अध्याय एक – अजामिल के जीवन का इतिहास (6.1)
1 महाराज परीक्षित ने कहा: हे प्रभु! हे श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप पहले ही (द्वितीय स्कन्ध में) मुक्ति-मार्ग (निवृत्ति मार्ग) का वर्णन कर चुके हैं। उस मार्ग का अनुसरण करने से मनुष्य निश्चित रूप से क्रमशः सर्वोच्च लोक अर्थात ब्रह्मलोक तक ऊपर उठ जाता है, जहाँ से वह ब्रह्मा के साथ-साथ आध्यात्मिक (वैकुण्ठ) जाता है। इस तरह भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।
2 हे मुनि श्रील शुकदेव गोस्वामी! जब तक जीव प्रकृति के भौतिक गुणों के संक्रमण से मुक्त नहीं हो लेता, वह विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त करता है जिनमें वह आनन्द या कष्ट पाता है और शरीर के अनुसार उसमें विविध अभिरुचियाँ होती हैं। इन अभिरुचियों का अनुसरण करने से वह प्रवृत्ति मार्ग से होकर गुजरता है, जिससे वह स्वर्गलोक तक ऊपर जा सकता है, जैसा कि आप पहले (तृतीय स्कन्ध में) वर्णन कर चुके हैं।
3 आपने नारकीय जीवन की उन विविध योनियों का भी वर्णन (पंचम स्कन्ध के अन्त में) किया है, जो पाप कार्यों से फलित हैं और आपने प्रथम मन्वन्तर का वर्णन (चतुर्थ स्कन्ध में) किया है, जिसकी अध्यक्षता ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु ने की थी।
4 हे प्रभु ! आपने राजा प्रियव्रत तथा राजा उत्तानपाद के कुलों तथा गुणों का वर्णन किया है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने इस भौतिक जगत की रचना विविध ब्रह्माण्डों, लोकों, ग्रहों तथा नक्षत्रों, विविध भूभागों, समुद्रों, नदियों, उद्यानों तथा वृक्षों से की जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं।
5 ये इस धरालोक, आकाश के प्रकाशपिण्डों तथा अधोलोकों में विभाजित हैं। आपने इन लोकों का तथा इनमें रहने वाले जीवों का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है। हे परम भाग्यशाली तथा ऐश्वर्यवान श्रील शुकदेव गोस्वामी! अब आप कृपा करके मुझे बतलायें कि मनुष्यों को किस तरह उन नारकीय स्थितियों में प्रवेश करने से बचाया जा सकता है जिनमें उन्हें भीषण यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।
7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया- हे राजन! यदि मनुष्य अपनी अगली मृत्यु के पूर्व इस जन्म में अपने मन, वचन तथा शरीर से किये गये पाप कर्मों का मनुसंहिता तथा अन्य धर्मशास्त्रों के विवरण के अनुसार समुचित प्रायश्चित द्वारा निराकरण नहीं कर लेता है, तो वह मृत्यु के बाद अवश्य ही नरकलोकों में प्रविष्ट होगा और भीषण कष्ट उठायेगा, जैसा कि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ।
8 अतः अगली मृत्यु आने के पूर्व, जब तक मनुष्य का शरीर पर्याप्त सशक्त है, उसे शास्त्रों के अनुसार प्रायश्चित की विधि तुरन्त अपनानी चाहिए अन्यथा समय की क्षति होगी और उसके पापों का फल बढ़ता जायेगा। जिस तरह एक कुशल वैद्य रोग का निदान और उपचार उसकी गम्भीरता के अनुसार करता है, उसी तरह मनुष्य को अपने पापों की गहनता के अनुसार प्रायश्चित करना चाहिए।
9 महाराज परीक्षित ने कहा: मनुष्य को जानना चाहिए कि पापकर्म उसके लिए हानिकर है, क्योंकि वह वस्तुतः यह देखता है कि अपराधी सरकार द्वारा दण्डित किया जाता है और सामान्य लोगों के द्वारा दुत्कारा जाता है और वह शास्त्रों तथा विद्वान पण्डितों से सुनता भी रहता है कि पापकर्म करने से मनुष्य अगले जीवन में नारकीय अवस्था में फेंक दिया जाता है। फिर भी ऐसा ज्ञान होते हुए मनुष्य को प्रायश्चित करने के बावजूद बारम्बार पाप करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। अतः ऐसे प्रायश्चित का क्या महत्त्व?
