करने के पूर्व गायों, ब्राह्मणों, ऐश्वर्य की देवी (लक्ष्मी) तथा श्रीभगवान की पूजा करे।

53 इस व्रत का पालन करने वाली स्त्री को चाहिए कि वह पुष्प माला, चन्दन, आभूषण तथा अन्य सामग्रियों से पुत्रवती तथा सौभाग्यवती स्त्रियों की पूजा करे। गर्भवती स्त्री को अपने पति की पूजा करके उसकी स्तुति करनी चाहिए। उसे उसका ध्यान यह सोचकर करना चाहिए कि वह उसके गर्भ में स्थित है।

54 कश्यप मुनि ने आगे कहा: यदि तुम श्रद्धापूर्वक कम से कम एक वर्ष तक इस व्रत में लगी रहकर इस पुंसवन अनुष्ठान को करोगी तो तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होगा जो इन्द्र का वध करेगा। किन्तु यदि इस व्रत को करने में कुछ भी त्रुटि रह गई तो तुम्हारा पुत्र इन्द्र का मित्र बन जाएगा।

55 हे राजा परीक्षित! कश्यप की पत्नी दिति ने पुंसवन नामक शुद्धिकर्त्री विधि को करना अंगीकार कर लिया। उसने कहा, 'हाँ, मैं आपके उपदेशानुसार सब कुछ करूँगी।' वह अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक गर्भवती हुई और श्रद्धापूर्वक व्रत का पालन करती रही।

56 सबों का सम्मान करनेवाले हे राजा! इन्द्र ने दिति का मन्तव्य जान लिया, अतः वह अपना स्वार्थ साधने की युक्ति सोचने लगा। इस तर्क का अनुसरण करते हुए कि आत्म-रक्षा प्रकृति का प्रथम नियम है, उसने दिति की प्रतिज्ञा को भंग करना चाहा। अतः वह आश्रमवासिनी अपनी मौसी दिति की सेवा करने लगा।

57 इन्द्र प्रतिदिन जंगल से फूल, फल, कंद तथा यज्ञ के लिए समिधा लाकर अपनी मौसी की सेवा करने लगा। वह उचित समय पर कुश, पत्तियाँ, कलियाँ, मिट्टी तथा जल भी ले आता था।

58 हे राजा परीक्षित! जिस प्रकार बहेलिया हिरण को मारने के लिए हिरण की खाल पहनकर छद्मवेष धारण करता है उसी प्रकार से इन्द्र, हृदय से दिति पुत्रों का शत्रु किन्तु बाहर से मित्र बनकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक दिति की सेवा करने लगा। इन्द्र का मन्तव्य दिति के व्रत के अनुष्ठान में त्रुटि निकालकर उसे धोखा देना था, किन्तु साथ ही वह नहीं चाहता था कि कोई उसे पहचान सके इसलिए वह अत्यन्त सतर्कता के साथ उसकी सेवा करने लगा।

59 हे विश्वेश्वर! जब इन्द्र को कोई त्रुटि न मिली तो उसने सोचा, अब मेरा कल्याण कैसे हो? इस प्रकार वह गहरी चिन्ता में डूब गया। कठोरता से व्रत का पालन करते रहने से अत्यन्त क्षीण एवं अशक्त हो जाने से दुर्भाग्यवश दिति ने भोजन के पश्चात मुँह, हाथ तथा पाँव धोने में लापरवाही बरती और संध्या में ही सो गई।

61 इस त्रुटि को पाकर समस्त योगशक्तियों (योग सिद्धियाँ तथा अणिमा, लघिमा) का स्वामी इन्द्र घोर निद्रा में अचेत दिति के गर्भ में प्रविष्ट हो गया।

62 दिति के गर्भ में प्रविष्ट होकर इन्द्र ने अपने वज्र से चमकते हुए सोने के समान गर्भ (भ्रूण) को सात खण्डों में काट डाला। सात स्थानों में सात विभिन्न जीव रोने लगे। इन्द्र ने "मत रो" ऐसा कहकर पुनः सात खण्डों में काट डाला।

63 अत्यन्त सन्तप्त होकर, हाथ जोड़कर उन्होंने इन्द्र से कहा: ” हे राजन! हे इन्द्र! हम तुम्हारे भाई मरुदगण हैं। तुम हमें क्यों मार रहे हो?”

64 जब इन्द्र ने देखा कि वे वास्तव में उसके भक्त-अनुयायी हैं, तो उसने उनसे कहा कि यदि तुम सचमुच मेरे भाई हो तो तुम्हें मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है।

65 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! आप अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जला दिये गये थे, किन्तु जब श्रीकृष्ण आपकी माता के गर्भ में प्रविष्ट हुए तो आप बच गए। इसी प्रकार यद्यपि इन्द्र ने एक गर्भ को वज्र द्वारा उनचास खण्डों में काट डाला था, किन्तु वे सभी पूर्ण पुरषोत्तम भगवान के अनुग्रह से बच गये।

66-67 यदि कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा एक बार भी करता है, तो वह वैकुण्ठ में प्रवेश करने का अधिकारी हो जाता है तथा भगवान विष्णु के रूप को प्राप्त करता है। संकल्पपूर्वक कड़ाई से नियमों का पालन करते हुए दिति ने लगभग एक वर्ष तक भगवान विष्णु की पूजा की। आध्यात्मिक जीवन की इस शक्ति के कारण उनचास मरुदगण पैदा हुए। यद्यपि मरुदगण दिति के गर्भ से पैदा हुए, किन्तु परम भगवान की कृपा से वे देवताओं की बराबरी पर आ गये, यह कैसा आश्चर्य है?

68 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करने से दिति पूर्णतया शुद्ध हो गई थी। जब वह बिस्तर से उठी तो उसने इन्द्र समेत अपने उनचास पुत्रों को देखा। ये उनचासों पुत्र अग्नि के समान तेजवान थे और इन्द्र के मित्र थे अतः वह अतीव प्रसन्न थी।

69 तदनन्तर, दिति ने इन्द्र से कहा: हे पुत्र! मैं इस कठोर व्रत का इसलिए पालन कर रही थी कि तुम बारहों आदित्यों को मारने के लिए एक पुत्र प्राप्त कर सकूँ।

70 मैंने केवल एक पुत्र के लिए प्रार्थना की थी, किन्तु मैं देखती हूँ कि ये तो उनचास हैं। यह किस तरह सम्भव हो सका? मेरे पुत्र इन्द्र! यदि तुम जानते हो तो मुझसे सच सच कहो। झूठ बोलने का प्रयास मत करना।

71 इन्द्र ने उत्तर दिया – हे माता! स्वार्थ से अन्धा होने के कारण मैंने धर्म से मुँह मोड़ लिया था। जब मुझे ज्ञात हुआ कि आप आध्यात्मिक जीवन का महान व्रत धारण कर रही हैं, तो मैं उसमें कोई त्रुटि निकालना चाहता था और जब मुझे त्रुटि मिल गई तो मैं आपके गर्भ में प्रविष्ट हो गया और मैंने गर्भ को खण्ड खण्ड कर दिया।

72 सर्वप्रथम मैंने गर्भस्थ शिशु को सात खण्डों में काट डाला जिससे सात शिशु बन गये। तब फिर मैंने प्रत्येक शिशु के भी सात सात खण्ड कर दिये। किन्तु परमेश्वर के अनुग्रह से इनमें से कोई भी मरा नहीं।

73 हे माता! जब मैंने देखा कि उनचासों पुत्र जीवित हैं, तो निश्चित ही मुझे आश्चर्य हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि यह आपके द्वारा विष्णु उपासना के लिए की गई नियमित भक्तिपूर्ण सेवा का ही आनुषंगिक फल है।

74 यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की उपासना में ही निरत रहने वालों को भगवान से किसी भी प्रकार की भौतिक इच्छा यहाँ तक कि मुक्ति की भी कामना नहीं रहती, तो भी भगवान कृष्ण उनकी समस्त कामनाओं को परिपूर्ण करते हैं।

75 समस्त आकांक्षाओं का अन्तिम लक्ष्य भगवान का दास बनना है। यदि कोई बुद्धिमान मनुष्य, अपने आपको आत्मसमर्पित करके परम प्रिय भगवान की सेवा करता है, तो वह भौतिक सुख की कामना कैसे कर सकता है, जो नरक में भी प्राप्य है?

76 हे माता, हे महीयसी! मैं मूर्ख हूँ। मैंने जो पाप किये हैं उसके लिए आप मुझे क्षमा प्रदान करें। आपके उनचासों पुत्र बिना किसी क्षति के आपकी भक्ति के कारण ही उत्पन्न हुए हैं। मैंने शत्रु होने के नाते उनको खण्ड खण्ड कर दिया था, किन्तु आपकी परम भक्ति के कारण वे मरे नहीं।

77 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: दिति इन्द्र के इस उत्तम आचरण से अत्यन्त प्रसन्न हुई। तब इन्द्र ने अपनी मौसी को अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम किया और उसकी आज्ञा से अपने मरुदगण भाइयों सहित स्वर्गलोक को चला गया।

78 हे राजा परीक्षित! मैंने यथासम्भव तुम्हारे द्वारा पूछे गये प्रश्नों विशेष रूप से मरुतों के इस शुद्ध मंगलकारी वर्णन का उत्तर दिया। अब तुम आगे जो पूछना चाहते हो पूछो, मैं उसे भी विस्तार से बताऊँगा।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय सत्रह – माता पार्वती द्वारा चित्रकेतु को शाप (6.17)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जिस दिशा में भगवान अनन्त अन्तर्धान हुए थे उस दिशा की ओर नमस्कार करके, राजा चित्रकेतु विद्याधरों का अगुवा बनकर बाह्य अन्तरिक्ष में यात्रा करने लगा।

2-3 महान साधुओं तथा मुनियों एवं सिद्धलोक तथा चारणलोक के वासियों द्वारा प्रशंसित, सर्वाधिक शक्तिशाली योगी चित्रकेतु लाखों वर्षों तक जीवन का आनन्द भोगता हुआ विचरता रहा। शारीरिक शक्ति तथा इन्द्रियों के क्षीण हुए बिना वह सुमेरु पर्वत की घाटियों में वहाँ घूमता रहा जो विभिन्न प्रकार की योग-शक्तियों की सिद्धि का स्थान है। उसने भगवान हरि की महिमा का जप करते हुए विद्याधरलोक की रमणियों के साथ जीवन का आनन्द उठाया।

4-8 एक बार जब राजा चित्रकेतु भगवान विष्णु द्वारा प्रदत्त अत्यन्त तेजोमय विमान पर बैठकर बाह्य अन्तरिक्ष में यात्रा कर रहा था, तो उन्होंने भगवान शिव को सिद्धों एवं चारणों से घिरा हुआ देखा। शिवजी महामुनियों की सभा में बैठे थे और देवी पार्वती को अपनी गोद में बैठाकर उनका आलिंगन कर रहे थे। राजा चित्रकेतु पार्वती के निकट जाकर तेजी से हँसे और कहने लगे। चित्रकेतु ने कहा: जटाधारी शिवजी ने निस्सन्देह कठिन तपस्या की है। वे वैदिक नियमों के कट्टर अनुयायियों की सभा के अध्यक्ष हैं। शिवजी समस्त जगत के गुरु हैं और भौतिक देहधारी जीवात्माओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे ही धर्मपद्धति के व्याख्याता है, तो भी यह कितना आश्चर्यजनक कि वे बड़े बड़े सन्त पुरुषों की सभा में अपनी पत्नी के साथ इस तरह विराजमान हैं।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा- हे राजा! चित्रकेतु के वचन सुनकर परम बलशाली, अगाध ज्ञानवान देवाधिदेव शिव केवल हँस दिये और चुप रहे। सभा के समस्त सदस्यों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया और कुछ नहीं कहा।

10 शिवजी तथा पार्वती के शौर्य को न जानते हुए राजा चित्रकेतु ने उनकी तीखी आलोचना की। उसके वचन तनिक भी अच्छे लगने वाले न थे, अतः अत्यन्त क्रुद्ध देवी पार्वती चित्रकेतु से, जो अपने को इन्द्रियों के नियंत्रण में शिवजी से श्रेष्ठ समझ रहा था, इस प्रकार बोलीं।

11-13 देवी पार्वती ने कहा: ओह, क्या हम जैसे व्यक्तियों को दण्ड देने के लिए इसने दण्डधारी का पद ले लिया है? क्या इसे शासक नियुक्त किया गया है? क्या यही सबों का एकमात्र स्वामी हैं? अहो! ऐसा प्रतीत होता है कि न तो कमल-पुष्प से जन्म लेने वाले ब्रह्मा, न भृगु तथा नारद जैसे महामुनि अथवा सनतकुमार आदि चारों कुमार ही धर्म के नियमों को जानते हैं। मनु तथा कपिल भी उन नियमों को भूल चुके हैं। मैं सोचती हूँ कि इसलिए उन्होंने कभी शिवजी को इस प्रकार आचरण करने के लिए नहीं टोका। यह चित्रकेतु घोर निकृष्ट है क्योंकि इसने उन शिवजी का तिरस्कार करके ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं को पीछे छोड़ दिया है, जो उनके चरणकमलों का सदैव ध्यान धरते रहते हैं। भगवान शिव साक्षात धर्म तथा समस्त जगत के गुरु हैं अतः चित्रकेतु दण्डनीय है।

14 यह व्यक्ति ऐसा सोचकर अपनी सफलता से फुला हुआ है कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ। यह व्यक्ति भगवान विष्णु के उन चरणकमलों के निकट, जिनकी उपासना सभी साधु पुरुष करते हैं, जाने के योग्य ही नहीं है क्योंकि यह अपने को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझकर घमण्डी बन गया है।

15 ऐ मेरे दुर्बुद्धि बेटे! अब तुम असुरों के निम्न तथा पापी परिवार में जन्म ग्रहण करो जिससे तुम पुनः इस संसार में महान सन्त पुरुषों के प्रति ऐसा पाप न कर सको।

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजा परीक्षित! पार्वती द्वारा शाप दिये जाने पर चित्रकेतु अपने विमान से नीचे उतरा, उनके समक्ष विनम्रतापूर्वक नतमस्तक हुआ और उसने उन्हें पूर्णरूपेण प्रसन्न कर दिया।

17 चित्रकेतु ने कहा: हे माता! मैं अपने हाथ जोड़कर आपका शाप स्वीकार करता हूँ। मुझे शाप की परवाह नहीं है, क्योंकि मनुष्य के पूर्वकर्मों के अनुसार ही देवताओं द्वारा सुख या दुख प्रदान किये जाते हैं।

18 अज्ञान से मोहग्रस्त होकर यह जीवात्मा इस संसार रूपी जंगल में भटकता रहता है और हर जगह तथा हर समय अपने पूर्वकर्मों के फलस्वरूप सुख तथा दुख पाता रहता है (अतः हे माता! इस घटना के लिए न आप दोषी हैं न मैं)

19 इस संसार में न तो स्वयं जीवात्मा और न पराये (मित्र तथा शत्रु) ही भौतिक सुख तथा दुख के कारण हैं। केवल अज्ञानतावश जीवात्मा यह सोचता है कि वह तथा पराये लोग इसके कारणस्वरूप हैं।

20 यह संसार सतत प्रवाहमान नदी की तरंगों के समान है, अतः इसमें क्या शाप और क्या अनुग्रह? क्या स्वर्गलोक और क्या नरकलोक? क्या सुख और क्या वास्तविक दुख? निरन्तर प्रवाहित होते रहने के कारण तरंगें कोई शाश्वत प्रभाव नहीं छोड़ती।

21 श्रीभगवान एक हैं। वे भौतिक जगत की स्थितियों से प्रभावित हुए बिना आत्म-स्वरूप शक्ति से समस्त जीवों की सृष्टि करते हैं। माया से दूषित होकर जीवात्मा अविद्या को प्राप्त होता है और अनेक प्रकार के बन्धनों में जा पड़ता है। कभी-कभी ज्ञान के कारण जीवात्मा को मुक्ति दी जाती है। सत्व तथा रजो गुणों के कारण उसे सुख तथा दुख मिलते हैं।

22 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान समस्त जीवों को एकसमान देखते हैं। अतः न तो कोई उनका अत्यन्त प्रिय है, न कोई शत्रु, न तो उनका कोई मित्र है न कोई परिजन। इस भौतिक जगत से अनासक्त होने के कारण उन्हें तथाकथित सुख के लिए न तो कोई स्नेह है, न दुख के लिए किसी प्रकार की घृणा। सुख तथा दुख सापेक्ष हैं। भगवान सदैव प्रसन्न रहनेवाले हैं, अतः उनके लिए दुख का कोई अर्थ नहीं है।

23 यद्यपि परमेश्वर कर्म के अनुसार प्राप्त होनेवाले हमारे सुख दुख से अनासक्त हैं और कोई भी उनका शत्रु या मित्र नहीं है, तो भी वे अपनी भौतिक शक्ति (माया) के द्वारा शुभ तथा अशुभ कर्मों की उत्पत्ति करते हैं। इस प्रकार भौतिक जीवन को चालू रखने के लिए वे सुख-दुख, लाभ-हानि, बन्धन-मोक्ष, जन्म-मृत्यु की सृष्टि करते हैं।

24 हे माता! आप अब वृथा ही क्रुद्ध हैं। चूँकि मेरे समस्त सुख-दुख मेरे पूर्वकर्मों के द्वारा सुनिश्चित हैं, अतः मैं न तो क्षमा-प्रार्थी हूँ और न आपके शाप से मुक्त होना चाहता हूँ। यद्यपि मैंने जो कुछ कहा है अनुचित नहीं है, किन्तु जो कुछ आप अनुचित समझती हों उसके लिए क्षमा करें।

25 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे शत्रुओं का दमन करनेवाले राजा परीक्षित! शिवजी तथा पार्वती को प्रसन्न करने के बाद चित्रकेतु अपने विमान पर बैठ गए और उनके देखते-देखते प्रस्थान कर गये। जब शिवजी तथा पार्वती ने देखा कि शापित होने पर भी चित्रकेतु निर्भय था, तो वे उसके आचरण पर विस्मित होकर हँस पड़े।

26 तत्पश्चात परमसाधु नारद, असुरों, सिद्धलोक के वासियों तथा अपने व्यक्तिगत सहयोगियों के समक्ष सर्वशक्तिमान भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती से बोले और वे सब सुनते रहे।

27 शिवजी ने कहा: हे सुन्दरी! तुमने वैष्णवों की महानता देख ली? श्रीभगवान हरि के दासानुदास होकर वे महान पुरुष होते हैं और किसी प्रकार के सांसारिक सुख में रुचि नहीं रखते।

28 पूरी तरह से भगवान नारायण की सेवा में लीन रहनेवाले भक्तजन जीवन की किसी भी अवस्था से भयभीत नहीं होते। उनके लिए स्वर्ग, मुक्ति तथा नरक एकसमान हैं क्योंकि ऐसे भक्त ईश्वर की सेवा में ही रुचि रखते हैं।

29 परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति के कार्यों के कारण जीवात्माएँ भौतिक देह के सम्पर्क में बद्ध हैं। सुख तथा दुख, जन्म तथा मृत्यु, शाप तथा अनुग्रह के द्वैतभाव संसार के सम्पर्क के सहज गौण फल हैं।

30 जिस प्रकार मनुष्य फूलमाला को सर्प समझ बैठता है अथवा स्वप्न में सुख तथा दुख का अनुभव करता है उसी प्रकार भौतिक संसार में सुविचार के अभाव में हम सुख तथा दुख में एक को अच्छा तथा दूसरे को बुरा समझ कर विभेद करते हैं।

31 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव कृष्ण की भक्ति में अनुरक्त व्यक्ति स्वभावतः परम ज्ञानी तथा इस संसार से विरक्त रहने वाले होते हैं। अतः ऐसे भक्त न तो इस संसार के तथाकथित सुख में न ही तथाकथित दुख में कोई रुचि रखते हैं।

32 न तो मैं (शिव), न ब्रह्मा या अश्विनीकुमार, न ही नारद या ब्रह्मा के अन्य साधु-पुत्र और न देवता ही परमेश्वर की लीलाओं को तथा उनके स्वरूप को समझ सकते हैं। भगवान के अंश होते हुए भी हम अपने को स्वतंत्र तथा पृथक शासक (नियन्ता ) मान बैठते हैं जिससे हम उनके स्वरूप को नहीं समझ सकते।

33 भगवान को न कोई अति प्रिय है और न कोई अप्रिय। उनके न तो कोई स्वजन है और न कोई पराया है। वे वास्तव में समस्त जीवों की आत्मा के आत्मा हैं। इस प्रकार वे समस्त जीवों के कल्याणकारी मित्र तथा उन सबों के अत्यन्त प्रिय हैं।

34-35 यह परम उदार चित्रकेतु ईश्वर का प्रिय भक्त है। यह सभी जीवों का समदर्शी है और आसक्ति तथा घृणा से मुक्त है। इसी प्रकार मैं भी भगवान नारायण का परम प्रिय हूँ, अतः नारायण के उच्च भक्तों की गतिविधियों को देखकर चकित नहीं होना चाहिए क्योंकि वे आसक्ति तथा द्वेष से मुक्त रहते हैं। वे सदैव शान्त रहते हैं और समदर्शी होते हैं।

36 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन ! अपने पति से यह सम्भाषण सुनकर देवी उमा (शिव की पत्नी) को राजा चित्रकेतु के व्यवहार पर जो विष्मय उत्पन्न हुआ था वह जाता रहा और उनकी बुद्धि स्थिर हो गई।

37 महान भक्त चित्रकेतु इतना शक्तिमान था कि यदि वह चाहता तो पलटकर (बदले में) माता पार्वती को शाप दे देता, किन्तु ऐसा न करके उसने नम्रता से शाप को स्वीकार किया और शिवजी तथा उनकी पत्नी के सम्मुख अपना सिर झुकाया। इसे वैष्णव का आदर्श आचरण समझना चाहिए।

38 माता दुर्गा (भवानी, शिवजी की पत्नी) से शापित होकर उसी चित्रकेतु ने आसुरी योनि में जन्म लिया। वह त्वष्टा द्वारा किये गए यज्ञ से असुर के रूप में प्रकट हुआ, यद्यपि वह दिव्य ज्ञान और उसके व्यावहारिक उपयोग में अभी भी परिपूर्ण था और इस प्रकार वह वृत्रासुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

39 हे राजा परीक्षित! तुमने मुझसे पूछा था की परम भक्त वृत्रासुर ने असुर वंश में किस प्रकार जन्म लिया; अतः मैंने तुम्हें उसके विषय में सब कुछ बताने का प्रयास किया है।

40 चित्रकेतु महान भक्त (महात्मा) था। यदि कोई मनुष्य किसी शुद्ध भक्त से इस इतिहास को सुने तो श्रोता भी इस संसार में अपने बद्ध जीवन से मुक्त हो जाता है।

41 जो व्यक्ति प्रातःकाल उठकर अपने मन तथा वाणी को वश में रखकर तथा श्रीभगवान का स्मरण करके चित्रकेतु का यह इतिहास पढ़ता है, वह बिना कठिनाई के भगवान के धाम को चला जाता है।

[सारांश:-- चित्रकेतु द्वारा शिव की आलोचना का उद्देश्य रहस्यमय है और सामान्य व्यक्ति की समझ के परे है। भगवान चित्रकेतु को यथाशीघ्र वैकुण्ठलोक लाना चाहते थे। ईश्वर की योजना यह थी कि पार्वती के शाप से चित्रकेतु वृत्रासुर बने जिससे वह अगले जन्म में भगवान के धाम को तुरन्त लौट सके। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इस प्रकार टिप्पणी की है। परम वैष्णव एवं परम शक्तिशाली देवता होने के कारण शिवजी अपने इच्छानुसार कुछ भी करने में समर्थ हैं। यद्यपि वे बाह्यरूप से सामान्य व्यक्ति का सा आचरण कर रहे थे और शिष्टाचार का पालन नहीं कर रहे थे, किन्तु ऐसे कार्यों से उनकी उच्च स्थिति में कोई कमी नहीं आती। ]

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय सोलह – राजा चित्रकेतु की परमेश्वर से भेंट (6.16)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! नारद ऋषि ने अपनी योगशक्ति से शोकाकुल स्वजनों के समक्ष उस पुत्र को ला दिया और फिर वे इस प्रकार बोले।

2 श्री नारद मुनि ने कहा: हे जीवात्मा! तुम्हारा कल्याण हो। जरा अपने माता-पिता को तो देखो। तुम्हारे चले जाने (मरने) से तुम्हारे समस्त मित्र तथा सम्बन्धी शोकाकुल हैं।

3 तुम असमय ही मरे थे इसलिए तुम्हारी आयु अब भी शेष है। अतः तुम अपने शरीर में पुनः प्रवेश करके अपने मित्रों तथा स्वजनों की संगति में शेष जीवन का भोग करो। अपने पिता द्वारा प्रदत्त यह समस्त ऐश्वर्य तथा राजसिंहासन स्वीकार करो।

4 नारदमुनि की योगशक्ति से जीवात्मा थोड़े समय के लिए मृत शरीर में पुनः प्रविष्ट हुआ और नारद मुनि के अनुरोध पर इस प्रकार बोला, “ मैं (जीव) अपने कर्मफलों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तर करता रहता हूँ; इस प्रकार कभी देवताओं की योनि में रहता हूँ तो कभी निम्न पशुओं, अथवा वनस्पतियों में और कभी मनुष्य योनि में रहता हूँ। अतः ये किस जन्म में मेरे माता तथा पिता थे? वास्तव में न तो कोई मेरी माता है और न कोई पिता। तो मैं इन दोनों व्यक्तियों को अपने माता-पिता के रूप में कैसे स्वीकार कर सकता हूँ?

5 यह भौतिक जगत नदी की भाँति प्रवाहमान है, जो अपने जीवात्मा को लिये जा रही है और जिसमें सभी लोग समयानुसार मित्र, कुटुम्बी तथा शत्रु बनते रहते हैं। वे उदासीन, मध्यस्थ, द्वैषी तथा अन्य कई प्रकारों से कार्य करते हैं। इतने पर भी कोई किसी से स्थायी रूप से सम्बद्ध नहीं है।

6 जिस प्रकार सोना तथा अन्य व्यापारिक वस्तुएँ समय-समय पर क्रम-विक्रम के कारण लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान को स्थानान्तरित होती रहती हैं उसी प्रकार जीवात्मा भी अपने कर्मों के कारण पूरे ब्रह्माण्ड में घूमता रहता है।

7 कुछ ही जीवात्माएँ मनुष्य योनि में जन्म लेती हैं और शेष दूसरी पशु-योनि में जन्मती हैं। यद्यपि ये दोनों ही जीवात्माएँ हैं, किन्तु इनके सम्बन्ध अस्थायी है। कोई पशु किसी मनुष्य के अधिकार में कुछ काल तक रहकर किसी दूसरे के अधिकार में जा सकता है। जब पशु चला जाता है पहले वाले मालिक का स्वामित्व भी चला जाता है। जब तक वह पशु उसके अधिकार में रहता है, उसके प्रति उसका लगाव रहता है, किन्तु उसको बेचते ही सारा लगाव छूट जाता है।

8 भले ही एक जीवात्मा मर्त्यदेहों के सम्बन्धों के कारण दूसरी जीवात्मा से सम्बद्ध जान पड़े, किन्तु जीवात्मा शाश्वत है। वास्तव में शरीर ही जन्मता है और नष्ट होता है, जीवात्मा नहीं। हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि जीवात्मा की उत्पत्ति या मृत्यु होती है। जीवात्मा का तथाकथित माता-पिता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। जब तक जीवात्मा अपने पूर्वकर्म के फलस्वरूप किन्हीं माता-पिता का पुत्र बनकर प्रकट होता है तभी तक माता-पिता द्वारा प्रदत्त शरीर से उसका नाता रहता है। इस प्रकार वह अपने को मिथ्या ही उनका पुत्र मानकर अत्यन्त स्नेह जताता है। मरने के बाद यह सम्बन्ध नष्ट हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य को झूठे ही हर्ष तथा शोक में लीन नहीं होना चाहिए।

9 जीवात्मा नित्य तथा अविनाशी है क्योंकि इसका आदि तथा अन्त नहीं है। न तो उसका जन्म होता है, न मृत्यु। वह समस्त प्रकार की देहों का मूल है, तो भी उसकी दैहिक वर्ग में गिनती नहीं होती। जीवात्मा इतना उच्च है कि परमात्मा के ही समधर्मा है। तो भी, अत्यन्त सूक्ष्म होने से वह बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित होता रहता है और अपनी इच्छाओं के अनुसार अपने लिए विभिन्न देहें उत्पन्न करता है।

10 इस जीवात्मा को न तो कोई प्रिय है, न कोई अप्रिय। यह अपने पराये में भेद-भाव नहीं रखता। यह अनन्य है, अर्थात यह न तो मित्रों तथा शत्रुओं, न ही शुभचिन्तकों या दुराग्रह करने वालों से प्रभावित होता है। यह मनुष्यों के विभिन्न गुणों का मात्र दर्शक अथवा साक्षी है।

11 कार्य और कारण का सृष्टा यह आत्मा सकाम कर्मों से जनित सुख तथा दुख को स्वीकार नहीं करता। वह भौतिक देह स्वीकार करने या न करने के लिए परम स्वतंत्र है और भौतिक शरीर न होने के कारण वह सदैव उदासीन या तटस्थ रहता है। जीवात्मा ईश्वर का भिन्न अंश है और सूक्ष्म मात्रा में उनके गुणों को धारण किए रहता है। अतः मनुष्य को शोक से प्रभावित नहीं होना चाहिए।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब महाराज चित्रकेतु के पुत्र रूप में वह बद्धजीव इस प्रकार बोलकर जब चला गया तो चित्रकेतु तथा मृत पुत्र के अन्य सम्बन्धी अत्यन्त विस्मित हुए। तब उन्होंने उसके साथ अपने सम्बन्ध से उत्पन्न स्नेह-बन्धन को काट दिया और शोक का परित्याग कर दिया।

13 मृत बालक के शरीर का दाह-संस्कार तथा यथोचित अनुष्ठान सम्पन्न करने के बाद सम्बन्धियों ने उस स्नेह को भी त्याग दिया जिसके कारण मोह, शोक, भय तथा दुख की प्राप्ति होती है। निस्सन्देह, ऐसे स्नेह को त्याग पाना कठिन है, किन्तु उन्होंने सरलता से परित्याग कर दिया।

14 रानी कृतद्युति की सौतें, जिन्होंने बालक को विष दिया था, अत्यन्त लज्जित हुई और उनके शरीर कान्तिविहीन हो गये। हे राजन! शोक करते हुए उन्हें ऋषि अंगिरा के उपदेश स्मरण हो आए और उन्होंने पुत्र उत्पन्न करने की कामना का परित्याग कर दिया। ब्राह्मणों के निर्देशानुसार वे यमुना के तट पर गई, वहाँ पर स्नान किया और अपने पापकर्मों के लिए प्रायश्चित किया।

15 परम ब्राह्मण अंगिरा तथा नारद के उपदेशों से जागृत होकर राजा चित्रकेतु आत्मज्ञान से भलीभाँति अवगत हो गया। जिस प्रकार हाथी कीचड़-युक्त जलाशय से बाहर निकल आता है, वैसे ही राजा चित्रकेतु गृहस्थ जीवन के अंधकूप से बाहर निकल आया।

16 राजा ने यमुना जल में स्नान किया और विधिपूर्वक अपने पितरों तथा देवताओं को जल का अर्ध्य दिया। फिर इन्द्रियों तथा मन को बड़ी विकटता से संयमित करते हुए उन्होंने ब्रह्माजी के दोनों पुत्रों (अंगिरा तथा नारद) को नमस्कार किया।

17 तत्पश्चात आत्मसंयमी तथा शरणागत भक्त चित्रकेतु पर अत्यधिक प्रसन्न होकर सर्वाधिक शक्तिमान मुनि नारद ने निम्नानुसार दिव्य उपदेश दिया।

18-19 [नारद ने चित्रकेतु को निम्नलिखित मंत्र प्रदान किया]। ॐकार (प्रणव) नाम से सम्बोधित किये जानेवाले हे ईश्वर, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे भगवान वासुदेव! मैं आपका ध्यान करता हूँ। हे भगवान प्रद्युम्न, भगवान अनिरुद्ध तथा भगवान संकर्षण! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे दिव्य शक्ति के आगार, हे परमानन्द! मैं आत्मनिर्भर (आत्माराम) तथा परम शान्त आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हे परम सत्य, अद्वितीय! आप ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान रूप में जाने जाते हैं, अतः आप समस्त ज्ञान के आगार हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

20 अपने व्यक्तिगत आनन्द का अनुभव करते हुए आप सदैव भौतिक प्रकृति की लहरों के परे हैं। अतः हे ईश्वर! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। आप इन्द्रियों के परम नियामक (प्रेरक) हैं और आपके रूप के प्रकाश (विस्तार) अनन्त हैं। आप परम महान हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

21 बद्धजीव की वाणी तथा मन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तक नहीं पहुँच पाते क्योंकि वे नितान्त आत्मस्वरूप, स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों की अवधारणाओं से परे हैं, अतः उन पर भौतिक नाम तथा रूप लागू नहीं होते। निर्गुण ब्रह्म उनके अन्य रूपों में से है। वे अपने आनन्द-स्वरूप से हमारी रक्षा करें।

22 जिस प्रकार मिट्टी के पात्र बनाये जाने के बाद पृथ्वी पर स्थित रहते हैं और तोड़ दिये जाने पर पुनः मिट्टी बन जाते हैं, उसी प्रकार से यह दृश्य जगत परम ब्रह्म द्वारा उत्पन्न किया जाता है, उन्हीं में स्थित रहता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है। अतः ब्रह्म के कारण स्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम को हमारा सादर नमस्कार है।

23 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से प्रादुर्भूत होकर परम ब्रह्म व्योम की तरह विस्तृत हो जाता है। यद्यपि इसको कोई भौतिक पदार्थ स्पर्श नहीं कर सकता, किन्तु यह भीतर तथा बाहर विद्यमान है। तो भी मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ तथा प्राणशक्ति न तो उसका स्पर्श कर सकती हैं, न उसे जान सकती हैं। मैं उनको सादर नमस्कार करता हूँ।

24 जिस प्रकार अग्नि के सम्पर्क से तप्त हुआ लोहा भस्म कर देने में समर्थ है उसी प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, प्राणशक्ति, मन तथा बुद्धि पदार्थ के पिण्ड मात्र होते हुए भी श्रीभगवान द्वारा चेतना के कणमात्र से पूरित होने पर अपने-अपने कार्य करने लगते हैं। जिस प्रकार अग्नि तप्त हुए बिना लोहा कुछ भी जला पाने में अशक्त रहता है उसी प्रकार ये शारीरिक इन्द्रियाँ परमेश्वर की कृपादृष्टि के बिना कार्य नहीं कर सकतीं।

25 हे वैकुण्ठलोक में आसीन दिव्य ईश्वर! आपके चरणकमल सदैव श्रेष्ठ-भक्तों के समुदाय के करकमलों के द्वारा चाँपे जाते हैं। आप छह ऐश्वर्यों से पूर्ण श्रीभगवान हैं। आप पुरुषसूक्त की स्तुतियों में वर्णित परम पुरुष हैं। आप परम पूर्ण, समस्त योग-शक्तियों के स्वरूपसिद्ध स्वामी हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: चित्रकेतु के पूर्णत: शरणागत होने पर गुरु हो जाने के कारण नारद ने इस स्तुति के द्वारा उसे पूरा पूरा उपदेश दिया। हे राजा परीक्षित! तत्पश्चात अंगिरा ऋषि सहित नारद मुनि ब्रह्मलोक नामक सर्वोच्च लोक के लिए चल पड़े।

27 केवल जल पीकर उपवास करते हुए राजा चित्रकेतु ने नारद मुनि द्वारा दिये गये मंत्र का एक सप्ताह तक अत्यन्त ध्यानपूर्वक लगातार जप किया।

28 हे राजा परीक्षित! अपने गुरु से प्राप्त मंत्र को केवल सात दिनों तक अभ्यास करने पर राजा चित्रकेतु को अन्तिम फल के रूप में आत्मज्ञान हो जाने से विद्याधर लोक का राज्य प्राप्त हुआ।

29 तदनन्तर कुछ ही दिनों में चित्रकेतु द्वारा जपे गए मंत्र के प्रभाव से उसका मन आत्मज्ञान से अत्यधिक प्रकाशित हो गया और उन्होंने अनन्तदेव के चरणारविन्द की शरण प्राप्त की।

30 भगवान शेष की शरण में पहुँचकर चित्रकेतु ने देखा कि वे कमल-पुष्प के श्वेत रेशों के समान ही श्वेत वर्ण के थे। उन्होंने नीला वस्त्र धारण कर रखा था और चमचमाते मुकुट, बाजूबन्द, करधनी तथा कंगन से आभूषित थे। उनका मुख मन्द हँसी से युक्त था। उनके नेत्र रक्तिम थे। वे सनत्कुमार जैसे मुक्त पुरुषों से घिरे हुए थे।

31 परमेश्वर का दर्शन पाते ही महाराज चित्रकेतु के समस्त भौतिक कल्मष धूल गये और वे पूर्णतः पवित्र हो जाने के कारण अपनी मूल कृष्णचेतना (भक्ति) में स्थित हो गये। वे पूर्णतः पवित्र हो जाने के कारण शान्त एवं गम्भीर हो गये, ईश्वर के प्रेमवश उनकी आँखों से अश्रु झरने लगे और अन्त में उन्हें रोमांच हो आया। उन्होंने अत्यन्त भक्ति तथा प्रेमपूर्वक आदि भगवान को सादर नमस्कार किया।

32 चित्रकेतु के प्रेमाश्रुओं से भगवान के चरणकमल का आसन (चौकी) बार-बार भीग जाता था। आह्लाद के कारण वाणी अवरुद्ध हो जाने से वे लम्बे अन्तराल तक भगवान की उचित स्तुति में एक भी शब्द का उच्चारण न कर पाये।

33 तत्पश्चात अपनी बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके और अपनी इन्द्रियों को बाह्य विषयों से समेट कर वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द ढूँढ सके। इस प्रकार वे उन भगवान की स्तुति करने लगे जो साक्षात शास्त्रों (ब्रह्म-संहिता तथा नारद-पंचरात्र जैसी सात्वत संहिताओं) के स्वरूप हैं एवं सबों के गुरु हैं। उन्होंने निमन्वत स्तुति की।

34 चित्रकेतु ने कहा: हे अजेय भगवान! यद्यपि आपको कोई जीत नहीं सकता, किन्तु उन भक्तों के द्वारा अवश्य जीत लिए जाते हैं जिनका अपने मन तथा इन्द्रियों पर संयम है। वे आपको इसलिए वश में रख पाते हैं क्योंकि आप उन भक्तों पर अकारण दयालु हैं, जो आपसे किसी प्रकार के लाभ की कामना नहीं करते। निस्सन्देह, आप उन्हें अपने आपको प्रदान कर देते हैं; इसीलिए अपने भक्तों पर आपका भी पूरा नियंत्रण रहता है।

35 हे ईश्वर ! यह दृश्य जगत तथा इसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार--ये सभी आपके ऐश्वर्य हैं। चूँकि ब्रह्मा तथा अन्य कर्ता (निर्माता) आपके अंश के भी क्षुद्र अंश हैं, अतः सृष्टि करने की उनकी आंशिक शक्ति उन्हें ईश्वर नहीं बना सकती। तो भी अपने को पृथक ईश्वर मान बैठने की चेतना उनके अहंकार मात्र की द्योतक है। यह वैध नहीं है।

36 आप इस दृश्य जगत के नन्हें से नन्हें कण-परमाणु से लेकर विराट ब्रह्माण्डों तथा समस्त भौतिक शक्ति तक की प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अन्त में विद्यमान हैं। फिर भी आप नित्य हैं, जिसका न कोई आदि है, न अन्त या मध्य। आप इन तीनों स्थितियों में विद्यमान देखे जाते हैं। इस तरह आप अटल हैं। जब इस दृश्य जगत का अस्तित्व नहीं रहता तो आप आदि शक्ति के रूप में विद्यमान रहते हैं।

37 प्रत्येक ब्रह्माण्ड सात आवरणों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सकल भौतिक शक्ति तथा अहंकार--से घिरा है जिनमें से प्रत्येक अपने से पहले वाले से दस गुना बड़ा है। इस ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त भी असंख्य ब्रह्माण्ड हैं, जो असीम और विशाल हैं और आपमें स्थित परमाणुओं की भाँति चक्कर लगाते रहते हैं। इसलिए आप अनन्त कहलाते हैं।

38 हे भगवन, हे परमेश्वर ! इन्द्रियतृप्ति के भूखे तथा विभिन्न देवताओं की उपासना करने वाले अज्ञानी पुरुष नर-वेश में पशुओं के समान हैं। वे पाशविक वृत्ति के कारण आपकी उपासना न करके नगण्य देवताओं को, जो आपके यश की लघु चिनगारी के समान हैं, पूजते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड के संहार के साथ ये देवता तथा इनसे प्राप्त आशीर्वाद उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार राजा की सत्ता छिन जाने पर राजकीय अधिकारी।

39 हे परमेश्वर! यदि ऐश्वर्य द्वारा इन्द्रियतृप्ति पाने के इच्छुक व्यक्ति भी समस्त ज्ञान के स्रोत तथा भौतिक गुणों से परे आपकी उपासना करते हैं, तो उनका पुनर्जन्म नहीं होता जिस प्रकार भुने बीज से पौधे नहीं उत्पन्न होते। जीवात्माओं को जन्म तथा मृत्यु का चक्र भोगना पड़ता है क्योंकि वे भौतिक प्रकृति द्वारा बद्ध हैं परन्तु आप दिव्य हैं, अतः जो आपसे संगति करता है, वह भौतिक प्रकृति के बन्धन से छूट जाता है।

40 हे अजित! जब आपने भागवत-धर्म कह सुनाया जो आपके चरणकमलों में शरण लेने के लिए अकलुषित धार्मिक प्रणाली थी, तो वह आपकी विजय थी। आत्मतुष्ट (आत्माराम) चतुःसन के समान निष्काम व्यक्ति, भौतिक कल्मष से मुक्त होने के लिए आपकी उपासना करते हैं। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि वे आपके चरणारविन्द की शरण प्राप्त करने के लिए भागवतधर्म को ग्रहण करते हैं।

