jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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अध्याय चार – गजेन्द्र का वैकुण्ठ गमन (8.4)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान ने गजेन्द्र का उद्धार कर दिया तो सारे ऋषियों, गन्धर्वों तथा ब्रह्मा, शिव इत्यादि देवताओं ने भगवान की प्रशंसा की और भगवान तथा गजेन्द्र दोनों के ऊपर पुष्पवर्षा की।

2 स्वर्गलोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्वलोक के वासी नाचने और गाने लगे तथा महान ऋषियों, चारणलोक एवं सिद्धलोक के निवासियों ने भगवान पुरुषोत्तम की स्तुतियाँ कीं।

3-4 गन्धर्वों में श्रेष्ठ राजा हूहू, देवल मुनि द्वारा शापित होने के बाद घड़ियाल बन गया था। अब भगवान द्वारा उद्धार किये जाने पर उसने एक सुन्दर गन्धर्व का रूप धारण कर लिया। यह समझकर कि यह सब किसकी कृपा से सम्भव हो सका, उसने तुरन्त सिर के बल प्रणाम किया और श्रेष्ठ श्लोकों से पूजित होने वाले परम नित्य भगवान के लिए वह उपयुक्त स्तुतियाँ करने लगा।

5 भगवान की अहैतुकी कृपा से अपने पूर्व रूप को पाकर राजा हूहू ने भगवान की प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कार किया। तब ब्रह्मा इत्यादि समस्त देवताओं की उपस्थिति में वह गन्धर्व लोक लौट गया। वह सारे पापफलों से मुक्त हो चुका था।

6 चूँकि भगवान ने गजेन्द्र का अपने करकमलों से प्रत्यक्ष स्पर्श किया था, अतएव वह समस्त भौतिक अज्ञान तथा बन्धन से तुरन्त मुक्त हो गया। इस प्रकार उसे सारूप्य-मुक्ति प्राप्त हुई जिसमें उसे भगवान जैसा ही शारीरिक स्वरूप प्राप्त हुआ। वह पीत वस्त्र धारण किये चार भुजाओं वाला बन गया।

7 यह गजेन्द्र पहले वैष्णव था और द्रविड़ (दक्षिण भारत) प्रान्त के पाण्डय नामक देश का राजा था। अपने पूर्व जन्म में वह इन्द्रद्युम्न महाराज कहलाता था।

8 इन्द्रद्युम्न महाराज ने गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले लिया और मलय पर्वत चला गया जहाँ उसका आश्रम एक छोटी सी कुटिया के रूप में था। उसके सिर पर जटाएँ थीं और वह सदैव तपस्या में लगा रहता था। एक बार वह मौन व्रत धारण किये भगवान की पूजा में तल्लीन था और भगवतप्रेम के आनन्द में डूबा हुआ था।

9 जब इन्द्रद्युम्न महाराज भगवान की पूजा करते हुए ध्यान में तल्लीन थे तो अगस्त्य मुनि अपनी शिष्य-मण्डली समेत वहाँ पधारे। जब मुनि ने देखा कि राजा इन्द्रद्युम्न एकान्त स्थान में बैठकर मौन साधे हैं और उनके स्वागत के शिष्टाचार का पालन नहीं कर रहा है, तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए।

10 तब अगस्त्य मुनि ने राजा को यह शाप दे डाला – ”इन्द्रद्युम्न तनिक भी भद्र नहीं है। नीच तथा अशिक्षित होने के कारण इसने ब्राह्मण का अपमान किया है। अतएव यह अंधकार प्रदेश में प्रवेश करे और आलसी मूक हाथी का शरीर प्राप्त करे।"

11-12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, अगस्त्य मुनि राजा इन्द्रद्युम्न को इस तरह शाप देने के बाद अपने शिष्यों समेत उस स्थान से चले गये। चूँकि राजा भक्त था अतएव उसने अगस्त्य मुनि के शाप का स्वागत किया क्योंकि भगवान की ऐसी ही इच्छा थी। अतएव अगले जन्म में हाथी का शरीर प्राप्त करने पर भी भक्ति के कारण उसे यह स्मरण रहा कि भगवान की पूजा और स्तुति किस तरह की जाती है।

13 गजेन्द्र को घड़ियाल के चंगुल से अर्थात इस भौतिक जगत से छुड़ाकर भगवान ने उसे सारूप्य मुक्ति प्रदान की। भगवान के अद्भुत दिव्य कार्यकलापों का यश बखान करने वाले गन्धर्वों, सिद्धों तथा अन्य देवताओं की उपस्थिति में, भगवान अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर बैठकर अपने अद्भुत धाम को लौट गये।

14 हे राजा परीक्षित! अब मैंने तुमसे कृष्ण की अद्भुत शक्ति का वर्णन कर दिया है, जिसे भगवान ने गजेन्द्र का उद्धार कर प्रदर्शित किया था। हे कुरुश्रेष्ठ, जो लोग इस कथा को सुनते हैं, वे उच्चलोकों में जाने के योग्य बनते हैं। इस कथा के श्रवण मात्र से वे भक्त के रूप में ख्याति अर्जित करते हैं, वे कलियुग के कल्मष से अप्रभावित रहते हैं और कभी दुःस्वप्न नहीं देखते।

15 अतएव जो लोग अपना कल्याण चाहते हैं – विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य और इनमें से भी मुख्यतः ब्राह्मण वैष्णव – उन्हें प्रातःकाल बिस्तर से उठकर अपने दुःस्वप्नों के कष्टों का प्रतिकार करने के लिए इस कथा का बिना विचलित हुए यथारूप पाठ करना चाहिए।

16 हे कुरुश्रेष्ठ, इस प्रकार हर एक के परमात्मा तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने प्रसन्न होकर सबों के समक्ष गजेन्द्र को सम्बोधित किया। उन्होंने निम्नलिखित आशीष-वचन कहे।

17-24 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: समस्त पापपूर्ण कर्मों के फलों से ऐसे व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं, जो रात्रि बीतने पर प्रातःकाल ही जाग जाते हैं, अत्यन्त ध्यानपूर्वक अपने मन को मेरे रूप, तुम्हारे रूप, इस सरोवर, इस पर्वत, कन्दराओं, उपवनों, बेंत के वृक्षों, बाँस के वृक्षों, कल्पतरु, मेरे, ब्रह्मा तथा शिव के निवास स्थानों, सोना, चाँदी तथा लोहे से बनी त्रिकुट पर्वत की तीन चोटियों, मेरे सुहावने धाम (क्षीरसागर), आध्यात्मिक किरणों से नित्य चमचमाते श्वेत-द्वीप, मेरे चिन्ह श्रीवत्स, कौस्तुभ मणि, मेरी वैजयन्ती माला, कौमोदकी नामक मेरी गदा, मेरे सुदर्शन चक्र, तथा पाञ्चजन्य शंख, मेरे वाहन पक्षीराज गरुड़, मेरी शय्या शेषनाग, मेरी शक्ति का अंश लक्ष्मीजी, ब्रह्मा, नारद मुनि, शिवजी, प्रह्लाद, मेरे सारे अवतारों यथा मत्स्य, कूर्म तथा वराह, मेरे अनन्त शुभ कार्यकलापों में जो सुनने वाले को पवित्रता प्रदान करते हैं, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, ॐकार मंत्र, परम सत्य, समग्र भौतिक शक्तियों, गायों तथा ब्राह्मणों में, भक्ति, सोम तथा कश्यप की पत्नियों में जो राजा दक्ष की पुत्रियाँ हैं, गंगा, सरस्वती, नन्दा तथा यमुना नदियों, ऐरावत हाथी, ध्रुव महाराज, सप्तर्षि तथा पवित्र मनुओं में एकाग्र करते हैं।

25 हे प्रिय भक्त! जो लोग रात्रि बीतने पर बिस्तर से उठकर तुम्हारे द्वारा अर्पित इस स्तुति से मेरी प्रार्थना करते हैं, मैं उनके जीवन के अन्त में उन्हें वैकुण्ठ लोक में नित्य आवास प्रदान करता हूँ।

26 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस उपदेश को देकर हृषिकेश कहलाने वाले भगवान ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया और इस प्रकार ब्रह्मा इत्यादि सारे देवताओं को हर्षित किया। तब वे अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर चढ़ गये।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय तीन – गजेन्द्र की समर्पण स्तुति(8.3)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: तत्पश्चात गजेन्द्र ने अपना मन पूर्ण बुद्धि के साथ अपने हृदय में स्थिर कर लिया और उस मंत्र का जप प्रारम्भ किया जिसे उसने इन्द्रद्युम्न के रूप में अपने पूर्वजन्म में सीखा था और जो कृष्ण की कृपा से उसे स्मरण था।

2 गजेन्द्र ने कहा: मैं परम पुरुष वासुदेव को सादर नमस्कार करता हूँ (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय)। उन्हीं के कारण यह शरीर आत्मा की उपस्थिति के फलस्वरूप कर्म करता है, अतएव वे प्रत्येक जीव के मूल कारण हैं। वे ब्रह्मा तथा शिव जैसे महापुरुषों के लिए पूजनीय हैं और वे प्रत्येक जीव के हृदय में प्रविष्ट हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ।

3 भगवान ही वह परम धरातल है, जिस पर प्रत्येक वस्तु टिकी हुई है, वे वह अवयव हैं जिससे प्रत्येक वस्तु उत्पन्न हुई है तथा वे वह पुरुष हैं जिसने सृष्टि की रचना की और जो इस विराट विश्व के एकमात्र कारण हैं। फिर भी वे कारण-कार्य से पृथक हैं। मैं उन भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ जो सभी प्रकार से आत्म-निर्भर हैं।

4 भगवान अपनी शक्ति के विस्तार द्वारा कभी इस दृश्य जगत को व्यक्त बनाते हैं और कभी इसे अव्यक्त बना देते हैं। वे सभी परिस्थितियों में परम कारण तथा परम कार्य (फल), प्रेक्षक तथा साक्षी दोनों हैं। इस प्रकार वे सभी वस्तुओं से परे हैं। ऐसे भगवान मेरी रक्षा करें।

5 कालक्रम से जब लोकों तथा उनके निदेशकों एवं पालकों समेत ब्रह्माण्ड के सारे कार्य-कारणों का संहार हो जाता है, तो गहन अंधकार की स्थिति आती है। किन्तु इस अंधकार के ऊपर भगवान रहता है। मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ।

6 आकर्षक वेषभूषा से ढके रहने तथा विभिन्न प्रकार की गतियों से नाचने के कारण रंगमंच के कलाकार को श्रोता समझ नहीं पाते। इसी प्रकार परम कलाकार के कार्यों तथा स्वरूपों को बड़े-बड़े मुनि या देवतागण भी नहीं समझ पाते और बुद्धिहीन तो तनिक भी नहीं (जो पशुओं के तुल्य हैं)। न तो देवता तथा मुनि, न ही बुद्धिहीन मनुष्य भगवान के स्वरूप को समझ सकते हैं और न ही वे उनकी वास्तविक स्थिति को अभिव्यक्त कर सकते हैं। ऐसे भगवान मेरी रक्षा करें।

7 जो सभी जीवों को समभाव से देखते हैं, जो सबों के मित्रवत हैं तथा जो जंगल में ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा संन्यास व्रत का बिना त्रुटि के अभ्यास करते हैं, ऐसे विमुक्त तथा मुनिगण भगवान के सर्वकल्याणप्रद चरणकमलों का दर्शन पाने के इच्छुक रहते हैं। वही भगवान मेरे गन्तव्य हों।

8-9 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान भौतिक जन्म, कार्य, नाम, रूप, गुण या दोष से रहित हैं। यह भौतिक जगत जिस अभिप्राय से सृजित और विनष्ट होता रहता है उसकी पूर्ति के लिए वे अपनी मूल अन्तरंगा शक्ति द्वारा रामचन्द्र या भगवान कृष्ण जैसे मानव सदृश रूप में आते हैं। उनकी शक्ति महान है और वे विभिन्न रूपों में भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त होकर अद्भुत कर्म करते हैं। अतएव वे परब्रह्म हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

10 मैं उन आत्मप्रकाशित परमात्मा को नमस्कार करता हूँ जो प्रत्येक हृदय में साक्षी स्वरूप स्थित हैं, व्यष्टि जीवात्मा को प्रकाशित करते हैं और जिन तक मन, वाणी या चेतना के प्रयासों द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता।

11 भगवान की अनुभूति उन शुद्ध भक्तों को होती है, जो भक्तियोग की दिव्य स्थिति में रहकर कर्म करते हैं। वे अकलुषित सुख के दाता हैं और दिव्यलोक के स्वामी हैं। अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

12 मैं सर्वव्यापी भगवान वासुदेव को, भगवान के भयानक रूप नृसिंह देव को, भगवान के पशुरूप (वराह देव) को, निर्विशेषवाद का उपदेश देनेवाले भगवान दत्तात्रेय को, भगवान बुद्ध को तथा अन्य सारे अवतारों को नमस्कार करता हूँ। मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जो निर्गुण हैं, किन्तु भौतिक जगत में सतो, रजो तथा तमोगुणों को स्वीकार करते हैं। मैं निर्विशेष ब्रह्मतेज को भी सादर नमस्कार करता हूँ।

13 मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप परमात्मा, हर एक के अध्यक्ष तथा जो कुछ भी घटित होता है उसके साक्षी हैं। आप परम पुरुष, प्रकृति तथा समग्र भौतिक शक्ति के उद्गम हैं। आप भौतिक शरीर के भी स्वामी हैं। अतएव आप परम पूर्ण हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

14 हे भगवन! आप समस्त इन्द्रिय-विषयों के दृष्टा हैं। आपकी कृपा के बिना सन्देहों की समस्या के हल होने की कोई सम्भावना नहीं है। यह भौतिक जगत आपके अनुरूप छाया के समान है। निस्सन्देह, मनुष्य इस भौतिक जगत को सत्य मानता है क्योंकि इससे आपके अस्तित्व की झलक मिलती है।