10 कभी-कभी ऐसा व्यक्ति, जो पापकर्म न करने के प्रति अत्यधिक सतर्क रहता है पुनः पापमय जीवन के फेर में आ जाता है। इसलिए मैं बारम्बार पाप करने तथा प्रायश्चित करने की इस विधि को निरर्थक मानता हूँ। यह तो हाथी के स्नान करने जैसा है, क्योंकि हाथी पूर्ण स्नान करके अपने को स्वच्छ बनाता है, किन्तु स्थल पर वापस आते ही अपने सिर तथा शरीर पर धूल डाल लेता है।
11 वेदव्यास-पुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया- हे राजन, चूँकि अपवित्र कर्मों को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य से किये गये कर्म भी सकाम होते हैं, अतएव वे मनुष्य को सकाम कर्म करने की प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं दिला सकते। जो व्यक्ति अपने को प्रायश्चित के विधि-विधानों के अधीन बना लेते हैं, वे तनिक भी बुद्धिमान नहीं हैं। अपितु, वे सभी तमोगुण में होते हैं। जब तक मनुष्य तमोगुण से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक एक कर्म का दूसरे से निराकरण करने का प्रयास करना निरर्थक है, क्योंकि इससे मनुष्य की इच्छाओं का उन्मूलन नहीं होगा। इस तरह ऊपर से पवित्र लगने वाला व्यक्ति निस्सन्देह पाप पूर्ण कर्म करने के लिए उन्मुख होगा। अतएव असली प्रायश्चित तो पूर्ण ज्ञान अर्थात वेदान्त में प्रबुद्ध होना है, जिससे मनुष्य परम सत्य भगवान को समझता है।
12 हे राजन! यदि रुग्ण व्यक्ति वैद्य द्वारा बताया गया शुद्ध अदूषित अन्न खाता है, तो धीरे-धीरे अच्छा हो जाता है और तब रोग का संक्रमण उसे छु तक नहीं पाता। इसी तरह यदि कोई ज्ञान के विधि-विधानों का पालन करता है, तो वह धीरे-धीरे भौतिक कल्मष से मोक्ष की ओर प्रगति करता है।
13-14 मन को एकाग्र करने के लिए मनुष्य को ब्रह्मचर्य जीवन बिताना चाहिए और अधःपतित नहीं होना चाहिए। उसे इन्द्रिय-भोग को स्वेच्छा से त्यागने की तपस्या करना चाहिए, दान देना चाहिए, सत्यव्रती, स्वच्छ तथा अहिंसक होना चाहिए, विधि-विधानों का पालन करना चाहिए और नियमपूर्वक भगवननाम का कीर्तन करना चाहिए। इस तरह धार्मिक सिद्धान्तों को जानने वाला धीर तथा श्रद्धावान व्यक्ति अपने शरीर, वचन तथा मन से किये गये सारे पापों से अस्थायी रूप से शुद्ध हो जाता है। ये पाप बाँस के पेड़ के नीचे की लतरों की सूखी पत्तियों के समान हैं, जिन्हें अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, यद्यपि उनकी जड़ें अवसर पाते ही फिर से उगने के लिए शेष बची रहती है।
15 कोई विरला व्यक्ति ही, जिसने कृष्ण की पूर्ण शुद्ध भक्ति को स्वीकार कर लिया है, उन पापपूर्ण कार्यों के खरपतवार को समूल नष्ट कर सकता है जिनके पुनरुज्जीवित होने की कोई सम्भावना नहीं रहती। वह भक्तियोग सम्पन्न करके इसे कर सकता है, जिस तरह सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को तुरन्त उड़ा देता है।