41-45 भागवतधर्म को छोड़कर शेष सभी धर्म पारम्परिक विरोधाभासों से पूर्ण हैं और कर्मफल की सकाम विचारधारा 'तू और मैं' तथा 'तेरा और मेरा' जैसे भेदभावों से पूर्ण हैं। श्रीमदभागवत के अनुयायियों में ऐसी चेतना नहीं रहती। वे कृष्णभावनामृत से पूरित रहते हैं और अपने को श्रीकृष्ण का और श्रीकृष्ण को अपना मानते हैं। कुछ निम्नकोटि की भी धार्मिक पद्धतियाँ हैं, जो शत्रुओं को मारने या योगशक्ति प्राप्त करने के लिए निर्मित हैं, किन्तु ये काम तथा द्वेष से पूर्ण होने के कारण अशुद्ध एवं नाशवान हैं। द्वेषपूर्ण होने से वे अधर्म से पूर्ण हैं।  ऐसा धर्म जिससे अपने तथा परायों में द्वेष उत्पन्न होता है किस प्रकार लाभप्रद हो सकता है? ऐसे धर्म का पालन करने से कौन सा कल्याण हो सकता है? इससे आखिर क्या मिलेगा? आत्म द्वेष के द्वारा अपने आपको तथा अन्यों को कष्ट पहुँचा कर मनुष्य आपके (भगवान के) क्रोध का भाजन होता है और अधर्म करता है।  हे भगवन! जीवन के महाउद्देश्य से विचलित न होने वाले आपके दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य का वृत्तिपरक धर्म श्रीमदभागवत तथा भगवद्गीता में उपदिष्ट होना है। जो मनुष्य आपके आदेशानुसार इस धर्म का पालन करते हैं, जड़ तथा चेतन समस्त जीवात्माओं को समान मानते हैं और किसी को उच्च तथा निम्न नहीं मानते हैं, वे आर्य कहलाते हैं। ऐसे आर्य आपकी अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की उपासना करते हैं।  हे भगवन! आपके दर्शनमात्र से किसी के लिए भी समस्त भौतिक कल्मषों से तुरन्त मुक्त हो जाना असम्भव नहीं है। आपको प्रत्यक्ष देखने की बात तो एक ओर रही; आपके पवित्र नाम को एक बार सुन लेने से ही चाण्डाल तक समस्त भौतिक कल्मष से विमुक्त हो जाते हैं। ऐसी दशा में आपके दर्शनमात्र से ऐसा कौन है, जो भौतिक कल्मष से मुक्त नहीं हो पायेगा?  अतः हे भगवन! आपके दर्शन मात्र ने मेरे समस्त पापकर्मों के कल्मष एवं भौतिक आसक्ति तथा कामासक्त विषयों के फल, जिनसे मेरा मन तथा अन्तःस्थल पूरित था, सदा-सर्वदा के लिए धो दिये हैं। जो कुछ नारद मुनि ने भविष्यवाणी की है, वह अन्यथा नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, नारद मुनि के द्वारा शिक्षित किए जाने के कारण ही मुझे आपका सान्निध्य प्राप्त हो सका है।

46 हे अनन्त भगवान! इस भौतिक जगत में जीवात्मा जो भी करता है, वह आपको भली-भाँति विदित रहता है क्योंकि आप परमात्मा हैं। सूर्य की उपस्थिति में जुगनुओं के प्रकाश से कुछ भी उद्दीप्त नहीं होता? इसी प्रकार, चूँकि आप सब कुछ जानने वाले हैं, अतः आपकी उपस्थिति में मेरे बताने के लिए कुछ भी नहीं है।

47 हे भगवान! आप ही इस दृश्य जगत के सृष्टा, पालक तथा संहारक हैं, किन्तु घोर संसारी तथा भेदवादी जनों के पास वे नेत्र ही नहीं होते जिनसे वे आपको देख सकें। वे आपकी वास्तविक स्थिति को न समझ पाने के कारण इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि यह दृश्य जगत आपके ऐश्वर्य से स्वतंत्र है। हे भगवान! आप परम विशुद्ध हैं और सभी छहों ऐश्वर्यों से ओतप्रोत हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

48 हे भगवान! आपकी चेष्टा से ही भगवान ब्रह्मा, इन्द्र तथा दृश्य जगत के अन्य अधीक्षक अपने अपने कार्यों में निरत हो जाते हैं। हे ईश्वर! आपके द्वारा भौतिक शक्ति को देखे जाने पर ही इन्द्रियाँ देख पाती हैं। अनन्त भगवान समस्त ब्रह्माण्डों को अपने सर पर सरसों के बीजों के समान धारण किये रहते हैं। हे सहस्र-फण वाले परम पुरुष! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

49 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे कुरुवंश में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित! विद्याधरों के राजा चित्रकेतु द्वारा की गई स्तुति से अत्यधिक प्रसन्न होकर भगवान अनन्तदेव ने इस प्रकार उत्तर दिया।

50 भगवान अनन्तदेव ने कहा: हे राजन! परम साधू नारद तथा अंगिरा द्वारा मेरे सम्बन्ध में दिये गये उपदेशों को अंगीकार करने के फलस्वरूप तुम दिव्य ज्ञान से भलीभाँति अवगत हो चुके हो। आध्यात्मिक ज्ञान में शिक्षित हो जाने के कारण अब तुमने मेरा साक्षात दर्शन किया है, अतः तुम अब पूर्णतया सिद्ध हो चुके हो।

51 समस्त चर तथा अचर जीवात्माएँ मेरे ही प्रकाश (विस्तार) हैं और मुझसे पृथक हैं। मैं ही समस्त जीवों का परमात्मा हूँ; मेरे प्रकाशित करने के ही कारण उनका अस्तित्व है। मैं ही ॐकार तथा हरे कृष्ण हरे राम मंत्र जैसे दिव्य शब्दों का रूप हूँ और मैं ही परम सत्य हूँ। ये दोनों रूप – दिव्य शब्द तथा श्रीविग्रह का शाश्वत आनन्दमय दिव्य रूप – मेरे शाश्वत रूप हैं, वे भौतिक नहीं हैं।

52 बद्धजीव इस भौतिक जगत में, जिसे वह सुख के साधनों से भरा हुआ समझता है, यह सोचकर विस्तार करता है कि वही इस जगत का भोक्ता है। इसी प्रकार यह भौतिक जगत जीवात्मा के सुख के साधनस्वरूप विस्तार करता है। इस प्रकार दोनों ही विस्तार करते हैं, किन्तु दोनों ही मेरी शक्तियाँ होने के कारण मुझसे युक्त हैं। परमेश्वर होने कारण मैं इन फलों का कारण हूँ और मनुष्य को यह जानना चाहिए कि ये दोनों ही मुझमें व्याप्त हैं।

53-54 जब मनुष्य गाढ़ निद्रा में होता है, तो वह स्वप्न देखता है और अपने अन्तर में विशाल पर्वत तथा नदियाँ या सम्भवतः सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को भी देखता है, यद्यपि ये सारी वस्तुएँ अत्यन्त दूर हैं। किन्तु कभी कभी जब वह स्वप्न से जागता है, तो अपने को मनुष्य रूप में एक स्थान पर बिस्तर पर लेटा पाता है। तब वह अपने को अनेक स्थितियों में पाता है यथा विशेष राष्ट्रियता, परिवार आदि में। प्रगाढ़-निद्रा, स्वप्न तथा जागृत ये समस्त अवस्थाएँ भगवान की ही शक्तियाँ हैं। मनुष्य को इन अवस्थाओं के मूल सृष्टा को, जो इनसे प्रभावित नहीं होता, सदैव स्मरण रखना चाहिए।

55 तुम मुझे परब्रह्म जानो, जो सर्वव्यापी परमात्मा है और जिसके माध्यम से सुप्त जीवात्मा अपनी सुप्तावस्था तथा इन्द्रियातीत सुखों का अनुभव कर सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सुप्त जीवात्माओं की गतिविधियों का कारण मैं ही हूँ।

56-60 यदि निद्रा के समय देखे गये स्वप्न केवल परमात्मा द्वारा ही देखे गए विषय हैं, तो फिर जीवात्मा, जो परमात्मा से पृथक है, स्वप्नों के क्रियाकलापों को क्यों स्मरण रखता है? एक व्यक्ति के अनुभवों को दूसरा नहीं समझ सकता। अतः जीवात्मा, जो तथ्यों का ज्ञाता है और स्वप्न तथा जागृति में प्रकट होनेवाली घटनाओं के विषय में जिज्ञासा करता है आकस्मिक कार्यों से पृथक है। जाननेवाला तो ब्रह्म है। दूसरे शब्दों में जानने का गुण जीवात्मा तथा परमात्मा से सम्बन्धित है। इसलिए जीवात्मा को भी स्वप्न तथा जागृति की घटनाओं का अनुभव हो सकता है। दोनों दशाओं में ज्ञाता वही रहता है और गुणरूप वह परब्रह्म से एकाकार है।  जब जीवात्मा अपने आपको मुझसे भिन्न मानकर ज्ञान तथा आनन्द में मुझसे अपने गुण रूप में दिव्य तादात्म्य को भूल जाता है तभी उसका यह भौतिक बद्ध जीवन प्रारम्भ होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि – वह मुझमें तादात्म्य न मानकर अपने सांसारिक विस्तारों में, यथा पत्नी, सन्तान तथा धन में अभिरुचि दिखाने लगता है। इस प्रकार अपने कर्मों के प्रभाव से एक शरीर के बाद दूसरा शरीर और एक मृत्यु के बाद दूसरी मृत्यु का चक्कर लगाता रहता है।  वैदिक ज्ञान तथा उसके व्यवहार के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार द्वारा मनुष्य अपने जीवन में सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ऐसा भारत में जन्म लेनेवाले मनुष्य के लिए विशेष रूप से सम्भव है। जो मनुष्य ऐसी उपयुक्त परिस्थिति में जन्म लेकर अपने आपको नहीं जान पाता वह परम सिद्धि को प्राप्त कर सकने में अक्षम रहता है भले ही वह स्वर्गलोक को प्राप्त क्यों न हो जाए।  यह स्मरण रखते हुए कि कर्मफल हेतु सम्पन्न कर्मों के क्षेत्र में बड़ी बड़ी अड़चनें आती है और इच्छा से विपरीत फल प्राप्त होते हैं चाहे वे भौतिक कर्मों से उत्पन्न हो या वैदिक ग्रन्थों द्वारा बताये सकाम कर्मों के फल हों, बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह सकाम कर्मों की इच्छा का परित्याग कर दे क्योंकि ऐसी चेष्टाओं से जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरी ओर यदि कोई कर्मफल के हेतु निष्काम भाव से कर्म करता है अर्थात वह भक्तिकार्यों में लगता है, तो दयनीय स्थितियों से मुक्त रहकर वह जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त कर सकता है। इस पर विचार करते हुए मनुष्य को चाहिए कि भौतिक कामनाओं का परित्याग करे।  पुरुष तथा स्त्री जैसे दम्पत्ति के रूप में कई प्रकार से पारस्परिक सहयोग करके सुख प्राप्त करने तथा दुख को कम करने के लिए कई प्रकार से योजना बनाते हैं; किन्तु कामनाओं से पूर्ण होने के कारण उनके कर्मों से न तो कभी सुख प्राप्त होता है और न दुख में कमी आती है। उल्टे, ये भारी दुख के कारण बनते हैं।

61-65 मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि जो व्यक्ति अपने भौतिक अनुभव पर गर्व करते हैं उन्हें जगते, सोते तथा प्रगाढ़ निद्रा में कल्पित किए गये फलों के विपरीत फल मिलते हैं। मनुष्य को यह भी समझना चाहिए कि यद्यपि भौतिकतावादी व्यक्ति के लिए आत्मा को देख पाना दुष्कर है, तो भी वह इन समस्त स्थितियों से परे है और उसे अपने विवेक के आधार पर इस जन्म में तथा अगले जन्म में कर्मफल की इच्छा का परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार दिव्य ज्ञान में अनुभवी बनकर ही किसी को मेरा भक्त बनना चाहिए। जो पुरुष जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे परम पुरुष तथा जीवात्मा का भलीभाँति अवलोकन करें जो अंश तथा पूर्ण होने के कारण गुण रूप से एक ही हैं। जीवन की यही सबसे बड़ी समझ है। इससे बढ़कर और कोई सत्य नहीं है। हे राजन! यदि तुम भौतिक सुख से विरक्त रहकर परम श्रद्धा सहित मुझसे संलग्न होकर ज्ञान तथा इसकी जीवन में व्यावहारिकता में निपुण बनकर मेरे इस निष्कर्ष को स्वीकार करोगे तो तुम परम सिद्धि को प्राप्त होगे। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार चित्रकेतु को उपदेश देकर और उसे सिद्धि का आश्वासन देकर जगद्गुरू परमात्मा भगवान संकर्षण उस स्थान से चित्रकेतु के देखते-देखते अन्तर्धान हो गये।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय पन्द्रह – नारद तथा अंगिरा ऋषियों द्वारा राजा चित्रकेतु को उपदेश (6.15)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी बोले--- जब राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर अपने पुत्र के शव के निकट पड़े मृतप्राय हुए थे तो नारद तथा अंगिरा नामक दो महर्षियों ने उन्हें आध्यात्मिक चेतना के सम्बन्ध में इस प्रकार उपदेश दिया।

2 हे राजन! जिस शव के लिए तुम शोक कर रहे हो उसका तुमसे और तुम्हारा उसके साथ क्या सम्बन्ध है? तुम कह सकते हो कि इस समय तुम पिता हो और वह पुत्र है, किन्तु क्या तुम सोचते हो कि यह सम्बन्ध पहले भी था? क्या सचमुच अब भी यह सम्बन्ध है? क्या यह भविष्य में भी बना रहेगा?

3 हे राजन! जिस प्रकार बालू के छोटे-छोटे कण लहरों के वेग से कभी एक दूसरे के निकट आते हैं और कभी विलग हो जाते हैं, उसी प्रकार से देहधारी जीवात्माएँ काल के वेग से कभी मिलती हैं, तो कभी बिछुड़ जाती हैं।

4 जब बीजों को धरती में बोया जाता है, तो वे कभी तो उगते हैं और कभी नहीं उगते। कभी धरती उपजाऊ नहीं रहती जिससे बीजों का बोना निरर्थक हो जाता है। इसी प्रकार परमात्मा की शक्ति से बाध्य होने पर भावी पिता को कभी सन्तान की प्राप्ति होती है, तो कभी गर्भ ही नहीं रहता। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह माता-पिता जैसे बनावटी सम्बन्ध के लिए शोक न करे, क्योंकि अन्ततः इसका नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में रहता है।

5 हे राजन! तुम तथा हम अर्थात तुम्हारे परामर्शदाता, पत्नियाँ एवं मंत्री और समस्त सम्पूर्ण जगत में इस समय जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी है, वे सभी क्षणभंगुर हैं। यह स्थिति न तो हमारे जन्म के पूर्व थी और न हमारी मृत्यु के पश्चात रहेगी। अतः इस समय हमारी स्थिति क्षणिक (अस्थायी) है, यद्यपि वह मिथ्या नहीं है।

6 सबों के स्वामी तथा प्रत्येक वस्तु के मालिक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान निश्चय ही क्षणिक दृश्य जगत में तनिक भी रुचि नहीं रखते। तो भी जिस प्रकार समुद्र के किनारे पर बैठा हुआ बालक अनचाही किसी न किसी वस्तु (घरौंदा) को बनाता है उसी प्रकार से भगवान प्रत्येक वस्तु को अपने वश में रखते हुए सृजन, पालन तथा संहार का कार्य करते रहते हैं। वे पिता से पुत्र उत्पन्न कराकर सृष्टि करते हैं, प्रजा के कल्याण हेतु सरकार या राजा नियुक्त करके पालन करते हैं तथा सर्प जैसे माध्यमों से संहार करते हैं। सृजन, पालन तथा संहारकर्ता माध्यमों की कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं होती, किन्तु माया के सम्मोहन से वे अपने को कर्त्ता, पालक तथा संहारक मान बैठते हैं।

7 हे राजन! जिस प्रकार एक बीज से दूसरा बीज उत्पन्न होता है, उसी प्रकार एक शरीर (पिता के शरीर) द्वारा अन्य (माता के) शरीर के माध्यम से एक तीसरा (पुत्र का) शरीर उत्पन्न होता है। जैसे भौतिक शरीर के तत्त्व नित्य हैं, वैसे ही इन भौतिक तत्त्वों से प्रकट होने वाली जीवात्मा भी नित्य हैं।

8 राष्ट्रियता तथा व्यक्तिगत सत्ता जैसे सामान्य तथा विशिष्ट विभाजन उन व्यक्तियों की कल्पनाएँ हैं, जो उन्नत ज्ञानी नहीं हैं।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले-- नारद तथा अंगिरा द्वारा इस प्रकार समझाये-बुझाये जाने पर राजा चित्रकेतु को ज्ञान के कारण आशा बँधी। राजा अपने हाथ से अपना मुरझाया मुखमण्डल पोंछते हुए कहने लगा।

10 राजा चित्रकेतु ने कहा: आप दोनों अपनी पहचान को छुपाए हुए अवधूत वेश में यहाँ आये हैं, किन्तु मैं देख रहा हूँ कि सभी पुरुषों में आप दोनों परम ज्ञानवान हैं। आप सब कुछ जानते हैं, अतः समस्त महापुरुषों से भी आप महान हैं।

11 श्रीकृष्ण के सर्वाधिक प्रिय सेवक, ब्राह्मणजन, जो वैष्णव पद को प्राप्त हैं, कभी-कभी अवधुतों जैसा वेष बना लेते हैं और हम जैसे भौतिकतावादियों को, जो इन्द्रियतृप्ति में सदैव आसक्त रहते हैं, लाभ पहुँचाने एवं उनकी अविद्या दूर करने के लिए अपनी इच्छानुसार भूमण्डल पर विचरण करते रहते हैं।

12-15 हे महात्माओं! मैंने सुना है कि अविद्या से ग्रस्त मनुष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिए भूमण्डल-भर में जो महापुरुष विचरण करते रहते हैं उनमें सनतकुमार, नारद, ऋभू, अंगिरा, देवल, असित, अपान्तरतमा (व्यासदेव), मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान परशुराम, कपिल, श्रील शुकदेव, दुर्वासा, याज्ञवल्क्य, जातुकर्ण तथा अरुणि हैं। अन्यों के नाम इस प्रकार हैं--रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पतंजलि, वेदों के प्रधान परम साधु धौम्य, पंचशिख, हिरण्यनाभ, कौशल्य, श्रुतदेव तथा ऋतध्वज। आप अवश्य ही इनमें से हैं।

16 चूँकि आप दोनों महापुरुष हैं, अतः मुझे वास्तविक ज्ञान देने में समर्थ हैं। मैं अविद्या के अंधकार में डूबा रहने के कारण सूकर अथवा कूकर जैसे ग्राम्य पशु के समान मूढ़ हूँ। अतः मुझे उबारने के लिए ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित करें।

17 अंगिरा ने कहा: हे राजन! जब तुमने पुत्र की कामना की थी तो मैं तुम्हारे पास आया था। मैं वही अंगिरा ऋषि हूँ जिसने तुम्हें यह पुत्र दिया था। ये जो तुम्हारे पास है, भगवान ब्रह्मा के प्रत्यक्ष पुत्र, महान ऋषि नारद हैं।

18-19 हे राजन! तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के परम भक्त हो, किसी भौतिक वस्तु की हानि के लिए इस प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। अतः हम दोनों तुम्हें इस मिथ्या शोक से उबारने के लिए आये हैं, जो आपके अविद्या के अंधकार में डूबे रहने के कारण उत्पन्न है। जो आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न हैं उनके लिए इस प्रकार से भौतिक लाभ तथा हानि से प्रभावित होना बिलकुल अवांछनीय है।

20 जिस समय पहले-पहल मैं तुम्हारे घर आया था, उसी समय मैं तुम्हें परम दिव्य ज्ञान देता, किन्तु जब मैंने देखा कि तुम्हारा मन भौतिक वस्तुओं में उलझा हुआ है, तो मैंने तुम्हें केवल एक पुत्र प्रदान किया जो तुम्हारे हर्ष और शोक का कारण बना।

21-23 हे राजन! अब तुम्हें ऐसे व्यक्ति के कष्ट का वास्तविक अनुभव हो रहा है, जिसके पुत्र तथा पुत्रियाँ होती हैं। हे सूरसेन देश के राजा! पत्नी, घर, राज्य का ऐश्वर्य, अन्य सम्पत्ति तथा इन्द्रिय अनुभूति के विषय--ये सब इस बात में एक से हैं, कि वे अनित्य हैं। राज्य, सैनिक, शक्ति, कोष, नौकर, मंत्री, मित्र तथा सम्बन्धी-ये सभी भय, मोह, शोक तथा दुख के कारण हैं। ये गन्धर्व-नगर की भाँति हैं, जिसे जंगल के बीच स्थित समझा जाता है, किन्तु जिसका अस्तित्व नहीं होता। चूँकि ये सब वस्तुएँ अनित्य हैं, अतः ये मोह, स्वप्न तथा मनोरथों से श्रेष्ठ नहीं हैं।

24 स्त्री, सन्तान तथा सम्पत्ति जैसी दृश्य वस्तुएँ स्वप्न एवं मनोरथों के तुल्य हैं। वास्तव में हम जो कुछ देखते हैं उसका स्थायी अस्तित्व नहीं होता है। वे कभी दिखती है, तो कभी नहीं। अपने पूर्वकर्मों के अनुसार हम मनोरथ का सृजन करते हैं और इन्हीं के कारण हम आगे कार्य करते हैं।

25 देहात्मबुद्धि के कारण जीवात्मा अपने शरीर में, जो भौतिक तत्त्वों, पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा मन समेत पाँच कर्मेन्द्रियों का सम्पुञ्ज है, मग्न रहता है। मन के कारण जीवात्मा को तीन प्रकार के – आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक – ताप सहने पड़ते हैं। अतः यह शरीर समस्त दुखों का मूल है।

26 अतः हे चित्रकेतु आत्मा की स्थिति पर ठीक से विचार करो अर्थात यह समझने का प्रयत्न करो कि तुम कौन हो – शरीर, मन, या आत्मा? यह विचार करो कि तुम कहाँ से आये हो, यह शरीर छोड़कर कहाँ जाओगे और तुम भौतिक शोक के वश में क्यों हो? इस प्रकार तुम अपनी वास्तविक स्थिति जानने का प्रयत्न करो, तभी तुम अनावश्यक आसक्ति से छुटकारा पा सकोगे। तब तुम इस विश्वास का भी परित्याग कर सकोगे कि यह भौतिक जगत या अन्य कोई वस्तु जिसका श्रीकृष्ण की सेवा से सीधा सम्बन्ध नहीं है, शाश्वत है। इस तरह तुम्हें शान्ति प्राप्ति हो सकेगी।

27 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन! तुम एकाग्रचित्त होकर मुझसे अत्यन्त शुभ मंत्र ग्रहण करो। इसे स्वीकार कर लेने के बाद सात रातों में ही तुम साक्षात भगवान का दर्शन कर सकोगे।

28 हे राजन! प्राचीनकाल में भगवान शिव तथा अन्य देवताओं ने संकर्षण के चरणारविन्द की शरण ली थी। इस प्रकार वे द्वैत-मोह से तुरन्त मुक्त हो गए और उन्होंने आध्यात्मिक जीवन में अद्वितीय तथा अलंघ्य यश प्राप्त किया। तुम शीघ्र ठीक वैसा ही पद प्राप्त करोगे।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय चौदह – राजा चित्रकेतु का शोक (6-14)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा -- हे विद्वान ब्राह्मण! रजो तथा तमो गुणों से आविष्ट होने के कारण असुर सामान्यतः पापी होते हैं। तो फिर वृत्रासुर भगवान नारायण के प्रति इतना परम प्रेम किस प्रकार प्राप्त कर सका?

2 प्रायः सत्त्वमय देवता तथा भौतिक सुख-रूपी रज से निष्कलंक ऋषि अत्यन्त कठिनाई से मुकुन्द के चरणकमलों की शुद्ध भक्ति कर पाते हैं। [तो फिर वृत्रासुर इतना बड़ा भक्त किस प्रकार बन सका?]

3 इस भौतिक जगत में जीवात्माओं की संख्या उतनी ही है जितने कि धूल कण। इन जीवात्माओं में से कुछ ही मनुष्य होते हैं और उनमें से कुछ ही धार्मिक नियमों के पालन में रुचि दिखलाते हैं।

4 ब्राह्मण-श्रेष्ठ हे श्रील शुकदेव गोस्वामी! धार्मिक नियमों का पालन करने वाले अनेक मनुष्यों में से कुछ भौतिक जगत से मुक्ति पाने के इच्छुक रहते हैं। मुक्ति चाहने वाले हजारों में से किसी एक को वास्तव में मुक्ति लाभ होता है और वह समाज, मित्रता, प्यार, देश, घर, स्त्री तथा सन्तान के प्रति अपनी आसक्ति का त्याग कर पाता है। ऐसे हजारों मुक्त पुरुषों में से मुक्ति का वास्तविक अर्थ जानने वाला कोई विरला ही होता है।

5 हे परम साधु! लाखों मुक्त तथा मुक्ति के ज्ञान में पूर्ण पुरुषों में से कोई एक भगवान नारायण या कृष्ण का भक्त हो सकता है। ऐसे भक्त, जो परम शान्त हों, अत्यन्त दुर्लभ हैं।

6 वृत्रासुर युद्ध की धधकती ज्वाला में स्थित था और पापी असुर अन्यों को सदैव कष्ट तथा चिन्ता पहुँचाने के लिए कुख्यात था। ऐसा असुर किस प्रकार इतना बड़ा कृष्ण भक्त हो सका?

7 हे प्रभो, श्रील शुकदेव गोस्वामी! यद्यपि वृत्रासुर पापी असुर था, किन्तु उसने सर्वाधिक उन्नत क्षत्रिय का पराक्रम दिखाकर युद्ध में इन्द्र को प्रसन्न कर लिया। ऐसा असुर भगवान कृष्ण का महान भक्त कैसे हो सका? इन विरोधी बातों से मेरे मन में अत्यधिक सन्देह उत्पन्न हो गया है, अतः मैं इस सम्बन्ध में आपसे सुनने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।

8 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: महाराज परीक्षित के इस उत्तम प्रश्न को सुनकर परम शक्तिमान ऋषि श्रील शुकदेव गोस्वामी अपने शिष्य को अत्यन्त प्रेमपूर्वक उत्तर देने लगे।

9 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! मैं उस इतिहास को तुमसे कहूँगा जिसे मैंने व्यासदेव, नारद तथा देवल के मुखों से सुना है। इसे ध्यानपूर्वक सुनो।

10 हे राजा परीक्षित! शूरसेन प्रदेश में चित्रकेतु नाम का एक चक्रवर्ती राजा था। उसके राज्य में पृथ्वी से जीवन की समस्त आवश्यक वस्तुएँ उत्पन्न होती थीं।

11 राजा चित्रकेतु की हजारों-हजार पत्नियाँ थीं और यद्यपि वह सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ था, किन्तु उनसे उसे कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुई। संयोगवश सभी पत्नियाँ बाँझ थीं।

12 चित्रकेतु अत्यन्त रूपवान उदार तथा तरुण था। वह उच्च कुल में उत्पन्न हुआ था, उसे पूर्ण शिक्षा प्राप्त हुई थी और वह सम्पत्तिवान एवं ऐश्वर्यवान था। फिर भी इन समस्त गुणों के होते हुए भी कोई पुत्र न होने से वह अत्यन्त चिन्तायुक्त रहता था।

13 उनकी सभी रानियाँ सुमुखी एवं आकर्षक नेत्रों वाली थीं, फिर भी न तो उसका ऐश्वर्य तथा सैकड़ों-हजारों रानियाँ, न वे प्रदेश, जिनका वह सर्वोच्च स्वामी था, उसे प्रसन्न कर सकते थे।

14 एक बार समस्त ब्रह्माण्ड में विचरण करते हुए अंगिरा नामक शक्तिशाली ऋषि अकस्मात अपनी शुभेच्छा से राजा चित्रकेतु के महल में पधारे।

15 चित्रकेतु तुरन्त ही अपने सिंहासन से उठकर खड़ा हो गया और उनकी अर्चना की। उसने जल तथा खाद्य सामग्री भेंट की और इस प्रकार अपने परम अतिथि के प्रति मेजबान का अपना कर्तव्य पूरा किया। जब अंगिरा ऋषि सुखपूर्वक आसन ग्रहण कर चुके तो राजा अपने मन तथा इन्द्रियों को संयमित करके ऋषि के चरणों के निकट भूमि पर बैठ गया।

16 हे राजा परीक्षित! जब चित्रकेतु विनीत भाव से नत होकर ऋषि के चरणकमलों के निकट बैठ गया तो ऋषि ने उसकी विनयशीलता तथा उनके आतिथ्य के लिए साधुवाद दिया और उसे निम्नलिखित शब्दों से सम्बोधित किया।

17 ऋषि अंगिरा ने कहा: हे राजन! आशा है कि तुम अपने शरीर तथा मन और अपने राज्य-पार्षदों तथा सामग्री सहित कुशल से हो। जब प्रकृति के सातों गुण [सम्पूर्ण भौतिक शक्ति (माया), अहंकार तथा इन्द्रियतृप्ति के पाँचों पदार्थ] अपने-अपने क्रम में ठीक रहते हैं तो भौतिक तत्त्वों के भीतर जीवात्मा सुखी रहता है। इन सात तत्त्वों के बिना कोई रह नहीं सकता। इसी प्रकार राजा सात तत्त्वों द्वारा सदा आरक्षित रहता है। ये तत्त्व हैं – उसका उपदेशक (स्वामी या गुरु), मंत्री, राज्य, दुर्ग, कोश, राज्याधिकार तथा मित्र ।

18 हे राजन, हे मानवता के ईश! जब राजा अपने पार्षदों पर प्रत्यक्षतः आश्रित रहता है और उनके आदेशों का पालन करता है, तो वह सुखी रहता है। इसी प्रकार जब पार्षद राजा को भेंटें प्रदान करते हैं और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तो वे भी सुखी रहते हैं।

19 हे राजन! तुम्हारी पत्नियाँ, नागरिक, सचिव तथा सेवक एवं मसाले तथा तेल के विक्रेता व्यापारी तुम्हारे वश में तो हैं? तुमने अपने मंत्रियों, महल के निवासियों (पुरवासियों), अपने राज्यपालों, अपने पुत्रों तथा अन्य आश्रितों को अपने नियंत्रण में तो कर रखा है?

20 यदि राजा का मन अपने वश में रहता है, तो उसके समस्त पारिवारिक प्राणी एवं राज-अधिकारी उसके अधीन रहते हैं। उसके प्रान्तपालक (राज्यपाल) समय पर अवरोध-रहित कर प्रस्तुत करते हैं, छोटे-छोटे सेवकों की तो कोई बात ही नहीं है।

21 हे राजा चित्रकेतु! मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारा मन संतुष्ट नहीं है। ऐसा लगता है तुम्हें वांछित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाया है। यह स्वतः तुम्हारे अपने कारण अथवा अन्य किसी कारण से ऐसा हुआ है? तुम्हारे पीले मुख से तुम्हारी गहरी चिन्ता झलकती है।

22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित! यद्यपि महर्षि अंगिरा को सब कुछ ज्ञात था फिर भी उन्होंने राजा से इस प्रकार पूछा। अतः पुत्र के इच्छुक राजा चित्रकेतु अत्यन्त विनीत भाव से नीचे झुक गये और महर्षि से इस प्रकार बोले।

23 राजा चित्रकेतु ने कहा: हे महाप्रभु अंगिरा ! तपस्या, ज्ञान तथा दिव्य समाधि से आप पापमय जीवन के समस्त बन्धनों से मुक्त हैं; अतः आप सिद्ध योगी के रूप में हम जैसे बद्धजीवों के अन्दर और बाहर की प्रत्येक बात को जान सकते हैं।

24 हे परम आत्मन! आप सब कुछ जानते हैं, तो भी आप मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं चिन्ता से पूर्ण क्यों हूँ। अतः मैं आपकी आज्ञा के प्रत्युत्तर में कारण को प्रकट कर रहा हूँ।

25 जिस प्रकार भूखा तथा प्यासा व्यक्ति फूल की मालाओं या चन्दन लेप जैसी बाह्य तृप्ति से संतुष्ट नहीं होता, उसी प्रकार पुत्र न होने से मैं अपने साम्राज्य, ऐश्वर्य या सम्पदा से, जिनके लिए बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं, संतुष्ट नहीं हूँ।

26 अतः हे परम साधु! मेरी तथा मेरे पितरों की रक्षा कीजिये (उबारिये), क्योंकि मेरे सन्तान न होने से वे नरक के अंधकार में धँसते जा रहे हैं। कृपया कुछ ऐसा करें जिससे मुझे पुत्र प्राप्त हो, जो हम सबों को नारकीय दशाओं से उबार सके।

27 महाराज चित्रकेतु द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भगवान ब्रह्मा के मन से उत्पन्न (मानसपुत्र) अंगिरा ऋषि राजा के प्रति अत्यन्त दयाद्र हो उठे। अपने अत्यन्त शक्तिशाली व्यक्तित्व के कारण ऋषि ने त्वष्टा नामक देवता को खीर का पिण्डदान करके यज्ञ सम्पन्न किया।

28 हे महाराज परीक्षित! अंगिरा ऋषि ने यज्ञ के अवशेष प्रसाद को चित्रकेतु की लाखों रानियों में से सबसे बड़ी तथा परम गुणवती रानी को प्रदान किया, जिसका नाम कृतद्युति था।

29 तत्पश्चात ऋषि ने राजा से कहा ”हे राजन! अब तुम्हारे एक पुत्र होगा जो हर्ष तथा शोक दोनों का कारण बनेगा।” ऐसा कहकर चित्रकेतु के उत्तर की प्रतीक्षा न करके ऋषि चले गये।

30 अंगिरा द्वारा सम्पन्न यज्ञ के प्रसाद को खाकर कृतद्युति ने चित्रकेतु द्वारा उस प्रकार गर्भ धारण किया जिस प्रकार कृत्तिकादेवी ने स्कन्द (कार्तिकेय) नामक पुत्र को गर्भ में धारण किया था।

31 हे राजा परीक्षित ! शूरसेन के राजा महाराज चित्रकेतु के तेज से कृतद्युति का गर्भ उसी प्रकार क्रमशः बढ़ने लगा, जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा बढ़ता जाता है।

32 तदनन्तर समय आने पर राजा के पुत्र उत्पन्न हुआ। इस समाचार को सुनकर शूरसेन देश के समस्त वासी अत्यधिक प्रसन्न हुए।

33 राजा चित्रकेतु विशेष रूप से प्रसन्न थे। स्नान करके, पवित्र होकर तथा आभूषणों से सज्जित होकर उन्होंने विद्वान ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन और आशीर्वाद लेकर पुत्र का जातकर्म संस्कार करवाया।

34 राजा ने इस अनुष्ठान में भाग लेने वाले समस्त ब्राह्मणों को दान में सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और साठ करोड़ गौएँ दीं।

35 जिस प्रकार बादल बिना पक्षपात के पृथ्वी पर वर्षा करता है, उसी तरह उदारचेता राजा चित्रकेतु ने अपने पुत्र के यश, ऐश्वर्य तथा आयु की वृद्धि के लिए सबों को मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं।

36 जिस प्रकार किसी निर्धन व्यक्ति को बड़ी कठिनाई से कुछ धन मिलता है, तो उसमें प्रतिदिन उसकी आसक्ति बढ़ती जाती है, इसी प्रकार जब राजा चित्रकेतु को अत्यन्त कठिनाई से पुत्र की प्राप्ति हुई तो दिन प्रति दिन पुत्र के प्रति उसका स्नेह बढ़ता गया।

37 पिता की ही भाँति माँ का भी आकर्षण एवं स्नेह पुत्र के प्रति बढ़ता गया। कृतद्युति के पुत्र को देख देखकर राजा की अन्य पत्नियाँ पुत्र की कामना से अत्यन्त क्षुब्ध रहने लगीं, मानो उन्हें उच्च ज्वर हो।

38 ज्यों-ज्यों राजा चित्रकेतु अपने पुत्र का बड़ी सावधानी से लाड़-प्यार करने लगे त्यों-त्यों रानी कृतद्युति के प्रति भी उनका प्रेम प्रगाढ़ होता गया और पुत्रहीन अन्य रानियों के प्रति उनका प्रेम क्रमशः घटने लगा।

39 अन्य रानियाँ निपूती होने के कारण अत्यन्त अप्रसन्न थीं। अपने प्रति राजा की उपेक्षा से वे डाहवश अपने आपको धिक्कारने और पश्चात्ताप करने लगीं।

40 जिस पत्नी के पुत्र नहीं होते वह घर में अपने पति द्वारा उपेक्षित रहती है और सौतों द्वारा दासी के समान अनादृत होती है। निश्चय ही ऐसी स्त्री अपने पापी जीवन के कारण सब तरह से धिक्कारी जाती है।

41 यहाँ तक कि जो दासियाँ अपने पति की निरन्तर सेवा करती हैं, वे भी अपने पति का सम्मान पाती रहती है, अतः उनको किसी बात के लिए पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता। किन्तु हमारी स्थिति तो दासी की दासियों के समान है, अतः हम सर्वाधिक हतभाग्या हैं।

42 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: अपने पति द्वारा उपेक्षित होने तथा कृतद्युति की गोद भरी हुई देखकर, सभी सौतें द्वेष से अधिकाधिक जलने लगीं।

43 द्वेष बढ़ जाने से रानियों की मति मारी गई। अत्यधिक कठोर हृदय होने तथा राजा की उपेक्षा को न सह सकने के कारण उन्होंने अन्त में बालक को विष खिला दिया।

44 अपनी सौतों द्वारा विष दिये जाने की घटना को न जानती हुई रानी कृतद्युति यह सोचकर कि उसका पुत्र गहरी निद्रा में सो रहा है घर में इधर-उधर विचरती रही। उसे पता न चल पाया कि वह मर चुका है।

45 यह सोचकर कि उसका पुत्र बड़ी देर से सो रहा है – उस अत्यन्त बुद्धिमान रानी कृतद्युति ने धाय को आज्ञा दी, “हे सखी! मेरे पुत्र को यहाँ ले आओ।"

46 जब धाय उस सोते हुए बच्चे के पास पहुँची तो उसने देखा कि उसकी आँखें ऊपर की ओर उलट गई हैं, उसके शरीर में प्राण का कोई संचार नहीं है और उसकी समस्त इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गई हैं। अतः वह समझ गई कि बालक मर चुका है। यह देखकर वह तुरन्त चिल्ला उठी, 'हाय मैं मारी गई' और पृथ्वी पर गिर पड़ी।

47 अत्यन्त विक्षुब्ध होकर वह धाय अपने दोनों हाथों से अपनी छाती पीटने लगी और आर्तस्वर में जोर-जोर से चिल्लाने लगी। उसकी तेज आवाज सुनकर रानी तुरन्त आ गई और जब वह अपने पुत्र के पास पहुँची, तो देखा कि वह सहसा मर चुका है।

48 अगाध शोक के कारण रानी मूर्छित होकर पृथ्वी पर ऐसे गिर पड़ी कि उसके बाल तथा वस्त्र बिखर गये।

49 हे राजा परीक्षित! रानी का जोर-जोर से विलखना सुनकर, रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष आ पहुँचे। समान रूप से सन्तप्त होने के कारण रोने लगे। जिन रानियों ने विष दिया था, अपने अपराध को भलीभाँति जानती हुई, वे भी झूठमूठ रोने का ढोंग करने लगीं।

50-51 जब राजा चित्रकेतु ने सुना कि न जाने कैसे उसका पुत्र मर गया है, तो वह प्रायः अन्धासा हो गया। पुत्र के प्रति अगाध स्नेह के कारण उसका विलाप जलती हुई अग्नि के समान बढ़ता गया और रास्ते भर वह भूमि पर लगातार गिरता-पड़ता तथा लुढ़कता हुआ उस मृत बालक को देखने गया। अपने मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों एवं विद्वान ब्राह्मणों से घिरा हुआ वह राजा वहाँ पहुँचा और उस बालक के चरणों पर अचेत होकर गिर पड़ा। उसके बाल तथा वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये। जब दीर्घ श्वास लेते हुए राजा को होश आया तो उसके नेत्र आसुओं से भरे हुए थे और वह बोल नहीं पा रहा था।

52 जब रानी ने अपने पति राजा चित्रकेतु को अत्यधिक शोकाकुल और अपने एकलौते पुत्र को मरा हुआ देखा तो वह अनेक प्रकार से शोक प्रकट करने लगी। इससे रनिवास के समस्त वासियों, मंत्रियों तथा समस्त ब्राह्मणों के हृदय की व्यथा बढ़ गई।

53 रानी के सिर को सुशोभित करने वाली फूलों की माला गिर पड़ी और उसके बाल बिखर गये। उसके आँसुओं से नेत्रों में लगा अंजन धुल गया और कुमकुम चूर्ण से लेपित उसके स्तन भीग गये। पुत्र की मृत्यु पर शोक करती हुई उस रानी का दारुण विलाप कुररी पक्षी के आर्त स्वर की तरह लग रहा था।

54 हे विधाता, हे सृष्टिकर्ता! तू निश्चय ही अपने सृष्टि-कार्य में अनुभवहीन है क्योंकि पिता के रहते हुए तूने उसके पुत्र की मृत्यु होने दी और इस तरह से अपनी ही सृष्टि के नियमों के विपरीत कार्य किया है। यदि तू नियमभंग करने पर ही तुला है, तो तू निश्चय ही समस्त जीवात्माओं का शत्रु है और निर्दयी है।

55 हे ईश्वर! आप यह कह सकते हैं कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि पुत्र के जीवनकाल में ही पिता की मृत्यु हो और पिता के जीवन काल में ही पुत्र उत्पन्न हो, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार जीता और मरता है। फिर भी, यदि कर्म इतना प्रबल है कि जन्म तथा मृत्यु उसी पर निर्भर करते हों तो फिर नियन्ता या ईश्वर की आवश्यकता नहीं है? पुनः यदि तू कहे कि नियन्ता की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि माया में कार्य करने की शक्ति नहीं होती, तो कोई यह भी तो कह सकता है कि यदि कर्म के द्वारा तेरे बनाये हुए स्नेह-बन्धन टूटते हैं, तो कोई भी सन्तान को स्नेहपूर्वक नहीं पालेगा वरन सभी लोग अपनी सन्तानों की निर्दयता से उपेक्षा करने लगेंगे। चूँकि तूने स्नेह के उन बन्धनों को काटा है, जिसके वशीभूत होकर माता-पिता अपनी सन्तान का पालन-पोषण करने के लिए विवश हो जाते हैं, इसलिए तू अनुभवहीन एवं बुद्धिहीन प्रतीत होता है।

56 प्यारे बेटे! मैं असहाय एवं अत्यधिक शोकाकुल हूँ? तुम्हें मेरा साथ नहीं छोड़ना चाहिए। तुम अपने शोकाकुल पिता की ओर तो देखो। हम (दोनों) असहाय हैं क्योंकि पुत्र के बिना हमें घोर नरक में यातनाएँ सहनी पड़ेंगी। तुम्हीं एकमात्र सहारा हो जिसके बल पर हम इस अंधकारमय प्रदेश से उबर सकते हैं; अतः मेरी प्रार्थना है कि तुम निर्दयी यमराज के साथ और आगे न जाओ।

57 प्यारे बेटे! तुम बहुत देर से सो रहे हो। अब उठ जाओ। तुम्हारे संगी तुम्हें खेलने के लिए बुला रहे हैं। चूँकि तुम्हें बहुत भूख लगी होगी इसलिए उठो, मेरे स्तनों से दूध पियो और हमारा शोक दूर करो।

58 प्रिय पुत्र! मैं सचमुच अभागिनी हूँ क्योंकि मैं अब तुम्हारे मुख पर मन्द हँसी नहीं देख सकती हूँ। तुमने सदा के लिए आँखें बन्द कर ली हैं; अतः मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि तुम इस लोक से दूसरे लोक में ले जाये गये हो जहाँ से तुम लौट नहीं पाओगे। बेटे! मैं तुम्हारी मनमोहक वाणी अब और आगे नहीं सुन सकती हूँ।

59 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार अपने प्रिय पुत्र के लिए विलाप करती हुई अपनी पत्नी के साथ ही राजा चित्रकेतु भी अत्यन्त शोक से सन्तप्त होकर फूट-फूट कर रोने लगा।

60 राजा तथा रानी को विलाप करते देखकर उनके समस्त अनुयायी स्त्री तथा पुरुष भी रोने लगे। इस आकस्मिक घटना से राज्य-भर के सभी नागरिक अचेत से हो गये।

61 जब ऋषि अंगिरा ने समझ लिया कि राजा शोक-समुद्र में मृत-प्राय हो चुका है, तो वे नारद ऋषि के साथ वहाँ गये।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय तेरह – ब्रह्महत्या से पीड़ित राजा इन्द्र (6.13)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महादानी राजा परीक्षित! वृत्रासुर के वध से इन्द्र के अतिरिक्त तीनों लोकों के लोकपाल एवं समस्त निवासी तुरन्त ही प्रसन्न हुए और उनकी सब चिन्ताएँ जाती रहीं।

2 तत्पश्चात सभी देवता महान साधु पुरुष, पितर, भूत, असुर, देवताओं के अनुचर तथा ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र के अधीन देवगण अपने-अपने धामों को लौट गये। किन्तु विदा लेते समय वे इन्द्र से कुछ बोले नहीं।

3 महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा – हे मुनि! इन्द्र की अप्रसन्नता का कारण क्या था? मैं इसके विषय में सुनना चाहता हूँ। जब उसने वृत्रासुर का वध कर दिया तो सभी देवता प्रसन्न हुए, तो फिर इन्द्र स्वयं क्यों अप्रसन्न था?