15 हे भगवन! आप समस्त कारणों के कारण हैं, किन्तु आपका अपना कोई कारण नहीं है। अतएव आप हर वस्तु के अद्भुत कारण हैं। मैं आपको अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ। आप पंचरात्र तथा वेदान्तसूत्र जैसे शास्त्रों में निहित वैदिक ज्ञान के आश्रय हैं, जो आपके ही साक्षात स्वरूप हैं और परम्परा पद्धति के स्रोत हैं। चूँकि मोक्ष प्रदाता आप ही हैं अतएव आप ही अध्यात्मवादियों के एकमात्र आश्रय हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

16 हे प्रभु! जिस प्रकार अरणि-काष्ठ में अग्नि ढकी रहती है उसी प्रकार आप तथा आपका असीम ज्ञान प्रकृति के भौतिक गुणों से ढका रहता है। किन्तु आपका मन प्रकृति के गुणों के कार्यकलापों पर ध्यान नहीं देता। जो लोग आध्यात्मिक ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं, वे वैदिक वाड्मय में निर्देशित विधि-विधानों के अधीन नहीं होते। चूँकि ऐसे उन्नत लोग दिव्य होते हैं अतएव आप स्वयं उनके शुद्ध मन में प्रकट होते हैं। इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

17 चूँकि मुझ जैसे पशु ने परममुक्त आपकी शरण ग्रहण की है, अतएव आप निश्चय ही मुझे इस संकटमय स्थिति से उबार लेंगे। निस्सन्देह, अत्यन्त दयालु होने के कारण आप निरन्तर मेरे उद्धार करने का प्रयास करते हैं। आप अपने परमात्मा-अंश से समस्त देहधारी जीवों के हृदय में स्थित हैं। आप प्रत्यक्ष दिव्य ज्ञान के रूप में विख्यात हैं और आप असीम हैं। हे भगवन! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

18 हे प्रभु! जो लोग भौतिक कल्मष से पूर्णतः मुक्त हैं, वे अपने अन्तस्थल में सदैव आपका ध्यान करते हैं। आप मुझ जैसों के लिए दुष्प्राप्य हैं, जो मनोरथ, घर, सम्बन्धियों, मित्रों, धन, नौकरों तथा सहायकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। आप प्रकृति के गुणों से निष्कलुषित भगवान हैं। आप सारे ज्ञान के आगार, परम नियन्ता हैं। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

19 भगवान की पूजा करने पर जो लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चारों में रुचि रखते हैं, वे उनसे अपनी इच्छानुसार इन्हें प्राप्त कर सकते हैं। तो फिर अन्य आशीर्वादों के विषय में क्या कहा जा सकता है? कभी-कभी भगवान ऐसे महत्वाकांक्षी पूजकों को आध्यात्मिक शरीर प्रदान करते हैं। जो भगवान असीम कृपालु हैं, वे मुझे वर्तमान संकट से तथा भौतिकतावादी जीवन शैली से मुक्ति का आशीर्वाद दें।

20-21 ऐसे अनन्य भक्त जिन्हें भगवान की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई चाह नहीं रहती, वे पूर्णतः शरणागत होकर उनकी पूजा करते हैं और उनके आश्चर्यजनक तथा शुभ कार्यकलापों के विषय में सदैव सुनते हैं तथा कीर्तन करते हैं। इस प्रकार वे सदैव दिव्य आनन्द के सागर में मग्न रहते हैं। ऐसे भक्त भगवान से कोई वरदान नहीं माँगते, किन्तु मैं तो संकट में हूँ। अतएव मैं उन भगवान की स्तुति करता हूँ जो शाश्वत रूप में विद्यमान हैं, जो अदृश्य हैं, जो ब्रह्मा जैसे महापुरुषों के भी स्वामी हैं और जो केवल दिव्य भक्तियोग द्वारा ही प्राप्य हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण वे मेरी इन्द्रियों की पहुँच से तथा समस्त बाह्य अनुभूति से परे हैं। वे असीम हैं, वे आदि कारण हैं और सभी तरह से पूर्ण हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ।

22-24 भगवान अपने सूक्ष्म अंश जीव तत्त्व की सृष्टि करते हैं जिसमें ब्रह्मा, देवता तथा वैदिक ज्ञान के अंग (साम, ऋग, यजूर तथा अथर्व) से लेकर अपने-अपने नामों तथा गुणों सहित समस्त चर तथा अचर प्राणी सम्मिलित हैं। जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग या सूर्य की चमकीली किरणें अपने स्रोत से निकलकर पुनः उसी में समा जाती हैं उसी प्रकार मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, स्थूल भौतिक तथा सूक्ष्म भौतिक शरीर तथा प्रकृति के गुणों के सतत रूपान्तर (विकार)---ये सभी भगवान से उद्भूत होकर पुनः उन्हीं में समा जाते हैं। वे न तो देव हैं न दानव, न मनुष्य न पक्षी या पशु हैं। वे न तो स्त्री या पुरुष या क्लीव हैं और न ही पशु हैं। न ही वे भौतिक गुण, सकाम कर्म, प्राकट्य या अप्राकट्य हैं। वे " नेति-नेति " का भेदभाव करने में अन्तिम शब्द हैं और वे अनन्त हैं। उन भगवान की जय हो।

25 घड़ियाल के आक्रमण से मुक्त किये जाने के बाद मैं और आगे जीवित रहना नहीं चाहता। हाथी के शरीर से क्या लाभ जो भीतर तथा बाहर से, अज्ञान से आच्छादित हो? मैं तो अज्ञान के आवरण से केवल नित्य मोक्ष की कामना करता हूँ। यह आवरण काल के प्रभाव से विनष्ट नहीं होता।

26 भौतिक जीवन से मोक्ष की कामना करता हुआ अब मैं उस परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ जो इस ब्रह्माण्ड का स्रष्टा है, जो साक्षात विश्व का स्वरूप होते हुए भी इस विश्व से परे है। वह इस जगत में हर वस्तु का परम ज्ञाता है, ब्रह्माण्ड का परमात्मा है। वह अजन्मा है और परम पद पर स्थित भगवान है। उसे मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

27 मैं उन ब्रह्म, परमात्मा, समस्त योग के स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो सिद्ध योगियों द्वारा अपने हृदयों में तब देखे जाते हैं जब उनके हृदय भक्तियोग के अभ्यास द्वारा सकाम कर्मों के फलों से पूर्णतया शुद्ध तथा मुक्त हो जाते हैं।

28 हे प्रभु ! आप तीन प्रकार की शक्तियों के दुस्तर वेग के नियामक हैं। आप समस्त इन्द्रियसुख के आगार हैं और शरणागत जीवों के रक्षक हैं। आप असीम शक्ति के स्वामी हैं, किन्तु जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में रखने मे अक्षम हैं, वे आप तक नहीं पहुँच पाते। मैं आपको बारम्बार सादर नमस्कार करता हूँ।

29 मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जिनकी माया से ईश्वर का अंश जीव देहात्मबुद्धि के कारण अपनी असली पहचान को भूल जाता है। मैं उन भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ जिनकी महिमा को समझ पाना कठिन है।

30 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: जब गजेन्द्र किसी व्यक्ति विशेष का नाम न लेकर परम पुरुष का वर्णन कर रहा था, तो उसने ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, चन्द्र इत्यादि देवताओं का आह्वान नहीं किया। अतएव इनमें से कोई भी उसके पास नहीं आए। किन्तु चूँकि भगवान हरि परमात्मा, पुरुषोत्तम हैं अतएव वे गजेन्द्र के समक्ष प्रकट हुए।

31 गजेन्द्र के प्रार्थना करने के कारण उसकी विकट स्थिति को समझने के पश्चात सर्वत्र निवास करने वाले भगवान हरि उन देवताओं समेत वहाँ प्रकट हुए जो उनकी स्तुति कर रहे थे। अपने हाथों में चक्र तथा अन्य आयुध लिए और अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर सवार होकर वे तीव्र गति से अपनी इच्छानुसार गजेन्द्र के समक्ष प्रकट हुए।

32 घड़ियाल ने गजेन्द्र को जल में बलपूर्वक पकड़ रखा था जिससे वह अत्यधिक पीड़ा का अनुभव कर रहा था, किन्तु जब उसने देखा कि नारायण अपना चक्र घुमाते हुए गरुड़ की पीठ पर बैठकर आकाश में आ रहे हैं, तो उसने तुरन्त ही अपनी सूँड में कमल का एक फूल ले लिया और अपनी वेदना के कारण अत्यन्त कठिनाई से निम्नलिखित शब्द कहे "हे भगवान, नारायण, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे परमेश्वर! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।"

33 तत्पश्चात गजेन्द्र को ऐसी पीड़ित अवस्था में देखकर, अजन्मा भगवान हरि तुरन्त अहैतुकी कृपावश गरुड़ की पीठ से नीचे उतरे और गजेन्द्र को घड़ियाल समेत जल के बाहर खींच लाये। तब समस्त देवताओं की उपस्थिति में जो सारा दृश्य देख रहे थे, भगवान ने अपने चक्र से घड़ियाल के मुख को उसके शरीर से पृथक कर दिया। इस प्रकार उन्होंने गजेन्द्र को बचा लिया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय दो – गजेन्द्र का संकट(8.2)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, त्रिकुट नाम का एक विशाल पर्वत है। यह दस हजार योजन (80 हजार मील) ऊँचा है। चारों ओर से क्षीरसागर द्वारा घिरे होने के कारण इसकी स्थिति अत्यन्त रमणीक है।

2-3 पर्वत की लम्बाई तथा चौड़ाई समान (80 हजार मील) है। इसकी तीन प्रमुख चोटियाँ, जो लोहे, चाँदी तथा सोने की बनी हैं, सारी दिशाओं एवं आकाश को सुन्दर बनाती हैं। पर्वत में अन्य चोटियाँ भी हैं, जो रत्नो तथा खनिजों से पूर्ण हैं और सुन्दर वृक्षों, लताओं एवं झड़ियों से अलंकृत हैं। पर्वत के झरनों से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह सुहावनी है। इस प्रकार यह पर्वत सभी दिशाओं में सुन्दरता को बढ़ाते हुए खड़ा है।

4 पर्वत की तलहटी की भूमि सदैव दूध की लहरों से प्रक्षालित होती रहती है,जो आठों दिशाओं में (उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम तथा इनके बीच की दिशाओं में) मरकत मणियाँ उत्पन्न करती रहती है।

5 उच्चलोकों के वासी-सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, उरग, किन्नर तथा अप्सराएँ--इस पर्वत में क्रीड़ा करने के लिए जाते हैं। इस तरह पर्वत की सारी गुफाएँ स्वर्गलोकों के निवासियों से भरी रहती हैं।

6 गुफाओं में स्वर्ग के निवासियों के गायन की गूँजती हुई ध्वनियों के कारण वहाँ के सिंह, जिन्हें अपनी शक्ति पर गर्व है, असह्य ईर्ष्या के कारण यह सोचकर गर्जना करते हैं कि वहाँ पर कोई अन्य सिंह वैसे ही दहाड़ रहा है।

7 त्रिकुट पर्वत के नीचे की घाटियाँ अनेक प्रकार के जंगली जानवरों से सुशोभित हैं और देवताओं के उद्यानों में जो वृक्ष हैं उन पर नाना प्रकार के पक्षी सुरीली तान से चहकते रहते हैं।

8 त्रिकुट पर्वत में अनेक नदियाँ तथा झीलें हैं जिनके तट बालू के कणों के सदृश छोटे-छोटे रत्नों से ढके रहते हैं। उनका जल मणियों की भाँति निर्मल है। जब देव-ललनाएँ उनमें स्नान करती हैं, तो जल तथा पवन उनके शरीरों से सुगन्धी ग्रहण कर लेते हैं जिससे वायुमण्डल और भी सुगन्धित हो जाता है।

9-13 त्रिकुट पर्वत की घाटी में ऋतुमत नामक एक उद्यान था। यह उद्यान महान भक्त वरुण का था और यह देवांगनाओं का क्रीड़ास्थल था। यहाँ सभी ऋतुओं में फूल-फल उगते रहते थे। इनमें से मन्दार, पारिजात, पाटल, अशोक, चम्पक, आम्रविशेष, पियाल, पनस, आम, आम्रातक, क्रमुक, नारियल, खजूर तथा अनार मुख्य थे। वहाँ पर मधुक, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, अरिष्ट, उडुम्बर, प्लक्ष, बरगद, किन्शुक तथा चन्दन के वृक्ष थे। वहाँ पर पिचुमर्द, कोविदार, सरल, सुरदारु, अंगूर, गन्ना, केला, जम्बु, बदरी, अक्ष, अभय तथा आमलकी भी थे।

14-19 उस उद्यान में एक विशाल सरोवर था, जो चमकीले सुनहरे कमल के फूलों से तथा कुमुद, कल्हार, उत्पल एवं शतपत्र फूलों से भरा था जिनसे पर्वत की सुन्दरता में वृद्धि हो रही थी। उस उद्यान में बिल्व, कपित्थ, जम्बीर तथा भल्लातक वृक्ष भी थे। मदमत्त भौंरे मधुपान कर रहे थे और अत्यन्त मधुर ध्वनि में गान करने वाले पक्षियों की चहचहाहट के साथ वे भी गुनगुना रहे थे। सरोवर में हंसों, कारण्डवों, चक्रवाकों, सारसों, जलमुर्गियों, दात्यूहों, कोयष्टियों तथा अन्य चहचहाते पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड थे। मछलियों तथा कछुवों के इधर-उधर तेजी से गति करने से कमल के फूलों से जो परागकण गिरे थे उनसे जल सुशोभित था। सरोवर के चारों ओर कदम्ब, वेतस, नल, नीप, वंजुलक, कुण्ड, कुरुबक, अशोक, शिरीष, कुटज, इंगुद, कुब्जक, स्वर्णयूथी, नाग, पुन्नाग, जाति, मल्लिका, शतपत्र, जालका तथा माधवी लताएँ थीं। सरोवर के तट ऐसे वृक्षों से भलीभाँति अलंकृत थे, जो सभी ऋतुओं में फूल तथा फल देने वाले थे। इस तरह पूरा पर्वत भव्य रूप से सजा हुआ था।