16 हे राजन! यदि पापी व्यक्ति भगवान के प्रामाणिक भक्त की सेवा में लग जाता है और इस तरह यह सीख लेता है कि अपना जीवन किस तरह कृष्ण के चरणकमलों में समर्पित करना चाहिए तो वह पूर्णतया शुद्ध हो सकता है। तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा मेरे द्वारा पहले वर्णित प्रायश्चित के अन्य साधनों को सम्पन्न करने मात्र से वह पापी शुद्ध नहीं बन सकता।
17 सुशील तथा सर्वोत्तम गुणों से युक्त शुद्ध भक्तों के द्वारा पालन किया जाने वाला मार्ग निश्चय ही इस भौतिक जगत का सबसे मंगलमय मार्ग है। यह भय से रहित है और शास्त्रों द्वारा प्रमाणित है।
18 हे राजन! जिस तरह सुरा से सने हुए पात्र को अनेक नदियों के जल से धोने पर भी शुद्ध नहीं किया जा सकता, उसी तरह अभक्तों को प्रायश्चित की विधियों से शुद्ध नहीं बनाया जा सकता, भले ही वे उन्हें बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न क्यों न करें।
19 यद्यपि जिन पुरुषों ने कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार नहीं किया है, तो भी यदि एक बार भी उनके चरणकमलों की पूर्णरूपेण शरण ग्रहण कर ली है और जो उनके नाम, रूप, गुणों तथा लीलाओं से आकृष्ट हो चुके हैं, वे सारे पापकर्मों से पूर्णतया मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि इस तरह उन्होंने प्रायश्चित की सही विधि को स्वीकार किया है। ऐसे शरणागत व्यक्तियों को यमराज या उनके दूत, जो कि पापी को बाँधने के लिए रस्सियाँ लिए रहते हैं, स्वप्न में भी दिखाई नहीं पड़ते।
20 इस सम्बन्ध में विद्वान जन तथा सन्त पुरुष एक अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक घटना का वर्णन करते हैं जिसमें भगवान विष्णु तथा यमराज के दूतों के बीच संवाद हुआ था। कृपा करके इसे मुझसे सुनिये।
21 कान्यकुब्ज नामक नगर में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था, जिसने एक गणिका से विवाह करके उस निम्न श्रेणी की स्त्री की संगति के कारण अपने सारे ब्राह्मण-गुण खो दिये।
22 यह पतित ब्राह्मण अजामिल अन्यों को बन्दी बनाकर उन्हें जूएँ में धोखा देकर या सीधे उन्हें लूटकर कष्ट पहुँचाता था। इस तरह से वह अपनी जीविका चलाता था और अपनी पत्नी तथा बच्चों का भरण-पोषण करता था।
23 हे राजन! इस तरह अनेक पुत्रों वाले अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए घृणास्पद पापपूर्ण कार्यों में अपना जीवन बिताते हुए उसके जीवन के अट्ठासी वर्ष बीत गये।
24 उस वृद्ध अजामिल के दस पुत्र थे, जिनमें से सबसे छोटे का नाम नारायण था। चूँकि नारायण सबसे छोटा था, अतः स्वाभाविक है कि वह अपने पिता तथा माता दोनों का ही अत्यन्त लाड़ला था।
25 बालक की तोतली भाषा तथा लड़खड़ाती चाल से वृद्ध अजामिल उसके प्रति अत्यधिक अनुरक्त था। वह उस बालक की देखरेख करता तथा उसकी क्रीड़ाओं का आनन्द लेता।