4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया-- जब समस्त ऋषि तथा देवता वृत्रासुर की असाधारण शक्ति से विचलित हो रहे थे तो उन्होंने एकत्र होकर इन्द्र से उसका वध करने के लिए याचना की थी। किन्तु इन्द्र ने ब्राह्मण-हत्या के भय से उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी थी।

5 राजा इन्द्र ने कहा: जब मैंने विश्वरूप का वध किया, तो मुझे अत्यधिक पाप बन्धन मिला था, किन्तु स्त्रियों, धरती, वृक्षों तथा जल ने मेरे ऊपर अनुग्रह किया था, जिससे मैं अपने पाप को उन सबों में बाँट सका। किन्तु यदि मैं अब एक अन्य ब्राह्मण, वृत्रासुर, का वध करूँ तो भला पाप-बन्धनों से मैं अपने को किस प्रकार मुक्त कर सकूँ गा?

6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह सुनकर ऋषियों ने इन्द्र को उत्तर दिया, “हे स्वर्ग के राजा! तुम्हारा कल्याण हो। तुम डरो नहीं। हम तुम्हें ब्राह्मण-हत्या से लगने वाले किसी भी पाप से मुक्ति के लिए एक अश्वमेध यज्ञ करेंगे।

7 ऋषियों ने आगे कहा: हे राजा इन्द्र! अश्वमेध यज्ञ करके उसके द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को, जो परमात्मा, भगवान, नारायण और परम नियन्ता हैं, प्रसन्न करके मनुष्य सारे संसार के वध के पाप-फलों से भी मुक्त हो सकता है, वृत्रासुर जैसे एक असुर के वध की तो बात ही क्या है?

8-9 भगवान नारायण के पवित्र नाम के जप-मात्र से ब्राह्मण, गाय, पिता, माता, गुरु की हत्या करने वाला मनुष्य समस्त पाप-फलों से तुरन्त मुक्त किया जा सकता है। अन्य पापी मनुष्य (यथा कुत्ते को खाने वाले चाण्डाल) जो शूद्रों से भी निम्न हैं, इसी प्रकार से मुक्त हो जाते हैं। फिर आप तो भक्त हैं और हम सभी महान अश्वमेध यज्ञ करके आपकी सहायता करेंगे। यदि आप भी इस प्रकार भगवान नारायण को प्रसन्न करें तो फिर आपको डर कैसा? तब आप मुक्त हो जायेंगे, भले ही आप ब्राह्मणों सहित सारे ब्रह्माण्ड की हत्या क्यों न कर दें। भला वृत्रासुर जैसे विघ्नकारी एक असुर की हत्या की क्या बात है?

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ऋषियों के वचनों से प्रोत्साहित होकर इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया और जब वह मारा गया तो ब्रह्महत्या का पाप फल इन्द्र के पास पहुँचा।

11 देवताओं की सलाह से इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया और इस पापपूर्ण हत्या के कारण उसे कष्ट उठाना पड़ा। यद्यपि अन्य देवतागण प्रसन्न थे, किन्तु वृत्रासुर की हत्या से उसे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई। इन्द्र के इस क्लेश में अन्य उत्तम गुण, यथा धैर्य तथा ऐश्वर्य, उसके सहायक नहीं बन सके।

12-13 इन्द्र ने साक्षात ब्रह्महत्या के फल को एक चाण्डाल स्त्री के समान प्रकट होकर अपना पीछा करते देखा। वह अत्यन्त वृद्धा प्रतीत होती थी और उसके शरीर के सभी अंग काँप रहे थे। यक्ष्मा रोग से पीड़ित होने के कारण उसका सारा शरीर तथा वस्त्र रक्त से सने थे। उसकी श्वास से मछली की-सी असह्य दुर्गन्ध निकल रही थी जिससे सारा रास्ता दूषित हो रहा था। उसने इन्द्र को पुकारा, “ठहरो ! ठहरो !“

14 हे राजन! इन्द्र पहले आकाश की ओर भागा, किन्तु उसने वहाँ भी उस ब्रह्महत्या रूपिणी स्त्री को अपना पीछा करते देखा। जहाँ कहीं भी वह गया, यह डायन उसका पीछा करती रही। अन्त में वह तेजी से उत्तरपूर्व की ओर गया और मानस सरोवर में घुस गया।

15 सदैव यह सोचते हुए कि ब्रह्महत्या से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त हो, राजा इन्द्र, सबों से अदृश्य रहकर सरोवर में कमलनाल के सूक्ष्म तन्तुओं के भीतर एक हजार वर्ष तक रहा। अग्निदेव उसे समस्त यज्ञों का उसका भाग लाकर देते, क्योंकि अग्निदेव जल में प्रवेश करने से भयभीत थे, अतः इन्द्र एक तरह से भूखों मर रहा था।

16 जब तक राजा इन्द्र कमलनाल के भीतर जल में रहा, नहुष अपने ज्ञान, तप तथा योग के कारण स्वर्गलोक का शासन चलाने के लिए सक्षम बना दिया गया। किन्तु शक्ति तथा ऐश्वर्य के मद से अन्धा होकर उसने इन्द्र की पत्नी के साथ रमण करने का अवांछित प्रस्ताव रखा। इस प्रकार वह एक ब्राह्मण द्वारा शापित हुआ और बाद में सर्प बन गया।

17 समस्त दिशाओं के देवता रुद्र के प्रताप से इन्द्र के पाप कम हो गये। चूँकि इन्द्र की रक्षा मानस-सरोवर के कमल कुन्जों में निवास करने वाली धन की देवी भगवान विष्णु की पत्नी द्वारा की जा रही थी, अतः इन्द्र के पापों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्त में भगवान विष्णु की निष्ठा-पूर्वक पूजा करने से इन्द्र के सारे पाप छूट गये। तब ब्राह्मणों ने उसे पुनः स्वर्गलोक में बुलाकर उसके पूर्व पद पर स्थापित कर दिया।

18 हे राजन! जब इन्द्र स्वर्गलोक में पहुँच गया तो साधुवत ब्राह्मण उसके पास गये और परमेश्वर को प्रसन्न करने के निमित्त अश्वमेध यज्ञ के लिए उसे समुचित रूप से दीक्षित किया।

19-20 ऋषितुल्य ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न किये गये अश्वमेध यज्ञ ने इन्द्र को समस्त पाप-बन्धनों से मुक्त कर दिया, क्योंकि उस यज्ञ में उसने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा की थी। हे राजन! यद्यपि उसने गम्भीर पापकृत्य किया था, किन्तु उस यज्ञ से वह पाप कृत्य तुरन्त उसी प्रकार विनष्ट हो गया, जिस प्रकार सूर्य के तेज प्रकाश से कोहरा छँट जाता है।

21 मरीचि तथा अन्य महर्षियों ने राजा इन्द्र पर कृपा की और विधिपूर्वक आदि पुरुष, परमात्मा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करके यज्ञ सम्पन्न किया। इस प्रकार इन्द्र ने अपनी उन्नत स्थिति पुनः प्राप्त कर ली तथा वह प्रत्येक के द्वारा फिर से सम्मानित हुआ।

22-23 इस महान आख्यान में भगवान नारायण की महिमा का वर्णन हुआ है, भक्तियोग की महानता के सम्बन्ध में कथन दिए गए हैं, इन्द्र तथा वृत्रासुर जैसे भक्तों के वर्णन आए हैं तथा पापी जीवन से इन्द्र के मोक्ष एवं असुरों के साथ लड़े गये युद्धों में उसकी विजय के सम्बन्ध में विवरण दिए गये हैं। इस आख्यान को समझ लेने पर सभी पापफलों से छुटकारा मिल जाता है। अतः विद्वानों को सदा सलाह दी जाती है कि इस आख्यान को पढ़ें। जो ऐसा करेगा उसकी इन्द्रियाँ अपने कार्य में निपुण होंगी, उसका ऐश्वर्य बढ़ेगा और यश चारों ओर फैलेगा। उसके समस्त पापफल मिट जायेंगे, उसे अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त होगी और उसकी आयु बढ़ेगी। चूँकि यह आख्यान सभी तरह से कल्याणकारी है, अतः विद्वान व्यक्ति इसको प्रत्येक शुभ उत्सव के अवसर पर नियमित रूप से सुनते और दोहराते हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय बारह – वृत्रासुर की यशस्वी मृत्यु (6.12)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपना शरीर छोड़ने की इच्छा से वृत्रासुर ने विजय की अपेक्षा युद्ध में अपनी मृत्यु को श्रेयस्कर समझा। हे राजा परीक्षित! उसने अत्यन्त बलपूर्वक अपना त्रिशूल उठाया और बड़े वेग से स्वर्ग के राजा पर उसी प्रकार से आक्रमण किया जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के जलमग्न होने पर कैटभ ने श्रीभगवान पर बड़े ही बल से आक्रमण किया था।

2 तब असुरों में महान वीर वृत्रासुर ने कल्पान्त (प्रलय) की धधकती अग्नि की लपटों के समान तीखी नोकों वाले त्रिशूल को अत्यन्त क्रोध एवं वेग से इन्द्र पर चला दिया। उसने गरजकर कहा, “अरे पापी, मैं तेरा वध किये देता हूँ।"

3 आकाश में उड़ता हुआ वृत्रासुर का त्रिशूल प्रकाशमान उल्का के समान था। यद्यपि इस प्रज्ज्वलित आयुध की ओर देख पाना कठिन था, किन्तु राजा इन्द्र ने निर्भीक होकर अपने वज्र से उसके खण्ड-खण्ड कर दिये। उसी समय उसने वृत्रासुर की एक भुजा काट ली, जो सर्पों के राजा वासुकि के शरीर के समान मोटी थी।

4 शरीर से एक भुजा के कट जाने पर भी वृत्रासुर क्रोधपूर्वक राजा इन्द्र के निकट पहुँचा और लोहे के बल्लम (परिघ) से उसकी ठोड़ी पर प्रहार किया। उसने इन्द्र के हाथी पर भी प्रहार किया। इससे इन्द्र के हाथ से उसका वज्र गिर गया।

5 विभिन्न लोकों के वासी, यथा देवता, असुर, चारण तथा सिद्ध, वृत्रासुर के कार्य की प्रशंसा करने लगे, किन्तु जब उन्होंने देखा कि इन्द्र महान संकट में है, तो वे 'हाय हाय' करके विलाप करने लगे।

6 शत्रु की उपस्थिति में अपने हाथ से वज्र गिर जाने पर इन्द्र एक प्रकार से पराजित हो गया था और अत्यन्त लज्जित हुआ। उसने पुनः अपने आयुध उठाने का दुस्साहस नहीं किया। किन्तु वृत्रासुर ने उसे यह कहते हुए प्रोत्साहित किया, “अपना वज्र उठा लो और अपने शत्रु को मार दो। यह भाग्य को कोसने का अवसर नहीं है।"

7 वृत्रासुर ने आगे कहा: हे इन्द्र! आदि भोक्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अतिरिक्त किसी की सदैव विजय होना निश्चित नहीं है। वे ही उत्पत्ति, पालन और प्रलय के कारण हैं और सब कुछ जानने वाले हैं। अधीन होने तथा भौतिक देहों को धारण करने के लिए बाध्य होने के कारण युद्धप्रिय अधीनस्थ कभी विजयी होते हैं, तो कभी पराजित होते हैं।

8 समस्त लोकों के प्रमुख लोकपालों सहित, इस ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों के समस्त जीव, पूर्णत: भगवान के वश में हैं। वे जाल में पकड़े गए उन पक्षियों के समान कार्य करते हैं, जो स्वतंत्रतापूर्वक विचरण नहीं कर सकते।

9 हमारी इन्द्रियों का शौर्य, मानसिक शक्ति, दैहिक बल, जीवन शक्ति, अमरत्व एवं मृत्यु सभी कुछ परम भगवान की देखरेख के अधीन हैं। इसे जाने बिना मूर्ख लोग अपने जड़ शरीर को ही अपने कार्यकलापों का कारण मानते हैं।

10 हे देवराज इन्द्र! जिस प्रकार काठ की पुतली जो स्त्री के समान प्रतीत होती है अथवा घास-फूस का बना हुआ पशु न तो हिल-डुल सकता है और न अपने आप नाच सकता है, वरन उसे हाथ से चलाने वाले व्यक्ति पर पूरी तरह निर्भर रहता है, उसी प्रकार हम सभी परम नियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की इच्छानुसार नाचते हैं। कोई भी स्वतंत्र नहीं है।

11 तीनों पुरुष--कारणोदकशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु--भौतिक प्रकृति, समग्र भौतिक शक्ति (महत तत्त्व), मिथ्या अहंकार, पाँचों भौतिक तत्त्व, भौतिक इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा चेतना, ये सब भगवान के आदेश के बिना भौतिक जगत की सृष्टि नहीं कर सकते।

12 ज्ञानरहित मूर्ख व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को नहीं समझ सकता। वह शाश्वत अधीन रहकर भी अपने आपको झूठे ही सर्वोच्च मानता है। यदि कोई यह सोचे कि अपने पूर्व सकाम कर्मों के अनुसार उसका भौतिक शरीर उसके माता-पिता द्वारा उत्पन्न किया गया है और उसी शरीर को दूसरा कोई विनष्ट कर देता है जैसे कि बाघ दूसरे पशु को निगल जाता है, तो यह सही ज्ञान नहीं है। श्रीभगवान स्वयं सृष्टि करते हैं और अन्य जीवों के द्वारा जीवों को निगलते रहते हैं।

13 जिस प्रकार मरने की इच्छा न रखने पर भी मनुष्य को मृत्यु के समय अपनी आयु, ऐश्वर्य, यश तथा अन्य सब कुछ त्याग देना पड़ता है उसी प्रकार जब ईश्वर की कृपा होती है, तो विजय के नियत समय के अनुकूल होने पर ये सारी वस्तुएँ उसे मिल जाती हैं।

14 चूँकि प्रत्येक वस्तु भगवान की परम इच्छा पर निर्भर करती है, अतः मनुष्य को यश-अपयश, हार-जीत तथा जीवन-मृत्यु में निश्चिन्त रहकर समभाव बनाये रखना चाहिए।

15 जो पुरुष यह जानता है कि सतो, रजो तथा तमो गुण--ये तीनों आत्मा के नहीं, वरन भौतिक प्रकृति के गुण हैं और जो यह जानता है कि शुद्ध आत्मा इन गुणों के कर्मों तथा फलों का साक्षी मात्र है, उसे मुक्त पुरुष मानना चाहिए। वह इन गुणों से नहीं बँधता।

16 अरे मेरे शत्रु! जरा मेरी ओर देख। मैं पहले ही पराजित हो चुका हूँ, क्योंकि मेरा हथियार तथा मेरी भुजा पहले ही खण्ड-खण्ड हो चुके हैं। तुमने मुझे पहले ही परास्त कर दिया है, तो भी मैं तुम्हें मारने की प्रबल इच्छा के कारण तुमसे लड़ने का भरसक प्रयत्न कर रहा हूँ। ऐसी विषम परिस्थिति में मैं तनिक भी दुखी नहीं हूँ। अतः तुम उदासीनता त्याग करके युद्ध जारी रखो।

17 अरे मेरे शत्रु! इस युद्ध को द्यूतक्रीड़ा का खेल मानो जिसमें हमारे प्राणों की बाजी लगी है, बाण पासे हैं और वाहक पशु चौसर हैं। कोई नहीं जानता कि कौन हारेगा और कौन जीतेगा। यह सब विधाता पर निर्भर है।

18 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वृत्रासुर के निष्कपट तथा निर्देशात्मक वचन सुनकर राजा इन्द्र ने उसकी प्रशंसा की और अपने वज्र को पुनः हाथ में धारण कर लिया। इसके बाद बिना मोह या द्वैत-भाव से वह हँसा और वृत्रासुर से इस प्रकार बोला।

19 इन्द्र ने कहा: हे असुरश्रेष्ठ! मैं देखता हूँ कि संकटमय स्थिति में होते हुए भी अपने विवेक तथा भक्तियोग में निष्ठा के कारण तुम श्रीभगवान के पूर्ण भक्त तथा जन-जन के मित्र हो।

20 तुमने भगवान विष्णु की माया को पार कर लिया है और इस मुक्ति के कारण तुमने आसुरी भाव का परित्याग करके महान भक्त का पद प्राप्त कर लिया है।

21 हे वृत्रासुर! असुर सामान्यतः रजोगुणी होते हैं, अतः यह कितना महान आश्चर्य है। कहा जायेगा कि असुर होकर भी तुमने भक्त-भाव ग्रहण करके अपने मन को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव में स्थिर कर दिया है, जो सदैव शुद्ध सत्त्व में स्थित रहते हैं।

22 जो मनुष्य परम कल्याणकारी परमेश्वर हरि की भक्ति में स्थिर है, वह अमृत के समुद्र में तैरता है। उसके लिए छोटे-छोटे गड्डों के जल से क्या प्रयोजन?

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वृत्रासुर तथा राजा इन्द्र ने युद्धभूमि में भी भक्तियोग के सम्बन्ध में बातें कीं और अपना कर्तव्य समझकर दोनों पुनः युद्ध में भिड़ गये। हे राजन! दोनों ही बड़े योद्धा और समान रूप से शक्तिशाली थे।

24 हे महाराज परीक्षित! अपने शत्रु को वश में करने में पूर्ण सक्षम वृत्रासुर ने अपना लोहे का परिघ उठाकर चारों ओर घूमाया और इन्द्र को लक्ष्य बनाकर अपने बाएँ हाथ से उस पर फेंका।

25 इन्द्र ने अपने शतपर्वन नामक वज्र से वृत्रासुर के परिघ तथा उसके बचे हुए हाथ को एक साथ खण्ड-खण्ड कर डाला।

26 जड़ से दोनों भुजाएँ कट जाने से तेजी से रक्त बहने के कारण वृत्रासुर उड़ते हुए पर्वत के समान सुन्दर लग रहा था जिसके पंखों को इन्द्र ने खण्ड-खण्ड कर दिया हो।

27-29 वृत्रासुर अत्यन्त शक्तिशाली था। उसने अपने निचले जबड़े को भूमि पर और ऊपरी जबड़े को आकाश में गड़ा दिया। उसका मुख इतना गहरा हो गया मानो आकाश हो और उसकी जीभ बहुत बड़े सर्प के सदृश लग रही थी। अपने काल के समान कराल दाँतों से वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को निगलने का प्रयास करता प्रतीत हुआ। इस प्रकार विराट शरीर धारण करके उस महान असुर वृत्रासुर ने पर्वतों तक को हिला दिया और अपने पाँवों से पृथ्वी की सतह को इस प्रकार मर्दित करने लगा मानो वह चलता हुआ साक्षात हिमालय पर्वत हो। वह इन्द्र के सामने आया और उसके वाहन ऐरावत समेत उसे इस प्रकार निगल गया मानो एक बड़े अजगर ने हाथी निगल लिया हो।

30 जब देवताओं, ब्रह्मा समेत अन्य प्रजापतियों तथा अन्य बड़े-बड़े साधु पुरुषों ने देखा कि असुर ने इन्द्र को निगल लिया है, तो वे अत्यन्त दुखी हुए और 'हाय हाय' 'कितनी बड़ी विपत्ति'! कह करके विलाप करने लगे।

31 इन्द्र के पास नारायण का जो सुरक्षा कवच था, वह स्वयं भगवान नारायण से अभिन्न था। उस कवच के द्वारा तथा अपनी योगशक्ति से सुरक्षित होने पर राजा इन्द्र वृत्रासुर द्वारा निगले जाने पर भी उस असुर के उदर में मरा नहीं।

32 अत्यन्त शक्तिशाली राजा इन्द्र ने अपने वज्र के द्वारा वृत्रासुर का पेट फाड़ डाला और बाहर निकल आया। बल असुर के मारने वाले इन्द्र ने उसके तुरन्त बाद वृत्रासुर के पर्वत- शृंग जैसे ऊँचे सिर को काट लिया।

33 यद्यपि वज्र वृत्रासुर की गर्दन के चारों ओर अत्यन्त वेग से घूम रहा था, किन्तु उसके शरीर से सिर को विलग करने में पूरा एक वर्ष (360 दिन) लग गया, जो सूर्य, चन्द्र तथा अन्य नक्षत्रों के उत्तरी तथा दक्षिणी यात्रा पूर्ण करने में लगने वाले समय के तुल्य है। तब वृत्रासुर के वध का उपयुक्त समय (योग) उपस्थित होने पर उसका सिर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

34 वृत्रासुर के मारे जाने पर, गन्धर्वों तथा सिद्धों ने हर्षित होकर स्वर्गलोक में दुन्दुभियाँ बजाई। उन्होंने वृत्रासुर के संहर्ता इन्द्र के शौर्य का वेद-स्रोत्रों से अभिनन्दन किया और अत्यन्त प्रसन्न होकर उस पर फूलों की वर्षा की।

35 हे शत्रुओं का दमन करने वाले राजा परीक्षित! तब वृत्रासुर के शरीर से सजीव ज्योति निकल कर बाहर आई और भगवान के परम धाम को लौट गई। सभी देवताओं के देखते-देखते वह भगवान संकर्षण का संगी बनने के लिए दिव्य लोक में प्रविष्ट हुआ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय ग्यारह – वृत्रासुर के दिव्य गुण (6.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन ! असुरों के प्रधान सेनानायक वृत्रासुर ने अपने सेनानायकों को धर्म के नियमों का उपदेश दिया, किन्तु वे कायर तथा भगोड़े सेनानायक भय से इतने विचलित हो चुके थे कि उन्होंने उसके वचनों को नहीं माना।

2-3 हे राजा परीक्षित! समयानुकूल अवसर का लाभ उठाकर देवताओं ने असुरों की सेना पर पीछे से आक्रमण कर दिया और असुर सैनिकों को ऐसे खदेड़ दिया, मानो उनकी सेना में कोई नायक ही न हो। अपने सैनिकों की दयनीय दशा को देखकर असुरश्रेष्ठ वृत्रासुर जिसे इन्द्रशत्रु कहा जाता था, अत्यन्त दुखी हुआ। ऐसी पराजय न सह सकने के कारण उसने देवताओं को रोका और बलपूर्वक डॉटते हुए क्रुद्धभाव से इस प्रकार कहा।

4 हे देवताओं! इन असुर सैनिकों का जन्म वृथा ही हुआ। निस्सन्देह, ये अपनी माताओं के शरीर से मलमूत्र के समान आये हैं। ऐसे शत्रुओं को, जो डर के मारे भाग रहे हैं, पीछे से मारने में क्या लाभ होगा? अपने को वीर कहलाने वाले को चाहिए कि वह अपनी मृत्यु से भयभीत शत्रु का वध न करे। ऐसा वध न तो प्रशंसनीय है, न ही इससे किसी को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

5 हे तुच्छ देवों! यदि तुम्हें अपनी वीरता में सचमुच विश्वास है, यदि तुम्हारे अन्तस्थल में धैर्य है और यदि तुम इन्द्रियतृप्ति के कामी नहीं हो, तो क्षण भर मेरे समक्ष ठहरो।

6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अति क्रुद्ध एवं अत्यन्त शक्तिशाली वीर वृत्रासुर देवताओं को अपने बलिष्ठ एवं गठित शरीर से भयभीत करने लगा। जब उसने ज़ोर से गर्जना की तो लगभग सारे जीव अचेत हो गये।

7 जब समस्त देवताओं ने वृत्रासुर की सिंह जैसी भयानक गर्जना सुनी तो वे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो उन पर वज्रपात हुआ हो।

8 जैसे ही देवताओं ने डर के मारे अपनी आँखें बन्द कीं, वृत्रासुर ने अपना त्रिशूल उठाकर और अपने बल से पृथ्वी को दहलाते हुए युद्धभूमि में देवताओं को अपने पैरों के तले उसी प्रकार रौंद डाला जिस प्रकार पागल हाथी नरकट के वन को रौंद डालता है।

9 वृत्रासुर की करतूत देखकर स्वर्ग का राजा इन्द्र अधीर हो उठा और उस पर अपनी एक गदा फेंकी, जिसको रोकपाना अत्यन्त दुष्कर था। फिर भी ज्योंही वह गदा उसकी ओर पहुँची, वृत्रासुर ने अपने बाएँ हाथ से सरलतापूर्वक पकड़ लिया।

10 हे राजा परीक्षित! इन्द्र के शत्रु, पराक्रमी वृत्रासुर ने उस गदा से क्रोधपूर्वक इन्द्र के हाथी के सिर पर ज़ोर से प्रहार किया जिससे वह युद्धभूमि में चिघाड़ने लगा। इस वीरता पूर्ण कार्य के लिए दोनों पक्षों के सैनिकों ने उसकी प्रशंसा की।

11 वृत्रासुर की गदा के आघात से ऐरावत हाथी वज्र के द्वारा ताड़ित पर्वत के समान, तीव्र वेदना का अनुभव करता हुआ तथा अपने टूटे मुँह से रक्त उगलता हुआ चौदह गज पीछे छिटक गया। भारी वेदना के कारण वह पीठ पर बैठे इन्द्र के समेत भूमि पर गिर पड़ा।

12 जब उसने देखा कि इन्द्र-वाहन हाथी थका हुआ एवं घायल है और उसे आहत देखकर इन्द्र स्वयं खिन्न है, तो वह महापुरुष वृत्रासुर धर्म के नियमों का पालन करते हुए इन्द्र पर अपनी गदा से पुनः प्रहार करने से हिचका। इस अवसर का लाभ उठाकर इन्द्र ने अपने अमृतवर्षी हाथ से हाथी को छु दिया जिससे उस पशु की पीड़ा जाती रही और उसके घाव ठीक हो गये। तब हाथी तथा इन्द्र दोनों चुपचाप खड़े हो गए।

13 हे राजन! जब महाभट्ट वृत्रासुर ने अपने शत्रु तथा अपने भाई के हत्यारे इन्द्र को अपने समक्ष लड़ने के लिए हाथ में वज्र लिए हुए देखा तो उसे स्मरण हो आया कि इन्द्र ने किस क्रूरता के साथ उसके भाई का वध किया था। इन्द्र के पापकर्मों को सोचते हुए वह शोक तथा विस्मृति से पागल हो उठा। व्यंग्य से हँसते हुए उसने इस प्रकार कहा।

14 श्रीवृत्रासुर ने कहा: वह जिसने ब्राह्मण की हत्या की है, वह जिसने अपने गुरु का वध किया है, वह जिसने मेरे भाई की हत्या की है, इस समय सौभाग्यवश मेरे शत्रु के रूप में मेरे सामने खड़ा हुआ है। अरे नीच! जब मैं तुम्हारे पत्थर-सदृश हृदय को अपने त्रिशूल से भेद डालूँगा तब मैं अपने भाई के ऋण से उऋण हो सकूँ गा।

15 तुमने स्वर्ग में निवास करते रहने के उद्देश्य से मेरे बड़े भाई का, जो स्वरूपसिद्ध (आत्मवेत्ता), निष्पाप एवं सुपात्र ब्राह्मण था, जिसे तुमने अपना मुख्य पुरोहित नियुक्त किया था, वध कर दिया है। वह तुम्हारा गुरु था और यद्यपि तुमने अपना यज्ञ करने का सारा भार उस पर छोड़ रखा था, किन्तु बाद में अत्यन्त क्रूरता के साथ उसके सिर को शरीर से उसी प्रकार छिन्न कर दिया जिस प्रकार कोई पशु की हत्या कर दे।

16 अरे इन्द्र! तुम सभी प्रकार की लज्जा, दया, कीर्ति तथा ऐश्वर्य से विहीन हो। अपने सकाम कर्मों के फल से इन सद्गुणों से रहित होकर तुम राक्षसों के द्वारा भी निन्दनीय हो। अब मैं तुम्हारे शरीर को अपने त्रिशूल से बेध डालूँगा और जब तुम घोर कष्ट से मरोगे तो अग्नि भी तुम्हारा स्पर्श नहीं करेगी, केवल गीध तुम्हारे शरीर को खायेंगे।

17 तुम स्वभाव से क्रूर हो। यदि अन्य देवता मेरे शौर्य से अपरिचित रह कर तुम्हारे अनुयायी बनकर अपने उठे हुए हथियारों से मुझ पर आक्रमण करते हैं, तो मैं अपने इस तीक्ष्ण त्रिशूल से उनके सिर काट लूँगा और उन सिरों को भैरव तथा उनके गणों सहित अन्य भूतों के नायकों को बलि चढ़ाऊँगा।

18 किन्तु यदि तुम इस युद्ध में अपने वज्र से मेरा सिर काट लेते हो और मेरे सैनिकों को मार डालते हो तो हे इन्द्र, हे महान वीर! मैं अपने शरीर को अन्य जीवात्माओं (यथा सियारों तथा गीधों) को भेंट करने में अति प्रसन्न हूँगा। इस कारण मैं अपने कर्मबन्धन के फलों से छूट जाऊँगा और यह मेरा अहोभाग्य होगा कि मैं नारद मुनि जैसे परम भक्तों के चरणकमलों की धूलि प्राप्त करूँगा।

19 हे स्वर्ग के राजा इन्द्र! तुम अपने समक्ष खड़े अपने शत्रु मुझ पर अपना वज्र क्यों नहीं छोड़ते? यद्यपि गदा द्वारा मुझ पर किया गया तुम्हारा प्रहार निश्चय ही उसी प्रकार निष्फल हो गया था जिस प्रकार कंजूस से धन की याचना निष्फल होती है, किन्तु तुम्हारे द्वारा धारण किया गया यह वज्र निष्फल नहीं होगा। तुम्हें इस विषय में तनिक भी सन्देह नहीं करना चाहिए।

20 हे स्वर्ग के राजा इन्द्र ! तुमने जिस वज्र को मुझे मारने के लिए धारण किया है, वह भगवान विष्णु के तेज तथा दधीचि की तपस्या-शक्ति से समन्वित है। चूँकि तुम यहाँ भगवान विष्णु की आज्ञा से मुझे मारने आये हो अतः इसमें अब कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारे वज्र के प्रहार से मैं मारा जाऊँगा। भगवान विष्णु तुम्हारा साथ दे रहे हैं, अतः विजय, ऐश्वर्य तथा समस्त सद्गुण निश्चय ही तुम्हारे साथ हैं।

21 तुम्हारे वज्र के वेग से मैं भौतिक बन्धन से मुक्त हो जाऊँगा और यह शरीर तथा भौतिक कामनाओं वाला यह संसार त्याग दूँगा। मैं भगवान संकर्षण के चरणकमलों पर अपने मन को स्थिर करके नारद मुनि जैसे महामुनियों के गन्तव्य को प्राप्त कर सकूँगा जैसा कि भगवान संकर्षण ने कहा है।

22 श्रीभगवान के चरणारविन्द में जो व्यक्ति पूर्णतया समर्पित होते हैं और निरन्तर उनके चरणारविन्द का चिन्तन करते हैं, उन्हें भगवान अपने पार्षदों या सेवकों के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। भगवान ऐसे सेवकों को उच्च, मध्य तथा निम्न लोकों का आकर्षक ऐश्वर्य प्रदान नहीं करते, क्योंकि जब उन्हें इन लोकों में से किसी एक की भी प्राप्ति हो जाती है, तो उससे शत्रुता, चिन्ता, मानसिक क्षोभ, अभिमान तथा कलह की वृद्धि होती है। इस प्रकार मनुष्य को अपनी सम्पत्ति को बढ़ाने और उसको बनाये रखने में काफी प्रयास करना पड़ता है और जब सम्पत्ति की क्षति हो जाती है, तो उसे भारी दुख होता है।

23 हमारे भगवान अपने भक्तों को धर्म, अर्थ तथा काम (इन्द्रिय-तृप्ति) के लिए वृथा प्रयास करने के प्रति वर्जित करते हैं। हे इन्द्र! इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भगवान कितने दयालु हैं। ऐसी कृपा केवल शुद्ध भक्तों को प्राप्य है, भौतिक लाभ चाहने वाले व्यक्तियों को नहीं।

24 हे भगवन! हे मेरे जीवनाधार! क्या मैं पुनः आपका दासानुदास (दासों का दास) बन सकूँ गा जो आपके चरणकमल की शरण लेते हैं? जिससे मेरा मन सदैव आपके दिव्य गुणों को स्मरण करता रहे, मेरी वाणी नित्य आपके गुणों का गान करती रहे और मेरा शरीर आपकी प्रेम-भक्ति में निरन्तर लगा रहे?

25 हे समस्त सौभाग्य के स्रोत भगवान! मुझे न तो ध्रुवलोक में, न स्वर्ग में अथवा ब्रह्मलोक में सुख भोगने की इच्छा है और न ही मैं समस्त भूलोकों अथवा अधःलोकों का सर्वोच्च अधिपति बनना चाहता हूँ। मैं योग शक्तियों का स्वामी भी नहीं बनना चाहता, न ही आपके चरणकमलों को त्याग कर मोक्ष की कामना करता हूँ।

26 हे कमलनयन भगवान! जैसे पक्षियों के पंखविहीन बच्चे अपनी माँ के लौटने तथा खिलाये जाने की प्रतीक्षा करते रहते हैं, जैसे रस्सियों से बँधे छोटे-छोटे बछड़े गाय दुहे जाने की प्रतीक्षा करते रहते हैं जिससे उन्हें अपनी माताओं का दूध पीने को मिले या जैसे वियोगिनी पत्नी घर से दूर बसे अपने प्रवासी पति के लौटने और उसे सभी प्रकार से तुष्ट किये जाने के लिए लालायित रहती है, उसी प्रकार मैं आपकी प्रत्यक्ष सेवा करने के अवसर पाने के लिए सदैव उत्कण्ठित रहता हूँ।

27 हे भगवान, हे स्वामी! मैं अपने सकाम कर्मों के फलस्वरूप इस पूरे भौतिक जगत में घूम रहा हूँ और मैं आपके पवित्र तथा प्रबुद्ध भक्तों की संगति की ही खोज कर रहा हूँ। आपकी बहिरंगा शक्ति अर्थात माया के प्रभाव से अपने शरीर, पत्नी, सन्तान तथा घर के प्रति मेरी आसक्ति बनी हुई है, किन्तु मैं अब और अधिक आसक्त नहीं बने रहना चाहता। मेरा मन, मेरी चेतना तथा मेरा सर्वस्व आपके ही प्रति आसक्त रहे।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय दस – देवताओं तथा वृत्रासुर के मध्य युद्ध (6.10)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार इन्द्र को आदेश देकर भगवान हरि, जो दृश्य जगत के कारण – स्वरूप हैं, देवताओं के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये।

2 हे राजा परीक्षित! भगवान की आज्ञानुसार देवतागण अथर्वा के पुत्र दधीचि के पास पहुँचे। वे अत्यन्त उदार थे और जब देवताओं ने उनसे शरीर देने के लिए प्रार्थना की तो वे तुरन्त तैयार हो गये। किन्तु उनसे धार्मिक उपदेश सुनने के उद्देश्य से वे हँसे और विनोद में इस प्रकार बोले।

3 हे देवताओं मृत्यु के समय तीक्ष्ण असह्य वेदना के कारण समस्त देहधारी जीवात्माओं की चेतना जाती रहती है। क्या तुम्हें इस वेदना का पता नहीं है?

4 इस भौतिक जगत में प्रत्येक जीवात्मा को अपना शरीर अत्यन्त प्रिय है। अपने शरीर को अक्षुण्ण बनाये रखने के संघर्ष में वह सभी प्रकार से, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व न्यौछावर करके, बचाये रखने का प्रयत्न करता है। अतः ऐसा कौन है, जो अपना शरीर किसी अन्य को दान देना चाहेगा, भले ही भगवान विष्णु क्यों न माँगें?

5 देवताओं ने उत्तर दिया-- हे ब्रह्मन! आप जैसे पवित्र तथा प्रशंसनीय कार्यों वाले पुरुष सभी व्यक्तियों पर परम दयालु एवं वत्सल होते हैं। ऐसी पवित्र आत्माएँ परोपकार के लिए क्या नहीं दे सकतीं? वे सब कुछ, यहाँ तक कि अपना शरीर भी, दे सकती हैं।

6 जो नितान्त स्वार्थी होते हैं, वे अन्यों की पीड़ा को सोचे बिना उनसे कुछ याचना करते हैं। किन्तु यदि याचक दाता की कठिनाई को जान ले तो वह कोई वस्तु न माँगे। इसी प्रकार जो दान दे सकता है वह याचक (भिखारी) की कठिनाई नहीं समझता अन्यथा जो कुछ भी वह माँगे वह उसे देने से इनकार नहीं करेगा।

7 परमसाधु दधीचि ने कहा मैंने तुम लोगों से धर्म की बातें सुनने के लिए ही तुम्हारे माँगने पर अपना शरीर देने से इनकार कर दिया है। अब, यद्यपि मुझे अपना शरीर अत्यन्त प्रिय है, तो भी तुम लोगों के कल्याण के लिए मैं इसको छोड़ दूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह आज नहीं तो कल अवश्य मुझे छोड़ देगा।

8 हे देवों! जो न तो दुखी प्राणियों पर दया दिखाता है और न धार्मिक नियमों या अक्षुण्ण कीर्ति के महान कार्यों के लिए अपने नश्वर शरीर की बलि कर सकता है, वह निश्चय ही जड़ प्राणियों तक के द्वारा धिक्कारा जाता है।

9 यदि कोई मनुष्य दूसरे जीवों के दुख से दुखी होता है और उनके सुख को देखकर प्रसन्न होता है, तो पवित्र तथा परोपकारी महापुरुषों द्वारा ऐसे पुरुष के धर्म को अविनाशी माना गया है।

10 यह शरीर, जिसे मृत्यु के पश्चात कुत्ते तथा गीदड़ खा जायेंगे, मेरे अपने किसी काम का नहीं है। यह कुछ काल तक ही काम आने वाला है और किसी भी क्षण नष्ट हो सकता है। यह शरीर तथा इसके सभी कुटुम्बी तथा सम्पत्ति परोपकार में लगने चाहिए, अन्यथा वे सब दुख एवं विपत्ति के कारण बनेंगे।

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार अथर्वा के पुत्र दधीचि मुनि ने देवताओं की सेवा के लिए अपना शरीर त्यागने का निश्चय किया। उन्होंने अपने आप (आत्मा) को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के चरणारविन्द में रखकर पंचभूत से निर्मित अपने स्थूल शरीर को त्याग दिया।

12 दधीचि मुनि ने अपनी इन्द्रियों, प्राण, मन तथा बुद्धि को संयमित किया और समाधि में लीन हो गए। इस प्रकार उनके समस्त भव-बन्धन छिन्न हो गये। वे यह नहीं देख सकते थे कि उनका भौतिक शरीर किस प्रकार आत्मा से पृथक हो गया।

13 तत्पश्चात राजा इन्द्र ने विश्वकर्मा द्वारा दधीचि की आस्थियों से निर्मित वज्र को दृढ़तापूर्वक धारण किया। दधीचि मुनि की परम शक्ति से आविष्ट एवं श्रीभगवान के तेज से प्रकाशित होकर इन्द्र अपने वाहन ऐरावत की पीठ पर सवार हुआ।

14 उसे समस्त देवता घेरे हुए थे और सभी मुनिगण उसकी प्रशंसा कर रहे थे। इस तरह जब वह वृत्रासुर का वध करने के लिए सवार होकर चला तो वह अत्यन्त सुशोभित हो रहा था और तीनों लोकों को भा रहा था।

15 हे राजा परीक्षित! जिस प्रकार रुद्र अत्यन्त क्रुद्ध होकर पहले समय में अन्तक (यमराज) को मारने के लिए उसकी ओर दौड़े थे, उसी प्रकार इन्द्र ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर बड़े ही वेग से आसुरी सेना के नायकों से घिरे वृत्रासुर पर धावा बोल दिया।

16 तत्पश्चात सत्ययुग के अन्त तथा त्रेतायुग के प्रारम्भ में नर्मदा नदी के तट पर देवों तथा असुरों के मध्य घमासान युद्ध हुआ।

17-18 हे राजन! जब वृत्रासुर को आगे करके सभी असुर युद्धभूमि में आये तो उन्होंने देखा कि राजा इन्द्र वज्र धारण किये हुए है और रुद्रों, वसुओं, आदित्यों, अश्विनीकुमारों, पितरों, वह्रियों, मरुतों, ऋभूओं, साध्यों तथा विश्वदेवों से घिरा हुआ है और इस प्रकार से देदीप्यमान है कि उसका तेज असुरों के लिए असह्य था।

19-22 सैकड़ों हजारों असुरों, यक्षों, राक्षसों (मनुष्य-भक्षकों) तथा सुमाली, मालि आदि अन्यों ने राजा इन्द्र की सेनाओं को रोका। जिन्हें साक्षात काल भी नहीं जीत सकता था। असुरों में नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, ऋषभ, असुर, हयग्रीव, शंकु-शिरा, विप्रचित्ति, अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति, हेति तथा उत्कल सम्मिलित थे। ये अजेय असुर स्वर्णाभूषणों से भूषित होकर सिंह के समान निर्भीक होकर घोर नाद कर रहे थे और गदा, परिघ, बाण, प्रास, मुद्गर तथा तोमर जैसे हथियारों से देवताओं को पीड़ा पहुँचा रहे थे।

23 बर्छों, त्रिशूलों, फरसों, तलवारों तथा शतध्नी एवं भुशुण्डी जैसे अन्य हथियारों से सुसज्जित होकर असुरों ने विभिन्न दिशाओं से आक्रमण कर दिया और देवताओं की सेना के समस्त नायकों को तितर-बितर कर दिया।

24 जिस प्रकार घने बादलों के आकाश में छा जाने के बाद तारे नहीं दिखाई पड़ते उसी प्रकार एक के बाद एक गिरने वाले बाणों के जाल से पूर्णतया आच्छादित हो जाने से देवतागण दिखाई नहीं पड़ रहे थे।

25 देवताओं की सेना को मारने के लिए हथियारों तथा बाणों के द्वारा की गई वर्षा उन तक नहीं पहुँच पाई, क्योंकि उन्होंने अपने हस्तलाघव से आकाश में इन हथियारों को काटकर खण्ड-खण्ड कर दिया।

26 जब असुरों के हथियार तथा मंत्र चुक गये, तो उन्होंने देवताओं पर पर्वतों के शिखर, वृक्ष तथा पत्थर बरसाना प्रारम्भ कर दिया। किन्तु देवता इतने प्रभावशाली तथा दक्ष थे कि उन्होंने पूर्ववत इन सभी हथियारों को आकाश में खण्ड-खण्ड कर दिया।

27 जब वृत्रासुर द्वारा आदेशित सैनिकों ने देखा कि इन्द्र के सैनिक अनेक शस्त्रास्त्रों के समूह से, यहाँ तक कि वृक्षों, पत्थरों तथा पर्वत-शृंगों के द्वारा भी घायल नहीं हो सके हैं और अक्षत बने हुए हैं, तो असुरगण अत्यन्त भयभीत हुए।

28 जब तुच्छ लोग सन्त पुरुषों पर झूठे, क्रुद्ध आरोप लगाने के लिए दुर्वचनों का व्यवहार करते हैं, तो निरर्थक वचनों से महापुरुष विचलित नहीं होते। इसी प्रकार श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित देवताओं के विरुद्ध किये जाने वाले असुरों के सभी प्रयास निष्फल हो रहे थे।

29 जब श्रीभगवान कृष्ण के अभक्त असुरों ने देखा कि उनके सारे प्रयास निष्फल हो गये हैं, तो युद्ध करने का उनका सारा घमण्ड जाता रहा। उन्होंने अपने नायक को युद्ध शुरू होने के समय ही छोड़कर वहाँ से भागने का निश्चय कर लिया, क्योंकि उनके शत्रुओं ने उनका सारा शौर्य छीन लिया था।

30 अपनी सेना को क्षत-विक्षत तथा समस्त असुरों को यहाँ तक कि जो परमवीर कहलाते थे, अत्यन्त भय के कारण युद्धभूमि से भागते देखकर सचमुच विशाल हृदय वाला बहादुर वृत्रासुर हँसा और इन शब्दों में बोला।

31 अपनी स्थिति तथा काल और परिस्थितियों के अनुसार वीर शिरोमणि वृत्रासुर ने ऐसे वचन कहे जो विचारवान पुरुषों द्वारा प्रशंसा के योग्य थे। उसने असुर-वीरों को बुलाया, हे विप्रचित्ति, हे नमुचि, हे पुलोमा, हे मय, हे अनर्वा तथा शम्बर! भागो नहीं, मेरी बात तो सुन लो।

32 वृत्रासुर ने कहा इस संसार में जन्मे सभी जीवों को मरना है। निश्चित ही, इस संसार में कोई भी मृत्यु से बचने के किसी उपाय को नहीं ढूँढ सका है। विधाता तक ने इससे बचने का कोई उपाय नहीं बताया। ऐसी परिस्थितियों में जब कि मृत्यु अपरिहार्य है और यदि स्वर्गलोक की प्राप्ति हो रही हो और उपयुक्त मृत्यु के कारण सदैव यश तथा कीर्ति बनी रहे तो भला कौन पुरुष होगा जो ऐसी यशस्वी मृत्यु को स्वीकार नहीं करेगा?