20 एक बार हथियों का अगुवा (प्रमुख), जो त्रिकुट पर्वत के जंगल में रहता था, अपनी हथिनियों के साथ सरोवर की ओर घूमने निकल पड़ा। उसने अनेक पौधों, लताओं तथा गुल्मों को उनके चुभने वाले काँटों की परवाह न करते हुए रौंद डाला।

21 उस हाथी की सुगन्ध पाकर ही सारे अन्य हाथी, बाघ तथा अन्य हिंस्र पशु, जैसे सिंह, गैंडे, सर्प एवं सफेद-काले सरभ भय से भाग गये। यहाँ तक कि चमरी हिरण भी भाग निकले।

22 इस हाथी की कृपा से लोमड़ी, भेड़िया, भैंसे, भालू, सुअर, गोपुच्छ, सेही, बन्दर, खरहे, हिरण तथा अन्य छोटे पशु जंगल में सर्वत्र विचरण करते रहते थे। वे उससे भयभीत नहीं रहते थे।

23-24 वह हाथियों का राजा गजपति झुण्ड के अन्य हाथियों तथा हथिनियों से घिरा था और उसके पीछे-पीछे हाथी के बच्चे चल रहे थे। वह अपने शरीर के भार से त्रिकुट पर्वत को चारों ओर से कँपा रहा था। उसके पसीना छूट रहा था, उसके मुँह से मद की लार टपक रही थी और उसकी दृष्टि मद से भरी थी। मधु पी-पीकर भौरें उसकी सेवा कर रहे थे और वह दूर से ही उन कमल फूलों के रजकणों की सुगन्ध का अनुभव कर रहा था, जो मन्द पवन द्वारा उस सरोवर से ले जाई जा रही थी। इस प्रकार प्यास से पीड़ित अपने साथियों से घिरा वह गजपति तुरन्त सरोवर के तट पर आया।

25 वह हाथियों का राजा (गजेन्द्र) सरोवर में घुस गया, पूरी तरह नहाया और अपनी थकान से मुक्त हो गया। तब उसने सूँड से जी भरकर शीतल, स्वच्छ अमृततुल्य जल पिया जो कमलपुष्पों तथा जल कुमुदिनियों की रज से मिश्रित था।

26 आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन एवं अपने परिवार वालों के प्रति अत्यधिक आसक्त मनुष्य की भाँति उस हाथी ने कृष्ण की बहिरंगा शक्ति (माया) द्वारा मोहित होकर अपनी पत्नी तथा बच्चों को स्नान कराया और पानी पिलाया। उसने सूँड में सरोवर का पानी भरकर उन सबके ऊपर छिड़का। उसने इस प्रयास में लगने वाले कठिन श्रम की परवाह नहीं की।

27 हे राजन, विधाता की लेख से एक बलिष्ठ घड़ियाल ने, जो हाथी पर क्रुद्ध था, जल के भीतर से ही हाथी के पैर पर आक्रमण कर दिया। हाथी निश्चय ही बलवान था और उसने भाग्य द्वारा प्रेषित इस संकट से अपने को छुड़ाने का भरपूर प्रयत्न किया।

28 तत्पश्चात गजेन्द्र को उस विकट स्थिति में देखकर उसकी पत्नियाँ अत्यधिक दुखी हुई और चिंघाड़ने लगीं। दूसरे हाथियों ने गजेन्द्र की सहायता करनी चाहिए, किन्तु घड़ियाल की विपुल शक्ति के कारण वे उसे पीछे से पकड़कर उसको नहीं बचा सके।

29 हे राजन, इस तरह हाथी तथा घड़ियाल जल के बाहर तथा जल के भीतर एक दूसरे को घसीट-घसीट कर एक हजार वर्षों तक लड़ते रहे। इस लड़ाई को देखकर देवतागण अत्यन्त चकित थे।

30 तत्पश्चात जल के भीतर खींचे जाने तथा दीर्घकाल तक लड़ते रहने के कारण हाथी की मानसिक, शारीरिक तथा ऐन्द्रिय शक्ति घटने लगी। इसके विपरीत जल-पशु होने के कारण घड़ियाल का उत्साह, उसकी शारीरिक शक्ति तथा ऐन्द्रिय शक्ति बढ़ती रही ।

31 जब गजेन्द्र ने देखा कि वह देवी इच्छा से घड़ियाल के चंगुल में है और बन्धन में फँसकर परिस्थितिवश असहाय है एवं अपने को संकट से नहीं उबार सकता तो वह मारे जाने से अत्यन्त भयभीत हो उठा। फलस्वरूप उसने बहुत समय तक विचार किया और अन्ततोगत्वा वह इस निर्णय पर पहुँचा।

32 जब मेरे मित्र तथा अन्य सम्बन्धी हाथी मुझे इस संकट से नहीं उबार सके तो मेरी पत्नियों का तो कहना ही क्या? वे कुछ नहीं कर सकतीं। यह विधाता की इच्छा थी कि इस घड़ियाल ने मुझ पर आक्रमण किया है, अतएव मैं उन भगवान की शरण में जाता हूँ जो हर एक को, यहाँ तक कि महापुरुषों को भी, सदैव आश्रय प्रदान करते हैं।

33 भगवान निश्चय ही हर एक को ज्ञात नहीं है, किन्तु हैं वे अत्यन्त शक्तिशाली तथा प्रभावशाली। अतएव यद्यपि काल रूपी सर्प प्रचण्ड वेग से निरन्तर हर किसी का पीछा कर रहा है और उसे निगलने को उद्यत है, तथापि, यदि वह इस सर्प से डरकर भगवान की शरण में जाता है, तो भगवान उसे संरक्षण प्रदान करते हैं क्योंकि भगवान के भय से मृत्यु भी भाग जाती है। अतएव मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ जो महान एवं शक्तिशाली परम सत्ता हैं और हर एक के वास्तविक आश्रय हैं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय एक – ब्रह्माण्ड के प्रशासक मनु (8.1)

1 राजा परीक्षित ने कहा: हे स्वामी! हे गुरु महाराज! अभी मैंने आपके मुख से स्वायम्भुव मनु के वंश के विषय में भलीभाँति सुना। किन्तु अन्य मनु भी तो हैं; अतएव मैं उनके वंशों के विषय में सुनना चाहता हूँ। कृपा करके उनका वर्णन करें।

2 हे विद्वान ब्राह्मण श्रील शुकदेव गोस्वामी! बड़े-बड़े विद्वान पुरुष, जो महान बुद्धिमान हैं, विभिन्न मन्वन्तरों में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कार्यकलापों का तथा उनके प्राकट्य का वर्णन करते हैं। हम इन वर्णनों को सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। कृपया उनका वर्णन करें।

3 हे विद्वान ब्राह्मण! कृपा करके इस दृश्य जगत को उत्पन्न करनेवाले भगवान के उन सारे कार्यकलापों का वर्णन हमसे करें जिन्हें उन्होंने विगत मन्वन्तरों में सम्पन्न किया, जो वे वर्तमान में सम्पन्न कर रहे हैं तथा जो वे भावी मन्वन्तरों में सम्पन्न करेंगे।

4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: वर्तमान कल्प में छह मनु हो चुके हैं। मैं तुमसे स्वायम्भुव मनु तथा अनेक देवताओं के प्राकट्य के विषय में वर्णन कर चुका हूँ। ब्रह्मा के इस कल्प में स्वायम्भुव प्रथम मनु हैं।

5 स्वायम्भुव मनु की दो पुत्रियाँ थीं--आकूति तथा देवहूति। उनके गर्भ से भगवान दो पुत्रों के रूप में प्रकट हुए जिनके नाम क्रमशः यज्ञमूर्ति तथा कपिल थे। इन पुत्रों को धर्म तथा ज्ञान का उपदेश देने का कार्यभार सौंपा गया।

6 हे कुरुश्रेष्ठ! मैं देवहूति के पुत्र कपिल के कार्यकलापों का पहले ही (तृतीय स्कन्ध में) वर्णन कर चुका हूँ। अब मैं आकूति के पुत्र यज्ञपति के कार्यकलापों का वर्णन करूँगा।

7 शतरूपा के पति स्वायम्भुव मनु स्वभाव से इन्द्रियभोग के प्रति तनिक भी आसक्त नहीं थे। अतएव उन्होंने अपने विलासमय राज्य को त्याग दिया और अपनी पत्नी सहित तपस्या करने के लिए जंगल में चले गये।

8 हे भरतवंशी! स्वायम्भुव मनु अपनी पत्नी समेत जंगल में प्रविष्ट होने के बाद सुनन्दा नदी के तट पर एक पाँव पर खड़े रहे। इस प्रकार केवल एक पाँव से पृथ्वी का स्पर्श करते हुए उन्होंने एक सौ वर्षों तक महान तपस्या की। तपस्या करते समय वे इस प्रकार बोले।

9 श्री मनु ने कहा: परम पुरुष ने इस चेतन भौतिक जगत की सृष्टि की है, ऐसा नहीं है कि इस भौतिक जगत से उसकी उत्पत्ति हुई हो। जब सब कुछ निस्तब्ध रहता है, तो परम पुरुष साक्षी रूप में जगा रहता है। जीव उसे नहीं जानता, किन्तु वह सब कुछ जानता रहता है।

10 इस ब्रह्माण्ड में भगवान परमात्मा रूप में सर्वत्र, जहाँ कहीं भी चर तथा अचर प्राणी हैं, विद्यमान हैं। अतएव मनुष्य उतना ही स्वीकार करे जितना उसके लिए नियत है, उसे पराये धन में हस्तक्षेप करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

11 भगवान विश्व के कार्यकलापों को निरन्तर देखते रहते हैं, किन्तु उन्हें कोई नहीं देख पाता। फिर भी किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि उन्हें कोई नहीं देखता अतएव वे भी उसे नहीं देखते। स्मरण रहे कि उनके देखने की शक्ति में कभी ह्रास नहीं होता अतएव प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि उन परमात्मा की पूजा करे जो प्रत्येक जीव के साथ मित्र रूप में सदैव रहते हैं।

12 भगवान परम सत्य हैं और उनकी महानता पूर्ण है। उनका एक रूप है जिसका न तो आदि है, न अन्त और न मध्य। न ही वे किसी व्यक्ति विशेष या राष्ट्र के हैं। उनका न भीतर है न बाहर। जगत में दिखने वाले सारे द्वन्द्व उस परम पुरुष में नहीं हैं। उनका एक दूसरा रूप भी है जिससे यह ब्रह्माण्ड उद्भूत है।

13 यह समग्र विश्व परम सत्य भगवान का शरीर है जिनके लाखों नाम हैं और अनन्त शक्तियाँ हैं। वे आत्मतेजोमय, अजन्मा तथा परिवर्तनहीन हैं। वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं, किन्तु स्वयं उनका कोई आदि नहीं है। चूँकि उन्होंने अपनी बहिरंगा शक्ति से इस विराट रूप की सृष्टि की है अतएव यह उनके द्वारा उत्पन्न पालित तथा ध्वंसित प्रतीत होता है। फिर भी वे अपनी आध्यात्मिक शक्ति में निष्क्रिय रहते हैं और भौतिक शक्ति के कार्यकलाप उनका स्पर्श तक नहीं कर पाते।

14 अतएव लोगों को कर्मों की ऐसी अवस्था तक पहुँचने में समर्थ बनाने के लिए जो सकाम फलों से दूषित नहीं होते, बड़े-बड़े साधु पुरुष सर्वप्रथम लोगों को सकाम कर्म में लगाते हैं क्योंकि जब तक कोई शास्त्रानुमोदित कर्मों को सम्पन्न करना आरम्भ नहीं करता तब तक वह मुक्ति की अवस्था को या कर्मफल न उत्पन्न करने वाले कार्यों की अवस्था को प्राप्त नहीं होता।

15 भगवान स्वयं अपनी ही उपलब्धियों से ऐश्वर्यपूर्ण हैं, फिर भी वे संसार के स्रष्टा, पालक तथा संहारकर्ता के रूप में कार्य करते हैं। इस प्रकार से कर्म करने पर भी वे कभी बन्धन में नहीं पड़ते। अतएव जो भक्तगण उनके चरण चिन्हों का अनुगमन करते हैं, वे भी कभी बन्धन में नहीं पड़ते।

16 भगवान कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति की भाँति कर्म करते हैं, फिर भी वे कर्मफल भोगने की इच्छा नहीं रखते। वे ज्ञान से पूर्ण, भौतिक इच्छाओं तथा विक्षेपों से मुक्त एवं पूर्णत: स्वतंत्र हैं। वे मानव समाज के परम शिक्षक के रूप में अपनी ही कर्मशैली का उपदेश देते हैं और इस प्रकार धर्म के असली मार्ग का उदघाटन करते हैं। मैं हर व्यक्ति से प्रार्थना करता हूँ कि वह उनका अनुसरण करे।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस प्रकार स्वायम्भुव मनु उपनिषदों के मंत्रों की जयध्वनि करते हुए समाधिस्थ हो गये। उन्हें देखकर राक्षसों तथा असुरगण ने अत्यन्त भूखे होने के कारण उन्हें निगल जाना चाहा। अतएव वे उनके पीछे द्रुतगति से दौड़ने लगे।

18 प्रत्येक हृदय में वास करनेवाले भगवान विष्णु यज्ञपति के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने देखा कि राक्षस तथा असुर स्वायम्भुव मनु को निगल जाने वाले हैं। इस प्रकार याम नामके अपने पुत्रों तथा अन्य सभी देवताओं को साथ लेकर भगवान ने उन असुरों तथा राक्षसों को मार डाला। तब उन्होंने इन्द्र का पद ग्रहण किया और स्वर्गलोक पर शासन करने लगे।