26 जब अजामिल भोजन करता तो वह बालक को खाने के लिए पुकारता और जब वह कुछ पीता तो उसे भी पीने के लिए बुलाता। उस बालक की देखरेख करने तथा उसका नाम पुकारने में सदा लगा रहकर अजामिल यह न समझ पाया कि उसका समय अब समाप्त हो चुका है और मृत्यु उसके सिर पर है।
27 जब मूर्ख अजामिल की मृत्यु का समय आ गया तो वह एकमात्र अपने पुत्र नारायण के विषय में सोचने लगा।
28-29 तब अजामिल ने तीन भयावह व्यक्तियों को देखा जिनके शरीर वक्र, भयानक और मुख टेढ़े थे तथा शरीर पर रोम खड़े हुए थे। वे अपने हाथों में रस्सियाँ लिए हुए उसे यमराज के धाम ले जाने के लिए आये थे। जब उसने उन्हें देखा तो वह अत्यधिक विमोहित था और कुछ दूर पर खेल रहे अपने बच्चे के प्रति आसक्ति के कारण अजामिल उसका नाम लेकर जोर-जोर से पुकारने लगा। इस तरह अपनी आँखों में आँसू भरे हुए किसी तरह से उसने नारायण के पवित्र नाम का उच्चारण किया।
30 हे राजन! जब विष्णुदूतों ने मरणासन्न अजामिल के मुख से अपनी स्वामी के पवित्र नाम को सुना, जिसने निश्चित ही पूर्ण उद्विग्नता में निरपराध भाव से उच्चारण किया था, तो वे तुरन्त वहाँ आ गये।
31 यमराज के दूत अजामिल के हृदय के भीतर से आत्मा को खींच रहे थे, किन्तु भगवान विष्णु के दूतों ने गूँजती वाणी में उन्हें ऐसा करने से मना किया।
32 जब सूर्य के पुत्र यमराज के दूतों को इस प्रकार मना किया गया तो उन्होंने कहा, “महाशय"! आप कौन हैं जिन्होंने यमराज के अधिकार-क्षेत्र को ललकारने की धृष्टता की है?
33 महाशयों! तुम किसके सेवक हो, कहाँ से आये हो और अजामिल का शरीर छूने से हमें क्यों मना कर रहे हो? क्या तुम लोग स्वर्गलोक के देवता हो, उपदेवता हो या कि सर्वश्रेष्ठ भक्तों में से कोई हो?
34-36 यमदूतों ने कहा: आप सभी की आँखें कमल के फूल की पंखड़ियों के समान हैं। पीला रेशमी वस्त्र पहने, कमल की मालाओं से सुसज्जित तथा अपने सिरों में अत्यन्त आकर्षक मुकुट पहने एवं अपने कानों में कुण्डल धारण किए तुम सभी नवयौवन से पूर्ण प्रतीत हो रहे हो। आप सभी की चार लम्बी भुजाएँ धनुष तथा तरकस, तलवार, गदा, शंख, चक्र तथा कमल के फूलों से अलंकृत हैं। आपके तेज ने इस स्थान के अंधकार को अपने असामान्य प्रकाश से भगा दिया है। तो महोदय आप हमें क्यों रोक रहे हैं?
37 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: यमराज के दूतों द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर वासुदेव के सेवक मुसकाये और उन्होंने गर्जना करते हुए बादलों की ध्वनि जैसी गम्भीर वाणी में निम्नलिखित शब्द कहे।
38 अहोभाग्य विष्णुदूतों ने कहा: यदि तुम लोग सचमुच ही यमराज के सेवक हो तो तुम्हें हमसे धार्मिक सिद्धान्तों के अर्थ तथा अधर्म के लक्षणों की व्याख्या करनी चाहिए।
39 दूसरों को दण्ड देने की विधि क्या है? दण्ड के वास्तविक पात्र कौन हैं? क्या सकाम कर्मों में लगे सारे कर्मी दण्डनीय हैं या उनमें से केवल कुछ ही हैं?