33 यशस्वी मृत्यु को वरण करने के दो उपाय हैं और वे दोनों अत्यन्त दुर्लभ हैं। पहला है, योग-साधना, विशेष रूप से भक्तियोग के द्वारा मरना जिसमें मनुष्य मन तथा प्राण को वश में करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के चिन्तन में लीन होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। दूसरा है युद्धभूमि में सेना का नेतृत्व करते हुए तथा कभी पीठ न दिखाते हुए मर जाना। शास्त्र में इन दो प्रकार की मृत्युओं को यशस्वी कहा गया है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय नौ – वृत्रासुर राक्षस का आविर्भाव (6.9)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: देवताओं के पुरोहित विश्वरूप के तीन सिर थे। इनमें से एक से वह सोमपान करता था, तो दूसरे से मदिरा पान और तीसरे से भोजन ग्रहण करता था। हे राजा परीक्षित! ऐसा मैंने विद्वानों से सुना है।

2 हे महाराज परीक्षित! देवतागण विश्वरूप के पितापक्ष से सम्बन्धित थे, अतः विश्वरूप सबों के समक्ष अग्नि में घी की आहुति इन मंत्रों का उच्चारण करके दे रहा था – ”इन्द्राय इदं स्वाहा" (यह राजा इन्द्र के लिए है) तथा "इदं अग्नये" (यह अग्निदेव के लिए है)। वह मंत्र का उच्चारण उच्च स्वर से कर रहा था और प्रत्येक देवता को उसका उचित भाग प्रदान करता जा रहा था।

3 वह यद्यपि देवताओं के नाम से यज्ञ की अग्नि में घी की आहुति डाल रहा था, किन्तु देवताओं के बिना जताये वह असुरों के नाम की भी आहुति डालता जाता था, क्योंकि वे उसकी माता के पक्ष के सम्बन्धी थे।

4-5 किन्तु एक बार स्वर्ग के राजा इन्द्र को पता चल गया कि विश्वरूप देवताओं को धोखा देकर असुरों को आहुतियाँ दे रहा है। अतः वह असुरों द्वारा पराजित किये जाने से अत्यधिक भयभीत हो उठा और अतीव क्रोध में उसने विश्वरूप के तीनों सिरों को उसके कंधों से अलग कर दिया।

5 तत्पश्चात सोमरस पीनेवाला सिर पपीहे में, सुरापान करने वाला सिर गौरेया में और भोजन करने वाला सिर तीतर में बदल गया।

6 इन्द्र इतना शक्तिशाली था कि यदि चाहता तो ब्रह्महत्या के पापफल को निरस्त कर सकता था, किन्तु उसने हाथ जोड़ कर पछताते हुए पाप-भार को स्वीकार कर लिया। उसने एक वर्ष तक यातना भोगी और तब अपनी शुद्धि के लिए हत्या के पाप को पृथ्वी, जल, वृक्ष तथा स्त्रियों में बाँट दिया।

7 पृथ्वी ने, राजा इन्द्र से बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं भी गड्डे होंगे वे समय पर अपने आप भर जायेंगे, ब्रह्महत्या के पापों का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। उन पापों के कारण ही हमें पृथ्वी पर अनेक मरुस्थल दिखाई पड़ते हैं।

8 वृक्षों ने, इन्द्र से बदले में यह वरदान लिया के कटे जाने पर भी उनकी शाखाएँ फिर से उग आयेंगी, ब्रह्महत्या के पापफल का चतुर्थांश ले लिया। ये पापफल वृक्षों से निकलने वाले रस के रूप में दिखाई पड़ते हैं (इसलिए इस रस को पीना वर्जित है)

9 स्त्रियों ने, इन्द्र से बदले में यह वरदान प्राप्त करके कि वे अपनी कामेच्छा को, जब तक वे भ्रूण के लिए हानिकर न हों, गर्भकाल में भी निरन्तर पूरी कर सकेंगी, पापफलों का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप स्त्रियों में प्रत्येक मास रजोदर्शन होता है।

10 जल ने इन्द्र से बदले में यह वर प्राप्त करके कि किसी अन्य वस्तु में जल मिलाने से उसका आयतन बढ़ जायेगा, पापफलों का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। इसीलिए जल में बुलबुले तथा फेन उठते है। मनुष्य को चाहिए कि इन्हें हटाकर के ही जल भरे।

11 विश्वरूप के वध के पश्चात उसके पिता त्वष्टा ने इन्द्र को मारने के लिए अनुष्ठान किये। उसने अग्नि में यह उच्चारण करके आहुति डाली, “हे इन्द्र के शत्रु! तुम्हारी अभिवृद्धि हो, तुम अविलम्ब अपने शत्रु का वध करो।"

12 तत्पश्चात अन्वाहार्य नामक यज्ञ अग्नि के दक्षिणी कोने से एक भयावना व्यक्ति प्रकट हुआ जो युगान्त में समग्र ब्रह्माण्ड का विनाश करने वाले के समान प्रतीत हो रहा था।

13-17 उस असुर का शरीर चारों दिशाओं में छोड़े हुए बाण के समान प्रतिदिन बढ़ने लगा। वह लम्बा और काला था, मानो कोई जला हुआ पर्वत हो। वह संध्याकालीन बादलों के समूह की भाँति दीप्ति से युक्त था। असुर के शरीर के बाल तथा उसकी दाढ़ी-मूँछ पिघले ताम्बे के रंग की थीं। उसके नेत्र मध्यान्हकालीन सूर्य की भाँति भेदने वाले थे। वह दुर्जय था और ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अपने प्रज्ज्वलित त्रिशूल पर तीनों लोकों को धारण किये हो। उच्चस्वर करके उसके नाचने और गाने से सारी पृथ्वी हिल उठी मानो भूकम्प आया हो। वह पुनः पुनः जम्हाई ले रहा था, मानो कन्दरा के समान अपने विशाल मुख में वह सारे आकाश को निगल जाना चाहता हो। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह आकाश के सभी तारों को अपनी जीभ से चाट रहा हो और अपने लम्बे पैने दाँतों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को खाने जा रहा हो। उस विराट असुर को देखकर सभी व्यक्ति डर के मारे इधर-उधर चारों दिशाओं में भागने लगे।

18 उस अत्यन्त भयानक असुर ने, जो वास्तव में त्वष्टा का ही पुत्र था, अपने तप बल से सभी लोकों को आच्छादित कर लिया था। इसलिए वह वृत्र अर्थात प्रत्येक वस्तु को आच्छादित करने वाला कहलाया।

19 इन्द्र इत्यादि सभी देवता अपने सैनिकों सहित उस असुर पर टूट पड़े। वे अपने दिव्य धनुष-बाणों तथा अन्य हथियारों से उसे मारने लगे, किन्तु वृत्रासुर उनके सभी हथियार निगलता गया।

20 उस असुर की शक्ति देखकर सभी देवता अत्यन्त आश्चर्यचकित तथा निराश हो गये और उनकी सारी शक्ति जाती रही। अतः वे सभी परमात्मा अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण की पूजा करके उन्हें प्रसन्न करने के निमित्त एकत्र हुए।

21 देवताओं ने कहा:तीनों लोकों की सृष्टि पंचतत्त्वों--क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीर से हुई हैं, जिनको ब्रह्मा आदि विभिन्न देवता अपने वश में रखते हैं। हम काल से अत्यन्त भयभीत है कि वह हमारे अस्तित्व का अन्त कर देगा, इसलिए वह जैसा चाहता है हम वैसा कार्य करके उसको अपनी भेंट चढ़ाते हैं। किन्तु काल श्रीभगवान से स्वयं डरता है। अतः हम उसी एकमात्र परमेश्वर की आराधना करें जो हमारी पूरी तरह से रक्षा कर सकता है।

22 भगवान समस्त सांसारिक कल्पना से रहित और सदैव विस्मयविहीन हैं, वे सदैव प्रसन्नचित्त एवं अपनी स्वरूप-सिद्धि से परम संतुष्ट रहने वाले हैं। उनकी कोई सांसारिक उपाधि नहीं होती, अतः वे स्थिर एवं विरक्त रहते हैं। वही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सबों के एकमात्र आश्रय हैं। अतः जो मनुष्य किसी अन्य से अपनी रक्षा की कामना करता है, वह अवश्य ही बड़ा मूर्ख है और कुत्ते की पूँछ पकड़ कर समुद्र को पार करना चाहता है।

23 पहले राजा सत्यव्रत नामक मनु ने मत्स्य अवतार के सींग में समग्र ब्रह्माण्ड रूपी छोटी नौका को बाँधकर आत्मरक्षा की थी। उनकी कृपा से मनु ने बाढ़ के महान संकट से अपने को बचाया था। वे ही मत्स्यावतार, त्वष्टा के पुत्र से उत्पन्न इस गम्भीर संकट से हमारी रक्षा करें।

24 सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचण्ड वायु से बाढ़ के जल में भयानक लहरें उठने लगीं। इनसे ऐसा भयावना शोर हुआ कि ब्रह्माजी अपने कमल-आसन से प्रलय जल में प्रायः गिर ही पड़े, किन्तु भगवान की सहायता से वे बच गये। उसी प्रकार हम भी भगवान से इस भयावह स्थिति से अपनी रक्षा की आशा करते हैं।

25 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जिन्होंने अपनी बहिरंगा शक्ति से हमारी सृष्टि की और जिनकी कृपा से हम इस विश्व की सृष्टि का विस्तार करते हैं, वे निरन्तर हमारे समक्ष परमात्मा रूप में विद्यमान हैं, किन्तु हम उनके रूप को नहीं देख पाते। हम इसीलिए देखने में असमर्थ हैं, क्योंकि हम सभी अपने आपको पृथक तथा स्वतंत्र ईश्वर के रूप में मानते हैं।

26-27 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपनी अचिन्त्य अन्तरंगा शक्ति से अनेक दिव्य शरीरों में विस्तार करते हैं, यथा देवताओं की शक्ति के अवतार वामनदेव, ऋषियों के अवतार परशुराम, पशुओं के अवतार नृसिंहदेव एवं वराह और जलचरों के अवतार मत्स्य तथा कूर्म। वे सभी प्रकार की जीवात्माओं के बीच विभिन्न दिव्य देह धारण करते हैं और मनुष्यों के बीच विशेष रूप से भगवान कृष्ण तथा राम के रूप में प्रकट होते हैं। अपनी अहैतुकी कृपा से वे असुरों द्वारा सदा सताये गये देवताओं की रक्षा करते हैं। वे समस्त जीवात्माओं के पूज्य श्रीविग्रह हैं। वे परम कारण हैं और स्त्री तथा पुरुष की सृजन शक्तियों के रूप में प्रकट होते हैं। यद्यपि वे इस ब्रह्माण्ड से पृथक हैं, वे विराट रूप में विद्यमान रहते हैं। अतः अपनी इस भयभीत अवस्था में हमें चाहिए कि उनकी शरण ग्रहण करें क्योंकि हमें विश्वास है कि परमात्मा हमें अपना संरक्षण प्रदान करेंगे।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! जब समस्त देवताओं ने उनकी प्रार्थना की तो श्रीभगवान हरि शंख, चक्र तथा गदा धारण किये हुए पहले उनके अन्तःकरण में और तब उनके सम्मुख प्रकट हुए।

29-30 श्रीभगवान को घेरे हुए उनके सोलह पार्षद उनकी सेवा कर रहे थे। वे आभूषणों से अलंकृत थे और भगवान के ही समान लग रहे थे, किन्तु श्रीवत्स चिन्ह तथा कौस्तुभमणि से रहित थे। हे राजन! जब देवताओं ने उस मुद्रा में शरत्कालीन कमल की पंखड़ियों के समान नेत्रों वाले स्मित हास से युक्त श्रीभगवान को देखा तो वे प्रसन्नता से अभिभूत हो गये और उन्होंने तुरन्त पृथ्वी पर गिर कर दण्डवत प्रणाम किया। फिर वे धीरे-धीरे उठे और अपनी स्तुतियों द्वारा उन्होंने भगवान को प्रसन्न किया।

31 देवताओं ने कहा: हे भगवन! आप यज्ञ फल को देने में समर्थ हैं। आप ही वह काल हैं, जो इन फलों को कालान्तर में नष्ट कर देता है। आप असुरों को मारने के लिए चक्र को चलाते हैं। हे अनेक नामधारण करनेवाले भगवान! हम सभी आपको सादर नमस्कार करते हैं।

32 हे परम नियामक! आप तीनों गन्तव्यों [स्वर्गलोक में पहुँचना, मनुष्य के रूप में जन्म तथा नरक में यातना] को वश में रखने वाले हैं, फिर भी आपका परम धाम वैकुण्ठलोक है। चूँकि आपके द्वारा इस दृश्य जगत की उत्पत्ति के बाद हम प्रकट हुए हैं, अतः हम आपके कार्यकलापों को समझने में असमर्थ हैं। अतः हमारे पास आपको अर्पित करने के लिए नमस्कार करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

33 हे भगवन, हे नारायण, हे वासुदेव, हे आदि पुरुष, हे परम अनुभव, हे साक्षात मंगल! हे परम वरदान स्वरूप अत्यन्त कृपालु तथा अपरिवर्तनी! हे दृश्य जगत के आधार, हे समस्त लोकों तथा प्रत्येक पदार्थ के स्वामी तथा लक्ष्मी देवी के पति! आपका साक्षात्कार श्रेष्ठ संन्यासी ही कर पाते हैं, जो भक्तियोग में पूर्णतया समाधिमग्न होकर सारे विश्व में कृष्णभावनामृत का उपदेश देते हैं। वे अपने ध्यान को आप में ही केन्द्रीभूत रखते हैं, अतः अपने शुद्ध अन्तःकरण में आपके स्वरूप को ग्रहण करते हैं। जब उनके हृदयों का अंधकार पूर्णतया हट जाता है और आपका साक्षात्कार होता है तब उन्हें आपके दिव्य स्वरूप का दिव्य आनन्द होता है। ऐसे व्यक्तियों के सिवाय और कोई आप का अनुभव नहीं कर पाता, अतः हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

34 हे भगवन! आपको किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं है। भौतिक शरीर से रहित होने पर भी आपको हमारे सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती। चूँकि आप इस दृश्य जगत के कारण हैं और अपरिवर्तित रूप में ही इसके भौतिक अवयवों की पूर्ति करते हैं, अतः आप स्वतः इसकी सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं। तो भी भौतिक कार्यों में व्यस्त प्रतीत होते हुए भी आप समस्त भौतिक गुणों से परे हैं। अतः आपके दिव्य कार्यकलापों को समझ पाना कठिन है।

35 ये ही हमारी जिज्ञासाएँ हैं। सामान्य बद्धजीव भौतिक नियमों के अधीन है और उसे अपने कर्मों का फल मिलता है। क्या आप भौतिक गुणों से उत्पन्न शरीर में सामान्य मनुष्यों की भाँति इस संसार में उपस्थित रहते हैं? क्या आप काल, पूर्व कर्म आदि के वशीभूत होकर अच्छे या बुरे कर्मों को भोगते हैं? अथवा, इसके विपरीत क्या आप ऐसे उदासीन साक्षी के रूप में यहाँ उपस्थित हैं, जो आत्मनिर्भर, समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित तथा आध्यात्मिक शक्ति से सदैव परिपूर्ण रहते है? हम निश्चित रूप से आपकी वास्तविक स्थिति को नहीं समझ सकते।

36 हे भगवन! सभी विरोधों का आप में तिरोधान होता है। हे ईश्वर! चूँकि आप परम पुरुष, अनन्त दिव्य गुणों के आगार, परम नियन्ता हैं, अतः आपकी असीम महिमा बद्धजीवों की कल्पना के परे है। अनेक सिद्धान्तवादी बिना जाने कि वास्तव में सच क्या है, सत्य तथा मिथ्या के विषय में तर्क करते हैं। उनके तर्क झूठे होते हैं और फैसले अनिर्णीत, क्योंकि उनके पास आपको जानने का कोई वैध प्रमाण नहीं है। चूँकि उनके मन धर्म ग्रन्थों के झूठे निष्कर्षों से विक्षुब्ध रहते हैं, अतः वे यह नहीं समझ पाते कि सत्य क्या है। यही नहीं, सही-सही निष्कर्ष प्राप्त करते समय उनकी उत्कण्ठा दूषित रहती है, जिससे उनके सिद्धान्त आपका वर्णन करने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि आप उनकी भौतिक बुद्धि से परे हैं। आप अद्वितीय हैं, अतः आप में करणीय तथा अकरणीय, सुख तथा दुख जैसे विरोध नहीं है। आपकी उस शक्ति के द्वारा आपके लिए क्या असम्भव है? आपकी स्वाभाविक स्थिति द्वैत से रहित है, अतः आप अपनी शक्ति के प्रभाव से सब कुछ कर सकते हैं।

37 मोहग्रस्त पुरुष रस्सी को सर्प मान बैठता है, अतः उसे रस्सी भय उत्पन्न करती है, किन्तु समुचित बुद्धि वाले मनुष्य में रस्सी ऐसा नहीं कर पाती क्योंकि वह इसे केवल रस्सी ही जानता है। इसी प्रकार सबों के हृदयों में उनकी बुद्धि के ही अनुसार परमात्मा-स्वरूप आप भय या निर्भीकता का भाव उत्पन्न करने वाले हैं, किन्तु आप स्वयं अद्वैत हैं।

38 विचार-विमर्श से यह देखा जा सकता है कि परमात्मा यद्यपि विभिन्न प्रकार से प्रकट होते हैं, किन्तु प्रत्येक वस्तु के मूल तत्त्व वे ही हैं। सम्पूर्ण भौतिक शक्ति इस संसार का कारण है, किन्तु यह शक्ति उन्हीं से उद्भूत है, अतः वे ही समस्त कारणों के कारण हैं और बुद्धि तथा इन्द्रियों के प्रकाशक हैं। वे प्रत्येक वस्तु में परमात्मा रूप में देखे जाते हैं। उनके बिना प्रत्येक वस्तु मृत हो जायेगी। परमात्मा रूप में आप परम नियन्ता ही एकमात्र शेष बचे हैं।

39 अतः हे मधुसूदन! जिन्होंने आपकी महिमा के समुद्र की एक भी अमृतमयी बूँद को चख लिया है, उनके मन में निरन्तर आनन्द की धारा प्रवाहित होती रहती है। ऐसे महात्मा भक्त दृश्य तथा श्रवणेन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले तथाकथित भौतिक सुख की झलक को भूल जाते हैं। ऐसे भक्त समस्त इच्छाओं से मुक्त होकर सभी जीवात्माओं के वास्तविक मित्र होते हैं। वे अपने मन को आपमें समर्पित करके दिव्य आनन्द उठाते हुए जीवन के असली उद्देश्य को प्राप्त करने में कुशल होते हैं। हे भगवन! आप ऐसे भक्तों के, जिन्हें इस भौतिक जगत में कभी वापस नहीं आना पड़ता, प्रिय मित्र एवं आत्मा हैं। भला वे आपकी भक्ति को किस प्रकार त्याग सकते हैं?

40 हे भगवन, हे साक्षात त्रिलोकी, तीनों लोकों के जनक! हे वामन अवतार के रूप में तीनों लोकों के पराक्रम! हे नृसिंहदेव के त्रि-नेत्र रूप, हे तीनों लोकों में परम सुन्दर पुरुष! प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक प्राणी जिसमें मनुष्य तथा दैत्य और दानव भी सम्मिलित हैं, आपकी ही शक्ति के अंश हैं। हे परम शक्तिमान! जब-जब असुर शक्तिशाली हुए हैं तब-तब आप उन्हें दण्ड देने के लिए विभिन्न अवतारों के रूप में प्रकट हुए हैं। आप भगवान वामनदेव, राम और कृष्ण के रूप में प्रकट हुए हैं। कभी आप पशु के रूप में प्रकट होते हैं यथा भगवान वराह, तो कभी मिश्रित अवतार के रूप में यथा भगवान नृसिंहदेव तथा भगवान हयग्रीव और कभी जलचर रूप में यथा भगवान मत्स्य तथा भगवान कूर्म। आपने ऐसे अनेक रूप धारण करके सदैव असुरों तथा दानवों को दण्ड दिया है। अतः हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप यदि आवश्यक समझें तो महा असुर वृत्रासुर को मारने के लिए आज किसी अन्य अवतार के रूप में प्रकट हों।

41 हे परम रक्षक, हे पितामह, हे परम पवित्र, हे परमेश्वर! हम सभी आपके चरणकमलों पर समर्पित हैं। दरअसल, हमारे मन ध्यान में प्रेमपाश द्वारा आपके चरणारविन्द से बँधे हुए हैं। अब आप अपना अवतार-रूप प्रकट कीजिये। हमें आप अपना शाश्वत दास तथा भक्त मानकर हम पर प्रसन्न हों और हमारे ऊपर दया करें। आप अपनी प्रेमपूर्ण चितवन, शीतल तथा दयापूर्ण मनमोहक हँसी तथा सुन्दर मुख से झरने वाले अमृत शब्दों से हम सबों की उस चिन्ता को दूर करें जो वृत्रासुर के कारण उत्पन्न हुई है और सदैव हमारे हृदयों को कष्ट देती है।

42 हे भगवान! जिस प्रकार अग्नि की छोटी-छोटी चिनगारियाँ पूर्ण (आदि) अग्नि का कार्य करने में असमर्थ हैं, वैसे ही आपकी चिनगारी रूप हम सभी अपने जीवन की आवश्यकता बता पाने में अक्षम हैं। आप पूर्ण ब्रह्म हैं, अतः हमें आपको बताने की क्या आवश्यकता?आप सब कुछ जानने वाले हैं क्योंकि आप दृश्य जगत के आदि कारण, इसके पालक तथा सम्पूर्ण सृष्टि के संहर्ता हैं। आप अपनी दिव्य तथा भौतिक शक्तियों से लीला करते रहते हैं क्योंकि आप ही इन समस्त शक्तियों के नियामक हैं। आप इन विभिन्न शक्तियों के नियामक हैं। आप सभी जीवों के भीतर दृश्य सृष्टि में और उससे परे भी रहते हैं। आप अन्तःकरणों में परब्रह्म के रूप में और बाह्यत: भौतिक सृष्टि के अवयवों के रूप में स्थित हैं। अतः यद्यपि आप विभिन्न अवस्थाओं, विभिन्न कालों, स्थानों तथा देहों में प्रकट होते रहते हैं, तो भी हे भगवन! आप ही समस्त कारणों के आदि कारण हैं। वास्तव में आप ही मूल तत्त्व हैं। आप समस्त गतिविधियों के साक्षी हैं, किन्तु आकाश के समान महान होने के कारण किसी के द्वारा स्पृश्य नहीं हैं। आप परब्रह्म तथा परमात्मा के रूप में प्रत्येक वस्तु के साक्षी हैं। हे भगवान! आपसे कुछ भी छिपा नहीं है।

43 हे भगवान! आप सर्वज्ञाता हैं, अतः आप अच्छी तरह जानते हैं कि हम आपके चरणकमलों की शरण में क्यों आये हैं, जिनकी छाया समस्त भौतिक अशान्तियों से छुटकारा दिलाने वाली हैं। चूँकि आप परम गुरु हैं और सब कुछ जानते हैं, अतः हमने आदेश प्राप्त करने के लिए आपके चरणकमलों का आश्रय लिया है। कृपया हमारे वर्तमान दुखों को दूर करके हमें शरण दीजिये। आपके चरणकमल ही पूर्ण समर्पित भक्त के एकमात्र आश्रय हैं और इस भौतिक जगत के सन्तापों को शमित करने के एकमात्र साधन हैं।

44 अतः हे परम नियन्ता, हे भगवान श्रीकृष्ण! त्वष्टा के पुत्र इस घातक असुर वृत्रासुर का संहार कीजिये। जिसने हमारे समस्त शस्त्रास्त्र, युद्ध की सारी सामग्री तथा हमारे बल और तेज को निगल रखा है।

45 हे भगवान! हे परम शुद्ध! आप सबों के अन्तःस्थल में रहते हैं और बद्धजीवों की समस्त आकांक्षाओं तथा गतिविधियों का निरीक्षण करते हैं। श्रीकृष्ण के रूप में विख्यात हे भगवान! आपका यश अत्यन्त प्रकाशमान है। आपका आदि नहीं है क्योंकि आप प्रत्येक वस्तु के उद्गम हैं। शुद्ध भक्त इससे परिचित हैं क्योंकि आप शुद्ध तथा सत्यनिष्ठ के लिए सुगम हैं। जब करोड़ों वर्षों तक भौतिक जगत में भटकने के बाद बद्धात्माएँ आपके चरणकमलों पर मुक्त होकर शरण पाती हैं, तो उन्हें जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। अतः हे भगवान! हम आपके चरणारविन्द को सादर नमस्कार करते हैं।

46 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजा परीक्षित! जब देवताओं ने इस प्रकार से भगवान की सच्ची स्तुति की तो उसे उन्होंने कृपापूर्वक सुना और प्रसन्न होकर देवताओं को उत्तर दिया।

47 श्रीभगवान ने कहा: हे देवताओं! तुम लोगों ने अत्यन्त ज्ञानपूर्वक मेरी स्तुति की है, जिससे मैं तुम लोगों से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मनुष्य ऐसे ज्ञान के कारण मुक्त हो जाता है और मेरे उच्च पद को स्मरण करता रहता है, जो भौतिक जीवन की स्थितियों के ऊपर है। ऐसा भक्त पूर्ण ज्ञान में रहकर स्तुति करने पर शुद्ध हो जाता है। मेरी भक्ति करने का यही स्रोत है।

48 हे बुद्धिमान देवताओं में श्रेष्ठ! यद्यपि यह सत्य है कि मेरे प्रसन्न हो जाने पर किसी के लिए कुछ भी प्राप्त कर लेना कठिन नहीं है, तो भी शुद्ध भक्त, जिसका मन विशिष्ट भाव से मुझ पर स्थिर है, वह मेरी भक्ति में निरत रहने के अवसर के अतिरिक्त मुझसे और कुछ भी नहीं माँगता।

49 जो लोग भौतिक सम्पत्ति को ही सब कुछ या जीवन का परम ध्येय मानते हैं, वे कृपण कहलाते हैं। वे आत्मा की परम आवश्यकता (हित) को नहीं जानते। यही नहीं, यदि कोई ऐसे मूर्खों की इच्छा की पूर्ति करता है, उसे भी मूर्ख समझना चाहिए।

50 भक्तियोग में दक्ष शुद्ध भक्त कभी भी मूर्ख पुरुष को भौतिक सुख के लिए सकाम कर्म करने का उपदेश नहीं देगा, ऐसे कार्यों में सहायता करना तो दूर रहा। ऐसा भक्त उस अनुभवी वैद्य के समान है, जो रोगी के चाहने पर भी उसे ऐसा पथ्य ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता जो उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो।

51 हे मघवा (इन्द्र)! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हें महान साधु दध्यञ्च (दधीचि) के पास जाने की राय देता हूँ। वे ज्ञान, व्रत तथा तपस्या में अत्यन्त सिद्ध हैं और उनका शरीर अत्यन्त सुदृढ़ है। अब देर न लगाओ। उनके पास जाकर उनका शरीर माँगो।

52 ऋषि दध्यञ्च ने जो दधीचि के नाम से विख्यात हैं ब्रह्मज्ञान को आत्मसात किया था और फिर उसे अश्विनीकुमारों को दिया। कहा जाता है कि दध्यञ्च ने उनको अश्वमुख (घोड़े के मुँह) से मंत्र दिये इसलिए वे मंत्र अश्वशिर कहलाते हैं। ऋषि दधीचि से ये मंत्र प्राप्त कर अश्विनीकुमार जीवनमुक्त हो गये।

53 दध्यञ्च का नारायण-कवच नामक अभेद्य कवच त्वष्टा को मिला जिसने इसे अपने पुत्र विश्वरूप को दिया और जिससे तुमने इसे प्राप्त किया है। इस नारायण-कवच के कारण दधीचि का शरीर अब अत्यन्त पुष्ट है। अतः तुम जाकर उनसे उनका शरीर माँग लो।

54 जब तुम्हारी ओर से अश्विनीकुमार दधीचि का शरीर माँगेंगे, तो वे स्नेहवश अवश्य दे देंगे। इसमें सन्देह मत करो, क्योंकि दधीचि धर्म के ज्ञानी हैं। जब दधीचि तुम्हें अपना शरीर दे देंगे तो विश्वकर्मा उनकी हड्डियों (अस्थियों) से एक वज्र तैयार कर देगा। यह वज्र मेरी शक्ति से युक्त होने के कारण निश्चित रूप से वृत्रासुर का वध करेगा।

55 जब वृत्रासुर मेरे आत्मबल (ब्रह्मतेज) से मर जायेगा, तो तुम्हें पुनः अपना तेज आयुध तथा सम्पत्ति प्राप्त हो जायेगी। इस प्रकार तुम सबका कल्याण होगा। यद्यपि वृत्रासुर तीनों लोको को विनष्ट कर सकता है, किन्तु तुम मत डरो कि वह तुम्हें हानि पहुँचायेगा। वह भी भक्त है और तुमसे कभी भी विद्वेष नहीं करेगा।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

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नारायण-कवच (6.8)

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अध्याय आठ – नारायण-कवच (6.8)

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा-- हे प्रभों ! कृपा करके मुझे वह विष्णु-मंत्र-कवच बताएँ जिससे राजा इन्द्र की रक्षा हो सकी और वह अपने शत्रुओं को उनके वाहनों सहित परास्त करके तीनों लोकों के ऐश्वर्य का उपभोग कर सका।

2 कृपया मुझे नारायण-कवच बताएँ जिसके द्वारा इन्द्र ने युद्ध में अपने उन शत्रुओं को हराकर सफलता प्राप्त की जो उसे मारने का प्रयत्न कर रहे थे।

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: देवताओं के राजा इन्द्र ने देवताओं के द्वारा पुरोहित के रूप में नियुक्त विश्वरूप से नारायण-कवच के सम्बन्ध में पूछा। विश्वरूप द्वारा दिये गये उत्तर को तुम ध्यानपूर्वक सुनो।

4-6 विश्वरूप ने कहा किसी प्रकार के भय का अवसर उपस्थित होने पर मनुष्य को चाहिए कि पहले अपने हाथ-पाँव धोये और तब यह मंत्र – ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थाम गतोअपि वा/यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षम स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:/ श्रीविष्णु श्रीविष्णु श्रीविष्णु – जप करे। तब उसे चाहिए के कुश को छूकर शान्त भाव से उत्तर की ओर मुख करके बैठ जाये। पूर्णतया शुद्ध होने पर उसे चाहिए कि आठ शब्दों वाले मंत्र को अपने शरीर के दाहिनी ओर के आठ भागों में छुवाये और बारह शब्दों वाले मंत्र को हाथों में छुवाये फिर नारायण – कवच से स्वयं को इस प्रकार बाँधे – पहले आठ शब्दों वाले मंत्र (ॐ नमो नारायणाय) का जप करते हुए, प्रथम शब्द ॐ या प्रणव से प्रारम्भ करके अपने हाथों से अपने शरीर के आठों अंगों का स्पर्श करे – पहले दोनों पाँव छूए फिर क्रमशः घुटने, जाँघ, पेट, हृदय, छाती, मुँह तथा सिर को छूये। इसके बाद उलटे क्रम से मंत्र का जप करे अर्थात अन्तिम शब्द य से प्रारम्भ करे और अपने शरीर के अंगों को भी उलटे क्रम से छूए। ये दोनों विधियाँ क्रमशः उत्पत्ति-न्यास तथा संहार-न्यास कहलाती हैं।

7 तब उसे चाहिए कि बारह अक्षरों वाले मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करे। इस मंत्र के बारह अक्षरों को दाहिने हाथ की तर्जनी से प्रारम्भ करके बायें हाथ की तर्जनी तक प्रत्येक अँगुली के छोर पर प्रत्येक अक्षर का उच्चारण करते हुए रखे। शेष चार अक्षरों को अँगूठों के पोरों पर रखे।

8-10 फिर उसे छः अक्षरों वाला मंत्र (ॐ विष्णवे नमः) जपना चाहिए। उसे ॐ को अपने हृदय पर, 'वि' को शिरो भाग पर, '' को भौहों के मध्य '' को चोटी पर तथा 'वे' को नेत्रों के मध्य रखना चाहिए। तब मंत्र जपकर्ता '' अक्षर को अपने शरीर के समस्त जोड़ों पर रखे और '' अक्षर को अस्त्र के रूप में ध्यान धरे। इस प्रकार वह साक्षात मंत्र हो जायेगा। तत्पश्चात उसे चाहिए कि अन्तिम शब्द '' में विसर्ग लगाकर ': अस्त्राय फट' इस मंत्र का जप पूर्व दिशा से प्रारम्भ करके सभी दिशाओं में करे। इस तरह सभी दिशाएँ इस मंत्र के सुरक्षा-कवच से बँध जायेंगी।

11 इस प्रकार जप कर लेने के पश्चात मनुष्य को चाहिए कि वह छः ऐश्वर्यों से युक्त तथा ध्यातव्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के साथ अपने आपको गुण की दृष्टि से तदाकार समझे। तब उसे चाहिए कि वह निम्नलिखित नारायण-कवच अर्थात भगवान नारायण की सुरक्षा स्तुति का जप करे।

12 परमेश्वर पक्षीराज गरुड़ की पीठ पर आसीन हैं और अपने चरणकमल से उसका स्पर्श कर रहे हैं। वे अपने हाथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, तीर, धनुष तथा पाश धारण किये हैं। ऐसे आठ भुजाओं वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सभी समय मेरी रक्षा करें। वे सर्वशक्तिमान हैं, क्योंकि वे आठ योग-शक्तियों (अणिमा,लघिमा इत्यादि) से समन्वित हैं।

13 जल के भीतर वरुण देवता के पार्षद हिंस्र पशुओं से मत्स्यरूप धारण करने वाले भगवान मेरी रक्षा करें। उन्होंने अपनी माया का विस्तार करके वामन का रूप धारण किया। वामन-देव स्थल पर मेरी रक्षा करें। उनका विराट स्वरूप, विश्वरूप, तीनों लोकों, को जीतने वाला है, आकाश में मेरी रक्षा करें।

14 हिरण्यकशिपु के शत्रु रूप में प्रकट होने वाले भगवान नृसिंह देव समस्त दिशाओं में मेरी रक्षा करें। उनके घोर अट्टहास से समस्त दिशाएँ गूँज उठी थीं और असुरों की पत्नियों के गर्भपात हो गये थे। भगवान जंगल तथा युद्धभूमि जैसे विकट स्थानों में कृपा करके मेरी रक्षा करें।

15 परम अविनाशी भगवान को यज्ञों के द्वारा जाना जाता है, इसीलिए वे यज्ञेश्वर कहलाते हैं। भगवान वराह के रूप में अवतार लेकर उन्होंने पृथ्वी लोक को ब्रह्माण्ड के गर्त से (जल में से) निकालकर अपनी नुकीली दाढ़ों में धारण किया। ऐसे भगवान मार्ग में दुष्टों से मेरी रक्षा करें। परशुराम मेरी पर्वत शिखरों पर रक्षा करें और भरत के अग्रज भगवान रामचन्द्र अपने भाई लक्ष्मण सहित विदेशों में मेरी रक्षा करें।

16 मिथ्या धर्मों के अनावश्यक पालन तथा प्रमादवश कर्तव्यच्युत होने से भगवान नारायण मेरी रक्षा करें। नर-रूप में प्रकट भगवान मुझे वृथा गर्व से बचाएँ। भक्तियोग के पालन से च्युत होने पर योगेश्वर दत्तात्रेय मेरी रक्षा करें। समस्त श्रेष्ठ गुणों के स्वामी कपिल सकाम कर्म के भौतिक बन्धन से मेरी रक्षा करें।

17 सनत्कुमार कामवासनाओं से मेरी रक्षा करें। जैसे ही मैं कोई शुभकार्य शुरू करूँ, श्रीहयग्रीव मेरी रक्षा करें जिससे मैं परमेश्वर को नमस्कार न करने का अपराधी न बनूँ। श्रीविग्रह की अर्चना में कोई अपराध न हो इसके लिए देवर्षि नारद मेरी रक्षा करें। भगवान कूर्म असीम नरकलोक में गिरने से मुझे बचाएँ।

18 श्रीभगवान अपने धन्वन्तरी अवतार के रूप में मुझे अवांछित खाद्य पदार्थो से दूर रखें और शारीरिक रुग्णता से मेरी रक्षा करें। अपनी अन्तः तथा बाह्य इन्द्रियों को वश में करनेवाले श्रीऋषभदेव सर्दी तथा गर्मी के द्वैत से उत्पन्न भय से मेरी रक्षा करें। भगवान यज्ञ जनता से मिलने वाले अपयश तथा हानि से मेरी रक्षा करें और शेष-रूप भगवान बलराम मुझे ईर्ष्यालु सर्पों से बचाएँ।

19 वैदिक-ज्ञान से विहीन होने के कारण सभी प्रकार की अविद्या से श्रीभगवान के अवतार व्यासदेव मेरी रक्षा करें। वेद विरुद्ध कर्मों से तथा आलस्य से, जिसके कारण प्रमादवश वेद ज्ञान तथा अनुष्ठान भूल जाते हैं, भगवान बुद्धदेव मुझे बचाएँ। भगवान कल्कि देव, जिनका अवतार धार्मिक नियमों की रक्षा के लिए हुआ, मुझे कलियुग की मलिनता से बचायें।

20 भगवान केशव दिन के पहले चरण में अपनी गदा से तथा दिन के दूसरे चरण में अपनी बाँसुरी से गोविन्द मेरी रक्षा करें। सर्व शक्तियों से सम्पन्न भगवान नारायण दिन के तीसरे चरण में और शत्रुओं का वध करने के लिए हाथ में चक्र धारण करनेवाले भगवान विष्णु दिन के चौथे चरण में मेरी रक्षा करें।

21 असुरों के लिए भयावना धनुष धारण करने वाले भगवान मधुसूदन दिन के पंचम चरण में मेरी रक्षा करें। संध्या समय ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर त्रिमूर्ति के रूप में प्रकट होकर भगवान माधव और रात्रि प्रारम्भ होने पर भगवान हृषिकेश मेरी रक्षा करें। अर्ध रात्रि में (रात्रि के दूसरे तथा तीसरे चरण में) केवल भगवान पद्मनाभ मेरी रक्षा करें।

22 वक्ष पर श्रीवत्स धारण करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अर्धरात्रि के पश्चात से आकाश के गुलाबी होने तक मेरी रक्षा करें। खड्गधारी भगवान जनार्दन रात्रि के समाप्त होने पर (रात्रि के अन्तिम चार घटिकाओं में) मेरी रक्षा करें। भगवान दामोदर बड़े भोर में तथा भगवान विश्वेश्वर दिन तथा रात की संधियों के समय मेरी रक्षा करें।

23 श्रीभगवान द्वारा चलाया जाने वाला तथा चारों दिशाओं में घूमने वाला तीखे किनारे वाला उनका चक्र युगान्त में प्रलय-अग्नि के समान विनाशकारी है। जिस प्रकार प्रातःकालीन मन्द पवन के सहयोग से धधकती अग्नि सूखी घास को भस्म कर देती है, उसी प्रकार यह सुदर्शन चक्र हमारे शत्रुओं को जला कर भस्म कर दे।

24 हे श्रीभगवान के हाथ की गदे! तुम वज्र के समान शक्तिशाली अग्नि की चिनगारियाँ उत्पन्न करो, तुम भगवान की अत्यन्त प्रिय हो। मैं भी उन्हीं का दास हूँ, अतः कुष्माण्ड, वैनायक, यक्ष, राक्षस, भूत तथा ग्रहगणों को कुचल देने में मेरी सहायता करो और उन्हें चूर चूर कर दो।

25 भगवान के हाथों में धारण किए हुए हे शंखश्रेष्ठ, हे पाञ्चजन्य! तुम भगवान श्रीकृष्ण की श्वास से सदैव पूरित हो, अतः तुम ऐसी डरावनी ध्वनि उत्पन्न करो जिससे राक्षस, प्रमथ भूत-प्रेत माताएँ, पिशाच तथा ब्रह्म राक्षस जैसे शत्रुओं के हृदय काँपने लगें।