19 अग्नि का पुत्र स्वारोचिष दूसरा मनु बना। उसके अनेक पुत्रों में द्युमत, सुषेण तथा रोचिष्मत प्रमुख थे।

20 स्वारोचिष के शासनकाल में इन्द्र का पद यज्ञपुत्र रोचन ने ग्रहण किया। तुषित तथा अन्य लोग प्रधान देवता बने और ऊर्ज, स्तम्भ इत्यादि सप्तर्षि हुए। ये सभी भगवान के निष्ठावान भक्त थे।

21 वेदशीरा अत्यन्त विख्यात ऋषि थे। उनकी पत्नी तुषिता के गर्भ से विभु नामक अवतार ने जन्म लिया।

22 विभु ब्रह्मचारी बने रहे और जीवन पर्यन्त अविवाहित रहे। उनसे अट्ठासी हजार अन्य मुनियों ने आत्मनिग्रह, तपस्या तथा अन्य आचार सम्बन्धी शिक्षाएँ ग्रहण कीं।

23 हे राजन, तीसरा मनु राजा प्रियव्रत का पुत्र उत्तम था। इस मनु के पुत्रों में पवन, सृञ्जय तथा यज्ञहोत्र मुख्य थे।

24 तीसरे मनु के शासनकाल में वसिष्ठ के पुत्र प्रमद तथा अन्य पुत्र सप्तर्षि बने। सत्यगण, वेदश्रुतगण तथा भद्रगण देवता बने और सत्यजित को स्वर्ग का राजा इन्द्र चुना गया।

25 भगवान इस मन्वन्तर में धर्म की पत्नी सूनृता के गर्भ से प्रकट हुए और सत्यसेन नाम से विख्यात हुए। वे सत्यव्रत नाम के अन्य देवताओं के साथ प्रकट हुए।

26 सत्यसेन ने अपने मित्र सत्यजित के साथ जो उस काल के स्वर्ग के राजा इन्द्र थे, समस्त झूठे, अपवित्र तथा दुराचारी यक्षों, राक्षसों तथा भूतप्रेतों का वध कर दिया क्योंकि वे अन्य जीवों को कष्ट पहुँचाते थे।

27 तीसरा मनु उत्तम का भाई जो तामस नाम से विख्यात था चौथा मनु बना। तामस के दस पुत्र थे जिनमें पृथु, ख्याति, नर तथा केतु प्रमुख थे।

28 तामस मनु के शासनकाल में सत्यकगण, हरिगण तथा वीरगण देवताओं में से थे। स्वर्ग का राजा इन्द्र त्रिशिख था। सप्तर्षि-धाम के ऋषियों में ज्योतिर्धाम प्रमुख था।

29 हे राजन, तामस मन्वन्तर में विधृति के पुत्र भी जो वैधृति कहलाते थे, देवता बने। चूँकि कालक्रम से वैदिक स्वत्व विनष्ट हो गया था, अतएव इन देवताओं ने अपने बल से स्वत्व की रक्षा की।

30 इस मन्वन्तर में भगवान विष्णु ने भी हरिमेधा की पत्नी हरिणी के गर्भ से जन्म लिया और वे हरि कहलाए। हरि ने हाथियों के राजा एवं अपने भक्त गजेन्द्र को घड़ियाल के मुख से छुड़ाया।

31 राजा परीक्षित ने कहा: हे बादरायणी प्रभु! हम आपसे विस्तार से यह सुनना चाहते हैं कि घड़ियाल द्वारा आक्रमण किये जाने पर हाथियों के राजा (गजेन्द्र) को हरि ने किस प्रकार छुड़ाया ?

32 कोई भी साहित्य या वृत्तान्त जिसमें भगवान उत्तमश्लोक का वर्णन और उनकी महिमा का गायन किया जाता है, वह निश्चय ही महान, शुद्ध, कल्याणप्रद तथा सब में उत्तम है।

33 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: हे ब्राह्मणों, जब आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे परीक्षित महाराज ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से ऐसा बोलने के लिए प्रार्थना की तो मुनि ने राजा के शब्दों से प्रोत्साहित होकर, राजा का अभिनन्दन किया और वे सुनने के इच्छुक मुनियों की सभा में अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक बोले।

( समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय पन्द्रह – सुसंस्कृत मनुष्यों के लिए उपदेश (7.15)

1-10 नारद मुनि ने कहा: हे राजन, कुछ ब्राह्मण सकाम कर्मों में अत्यधिक आसक्त रहते हैं, कुछ तपस्या में और कुछ वैदिक साहित्य का अध्ययन करने में तो कुछ (भले ही कम ही क्यों न हों) ज्ञान का अनुशीलन करते हैं और विभिन्न योगों का, विशेष रूप से भक्ति योग का अभ्यास करते हैं। जो व्यक्ति अपने पितरों या स्वयं की मुक्ति का इच्छुक हो उसे चाहिए कि ऐसे ब्राह्मण को दान दे जो निर्विशेष अद्वैतवाद में निष्ठा (ज्ञान निष्ठा) रखता हो। ऐसे उच्च ब्राह्मण के अभाव में, सकाम कर्मों (कर्मकाण्ड) में अनुरक्त ब्राह्मण को दान दिया जा सकता है। मनुष्य को चाहिए कि देवताओं को आहुति देते समय केवल दो ब्राह्मणों को और पितरों को आहुति देते समय तीन ब्राह्मणों को आमंत्रित करे। या इन दोनों में केवल एक-एक ब्राह्मण काफी होगा। कोई कितना ही ऐश्वर्यवान क्यों न हो, उसे अधिक ब्राह्मण नहीं आमंत्रित करने चाहिए या इन अवसरों पर अत्यन्त खर्चीली व्यवस्था नहीं करनी चाहिए।    यदि कोई श्राद्ध कर्म के समय अनेक ब्राह्मणों या सम्बन्धियों को भोजन कराने की व्यवस्था करता है, तो काल, देश, श्राद्ध, पदार्थ, पात्र और पूजन विधि में त्रुटियाँ होंगी। जब उपयुक्त शुभ अवसर तथा स्थान प्राप्त हो तो मनुष्य को चाहिए कि अत्यन्त प्रेमपूर्वक भगवान के अर्चाविग्रह को घी में बना भोजन अर्पित करे और फिर उपयुक्त व्यक्ति अर्थात वैष्णव या ब्राह्मण को प्रसाद दे। इससे अक्षय समृद्धि आएगी। मनुष्य को चाहिए कि देवताओं, साधु पुरुषों, अपने पितरों, सामान्य जनों, अपने पारिवारिक सदस्यों, अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों को भगवान के भक्तों के रूप में देखते हुए प्रसाद प्रदान करे। धार्मिक सिद्धान्तों से भलीभाँति अवगत मनुष्य को चाहिए कि वह श्राद्धकर्म में मांस, अंडे या मछली जैसा कोई पदार्थ अर्पित न करे और न ही स्वयं भी ऐसी वस्तु खाए, चाहे वह क्षत्रिय ही क्यों न हो। जब घी से बना उपयुक्त भोजन सन्तजनों को दिया जाता है, तो यह कृत्य पितरों तथा परमेश्वर को अत्यन्त प्रिय लगता है, क्योंकि वे यज्ञ के नाम पर पशुओं का वध किये जाने पर कभी प्रसन्न नहीं होते। जो लोग श्रेष्ठ धर्म में प्रगति करना चाहते हैं उन्हें मंत्रणा दी जाती है कि वे अन्य जीवों से शरीर, वाणी या मन सम्बन्धी सारी ईर्ष्या छोड़ दें। इससे बढ़कर कोई अन्य धर्म नहीं है। आध्यात्मिक ज्ञान के जाग्रत होने से यज्ञ के विषय में बुद्धिमान व्यक्ति, धार्मिक नियमों के वास्तविक ज्ञाता तथा निष्काम व्यक्ति अपने को आध्यात्मिक ज्ञान की अथवा परम सत्य विषयक ज्ञान की अग्नि में संयमित बनाते हैं। वे कर्मकाण्डिय अनुष्ठान विधि को त्याग सकते हैं। यज्ञ सम्पन्न करने वाले व्यक्ति को देखकर बलि दिये जाने वाले सारे पशु यह सोचकर अत्यन्त डरे रहते हैं कि "यह निर्दयी यज्ञकर्ता यज्ञ के उद्देश्य से अनजान होने तथा अन्यों का वध करके परम संतुष्ट होने के कारण हमें निश्चित रूप से मार डालेगा।"

11-20 अतएव जो वास्तव में धर्म के सिद्धान्तों से अभिज्ञ (ज्ञाता) हैं और बेचारे पशुओं से अत्यधिक ईर्ष्या नहीं करता उसे दिन-प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक नैत्यिक तथा किन्हीं विशेष अवसरों पर किये जाने वाले यज्ञों को भगवत्कृपा से जो भी भोजन सरलता से उपलब्ध हो जाये उसी से सम्पन्न करना चाहिए। अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं, जो विधर्म, परधर्म, आभास, उपधर्म तथा छल धर्म के नाम से उचित रूप से जाने जाते हैं। जो असली धार्मिक जीवन से अवगत हो उसे इन पाँचों को अधर्म मानकर इनका परित्याग कर देना चाहिए। जो धार्मिक नियम किसी को अपना धर्म पालन करने से रोकते हैं विधर्म कहलाते हैं। अन्यों द्वारा चालू किये गए धार्मिक नियम परधर्म कहलाते हैं। जो मिथ्या गर्व करता है और वेदों के नियमों का विरोध करता है उसके द्वारा सृजित नये प्रकार का धर्म उपधर्म कहलाता है। शब्दजाल द्वारा विवेचना छल धर्म है। ऐसी कोई भी बनावटी धार्मिक प्रणाली, जो ऐसे व्यक्ति द्वारा बनाई गई हो जो जानबूझ कर अपने आश्रम के नियत कर्तव्यों की उपेक्षा करता है, आभास कहलाती है। किन्तु यदि कोई अपने किसी आश्रम विशेष या वर्ण के अनुसार अपने नियत कर्तव्य करता है, तो फिर वे सारे भौतिक क्लेशों को भगाने के लिए पर्याप्त क्यों नहीं है ? निर्धन होकर भी मनुष्य को अपने शरीर-निर्वाह के लिए या विख्यात धर्मज्ञ बनने के लिए अपनी आर्थिक दशा सुधारने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार एक अजगर एक ही स्थान पर पड़ा रहकर तथा अपनी जीविका के लिए कोई प्रयास (चेष्टा) न करते हुए भी शरीर-निर्वाह के लिए भोजन प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार निष्काम व्यक्ति बिना किसी चेष्टा के अपनी जीविका कमा लेता है।  जो आत्मतुष्ट हैं और अपने कर्मों को प्रत्येक हृदय में निवास करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से जोड़ता है, वह अपनी जीविका के लिए चेष्टा किये बिना दिव्य सुख भोगता है। भला उस भौतिकतावादी के लिए ऐसा सुख कहाँ जो विषय तथा लोभ से प्रेरित रहता है और जो धन जोड़ने की इच्छा से सभी दिशाओं में भटकता रहता है? जिसके पाँवों में सही जूते हों उसे कंकड़-पत्थरों तथा काँटों पर चलने में कोई भय नहीं लगता। उसके लिए सभी कुछ कल्याणमय (शुभ) है। इसी प्रकार जो सदैव आत्मतुष्ट रहता है उसे दुख नहीं सताते, वह सर्वत्र सुख का अनुभव करता है। हे राजन, आत्मतुष्ट व्यक्ति केवल जल पीकर भी सुखी रह सकता है। किन्तु जो व्यक्ति इन्द्रियों द्वारा चालित है, विशेष रूप से जो जीभ और जननेन्द्रियों के वश में होता है उसे अपनी इन्द्रियों की तुष्टि के लिए घरेलू कुत्ते का पद स्वीकार करना पड़ता है। भक्त या ब्राह्मण जो आत्मतुष्ट नहीं होता, उसका आध्यात्मिक ज्ञान, विद्या, तपस्या तथा कीर्ति उसकी इन्द्रिय-लोलुपता के कारण क्षीण हो जाते हैं और उसका ज्ञान शनैःशनैः लुप्त हो जाता है। भूख तथा प्यास से पीड़ित मनुष्य की प्रबल शारीरिक इच्छाएँ तथा आवश्यकताएँ भोजन कर लेने के बाद निश्चित रूप से तुष्ट हो जाती है। इसी प्रकार यदि कोई क्रोध करता है, तो प्रताड़ना तथा उसके फल द्वारा क्रोध तुष्ट हो जाता है।

