अध्याय तेरह – ब्रह्महत्या से पीड़ित राजा इन्द्र (6.13)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महादानी राजा परीक्षित! वृत्रासुर के वध से इन्द्र के अतिरिक्त तीनों लोकों के लोकपाल एवं समस्त निवासी तुरन्त ही प्रसन्न हुए और उनकी सब चिन्ताएँ जाती रहीं।
2 तत्पश्चात सभी देवता महान साधु पुरुष, पितर, भूत, असुर, देवताओं के अनुचर तथा ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र के अधीन देवगण अपने-अपने धामों को लौट गये। किन्तु विदा लेते समय वे इन्द्र से कुछ बोले नहीं।
3 महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा – हे मुनि! इन्द्र की अप्रसन्नता का कारण क्या था? मैं इसके विषय में सुनना चाहता हूँ। जब उसने वृत्रासुर का वध कर दिया तो सभी देवता प्रसन्न हुए, तो फिर इन्द्र स्वयं क्यों अप्रसन्न था?
4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया-- जब समस्त ऋषि तथा देवता वृत्रासुर की असाधारण शक्ति से विचलित हो रहे थे तो उन्होंने एकत्र होकर इन्द्र से उसका वध करने के लिए याचना की थी। किन्तु इन्द्र ने ब्राह्मण-हत्या के भय से उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी थी।
5 राजा इन्द्र ने कहा: जब मैंने विश्वरूप का वध किया, तो मुझे अत्यधिक पाप बन्धन मिला था, किन्तु स्त्रियों, धरती, वृक्षों तथा जल ने मेरे ऊपर अनुग्रह किया था, जिससे मैं अपने पाप को उन सबों में बाँट सका। किन्तु यदि मैं अब एक अन्य ब्राह्मण, वृत्रासुर, का वध करूँ तो भला पाप-बन्धनों से मैं अपने को किस प्रकार मुक्त कर सकूँ गा?
6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह सुनकर ऋषियों ने इन्द्र को उत्तर दिया, “हे स्वर्ग के राजा! तुम्हारा कल्याण हो। तुम डरो नहीं। हम तुम्हें ब्राह्मण-हत्या से लगने वाले किसी भी पाप से मुक्ति के लिए एक अश्वमेध यज्ञ करेंगे।
7 ऋषियों ने आगे कहा: हे राजा इन्द्र! अश्वमेध यज्ञ करके उसके द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को, जो परमात्मा, भगवान, नारायण और परम नियन्ता हैं, प्रसन्न करके मनुष्य सारे संसार के वध के पाप-फलों से भी मुक्त हो सकता है, वृत्रासुर जैसे एक असुर के वध की तो बात ही क्या है?
8-9 भगवान नारायण के पवित्र नाम के जप-मात्र से ब्राह्मण, गाय, पिता, माता, गुरु की हत्या करने वाला मनुष्य समस्त पाप-फलों से तुरन्त मुक्त किया जा सकता है। अन्य पापी मनुष्य (यथा कुत्ते को खाने वाले चाण्डाल) जो शूद्रों से भी निम्न हैं, इसी प्रकार से मुक्त हो जाते हैं। फिर आप तो भक्त हैं और हम सभी महान अश्वमेध यज्ञ करके आपकी सहायता करेंगे। यदि आप भी इस प्रकार भगवान नारायण को प्रसन्न करें तो फिर आपको डर कैसा? तब आप मुक्त हो जायेंगे, भले ही आप ब्राह्मणों सहित सारे ब्रह्माण्ड की हत्या क्यों न कर दें। भला वृत्रासुर जैसे विघ्नकारी एक असुर की हत्या की क्या बात है?