26 हे भगवान द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली श्रेष्ठ तीक्ष्ण धार वाली तलवार! तुम कृपा करके मेरे शत्रुओं के सैनिकों को खण्ड-खण्ड कर दो। हे सैकड़ों चन्द्रमण्डल के समान वृत्ताकारों से अंकित तेजमान ढाल! पापी दुश्मनों की आँखों को निकाल लो।

27-28 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के दिव्य नाम, रूप, गुण तथा साजसामग्री का कीर्तन हमें अशुभ नक्षत्रों, केतुओं, विद्वेषी मनुष्यों, सर्पों, बिच्छुओं तथा बाघों-भेड़ियों जैसे पशुओं के प्रभाव से बचाये। वह प्रेतों से तथा क्षिति, जल, पावक, वायु, जैसे भौतिक तत्त्वों और तड़ित (आकाशीय बिजली) से तथा पूर्व पापों से हमारी रक्षा करे। हम अपने शुभ जीवन में इन बाधाओं से सदैव भयभीत रहते हैं, अतः हरे कृष्ण महामंत्र के जप से इन सबका पूर्ण विनाश हो।

29 विष्णुवाहन गरुड़ श्रीभगवान के समान शक्तिशाली होने के कारण सर्वपूज्य हैं। वे साक्षात वेद हैं और चुने हुए श्लोकों से उनकी पूजा की जाती है। वे सभी भयानक स्थितियों में हमारी रक्षा करें। भगवान विष्वक्सेन अपने पवित्र नामों के द्वारा हमें सभी संकटों से बचायें।

30 श्रीभगवान के पवित्र नाम, दिव्य रूप, वाहन तथा आयुध, जो उनके पार्षदों के समान उनकी शोभा बढ़ाने वाले हैं, हमारी बुद्धि, इन्द्रियों, मन तथा प्राण की सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करें।

31 यह सूक्ष्म तथा स्थूल दृश्य जगत भौतिक है, तो भी यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से अभिन्न है, क्योंकि वस्तुतः वे ही समस्त कारणों के कारण हैं। कारण तथा कार्य वास्तव में एक ही हैं, क्योंकि कार्य में कारण विद्यमान रहता है। अतः परम सत्य श्रीभगवान हमारे समस्त संकटों को अपने किसी भी शक्तिशाली अंग से नष्ट कर सकते हैं।

32-33 श्रीभगवान, जीवात्माएँ, भौतिक शक्ति, आध्यात्मिक शक्ति तथा सम्पूर्ण सृष्टि – ये सभी व्यष्टियाँ हैं। अन्ततोगत्वा ये सब मिलकर परब्रह्म का निर्माण करती हैं। अतः जो आत्मज्ञानी हैं, वे भिन्नता में एकता देखते हैं। ऐसे पुरुषों के लिए भगवान के शारीरिक अलंकरण, उनके नाम, उनका यश, उनके लक्षण एवं रूप तथा आयुध उनकी शक्ति की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। उनके समुन्नत आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार विभिन्न रूपों में प्रकट होने वाले सर्वज्ञ भगवान सर्वत्र विद्यमान हैं। वे सदैव सभी विपदाओं से सर्वत्र हमारी रक्षा करें।

34 प्रह्लाद महाराज ने भगवान नृसिंहदेव के पवित्र नाम का उच्चस्वर से जप किया। अपने भक्त प्रह्लाद महाराज के लिए गर्जना करने वाले श्रीनृसिंहदेव! आप उन संकटों के भय से हमारी रक्षा करें जो विष, आयुध, जल, अग्नि, वायु इत्यादि के द्वारा समस्त दिशाओं में महा-भटों के द्वारा फैलाया जा चुका है। हे भगवान! आप अपने दिव्य प्रभाव से इनके प्रभाव को आच्छादित कर लें। नृसिंहदेव समस्त दिशि-दिशाओं में, ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर हमारी रक्षा करें।

35 विश्वरूप ने आगे कहा: हे इन्द्र! मैंने तुमसे नारायण के इस गुप्त कवच को कह सुनाया। तुम इस सुरक्षात्मक कवच को धारण करके असुरों के नायकों को जीतने में निश्चय ही समर्थ होगे।

36 यदि कोई इस कवच को धारण करता है, तो वह जिस किसी को अपने नेत्रों से देखता है, अथवा पैरों से छु देता है, वह तुरन्त ही उपर्युक्त समस्त संकटों से विमुक्त हो जाता है।

37 नारायण-कवच नामक यह स्तोत्र नारायण के दिव्यरूप से सम्बद्ध सूक्ष्म ज्ञान से युक्त है। जो इस स्तोत्र का प्रयोग करता है, वह सरकार, लुटेरों, दुष्ट असुरों या किसी प्रकार के रोग द्वारा न तो विचलित किया जाता है न ही सताया जाता है।

38 हे देवेन्द्र! प्राचीन काल में कौशिक नाम के एक ब्राह्मण ने इस कवच का प्रयोग किया और उसने अपने योगबल से मरुभूमि में जान बुझ कर अपना शरीर त्याग दिया।

39 एक बार अनेक सुन्दरियों से घिरा, गन्धर्वलोक का राजा चित्ररथ अपने विमान से उस स्थान के ऊपर से निकला, जहाँ ब्राह्मण का मृत शरीर पड़ा हुआ था।

40 अचानक चित्ररथ सिर के बल अपने विमान सहित नीचे गिरने पर विवश कर दिया गया। उसे आश्चर्य हुआ। वालिखिल्य मुनियों ने उसे आदेश दिया कि उस ब्राह्मण की अस्थियाँ वह निकट ही स्थित सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दे। उसे ऐसा ही करना पड़ा तथा अपने धाम लौटने के पूर्व नदी में स्नान करना पड़ा।

41 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित! जो कोई इस कवच का उपयोग करता है अथवा इसके विषय में श्रद्धा तथा सम्मानपूर्वक श्रवण करता है, वह भौतिक संसार की स्थितियों से उत्पन्न समस्त प्रकार के भयों से तुरन्त मुक्त हो जाता है और सभी जीवों द्वारा पूजा जाता है।

42 एक सौ यज्ञों को करने वाले राजा इन्द्र ने इस रक्षा-स्तोत्र को विश्वरूप से प्राप्त किया। असुरों को जीत लेने के बाद उसने तीनों लोकों के सभी ऐश्वर्य का भोग किया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय सात – इन्द्र द्वारा गुरु बृहस्पति का अपमान (6.7)

1 महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे महामुनि! देवताओं के गुरु बृहस्पति ने देवताओं का परित्याग क्यों किया जो उनके ही शिष्य थे। देवताओं ने अपने गुरु के साथ ऐसा कौन सा अपराध किया? कृपया मुझसे इस घटना का वर्णन करें।

2-8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! एक बार तीनों लोकों के ऐश्वर्य से अत्यधिक गर्वित हो जाने के कारण स्वर्ग के राजा इन्द्र ने वैदिक आचार-संहिता का उल्लंघन कर दिया। वे सिंहासन पर आसीन थे और उनके चारों ओर मरुत, वसु, रुद्र, आदित्य, ऋभु, विश्वदेव, साध्य, अश्विनी-कुमार, सिद्ध, चारण, गन्धर्व तथा सभी बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के अतिरिक्त विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पतग (पक्षी) तथा उरग (सर्प) भी बैठे थे। वे सभी इन्द्र की स्तुति और सेवा कर रहे थे, अप्सराएँ तथा गन्धर्व नृत्य कर रहे थे और अपने मधुर वाद्ययंत्रों के साथ गायन कर रहे थे। इन्द्र के सर पर पूर्ण चन्द्रमा के समान तेजवान श्वेत छत्र तना था, चँवर झला जा रहा था और समस्त राजसी ठाठ-बाट सजा था। इन्द्र अपनी अर्धांगिनी शचीदेवी सहित सिंहासन पर बैठे थे तभी उस सभा में परम साधु बृहस्पति का प्रवेश हुआ। सर्वश्रेष्ठ साधु बृहस्पति इन्द्र समेत सभी देवताओं के गुरु थे और देवताओं तथा असुरों के द्वारा समान रूप से सम्मानित थे। तो भी गुरु को अपने समक्ष देखकर इन्द्र न तो अपने आसन से उठा, न गुरु को बैठने के लिए आसन दिया और न उनका आदरपूर्वक सत्कार ही किया। तात्पर्य यह है कि इन्द्र ने सम्मान-सूचक कोई भी कार्य नहीं किया।

9 बृहस्पति को सब कुछ ज्ञात था कि भविष्य में क्या होने वाला है। इन्द्र द्वारा सारे शिष्टाचार का उल्लंघन देखकर वे पूरी तरह समझ गये कि इन्द्र ऐश्वर्य के मद से फूल उठा है। वे चाहते तो इन्द्र को शाप दे सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे उस सभा से निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये।

10 स्वर्ग के राजा इन्द्र ने तुरन्त ही अपनी भूल समझ ली। यह जानते हुए कि उन्होंने अपने गुरु का निरादर किया है, उन्होंने उस सभा के समस्त सदस्यों के समक्ष स्वयं अपनी ही भर्त्सना की।

11 ओह! अपनी अल्प बुद्धि के कारण तथा भौतिक ऐश्वर्य के मद-वश मैंने यह क्या कर लिया! जब मेरे गुरु इस सभा में प्रविष्ट हुए तो मैंने उनका सत्कार क्यों नहीं किया? सचमुच मैंने उनका अनादर किया है।

12 यद्यपि मैं सतोगुणी देवताओं का राजा हूँ, किन्तु थोड़े से ऐश्वर्य से गर्वित और अहंकार से दूषित था। भला ऐसी दशा में कौन इस ऐश्वर्य को स्वीकार करेगा जिससे उसका पतन हो? हाय! मेरे धन एवं ऐश्वर्य को धिक्कार है!

13 यदि कोई यह कहे कि राजा के उच्च सिंहासन पर आसीन व्यक्ति को दूसरे राजा या ब्राह्मण के सत्कार हेतु उठकर खड़ा नहीं होना चाहिए, तो यही समझना चाहिए कि वह श्रेष्ठ धार्मिक नियमों को नहीं जानता।

14 जो नेता अज्ञानी हैं और लोगों को विनाश के कुमार्ग पर ले जाते हैं (जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया है) वे वास्तव में पत्थर की नाव पर सवार हैं और उनके पीछे अन्धे होकर चलने वाले भी वैसे हैं। पत्थर की नाव पानी में नहीं तैर सकती। वह तो यात्रियों समेत पानी में डूब जायेगी। इसी प्रकार जो लोग मनुष्यों को कुमार्ग पर ले जाते हैं, वे अपने अनुयायियों समेत नरक को जाते हैं।

15 राजा इन्द्र ने कहा: अतः अब मैं अत्यन्त खुले मन से तथा निष्कपट भाव से देवताओं के गुरु बृहस्पति के चरणारविन्द में अपना शीश झुकाऊँगा। सात्विक होने के कारण वे समस्त ज्ञान से पूर्णतया अवगत हैं और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं। अब मैं उनके चरणारविन्द का स्पर्श करके उन्हें प्रसन्न करने के उद्देश्य से प्रणाम करूँगा।

16 जिस समय देवताओं के राजा इन्द्र इस प्रकार सोच रहे थे और अपनी ही सभा में पश्चाताप कर रहे थे, परम शक्तिमान गुरु बृहस्पति उनके भाव को जान गये। अतः अदृश्य होकर वे अपने घर से चले गये, क्योंकि राजा इन्द्र की अपेक्षा वे आत्मज्ञान में अत्यधिक आगे थे।

17 यद्यपि इन्द्र ने अन्य देवताओं की सहायता से गुरु बृहस्पति की काफी खोजबीन की, किन्तु वे उन्हें न पा सके। तब इन्द्र ने सोचा, “हाय मेरे गुरु मुझसे अप्रसन्न हो गये हैं और अब सौभाग्य प्राप्त करने का मेरे पास कोई अन्य साधन नहीं रह गया है।" यद्यपि इन्द्र देवताओं से घिरे थे, किन्तु उन्हें मानसिक शान्ति नहीं मिल सकी।

18 इन्द्र की दयनीय दशा का समाचार पाकर असुरों ने अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेश से अपने आपको हथियारों से सज्जित किया और देवताओं के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।

19 जब असुरों के तीक्ष्ण बाणों से देवताओं के सिर, जंघाएँ, बाँहें तथा शरीर के अन्य अंग क्षत-विक्षत हो गये तो इन्द्र समेत सभी देवता, कोई अन्य उपाय न देखकर नतमस्तक होकर तुरन्त श्रीब्रह्मा की शरण लेने तथा उचित आदेश प्राप्त करने के लिए पहुँचे।

20 जब सर्वाधिक शक्तिमान ब्रह्माजी ने असुरों के बाणों से बुरी तरह घायल हुए देवताओं को अपनी ओर आते देखा तो उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपावश उन्हें ढाढ़स बँधाया और इस प्रकार बोले।

21 श्रीब्रह्मा ने कहा: हे श्रेष्ठ देवताओं! तुम लोगों ने अपने ऐश्वर्य-मद के कारण सभा में आने पर बृहस्पति का सत्कार नहीं किया। वे परब्रह्म ज्ञाता और इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं, अतः वे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं। अतः यह अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि तुम लोगों ने उनके साथ इस प्रकार दुर्व्यवहार किया है।

22 हे देवो! तुम लोग बृहस्पति के प्रति किये गये अपने दुराचरण के कारण असुरों के द्वारा पराजित हुए हो। अन्यथा असुर तो अत्यन्त निर्बल थे और तुम लोगों के द्वारा अनेक बार पराजित हो चुके थे। भला फिर ऐश्वर्य से इतना समृद्ध होते हुए तुम लोग उनसे कैसे हार सकते थे?

23 हे इन्द्र! तुम्हारे शत्रु असुरगण शुक्राचार्य के प्रति अनादर करने के कारण अत्यन्त निर्बल हो गये थे, किन्तु अब उन्होंने अत्यन्त भक्तिपूर्वक शुक्राचार्य की पूजा की है, अतः वे पुनः बलशाली बन गये हैं। अपनी भक्ति के द्वारा उन्होंने अपनी शक्ति इतनी बढ़ा ली है, कि वे अब मुझसे मेरे धाम (सत्यलोक) तक लेने में समर्थ हो चुके हैं।

24 शुक्राचार्य के शिष्य, असुरगण अपने गुरु की शिक्षाओं के पालन में दृढप्रतिज्ञ होने के कारण देवताओं की अब तनिक भी परवाह नहीं करते। सच तो यह है कि जो राजा अथवा अन्य व्यक्ति ब्राह्मणों, गायों तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण की कृपा में अटूट श्रद्धा रखते हैं और इन तीनों की सदैव पूजा करते हैं, वे अपनी स्थिति में सदैव बलशाली रहते हैं।

25 हे देवो! मैं तुम्हें त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाने का आदेश देता हूँ। तुम उन्हें अपना गुरु स्वीकार करो। वे अत्यन्त शुद्ध एवं शक्तिशाली तपस्वी ब्राह्मण हैं। तुम्हारी पूजा से प्रसन्न होकर वे तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करेंगे, यदि तुम लोग उनके असुरों के प्रति झुकाव को सहन कर सको।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार श्रीब्रह्मा के द्वारा आदेशित एवं अपनी चिन्ता से मुक्त होकर सभी देवता त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप ऋषि के पास गये। हे राजन! उन्होंने विश्वरूप को हृदय से लगा लिया और इस प्रकार बोले।

27 देवताओं ने कहा: हे विश्वरूप! तुम्हारा कल्याण हो। हम सभी देवता तुम्हारे अतिथि होकर तुम्हारे आश्रम में आये हैं। चूँकि हम तुम्हारे पिता तुल्य हैं इसलिए समयानुसार हमारी इच्छाओं को पूरा करो।

28 हे ब्राह्मण! पुत्र का परम धर्म है कि वह अपने माता-पिता की सेवा करे, भले ही उसके भी अपने पुत्र क्यों न हों और फिर उस पुत्र का क्या कहना जो ब्रह्मचारी हो?

29-30 आचार्य अर्थात गुरु, जो समस्त वैदिक ज्ञान की शिक्षा देता है और यज्ञोपवीत प्रदान करके दीक्षित करता है साक्षात वेद है। इसी प्रकार पिता ब्रह्मा का रूप, भाई राजा इन्द्र का, माता पृथ्वीलोक तथा बहन कृपा की, अतिथि धर्म का, आमंत्रित मेहमान अग्निदेव का और समस्त जीव भगवान विष्णु का साक्षात रूप होते हैं।

31 हे पुत्र! हम अपने शत्रुओं से पराजित होने के कारण अत्यन्त शोकमग्न हैं। तुम अपने तपोबल से हमारे कष्टों को दूर करके हमारी इच्छाओं को पूरा करो। हमारी प्रार्थनाओं को पूरा करो।

32 चूँकि तुम परब्रह्म से पूर्णतया परिचित हो और पूर्ण ब्राह्मण हो, अतः तुम जीवन के सभी आश्रमों के गुरु हो। हम तुम्हें अपना गुरु तथा अध्यक्ष स्वीकार करते हैं, जिससे तुम्हारे तपोबल से हम अपने उन शत्रुओं को, जिन्होंने हमें परास्त किया है, सरलता से जीत सकें।

33 देवताओं ने आगे कहा: हमसे छोटे होने के कारण अपनी आलोचना से मत डरो। ऐसा शिष्टाचार वैदिक मंत्रों पर लागू नहीं होता। वैदिक मंत्रों को छोड़कर, सर्वत्र गुरुता आयु से निर्धारित होती है, किन्तु यदि कोई वैदिक मंत्रों के उच्चारण में बढ़ाचढ़ा हो तो ऐसे कम आयु वाले व्यक्ति को भी नमस्कार किया जा सकता है। अतः तुम भले ही सम्बन्ध में हमसे छोटे हो, किन्तु तुम बिना किसी हिचक के हमारे पुरोहित हो सकते हो।

34 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब सब देवताओं ने महान विश्वरूप से पुरोहित बनने के लिए प्रार्थना की तो महातपस्वी विश्वरूप अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया।

35 श्री विश्वरूप कहा: हे देवो! यद्यपि पुरोहिती स्वीकारने की निन्दा की जाती है, कि इसकी स्वीकृति से पूर्व-अर्जित ब्रह्मतेज घटता है, किन्तु मुझ जैसा व्यक्ति आपकी व्यक्तिगत प्रार्थना को कैसे ठुकरा सकता है? आप सभी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के महान आदेशक हैं। मैं तो आपका शिष्य हूँ और मुझे तो आपसे अनेक शिक्षाएँ ग्रहण करनी चाहिए। अतः मैं आपको '' नहीं कर सकता। मैं अपने ही स्वार्थ के लिए इसे स्वीकार करता हूँ।

36 हे लोकपालों! सच्चा ब्राह्मण वह है, जिसकी कोई भौतिक सम्पत्ति नहीं होती है, वह शिलोच्छन वृत्ति से ही अपना उदर-पोषण करता है। दूसरे शब्दों में, वह खेतों में गिरे हुए और बड़े-बड़े हाटस्थलों पर गिरे हुए अन्न को बीनता है। इस प्रकार गृहस्थ ब्राह्मण जो वास्तव में तपस्या के सिद्धान्त का पालन करते हुए स्वयं का तथा अपने परिवार का भरण करता है और आवश्यक पुण्य कर्म करता रहता है। जो ब्राह्मण पुरोहिती कर्म द्वारा धन अर्जित करके सुखी बनना चाहता है, वह अत्यन्त तुच्छ मन वाला होता है। बताओ, मैं इस पुरोहिती को कैसे स्वीकार करूँ?

37 आप सभी मुझसे बड़े हैं। अतः भले ही पुरोहिती को स्वीकार करना निन्दनीय है, मैं आप लोगों की छोटी-से-छोटी प्रार्थना को नकार नहीं सकता। मैं आपका पुरोहित बनना स्वीकार करता हूँ। मैं अपना जीवन तथा धन अर्पित करके आपकी प्रार्थना पूरी करूँगा।

38 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन! देवताओं को यह वचन देकर, चारों ओर से देवताओं से घिरे हुए महान विश्वरूप अत्यन्त उत्साह एवं मनोयोग से आवश्यक पुरोहिती कर्म करने लगा।

39 यद्यपि शुक्राचार्य ने अपनी प्रतिभा एवं नीति-बल से देवताओं के शत्रुओं के नाम से विख्यात असुरों के ऐश्वर्य को सुरक्षित कर दिया था, किन्तु अत्यन्त शक्तिमान विश्वरूप ने नारायण कवच नामक एक सुरक्षात्मक स्तोत्र की रचना की। इस बुद्धिमत्तापूर्ण मंत्र से उन्होंने असुरों का ऐश्वर्य छीन कर स्वर्ग के राजा इन्द्र को दे दिया।

40 अत्यन्त उदारचित्त वाले विश्वरूप ने राजा इन्द्र (सहस्राक्ष) को वह गुप्त स्तोत्र बता दिया जिससे इन्द्र की रक्षा हो सकी और असुरों की सैन्यशक्ति जीत ली गई।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय छह – दक्ष की कन्याओं का वंश (6.6)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! तदनन्तर ब्रह्माजी की प्रार्थना पर प्रजापति दक्ष ने, जिन्हें प्राचेतस कहा जाता है, अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं। सभी कन्याएँ अपने पिता को अत्यधिक स्नेह करती थीं।

2 उन्होंने धर्मराज (यमराज) को दस, कश्यप को तेरह, चन्द्रमा को सत्ताईस तथा अंगिरा, कृशाश्व एवं भूत को दो-दो कन्याएँ दान स्वरूप दीं। शेष चार कन्याएँ कश्यप को दे दी गई (इस प्रकार कश्यप को कुल सत्रह कन्याएँ प्राप्त हुई)

3 अब मुझसे इन समस्त कन्याओं तथा उनके वंशजों के नाम सुनो, जिनसे ये तीनों लोक पूरित हैं।

4 यमराज को प्रदत्त दस कन्याओं के नाम थे भानु, लम्बा, ककुद, यामि, विश्वा, साध्या, मरुत्वती, वसु, मुहूर्ता तथा संकल्पा। अब उनके पुत्रों के नाम सुनो।

5 हे राजन! भानु के गर्भ से देव-ऋषभ नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसके इन्द्रसेन नाम का एक पुत्र हुआ। लम्बा के गर्भ से विद्योत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने समस्त बादलों को जन्म दिया।

6 ककुद के गर्भ से संकट नाम का पुत्र हुआ जिसके पुत्र का नाम कीकट था। कीकट से दुर्गा नामक देवतागण हुए। यामी के पुत्र का नाम स्वर्ग था जिससे नन्दी नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।

7 विश्वा के पुत्र विश्वदेव हुए, जिनके कोई सन्तान नहीं थी। साध्या के गर्भ से साध्यगण हुए जिनके पुत्र का नाम अर्थसिद्धि था।

8 मरुत्वती के गर्भ से मरुत्वान तथा जयन्त नामक दो पुत्रों ने जन्म लिया। जयन्त भगवान वासुदेव के अंश हैं और उपेन्द्र कहे जाते हैं।

9 मुहूर्ता के गर्भ से मौहुर्तिकगण नामक देवताओं ने जन्म ग्रहण किया। ये देवता अपने-अपने कालों में जीवात्माओं को उनके कर्मों का फल प्रदान करने वाले हैं।

10-11 संकल्पा का पुत्र संकल्प कहलाया जिससे काम की उत्पत्ति हुई। वसु के पुत्र अष्ट वसु कहलाये। उनके नाम सुनो – द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वास्तु तथा विभावसु। द्रोण नामक वसु की पत्नी अभिमति से हर्ष, शोक, भय इत्यादि पुत्रों का जन्म हुआ।

12 प्राण की पत्नी ऊर्जस्वती के गर्भ से सह, आयुस तथा पुरोजव नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव की पत्नी का नाम धरणी था जिसके गर्भ से विभिन्न नगरों की उत्पत्ति हुई।

13 अर्क की पत्नी वासना के गर्भ से कई पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें तर्ष प्रमुख था। अग्नि नामक वसु की पत्नी धारा से द्रविणक इत्यादि कई पुत्र उत्पन्न हुए।

14 अग्नि के दूसरी पत्नी कृत्तिका से स्कन्द (कार्तिकेय) नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जिसके पुत्रों में विशाख प्रमुख था। दोष नामक वसु की पत्नी शर्वरी से शिशुमार नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो श्रीभगवान का अंश था।

15 वास्तु नामक वसु की पत्नी अंगिरसी से महान शिल्पी विश्वकर्मा का जन्म हुआ। विश्वकर्मा आकृती के पति बने जिनसे चाक्षुष मनु ने जन्म ग्रहण किया। मनु के पुत्र विश्वदेव तथा साध्यगण कहलाये।

16 विभावसु की पत्नी उषा के तीन पुत्र उत्पन्न हुए—व्युष्ट, रोचिष तथा आतप। इनमें से आतप के पञ्च्याम (दिन) उत्पन्न हुआ जो समस्त जीवात्माओं को भौतिक कार्यों के लिए प्रेरित करता है।

17-18 भूत की पत्नी सरुपा ने एक करोड़ रुद्रों को जन्म दिया, जिनमें से प्रमुख ग्यारह रुद्र ये हैं – रैवत, अज, भव, भीम, वाम, उग्र, वृषाकपि, अजैकपात, अहिर्बध्न, बहुरूप तथा महान। भूत की दूसरी पत्नी भुता से उनके साथी भयंकर भूतों तथा विनायकादि का जन्म हुआ।

19 प्रजापति अंगिरा के दो पत्नियाँ थीं – स्वधा तथा सती। स्वधा ने समस्त पितरों को पुत्र रूप में स्वीकार किया और सती ने अथर्वागिरस वेद को ही पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया।

20 कृश्वाश्व के अर्चिस तथा धिषणा नामक दो पत्नियाँ थीं। अर्चिस से धूमकेतु और धिषणा से वेदशिरा, देवल, वयुन तथा मनु नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए।

21-22 कश्यप अर्थात ताक्षर्य की चार पत्नियाँ थीं--विनता (सुपर्णा), कद्रु, पतंगी तथा यामिनी। पतंगी ने नाना प्रकार के पक्षियों को जन्म दिया और यमिनी ने टिड्डियों को। विनता (सुपर्णा) ने भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ तथा सूर्यदेव के सारथी अनुरु अथवा अरुण को जन्म दिया। कद्रु के गर्भ से अनेक प्रकार के नाग उत्पन्न हुए।

23 हे भारतश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! कृत्तिका नामक राशियाँ चन्द्रदेव की पत्नियाँ थीं। चूँकि प्रजापति दक्ष ने चन्द्रदेव को शाप दिया था कि उसे क्षय रोग हो जाये, अतः किसी भी पत्नी से कोई सन्तान नहीं हुई।

24-26 तत्पश्चात चन्द्रदेव ने प्रजापति को विनीत वचनों के द्वारा प्रसन्न करके रुग्णावस्था में क्षीण हुए प्रकाश को फिर से प्राप्त कर लिया, किन्तु तो भी उनके कोई सन्तान नहीं हुई। चन्द्रमा कृष्णपक्ष में अपना प्रकाश खो देता है, किन्तु शुक्लपक्ष में उसे पुनः प्राप्त कर लेता है। हे राजा परीक्षित! अब मुझसे कश्यप की पत्नियों के नाम सुनो, जिनके गर्भ से इस समस्त ब्रह्माण्ड के प्राणी उत्पन्न हुए हैं। वे लगभग समस्त ब्रह्माण्ड के सचराचर की माताएँ हैं और उनके नामों को सुनना शुभ है। उनके नाम हैं--अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा तथा तिमि। तिमि के गर्भ से समस्त जलचर उत्पन्न हुए और सरमा से सिंह तथा बाघ जैसे क्रूर पशु उत्पन्न हुए।

27 हे राजा परीक्षित! सुरभि के गर्भ से भैंस, गाय तथा अन्य फटे खुरों वाले पशु उत्पन्न हुए, जब कि ताम्रा के गर्भ से बाज, गीध तथा अन्य बड़े शिकारी पक्षियों ने जन्म लिया। मुनि से अप्सराएँ उत्पन्न हुई।

28 क्रोधवशा से दंद्शूक नामक सर्प, रेंगने वाले अन्य प्राणी तथा मच्छर उत्पन्न हुए। इला के गर्भ से समस्त लताएँ तथा वृक्ष उत्पन्न हुए। सुरसा के गर्भ से राक्षसों ने जन्म लिया।

29-31 अरिष्टा के गर्भ से गन्धर्व उत्पन्न हुए और काष्ठा से घोड़े इत्यादि एक खुर वाले पशु। हे राजन दनु के इकसठ पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से अठारह प्रमुख हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं – द्विमूर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अयोमुख, शंकुशिरा, स्वर्भानु, कपिल, अरुण, पुलोमा, वृषपर्वा, एकचक्र, अनुतापन, धूम्रकेश, विरूपाक्ष, विप्रचित्ति तथा दुर्जय।

32 स्वर्भानु की कन्या सुप्रभा से नमुचि ने विवाह किया। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा नहुष के पुत्र महाबली राजा ययाति को दी गई।

33-36 दनु के पुत्र वैश्वानर के चार सुन्दर कन्याएँ थीं जिनके नाम थे – उपदानवी, हयशिरा, पुलोमा तथा कालका। इनमें से उपदानवी के साथ हिरण्याक्ष का तथा हयशिरा के साथ क्रतु का विवाह हुआ। तत्पश्चात श्रीब्रह्मा के अनुनय-विनय पर प्रजापति कश्यप ने वैश्वानर की अन्य दो कन्याओं, पुलोमा तथा कालका के साथ विवाह कर लिया। कश्यप की इन दोनों पत्नियों के गर्भ से साठ हजार पुत्र हुए जो पौलोम तथा कालकेय के नाम से विख्यात हुए, जिनमें से निवातकवच प्रमुख था। वे सब अत्यन्त वीर तथा युद्ध कुशल थे और उनका लक्ष्य मुनियों के द्वारा सम्पन्न यज्ञों में विघ्न डालना था। हे राजन! जब तुम्हारे पितामह अर्जुन स्वर्गलोक गये तो उन्होंने अकेले ही इन असुरों का वध किया था जिससे राजा इन्द्र उनका परम प्रिय बन गया।

37 विप्रचित्ति को अपनी पत्नी सिंहिका से एक सौ एक पुत्र प्राप्त हुए जिनमें राहू सबसे ज्येष्ठ था और अन्य एक सौ केतु थे। इन सबों को प्रभावशाली ग्रहों (लोकों) में स्थान प्राप्त हुआ।

38-39 अब सुनो, मैं अदिति की वंश-परम्परा का तिथि-क्रमानुसार वर्णन कर रहा हूँ। इस वंश में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण ने स्वांश रूप में अवतार लिया। अदिति के पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं – विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, शत्रु तथा उरुक्रम।

40 सूर्यदेव विवस्वान की भाग्यवती पत्नी संज्ञा से श्राद्धदेव मनु तथा यमराज और यमुना नदी (यमी) का जोड़ा उत्पन्न हुआ। तब यमी ने घोड़ी का रूप धारण करके इस पृथ्वी पर विचरण करते हुए अश्विनीकुमारों को जन्म दिया।

41 सूर्य की अन्य पत्नी छाया से शनैश्र्चर तथा सावर्णि मनु नामक दो पुत्र तथा तपती नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई जिसने संवरण के साथ विवाह कर लिया।

42 अर्यमा की पत्नी मातृका थी, उससे चर्षणी नामक कई विद्वान पुत्र उत्पन्न हुए। श्रीब्रह्मा ने उन्हीं में से मनुष्य जातियों की सृष्टि की जो आत्म-निरीक्षण की प्रवृत्ति से सम्पन्न हैं।

43 पूषा के कोई सन्तान नहीं हुई। जब भगवान शिव दक्ष पर क्रुद्ध हुए तो पूषा दाँत निकाल कर हँसा था। अतः उसके दाँत जाते रहे और तब से वह पिसा हुआ अन्न खाकर जीवन-निर्वाह करता रहा।

44 दैत्यों की पुत्री रचना प्रजापति त्वष्टा की पत्नी बनी। उसके गर्भ से सन्निवेश तथा विश्वरूप नामक दो अत्यन्त पराक्रमी पुत्र हुए।

45 यद्यपि विश्वरूप देवताओं के कट्टर शत्रु असुरों की पुत्री का पुत्र था, किन्तु उन्होंने ब्रह्मा की आज्ञा से उसे अपना पुरोहित बनाना स्वीकार किया। देवताओं द्वारा अपमान किये जाने पर गुरु बृहस्पति ने इनका परित्याग कर दिया था, इसीलिए इन्हें पुरोहित की आवश्यकता पड़ी।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय पाँच – प्रजापति दक्ष द्वारा नारद मुनि को शाप (6.5)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान विष्णु की माया से प्रेरित होकर प्रजापति दक्ष ने पाञ्चजनी (असिक्नी) के गर्भ से दस हजार पुत्र उत्पन्न किये। हे राजन ! ये पुत्र हर्यश्व कहलाये।

2 हे राजन ! प्रजापति दक्ष के सारे पुत्र समान रूप से अत्यन्त विनम्र तथा अपने पिता के आदेशों के प्रति आज्ञाकारी थे। जब उनके पिता ने सन्तानें उत्पन्न करने के लिए उन्हें आदेश दिया तो वे सभी पश्चिमी दिशा की ओर चले गये।

3 पश्चिम में, जहाँ सिन्धु नदी सागर में मिलती है, नारायण सरस नामक एक महान तीर्थ स्थान है। वहाँ पर अनेक मुनि तथा आध्यात्मिक चेतना में उन्नत अन्य लोग रहते हैं।

4-5 उस तीर्थस्थान में हर्यश्वगण नियमित रूप से नदी का जल स्पर्श करने और उसमें स्नान करने लगे। धीरे धीरे अत्यधिक शुद्ध हो जाने पर वे परमहंसों के कार्यों के प्रति उन्मुख हो गये। फिर भी चूँकि उनके पिता ने उन्हें जनसंख्या बढ़ाने का आदेश दिया था, अतः पिता की इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने कठिन तपस्या की। एक दिन जब महर्षि नारद ने इन बालकों को जनसंख्या बढ़ाने के लिए ऐसी उत्तम तपस्या करते देखा तो वे उनके निकट आये।

6-8 महामुनि नारद ने कहा: हे हर्यश्वों! तुमने पृथ्वी के चोरों को नहीं देखा है। एक ऐसा राज्य है, जिसमें केवल एक व्यक्ति रहता है और उसमें जहाँ पर एक छेद है, उसमें से भीतर घुसने वाला कभी निकल कर बाहर नहीं आता। वहाँ पर एक स्त्री है, जो अत्यन्त कुमार्गिनी (असाध्वी) है और वह नाना प्रकार के आकर्षक वस्त्रों से अपने को सुसज्जित करती है और वहाँ जो पुरुष रहता है, वह उसका पति है। उस राज्य में एक नदी है, जो दोनों दिशाओं में बहती है, पच्चीस पदार्थों से बना हुआ एक अद्भुत घर है, एक हंस है, जो नाना प्रकार की ध्वनियाँ करता है और एक स्वतः घूमने वाली वस्तु है, जो तेज छुरों तथा वज्रों से बनी है। तुम लोगों ने इन सबों को नहीं देखा इसलिए तुम लोग उच्च ज्ञान से रहित अनुभवहीन बालक हो। तो फिर तुम किस तरह सन्तान उत्पन्न करोगे ?

9 हाय! तुम्हारा पिता तो सर्वज्ञ है, किन्तु तुम उनके असली आदेश को नहीं जानते। अपने पिता के असली उद्देश्य को जाने बिना तुम किस तरह सन्तान उत्पन्न करोगे ?

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: नारदमुनि के गूढ़ शब्दों को सुनकर हर्यश्वों ने अपनी स्वाभाविक बुद्धि से दूसरों से सहायता लिये बिना विचार किया।

11 [हर्यश्वों ने नारद के शब्दों का अर्थ इस प्रकार समझा] भू: शब्द कर्मक्षेत्र का द्योतक है। यह भौतिक शरीर जो मनुष्य के कर्मों का फल होता है, उसका कर्मक्षेत्र है और यह उसे झूठी उपाधियाँ देता है। अनादि काल से मनुष्य को विविध प्रकार के भौतिक शरीर प्राप्त होते रहे हैं, जो भौतिक जगत से बन्धन के मूल हैं। यदि कोई मनुष्य मूर्खतावश क्षणिक सकाम कर्मों में अपने को लगाता है और इस बन्धन को समाप्त करने की ओर नहीं देखता तो उसको कर्मों का क्या लाभ मिलेगा?

12 [नारद मुनि ने कहा था कि एक ऐसा राज्य है जहाँ केवल एक नर है। हर्यश्वों को इस कथन के आशय की अनुभूति हुई] एकमात्र भोक्ता भगवान हैं, जो हर वस्तु को हर जगह देखते हैं। वे षडऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और अन्य सबों से पूर्णतया स्वतंत्र हैं। वे कभी भी भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित नहीं होते, क्योंकि वे सदा से इस भौतिक सृष्टि से परे रहे हैं। यदि मानव-समाज के सदस्य ज्ञान तथा कर्मों की प्रगति के माध्यम से उन परम पुरुष को नहीं समझते बल्कि क्षणिक सुख के लिए रात-दिन कुत्ते-बिल्लियों की तरह अत्यधिक कठोर श्रम करते हैं, तो उनके कार्यों से क्या लाभ?

13 [नारद मुनि ने कहा था एक बिल या छेद है, जिसमें प्रवेश करने के बाद कोई लौटता नहीं। हर्यश्व इस रूपक का अर्थ समझ गए] एक बार जो व्यक्ति पाताल नामक निम्नतर लोकों में प्रवेश करता है, वह मुश्किल से लौटता देखा जाता है। इसी तरह कोई वैकुण्ठ धाम (प्रत्यग-धाम) में प्रवेश करता है, तो वह इस भौतिक जगत में लौटकर नहीं आता। यदि कोई ऐसा स्थान है जहाँ जाकर मनुष्य इस दुखमय भौतिक जीवन में नहीं लौटता तो फिर नश्वर भौतिक जगत में बन्दरों की तरह उछलने-कूदने एवं उस स्थान को देखने या समझने से क्या लाभ? इससे क्या लाभ होगा?

14 [नारद मुनि ने एक स्त्री का वर्णन किया था, जो पेशेवर गणिका है। हर्यश्वों को इस स्त्री की पहचान समझ में आ गई] रजोगुण से मिश्रित हुई प्रत्येक जीव की अस्थिर बुद्धि उस गणिका के समान है, जो किसी के ध्यान को आकृष्ट करने के लिए अपने वस्त्र बदलती रहती है। यदि कोई मनुष्य यह जाने बिना कि यह किस तरह हो रहा है, पूरी तरह क्षणभंगुर सकाम कर्मों में लगा रहता है, तो उसे वास्तव में क्या लाभ मिलता है?

15 [नारद मुनि ने एक ऐसे मनुष्य की भी बात कही थी जो गणिका का पति है। हर्यश्वों ने इसे इस प्रकार समझा] यदि कोई पुरुष किसी गणिका का पति बनता है तो वह अपनी सारी स्वतंत्रता खो देता है। इसी तरह यदि जीव की बुद्धि दूषित है, तो वह अपने भौतिकतावादी जीवन को बढ़ा लेता है। भौतिक प्रकृति से निराश होकर उसे बुद्धि की गतियों का अनुसरण करना पड़ता है, जो सुख तथा दुख की विविध स्थितियों को लाती हैं। यदि कोई ऐसी स्थितियों में सकाम कर्म करता है, तो इससे क्या लाभ होगा?

16 [नारद मुनि ने कहा था कि एक नदी है, जो दोनों दिशाओं में बहती है। हर्यश्वों ने इस कथन का तात्पर्य समझा] भौतिक प्रकृति दो प्रकार से कार्य करती है – सृजन द्वारा तथा संहार द्वारा । इस तरह भौतिक प्रकृति रूपी नदी दोनों दिशाओं में बहती है। जो जीव अनजाने में इस नदी में गिर जाता है, वह इसकी लहरों में डूबता-उतरता जाता है और चूँकि नदी के किनारों के निकट धारा अधिक तेज रहती है, इसलिए वह बाहर निकल पाने में असमर्थ रहता है। माया-रूपी उस नदी में सकाम कर्म करने से क्या लाभ होगा?

17 [नारद मुनि ने कहा था कि पच्चीस तत्त्वों से बना हुआ एक घर है। हर्यश्वों को यह रूपक समझ में आ गया] भगवान पच्चीस तत्त्वों के आगार हैं और परम पुरुष होने के कारण कार्य-कारण के संचालक रूप में वे उनकी अभिव्यक्ति करते हैं। यदि कोई व्यक्ति क्षणभंगुर सकाम कर्मों में अपने को लगाता है और उस परम पुरुष को नहीं जानता तो उसे क्या लाभ प्राप्त होगा?

18 [ नारद मुनि ने हंस की बात की थी। इस श्लोक में हंस की व्याख्या की गई है। ] वैदिक ग्रन्थ (शास्त्र) भलीभाँति यह बताते हैं, कि समस्त भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्ति के स्रोत भगवान को किस तरह समझना चाहिए। दरअसल, वे इन दोनों शक्तियों की विस्तार से व्याख्या करते हैं। हंस वह है, जो पदार्थ तथा आत्मा में अन्तर करता है, जो हर वस्तु के सार को ग्रहण करता है और बन्धन के तथा मोक्ष के उपायों की व्याख्या करता है। शास्त्रों के शब्द विविध प्रकार की ध्वनियों के रूप में हैं। यदि कोई मूर्ख धूर्त व्यक्ति नश्वर कार्यों में लगने के लिए इन शास्त्रों के अध्ययन को ताक पर रख देता है, तो फिर क्या लाभ होगा?

19 [नारद मुनि ने तेज छुरों तथा वज्रों से बनी एक भौतिक वस्तु की बात की थी। हर्यश्वों ने इस रुपक को इस प्रकार समझा] नित्य काल बहुत ही तीक्ष्णता से गति करता है, मानों छुरों तथा वज्रों से बना हुआ हो। यह काल अबाध रूप से तथा पूर्णतया स्वतंत्र होकर सारे जगत के कार्यों का संचालन करता है। यदि मनुष्य नित्य-काल तत्त्व का अध्ययन करने का प्रयास नहीं करता तो वह क्षणिक भौतिक कार्यों को करने से क्या लाभ प्राप्त कर सकता है?