21-30 लेकिन जहाँ तक लालच की बात है, यदि लालची व्यक्ति संसार की सारी दिशाओं को जीत ले या संसार की प्रत्येक वस्तु का भोग कर ले तो भी वह तुष्ट नहीं होगा। हे राजा युधिष्ठिर, अनेक अनुभवी व्यक्ति, अनेक विधि सलाहकार, अनेक विद्वान तथा विद्वत सभाओं के सभापति बनने योग्य अनेक व्यक्ति अपने-अपने पदों से संतुष्ट न होने के कारण नारकीय जीवन में जा गिरते हैं। संकल्पपूर्वक योजनाएँ बनाकर मनुष्य को इन्द्रियतृप्ति की कामपूर्ण इच्छाएँ त्याग देनी चाहिए। इस प्रकार ईर्ष्या त्यागकर क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, धन संग्रह करने के दोषों पर विचार-विमर्श करके लोभ का परित्याग करना चाहिए और सत्य की विवेचना करके भय का त्याग करना चाहिए।  आध्यात्मिक ज्ञान के विवेचन से शोक तथा मोह पर विजय प्राप्त की जा सकती है, महान भक्त की सेवा करके अहंकाररहित बना जा सकता है, मौन रहकर योग मार्ग के अवरोधों से बचा जा सकता है और इन्द्रियतृप्ति को रोक देने से ही ईर्ष्या पर विजय पाई जा सकती है। मनुष्य को चाहिए कि अन्य जीवों के कारण होने वाले दुखों का प्रतिकार अच्छे आचरण (सदाचार) तथा ईर्ष्या से रहित होकर करे, भाग्य द्वारा प्रदत्त कष्टों का सामना समाधि में ध्यान करके करे और शरीर तथा मन से उत्पन्न दुखों का प्रतिकार हठयोग, प्राणायाम आदि के अभ्यास द्वारा करे। इसी प्रकार विशेष रूप से सतोगुण का विकास करके खाने के मामले में, निद्रा पर विजय पाई जा सकती है।  मनुष्य को सतोगुण विकसित करके रजोगुण तथा तमोगुण को जीतना चाहिए और तब शुद्ध सत्त्व के पद तक उठकर सतोगुण से विरक्त हो लेना चाहिए। यदि कोई श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक गुरु की सेवा में लगा रहे तो यह सब कुछ स्वतः हो सकता है। इस प्रकार प्रकृति के गुणों के प्रभाव पर विजय पाई जा सकती है।   गुरु को साक्षात परमेश्वर मानना चाहिए, क्योंकि वह प्रबोधन (साक्षात्कार) के लिए दिव्य ज्ञान प्रदान करता है। फलस्वरूप जो यह भौतिक धारणा रखता है कि गुरु सामान्य मनुष्य होता है उसके लिए हर वस्तु निराशाजनक रहती है। उसका प्रकाश, उसका वैदिक अध्ययन तथा ज्ञान, झील में हाथी के स्नान के समान होता है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण अन्य समस्त जीवों के तथा भौतिक प्रकृति के स्वामी हैं। व्यास जैसे महर्षि उनके चरणकमलों की चेष्टा करते और उन्हें पूजते हैं। तो भी कुछ ऐसे मूर्ख हैं, जो श्रीकृष्ण को सामान्य मनुष्य मानते हैं। अनुष्ठान (कर्मकाण्ड), विधि-विधान, तपस्या तथा योगाभ्यास – ये सभी इन्द्रियों तथा मन को वश में करने के निमित्त हैं, किन्तु इन्द्रियों तथा मन को वश में कर लेने के बाद भी यदि वह परमेश्वर का ध्यान नहीं करता तो ये सारे कार्यकलाप श्रम केअपव्यय मात्र हैं। जिस तरह व्यावसायिक कार्यकलाप या व्यापार के लाभ किसी की आध्यात्मिक उन्नति में सहायक नहीं बन सकते, अपितु वे भौतिक बन्धन के कारण बन जाते हैं उसी तरह वैदिक कर्मकाण्ड ऐसे किसी व्यक्ति की सहायता नहीं कर सकते जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का भक्त नहीं है। जो मन पर विजय पाने का इच्छुक हो उसे अपने परिवार का साथ छोड़ते हुए दूषित संगति से मुक्त होकर एकान्त स्थान में रहना चाहिए। अपने शरीर के पोषण के लिए उसे उतना ही माँगना चाहिए जितने से जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी हो जाँय। 

31-40 हे राजन, योग सम्पन्न करने के लिए किसी पवित्र तथा पुण्य तीर्थस्थल में किसी एक स्थान को चुने। यह स्थान समतल हो – न तो अधिक ऊँचा और न नीचा। तब वहाँ सुखपूर्वक स्थिर तथा समभाव से बैठकर शरीर को सीधा रखकर वैदिक प्रणव का उच्चारण प्रारम्भ करें। विद्वान योगी अपनी नाक के अग्रभाग पर निरन्तर दृष्टि लगाकर पूरक, कुम्भक तथा रेचक नामक श्वास लेने के आसन का – अर्थात वह श्वास भीतर ले जाने, बाहर निकालने और फिर दोनों को रोक देने का – अभ्यास करता है। इस प्रकार योगी अपने मन को भौतिक आसक्तियों से रोकता है और सारी मानसिक इच्छाएँ त्याग देता है। ज्योंही मन कामेच्छाओं के वशीभूत होकर इन्द्रियतृप्ति की भावनाओं की ओर हटे त्योंही योगी को उसे तुरन्त वापस लाकर हृदय के भीतर बाँध लेना चाहिए। जब योगी इस तरह नियमित रूप से अभ्यास करता है, तो अल्प काल में उसका हृदय स्थिर हो जाता है और विचलित नहीं होता जिस प्रकार लपट या धूम से रहित अग्नि स्थिर हो जाती है। जब मनुष्य की चेतना भौतिक कामेच्छाओं से अदूषित होती है, तो वह सभी कार्यों में शान्त हो जाती है, क्योंकि मनुष्य नित्य आनन्दमय जीवन में स्थित हो जाता है। एक बार इस पद पर स्थित हो जाने पर मनुष्य फिर भौतिक कार्यकलापों की ओर वापस नहीं जाता।   जो संन्यास आश्रम स्वीकार करता है, वह धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन भौतिकतावादी कार्यकलापों के सिद्धान्तों को छोड़ देता है, जिनसे मनुष्य गृहस्थ जीवन में लिप्त रहता है। जो व्यक्ति पहले संन्यास स्वीकार करता है, किन्तु बाद में ऐसी भौतिकतावादी क्रियाओं में लौट आता है, वह वान्ताशी अर्थात अपनी ही वमन को खाने वाला कहलाता है। निस्सन्देह, वह निर्लज्ज व्यक्ति है। जो संन्यासी पहले यह समझते हैं कि शरीर मर्त्य है और यह विष्ठा, कृमि या राख में परिणत हो जाएगा किन्तु जो पुनः शरीर को महत्त्व प्रदान करते हैं तथा आत्मा कहकर उसका गुणगान करते हैं उन्हें सबसे बड़ा धूर्त मानना चाहिए। गृहस्थ आश्रम में रहने वाले व्यक्ति के लिए विधि-विधानों का परित्याग करना, गुरु के संरक्षण में रहते हुए ब्रह्मचारी के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन न करना, वानप्रस्थ के लिए गाँव में रहना और तथाकथित सामाजिक कार्यों में लगे रहना अथवा संन्यासी के लिए इन्द्रियतृप्ति में अनुरक्त रहना निन्दनीय हैं। जो ऐसा करता है, वह अत्यन्त निम्न श्रेणी का माना जाता है। ऐसा दिखावटी व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहग्रस्त रहता है। मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसे व्यक्ति को किसी भी पद से निकाल दे या हो सके तो उस पर दया करके उसे शिक्षा दे जिससे वह अपने मूल पद पर वापस चला जाए।   मनुष्य का शरीर आत्मा तथा परमात्मा को जानने के निमित्त होता है और ये दोनों आध्यात्मिक पद पर स्थित हैं। यदि उच्च ज्ञान से परिष्कृत होकर इन दोनों को जाना जा सकता है तो फिर मूर्ख तथा लालची व्यक्ति किसके लिए और किस कारण से इस शरीर का पालन इन्द्रियतृप्ति के लिए करता है?

41-49 ज्ञान में प्रबुद्ध अध्यात्मवादी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के आदेश से बने शरीर की तुलना रथ से करते हैं, इन्द्रियाँ घोड़ों के तुल्य हैं, इन्द्रियों का स्वामी मन लगाम सदृश हैं, इन्द्रियविषय गन्तव्य हैं, बुद्धि सारथी है और सारे शरीर में व्याप्त चेतना इस भौतिक जगत के बन्धन का कारण है। शरीर के भीतर कार्यशील दस प्रकार की वायुओं की तुलना रथ के पहिए के अरों (तीलियों) से की गई है और इस पहिए के ऊपरी तथा निचले भाग धर्म तथा अधर्म कहलाते हैं। देहात्मबुद्धि में रहने वाला जीव रथ का स्वामी है। वैदिक प्रणव मंत्र ही धनुष है, साक्षात शुद्ध जीव तीर है और परम पुरुष उसका लक्ष्य है। बद्ध-अवस्था में मनुष्य की जीवन सम्बन्धी अवधारणाएँ कभी-कभी रजो तथा तमो गुण के कारण दूषित हो जाती हैं, जो आसक्ति, शत्रुता, लोभ, शोक, मोह, भय, झूठी प्रतिष्ठा, अपमान, दोषान्वेषण, छलावा, ईर्ष्या, असहिष्णुता, कामेच्छा, मोह, भूख तथा निद्रा के रूप में प्रकट होती हैं। ये सभी शत्रु हैं। कभी-कभी सतोगुण के द्वारा भी मनुष्य की धारणाएँ दूषित हो जाती हैं। जब तक मनुष्य को इस शरीर को इसके विभिन्न अंगों तथा साज-सामान सहित जो पूर्णतया अपने वश में नहीं है स्वीकार करना है, तब तक उसे अपने श्रेष्ठजनों--अपने गुरु तथा गुरु के पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणकमलों को धारण करना चाहिए। उनकी कृपा से वह ज्ञान की तलवार को तेज कर सकता है और भगवत कृपा के बल पर तब वह उपर्युक्त शत्रुओं को पराजित कर सकता है। इस प्रकार भक्त को अपने ही दिव्य आनन्द में लीन रहने में समर्थ रहना चाहिए और तब वह अपना शरीर त्याग कर अपनी आध्यात्मिक पहचान फिर से पा सकता है। अन्यथा यदि मनुष्य कृष्ण तथा बलदेव की शरण ग्रहण नहीं कर लेता तो इन्द्रियाँ रूपी घोड़े तथा बुद्धि रूपी सारथी दोनों ही भौतिक कल्मष के प्रति उन्मुख होने से अनजाने ही शरीर रूपी रथ को इन्द्रियतृप्ति के मार्ग पर ला खड़ा करते हैं। इस प्रकार जब विषय के धूर्तों – खाना, सोना तथा मैथुन – के द्वारा वह आकृष्ट होता है, तो घोड़े तथा सारथी संसार के अन्धकूप में गिरा दिए जाते हैं और मनुष्य पुनः जन्म-मृत्यु की घातक तथा अत्यन्त भयावह स्थिति में आ पड़ता है। वेदों के अनुसार प्रवृत्ति तथा निवृत्ति दो प्रकार के कार्यकलाप होते हैं--प्रवृत्ति कार्यों का अर्थ है अपने को भौतिकतावादी जीवन की निम्नतर अवस्था से उच्चतर तक उठाना जबकि निवृत्ति का अर्थ है भौतिक इच्छा का अन्त। प्रवृत्ति कार्यों से मनुष्य भौतिक बन्धन में कष्ट उठाता है, किन्तु निवृत्ति कार्यों से वह शुद्ध हो जाता है और नित्य आनन्दमय जीवन को भोगने के योग्य बनाता है। अग्निहोत्र-यज्ञ, दर्श-यज्ञ, पूर्णमास-यज्ञ, चातुर्मास-यज्ञ, पशु-यज्ञ तथा सोम-यज्ञ नामक सारे अनुष्ठानों तथा यज्ञों की विशेषता पशुओं का वध करना तथा अनेक मूल्यवान पदार्थों को, विशेष रूप से अन्नों को, जलाना है। ये सब भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए सम्पन्न किये जाते हैं तथा ये चिन्ता (अशान्ति) उत्पन्न करते हैं। ऐसे यज्ञ करना, वैश्वदेव का पूजन तथा बलिहरण उत्सव सम्पन्न करना जो सभी सम्भवतः जीवन लक्ष्य माने जाते हैं तथा देवताओं के लिए मन्दिर बनवाना, विश्रामगृह तथा बगीचे बनवाना, जल वितरण के लिए कुएँ खुदवाना, भोजन वितरण के लिए केन्द्रों की स्थापना करना तथा जन-कल्याण के कार्य करना--ये सब लक्षण भौतिक इच्छाओं के प्रति आसक्ति से अभिव्यक्त होते हैं।