40 यमदूतों ने उत्तर दिया- जो वेदों द्वारा संस्तुत है, वही धर्म है और इसका विलोम अधर्म है। वेद साक्षात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, नारायण है और स्वयं उत्पन्न हुए हैं। हमने यमराज से यह सुना है।
41 समस्त कारणों के परम कारण रूप नारायण आध्यात्मिक जगत में अपने धाम में स्थित हैं तथापि वे भौतिक प्रकृति के तीन गुणों--सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण--के अनुसार सम्पूर्ण विराट जगत का नियंत्रण करते हैं। इस तरह विभिन्न जीवों को भिन्न-भिन्न गुण, नाम (यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य), वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कार्य तथा रूप प्रदान किये जाते हैं। नारायण सम्पूर्ण विराट जगत के कारणस्वरूप हैं।
42 सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, देवगण, चन्द्रमा, संध्या, दिन, रात, दिशाएँ, जल, स्थल तथा स्वयं परमात्मा – ये सभी जीव के कार्यों के साक्षी हैं।
43 दण्ड के पात्र वे हैं जिसकी पुष्टि इन अनेक साक्षियों ने की है कि वे निर्दिष्ट नियमित कार्यों से विचलित हुए हैं। सकाम कर्मों में लगा हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपने पापकर्मों के अनुसार दण्ड दिये जाने के लिए उपयुक्त होता है।
44 हे वैकुण्ठवासियों! तुम लोग निष्पाप हो, किन्तु इस भौतिक जगत के भीतर रहने वाले सारे वासी कर्मी हैं, चाहे वे शुभ कर्म कर रहे हों या अशुभ। ये दोनों प्रकार के कर्म उनके लिए सम्भव हैं, क्योंकि वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा कलुषित रहते हैं और उन्हें तदनुसार कर्म करना पड़ता है। जिसने भी भौतिक शरीर अपनाया है, वह निष्क्रिय नहीं हो सकता और प्रकृति के तीन गुणों के अधीन कर्म करनेवाले के लिए पापकर्म से बच पाना असम्भव है। इसलिए इस जगत के सारे जीव दण्डनीय हैं।
45 इस जीवन में अपने धार्मिक या अधार्मिक कार्यों की मात्रा के अनुपात में मनुष्य अगले जीवन में अपने कर्म के अनुरूप फलों का भोग करता है या कष्ट उठाता है।
46 हे देवश्रेष्ठों! हम विभिन्न प्रकार के तीन जीवन देखते हैं, जो प्रकृति के तीन गुणों के कल्मष के कारण हैं। इस तरह जीव शान्त, अशान्त तथा मूर्ख, सुखी, दु;खी या इन दोनों के बीच, तथा धार्मिक, अधार्मिक या अर्धधार्मिक जाने जाते हैं। हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अगले जीवन में ये तीन प्रकार की प्रकृतियाँ इसी प्रकार से कर्म करेंगी।
47 जिस तरह वर्तमान वसन्त काल भूत तथा भविष्य काल के वसन्त कालों को सूचित करता है, उसी तरह सुख, दुःख या दोनों से मिश्रित यह जीवन मनुष्य के भूत तथा भावी जीवनों के धार्मिक तथा अधार्मिक कार्यों के विषय में साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
48 सर्वशक्तिमान यमराज ब्रह्माजी के ही समान हैं, क्योंकि जब वे अपने निजी धाम या परमात्मा की भाँति हर एक के हृदय में स्थित होते हैं, वे मन के द्वारा जीव के विगत कार्यों का अवलोकन करते हैं और यह समझ जाते हैं कि जीव अगले जीवन में किस तरह कर्म करेगा।