20 [नारद मुनि ने पूछा था कि मनुष्य किस तरह अज्ञानवश अपने ही पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर सकता है। हर्यश्वों ने इस प्रश्न का अर्थ समझ लिया था] मनुष्य को शास्त्र के मूल आदेशों को स्वीकार करना चाहिए। वैदिक सभ्यता के अनुसार मनुष्य को द्वितीय जन्म के चिन्हरुप में यज्ञोपवीत (जनेऊ) प्रदान किया जाता है। वह प्रामाणिक गुरु से शास्त्रों के आदेश प्राप्त कर चुकने के फलस्वरूप दूसरा जन्म पाता है। इसलिए शास्त्र असली पिता है। सारे शास्त्रों का आदेश है कि मनुष्य अपने जीवन की भौतिक शैली को समाप्त कर दे। यदि वह पिता अर्थात शास्त्रों के आदेशों का उद्देश्य नहीं समझता तो वह अज्ञानी है। जो पिता अपने पुत्र को भौतिक कार्यों में लगाए रखने का प्रयत्न करता है, उसके वचन पिता के असली आदेश नहीं होते।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन ! नारद मुनि के उपदेशों को सुनने के बाद प्रजापति दक्ष के पुत्र हर्यश्वों को पूरी तरह से समझ में आ गया। उन सबों ने उनके उपदेशों में विश्वास किया और वे एक ही निष्कर्ष पर पहुँचे। उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लेने पर उन्होंने उस महामुनि की प्रदक्षिणा की और उस पथ का अनुसरण किया जिससे कोई इस जगत में फिर नहीं लौटता।

22 संगीत यंत्र में सात स्वरों – ष, , गा, , , ध तथा नि का प्रयोग किया जाता है, किन्तु ये सातों स्वर मूलतः सामवेद से आये। महामुनि नारद भगवान की लीलाओं का वर्णन करते हैं। ऐसी दिव्य ध्वनियों यथा – हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । – से वे अपने मन को भगवान के चरणकमलों पर स्थिर करते हैं। इस तरह वे इन्द्रियों के स्वामी हृषीकेश का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं। हर्यश्वों का उद्धार करने के बाद नारद मुनि ने अपने मन को भगवान के चरणकमलों में सदा स्थिर रखते हुए सारे लोकों में अपनी यात्रा जारी रखी।

23 प्रजापति दक्ष के पुत्र हर्यश्व अत्यन्त सुशील, सुसंस्कृत पुत्र थे, किन्तु दुर्भाग्यवश नारद मुनि के उपदेशों से वे अपने पिता के आदेश से विपथ हो गए। जब दक्ष ने यह समाचार सुना, जिसे उन तक नारद मुनि लाये थे, तो वे पश्चाताप करने लगे। यद्यपि वे ऐसे उत्तम पुत्रों के पिता थे, किन्तु वे सब उनके हाथ से निकल चुके थे। निश्चय ही यह शोचनीय था।

24 जब प्रजापति दक्ष अपने खोये हुए पुत्रों के लिए शोक कर रहे थे तो ब्रह्मा ने उपदेश देकर उन्हें सान्त्वना दी और उसके बाद दक्ष ने अपनी पत्नी पाञ्चजनी के गर्भ से एक हजार सन्तानें और उत्पन्न कीं। इस बार के उनके पुत्र सवलाश्व कहलाये।

25 सन्तानें उत्पन्न करने के अपने पिता के आदेशानुसार पुत्रों की यह दूसरी टोली भी नारायण सरस नामक उस स्थान पर गई, जहाँ उनके भाइयों ने इसके पूर्व नारद के उपदेशों का पालन करते हुए सिद्धि प्राप्त की थी। तपस्या का महान व्रत लेकर सवलाश्व उस पवित्र स्थान पर रहने लगे।

26 नारायण सरस पर पुत्रों की दूसरी टोली ने पहली टोली की ही तरह तपस्या की। उन्होंने पवित्र जल में स्नान किया और इसके स्पर्श से उनके हृदयों की सारी मलिन भौतिक इच्छाएँ दूर हो गईं। उन्होंने ॐकार से प्रारम्भ होने वाले मंत्रों का मन में जप किया और कठिन तपस्याएँ की।

27-28 प्रजापति दक्ष के पुत्रों ने कुछ महीनों तक केवल जल पिया और वायु खायी। इस तरह महान तपस्या करते हुए उन्होंने इस मंत्र का जाप किया, “हम उन भगवान नारायण को नमस्कार करते हैं, जो सदैव अपने दिव्य धाम में स्थित रहते हैं। चूँकि वे परम पुरुष (परमहंस) हैं, अतएव हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।"

29 हे राजा परीक्षित! नारदमुनि प्रजापति दक्ष के उन पुत्रों के पास पहुँचे जो सन्तान उत्पन्न करने के लिए तपस्या में लगे हुए थे और उनसे उसी तरह के गूढ़ शब्द कहे जैसे उनके ज्येष्ठ भाइयों से कहे थे।

30 हे दक्षपुत्रों! मेरे उपदेशरूपी वचनों को ध्यानपूर्वक सुनो। तुम सभी अपने ज्येष्ठ भाइयों, हर्यश्वों के प्रति अत्यन्त वत्सल हो। अतएव तुम्हें उनके मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

31 धर्म के नियमों से अवगत भाई अपने ज्येष्ठ भाइयों के पदचिन्हों का अनुगमन करता है। अत्यधिक बड़े-चढ़े होने से ऐसा पवित्र भाई मरुत जैसे देवताओं की संगति करने तथा आनन्द भोगने का अवसर प्राप्त करता है, जो सभी प्रकार से अपने भाइयों के प्रति स्नेहिल है।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे आर्यों में सर्व अग्रणी! नारदमुनि, जिनकी कृपादृष्टि कभी व्यर्थ नहीं जाती, प्रजापति दक्ष के पुत्रों से इतना कहकर अपनी योजना के अनुसार वहाँ से विदा हो गये। दक्ष के पुत्रों ने अपने बड़े भाइयों का अनुसरण किया। सन्तानें उत्पन्न करने का प्रयास न करके वे कृष्णभावनामृत में लग गये।

33 सवलाश्वों ने सही मार्ग अपनाया जो भक्ति को प्राप्त करने के निमित्त जीवन-शैली द्वारा प्राप्य है या भगवान की कृपा से प्राप्य है। वे रात्रियों की तरह पश्चिम की ओर गये हैं, किन्तु अभी तक वापस नहीं आये हैं।

34 इस समय प्रजापति दक्ष ने अनेक अपशकुन देखे और विविध स्रोतों से सुना कि उनके पुत्रों की दूसरी टोली, सवलाश्वों, ने नारद मुनि के उपदेशों के अनुसार अपने ज्येष्ठ भाइयों के ही मार्ग का अनुसरण किया है।

35 जब दक्ष ने सुना कि सवलाश्वों ने भी भक्ति में संलग्न होने के लिए इस जगत को छोड़ दिया है, तो वे नारद पर क्रुद्ध हुए और शोक के कारण वे अचेतप्राय हो गये। जब दक्ष की नारद से भेंट हुई तो क्रोध से दक्ष के होंठ काँपने लगे और वे इस प्रकार बोले।

36 प्रजापति दक्ष ने कहा: हाय नारदमुनि! तुम सन्त पुरुष का वेश धारण करते हो, किन्तु तुम वास्तव में सन्त हो नहीं। यद्यपि अब मैं गृहस्थ जीवन में हूँ, किन्तु मैं सन्तपुरुष हूँ। तुमने मेरे पुत्रों को संन्यास का मार्ग दिखाकर मेरे साथ निन्दनीय अन्याय किया है।

37 मेरे पुत्र अपने तीन ऋणों से मुक्त भी नहीं हुए थे। दरअसल, उन्होंने ठीक से अपने कर्तव्यों का विचार भी नहीं किया था। रे नारदमुनि! तुमने इस जगत में उनके सौभाग्य की प्रगति में बाधा डाली है और दूसरी बात यह कि अभी भी वे सन्त पुरुषों, देवताओं तथा अपने पिता के ऋणी हैं।

38 प्रजापति दक्ष ने आगे कहा: इस तरह मेरे साथ अन्याय करके भी अपने को भगवान विष्णु का पार्षद कहते हुए तुम भगवान को बदनाम कर रहे हो। तुमने व्यर्थ ही अबोध बालकों में संन्यास की प्रवृत्ति उत्पन्न की, इसलिए तुम निर्लज्ज निर्दयी हो। तुम भगवान के निजी संगियों के साथ किस तरह विचरण कर सकते हो?

39 तुम्हें छोड़कर अन्य सारे भगवदभक्त बद्धजीवों के प्रति अत्यन्त दयालु हैं और दूसरों को लाभ पहुँचाने के इच्छुक रहते हैं। यद्यपि तुम भक्त का वेश धारण करते हो, किन्तु तुम उन लोगों के साथ शत्रुता उत्पन्न करते हो जो तुम्हारे शत्रु नहीं हैं, या तुम मित्रों के बीच मैत्री तोड़ते हो और शत्रुता उत्पन्न करते हो। क्या इन गर्हित कार्यों को करते हुए अपने को भक्त कहने से लज्जित नहीं होते?

40 प्रजापति दक्ष ने आगे कहा: यदि तुम यह सोचते हो कि वैराग्य की भावना जागृत कर देने से ही मनुष्य भौतिक जगत से विरक्त हो जायेगा तो मैं कहूँगा कि पूर्णज्ञान के जागृत हुए बिना तुम्हारी तरह केवल वेश बदलने से सम्भवतया वैराग्य उत्पन्न नहीं किया जा सकता।

41 निस्सन्देह, भौतिक भोग ही सभी दुखों का कारण है, किन्तु कोई इसे तब तक नहीं छोड़ पाता जब तक वह स्वयं यह अनुभव नहीं कर लेते कि यह कितना कष्टप्रद है। इसलिए मनुष्य को तथाकथित भौतिक भोग में रहने देना चाहिए, साथ ही साथ उसे इस मिथ्या भौतिक सुख के कष्ट का अनुभव करने के ज्ञान में प्रगति करते रहने देना चाहिए। तब अन्यों की सहायता के बिना ही वह भौतिक भोग को घृणित पायेगा। जिनके मन अन्यों द्वारा परिवर्तित किए जाते हैं, वे उतने विरक्त नहीं होते जितने कि निजी अनुभव वाले व्यक्ति।

42 यद्यपि मैं अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ गृहस्थ जीवन में रहता हूँ, किन्तु मैं पापफलों से रहित जीवन का आनन्द भोगने के लिए सकाम कर्म में लगकर वैदिक आदेशों का ईमानदारी के साथ पालन करता हूँ। मैंने सभी प्रकार के यज्ञ सम्पन्न किये हैं जिनमें देवयज्ञ, ऋषियज्ञ, पितृयज्ञ तथा नृयज्ञ सम्मिलित हैं। चूँकि ये यज्ञ व्रत कहलाते हैं, इसलिए मैं गृहव्रत कहलाता हूँ, दुर्भाग्यवश तुमने मेरे पुत्रों को अकारण ही वैराग्य के मार्ग में गुमराह करके मुझे अत्यधिक दुख पहुँचाया है। इसे एक बार तो सहन किया जा सकता है।

43 तुमने मेरे पुत्रों को मुझसे एक बार विलग कराया और अब पुनः तुमने वही अशुभ कार्य किया है। अतः तुम धूर्त हो जो यह नहीं जानता कि अन्यों के साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिए। भले ही तुम ब्रह्माण्ड भर में भ्रमण करते रहते हो, किन्तु मैं शाप देता हूँ कि तुम्हारा कहीं भी निवासस्थान न हो।

44 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन ! चूँकि नारदमुनि माने हुए साधु पुरुष हैं, अतः जब प्रजापति दक्ष ने उन्हें शाप दिया तो उन्होंने उत्तर दिया तद बाढम – "ठीक, तुमने जो भी कहा है उत्तम है। मैं इस शाप को स्वीकार करता हूँ।" वे चाहते तो उलट कर प्रजापति दक्ष को शाप दे सकते थे, किन्तु उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की, क्योंकि वे सहिष्णु तथा दयालु साधु हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय चार -- प्रजापति दक्ष द्वारा भगवान से की गई हंसगुह्य प्रार्थनाएँ (6.4)

1-2 वर प्राप्त राजा ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से कहा: हे प्रभु! देवता, असुर, मनुष्य, नाग, पशु तथा पक्षी स्वायम्भुव मनु के शासन काल में उत्पन्न किये गये थे। आपने इस सृष्टि के विषय में संक्षेप में (तृतीय स्कन्ध में) कहा है। अब मैं इसके विषय में विस्तार से जानना चाहता हूँ। मैं भगवान की उस शक्ति के विषय में भी जानना चाहता हूँ जिससे उन्होंने गौण सृष्टि की।

3 सूत गोस्वामी ने कहा: हे (नैमिषारण्य में एकत्र) महामुनियों ! जब महान योगी श्रील शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित की जिज्ञासा सुनी तो उन्होंने उसकी प्रशंसा की और इस प्रकार उत्तर दिया।

4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब प्राचीनबर्हि के दसों पुत्र उस जल से बाहर निकले जिसमें वे तपस्या कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि संसार की समूची सतह वृक्षों से ढक गई है।

5 जल में दीर्घकाल तक तपस्या करने के कारण प्रचेतागण वृक्षों पर अत्यधिक क्रुद्ध थे। उन्हें जलाकर भस्म करने की इच्छा से उन्होंने अपने मुखों से वायु तथा अग्नि उत्पन्न की।

6 हे राजा परीक्षित! जब वृक्षों के राजा तथा चन्द्रमा के अधिष्ठाता देव सोम ने अग्नि तथा वायु को समस्त वृक्षों को जलाकर राख करते देखा तो उसे अपार दया आई, क्योंकि वह समस्त वनस्पतियों तथा वृक्षों का पालनकर्ता है। प्रचेताओं के क्रोध को शान्त करने के लिए सोम इस प्रकार बोला।

7 हे भाग्यवान महाशयों! तुम लोगों को चाहिए कि इन बेचारे वृक्षों को जलाकर भस्म न करो। तुम लोगों का कर्तव्य नागरिकों (प्रजा) के लिए समस्त समृद्धि की कामना करना तथा उनके रक्षकों के रूप में कार्य करना है।

8 भगवान श्रीहरि सारे जीवों के स्वामी हैं जिनमें ब्रह्मा जैसे सारे प्रजापति सम्मिलित हैं। चूँकि वे सर्वव्यापक तथा अविनाशी प्रभु हैं, अतः उन्होंने अन्य जीवों के लिए खाद्य वस्तुओं के रूप में इन सारे वृक्षों तथा शाकों को उत्पन्न किया है।

9 प्रकृति की व्यवस्था के द्वारा फलों तथा फूलों को कीड़ों तथा पक्षियों का भोजन माना जाता है, अन्य बिना पैर वाले जीव यथा घास; गायों तथा भैंसों जैसे चौपायों के भोजन के लिए हैं। वे पशु जो अपने अगले पैरों को हाथों की तरह काम में नहीं ला सकते पंजों वाले बाघों जैसे पशुओं के भोजन हैं यथा हिरण एवं बकरे जैसे चौपाये जानवर तथा खाद्यान्न मनुष्यों के भोजन के निमित्त होते हैं।

10 हे शुद्ध हृदयवाले! तुम्हारे पिता प्राचीनबर्हि तथा भगवान ने तुम सबों को प्रजा उत्पन्न करने का आदेश दिया है। अतः तुम लोग इन वृक्षों तथा वनस्पतियों को किस तरह जलाकर भस्म कर सकते हो जिनकी आवश्यकता तुम्हारी प्रजा तथा तुम्हारे वंशजों के पालन के लिए पड़ेगी?

11 तुम्हारे पिता, पितामह तथा परदादाओं ने जिस अच्छाई के मार्ग का अनुसरण किया था, वह प्रजा के पालन करने का था जिसमें मनुष्य, पशु तथा वृक्ष सम्मिलित हैं। तुम लोगों को उसी मार्ग का पालन करना चाहिए। व्यर्थ का क्रोध तुम्हारे कर्तव्य के विरुद्ध है। अतएव मेरी प्रार्थना है कि तुम लोग अपने क्रोध को नियंत्रित करो।

12 पिता तथा माता जिस तरह अपनी सन्तानों के मित्र और पालनकर्ता होते हैं, जिस तरह पलक आँख की रक्षा करती है, पति जिस तरह पत्नी का भर्त्ता तथा रक्षक होता है, जिस तरह गृहस्थ भिखारियों का अन्नदाता तथा रक्षक होता है तथा जिस तरह विद्वान अज्ञानी का मित्र होता है, उसी तरह राजा अपनी प्रजा का रक्षक तथा जीवनदाता होता है। वृक्ष भी राजा की प्रजा होते हैं, अतएव उन्हें भी संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।

13 भगवान सारे जीवों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं, चाहे वो चर हों या अचर। इनमें मनुष्य, पक्षी, पशु, वृक्ष तथा सारे जीव सम्मिलित हैं। इसलिए तुम लोगों को प्रत्येक शरीर को भगवान का वासस्थान या मन्दिर मानना चाहिए। इस दृष्टिकोण से तुम लोग भगवान को तुष्ट कर सकोगे। तुम लोगों को क्रोध में आकर वृक्षों के रूपों में स्थित इन जीवों का वध नहीं करना चाहिए।

14 जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की जिज्ञासा करता है और इस तरह अपने शक्तिशाली क्रोध को – जो शरीर में सहसा जागृत हो जाता है, मानों आकाश से गिरा हो उसे दबाता है, वह भौतिक प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है।

15 अब इन बेचारे वृक्षों को जलाने की आवश्यकता नहीं है। जो वृक्ष शेष हैं उन्हें सुखपूर्वक रहने दें। निस्सन्देह तुम लोगों को भी सुखी रहना चाहिए। यहाँ पर एक सुयोग्य सुन्दर लड़की है, जिसका नाम मारिषा है और जिसका पालन-पोषण इन वृक्षों ने अपनी पुत्री के रूप में किया है। तुम लोग इस सुन्दर लड़की को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर सकते हो।

16 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन! प्रचेताओं को तुष्ट करने के बाद चन्द्रमा के राजा सोम ने प्रम्लोचा अप्सरा से उत्पन्न सुन्दर कन्या उन्हें प्रदान की। उन्होंने धार्मिक पद्धति के अनुसार उसके साथ विवाह किया।

17 उस लड़की के गर्भ से प्रचेताओं ने दक्ष नामक एक पुत्र उत्पन्न किया जिसने तीनों लोकों को जीवों से भर दिया।

18 कृपया अत्यन्त ध्यानपूर्वक मुझसे सुनें कि किस तरह प्रजापति दक्ष ने, अपने मन से विभिन्न प्रकार के जीवों को उत्पन्न किया।

19 प्रजापति दक्ष ने सर्वप्रथम अपने मन से सभी तरह के देवताओं, असुरों, मनुष्यों, पक्षियों, पशुओं, जलचरों इत्यादि को उत्पन्न किया।

20 किन्तु जब प्रजापति दक्ष ने देखा कि वे ठीक से सभी प्रकार के जीवों को उत्पन्न नहीं कर पा रहे हैं, तो वे विंध्याचल पर्वतश्रेणी के निकट एक पर्वत पर गए और वहाँ पर उन्होंने अत्यन्त कठिन तपस्या की।

21 उस पर्वत के निकट अघमर्षण नामक एक तीर्थस्थल था। वहाँ पर प्रजापति दक्ष ने सारे कर्मकाण्ड सम्पन्न किए और भगवान हरि को प्रसन्न करने के लिए महान तपस्या में संलग्न होकर उन्हें संतुष्ट किया।

22 हे राजन! अब मैं आपसे हंसगुह्य नामक स्तुतियों की पूरी व्याख्या करूँगा जिन्हें दक्ष ने भगवान को अर्पित किया और मैं बताऊँगा कि किस तरह उन स्तुतियों से भगवान उन पर प्रसन्न हुए।

23 प्रजापति दक्ष ने कहा: भगवान माया तथा उससे उत्पन्न शारीरिक कोटियों से परे हैं। उनमें अचूक ज्ञान तथा परम इच्छा शक्ति रहती है और वे जीवों तथा माया के नियन्ता हैं। जिन बद्धात्माओं ने इस भौतिक जगत को सर्वस्व समझ रखा है वे उन्हें नहीं देख सकते, क्योंकि वे व्यावहारिक ज्ञान के प्रमाण से परे हैं। वे स्वतः प्रकट तथा आत्म-तुष्ट हैं। वे किसी कारण द्वारा उत्पन्न नहीं किये जाते। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

24 जिस तरह इन्द्रियविषय (रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा ध्वनि) यह नहीं समझ सकते कि इन्द्रियाँ उनकी अनुभूति किस तरह करती हैं, उसी तरह बद्ध-आत्मा यद्यपि अपने शरीर में परमात्मा के साथ-साथ निवास करता है, यह नहीं समझ सकता कि भौतिक सृष्टि के स्वामी परम आध्यात्मिक पुरुष किस तरह उसकी इन्द्रियों को निर्देश देते हैं। मैं उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ जो परम नियन्ता हैं।

25 केवल पदार्थ होने के कारण शरीर, प्राणवायु, बाह्य तथा आन्तरिक इन्द्रियाँ, पाँच स्थूल तत्त्व, तथा सूक्ष्म इन्द्रियविषय (रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा ध्वनि) अपने स्वभाव को, अन्य इन्द्रियों के स्वभाव को या उनके नियन्ताओं के स्वभाव को नहीं जान पाते हैं। किन्तु जीव अपने आध्यात्मिक स्वभाव के कारण अपने शरीर, प्राणवायु, इन्द्रियों, तत्त्वों तथा इन्द्रियविषयों को जान सकता है और वह तीन गुणों को भी, जो उनके मूल में होते हैं, जान सकता है। इतने पर भी, यद्यपि जीव उनसे पूर्णतया भिज्ञ होता है, किन्तु वह परम पुरुष को, जो सर्वज्ञ तथा असीम है, देख पाने में अक्षम रहता है। इसलिए मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

26 जब मनुष्य की चेतना स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक जगत के कल्मष से पूरी तरह शुद्ध हो जाती है और कार्य करने तथा स्वप्न देखने की अवस्थाओं से विचलित नहीं होती तथा जब मन सुषुप्ति अर्थात गहरी नींद में लीन नहीं होता तो वह समाधि के पद को प्राप्त होता है। तब उसकी भौतिक दृष्टि तथा मन की स्मृतियाँ, जो नामों तथा रूपों को प्रकट करती हैं, विनष्ट हो जाती हैं। केवल ऐसी ही समाधि में भगवान प्रकट होते हैं। अतः हम उन भगवान को नमस्कार करते हैं, जो उस अकलुषित दिव्य अवस्था में देखे जाते हैं।

27-28 जिस तरह कर्मकाण्ड तथा यज्ञ करने में निपुण प्रकाण्ड विद्वान ब्राह्मण पन्द्रह सामिधेनी मंत्रों का उच्चारण करके काष्ठ के भीतर सुप्त अग्नि को बाहर निकाल सकते हैं और इस तरह वैदिक मंत्रों की दक्षता को सिद्ध करते हैं, उसी तरह जो लोग कृष्णभावनामृत में वस्तुतः बड़े-चढ़े होते हैं – दूसरे शब्दों में, जो कृष्णभावनाभावित होते हैं – वे परमात्मा को ढूँढ सकते हैं, जो अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा हृदय के भीतर स्थित रहते हैं। हृदय प्रकृति के तीनों गुणों से तथा नौ भौतिक तत्त्वों (प्रकृति, कुल भौतिक शक्ति, अहंकार, मन तथा इन्द्रिय तृप्ति के पाँचों विषय) एवं पाँच भौतिक तत्त्वों तथा दस इन्द्रियों द्वारा आच्छादित रहता है। ये सत्ताईस तत्त्व मिलकर भगवान की बहिरंगा शक्ति का निर्माण करते हैं। बड़े बड़े योगी भगवान का ध्यान करते हैं, जो परमात्मा रूप में हृदय के भीतर स्थित हैं। वह परमात्मा मुझ पर प्रसन्न हों। जब कोई भौतिक जीवन की असंख्य विविधताओं से मुक्ति के लिए उत्सुक होता है, तो परमात्मा का साक्षात्कार होता है। वस्तुतः उसे ऐसी मुक्ति तब मिलती है जब वह भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है और अपनी सेवा प्रवृत्ति के कारण भगवान का साक्षात्कार करता है। भगवान को उन अनेक आध्यात्मिक नामों से सम्बोधित किया जा सकता है, जो भौतिक इन्द्रियों के लिए अकल्पनीय हैं। वे भगवान मुझ पर कब प्रसन्न होंगे?

29 भौतिक ध्वनियों द्वारा व्यक्त, भौतिक बुद्धि द्वारा सुनिश्चित तथा भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभव की गई अथवा भौतिक मन के भीतर गढ़ी गई कोई भी वस्तु भौतिक प्रकृति के गुणों के प्रभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होती, इसलिए भगवान के वास्तविक स्वभाव से उसका किसी तरह का सम्बन्ध नहीं होता। परमेश्वर इस भौतिक जगत की सृष्टि के परे हैं, क्योंकि वे भौतिक गुणों तथा सृष्टि के स्रोत हैं। सभी कारणों के कारण होते हुए, वे सृष्टि के पूर्व तथा सृष्टि के पश्चात विद्यमान रहते हैं। मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ।

30 परब्रह्म कृष्ण प्रत्येक वस्तु के परम आश्रय तथा उद्गम हैं। हर कार्य उन्हीं के द्वारा किया जाता है, हर वस्तु उन्हीं की है और हर वस्तु उन्हीं को अर्पित की जाती है। वे ही परम लक्ष्य हैं और चाहे वे स्वयं कार्य करते हों या अन्यों से कराते हों, वे परम कर्ता हैं। वैसे उच्च तथा निम्न अनेक कारण हैं, किन्तु समस्त कारणों के कारण होने से वे परब्रह्म कहलाते हैं, जो समस्त कार्यकलापों के पहले से विद्यमान थे। वे अद्वितीय हैं और उनका कोई अन्य कारण नहीं है। मैं उनको सादर प्रणाम करता हूँ।

31 मैं उन सर्वव्यापक भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जो अनन्त दिव्य गुणों से युक्त हैं। वे विभिन्न मतों का प्रसार करने वाले समस्त दर्शनिकों के हृदय के भीतर से कार्य करते हुए उनसे उनकी ही आत्मा को बुलवाते हैं, कभी उनमें परस्पर मतैक्य कराते हैं, तो कभी मत भिन्नता कराते हैं। इस तरह वे इस भौतिक जगत में ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसमें वे किसी भी दार्शनिक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

32 संसार में दो वर्ग हैं-आस्तिक तथा नास्तिक। परमात्मा को मानने वाला आस्तिक सम्पूर्ण योग में आध्यात्मिक कारण को पाता है। किन्तु भौतिक तत्त्वों का मात्र विश्लेषण करने वाला सांख्यधर्मी निर्विशेषवाद के निष्कर्ष को प्राप्त होता है और परम कारण को, चाहे वह भगवान हो, परमात्मा हो या ब्रह्म ही क्यों न हो, स्वीकार नहीं करता। उल्टे, वह भौतिक प्रकृति के व्यर्थ बाह्य कार्यों में व्यस्त रहता है। किन्तु अन्ततोगत्वा दोनों वर्ग एक परम सत्य की स्थापना करते हैं, क्योंकि विरोधी कथन करते हुए भी उनका लक्ष्य एक ही परम कारण होता है। वे दोनों ही जिस एक परब्रह्म के पास पहुँचते हैं उन्हें मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

33 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जो कि अचिन्त्य रूप से ऐश्वर्यवान हैं, जो सारे भौतिक नामों, रूपों तथा लीलाओं से रहित हैं तथा जो सर्वव्यापक हैं, उन भक्तों पर विशेष रूप से कृपालु रहते हैं, जो उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं। इस तरह वे विभिन्न लीलाओं सहित दिव्य रूपों तथा नामों को प्रकट करते हैं। ऐसे भगवान, जो सच्चिदानन्द विग्रह हैं, मुझ पर कृपालु हों।

34 जिस तरह वायु भौतिक तत्त्वों के विविध गुण यथा फूल की गन्ध या वायु में धूल के मिश्रण से उत्पन्न विभिन्न रंग अपने साथ ले जाती है, उसी तरह भगवान मनुष्य की इच्छाओं के अनुसार पूजा की निम्नतर प्रणालियों के माध्यम से प्रकट होते हैं, यद्यपि वे देवताओं के रूप में प्रकट होते हैं, अपने आदि रूप में नहीं। तो इन अन्य रूपों का क्या लाभ है? ऐसे आदि भगवान मेरी इच्छाएँ परिपूर्ण करें।

35-39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक स्नेहिल भगवान हरि, दक्ष द्वारा की गई स्तुतियों से अत्यधिक प्रसन्न हुए, अतः वे अघमर्षण नामक पवित्र स्थान पर प्रकट हुए। भगवान के चरणकमल उनके वाहन गरुड़ के कंधों पर रखे थे और वे अपनी आठ लम्बी बलिष्ठ अतीव सुन्दर भुजाओं सहित प्रकट हुए। अपने हाथों में वे चक्र, शंख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, रस्सी तथा गदा धारण किये थे – प्रत्येक हाथ में अलग-अलग हथियार थे और सब के सब चमचमा रहे थे। उनके वस्त्र पीले थे और उनके शरीर का रंग गहरा नीला था। उनकी आँखें तथा मुख अतीव मनोहर थे और उनके गले से लेकर पाँवों तक फूलों की लम्बी माला लटक रही थी। उनका वक्षस्थल कौस्तुभ मणि तथा श्रीवत्स चिन्ह से सुशोभित था। उनके सिर पर विशाल गोल मुकुट था और उनके कान मछलियों के सदृश कुण्डलों से सुशोभित थे। ये सारे आभूषण असाधारण रूप से सुन्दर थे। भगवान अपनी कमर में सोने की पेटी, बाहों में बीजावट, अँगुलियों में अँगूठियाँ तथा पाँवों में पायल पहने थे। इस तरह विविध आभूषणों से सुशोभित भगवान हरि, जो तीनों लोकों के जीवों को आकर्षित करने वाले हैं, पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उनके साथ नारद, नन्द जैसे महान भक्त तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र इत्यादि प्रमुख देवता एवं उच्चतर लोकों यथा सिद्धलोक, गन्धर्वलोक तथा चारणलोक के निवासी थे। भगवान के दोनों ओर तथा उनके पीछे भी स्थित ये भक्त निरन्तर उनकी स्तुतियाँ कर रहे थे।

40 भगवान के उस अद्भुत तथा तेजवान स्वरूप को देखकर प्रजापति दक्ष पहले से तो कुछ भयभीत हुए, किन्तु बाद में भगवान को देखकर अतीव प्रसन्न हुए और उन्हें नमस्कार करने के लिए भूमि पर दण्डवत गिर पड़े।

41 जिस तरह पर्वत से प्रवाहित होने वाले जल से नदियाँ भर जाती उसी तरह दक्ष की सारी इन्द्रियाँ प्रसन्नता से पूरित हो गई। अत्यधिक सुख के कारण दक्ष कुछ भी नहीं कह सके, अपितु भूमि पर पड़े रहे।

42 यद्यपि प्रजापति दक्ष कुछ भी नहीं कह सके, किन्तु हर एक के हृदय की बात जानने वाले भगवान ने जब अपने भक्त को इस प्रकार से नमित तथा जनसंख्या बढ़ाने की इच्छा से युक्त देखा तो उन्होंने उसे इस प्रकार से सम्बोधित किया।

43 भगवान ने कहा: हे परम भाग्यशाली प्राचेतस! तुमने मुझ पर अपनी महती श्रद्धा के कारण परम भक्तिमय भाव को प्राप्त किया है। निस्सन्देह, तुम्हारी महती भक्ति के साथ-साथ तुम्हारी तपस्या के कारण तुम्हारा जीवन अब सफल है। तुमने पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर ली है।

44 हे प्रजापति दक्ष! तुमने संसार के कल्याण तथा वृद्धि के लिए घोर तपस्या की है। मेरी भी यही इच्छा है कि इस जगत में हरेक प्राणी सुखी हो। इसलिए मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ, क्योंकि तुम सम्पूर्ण जगत के कल्याण की मेरी इच्छा को पूरी करने का प्रयत्न कर रहे हो।

45 ब्रह्मा, शिव, मनुगण, उच्च लोकों के अन्य सारे देवता तथा जनसंख्या बढ़ाने वाले तुम सारे प्रजापति सारे जीवों के लाभार्थ कार्य कर रहे हो। इस तरह मेरी तटस्था शक्ति के अंश रूप तुम सभी मेरे विभिन्न गुणों के अवतार हो।

46 हे ब्राह्मण! ध्यान रूप में तपस्या ही मेरा हृदय है, स्तुतियों तथा मंत्रों के रूप में वैदिक ज्ञान ही मेरा शरीर है और आध्यात्मिक कार्य तथा आनन्दानुभूतियाँ ही मेरा वास्तविक स्वरूप है। उचित रीति से सम्पन्न हुए कर्मकाण्ड तथा यज्ञ मेरे शरीर के विविध अंग हैं; पुण्य या आध्यात्मिक कार्यों से उत्पन्न सौभाग्य मेरा मन है और विविध विभागों में मेरे आदेशों को लागू करने वाले देवता मेरे जीवन तथा आत्मा हैं।

47 इस विराट जगत की सृष्टि के पूर्व अकेला मैं अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक शक्तियों के साथ विद्यमान था। तब चेतना प्रकट नहीं हुई थी, जिस तरह नींद के समय मनुष्य की चेतना अप्रकट रहती है।

48 मैं असीम शक्ति का आगार हूँ, इसलिए मैं अनन्त या सर्वव्यापक के नाम से प्रसिद्ध हूँ। मेरी भौतिक शक्ति से मेरे भीतर विराट जगत प्रकट हुआ और इस विराट जगत में मुख्य जीव ब्रह्मा प्रकट हुए जो तुम लोगों के स्रोत हैं और वे किसी भौतिक माता से नहीं जन्मे हैं।

49-50 जब ब्रह्माण्ड के मुख्य देवता ब्रह्मा (स्वयंभू) मेरी शक्ति के द्वारा प्रेरणा पाकर सृजन करने का प्रयास कर रहे थे तो उन्होंने अपने को असमर्थ पाया। इसलिए मैंने उन्हें सलाह दी और मेरे आदेशों के अनुसार उन्होंने कठिन तपस्या की। इस तपस्या के कारण सृजन के कार्यों में अपनी सहायता के लिए उन्होंने तुम समेत नौ महापुरुषों को उत्पन्न किया।

51 हे पुत्र दक्ष! प्रजापति के पञ्चजन की असिक्नी नामक पुत्री है, जिसे मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ जिससे तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर सको। अब पुरुष तथा स्त्री रूप में यौन जीवन में संयुक्त हो जाओ और तुम इस कन्या के गर्भ से जनसंख्या वृद्धि करने के लिए सैकड़ों सन्तानें उत्पन्न कर सकोगे।

52 जब तुम हजारों सन्तानों को जन्म दे चुकोगे, तो वे मेरी माया द्वारा मोहित की जाती रहेंगी और तुम्हारी ही तरह रति-सुख में संलग्न होंगी। किन्तु तुम पर और उन पर मेरी कृपा के कारण, वे भी मुझे भक्ति की भेंटें प्रदान कर सकेंगे।

53 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सृष्टा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि प्रजापति दक्ष के सामने इस तरह बोल चुके तो वे तुरन्त अन्तर्धान हो गए, मानो वे स्वप्न में अनुभव की गई कोई वस्तु रहे हों।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

 

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अध्याय तीन – यमराज द्वारा अपने दूतों को आदेश (6.3)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु, हे श्रील शुकदेव गोस्वामी! यमराज सारे जीवों के धार्मिक तथा अधार्मिक कार्यों के नियंत्रक हैं, लेकिन उनका आदेश व्यर्थ कर दिया गया है। जब उनके सेवकों अर्थात यमदूतों ने उनसे विष्णुदूतों द्वारा अपनी पराजय की जानकारी दी जिन्होंने उन्हें अजामिल को बन्दी बनाने से रोका था, तो यमराज ने क्या उत्तर दिया?

2 हे महर्षि! इसके पूर्व यह कहीं भी सुनाई नहीं पड़ा कि यमराज के आदेश का उल्लंघन हुआ हो। इसलिए मैं सोचता हूँ कि लोगों को इस पर सन्देह होगा जिसका उन्मूलन अन्य कोई नहीं, अपितु आप ही कर सकते हैं। चूँकि ऐसी मेरी दृढ़ धारणा है, इसलिए कृपा करके इन घटनाओं के कारणों की व्याख्या करें।

3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया-- हे राजन! जब यमराज के दूत विष्णुदूतों द्वारा चकरा दिये गये और पराजित कर दिये गये तो वे अपने स्वामी संयमनीपुरी के नियंत्रक तथा पापी पुरुषों के स्वामी यमराज के पास इस घटना को बताने पहुँचे।

4 यमदूतों ने कहा: हे प्रभु ! इस भौतिक जगत मे कितने नियंत्रक या शासक हैं? प्रकृति के तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के अधीन सम्पन्न कर्मों के विविध फलों को प्रकट करने के लिए कितने कारण उत्तरदायी हैं?

5 यदि इस ब्रह्माण्ड में अनेक शासक तथा न्यायकर्ता हैं, जो दण्ड तथा पुरस्कार के विषय में मतभेद रखते हों, तो उनके विरोधी कार्य एक दूसरे को प्रभावहीन कर देंगे और न तो कोई दण्डित होगा न पुरस्कृत होगा। अन्यथा, यदि उनके विरोधी कार्य एक दूसरे को प्रभावहीन नहीं कर पाते तो हर एक को दण्ड तथा पुरस्कार दोनों ही देने होंगे।

6 यमदूतों ने कहा: चूँकि कर्मी अनेक हैं, अतएव उनके न्याय करने वाले निर्णायक या शासक भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु जिस तरह एक केन्द्रीय सम्राट विभिन्न विभागीय शासकों को नियंत्रित करता है, उसी तरह सारे निर्णायकों के मार्गदर्शन हेतु एक परम नियन्ता होना चाहिए।

7 परम निर्णायक तो एक होना चाहिए, अनेक नहीं। हम तो यही समझते थे कि आप परम निर्णायक हैं और आपका देवताओं पर भी अधिकार है। हमारी यह धारणा थी कि आप सारे जीवों के स्वामी हैं, जो सारे मनुष्यों के शुभ तथा अशुभ कर्मों में भेदभाव करते हैं।

8 किन्तु अब हम देखते हैं कि आपके अधिकार के अन्तर्गत नियत किया हुआ दण्ड प्रभावी नहीं है, क्योंकि चार अद्भुत सिद्ध पुरुषों द्वारा आपके आदेश का उल्लंघन किया जा चुका है।

9 हम आपके आदेशानुसार महान पापी अजामिल को नरक की ओर ला रहे थे, तभी सिद्धलोक के उन सुन्दर पुरुषों ने बलपूर्वक उन रस्सियों की गाँठों को काट दिया जिनसे हम उसे बन्दी बनाये हुए थे।

10 ज्योंही पापी अजामिल ने नारायण नाम का उच्चारण किया, ये चारों सुन्दर व्यक्ति तुरन्त वहाँ आ गये और यह कहकर उसे पुनः आश्वस्त किया "डरो मत। मत डरो।" हम आपसे उनके विषय में जानना चाहते हैं। यदि आप सोचते हैं कि हम उनके विषय में जान सकते हैं, तो कृपा करके बताइये कि वे कौन हैं?

11 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार पूछे जाने पर जीवों के परम नियन्ता यमराज अपने दूतों से नारायण का पवित्र नाम सुनकर उन पर परम प्रसन्न हुए। उन्होंने भगवान के चरणकमलों का स्मरण किया और उत्तर देना शुरू किया।

12 यमराज ने कहा: मेरे प्रिय सेवकों! तुम लोगों ने मुझे सर्वोच्च स्वीकार किया है, किन्तु मैं वास्तव में हूँ नहीं। मेरे ऊपर तथा इन्द्र एवं चन्द्र समेत अन्य सारे देवताओं के ऊपर एक परम स्वामी तथा नियन्ता हैं। उनके आंशिक स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हैं, जो ब्रह्माण्ड के सृष्टि पालन एवं संहार के भार को सँभालते हैं। वे उन दो धागों के तुल्य हैं, जो बुने हुए वस्त्र की लम्बाई तथा चौड़ाई या ताने-बाने का निर्माण करते हैं। सम्पूर्ण जगत उनके द्वारा उसी तरह नियंत्रित होता है, जिस तरह एक बैल अपने नाक की रस्सी द्वारा नियंत्रित होता है।

13 जिस तरह बैलगाड़ी का चालक अपने बैलों को वश में करने के लिए उनके नथुनों से निकालकर रस्सियाँ (नाथ) बाँध देता है उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सारे व्यक्तियों को वेदों में कहे अपने वचनों रूपी रस्सियों (नाथ) के द्वारा बाँधते हैं, जो मानव समाज के विभिन्न वर्णों के नामों तथा कार्यों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) को निर्धारित करते हैं। इन वर्णों के लोग भयवश परम भगवान की पूजा अपने-अपने कर्मों के अनुसार भेंटें अर्पित करते हुए करते हैं।

14-15 मैं यमराज, स्वर्ग का राजा इन्द्र, निर्रिती, वरुण, चन्द्र, अग्नि, शिव, पवन, ब्रह्मा, सूर्य, विश्वासु, आठों वरुण, साध्यगण, मरुतगण, सिद्धगण, तथा मरीचि एवं अन्य ऋषिगण जो ब्रह्माण्ड के विभागीय कार्यकर्ताओं को चलाने में लगे रहते हैं, बृहस्पति इत्यादि सर्वोत्तम देवतागण तथा भृगु आदि मुनिगण– ये सभी प्रकृति के दो निम्न गुणों – रजो तथा तमोगुण के प्रभाव से निश्चित रूप से मुक्त होते हैं। फिर भी, यद्यपि हम सतोगुणी हैं, तो भी हम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कार्यों को नहीं समझ सकते। तो फिर दूसरों के विषय में क्या कहा जाये जो मोह के अधीन होने से ईश्वर को जानने के लिए केवल मानसिक ऊहापोह करते हों?

16 जिस तरह शरीर के विभिन्न अंग आँखों को नहीं देख सकते, उसी तरह सारे जीव परमेश्वर को नहीं देख सकते जो हर एक के हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित रहते हैं। न तो इन्द्रियों से, न मन से, न प्राणवायु से, न हृदय के अन्दर के विचारों से, न ही शब्दों की ध्वनि से जीवात्माएँ परमेश्वर की असली स्थिति को निश्चित कर सकते हैं।

17 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान आत्म-निर्भर तथा पूरी तरह स्वतंत्र हैं। वे माया समेत हर एक के स्वामी हैं। वे रूप, गुण तथा स्वभाव से युक्त हैं और इसी तरह उनके आदेशपालक, अर्थात वैष्णव, जो अत्यन्त सुन्दर होते हैं, उन्हीं जैसे ही शारीरिक स्वरूप दिव्य गुण तथा दिव्य स्वभाव से युक्त होते हैं। वे इस जगत में पूर्ण स्वतंत्रता के साथ सदैव विचरण करते हैं।

18 भगवान विष्णु के दूत, जिनकी पूजा देवता भी किया करते हैं, विष्णु जैसे ही अद्भुत शारीरिक लक्षणों से युक्त होते हैं और विरले ही दिखाई देते हैं। ये विष्णुदूत भगवदभक्तों की रक्षा उनके शत्रुओं, ईर्ष्यालु व्यक्तियों और मेरे अधिकार क्षेत्र के साथ ही साथ प्राकृतिक उत्पातों से भी करते हैं।

19 असली धार्मिक सिद्धान्तों का निर्माण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा किया जाता है। पूर्णतया सतोगुणी महान ऋषि तक भी, जो सर्वोच्च लोकों में स्थान पाये हुए हैं, वे भी असली धार्मिक सिद्धान्तों को सुनिश्चित नहीं कर सकते, न ही देवतागण, न सिद्धलोक के नायक ही कर सकते हैं, तो असुरों, सामान्य मनुष्यों, विद्याधरों तथा चारणों की कौन कहे?