50-60  हे राजा युधिष्ठिर, जब यज्ञ में घी, अन्न (यथा जौ एवं तिल) की आहुतियाँ दी जाती हैं, तो वे दिव्य धुएँ में परिणत हो जाती हैं, जो मनुष्य को क्रमशः उच्च से उच्चतर लोकों को या धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणम तथा अन्त में चन्द्रलोक को ले जाता है। किन्तु यज्ञकर्ता फिर पृथ्वी पर उतर कर औषधियाँ, लताएँ, वनस्पतियाँ तथा अन्न बन जाते हैं। तब वे विभिन्न जीवों द्वारा खाये जाते हैं और वीर्य में परिणत होते हैं जिसे मादा शरीर में प्रविष्ट किया जाता है। इस प्रकार मनुष्य पुनःपुनः जन्म लेता है। द्विज (द्वि-जन्मा ब्राह्मण) को गर्भाधान संस्कार के द्वारा अपने माता-पिता की अनुकम्पा से अपना जीवत्व प्राप्त होता है। जीवन के अन्त में अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की जाती है और तब अन्य संस्कार भी सम्पन्न किए जाते हैं। इस तरह योग्य ब्राह्मण को कुछ समय के बाद भौतिकतावादी कार्यों तथा यज्ञों में अरुचि हो जाती है, किन्तु वह ऐन्द्रिय यज्ञों को पूर्ण ज्ञान के साथ कर्मेन्द्रियों को अर्पित कर देता है, जो ज्ञान की अग्नि से प्रकाशित रहती हैं। मन स्वीकृति तथा अस्वीकृति की तरंगों से सदैव विक्षुब्ध होता रहता है। अतएव इन्द्रियों के सारे कार्यकलाप मन को अर्पित कर देना चाहिए और मन को अपने शब्दों में अर्पित कर देना चाहिए, फिर इन शब्दों को समस्त वर्णों के समूह में अर्पित करना चाहिए जिसे ॐकार के संक्षिप्त रूप को अर्पित कर दिया जाना चाहिए। ॐकार को बिन्दु में, बिन्दु को नाद में और उस नाद को प्राणवायु में समर्पित करना चाहिए। जो शेष रूप में जीव बचे उसे परम ब्रह्म में स्थापित करे। यही यज्ञ की विधि है। ऊपर जाते हुए जीव अग्नि, सूर्य, दिन, सायं, शुक्ल पक्ष, पूर्ण चन्द्रमा तथा सूर्य के उत्तर दिशा जाने की अवधि (उत्तरम) एवं इनके अधिष्ठाता देवताओं के विभिन्न लोकों में प्रवेश करता है। जब वह ब्रह्मलोक में प्रविष्ट होता है, तो वहाँ लाखों वर्षों तक जीवन भोग करने के बाद अन्त में उसकी भौतिक उपाधि समाप्त हो जाती है। तब वह सूक्ष्म उपाधि प्राप्त करता है, जिससे उसे कारण रूप उपाधि प्राप्त होती है, जो समस्त पूर्ववर्ती अवस्थाओं की साक्षी होती है। इस अवस्था के विनष्ट होने पर उसे शुद्ध अवस्था प्राप्त होती है, जिसमें वह परमात्मा के साथ अपनी पहचान करता है। इस प्रकार से जीव दिव्य बन जाता है। आत्म-साक्षात्कार तक उठने की यह क्रमिक विधि उन लोगों के लिए है, जो सचमुच परम सत्य से अवगत हैं। देवयान नामक इस मार्ग पर बारम्बार जन्म लेने से ये क्रमिक अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं। जो आत्मा में स्थित है और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतया मुक्त है उसे इस बारम्बार जन्म-मृत्यु के मार्ग से गुजरने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इस भौतिक शरीर में स्थित रहते हुए भी जो पितृयान तथा देवयान मार्गों से पूर्णतया अवगत रहता है और जिसकी आँखें वैदिक ज्ञान की दृष्टि से इस प्रकार खुली रहती हैं वह भौतिक जगत में कभी मोहग्रस्त नहीं होता। जो भीतर और बाहर, सभी वस्तुओं तथा जीवों के प्रारम्भ तथा अन्त में, भोग्य तथा भोक्ता के रूप में, उच्च तथा निम्न के रूप में विद्यमान है, वह परम सत्य है। वह सदैव ज्ञान तथा ज्ञेय, अभिव्यक्ति तथा अभिज्ञेय, अंधकार तथा प्रकाश के रूप में रहता है। इस तरह वे परमेश्वर सर्वस्व हैं ।   दर्पण से प्राप्त सूर्य के प्रतिबिम्ब को मिथ्या माना जा सकता है, किन्तु इसका वास्तविक अस्तित्व तो होता ही है। उसी प्रकार से कल्पना (ज्ञान) द्वारा यह सिद्ध करना कि तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं होता, अत्यन्त कठिन होगा।  इस जगत में पाँच तत्त्व हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश। किन्तु शरीर न तो उनका प्रतिबिम्ब है, न उनका संयोग या उनका रूपान्तर। चूँकि शरीर तथा इसके अवयव न तो पृथक-पृथक हैं, न मिश्रित अतएव ऐसे सारे सिद्धान्त निराधार हैं। चूँकि शरीर पाँच तत्त्वों से बना है अतएव यह सूक्ष्म इन्द्रियविषयों के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता। चूँकि शरीर मिथ्या है, अतएव इन्द्रियविषय भी स्वभावतः मिथ्या या क्षणिक हैं।

61-70 जब किसी वस्तु को उसके अंशों से पृथक कर दिया जाता है, तो उनमें समानता (सादृश्य) मानना भ्रम (मोह) कहलाता है। स्वप्न देखते समय मनुष्य जागने तथा सोने की स्थितियों में अन्तर उत्पन्न कर देता है। ऐसी मानसिक अवस्था में शास्त्रों के विधानों की, जो आदेशों तथा निषेधों के रूप में होते हैं, संस्तुति की गई है। भाव, क्रिया तथा द्रव्य की अद्वैतता (एकत्व) पर विचार करने के बाद तथा आत्मा को समस्त कार्य-कारणों से पृथक मानते हुए मुनि अपनी ही अनुभूति से जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं को त्याग देता है। जब मनुष्य यह समझता है कि फल तथा कारण एक हैं और द्वैत अन्ततः इस विचार की भाँति अवास्तविक है कि वस्त्र के धागे वस्त्र से भिन्न हैं, तो वह एकत्व की अवधारणा को प्राप्त होता है, जिसे भावाद्वैत कहते हैं। हे युधिष्ठिर (पार्थ), जब मनुष्य के मन, वाणी तथा शरीर द्वारा किए गए सारे कार्य साक्षात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की सेवा में समर्पित किये जाते हैं, तो उसे कर्मों का एकत्व प्राप्त होता है जिसे क्रियाद्वैत कहा गया है। जब किसी मनुष्य का चरम लक्ष्य अपना स्वयं का, पत्नी का, सन्तानों का, सम्बन्धियों का तथा अन्य समस्त देहधारियों का स्वार्थ एक ही हो तो यह द्रव्याद्वैत कहलाता है।  हे राजा युधिष्ठिर, संकट न रहने पर सामान्य परिस्थितियों में मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन-स्तर के अनुसार नियत कार्यकलापों को ऐसी वस्तुओं, प्रयासों तथा विधियों से सम्पन्न करे तथा ऐसे स्थानों पर निवास करे जो उसके लिए निषिद्ध न हों। वह अन्य विधियों का उपयोग न करे। हे राजन, मनुष्य को अपने वृत्तिपरक कर्तव्य इन निर्देशों तथा वैदिक ग्रन्थों में दिए गए अन्य निर्देशों के अनुसार सम्पन्न करने चाहिए जिससे वह भगवान कृष्ण का भक्त बना रहे। इस प्रकार घर पर रहकर भी मनुष्य अपने गन्तव्य तक पहुँच सकता है। हे राजा युधिष्ठिर, तुम सभी पाण्डवों ने परमेश्वर की सेवा के कारण अनेक राजाओं तथा देवताओं द्वारा उत्पन्न बड़े से बड़े संकटों पर विजय प्राप्त कर ली। तुमने कृष्ण के चरणकमलों की सेवा करके हाथियों के समान बड़े-बड़े शत्रुओं को जीत लिया है और अपने यज्ञ के लिए सामग्री एकत्र की है। भगवत कृपा से तुम भव-बन्धन से छूट जाओगे।   बहुत समय पूर्व, एक अन्य महाकल्प (ब्रह्मा का युग) में, मैं उपबर्हण नामक गन्धर्व के रूप में था। अन्य गन्धर्वों में मेरा अत्यधिक सम्मान था। मेरा मुखमण्डल सुन्दर था और मेरी शारीरिक संरचना आकर्षक तथा सुहावनी थी। फूल के हारों से तथा चन्दन लेप से अलंकृत होने से मैं अपने नगर की स्त्रियों को अत्यन्त मोहक लगता था। इस तरह से मोहग्रस्त था और विषय-वासनाओं से सदैव पूर्ण रहता था।

71-80 एक बार देवताओं की सभा में परमेश्वर की महिमा के गायन के लिए एक संकीर्तन किया गया जिसमें गन्धर्वों तथा अप्सराओं को भाग लेने के लिए प्रजापतियों ने आमंत्रित किया।    नारद मुनि ने आगे कहा: उत्सव में बुलाये जाने पर मैं भी वहाँ गया। स्त्रियों से घिरे रहकर मैंने देवताओं की महिमा का संगीतात्मक गायन प्रारम्भ किया। इसके कारण प्रजापतियों ने मुझे इन शब्दों में बलात शाप दे डाला “चूँकि तुमने अपराध किया है अतएव तुम तुरन्त सौन्दर्य से विहीन शूद्र बन जाओ।"  यद्यपि मैंने एक दासी के गर्भ से शूद्र के रूप में जन्म लिया किन्तु मैं वैदिक ज्ञान में पारंगत वैष्णवों की सेवा में लग गया। फलस्वरूप इस जीवन में मुझे ब्रह्माजी के पुत्र रूप में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवान के पवित्र नाम का संकीर्तन इतना शक्तिशाली है कि इससे गृहस्थ भी उसी चरम फल को सरलता से प्राप्त कर लेते हैं, जो संन्यासियों को प्राप्त होता है। हे महाराज युधिष्ठिर, मैंने तुम्हें धर्म की वह विधि बतला दी है। हे महाराज युधिष्ठिर, तुम सभी पाण्डव इस संसार में इतने भाग्यशाली हो कि ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रहों को पवित्र करनेवाले अनेकानेक सन्तजन तुम्हारे घर में सामान्य अतिथि के रूप में आते हैं।  साथ ही, भगवान कृष्ण तुम्हारे घर में गोपनीय ढंग से तुम्हारे भाई के समान रह रहे हैं। यह कितना आश्चर्यजनक है कि वे परब्रह्म कृष्ण जिन्हें बड़े-बड़े मुनि अपनी मुक्ति तथा शाश्वत आनन्द प्राप्ति के लिए ढूँढते रहते हैं – तुम्हारे श्रेष्ठ शुभचिन्तक, मित्र, ममेरे भाई, आत्मा, पूज्य निर्देशक तथा गुरु की भाँति कार्य कर रहे हैं। यहाँ अब वही भगवान उपस्थित हैं जिनका असली रूप ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे महापुरुषों की भी समझ में नहीं आता। उनके भक्त अपने निष्ठापूर्ण आत्मसमर्पण द्वारा उनका साक्षात्कार करते हैं। ऐसे भगवान जो अपने भक्तों के पालनकर्ता हैं और जिनकी पूजा मौन, भक्ति तथा भौतिक कार्यों के उपशम (निवृत्त - cessation) द्वारा की जाती है, हम पर प्रसन्न हों। श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: श्रेष्ठ भरतवंशी युधिष्ठिर ने नारद मुनि के वर्णन से सब कुछ जान लिया। इन उपदेशों को सुनने के बाद उन्हें अपने हृदय में अत्यन्त आनन्द का अनुभव हुआ और उन्होंने अत्यन्त प्रेमविह्वल होकर भगवान कृष्ण की पूजा की। कृष्ण तथा महाराज युधिष्ठिर द्वारा पूजे जाकर नारद मुनि उनसे विदा लेकर चले गये। युधिष्ठिर महाराज अपने ममेरे भाई कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप में सुनकर अत्यधिक चकित हुए। इस ब्रह्माण्ड के भीतर समस्त लोकों में सारे जड़ तथा चेतन प्राणी जिनमें देवता, असुर तथा मनुष्य सम्मिलित हैं महाराज दक्ष की पुत्रियों से उत्पन्न हुए। इस तरह मैंने उन सबका तथा उनके विभिन्न वंशों का वर्णन कर दिया है।

 

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (सप्तम स्कन्धके समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

हरि ॐ तत सत

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

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अध्याय चौदह – आदर्श पारिवारिक जीवन (7.14)

1 महाराज युधिष्ठिर ने नारद मुनि से पूछा: हे स्वामी, हे महर्षि, कृपा करके यह बतलाएँ कि जीवन-लक्ष्य के ज्ञान से रहित, घर पर रहने वाले हम लोग वेदों के आदेशानुसार सरलता से मुक्ति किस तरह प्राप्त कर सकते हैं ?

2 नारदमुनि ने उत्तर दिया: हे राजन, जो लोग घर पर गृहस्थ बनकर रहते हैं उन्हें अपनी जीविका अर्जित करने के लिए कार्य करना चाहिए और अपने कर्मों का फल स्वयं भोगने का प्रयास न करके इन फलों को वासुदेव कृष्ण को अर्पित करना चाहिए। इस जीवन में वासुदेव को किस तरह प्रसन्न किया जाये इसे भगवदभक्तों की संगति के माध्यम से भलीभाँति सीखा जा सकता है।

3-4 गृहस्थ व्यक्ति को चाहिए कि वह साधु पुरुषों की संगति बारम्बार करे और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक परमेश्वर तथा उनके अवतारों के कार्यकलापों के अमृत का उस रूप में श्रवण करे जिस रूप में वे श्रीमदभागवत तथा अन्य पुराणों में वर्णित हैं। इस प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह धीरे-धीरे अपनी पत्नी तथा सन्तानों के स्नेह से उसी तरह विरक्त होता रहे जिस प्रकार जाग जाने पर मनुष्य स्वप्न से विरक्त हो जाता है।

5 वास्तविक विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह शरीर पालन के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही अर्जित करने के लिए कार्य करे और पारिवारिक मामलों से अनासक्त होकर मानव समाज में रहे, यद्यपि बाहर से वह उसमें अत्यधिक आसक्त प्रतीत हो।

6 मानव समाज में बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि अपने कार्यकलापों की योजना को अत्यन्त सहज बनाए। यदि उसका मित्र, पुत्र, माता-पिता, भाई या अन्य कोई कुछ सुझाव देता है, तो उसे ऊपर-ऊपर मानते हुए यह कहना चाहिए "हाँ, यह ठीक है" किन्तु भीतर से उसे दृढ़संकल्प होना चाहिए कि कहीं वह अपने जीवन को दूभर न बना ले जिससे जीवन का प्रयोजन पूरा न हो सके।

7 भगवान द्वारा उत्पन्न प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग जीवों के शरीरों तथा आत्माओं का पालन करने के लिए किया जाना चाहिए। जीवन की आवश्यकताएँ तीन प्रकार की हैं वे -जो आकाश से (वर्षा से) उत्पन्न हैं, वे जो पृथ्वी से (खानों समुद्रों या खेतों से) उत्पन्न हैं तथा वे जो वायुमण्डल से (जो अचानक तथा अनपेक्षित रूप से) उत्पन्न होती है।

8 शरीर के पालन के लिए जितने धन की आवश्यकता हो उतने के स्वामित्व का ही अधिकार रखना चाहिए, किन्तु जो इससे अधिक का स्वामी बनने की कामना करता है उसे चोर मानना चाहिए और प्रकृति के नियमों द्वारा दण्डनीय है।

9 मनुष्य को चाहिए कि हिरण, ऊँट, गधा, बन्दर, चूहा, साँप, पक्षी तथा मक्खी जैसे पशुओं के साथ अपने पुत्र के ही समान बर्ताव करे। इन निर्दोष पशुओं तथा बच्चों के बीच वास्तव में अन्तर ही कितना है?