49 जिस तरह सोया हुआ व्यक्ति अपने स्वप्न में प्रकट हुए शरीर के अनुसार कार्य करता है और उसे स्वयं मान लेता है उसी तरह मनुष्य अपने वर्तमान शरीर से अपनी पहचान बनाता है, जिसे उसने अपने विगत धार्मिक या अधार्मिक कार्यों के कारण प्राप्त किया है और वह अपने विगत या भावी जीवनों को जान पाने में असमर्थ रहता है।
50 पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच इन्द्रियविषयों के ऊपर मन होता है, जो सोलहवाँ तत्त्व है। मन के ऊपर सत्रहवाँ तत्त्व आत्मा स्वयं जीव है, जो अन्य सोलह के सहयोग से अकेले भौतिक जगत का भोग करता है। जीव तीन प्रकार की स्थितियों का भोग करता है, यथा सुख, दुःख तथा मिश्रित सुख-दुःख।
51 सूक्ष्म शरीर सोलह अंगों से समन्वित होता है-- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियतृप्ति के विषय तथा मन। यह सूक्ष्म शरीर प्रकृति के तीनों गुणों का प्रभाव है। यह दुर्लंघ्य प्रबल इच्छाओं से बना हुआ है, अतएव यह जीव को मनुष्य-जीवन, पशु-जीवन तथा देवता-जीवन में एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण कराता है। जब जीव को देवता का शरीर प्राप्त होता है, तो वह निश्चित रूप से हर्षित होता है और जब उसे मनुष्य शरीर प्राप्त होता है, तो वह शोक करता है और जब उसे पशु-शरीर मिलता है, तो वह सदैव भयभीत रहता है। किन्तु सभी स्थितियों में वह वस्तुत: दुखी रहता है। उसकी यह दु;खित अवस्था संसृति या भौतिक जीवन में देहान्तरण कहलाती है।
52 अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में करने में अक्षम मूर्ख देहधारी जीव अपनी इच्छाओं के विरुद्ध प्रकृति के गुणों के प्रभाव के अनुसार कर्म करने के लिए बाध्य होता है। वह उस रेशम के कीड़े के समान है, जो अपनी लार का प्रयोग बाह्य कोश बनाने के लिए करता है और फिर उसी में बँध जाता है, जिसमें से बाहर निकल पाने की कोई सम्भावना नहीं रहती। जीव अपने ही सकाम कर्मों के जाल में अपने को बन्दी कर लेता है और तब अपने को छुड़ाने का कोई उपाय नहीं ढूँढ पाता। इस तरह वह सदैव मोहग्रस्त रहता है और बारम्बार मरता रहता है।
53 एक भी जीव बिना कार्य किये क्षणभर भी नहीं रह सकता। उसे प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा कर्म करना ही पड़ता है, क्योंकि यह स्वाभाविक प्रवृत्ति उसे एक विशेष ढंग से कार्य करने के लिए बाध्य करती है।
54 सजीव प्राणी जो भी सकाम कर्म करता है, वे चाहे पवित्र हों या अपवित्र, वे उसकी इच्छाओं की पूर्ति के अदृश्य कारण होते हैं। यह अदृश्य कारण ही जीव के विभिन्न शरीरों की जड़ है। जीव अपनी उत्कट इच्छा के कारण किसी विशेष परिवार में जन्म लेता है और ऐसा शरीर प्राप्त करता है, जो या तो उसकी या उसके पिता माता जैसा होता है। स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर उसकी इच्छा के अनुसार उत्पन्न होते हैं।
55 चूँकि जीव की संगति भौतिक प्रकृति से रहती है, अतएव वह बड़ी विषम स्थिति में होता है, किन्तु यदि उसे मनुष्य जीवन में यह शिक्षा दी जाती है कि किस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान या उनके भक्त की संगति की जाये तो इस स्थिति पर काबू पाया जा सकता है।