20-21 ब्रह्माजी, महान सन्त नारद, शिवजी, चार कुमार, कपिल (देवहुति के पुत्र), स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद महाराज, जनक महाराज, भीष्म पितामह, बलि महाराज, श्रील शुकदेव गोस्वामी तथा मैं असली धर्म के सिद्धान्त को जानने वाले हैं। हे सेवकों! यह अलौकिक धार्मिक सिद्धान्त, जो भागवत धर्म या परम भगवान की शरणागति तथा भगवतप्रेम कहलाता है, प्रकृति के तीनों गुणों से अकलुषित है। यह अत्यन्त गोपनीय है और सामान्य मनुष्य के लिए दुर्बोध है, किन्तु संयोगवश यदि कोई भाग्यवान इसे समझ लेता है, तो वह तुरन्त मुक्त हो जाता है और इस तरह भगवदधाम लौट जाता है।

22 भगवान के नाम के कीर्तन से प्रारम्भ होने वाली भक्ति ही मानव समाज में जीव के लिए परम धार्मिक सिद्धान्त है।

23 हे मेरे पुत्रवत सेवकों! जरा देखो न, भगवननाम का कीर्तन कितना महिमायुक्त है! परम पापी अजामिल ने यह न जानते हुए कि वह भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण कर रहा है, केवल अपने पुत्र को पुकारने के लिए नारायण नाम का उच्चारण किया। फिर भी भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करने से उसने नारायण का स्मरण किया और इस तरह से वह तुरन्त मृत्यु के पाश से बचा लिया गया।

24 अतएव यह समझ लेना चाहिए कि मनुष्य भगवान के पवित्र नाम का और उनके गुणों तथा कार्यों का कीर्तन करने से समस्त पाप फलों से सरलता से छुटकारा पा जाता है। पापफलों से छुटकारा पाने के लिए इसी एकमात्र विधि की संस्तुति की जाती है। यदि कोई अशुद्ध उच्चारण द्वारा भी भगवान के नाम का कीर्तन करता है, तो उसे भवबन्धन से छुटकारा मिल जायेगा, किन्तु यदि वह अपराधरहित होकर कीर्तन करे। उदाहरणार्थ, अजामिल अत्यन्त पापी था, किन्तु मरते समय उसने पवित्र नाम का उच्चारण किया और यद्यपि वह अपने पुत्र को पुकार रहा था, किन्तु उसे पूर्ण मुक्ति प्राप्त हुई, क्योंकि उसने नारायण के नाम का स्मरण किया।

25 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की माया द्वारा मोहग्रस्त होने के कारण याज्ञवल्क्य, जैमिनी तथा अन्य शास्त्रप्रणेता भी बारह महाजनों की गुह्य धार्मिक प्रणाली को नहीं जान सकते। वे भक्ति करने या हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करने के दिव्य महत्त्व को नहीं समझ सकते। चूँकि उनके मन वेदों---विशेषतया यजुर्वेद, सामवेद तथा ऋग्वेद में उल्लिखित कर्मकाण्डों के प्रति आकृष्ट रहते हैं, इसलिए उनकी बुद्धि जड़ हो गई है। इस तरह वे उन कर्मकाण्डों के लिए सामग्री एकत्र करने में व्यस्त रहते हैं, जो केवल नश्वर लाभ देने वाले हैं – यथा भौतिक सुख के लिए स्वर्गलोक जाना। वे संकीर्तन आन्दोलन के प्रति आकृष्ट नहीं होते बल्कि वे धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में रुचि लेते हैं।

26 अतः इन सभी बातों पर विचार करते हुए बुद्धिमान लोग हर एक के हृदय में स्थित तथा समस्त शुभ गुणों की खान भगवान के पवित्र नाम के कीर्तन की भक्ति को अपनाकर सारी समस्याओं को हल करने का निर्णय करते हैं। ऐसे लोग दण्ड देने के मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं आते। सामान्यतया वे कभी कोई पापकर्म नहीं करते, किन्तु यदि वे भुलवश या मोहवश कभी कोई पापकर्म करते भी हैं, तो वे पापफलों से बचा लिए जाते हैं, क्योंकि वे सदैव हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करते हैं।

27 मेरे प्रिय सेवकों! ऐसे भक्तों के पास मत जाना, क्योंकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों में पूरी तरह शरणागत हो चुके होते हैं। वे समदर्शी होते हैं और उनकी गाथाएँ देवताओं तथा सिद्धलोक के निवासियों द्वारा गाई जाती हैं। तुम लोग उनके निकट भी मत जाना। वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की गदा द्वारा सदैव रक्षित रहते हैं, इसलिए ब्रह्मा तथा मैं और काल भी उन्हें दण्ड देने में समर्थ नहीं हैं।

28 परमहंस सम्माननीय पुरुष होते हैं, जिन्हें भौतिक भोग में कोई रुचि नहीं है तथा जो भगवान के चरणकमलों का मधु-पान करते हैं। मेरे सेवकों! मेरे पास ऐसे व्यक्तियों को ही दण्डित किए जाने के लिए लाओ जो उस मधु के आस्वादन से विमुख हैं, जो परमहंसों की संगति नहीं करते तथा जो गृहस्थ जीवन एवं सांसारिक भोग में लिप्त हैं, क्योंकि ये नरक ले जाने वाले रास्ते हैं।

29 हे मेरे प्यारे सेवकों! तुम लोग केवल उन्हीं पापी पुरुषों को मेरे पास लाना जिनकी जीभ कृष्ण के नाम तथा गुणों का कीर्तन नहीं करती, जिनके हृदय कृष्ण के चरणकमलों का एक बार भी स्मरण नहीं करते तथा जिनके सिर एक बार भी कृष्ण के समक्ष नहीं झुकते। मेरे पास उन लोगों को भेजना जो विष्णु के प्रति अपने उन कर्तव्यों को पूरा नहीं करते जो मानव-जीवन के एकमात्र कर्तव्य हैं। ऐसे सभी मूर्खों तथा धूर्तों को मेरे पास लाना।

30 [तब यमराज स्वयं को तथा अपने सेवकों को अपराधी मानते हुए, भगवान से क्षमायाचना करते हुए इस प्रकार बोले] हे प्रभु! मेरे सेवकों ने निश्चित रूप से अजामिल जैसे वैष्णव को बन्दी बनाकर महान अपराध किया है। हे नारायण, हे परम एवं पुरातन पुरुषोत्तम! आप हमें क्षमा कर दें। अपने अज्ञान के कारण हम अजामिल को आपके सेवक के रूप में नहीं पहचान सके और इस तरह हमने निश्चित रूप से महान अपराध किया है। अतएव हम हाथ जोड़कर आपसे क्षमा माँगते हैं। हे प्रभु! आप अत्यन्त दयालु हैं और सदगुणों से सदैव पूर्ण रहते हैं। कृपया हमें क्षमा कर दें। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

31 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! भगवननाम का कीर्तन बड़े से बड़े पापों के फलों को भी उन्मूलित करने में सक्षम है। इसलिए संकीर्तन आंदोलन का कीर्तन सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सबसे शुभ कार्य है। कृपया इसे समझने का प्रयास करें जिससे अन्य लोग इसे गम्भीरतापूर्वक ग्रहण कर सकें।

32 जो व्यक्ति भगवननाम का निरन्तर श्रवण तथा कीर्तन करता है और भगवान के कार्यों का श्रवण तथा कीर्तन करता है, वह बहुत ही आसानी से शुद्ध भक्ति पद को प्राप्त कर सकता है, जो उसके हृदय के मैल को शुद्ध करने वाला है। केवल व्रत रखने तथा वैदिक कर्मकाण्ड करने से ऐसी शुद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।

33 जो भक्तगण भगवान कृष्ण के चरणकमलों के मधु को सदैव चाटते रहते हैं, वे उन भौतिक कर्मों की तनिक भी चिन्ता नहीं करते जो प्रकृति के तीन गुणों के अधीन सम्पन्न किए जाते हैं और जो केवल दुःखदायी होते हैं। निस्सन्देह, भौतिक कर्मों में वापस आने के लिए भक्तगण कभी भी कृष्ण के चरणकमलों को नहीं छोड़ते। किन्तु अन्य लोग, जो भगवान के चरणकमलों की सेवा की उपेक्षा करने तथा कामेच्छाओं से विमोहित होने से वैदिक कर्मकाण्डों में लिप्त रहते हैं, कभी-कभी प्रायश्चित के कर्म करते हैं। फिर भी अपूर्णरूप से शुद्ध होने से वे पुनः-पुनः पापकर्मों में लौट आते हैं।

34 अपने स्वामी के मुख से भगवान की अद्वितीय महिमा तथा उनके नाम, यश तथा गुणों के विषय में सुनकर यमदूत आश्चर्यचकित रह गये। तब से, जैसे ही वे किसी भक्त को देखते हैं, तो वे उससे डरते हैं और उसकी ओर फिर से देखने का साहस नहीं करते।

35 जब कुम्भ के पुत्र अगस्त्य मुनि मलय पर्वत पर निवास कर रहे थे और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा कर रहे थे तो मैं उनके पास गया और उन्होंने मुझे यह गुह्य इतिहास बतलाया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय दो – विष्णुदूतों द्वारा अजामिल का उद्धार (6.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन! भगवान विष्णु के दूत नीति तथा तर्कशास्त्र में अति पटु होते हैं। यमदूतों के कथनों को सुनने के बाद उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया।

2 विष्णुदूतों ने कहा: हाय! यह कितना दुःखद है कि ऐसी सभा में जहाँ धर्म का पालन होना चाहिए, वहाँ अधर्म को लाया जा रहा है। दरअसल, धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करने के अधिकारीजन एक निष्पाप एवं अदण्डनीय व्यक्ति को व्यर्थ ही दण्ड दे रहे हैं।

3 राजा या सरकारी शासक को इतना सुयोग्य होना चाहिए कि वह स्नेह और प्रेम के साथ नागरिकों के पिता, पालक तथा संरक्षक के रूप में कार्य कर सके। उसे मानक शास्त्रों के अनुसार नागरिकों को अच्छी सलाह तथा आदेश देने चाहिए और हर एक के प्रति समभाव रखना चाहिए। यमराज ऐसा करता है, क्योंकि वह न्याय का परम स्वामी है और उसके पदचिन्हों पर चलने वाले भी वैसा ही करते हैं, किन्तु यदि ऐसे लोग दूषित हो जाय और निर्दोष तथा अबोध व्यक्ति को दण्डित करके पक्षपात प्रदर्शित करें तो फिर सारे नागरिक अपने भरण-पोषण तथा सुरक्षा के लिए शरण लेने हेतु कहाँ जायेंगे।

4 आम जनता समाज में नेता के उदाहरण का अनुगमन और उसके आचरण का अनुसरण करती है। नेता जो भी मानता है उसे आम जनता प्रमाण रूप में स्वीकार करती है।

5-6 सामान्य लोग ज्ञान में इतने उन्नत होते हैं कि धर्म तथा अधर्म में भेदभाव कर सकें। अबोध, अप्रबुद्ध नागरिक उस अज्ञानी पशु की तरह है, जो अपने स्वामी की गोद में सिर रखकर शान्तिपूर्वक सोता रहता है और श्रद्धापूर्वक अपने स्वामी द्वारा अपने संरक्षण पर विश्वास करता है। यदि नेता वास्तव में दयालु हो तथा जीव की श्रद्धा का भाजन बनने योग्य हो तो वह किसी मूर्ख व्यक्ति को किस तरह दण्ड दे सकता है या जान से मार सकता है, जिसने श्रद्धा तथा मैत्री में पूर्णतया आत्मसमर्पण कर दिया हो?

7 अजामिल पहले ही अपने सारे पापकर्मों के लिए प्रायश्चित कर चुका है। दरअसल, उसने न केवल एक जीवन में किये गए पापों का प्रायश्चित किया है, अपितु करोड़ों जीवनों में किये गए पापों के लिए किया है, क्योंकि उसने असहाय अवस्था में नारायण-नाम का उच्चारण किया है। यद्यपि उसने शुद्धरीति से यह उच्चारण नहीं किया, किन्तु उसने अपराधरहित उच्चारण किया है इसलिए अब वह पवित्र है और मोक्ष का पात्र है।

8 विष्णुदूतों ने आगे कहा: यहाँ तक कि पहले भी, खाते समय तथा अन्य अवसरों पर यह अजामिल अपने पुत्र को यह कहकर पुकारा करता, “प्रिय नारायण! यहाँ तो आओ।" यद्यपि वह अपने पुत्र का नाम पुकारता था, फिर भी वह ना, रा, य तथा ण इन चार अक्षरों का उच्चारण करता था। इस प्रकार केवल नारायण का नाम उच्चारण करने से उसने लाखों जन्मों के पापपूर्ण फलों के लिए पर्याप्त प्रायश्चित कर लिए हैं।

9-10 भगवान विष्णु के नाम का कीर्तन सोना या अन्य मूल्यवान वस्तुओं के चोर, शराबी, मित्र या सम्बन्धी के साथ विश्वासघात करने वाले, ब्राह्मण के हत्यारे अथवा अपने गुरु अथवा अन्य श्रेष्ठजन की पत्नी के साथ संसर्ग करने वाले के लिए प्रायश्चित की सर्वोत्तम विधि है। स्त्रियों, राजा या अपने पिता के हत्यारे, गौवों का वध करने वाले तथा अन्य सारे पापी लोगों के लिए भी प्रायश्चित की यही सर्वोत्तम विधि है। भगवान विष्णु के पवित्र नाम का केवल कीर्तन करने से ऐसे पापी व्यक्ति भगवान का ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं और वे इसीलिए विचार करते हैं कि, “इस व्यक्ति ने मेरे नाम का उच्चारण किया है, इसलिए मेरा कर्तव्य है कि उसे सुरक्षा प्रदान करूँ।"

11 वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करने अथवा प्रायश्चित करने से पापी लोग उस तरह से शुद्ध नहीं हो पाते जिस तरह एक बार भगवान हरि के पवित्र नाम का कीर्तन करने से शुद्ध बनते हैं। यद्यपि आनुष्ठानिक प्रायश्चित मनुष्य को पापफलों से मुक्त कर सकता है, किन्तु यह भक्ति को जागृत नहीं करता जिस तरह परम भगवान के नाम का कीर्तन मनुष्य को भगवान के यश, गुण, लक्षण, लीलाओं तथा साज-सामग्री का स्मरण कराता है।

12 धार्मिक शास्त्रों में संस्तुत किये गए प्रायश्चित के कर्मकाण्ड हृदय को पूरी तरह स्वच्छ बनाने में अपर्याप्त होते हैं, क्योंकि प्रायश्चित के बाद मनुष्य का मन पुनः भौतिक कर्मों की ओर दौड़ता है। फलस्वरूप, जो व्यक्ति भौतिक कार्यों के सकाम फलों से मुक्ति चाहता है, उसके लिए हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन या भगवान के नाम, यश तथा लीलाओं की महिमा का गायन प्रायश्चित की सबसे पूर्ण विधि के रूप में संस्तुत किया जाता है, क्योंकि ऐसे कीर्तन से मनुष्य के हृदय में संचित धूल स्वच्छ हो जाती है।

13 इस अजामिल ने मृत्यु के समय असहाय होकर तथा अत्यन्त जोर-जोर से भगवान नारायण के पवित्र नाम का उच्चारण किया है। एकमात्र उसी उच्चारण ने पूरे पापमय जीवन के फलों से उसे पहले ही मुक्त कर दिया है। इसलिए हे यमराज के सेवकों! तुम उसे नारकीय दशाओं में दण्ड देने के लिए अपने स्वामी के पास ले जाने का प्रयास मत करो।

14 जो व्यक्ति भगवननाम का कीर्तन करता है उसे तुरन्त अनगिनत पापों के फलों से मुक्त कर दिया जाता है। भले ही उसने यह कीर्तन अप्रत्यक्ष रूप में (कुछ अन्य संकेत करने के लिए), परिहास में, संगीतमय मनोरंजन के लिए अथवा उपेक्षा भाव से क्यों न किया हो। इसे शास्त्रों में पारंगत सभी विद्वान पण्डित स्वीकार करते हैं।

15 यदि कोई हरि नाम का उचार करता है और तभी किसी आकस्मिक दुर्भाग्य से यथा छत से गिरने, फिसलने या सड़क पर यात्रा करते समय हड्डी टूट जाने, सर्प द्वारा काटे जाने, पीड़ा तथा तेज ज्वर से आक्रान्त होने या हथियार से घायल होने से, मर जाता है, तो वह कितना ही पापी क्यों न हो नारकीय जीवन में प्रवेश करने से वह तुरन्त मुक्त कर दिया जाता है।

16 प्राधिकृत विज्ञ पण्डितों तथा महर्षियों ने बड़ी ही सावधानी के साथ यह पता लगाया है कि मनुष्य को भारी से भारी पापों का प्रायश्चित करने के लिए प्रायश्चित की भारी विधि का तथा हल्के पापों के प्रायश्चित के लिए हल्की विधि का प्रयोग करना चाहिए। किन्तु हरे-कृष्ण-कीर्तन सारे पापकर्मों के प्रभावों को, चाहे वे भारी हों या हल्के, नष्ट कर देता है।

17 यद्यपि तपस्या, दान व्रत तथा अन्य विधियों से पापमय जीवन के फलों का निरसन किया जा सकता है, किन्तु ये पुण्यकर्म किसी के हृदय की भौतिक इच्छाओं का उन्मूलन नहीं कर सकते। किन्तु यदि वह भगवान के चरणकमलों की सेवा करता है, तो वह तुरन्त ही ऐसे सारे कल्मषों से मुक्त कर दिया जाता है।

18 जिस तरह अग्नि सूखी घास को जला कर राख कर देती है, उसी तरह भगवननाम, चाहे वह जाने-अनजाने में उच्चारण किया गया हो, मनुष्य के पापकर्मों के सभी फलों को निश्चित रूप से जलाकर राख कर देता है।

19 यदि किसी दवा की प्रभावकारी शक्ति से अनजान व्यक्ति उस दवा को ग्रहण करता है या उसे बलपूर्वक खिलाई जाती है, तो वह दवा उस व्यक्ति के जाने बिना ही अपना कार्य करेगी, क्योंकि उसकी शक्ति रोगी की जानकारी पर निर्भर नहीं करती है। इसी तरह, भगवननाम के कीर्तन के महत्त्व को न जानते हुए भी यदि कोई व्यक्ति जाने या अनजाने में उसका कीर्तन करता है, तो वह कीर्तन अत्यन्त प्रभावकारी होगा।

20 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन! तर्क-वितर्कों द्वारा भक्ति के सिद्धान्तों का पूरी तरह से निर्णय कर चुकने के बाद विष्णु के दूतों ने अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ा दिया और उसे आसन्न मृत्यु से बचा लिया।

21 हे राजा परीक्षित! हे समस्त शत्रुओं के दमनकर्ता! जब यमराज के सेवकों ने विष्णुदूतों से उत्तर पा लिया, तो वे यमराज के पास गए और जो कुछ घटित हुआ था, सब कह सुनाया।

22 यमराज के सेवकों के फन्दे से छुड़ा दिये जाने पर ब्राह्मण अजामिल अब भय से मुक्त होकर होश में आया और तुरन्त ही उसने विष्णुदूतों के चरणकमलों पर शीश झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। वह उनकी उपस्थिति से अत्यन्त प्रसन्न था, क्योंकि उसने यमराज के दूतों के हाथों से, उन्हें अपना जीवन बचाते देखा था।

23 हे निष्पाप महाराज परीक्षित! पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णुदूतों ने देखा कि अजामिल कुछ कहना चाह रहा था, अतः वे सहसा उसके समक्ष से अन्तर्धान हो गए।

24-25 यमदूतों तथा विष्णुदूतों के बीच हुए वार्तालापों को सुनकर अजामिल उन धार्मिक सिद्धान्तों को समझ सका जो भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अधीन कार्य करते हैं। ये सिद्धान्त तीन वेदों में उल्लिखित हैं। वह उन दिव्य धार्मिक सिद्धान्तों को भी समझ सका जो भौतिक प्रकृति के गुणों से ऊपर हैं और जो जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के बीच के सम्बन्ध से सम्बन्धित हैं। इतना ही नहीं, अजामिल ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के नाम, यश, गुणों तथा लीलाओं के गुणगान को सुना। इस तरह वह पूरी तरह शुद्ध भक्त बन गया। तब उसे अपने विगत पापकर्मों का स्मरण हुआ और उसे अत्यधिक पछतावा हुआ कि उसने ये पाप क्यों किये।

26 अजामिल ने कहा: हाय! अपनी इन्द्रियों का दास बनकर मैं कितना अधम बन गया! मैं अपने सुयोग्य ब्राह्मण पद से नीचे गिर गया और मैंने एक गणिका के गर्भ से बच्चे उत्पन्न किये।

27 हाय! मुझे धिक्कार है। मैंने इतना पापपूर्ण कार्य किया है कि मैंने अपनी कुल-परम्परा को लज्जित किया है। दरअसल, मैंने शराब पीने वाली एक पतिता के साथ संसर्ग करने के लिए अपनी सती तथा सुन्दर युवा पत्नी को त्याग दिया है। धिक्कार है मुझे।

28 मेरे माता-पिता वृद्ध थे और उनकी देखरेख करने वाला कोई अन्य पुत्र या मित्र न था। चूँकि मैंने उनकी देखभाल नहीं की, अतएव उन्हें बहुत ही कष्ट में रहना पड़ा। हाय! एक निन्दनीय निम्न जाति के पुरुष की भाँति मैंने उस स्थिति में अकृतज्ञता- पूर्वक उन्हें छोड़ दिया।

29 अब यह स्पष्ट है कि ऐसे कर्मों के फलस्वरूप मुझ जैसे पापी व्यक्ति को उस नारकीय अवस्था में फेंक दिया जाना चाहिए जो धार्मिक सिद्धान्तों को तोड़ने वाले लोगों के निमित्त होती है और मुझे वहाँ घोर कष्ट सहने चाहिए।

30 क्या मैंने यह सपना देखा था या यह सच्चाई थी? मैंने भयावह पुरुषों को हाथ में रस्सी लिये मुझको बन्दी बनाने के लिए आते और मुझे दूर घसीटकर ले जाते हुए देखा। वे कहाँ चले गये हैं?

31 वे मुक्त तथा अति सुन्दर चार पुरुष कहाँ चले गये जिन्होंने मुझे बन्धन से मुक्त किया और मुझे नारकीय क्षेत्रों में घसीट कर ले जाये जाने से बचाया?

32 निश्चय ही मैं अति निन्दनीय तथा अभागा हूँ कि पापकर्मों के समुद्र में डूबा हुआ हूँ, किन्तु फिर भी अपने पूर्व आध्यात्मिक कर्मों के कारण मैं उन चार महापुरुषों का दर्शन कर सका जो मुझे बचाने आये थे। उनके आने से अब मैं अत्यधिक सुखी अनुभव करता हूँ।

33 यदि मैंने विगत में भक्ति न की होती तो मुझ मलिन वेश्यागामी को, जो मरणासन्न था किस तरह वैकुण्ठपति के पवित्र नाम का उच्चारण करने का अवसर मिल पाता? निश्चय ही ऐसा सम्भव न हो पाता।

34 अजामिल कहता रहा: मैं ऐसा निर्लज्ज हूँ जिसने अपनी ब्राह्मण संस्कृति की हत्या कर दी है। निस्सन्देह, मैं साक्षात पाप हूँ। भला मैं भगवान नारायण के पवित्रनाम के सर्वमंगलकारी कीर्तन की बराबरी में कहाँ ठहर सकता हूँ?

35 मैं ऐसा पापी व्यक्ति हूँ किन्तु अब मुझे यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मैं अपने मन, जीवन (प्राण) तथा इन्द्रियों को पूरी तरह से वश में करके भक्ति में अपने को लगाऊँगा जिससे मैं पुनः गहन अंधकार तथा भौतिक जीवन के अज्ञान में न गिरूँ।

36-37 शरीर से अपनी पहचान बनाने के कारण मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छाओं के अधीन होता है और इस तरह वह अपने को अनेक प्रकार के पवित्र तथा अपवित्र कार्यों में लगाता है। यही भौतिक बन्धन है। अब मैं अपने आप को उस भौतिक बन्धन से छुड़ाऊँगा जो स्त्री के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की मोहिनी शक्ति द्वारा उत्पन्न किया गया है। सर्वाधिक पतितात्मा होने से मैं माया का शिकार बना और उस नाचने वाले कुत्ते के समान बन गया जो स्त्री के हाथ के इशारे पर चलता है। अब मैं सारी कामेच्छाओं को त्याग दूँगा और इस मोह से अपने को मुक्त कर लूँगा। मैं दयालु एवं समस्त जीवों का शुभैषी मित्र बनूँगा तथा कृष्णभावनामृत में अपने को सदैव लीन रखूँगा।

38 चूँकि मैंने भक्तों की संगति में भगवान के पवित्र नाम का केवल कीर्तन किया है, इसलिए मेरा हृदय अब शुद्ध बन रहा है। इसलिए मैं अब पुनः भौतिक इन्द्रियतृप्ति के झूठे आकर्षणों का शिकार नहीं बनूँगा। चूँकि अब मैं परम सत्य में स्थित हो चुका हूँ, अतः अब इसके बाद मैं शरीर के साथ अपनी पहचान नहीं करूँगा। "मैं" तथा "मेरा" के मिथ्या विचारों को त्यागकर मैं अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों में स्थिर करूँगा।

39 भक्तों (विष्णुदूतों) की क्षण-भर की संगति के कारण अजामिल ने अपने मन को संकल्पपूर्वक भौतिक देहात्मबुद्धि से विलग कर लिया। इस तरह समस्त भौतिक आकर्षण से मुक्त हुआ वह तुरन्त हरद्वार के लिए चल पड़ा।

40 हरद्वार में अजामिल ने एक विष्णुमन्दिर में शरण ली जहाँ उसने भक्तियोग की विधि को सम्पन्न किया। उसने अपनी इन्द्रियों को वश में किया और अपने मन को पूरी तरह से भगवान की सेवा में लगा दिया।

41 अजामिल पूरी तरह से भक्ति में लग गया। इस तरह उसने इन्द्रियतृप्ति से अपने मन को विलग कर लिया और वह भगवान के स्वरूप का चिन्तन करने में पूरी तरह लीन हो गया।

42 जब ब्राह्मण अजामिल की बुद्धि तथा मन भगवान के स्वरूप पर स्थिर हो गये तो उसने पुनः उन चार दिव्य पुरुषों को अपने समक्ष देखा। वह समझ गया कि ये वही हैं, जिन्हें वह पहले देख चुका है, अतः उनके समक्ष उसने नतमस्तक होकर नमस्कार किया।

43 विष्णुदूतों का दर्शन करने के बाद अजामिल ने गंगानदी के तट पर हरद्वार में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया। उसे अपना आदि आध्यात्मिक शरीर पुनः मिल गया जो भगवान के पार्षद के लिए उपयुक्त था।

44 भगवान विष्णु के दूतों के साथ अजामिल सोने के बने हुए विमान पर सवार हुआ। वह आकाश मार्ग से जाते हुए सीधे लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के धाम गया।

45 अजामिल ब्राह्मण था जिसने कुसंगति के कारण सारी ब्राह्मण-संस्कृति तथा धार्मिक नियमों को त्याग दिया था। सर्वाधिक पतित होने से वह चोरी करता, शराब पीता तथा अन्य गर्हित कार्य करता था। उसने एक गणिका भी रख ली थी। इस तरह उसका यमराज के दूतों द्वारा नरक ले जाया जाना सुनिश्चित था, किन्तु नारायण के पवित्र नाम का लेशमात्र उच्चारण करने से ही तुरन्त उसे बचा लिया गया।

46 अतः जो व्यक्ति भवबन्धन से मुक्त होना चाहता है, उसे चाहिए कि उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के नाम, यश, रूप तथा लीलाओं के कीर्तन तथा गुणगान की विधि को अपनाएँ, जिनके चरणों पर सारे तीर्थस्थान स्थित हैं। अन्य साधनों से, यथा पवित्र पश्चाताप, ज्ञान, यौगिक ध्यान से उसे उचित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसी विधियों का पालन करने पर भी मनुष्य अपने मन को वश में न कर सकने के कारण पुनः सकाम कर्म करने लगता है, क्योंकि मन प्रकृति के निम्न गुणों से–यथा रजो तथा तमो गुणों से–संदूषित रहता है।

47-48 चूँकि इस अति गोपनीय ऐतिहासिक कथा में सारे पापफलों को नष्ट करने की शक्ति है, अतः जो भी इसे श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक सुनता है या सुनाता है, वह नरकभागी नहीं होता, चाहे उसे भौतिक शरीर मिला हो और चाहे वह कितना ही पापी क्यों न रहा हो। दरअसल, यमराज के आदेशों का पालन करने वाले यमदूत उसे आँख उठाकर देखने के लिए भी उसके पास नहीं जाते। अपना शरीर त्यागने के बाद वह भगवदधाम लौट जाता है जहाँ उसका सादर स्वागत किया जाता है और पूजा की जाती है।

49 अजामिल ने मृत्यु के समय कष्ट भोगते हुए भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण किया और यद्यपि उसका यह उच्चारण उसके पुत्र की ओर लक्षित था फिर भी वह भगवदधाम वापस गया। इसलिए यदि कोई श्रद्धापूर्वक तथा निरपराध भाव से भगवननाम का उच्चारण करता है, तो वह भगवान के पास लौटेगा इसमें सन्देह कहाँ है?

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय एक – अजामिल के जीवन का इतिहास (6.1)

1 महाराज परीक्षित ने कहा: हे प्रभु! हे श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप पहले ही (द्वितीय स्कन्ध में) मुक्ति-मार्ग (निवृत्ति मार्ग) का वर्णन कर चुके हैं। उस मार्ग का अनुसरण करने से मनुष्य निश्चित रूप से क्रमशः सर्वोच्च लोक अर्थात ब्रह्मलोक तक ऊपर उठ जाता है, जहाँ से वह ब्रह्मा के साथ-साथ आध्यात्मिक (वैकुण्ठ) जाता है। इस तरह भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।

2 हे मुनि श्रील शुकदेव गोस्वामी! जब तक जीव प्रकृति के भौतिक गुणों के संक्रमण से मुक्त नहीं हो लेता, वह विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त करता है जिनमें वह आनन्द या कष्ट पाता है और शरीर के अनुसार उसमें विविध अभिरुचियाँ होती हैं। इन अभिरुचियों का अनुसरण करने से वह प्रवृत्ति मार्ग से होकर गुजरता है, जिससे वह स्वर्गलोक तक ऊपर जा सकता है, जैसा कि आप पहले (तृतीय स्कन्ध में) वर्णन कर चुके हैं।

3 आपने नारकीय जीवन की उन विविध योनियों का भी वर्णन (पंचम स्कन्ध के अन्त में) किया है, जो पाप कार्यों से फलित हैं और आपने प्रथम मन्वन्तर का वर्णन (चतुर्थ स्कन्ध में) किया है, जिसकी अध्यक्षता ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु ने की थी।

4 हे प्रभु ! आपने राजा प्रियव्रत तथा राजा उत्तानपाद के कुलों तथा गुणों का वर्णन किया है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने इस भौतिक जगत की रचना विविध ब्रह्माण्डों, लोकों, ग्रहों तथा नक्षत्रों, विविध भूभागों, समुद्रों, नदियों, उद्यानों तथा वृक्षों से की जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं।

5 ये इस धरालोक, आकाश के प्रकाशपिण्डों तथा अधोलोकों में विभाजित हैं। आपने इन लोकों का तथा इनमें रहने वाले जीवों का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है। हे परम भाग्यशाली तथा ऐश्वर्यवान श्रील शुकदेव गोस्वामी! अब आप कृपा करके मुझे बतलायें कि मनुष्यों को किस तरह उन नारकीय स्थितियों में प्रवेश करने से बचाया जा सकता है जिनमें उन्हें भीषण यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया- हे राजन! यदि मनुष्य अपनी अगली मृत्यु के पूर्व इस जन्म में अपने मन, वचन तथा शरीर से किये गये पाप कर्मों का मनुसंहिता तथा अन्य धर्मशास्त्रों के विवरण के अनुसार समुचित प्रायश्चित द्वारा निराकरण नहीं कर लेता है, तो वह मृत्यु के बाद अवश्य ही नरकलोकों में प्रविष्ट होगा और भीषण कष्ट उठायेगा, जैसा कि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ।

8 अतः अगली मृत्यु आने के पूर्व, जब तक मनुष्य का शरीर पर्याप्त सशक्त है, उसे शास्त्रों के अनुसार प्रायश्चित की विधि तुरन्त अपनानी चाहिए अन्यथा समय की क्षति होगी और उसके पापों का फल बढ़ता जायेगा। जिस तरह एक कुशल वैद्य रोग का निदान और उपचार उसकी गम्भीरता के अनुसार करता है, उसी तरह मनुष्य को अपने पापों की गहनता के अनुसार प्रायश्चित करना चाहिए।

9 महाराज परीक्षित ने कहा: मनुष्य को जानना चाहिए कि पापकर्म उसके लिए हानिकर है, क्योंकि वह वस्तुतः यह देखता है कि अपराधी सरकार द्वारा दण्डित किया जाता है और सामान्य लोगों के द्वारा दुत्कारा जाता है और वह शास्त्रों तथा विद्वान पण्डितों से सुनता भी रहता है कि पापकर्म करने से मनुष्य अगले जीवन में नारकीय अवस्था में फेंक दिया जाता है। फिर भी ऐसा ज्ञान होते हुए मनुष्य को प्रायश्चित करने के बावजूद बारम्बार पाप करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अतः ऐसे प्रायश्चित का क्या महत्त्व?

10 कभी-कभी ऐसा व्यक्ति, जो पापकर्म न करने के प्रति अत्यधिक सतर्क रहता है पुनः पापमय जीवन के फेर में आ जाता है। इसलिए मैं बारम्बार पाप करने तथा प्रायश्चित करने की इस विधि को निरर्थक मानता हूँ। यह तो हाथी के स्नान करने जैसा है, क्योंकि हाथी पूर्ण स्नान करके अपने को स्वच्छ बनाता है, किन्तु स्थल पर वापस आते ही अपने सिर तथा शरीर पर धूल डाल लेता है।

11 वेदव्यास-पुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया- हे राजन, चूँकि अपवित्र कर्मों को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य से किये गये कर्म भी सकाम होते हैं, अतएव वे मनुष्य को सकाम कर्म करने की प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं दिला सकते। जो व्यक्ति अपने को प्रायश्चित के विधि-विधानों के अधीन बना लेते हैं, वे तनिक भी बुद्धिमान नहीं हैं। अपितु, वे सभी तमोगुण में होते हैं। जब तक मनुष्य तमोगुण से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक एक कर्म का दूसरे से निराकरण करने का प्रयास करना निरर्थक है, क्योंकि इससे मनुष्य की इच्छाओं का उन्मूलन नहीं होगा। इस तरह ऊपर से पवित्र लगने वाला व्यक्ति निस्सन्देह पाप पूर्ण कर्म करने के लिए उन्मुख होगा। अतएव असली प्रायश्चित तो पूर्ण ज्ञान अर्थात वेदान्त में प्रबुद्ध होना है, जिससे मनुष्य परम सत्य भगवान को समझता है।

12 हे राजन! यदि रुग्ण व्यक्ति वैद्य द्वारा बताया गया शुद्ध अदूषित अन्न खाता है, तो धीरे-धीरे अच्छा हो जाता है और तब रोग का संक्रमण उसे छु तक नहीं पाता। इसी तरह यदि कोई ज्ञान के विधि-विधानों का पालन करता है, तो वह धीरे-धीरे भौतिक कल्मष से मोक्ष की ओर प्रगति करता है।

13-14 मन को एकाग्र करने के लिए मनुष्य को ब्रह्मचर्य जीवन बिताना चाहिए और अधःपतित नहीं होना चाहिए। उसे इन्द्रिय-भोग को स्वेच्छा से त्यागने की तपस्या करना चाहिए, दान देना चाहिए, सत्यव्रती, स्वच्छ तथा अहिंसक होना चाहिए, विधि-विधानों का पालन करना चाहिए और नियमपूर्वक भगवननाम का कीर्तन करना चाहिए। इस तरह धार्मिक सिद्धान्तों को जानने वाला धीर तथा श्रद्धावान व्यक्ति अपने शरीर, वचन तथा मन से किये गये सारे पापों से अस्थायी रूप से शुद्ध हो जाता है। ये पाप बाँस के पेड़ के नीचे की लतरों की सूखी पत्तियों के समान हैं, जिन्हें अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, यद्यपि उनकी जड़ें अवसर पाते ही फिर से उगने के लिए शेष बची रहती है।

15 कोई विरला व्यक्ति ही, जिसने कृष्ण की पूर्ण शुद्ध भक्ति को स्वीकार कर लिया है, उन पापपूर्ण कार्यों के खरपतवार को समूल नष्ट कर सकता है जिनके पुनरुज्जीवित होने की कोई सम्भावना नहीं रहती। वह भक्तियोग सम्पन्न करके इसे कर सकता है, जिस तरह सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को तुरन्त उड़ा देता है।

16 हे राजन! यदि पापी व्यक्ति भगवान के प्रामाणिक भक्त की सेवा में लग जाता है और इस तरह यह सीख लेता है कि अपना जीवन किस तरह कृष्ण के चरणकमलों में समर्पित करना चाहिए तो वह पूर्णतया शुद्ध हो सकता है। तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा मेरे द्वारा पहले वर्णित प्रायश्चित के अन्य साधनों को सम्पन्न करने मात्र से वह पापी शुद्ध नहीं बन सकता।

17 सुशील तथा सर्वोत्तम गुणों से युक्त शुद्ध भक्तों के द्वारा पालन किया जाने वाला मार्ग निश्चय ही इस भौतिक जगत का सबसे मंगलमय मार्ग है। यह भय से रहित है और शास्त्रों द्वारा प्रमाणित है।

18 हे राजन! जिस तरह सुरा से सने हुए पात्र को अनेक नदियों के जल से धोने पर भी शुद्ध नहीं किया जा सकता, उसी तरह अभक्तों को प्रायश्चित की विधियों से शुद्ध नहीं बनाया जा सकता, भले ही वे उन्हें बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न क्यों न करें।

19 यद्यपि जिन पुरुषों ने कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार नहीं किया है, तो भी यदि एक बार भी उनके चरणकमलों की पूर्णरूपेण शरण ग्रहण कर ली है और जो उनके नाम, रूप, गुणों तथा लीलाओं से आकृष्ट हो चुके हैं, वे सारे पापकर्मों से पूर्णतया मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि इस तरह उन्होंने प्रायश्चित की सही विधि को स्वीकार किया है। ऐसे शरणागत व्यक्तियों को यमराज या उनके दूत, जो कि पापी को बाँधने के लिए रस्सियाँ लिए रहते हैं, स्वप्न में भी दिखाई नहीं पड़ते।

20 इस सम्बन्ध में विद्वान जन तथा सन्त पुरुष एक अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक घटना का वर्णन करते हैं जिसमें भगवान विष्णु तथा यमराज के दूतों के बीच संवाद हुआ था। कृपा करके इसे मुझसे सुनिये।

21 कान्यकुब्ज नामक नगर में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था, जिसने एक गणिका से विवाह करके उस निम्न श्रेणी की स्त्री की संगति के कारण अपने सारे ब्राह्मण-गुण खो दिये।

22 यह पतित ब्राह्मण अजामिल अन्यों को बन्दी बनाकर उन्हें जूएँ में धोखा देकर या सीधे उन्हें लूटकर कष्ट पहुँचाता था। इस तरह से वह अपनी जीविका चलाता था और अपनी पत्नी तथा बच्चों का भरण-पोषण करता था।

23 हे राजन! इस तरह अनेक पुत्रों वाले अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए घृणास्पद पापपूर्ण कार्यों में अपना जीवन बिताते हुए उसके जीवन के अट्ठासी वर्ष बीत गये।

24 उस वृद्ध अजामिल के दस पुत्र थे, जिनमें से सबसे छोटे का नाम नारायण था। चूँकि नारायण सबसे छोटा था, अतः स्वाभाविक है कि वह अपने पिता तथा माता दोनों का ही अत्यन्त लाड़ला था।

25 बालक की तोतली भाषा तथा लड़खड़ाती चाल से वृद्ध अजामिल उसके प्रति अत्यधिक अनुरक्त था। वह उस बालक की देखरेख करता तथा उसकी क्रीड़ाओं का आनन्द लेता।

26 जब अजामिल भोजन करता तो वह बालक को खाने के लिए पुकारता और जब वह कुछ पीता तो उसे भी पीने के लिए बुलाता। उस बालक की देखरेख करने तथा उसका नाम पुकारने में सदा लगा रहकर अजामिल यह न समझ पाया कि उसका समय अब समाप्त हो चुका है और मृत्यु उसके सिर पर है।

27 जब मूर्ख अजामिल की मृत्यु का समय आ गया तो वह एकमात्र अपने पुत्र नारायण के विषय में सोचने लगा।

28-29 तब अजामिल ने तीन भयावह व्यक्तियों को देखा जिनके शरीर वक्र, भयानक और मुख टेढ़े थे तथा शरीर पर रोम खड़े हुए थे। वे अपने हाथों में रस्सियाँ लिए हुए उसे यमराज के धाम ले जाने के लिए आये थे। जब उसने उन्हें देखा तो वह अत्यधिक विमोहित था और कुछ दूर पर खेल रहे अपने बच्चे के प्रति आसक्ति के कारण अजामिल उसका नाम लेकर जोर-जोर से पुकारने लगा। इस तरह अपनी आँखों में आँसू भरे हुए किसी तरह से उसने नारायण के पवित्र नाम का उच्चारण किया।

30 हे राजन! जब विष्णुदूतों ने मरणासन्न अजामिल के मुख से अपनी स्वामी के पवित्र नाम को सुना, जिसने निश्चित ही पूर्ण उद्विग्नता में निरपराध भाव से उच्चारण किया था, तो वे तुरन्त वहाँ आ गये।

31 यमराज के दूत अजामिल के हृदय के भीतर से आत्मा को खींच रहे थे, किन्तु भगवान विष्णु के दूतों ने गूँजती वाणी में उन्हें ऐसा करने से मना किया।

32 जब सूर्य के पुत्र यमराज के दूतों को इस प्रकार मना किया गया तो उन्होंने कहा, “महाशय"! आप कौन हैं जिन्होंने यमराज के अधिकार-क्षेत्र को ललकारने की धृष्टता की है?

33 महाशयों! तुम किसके सेवक हो, कहाँ से आये हो और अजामिल का शरीर छूने से हमें क्यों मना कर रहे हो? क्या तुम लोग स्वर्गलोक के देवता हो, उपदेवता हो या कि सर्वश्रेष्ठ भक्तों में से कोई हो?