10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ऋषियों के वचनों से प्रोत्साहित होकर इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया और जब वह मारा गया तो ब्रह्महत्या का पाप फल इन्द्र के पास पहुँचा।
11 देवताओं की सलाह से इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया और इस पापपूर्ण हत्या के कारण उसे कष्ट उठाना पड़ा। यद्यपि अन्य देवतागण प्रसन्न थे, किन्तु वृत्रासुर की हत्या से उसे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई। इन्द्र के इस क्लेश में अन्य उत्तम गुण, यथा धैर्य तथा ऐश्वर्य, उसके सहायक नहीं बन सके।
12-13 इन्द्र ने साक्षात ब्रह्महत्या के फल को एक चाण्डाल स्त्री के समान प्रकट होकर अपना पीछा करते देखा। वह अत्यन्त वृद्धा प्रतीत होती थी और उसके शरीर के सभी अंग काँप रहे थे। यक्ष्मा रोग से पीड़ित होने के कारण उसका सारा शरीर तथा वस्त्र रक्त से सने थे। उसकी श्वास से मछली की-सी असह्य दुर्गन्ध निकल रही थी जिससे सारा रास्ता दूषित हो रहा था। उसने इन्द्र को पुकारा, “ठहरो ! ठहरो !“
14 हे राजन! इन्द्र पहले आकाश की ओर भागा, किन्तु उसने वहाँ भी उस ब्रह्महत्या रूपिणी स्त्री को अपना पीछा करते देखा। जहाँ कहीं भी वह गया, यह डायन उसका पीछा करती रही। अन्त में वह तेजी से उत्तरपूर्व की ओर गया और मानस सरोवर में घुस गया।
15 सदैव यह सोचते हुए कि ब्रह्महत्या से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त हो, राजा इन्द्र, सबों से अदृश्य रहकर सरोवर में कमलनाल के सूक्ष्म तन्तुओं के भीतर एक हजार वर्ष तक रहा। अग्निदेव उसे समस्त यज्ञों का उसका भाग लाकर देते, क्योंकि अग्निदेव जल में प्रवेश करने से भयभीत थे, अतः इन्द्र एक तरह से भूखों मर रहा था।
16 जब तक राजा इन्द्र कमलनाल के भीतर जल में रहा, नहुष अपने ज्ञान, तप तथा योग के कारण स्वर्गलोक का शासन चलाने के लिए सक्षम बना दिया गया। किन्तु शक्ति तथा ऐश्वर्य के मद से अन्धा होकर उसने इन्द्र की पत्नी के साथ रमण करने का अवांछित प्रस्ताव रखा। इस प्रकार वह एक ब्राह्मण द्वारा शापित हुआ और बाद में सर्प बन गया।
17 समस्त दिशाओं के देवता रुद्र के प्रताप से इन्द्र के पाप कम हो गये। चूँकि इन्द्र की रक्षा मानस-सरोवर के कमल कुन्जों में निवास करने वाली धन की देवी भगवान विष्णु की पत्नी द्वारा की जा रही थी, अतः इन्द्र के पापों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्त में भगवान विष्णु की निष्ठा-पूर्वक पूजा करने से इन्द्र के सारे पाप छूट गये। तब ब्राह्मणों ने उसे पुनः स्वर्गलोक में बुलाकर उसके पूर्व पद पर स्थापित कर दिया।
18 हे राजन! जब इन्द्र स्वर्गलोक में पहुँच गया तो साधुवत ब्राह्मण उसके पास गये और परमेश्वर को प्रसन्न करने के निमित्त अश्वमेध यज्ञ के लिए उसे समुचित रूप से दीक्षित किया।
19-20 ऋषितुल्य ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न किये गये अश्वमेध यज्ञ ने इन्द्र को समस्त पाप-बन्धनों से मुक्त कर दिया, क्योंकि उस यज्ञ में उसने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा की थी। हे राजन! यद्यपि उसने गम्भीर पापकृत्य किया था, किन्तु उस यज्ञ से वह पाप कृत्य तुरन्त उसी प्रकार विनष्ट हो गया, जिस प्रकार सूर्य के तेज प्रकाश से कोहरा छँट जाता है।
21 मरीचि तथा अन्य महर्षियों ने राजा इन्द्र पर कृपा की और विधिपूर्वक आदि पुरुष, परमात्मा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करके यज्ञ सम्पन्न किया। इस प्रकार इन्द्र ने अपनी उन्नत स्थिति पुनः प्राप्त कर ली तथा वह प्रत्येक के द्वारा फिर से सम्मानित हुआ।
22-23 इस महान आख्यान में भगवान नारायण की महिमा का वर्णन हुआ है, भक्तियोग की महानता के सम्बन्ध में कथन दिए गए हैं, इन्द्र तथा वृत्रासुर जैसे भक्तों के वर्णन आए हैं तथा पापी जीवन से इन्द्र के मोक्ष एवं असुरों के साथ लड़े गये युद्धों में उसकी विजय के सम्बन्ध में विवरण दिए गये हैं। इस आख्यान को समझ लेने पर सभी पापफलों से छुटकारा मिल जाता है। अतः विद्वानों को सदा सलाह दी जाती है कि इस आख्यान को पढ़ें। जो ऐसा करेगा उसकी इन्द्रियाँ अपने कार्य में निपुण होंगी, उसका ऐश्वर्य बढ़ेगा और यश चारों ओर फैलेगा। उसके समस्त पापफल मिट जायेंगे, उसे अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त होगी और उसकी आयु बढ़ेगी। चूँकि यह आख्यान सभी तरह से कल्याणकारी है, अतः विद्वान व्यक्ति इसको प्रत्येक शुभ उत्सव के अवसर पर नियमित रूप से सुनते और दोहराते हैं।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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