56-57 प्रारम्भ में अजामिल नामक उस ब्राह्मण ने सारे वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन किया था। वह अच्छे चरित्र, अच्छे चाल-चलन तथा अच्छे गुणों का आगार था। वह सारे वैदिक आदेशों को सम्पन्न करने में दृढ़ था, वह अत्यन्त मृदु तथा सुशील था और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता था। यही नहीं, वह सदा सच बोलता था, वह वैदिक मंत्रों का उच्चारण करना जानता था तथा अत्यन्त शुद्ध भी था। अजामिल अपने गुरु, अग्निदेव, अतिथियों तथा घर के वृद्धजनों का अतीव आदर करता था। निस्सन्देह वह झूठी प्रतिष्ठा से मुक्त था। वह सरल, सभी जीवों के प्रति उपकार करने वाला तथा शिष्ट था। वह न तो व्यर्थ की बातें करता था, न किसी से ईर्ष्या करता था।
58-60 एक बार यह ब्राह्मण अजामिल अपने पिता का आदेश पालन करते हुए जंगल से फल, फूल तथा समित और कुश नामक दो प्रकार की घासें लाने जंगल गया। घर वापस आते समय उसे एक अत्यन्त कामुक चतुर्थ वर्ण का शूद्र व्यक्ति मिला जो निर्लज्ज होकर एक गणिका (वेश्या) का आलिंगन कर रहा था।
61 यह शूद्र हल्दी के चूर्ण से अपनी बाहें चमकाए हुए था और इस तरह हँसते, गाते हुए आनन्द ले रहा था मानो यही उचित आचरण हो। वे दोनों सुरापान किये हुए थे। उनकी आँखें नशे से घूम रही थीं और उसके वस्त्र शिथिल पड़ गये थे। अजामिल ने उन्हें ऐसी दशा में देखा तो उसके हृदय में सुप्त कामेच्छाएँ जागृत हो उठीं और वह सम्मोहित होकर उनके वश में हो लिया।
62 अजामिल ने धैर्यपूर्वक स्त्री को न देखने के शास्त्रों के आदेश स्मरण करते हुए इस ज्ञान तथा अपनी बुद्धि के बल पर अपनी कामेच्छाओं को वश में करने का यथासम्भव प्रयास किया, किन्तु वह अपने मन को वश में न कर सका।
63 जिस तरह सूर्य तथा चन्द्रमा एक क्षुद्र ग्रह द्वारा ग्रसित हो जाते हैं, उसी तरह उस ब्राह्मण ने अपना सारा उत्तम ज्ञान खो दिया और थोड़े समय बाद ही उसने उसे अपने घर में नौकरनी के रूप में रख लिया तथा ब्राह्मण के सारे अनुष्ठानों का परित्याग कर दिया।
64-65 इस तरह अजामिल अपने पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त जो भी धन था, विविध उपहारों द्वारा उसे तुष्ट करने में खर्च करने लगा जिससे वह उससे प्रसन्न बनी रहे। उसने अपनी अति सुन्दर तरुण पत्नी तक का साथ छोड़ दिया जो अति सम्मानित ब्राह्मण कुल से आई थी।
66 यद्यपि वह ब्राह्मण कुल में उत्पन्न था, किन्तु विषयी स्त्री की संगति के कारण बुद्धि से विहीन उस धूर्त ने जैसे-तैसे करके धन कमाया चाहे वह उचित रीति से हो या अनुचित रीति से और उससे उत्पन्न पुत्रों तथा पौत्रियों के भरण-पोषण में लगाया।
67 इस ब्राह्मण ने पवित्र शास्त्रों के विधि-विधानों का उल्लंघन करके तथा उसके द्वारा बनाया भोजन करने में बड़े ही अनुत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से अपनी दीर्घ आयु बिताई। इस प्रकार अजामिल उसकी संगति में पापकर्म करने लगा, अतः वह पापों से पूर्ण है, अस्वच्छ है और निषिद्ध कर्मों में लिप्त रहता है।
68 इस अजामिल ने कोई प्रायश्चित नहीं किया। अतः उसके पापी जीवन के कारण हम इसे दण्ड देने के लिए यमराज के समक्ष ले जायेंगे। वहाँ यह अपने पापकर्मों की मात्रा के अनुसार दण्डित होगा और इस तरह शुद्ध बनाया जाएगा।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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