34-36 यमदूतों ने कहा: आप सभी की आँखें कमल के फूल की पंखड़ियों के समान हैं। पीला रेशमी वस्त्र पहने, कमल की मालाओं से सुसज्जित तथा अपने सिरों में अत्यन्त आकर्षक मुकुट पहने एवं अपने कानों में कुण्डल धारण किए तुम सभी नवयौवन से पूर्ण प्रतीत हो रहे हो। आप सभी की चार लम्बी भुजाएँ धनुष तथा तरकस, तलवार, गदा, शंख, चक्र तथा कमल के फूलों से अलंकृत हैं। आपके तेज ने इस स्थान के अंधकार को अपने असामान्य प्रकाश से भगा दिया है। तो महोदय आप हमें क्यों रोक रहे हैं?

37 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: यमराज के दूतों द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर वासुदेव के सेवक मुसकाये और उन्होंने गर्जना करते हुए बादलों की ध्वनि जैसी गम्भीर वाणी में निम्नलिखित शब्द कहे।

38 अहोभाग्य विष्णुदूतों ने कहा: यदि तुम लोग सचमुच ही यमराज के सेवक हो तो तुम्हें हमसे धार्मिक सिद्धान्तों के अर्थ तथा अधर्म के लक्षणों की व्याख्या करनी चाहिए।

39 दूसरों को दण्ड देने की विधि क्या है? दण्ड के वास्तविक पात्र कौन हैं? क्या सकाम कर्मों में लगे सारे कर्मी दण्डनीय हैं या उनमें से केवल कुछ ही हैं?

40 यमदूतों ने उत्तर दिया- जो वेदों द्वारा संस्तुत है, वही धर्म है और इसका विलोम अधर्म है। वेद साक्षात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, नारायण है और स्वयं उत्पन्न हुए हैं। हमने यमराज से यह सुना है।

41 समस्त कारणों के परम कारण रूप नारायण आध्यात्मिक जगत में अपने धाम में स्थित हैं तथापि वे भौतिक प्रकृति के तीन गुणों--सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण--के अनुसार सम्पूर्ण विराट जगत का नियंत्रण करते हैं। इस तरह विभिन्न जीवों को भिन्न-भिन्न गुण, नाम (यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य), वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कार्य तथा रूप प्रदान किये जाते हैं। नारायण सम्पूर्ण विराट जगत के कारणस्वरूप हैं।

42 सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, देवगण, चन्द्रमा, संध्या, दिन, रात, दिशाएँ, जल, स्थल तथा स्वयं परमात्मा – ये सभी जीव के कार्यों के साक्षी हैं।

43 दण्ड के पात्र वे हैं जिसकी पुष्टि इन अनेक साक्षियों ने की है कि वे निर्दिष्ट नियमित कार्यों से विचलित हुए हैं। सकाम कर्मों में लगा हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपने पापकर्मों के अनुसार दण्ड दिये जाने के लिए उपयुक्त होता है।

44 हे वैकुण्ठवासियों! तुम लोग निष्पाप हो, किन्तु इस भौतिक जगत के भीतर रहने वाले सारे वासी कर्मी हैं, चाहे वे शुभ कर्म कर रहे हों या अशुभ। ये दोनों प्रकार के कर्म उनके लिए सम्भव हैं, क्योंकि वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा कलुषित रहते हैं और उन्हें तदनुसार कर्म करना पड़ता है। जिसने भी भौतिक शरीर अपनाया है, वह निष्क्रिय नहीं हो सकता और प्रकृति के तीन गुणों के अधीन कर्म करनेवाले के लिए पापकर्म से बच पाना असम्भव है। इसलिए इस जगत के सारे जीव दण्डनीय हैं।

45 इस जीवन में अपने धार्मिक या अधार्मिक कार्यों की मात्रा के अनुपात में मनुष्य अगले जीवन में अपने कर्म के अनुरूप फलों का भोग करता है या कष्ट उठाता है।

46 हे देवश्रेष्ठों! हम विभिन्न प्रकार के तीन जीवन देखते हैं, जो प्रकृति के तीन गुणों के कल्मष के कारण हैं। इस तरह जीव शान्त, अशान्त तथा मूर्ख, सुखी, दु;खी या इन दोनों के बीच, तथा धार्मिक, अधार्मिक या अर्धधार्मिक जाने जाते हैं। हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अगले जीवन में ये तीन प्रकार की प्रकृतियाँ इसी प्रकार से कर्म करेंगी।

47 जिस तरह वर्तमान वसन्त काल भूत तथा भविष्य काल के वसन्त कालों को सूचित करता है, उसी तरह सुख, दुःख या दोनों से मिश्रित यह जीवन मनुष्य के भूत तथा भावी जीवनों के धार्मिक तथा अधार्मिक कार्यों के विषय में साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

48 सर्वशक्तिमान यमराज ब्रह्माजी के ही समान हैं, क्योंकि जब वे अपने निजी धाम या परमात्मा की भाँति हर एक के हृदय में स्थित होते हैं, वे मन के द्वारा जीव के विगत कार्यों का अवलोकन करते हैं और यह समझ जाते हैं कि जीव अगले जीवन में किस तरह कर्म करेगा।

49 जिस तरह सोया हुआ व्यक्ति अपने स्वप्न में प्रकट हुए शरीर के अनुसार कार्य करता है और उसे स्वयं मान लेता है उसी तरह मनुष्य अपने वर्तमान शरीर से अपनी पहचान बनाता है, जिसे उसने अपने विगत धार्मिक या अधार्मिक कार्यों के कारण प्राप्त किया है और वह अपने विगत या भावी जीवनों को जान पाने में असमर्थ रहता है।

50 पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच इन्द्रियविषयों के ऊपर मन होता है, जो सोलहवाँ तत्त्व है। मन के ऊपर सत्रहवाँ तत्त्व आत्मा स्वयं जीव है, जो अन्य सोलह के सहयोग से अकेले भौतिक जगत का भोग करता है। जीव तीन प्रकार की स्थितियों का भोग करता है, यथा सुख, दुःख तथा मिश्रित सुख-दुःख।

51 सूक्ष्म शरीर सोलह अंगों से समन्वित होता है-- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियतृप्ति के विषय तथा मन। यह सूक्ष्म शरीर प्रकृति के तीनों गुणों का प्रभाव है। यह दुर्लंघ्य प्रबल इच्छाओं से बना हुआ है, अतएव यह जीव को मनुष्य-जीवन, पशु-जीवन तथा देवता-जीवन में एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण कराता है। जब जीव को देवता का शरीर प्राप्त होता है, तो वह निश्चित रूप से हर्षित होता है और जब उसे मनुष्य शरीर प्राप्त होता है, तो वह शोक करता है और जब उसे पशु-शरीर मिलता है, तो वह सदैव भयभीत रहता है। किन्तु सभी स्थितियों में वह वस्तुत: दुखी रहता है। उसकी यह दु;खित अवस्था संसृति या भौतिक जीवन में देहान्तरण कहलाती है।

52 अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में करने में अक्षम मूर्ख देहधारी जीव अपनी इच्छाओं के विरुद्ध प्रकृति के गुणों के प्रभाव के अनुसार कर्म करने के लिए बाध्य होता है। वह उस रेशम के कीड़े के समान है, जो अपनी लार का प्रयोग बाह्य कोश बनाने के लिए करता है और फिर उसी में बँध जाता है, जिसमें से बाहर निकल पाने की कोई सम्भावना नहीं रहती। जीव अपने ही सकाम कर्मों के जाल में अपने को बन्दी कर लेता है और तब अपने को छुड़ाने का कोई उपाय नहीं ढूँढ पाता। इस तरह वह सदैव मोहग्रस्त रहता है और बारम्बार मरता रहता है।

53 एक भी जीव बिना कार्य किये क्षणभर भी नहीं रह सकता। उसे प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा कर्म करना ही पड़ता है, क्योंकि यह स्वाभाविक प्रवृत्ति उसे एक विशेष ढंग से कार्य करने के लिए बाध्य करती है।

54 सजीव प्राणी जो भी सकाम कर्म करता है, वे चाहे पवित्र हों या अपवित्र, वे उसकी इच्छाओं की पूर्ति के अदृश्य कारण होते हैं। यह अदृश्य कारण ही जीव के विभिन्न शरीरों की जड़ है। जीव अपनी उत्कट इच्छा के कारण किसी विशेष परिवार में जन्म लेता है और ऐसा शरीर प्राप्त करता है, जो या तो उसकी या उसके पिता माता जैसा होता है। स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर उसकी इच्छा के अनुसार उत्पन्न होते हैं।

55 चूँकि जीव की संगति भौतिक प्रकृति से रहती है, अतएव वह बड़ी विषम स्थिति में होता है, किन्तु यदि उसे मनुष्य जीवन में यह शिक्षा दी जाती है कि किस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान या उनके भक्त की संगति की जाये तो इस स्थिति पर काबू पाया जा सकता है।

56-57 प्रारम्भ में अजामिल नामक उस ब्राह्मण ने सारे वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन किया था। वह अच्छे चरित्र, अच्छे चाल-चलन तथा अच्छे गुणों का आगार था। वह सारे वैदिक आदेशों को सम्पन्न करने में दृढ़ था, वह अत्यन्त मृदु तथा सुशील था और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता था। यही नहीं, वह सदा सच बोलता था, वह वैदिक मंत्रों का उच्चारण करना जानता था तथा अत्यन्त शुद्ध भी था। अजामिल अपने गुरु, अग्निदेव, अतिथियों तथा घर के वृद्धजनों का अतीव आदर करता था। निस्सन्देह वह झूठी प्रतिष्ठा से मुक्त था। वह सरल, सभी जीवों के प्रति उपकार करने वाला तथा शिष्ट था। वह न तो व्यर्थ की बातें करता था, न किसी से ईर्ष्या करता था।

58-60 एक बार यह ब्राह्मण अजामिल अपने पिता का आदेश पालन करते हुए जंगल से फल, फूल तथा समित और कुश नामक दो प्रकार की घासें लाने जंगल गया। घर वापस आते समय उसे एक अत्यन्त कामुक चतुर्थ वर्ण का शूद्र व्यक्ति मिला जो निर्लज्ज होकर एक गणिका (वेश्या) का आलिंगन कर रहा था।

61 यह शूद्र हल्दी के चूर्ण से अपनी बाहें चमकाए हुए था और इस तरह हँसते, गाते हुए आनन्द ले रहा था मानो यही उचित आचरण हो। वे दोनों सुरापान किये हुए थे। उनकी आँखें नशे से घूम रही थीं और उसके वस्त्र शिथिल पड़ गये थे। अजामिल ने उन्हें ऐसी दशा में देखा तो उसके हृदय में सुप्त कामेच्छाएँ जागृत हो उठीं और वह सम्मोहित होकर उनके वश में हो लिया।

62 अजामिल ने धैर्यपूर्वक स्त्री को न देखने के शास्त्रों के आदेश स्मरण करते हुए इस ज्ञान तथा अपनी बुद्धि के बल पर अपनी कामेच्छाओं को वश में करने का यथासम्भव प्रयास किया, किन्तु वह अपने मन को वश में न कर सका।

63 जिस तरह सूर्य तथा चन्द्रमा एक क्षुद्र ग्रह द्वारा ग्रसित हो जाते हैं, उसी तरह उस ब्राह्मण ने अपना सारा उत्तम ज्ञान खो दिया और थोड़े समय बाद ही उसने उसे अपने घर में नौकरनी के रूप में रख लिया तथा ब्राह्मण के सारे अनुष्ठानों का परित्याग कर दिया।

64-65 इस तरह अजामिल अपने पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त जो भी धन था, विविध उपहारों द्वारा उसे तुष्ट करने में खर्च करने लगा जिससे वह उससे प्रसन्न बनी रहे। उसने अपनी अति सुन्दर तरुण पत्नी तक का साथ छोड़ दिया जो अति सम्मानित ब्राह्मण कुल से आई थी।

66 यद्यपि वह ब्राह्मण कुल में उत्पन्न था, किन्तु विषयी स्त्री की संगति के कारण बुद्धि से विहीन उस धूर्त ने जैसे-तैसे करके धन कमाया चाहे वह उचित रीति से हो या अनुचित रीति से और उससे उत्पन्न पुत्रों तथा पौत्रियों के भरण-पोषण में लगाया।

67 इस ब्राह्मण ने पवित्र शास्त्रों के विधि-विधानों का उल्लंघन करके तथा उसके द्वारा बनाया भोजन करने में बड़े ही अनुत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से अपनी दीर्घ आयु बिताई। इस प्रकार अजामिल उसकी संगति में पापकर्म करने लगा, अतः वह पापों से पूर्ण है, अस्वच्छ है और निषिद्ध कर्मों में लिप्त रहता है।

68 इस अजामिल ने कोई प्रायश्चित नहीं किया। अतः उसके पापी जीवन के कारण हम इसे दण्ड देने के लिए यमराज के समक्ष ले जायेंगे। वहाँ यह अपने पापकर्मों की मात्रा के अनुसार दण्डित होगा और इस तरह शुद्ध बनाया जाएगा।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय छब्बीस – नारकीय लोकों का वर्णन (5.26) 

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे महाशय, जीवात्माओं को विभिन्न भौतिक गतियाँ क्यों प्राप्त होती हैं? कृपा करके मुझसे कहें।

2 महामुनि श्रील शुकदेव बोले- हे राजन, इस जगत में सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में स्थित तीन प्रकार के कर्म होते हैं। चूँकि सभी मनुष्य इन तीन गुणों से प्रभावित होते हैं, अतः कर्मों के फल भी तीन प्रकार के होते हैं। जो सतोगुण के अनुसार कर्म करता है, वह धार्मिक एवं सुखी होता है, जो रजोगुण में कर्म करता है उसे कष्ट तथा सुख के मिश्रित रूप में फल प्राप्त होते हैं और जो तमोगुण के वश में कर्म करता है, वह सदैव दुखी रहता है और पशुतुल्य जीवन बिताता है। विभिन्न गुणों से भिन्न-भिन्न मात्रा में प्रभावित होने के कारण जीवात्माओं को विभिन्न गतियाँ प्राप्त होती हैं।

3 जिस प्रकार पवित्र कर्म करने से स्वर्गिक जीवन में विभिन्न गतियाँ प्राप्त होती हैं उसी प्रकार दुष्कर्म करने से नारकीय जीवन में विभिन्न गतियाँ प्राप्त होती हैं। जो तमोगुण से प्रेरित होने वाले दुष्कर्मों में प्रवृत्त होते हैं अपनी अज्ञानता की कोटि के अनुसार नारकीय जीवन में विभिन्न कोटियों में रखे जाते हैं। यदि कोई पागलपन के कारण तमोगुण में कार्य करता है, तो उसे सबसे कम कष्ट भोगना पड़ता है। जो दुष्कर्म करता है, किन्तु पवित्र और अपवित्र कर्मों का अन्तर समझता है, उसे मध्यम कष्टकारक नरक में स्थान मिलता है। किन्तु जो नास्तिकतावश बिना समझे-बुझे दुष्कर्म करता है उसे निकृष्ट नारकीय जीवन बिताना पड़ता है। अनादिकाल से अज्ञानतावश प्रत्येक जीव अनेकानेक कामनाओं के कारण हजारों प्रकार के नरक लोकों में ले जाया जाता रहा है। मैं यथासम्भव उनका वर्णन करने का यत्न करूँगा।

4 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- भगवान, क्या ये नरक ब्रह्माण्ड के बाहर, इसके भीतर या इसी लोक में भिन्न-भिन्न स्थानों पर हैं?

5 महर्षि श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया – सभी नरकलोक तीनों लोकों तथा गर्भोदक सागर के मध्य में स्थित हैं। वे ब्रह्माण्ड के दक्षिण की ओर भूमण्डल के नीचे तथा गर्भोदक सागर के जल से थोड़ा ऊपर स्थित हैं। पितृलोक भी इसी गर्भोदक सागर तथा अध-लोकों के मध्य के प्रदेश में स्थित है, जिसमें अग्निष्वात्ता आदि पितृलोक के वासी परम समाधि में लीन होकर भगवान का ध्यान करते हैं और सदैव अपने गोत्र (परिवारों) की मंगल-कामना करते हैं।

6 पितरों के राजा यमराज हैं जो सूर्यदेव के अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र हैं। वह अपने गणों सहित पितृलोक में रहते हैं और भगवान द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करते हुए यमदूत समस्त पापियों को मृत्यु के पश्चात उनके पास ले आते हैं। अपने कार्यक्षेत्र में लाए जाने के पश्चात उनके विशेष पापकर्मों के अनुसार यमराज अपना निर्णय देकर उनको समुचित दण्ड हेतु अनेक नरकों में से किसी एक में भेज देते हैं।

7 कुछ विद्वान नरक लोकों की कुल संख्या इक्कीस बताते हैं, तो कुछ अट्ठाईस। हे राजन, मैं क्रमश: उनके नाम, रूप तथा लक्षणों का वर्णन करूँगा। विभिन्न नरकों के नाम ये हैं – तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मी, वज्रकंटक-शाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अयःपान, क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दंदशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन तथा सूचीमुख। ये सभी लोक जीवात्माओं को दण्डित करने के लिए हैं।

8 हे राजन, जो पुरुष दूसरों की वैध पत्नी, सन्तान या धन का अपहरण करता है, उसे मृत्यु के समय क्रूर यमदूत काल के रस्सों में बाँधकर बलपूर्वक तामिस्र नामक नरक में डाल देते हैं। इस अंधकारपूर्ण लोक में यमदूत पापी पुरुषों को डाँटते, मारते, पीटते और प्रताड़ित करते हैं। उसे भूखा रखा जाता है और पीने को पानी भी नहीं दिया जाता है। इस प्रकार यमराज के क्रुद्ध दूत उसे कठोर यातना देते हैं और वह इस यातना से कभी-कभी मूर्छित हो जाता है।

9 जो व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को धोखा देकर उसकी पत्नी तथा सन्तान को भोगता है वह अन्धतामिस्र नामक नरक में स्थान पाता है। वहाँ पर उसकी स्थिति जड़ से काटे गए वृक्ष जैसी होती है। अन्धतामिस्र में पहुँचने के पूर्व ही पापी जीव को अनेक कठिन यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। ये यातनाएँ इतनी कठोर होती हैं की वह बुद्धि तथा दृष्टि दोनों को खो बैठता है। इसी कारण से बुद्धिमान जन इस नरक को अन्धतामिस्र कहते हैं।

10 ऐसा व्यक्ति जो अपने शरीर को "स्व" मान लेता है अपने शरीर तथा अपनी पत्नी और पुत्रों के पालन के लिए धन कमाने के लिए अहर्निश कठोर श्रम करता है। ऐसा करने में वह अन्य जीवात्माओं के प्रति हिंसा कर सकता है। ऐसे पुरुष को मृत्यु के समय अपनी तथा अपने परिवार की देहों को त्यागना पड़ता है और अन्य प्राणियों के प्रति की गई ईर्ष्या का कर्मफल यह मिलता है कि उसे रौरव नामक नरक में फेंक दिया जाता है।

11 इस जीवन में ईर्ष्यालु व्यक्ति अनेक जीवात्माओं के प्रति हिंसक कृत्य करता है। अतः मृत्यु के पश्चात यमराज द्वारा नरक ले जाये जाने पर जो जीवात्माएँ उसके द्वारा पीड़ित की गई थीं वे रूरु नामक जानवर के रूप में प्रकट होकर उसे असह्य पीड़ा पहुँचाते हैं। विद्वान लोग इसे ही रौरव नरक कहते हैं। रूरु सर्प से भी अधिक ईर्ष्यालु होता है और प्रायः इस संसार में दिखाई नहीं पड़ता है।

12 जो व्यक्ति अन्यों को पीड़ा पहुँचाकर अपने ही शरीर का पालन करता है उसे दण्डस्वरूप महारौरव नामक नरक दिये जाने को अनिवार्य कहा गया है। इस नरक में क्रव्याद नामक रूरु पशु उसको सताते और उसका मांस खाते हैं।

13 क्रूर व्यक्ति अपने शरीर के पालन तथा अपनी जीभ की स्वाद पूर्ति के लिए निरीह जीवित पशुओं तथा पक्षियों को पका खाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की मनुजाद (मनुष्य-भक्षक) भी भर्त्सना करते हैं। अगले जन्मों में वे यमदूतों के द्वारा कुम्भीपाक नरक में ले जाये जाते हैं, जहाँ उन्हें उबलते तेल में भून डाला जाता है।

14 ब्राह्मण-हन्ता को कालसूत्र नामक नरक में रखा जाता है, जिसकी परिधि अस्सी हजार मील की है और जो पूरे का पूरा ताम्बे से बना है। इस लोक की ताम्र-सतह ऊपर से तपते सूर्य द्वारा और नीचे से अग्नि द्वारा तप्त होने से अत्यधिक गरम रहती है। इस प्रकार ब्राह्मण का वध करने वाला भीतर और बाहर से जलाया जाता है। भीतर-भीतर वह भूख-प्यास से और बाहर से झुलसा देने वाले सूर्य तथा ताम्र की सतह के नीचे की अग्नि से झुलसता रहता है। अतः वह कभी लेटता है, कभी बैठता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर-उधर दौड़ता है। इस प्रकार वह उतने हजारों वर्षों तक यातना सहता रहता है जितने कि पशु-शरीर में रोमों की संख्या होती है।

15 यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विपत्ति न होने पर भी वैदिक पथ से हटता है, तो यमराज के दूत उसे असिपत्रवन नामक नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं। जब वह अत्यधिक पीड़ा के कारण इधर-उधर दौड़ता है, तो उसे अपने चारों ओर तलवार के समान तीक्ष्ण ताड़ वृक्षों की पत्तियों के बीच छटपटाता है। इस प्रकार पूरा शरीर क्षत-विक्षत होने से वह प्रति पग-पग पर मूर्छित होता रहता है और चीत्कार करता है, “हाय! अब मैं क्या करूँ? मैं किस प्रकार से बचूँ !” मान्य धार्मिक नियमों से विपथ होने का ऐसा ही दण्ड मिलता है।

16 अगले जन्म में यमदूत निर्दोष पुरुष या ब्राह्मण को शारीरिक दण्ड देने वाले पापी राजा अथवा राज्याधिकारी को सूकरमुख नामक नरक में ले जाते हैं जहाँ उसे यमराज के दूत उसी प्रकार कुचलते है जिस प्रकार गन्ने को पेर कर रस निकाला जाता है। जिस प्रकार से निर्दोष व्यक्ति दण्डित होते समय अत्यन्त दयनीय ढंग से चिल्लाता है और मूर्छित होता है ठीक उसी तरह पापी जीवात्मा भी आर्तनाद करता एवं मूर्छित होता है। निर्दोष व्यक्ति को दण्ड देकर पीड़ित करने का यही फल है।

17 परमेश्वर की व्यवस्था से खटमल तथा मच्छर जैसे निम्न श्रेणी के जीव मनुष्यों तथा अन्य पशुओं का रक्त चूसते हैं। इन तुच्छ प्राणियों को इसका ज्ञान नहीं होता है कि उनके काटने से मनुष्यों को पीड़ा होती होगी। किन्तु उच्च श्रेणी के मनुष्यों – यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य – में चेतना विकसित रूप में होती है, अतः वे जानते हैं कि किसी का प्राणघात करना कितना कष्टदायक है, यदि ज्ञानवान होते हुए भी मनुष्य विवेकहीन तुच्छ प्राणियों को मारता है या सताता है, तो वह निश्चय ही पाप करता है। श्रीभगवान ऐसे मनुष्य को अन्धकूप में रखकर दण्डित करते हैं जहाँ वे समस्त पक्षी तथा पशु, सर्प, मच्छर, जूं, कीड़े, मक्खियाँ तथा अन्य प्राणी, जिनको उसने अपने जीवन काल में सताया था, उस पर चारों ओर से आक्रमण करते हैं और उसकी नींद हराम कर देते हैं। आराम न कर सकने के कारण वह अंधकार में घूमता रहता है। इस प्रकार अन्धकूप में उसे वैसी ही यातना मिलती है जैसी कि निम्न योनि के प्राणी को।

18 जो मनुष्य कुछ भोजन प्राप्त होने पर उसे अतिथियों, वृद्ध पुरुषों तथा बच्चों को न बाँट कर स्वयं खा जाता है अथवा बिना पंचयज्ञ किये खाता है, उसे कौवे के समान मानना चाहिए। मृत्यु के बाद वह सबसे निकृष्ट नरक कृमिभोजन में रखा जाता है। इस नरक में एक लाख योजन (800000 मील वाले) विस्तार वाला कीड़ों से परिपूर्ण एक कुण्ड है। वह इस कुण्ड में कीड़ा बनकर रहता है और दूसरों कीड़ों को खाता है और ये कीड़े उसे खाते हैं। जब तक वह पापी अपने पापों का प्रयश्चित नहीं कर लेता, तब तक वह कृमिभोजन के नारकीय कुण्ड में उतने वर्षों तक पड़ा रहता है, जितने योजन इस कुण्ड की चौड़ाई है।

19 हे राजन, जो पुरुष आपत्तिकाल न होने पर भी ब्राह्मण अथवा अन्य किसी के रत्न तथा सोना लूट लेता है, वह सन्दंश नामक नरक में रखा जाता है। वहाँ पर उसकी चमड़ी संडासी और लोहे के गरम पिण्डों से उतारी जाती है। इस प्रकार उसका पूरा शरीर खण्ड-खण्ड कर दिया जाता है।

20 यदि कोई पुरुष या स्त्री विपरीत लिंग वाले अगम्य सदस्य के साथ संसर्ग करते हैं, तो मृत्यु के बाद यमराज के दूत उसे तप्तसूर्मी नामक नरक में दण्ड देते हैं। वहाँ पर ऐसे पुरुष तथा स्त्रियाँ कोड़े से पीटे जाते हैं। पुरुष को तप्तलोह की बनी स्त्री से स्त्री को ऐसी ही पुरुष-प्रतिमा से आलिंगित कराया जाता है। व्यभिचार के लिए ऐसा ही दण्ड है।

21 जो व्यक्ति विवेकहीन होकर–यहाँ तक कि पशुओं के साथ भी – व्यभिचार करता है तो उसे मृत्यु के बाद वज्रकंटकशाल्मली नामक नरक में ले जाया जाता है। इस नरक में वज्र के समान कठोर काँटों वाला सेमल का वृक्ष है। यमराज के दूत पापी पुरुष को इस वृक्ष से लटका देते हैं और घसीटकर नीचे की ओर खींचते हैं जिससे काँटों के द्वारा उसका शरीर बुरी तरह चिथड़ जाता है।

22 जो मनुष्य श्रेष्ठ कुल – यथा क्षत्रिय, राज परिवार या अधिकारी वर्ग – में जन्म ले करके नियत नियमों के पालन की अवहेलना करता है और इस प्रकार से अधम बन जाता है, वह मृत्यु के समय वैतरणी नामक नरक की नदी में जा गिरता है। यह नदी नरक को घेरने वाली खाई के समान है और अत्यन्त हिंस्र जलजीवों से पूर्ण है। जब पापी मनुष्य को वैतरणी नदी में फेंका जाता है, तो जल के जीव उसे तुरन्त खाने लगते हैं और पापमय शरीर होने के कारण वह अपने शरीर को त्याग नहीं पाता। वह निरन्तर अपने पापमय कर्मों को स्मरण करता है और मल, मूत्र, पीब, रक्त, केश, नख, हड्डी, मज्जा, मांस तथा चर्बी से भरी हुई उस नदी में अत्यधिक यातनाएँ पाता है।

23 निम्नकुल में जन्मी शूद्र स्त्रियों के निर्लज्ज पति पशुओं की भाँति रहते हैं, अतः उनमें आहरण शुचिता या नियमित जीवन का अभाव रहता है। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के पश्चात पूयोद नामक नरक में फेंक दिये जाते हैं जहाँ वे मल, पीब, श्लेष्मा, लार तथा ऐसी ही अन्य वस्तुओं से पूर्ण समुद्र में रखे जाते हैं। जो शूद्र अपने को नहीं सुधार पाते वे इस सागर में गिरकर इन घृणित वस्तुओं को खाने के लिए बाध्य किये जाते हैं।

24 यदि इस जीवन में उच्च वर्ग का मनुष्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) कुत्ते, गधे तथा खच्चर पालता है और जंगल में आखेट करने तथा वृथा ही पशुओं को मारने में अत्यधिक रुचि लेता है, तो मृत्यु के पश्चात वह प्राणरोध नामक नरक में डाला जाता है। वहाँ पर यमराज के दूत उसे लक्ष्य बनाकर अपने तीरों से बेध डालते हैं।

25 जो व्यक्ति इस जन्म में अपने ऊँचे पद पर गर्व करता है और केवल भौतिक प्रतिष्ठा के लिए पशुओं की बलि चढ़ाता है, उसे मृत्यु के पश्चात वैशसन नामक नरक में रखा जाता है। वहाँ यम के दूत उसे अपार कष्ट देकर अन्त में उसका वध कर देते हैं।

26 यदि कोई मूर्ख द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) भोगेच्छा से अपनी पत्नी को वश में रखने के लिये उसे वीर्य पीने को बाध्य करता है, तो मृत्यु के पश्चात उसे लालाभक्ष नरक में रखा जाता है। वहाँ उसे वीर्य की नदी में डाल कर वीर्य पीने को विवश किया जाता है।

27 इस जगत में कुछ लोगों का व्यवसाय ही लूटपाट करना है जो दूसरों के घरों में आग लगाते हैं अथवा उन्हें विष देते है। यही नहीं, राज्य-अधिकारी कभी-कभी वणिक जनों को आयकर अदा करने पर विवश करके तथा अन्य विधियों से लूटते हैं। मृत्यु के पश्चात ऐसे असुरों को सारमेयादन नामक नरक में रखा जाता है। उस नरक में सात सौ बीस कुत्ते हैं जिनके दाँत वज्र के समान कठोर हैं। ये कुत्ते यमराज के दूतों के आदेश पर ऐसे पापीजनों को भूखे भेड़ियों की भाँति निगल जाते हैं।

28 इस जीवन में जो व्यक्ति किसी की झूठी गवाही देने, व्यापार करते अथवा दान देते समय किसी भी तरह का झूठ बोलता है, वह मरने पर यमराज के दूतों द्वारा बुरी तरह से प्रताड़ित किया जाता है। ऐसा पापी आठ सौ मील ऊँचे पर्वत की चोटी से मुँह के बल अवीचिमत नामक नरक में नीचे फेंक दिया जाता है। इस नरक का कोई आधार नहीं होता और उसकी पथरीली भूमि जल की लहरों के समान प्रतीत होती है, किन्तु इसमें जल नहीं है; इसलिए इसे अवीचिमत (जलरहित) कहा गया है। वहाँ से बारम्बार गिराये जाने से उस पापी व्यक्ति के शरीर के छोटे छोटे टुकड़े हो जाने पर भी प्राण नहीं निकलते और उसे बारम्बार दण्ड सहना पड़ता है।

29 जो ब्राह्मणी या ब्राह्मण मद्यपान करता है उसे यमराज के दूत अयःपान नामक नरक में ले जाते हैं। यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य अथवा व्रत धारण करने वाला मोहवश सोमपान करता है तो वह भी इस नरक में स्थान पाता है। अयःपान नरक में यम के दूत उनकी छाती पर चढ़कर उनके मुँह के भीतर तप्त पिघला लोहा उड़ेलते हैं।

30 जो निम्न जाति में उत्पन्न होकर घृणित होते हुए भी इस जीवन में यह सोचकर झूठा गर्व करता है कि "मैं महान हूँ" और उच्च जन्म, तप, शिक्षा, आचार, जाति अथवा आश्रम में अपने से बड़ों का उचित आदर नहीं करता वह इसी जीवन में मृत-तुल्य है और मृत्यु के पश्चात क्षारकर्दम नरक में सिर के बल नीचे गिराया जाता है। वहाँ उसे यमदूतों के हाथों से अत्यन्त कठिन यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

31 इस संसार में ऐसे भी पुरुष या स्त्रियाँ हैं, जो भैरव या भद्रकाली को नर-बलि चढ़ाकर अपने द्वारा बलि किए गये शिकार का मांस खाते हैं। ऐसे यज्ञ करने वालों को मृत्यु के पश्चात यमलोक में ले जाया जाता है जहाँ उनके शिकार (मारे गये व्यक्ति) राक्षस का रूप धारण करके अपनी तेज तलवारों से उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। जिस प्रकार इस लोक में नर-भक्षकों ने नाचते गाते हुए अपने शिकार का रक्तपान किया था उसी तरह उनके शिकार अब अपने वध करने वालों का रक्तपान करके आनन्दित होते हैं।

32 इस जीवन में कुछ व्यक्ति गाँव या वन में रक्षा के लिए आये हुए पशुओं तथा पक्षियों को शरण देते हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा का विश्वास हो जाने के बाद उन्हें बर्छे या डोरे में फाँस कर घोर पीड़ा पहुँचाकर उनसे खिलौने जैसा खेलते हैं। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के पश्चात यमराज के दूतों द्वारा शूलप्रोत नामक नरक में ले जाये जाते हैं जहाँ उनके शरीरों को तीक्ष्ण नुकीले भालों से छेदा जाता है। वे भूख तथा प्यास से तड़पते रहते हैं और उनके शरीरों को गीध तथा बगुले जैसे तीक्ष्ण चोंच वाले पक्षी चारों ओर से नोंचते हैं। इस प्रकार से यातना पाकर उन्हें पूर्वजन्म में किये गये पापकर्मों का स्मरण होता है।

33 जो व्यक्ति इस जीवन में ईर्ष्यालु सर्पों के समान क्रोधी स्वभाव वाले अन्य जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मृत्यु के पश्चात दंद्शूक नामक नरक में गिरते हैं। हे राजन, इस नरक में पाँच या सात फण वाले सर्प हैं, जो इन पापात्माओं को उसी प्रकार खा जाते हैं जिस प्रकार चूहों को सर्प खाते हैं।

34 जो व्यक्ति इस जीवन में अन्य जीवों को अन्धे कुएँ, खत्ती या पर्वत की गुफाओं में बन्दी बनाकर रखते हैं, वे मृत्यु के पश्चात अवट-निरोधन नामक नरक में रखे जाते हैं। वहाँ वे स्वयं अन्धे कुओं में धकेल दिये जाते हैं, जहाँ विषैले धुएँ से उनका दम घुटता है और वे घोर यातनाएँ उठाते हैं।

35 जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथियों अथवा अभ्यागतों को क्रोध भरी कुटिल दृष्टि से देखता है मानो उन्हें भस्म कर देगा, उसे पर्यावर्तन नामक नरक में ले जाकर रखा जाता है जहाँ उसे वज्र जैसी चोंच वाले गीध, बगुले, कौवे तथा इसी प्रकार के अन्य पक्षी घूरते हैं और सहसा झपट कर तेजी से उसकी आँखें निकाल लेते हैं।

36 जो व्यक्ति इस लोक में अथवा इस जीवन में अपनी सम्पत्ति पर अभिमान करता है, वह सदैव सोचता रहता है कि वह कितना धनी है और कोई उसकी बराबरी कर सकता है? उसकी नजर टेढ़ी हो जाती है और वह सदैव भयभीत रहता है कि कोई उसकी सम्पत्ति ले न ले। वह अपने से बड़े लोगों पर आशंका करता है। अपनी सम्पत्ति की हानि के विचार मात्र से उसका मुख तथा हृदय सूखने लगते हैं। अतः वह सदैव अति अभागे दुष्ट मनुष्य की तरह लगता है उसे वास्तविक सुख-लाभ नहीं हो पाता और वह यह नहीं जानता कि चिन्तामुक्त जीवन कैसा होता है। धन अर्जित करने, उसको बढ़ाने तथा उसकी रक्षा के लिए वह जो पापकर्म करता है उसके कारण उसे सूचीमुख नामक नरक में रखा जाता है जहाँ यमराज के दूत उसके सारे शरीर को दर्जियों की तरह धागे से सिल देते हैं।

37 हे राजन, यमलोक में इसी प्रकार के सैकड़ों-हजारों नरक हैं। मैंने जिन पापी मनुष्यों का वर्णन किया है---और जिनका वहाँ पर उल्लेख नहीं हुआ – वे सब अपने पापों की कोटि के अनुसार इन विभिन्न नरकों में प्रवेश करेंगे। किन्तु जो पुण्यात्मा हैं, वे अन्य लोकों में, अर्थात देवताओं के लोकों में जाते हैं। तो भी अपने पुण्य-पाप के फलों के क्षय होने पर पुण्यात्मा तथा पापी दोनों ही पुनः पृथ्वी पर लौट आते हैं।

38 प्रारम्भ में (द्वितीय तथा तृतीय स्कन्ध में) मैं यह बता चुका हूँ कि मुक्तिमार्ग पर किस प्रकार अग्रसर हुआ जा सकता है। पुराणों में चौदह खण्डों में विभक्त अंड सदृश विशाल ब्रह्माण्ड की स्थिति का वर्णन किया गया है। यह विराट रूप भगवान का बाह्य शरीर माना जाता है, जिसकी उत्पत्ति उनकी शक्ति और गुणों से हुई है। इसे ही सामान्यतः विराट रूप कहते हैं। यदि कोई श्रद्धा सहित भगवान के इस बाह्य रूप का वर्णन पढ़ता है अथवा इसके विषय में सुनता या फिर अन्यों को भागवत धर्म अथवा कृष्णभावनामृत समझाता है, तो आत्म-चेतना अथवा कृष्णभावनामृत में उनकी श्रद्धा तथा भक्ति क्रमशः बढ़ती जाती है। यद्यपि इस भावना को विकसित कर पाना कठिन है, किन्तु इस विधि से मनुष्य अपने को शुद्ध कर सकता है और धीरे-धीरे परम सत्य को जान सकता है।

39 जो मुक्ति का इच्छुक है, मुक्ति के पथ को ग्रहण करता है तथा बद्ध जीवन के प्रति आकृष्ट नहीं होता, वह यती या भक्त कहलाता है। ऐसे पुरुष को पहले भगवान के स्थूल विराट रूप का चिन्तन करते हुए मन को वश में करना चाहिए और तब धीरे-धीरे श्रीकृष्ण के दिव्य रूप (सत-चित-आनन्द-विग्रह) का चिन्तन करना चाहिए। इस प्रकार उसका मन समाधि में स्थिर हो जाता है। भक्ति के द्वारा भगवान के सूक्ष्म रूप का साक्षात्कार किया जा सकता है और यही भक्तों का गन्तव्य है। इस प्रकार उसका जीवन सफल बन जाता है।

40 हे राजन, अभी मैंने तुमसे इस पृथ्वीलोक, अन्य लोक, उनके वर्ष, नदी एवं पर्वत का वर्णन किया है। मैंने आकाश, समुद्र, अधोलोक, दिशाएँ, नरक, ग्रह तथा नक्षत्रों का भी वर्णन किया है। ये भगवान के विराट रूप के अवयव हैं, जिन पर समस्त जीवात्माएँ आश्रित हैं इस प्रकार मैंने भगवान के बाह्य शरीर के अद्भुत विस्तार की व्याख्या की है।

स्कन्ध की समाप्ति के पहले यह उल्लिखित है :-

जिन विद्वानों को समस्त वैदिक शास्त्रों का ज्ञान है वे यह मानते हैं कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के असंख्य अवतार हैं। इन अवतारों की दो श्रेणियाँ की गई हैं – प्राभव तथा वैभव। शास्त्रों के अनुसार प्राभव अवतारों की भी दो श्रेणियाँ हैं – अनन्त तथा अवर्णित। श्रीमदभागवत के पंचम स्कन्ध में तृतीय से लेकर षष्ठम अध्याय तक ऋषभदेव का वर्णन है, किन्तु उनके सत रूप का विस्तृत वर्णन नहीं हुआ है। अतः उन्हें प्राभव अवतारों में दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत (अवर्णित) माना जाता है।

श्रीमदभागवत के प्रथम स्कन्ध अध्याय तीन श्लोक तेरह में कहा गया है "भगवान विष्णु आठवें अवतार में महाराज नाभि (आग्निध्र के पुत्र) के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने सिद्धि, जीवन की परमहंस अवस्था का मार्ग दिखलाया जिसकी उपासना वर्णाश्रम धर्म के सभी पालन करने वालों द्वारा की जाती है।"

ऋषभदेव श्रीभगवान हैं और उनका शरीर दिव्य सच्चिदानन्दविग्रह है। अतः यह पूछा जा सकता है कि वे मल-मूत्र किस प्रकार विसर्जित करते होंगे? इस प्रश्न का उत्तर गौड़ीय वेदान्त आचार्य बलदेव विद्याभूषण ने अपनी पुस्तक सिद्धान्त-रत्न (प्रथम भाग मूलपाठ 65-68) में दिया है।

जो पूर्ण ज्ञानी नहीं हैं, वे अभक्तों का ध्यान ऋषभदेव द्वारा मलमूत्र विसर्जित करने की ओर आकर्षित करते हैं क्योंकि वे दिव्य शरीर के सत-चित-आनन्द-विग्रह को नहीं समझ पाते।

श्रीमदभागवत (5.6.11) में इस युग के मोहग्रस्त तथा भ्रमित स्थिति वाले भौतिकतावादियों का पूरी तरह वर्णन हुआ है। ऋषभदेव ने कहा है – इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं "मेरा यह शरीर भौतिकतावादियों के लिए अचिन्त्य है।" (5.5.19) पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के मानवीय रूप को समझ पाना अत्यन्त दुष्कर है और सामान्य व्यक्ति के लिए तो यह अचिन्त्य है। इसलिए ऋषभदेव ने स्वतः बताया है कि उनका शरीर आत्ममय है। इसलिए वे मलमूत्र विसर्जित नहीं करते थे। यद्यपि वे ऊपर से मलमूत्र विसर्जित करते प्रतीत होते थे, किन्तु वह भी दिव्य होने के कारण सामान्य मनुष्य द्वारा अनुकरणीय नहीं है। श्रीमदभागवत में यह भी कहा है कि ऋषभदेव का मलमूत्र दिव्य सुगन्धी से युक्त था। भले ही कोई ऋषभदेव का अनुकरण कर ले, किन्तु वह सुगन्धित मल विसर्जित नहीं कर सकता।

श्रील शुकदेव गोस्वामी ने बताया है कि भगवान ऋषभदेव के लक्षणों को सुनने के बाद कोंक, वेंक तथा कुटक के राजा ने अर्हत नामक धार्मिक नियमों की प्रणाली का सूत्रपात किया। ये नियम वैदिक नियमों के अनुकूल नहीं थे, अतः इन्हें पाखण्ड धर्म कहा गया। अर्हत संप्रदाय के सदस्य ऋषभदेव के कार्यों को भौतिक मानते थे। किन्तु ऋषभदेव तो श्रीभगवान के अवतार हैं, अतः वे दिव्य पद पर हैं और उनकी समता कोई नहीं कर सकता। ऋषभदेव की लीलाओं की समाप्ति पर एक दावानल में सम्पूर्ण वन तथा भगवान का शरीर जलकर भस्म हो गया।

इसी प्रकार ऋषभदेव ने लोगों की अविद्या को भस्म कर डाला। अपने पुत्रों को दिए गये उपदेशों में उन्होंने परमहंसों के लक्षणों का प्राकट्य किया। श्रील बलदेव विद्याभूषण की टिप्पणी है कि श्रीमदभागवत के अष्टम स्कन्ध में ऋषभदेव का अन्य विवरण भी प्राप्त होता है, किन्तु वे ऋषभदेव इस स्कन्ध के ऋषभदेव से भिन्न हैं।

 

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (पंचम स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरी ॐ तत सत::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

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