10 यदि कोई ब्रह्मचारी, संन्यासी या वानप्रस्थ न होकर मात्र गृहस्थ हो तो भी उसे धर्म, अर्थ या काम के लिए अधिक कठिन श्रम नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि गृहस्थ जीवन में भी स्थान तथा काल के अनुसार न्यूनतम प्रयास से जो कुछ भगवत्कृपा से उपलब्ध हो जाये, उसी से अपना जीवन-यापन करते हुए संतुष्ट रहना चाहिए। मनुष्य को अपने आपको उग्र कर्म में नहीं लगाना चाहिए।

11 कुत्तों, पतित पुरुषों तथा चाण्डाल समेत अछूतों को उनकी समुचित आवश्यकताएँ प्रदान करके उनका पालन करना चाहिए। ये आवश्यकताएँ गृहस्थों द्वारा पूरी की जानी चाहिए। यहाँ तक कि घर की अपनी उस पत्नी को भी, जिससे मनुष्य घनिष्ठतापूर्वक आसक्त रहता है, अतिथियों तथा सामान्य जनों के स्वागत में नियुक्त करना चाहिए।

12 मनुष्य अपनी पत्नी को इतनी गम्भीरतापूर्वक अपना मानता है कि वह कभी-कभी उसके लिए स्वयं को या अन्यों को यथा अपने माता-पिता या गुरु अथवा शिक्षक तक को मार डालता है। अतएव यदि कोई ऐसी पत्नी के प्रति अपनी आसक्ति का परित्याग कर सकता है, तो वह उन भगवान को जीत लेता है, जो अजेय है।

13 समुचित विचार-विमर्श करके मनुष्य को अपनी पत्नी के शरीर के प्रति आकर्षण त्याग देना चाहिए, क्योंकि यह शरीर अन्ततोगत्वा छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों, मल या राख में परिणत हो जाने वाला है। तो भला इस तुच्छ शरीर का क्या महत्व है? परम पुरुष कितना महान है, जो आकाश के समान सर्वव्यापी है?

14 बुद्धिमान व्यक्ति को प्रसाद खाकर या पाँच विभिन्न प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करके तुष्ट रहना चाहिए। ऐसे कार्यों से मनुष्य शरीर तथा शरीर के तथाकथित स्वामित्व के प्रति अपनी अनुरक्ति को त्याग सकता है। जब वह ऐसा करने में समर्थ होता है, तो वह महात्मा के पद पर दृढ़ स्थित हो जाता है।

15 मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन वह उन परम पुरुष की पूजा करे जो हर एक के हृदय में स्थित हैं और इसी आधार पर उसे देवताओं, साधु पुरुषों, सामान्य मनुष्यों तथा जीवों, अपने पुरखों तथा स्वयं की अलग-अलग पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार वह हर एक के हृदय में स्थित परम पुरुष की पूजा कर सकता है।

16 जब कोई व्यक्ति सम्पत्ति तथा ज्ञान से समृद्ध हो जाये, जो उसके पूर्ण नियंत्रण में हों और जिनसे वह यज्ञ सम्पन्न कर सके अथवा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न कर सके तो उसे शास्त्रों के निर्देशानुसार अग्नि में आहुतियाँ डालकर यज्ञ करना चाहिए। इस तरह उसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करनी चाहिए।

17 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण सारी यज्ञ-आहुतियों के भोक्ता हैं। यद्यपि वे अग्नि में डाली गई आहुतियाँ खाते हैं फिर भी हे राजन, जब उन्हें अन्न तथा घी से बना व्यंजन योग्य ब्राह्मणों के मुख के माध्यम से अर्पित किया जाता है, तो वे और भी प्रसन्न होते हैं।

18 अतएव हे राजन, सर्वप्रथम ब्राह्मणों तथा देवताओं को प्रसाद प्रदान करो और जब वे भलीभाँति खा चुकें तो तुम अपनी सामर्थ्य के अनुसार अन्य जीवों को प्रसाद बाँटों। इस प्रकार तुम सारे जीवों की अर्थात प्रत्येक जीव के भीतर के परम पुरुष की पूजा कर सकोगे।

19 पर्याप्त रूप से धनवान ब्राह्मण को भाद्र मास के कृष्ण पक्ष में पितरों को आहुति देनी चाहिए। इसी प्रकार पूर्वजों के सम्बन्धियों को आश्विन मास में महालया पर्व के अवसर पर आहुति देनी चाहिए।

20-23 मनुष्य को चाहिए कि मकर संक्रान्ति (जब सूर्य उत्तरायण की ओर जाने लगता है) के दिन या कर्कट संक्रान्ति (जब सूर्य दक्षिणायन की ओर जाने लगता है) के दिन श्राद्धकर्म करे, वह इस श्राद्धकर्म को मेष संक्रान्ति के दिन तथा तुला संक्रान्ति के दिन, जब तीनों चन्द्र तिथियाँ एकसाथ मिलती है, व्यतीपात नामक योग में, चन्द्र या सूर्यग्रहण के समय द्वादशी के दिन तथा श्रवण नक्षत्र में करे। मनुष्य को चाहिए कि अक्षय तृतीया को, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को, शीतऋतु में चारों अष्टकाओं के दिन, माघ मास की शुक्ला सप्तमी के दिन, मघा नक्षत्र तथा पुर्णिमा के योग के समय तथा जब चन्द्रमा पूर्ण हो या लगभग पूर्ण हो, उन दिनों में जब ये दिन उन नक्षत्रों के साथ योग करें जिनसे महीनों के नाम प्राप्त हुए हैं, श्राद्धकर्म करे। श्राद्धकर्म द्वादशी को भी किया जाये जब यह अनुराधा, श्रवण, उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा या उत्तर भाद्रपद नामक नक्षत्रों में से किसी एक के साथ योग करे। यही नहीं, एकादशी को भी श्राद्ध किया जाये जब यह उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा या उत्तर भाद्रपद के योग में हो। अन्त में, मनुष्य को चाहिए अपने जन्म नक्षत्र या श्रवण नक्षत्र के योग वाले दिनों में श्राद्धकर्म करे।

24 ऋतुओं के सारे काल मानवता के लिए अत्यन्त शुभ माने जाते हैं। ऐसे अवसरों पर सारे कल्याण (शुभ) कार्य किए जाने चाहिए, क्योंकि ऐसे कार्यों से मनुष्य अपने छोटे से जीवनकाल में सफलता प्राप्त कर लेता है।

25 ऋतु-परिवर्तन के इन अवसरों पर यदि कोई गंगा या यमुना में या किसी तीर्थस्थान में स्नान करता है, यदि कोई कीर्तन करता है, अग्नि यज्ञ करता है, व्रत रखता है या यदि कोई परम भगवान की, ब्राह्मणों की, पितरों की, देवताओं की तथा सामान्य जीवों की पूजा करता है या जो कुछ दान देता है, तो उसका स्थायी लाभप्रद फल मिलता है।

26 हे राजा युधिष्ठिर, स्वयं के, अपनी पत्नी या अपनी सन्तान के संस्कार अनुष्ठानों के लिए नियत समय पर या अन्त्येष्टि क्रिया तथा बरसी के अवसर पर मनुष्य को सकाम कर्मों में आगे बढ़ने के लिए उपर्युक्त शुभ उत्सव करने चाहिए।

27-28 नारद मुनि ने आगे कहा: अब मैं उन स्थानों का वर्णन करूँगा जहाँ धार्मिक अनुष्ठान अच्छी तरह सम्पन्न किये जा सकते हैं। जिस किसी स्थान में वैष्णव हो वह स्थान समस्त कल्याणकारी कृत्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान समस्त चर तथा अचर प्राणियों समेत इस समग्र विराट जगत के आश्रय हैं और वह मन्दिर जहाँ भगवान का अर्चाविग्रह स्थापित किया जाता है सर्वाधिक पवित्र स्थान होता है। यही नहीं, जिन स्थानों में विद्वान ब्राह्मण तपस्या, विद्या तथा दया के द्वारा वैदिक नियमों का पालन करते हैं, वे भी अत्यन्त शुभ तथा पवित्र होते हैं।

29 निस्सन्देह वे स्थान कल्याणकारी हैं जहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण का मन्दिर हो जिसमें उनकी विधिवत पूजा होती हो। वे स्थान भी कल्याणकारी हैं जहाँ पुराणों जैसे अनुपूरक वैदिक शास्त्रों में उल्लिखित गंगा सदृश प्रसिद्ध पवित्र नदियाँ बहती हैं। निश्चय ही वहाँ जो भी आध्यात्मिक कार्य किया जाता है, वह अत्यन्त प्रभावशाली होता है।

30-33 पुष्कर जैसे पवित्र सरोवर तथा वे स्थान जहाँ साधु पुरुष रहते हैं यथा कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम, नैमिषारण्य, फालगु नदी का तट, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, वाराणसी, मथुरा, पम्पा, बिन्दु सरोवर, बदरिकाश्रम (नारायणाश्रम), वे स्थान जहाँ से होकर नन्दा नदी बहती है, वे स्थान जहाँ भगवान रामचन्द्र तथा माता सीता ने शरण ली, यथा चित्रकूट तथा महेंद्र और मलय नामक पहाड़ी क्षेत्र भी –इन सभी स्थानों को अत्यन्त पवित्र एवं पुण्य माना जाता है। इसी प्रकार भारत के बाहर के स्थान जहाँ कृष्णभावनामृत आन्दोलन के केन्द्र हैं और जहाँ राधाकृष्ण अर्चाविग्रह पूजे जाते हैं, उन स्थानों में आध्यात्मिक रूप से उन्नत होने की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को जाना चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए। जो आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ना चाहता है, वह इन सारे स्थानों की यात्रा कर सकता है और अनुष्ठान कर सकता है, जिससे अन्य स्थानों में सम्पन्न किये गये उन्हीं कृत्यों से हजार गुना उत्तम फल प्राप्त हो सकते हैं।

34 हे पृथ्वीपति, पटु तथा विद्वान अध्येताओं ने यह तय किया है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं जिन्हें प्रत्येक वस्तु अर्पित की जानी चाहिए, जिन पर ब्रह्माण्ड के सारे जड़ या चेतन टिके हैं और सारी वस्तुएँ उन्हीं से उत्पन्न होती हैं।

35 हे राजा युधिष्ठिर, तुम्हारे राजसूय यज्ञ उत्सव में मेरे साथ ही साथ देवता, अनेक महामुनि तथा साधुओं के अतिरिक्त ब्रह्माजी के चारों पुत्र उपस्थित थे, किन्तु जब यह प्रश्न उठा कि किस व्यक्ति की सर्वप्रथम पूजा की जाये तो सबों ने परम पुरुष कृष्ण को ही चुना।

36 जीवों से भरा हुआ समग्र ब्रह्माण्ड एक वृक्ष के समान है, जिसकी जड़ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अच्युत (कृष्ण) हैं। इसलिए भगवान कृष्ण की पूजा करने से समस्त जीवों की पूजा हो सकती है।

37 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने अनेक पुर अर्थात रहने के स्थान बनाये हैं। यथा मनुष्यों के शरीर, पशु, पक्षी, ऋषि तथा देवता। इन असंख्य शरीर रूपों में भगवान परमात्मा रूप में जीव के साथ निवास करते हैं। इस प्रकार वे पुरुषावतार कहलाते हैं।

38 हे राजा युधिष्ठिर, प्रत्येक जीव में परमात्मा उसकी समझने की क्षमता के अनुसार बुद्धि प्रदान करता है। अतएव शरीर के भीतर परमात्मा प्रमुख होता है। परमात्मा जीव में उसके ज्ञान के सापेक्ष विकास, तपस्या आदि के अनुसार जीव के समक्ष प्रकट होता है।

39 हे राजन, जब ऋषि मुनियों ने देखा कि त्रेतायुग के प्रारम्भ में ही परस्पर अनादरपूर्ण व्यवहार आरम्भ हो गया तो मन्दिर में अर्चाविग्रह की साज-सामग्री सहित पूजा का सूत्रपात हुआ।

40 कभी-कभी नवदीक्षित भक्त भगवान की पूजा में साज-सामग्री अर्पित करता है और वह वास्तव में भगवान की पूजा अर्चाविग्रह के रूप में करता है। लेकिन भगवान विष्णु के अधिकृत भक्तों से ईर्ष्यालु होने के कारण भगवान उसकी भक्ति से कभी प्रसन्न नहीं होते।

41 हे राजन, सभी पुरुषों में सुयोग्य ब्राह्मण को इस संसार में सर्वोत्तम मानना चाहिए क्योंकि वह तपस्या, वैदिक अध्ययन तथा संतुष्टि द्वारा भगवान का प्रतिरूप बन जाता है।

42 हे राजा युधिष्ठिर, ऐसे ब्राह्मण जो विशेषतः पूरे विश्व में भगवान की महिमा के प्रचार में लगे रहते हैं, सारी सृष्टि के आत्मा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा मान्य और पूजित होते हैं। ब्राह्मण अपने प्रचार द्वारा तीनों लोकों को अपने चरणकमलों की धूलि से पवित्र बनाते हैं और इस तरह वे कृष्ण के भी पूज्य हैं।

(समर्पित एवं सेवारत जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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अध्याय तेरह – सिद्ध पुरुष का आचरण (7.13)

1 श्री नारदमुनि ने कहा: जो व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन कर सकने में सक्षम हो उसे सारे भौतिक सम्बन्धों का परित्याग कर देना चाहिए और शरीर को उस योग्य बनाये रखकर उसे प्रत्येक गाँव में केवल एक रात बिताते हुए इस स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करनी चाहिए। इस प्रकार संन्यासी को शरीर की आवश्यकताओं के लिए किसी पर निर्भर रहे बिना सारे संसार में विचरण करना चाहिए।

2 संन्यास धारण किये हुए व्यक्ति को अपना शरीर ढकने के लिए वस्त्र तक का भी उपयोग नहीं करना चाहिए। यदि उसे कुछ पहनना ही पड़े तो उसे कौपीन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पहनना चाहिए और यदि आवश्यक न हो तो संन्यासी को दण्ड भी नहीं धारण करना चाहिए। संन्यासी को दण्ड तथा कमण्डल के अतिरिक्त कुछ भी साथ में नहीं रखना चाहिए।

3 आत्मतुष्ट संन्यासी को चाहिए कि वह द्वार-द्वार से भीख माँगकर जीवन-यापन करे। किसी व्यक्ति या स्थान पर आश्रित न रहकर उसे समस्त जीवों का सुह्रद होना चाहिए। उसे नारायण का शान्त अनन्य भक्त होना चाहिए। इस प्रकार उसे एक स्थान से दूसरे स्थान में घूमते रहना चाहिए।

4 संन्यासी को चाहिए कि वह परम पुरुष को प्रत्येक वस्तु में सदा व्याप्त देखने का प्रयास करे और प्रत्येक वस्तु को जिसमें यह ब्रह्माण्ड भी है, को परम पुरुष पर टिका देखे।

5 उसे अचेत अवस्था एवं चेतन अवस्था में तथा इन दोनों के बीच की अवस्था में अपने आपको समझने का प्रयत्न करना चाहिए और आत्म-स्थित होना चाहिए। इस प्रकार उसे यह अनुभव करना चाहिए कि जीवन की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाएँ मात्र भ्रम हैं, वे वास्तविक तथ्य नहीं है। ऐसे उच्च ज्ञान से उसे सर्वव्यापी परम सत्य का दर्शन करना चाहिए।

6 चूँकि भौतिक शरीर का विनाश निश्चित है और मनुष्य की आयु स्थिर नहीं है अतएव न तो मृत्यु की, न ही जीवन की प्रशंसा की जानी चाहिए। प्रत्युत मनुष्य को नित्य काल का अवलोकन करना चाहिए जिसमें जीव अपने आपको प्रकट करता है और अन्तर्धान होता है।

7 समय का व्यर्थ अपव्यय कराने वाले अर्थात आध्यात्मिक लाभ से विहीन साहित्य का तिरस्कार करना चाहिए। न तो कोई अपनी जीविका कमाने के लिए वृत्तिपरक शिक्षक बने, न वाद-विवाद में भाग ले। न ही वह किसी कारण या पक्ष का आश्रय ले।

8 संन्यासी को चाहिए कि वह न तो अनेक शिष्य एकत्र करने के लिए भौतिक लाभों का प्रलोभन दे, न व्यर्थ ही अनेक पुस्तकें पढ़े, न जीविका के साधन के रूप में व्याख्यान दे। न व्यर्थ ही भौतिक ऐश्वर्य बढ़ाने का कभी कोई प्रयास करे।

9 ऐसे शान्त समदर्शी व्यक्ति को जो आध्यात्मिक चेतना में सचमुच प्रगत है, संन्यासी के प्रतिकों--यथा त्रिदण्ड तथा कमण्डल--को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह आवश्यकतानुसार इन प्रतिकों को कभी धारण कर सकता है, तो कभी छोड़ सकता है।

10 साधु पुरुष भले ही मानव समाज के समक्ष अपने आपको प्रकट न करे, किन्तु उसके आचरण से उसका प्रयोजन प्रकट हो जाता है। उसे मानव समाज के समक्ष अपने को एक चंचल बालक की भाँति प्रस्तुत करना चाहिए और सर्वश्रेष्ठ विचारवान वक्ता होकर भी उसे अपने को मूक व्यक्ति की तरह प्रदर्शित करना चाहिए।

11 इसके ऐतिहासिक उदाहरण के रूप में विद्वान मुनिजन एक प्राचीन वार्तालाप की कथा सुनाते हैं, जो प्रह्लाद महाराज तथा अजगर वृत्ति धारण किये एक महामुनि के मध्य हुआ था।

12-13 भगवान के सर्वाधिक प्रिय सेवक प्रह्लाद महाराज एक बार अपने कतिपय विश्वस्त पार्षदों के साथ सन्त पुरुषों की प्रकृति का अध्ययन करने के लिए विश्व-भ्रमण पर निकले। वे कावेरी के तट पर पहुँचे जहाँ सह्य नामक एक पर्वत है। वहाँ पर उन्हें एक महान साधु पुरुष मिला जो भूमि पर लेटा था और धूल-धूसरित था, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से वह अत्यन्त उन्नत था।

14 लोग न तो उसे साधु पुरुष के कर्मों से, न शारीरिक लक्षणों से, न उसके शब्दों से, न उसके वर्णाश्रम धर्म के लक्षणों से यह समझ पाये कि यह वही पुरुष है, जिसे वे जानते थे।

15 महाभागवत प्रह्लाद महाराज ने उस साधु पुरुष की विधिवत पूजा की और प्रणाम किया जिसने अजगर-वृत्ति धारण कर रखी थी। इस प्रकार उस साधु पुरुष की पूजा करके तथा उसके चरणकमलों को अपने सिर से स्पर्श करके प्रह्लाद महाराज ने उसे समझने के उद्देश्य से विनीत भाव से इस प्रकार पूछा।

16-17 उस साधु पुरुष को अत्यन्त स्थूल (मोटा) देखकर प्रह्लाद महाराज ने कहा: महोदय, आप अपनी जीविका अर्जित करने के लिए कोई उद्यम नहीं करते तो भी आपका शरीर उसी तरह हष्ट-पुष्ट है जैसा कि भौतिकतावादी कर्मी (भोगी) का होता है। मुझे ज्ञात है कि यदि कोई अत्यन्त धनी हो और उसके पास कुछ भी काम करने को नहीं हो तो वह खा-खाकर, सोते हुए और कोई काम न करके अत्यधिक मोटा हो जाता है।

18 हे अध्यात्मज्ञानी ब्राह्मण, आपको कुछ नहीं करना पड़ता जिसके कारण आप लेटे हुए हैं। यह भी समझा जा सकता है कि इन्द्रियभोग के लिए आपके पास धन नहीं है। तो फिर आपका शरीर इतना स्थूल (मोटा) कैसे हो गया है? ऐसी परिस्थिति में यदि आप मेरे प्रश्न को धृष्टता नहीं मानते तो कृपा करके बतलाएँ कि यह किस तरह से हुआ है?

19 आप विद्वान, दक्ष तथा सभी प्रकार से बुद्धिमान प्रतीत होते हैं। आप बहुत अच्छा बोल सकते हैं और हृदय को भाने वाली बातें कर सकते हैं। आप देख रहे हैं कि सामान्य लोग सकाम कर्मों में लगे हुए हैं फिर भी आप यहाँ पर निष्क्रिय लेटे हैं।

20 नारदमुनि ने आगे कहा: जब दैत्यराज प्रह्लाद महाराज इस तरह से साधु पुरुष से प्रश्न कर रहे थे तो वह शब्दों की अमृत वर्षा से मुग्ध हो गया और उसने मुसकाते हुए प्रह्लाद महाराज की उत्सुकता का इस प्रकार उत्तर दिया।

21 साधु ब्राह्मण ने कहा: हे असुरश्रेष्ठ, हे महान तथा सभ्य पुरुष द्वारा मान्य प्रह्लाद महाराज, आप जीवन की विभिन्न अवस्थाओं से अवगत हैं, क्योंकि आप मनुष्य के चरित्र को अपनी स्वाभाविक दिव्य दृष्टि से देख सकते हैं और इस तरह आप कर्मों की स्वीकृति तथा अस्वीकृति के परिणामों से भलीभाँति परिचित हैं।

22 भगवान नारायण, जो समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं आपके हृदय में उनका प्राधान्य है क्योंकि आप शुद्ध भक्त हैं। वे सदैव अज्ञान के अंधकार को उसी तरह दूर करते हैं जिस प्रकार सूर्य ब्रह्माण्ड से अंधकार को दूर कर देता है।

23 हे राजन, यद्यपि आप सब कुछ जानते हैं किन्तु आपने कुछ प्रश्न किये हैं, अतएव जैसा मैंने अधिकारियों से सुनकर सीखा है उसी के अनुसार उनका उत्तर देने का प्रयास करूँगा। मैं इस सम्बन्ध में मौन नहीं रह सकता, क्योंकि जो आत्मशुद्धि का इच्छुक है उसके द्वारा आप जैसे व्यक्ति से वार्तालाप करना उपयुक्त होगा।

24 अतृप्त भौतिक इच्छाओं के कारण मैं भौतिक प्राकृतिक नियमों की तरंगों द्वारा बहाया लिए जा रहा था और जीवन की विभिन्न योनियों में जीवन-संघर्ष करते हुए विभिन्न कार्यकलापों में लगा रहा।

25 मैंने विकास प्रक्रिया के दौरान, जो अवांछित भौतिक इन्द्रियतृप्ति के कारण सकाम कर्मों से उत्पन्न होती है, यह मनुष्य रूप प्राप्त किया है, जो हमें स्वर्गलोकों तक, मुक्ति तक, निम्न योनियों तक या मनुष्य के बीच पुनर्जन्म लेने तक पहुँचा सकता है।

26 इस मनुष्य-जीवन में पुरुष तथा स्त्री का मिलन रति-सुख के लिए होता है, किन्तु हमने वास्तविक अनुभव से देखा है कि उनमें से कोई भी सुखी नहीं है। इसीलिए विपरीत परिणामों को देखकर मैंने भौतिकतावादी कार्यों में भाग लेना बन्द कर दिया है।

27 जीवों के लिए जीवन का वास्तविक स्वरूप आध्यात्मिक सुख का है और यही असली सुख है। यह सुख तभी प्राप्त किया जा सकता है जब मनुष्य सारे भौतिकतावादी कार्यकलापों को बन्द कर दे। भौतिक इन्द्रियभोग कोरी कल्पना है, अतएव इस विषय पर विचार कर मैंने सारे भौतिक कार्यकलाप बन्द कर दिये हैं और अब यहाँ लेटा हुआ हूँ।

28 इस प्रकार बद्ध आत्मा शरीर के भीतर रहकर अपने हित को भूल जाता है, क्योंकि वह अपनी पहचान शरीर के रूप में करने लगता है। चूँकि, शरीर भौतिक होता है अतएव उसकी सहज प्रवृत्ति भौतिक जगत की विविधताओं की ओर आकृष्ट होने की रहती है। इस तरह जीव इस संसार के कष्टों को भोगता है।

29 जिस प्रकार कोई हिरण अज्ञानतावश घास से ढके कुएँ के जल को न देखकर जल के लिए अन्यत्र दौड़ता-फिरता रहता है उसी प्रकार भौतिक शरीर से आवृत यह जीव अपने भीतर के सुख को नहीं देख पाता और भौतिक जगत में सुख के पीछे दौड़ता रहता है।

30 जीव सुख प्राप्त करना चाहता है और दुख के कारणों से छूटना चाहता है, लेकिन चूँकि जीवों के शरीर प्रकृति के पूर्ण नियंत्रण में होते हैं, अतएव जीव एक के बाद एक विभिन्न शरीरों को पाकर जितनी भी योजनाएँ बनाता है वे अन्ततोगत्वा निष्फल हो जाती हैं।

31 भौतिकतावादी कार्यकलाप सदैव तीन प्रकार के दुखों–आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक – से मिश्रित होते हैं। अतएव यदि कोई ऐसे कार्य सम्पन्न करके कुछ सफलता प्राप्त भी कर ले तो उससे क्या लाभ? उसे फिर भी जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि तथा अपने कर्मफलों को भोगना होगा।

32 ब्राह्मण ने आगे कहा: मैं सचमुच देख रहा हूँ कि अपनी इन्द्रियों के वशीभूत हुआ एक धनी व्यक्ति किस तरह धन संचित करने का अत्यन्त लोभी होता है। अतएव सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य होते हुए भी चारों ओर से भय के कारण वह अनिद्रा रोग का शिकार बन जाता है।

33 जिन्हें भौतिक दृष्टि से शक्तिशाली तथा धनी माना जाता है वे सामान्यतः सरकारी नियमों, चोर-उचक्कों, शत्रुओं, स्वजनों, पशुओं, पक्षियों, दान लेने वालों, काल, यहाँ तक कि अपने आप से चिन्तित रहते हैं। इस प्रकार वे अनिवार्यतः भयभीत रहते हैं।

34 मानव समाज के बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे शोक, लोभ, भय, क्रोध, अनुराग, दरिद्रता तथा अनावश्यक श्रम के मूल कारण को त्याग दें। इन सबों का मूल कारण अनावश्यक प्रतिष्ठा तथा धन की लालसा है।

35 मधुमक्खी तथा अजगर दो श्रेष्ठ गुरु हैं, जो हमें इस सम्बन्ध में आदर्श उपदेश देते हैं कि किस तरह थोड़ा-थोड़ा संग्रह करके संतुष्ट रहा जाये और किस तरह एक ही स्थान में ठहरा जाये – हिला न जाये।

36 मधुमक्खी से मैंने सीखा कि धन संग्रह करने से किस तरह विरक्त रहना चाहिए, क्योंकि यद्यपि धन शहद जैसा है, किन्तु कोई भी धन के स्वामी को मारकर धन को ले जा सकता है।

37 मैं किसी भी वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न नहीं करता, अपितु जो कुछ भी अपने आप मिल जाता है उसी से संतुष्ट रहता हूँ। यदि मुझे कुछ भी नहीं मिलता तो अजगर की तरह मैं विचलित हुए बिना धैर्यपूर्ण रहता हूँ और कई-कई दिनों तक पड़ा रहता हूँ।

38 कभी मैं थोड़ा खाता हूँ और कभी बहुत अधिक। कभी भोजन स्वादिष्ट होता है, तो कभी बासी। कभी बड़े आदर के साथ मुझे प्रसाद दिया जाता है और कभी अत्यन्त उपेक्षा से भोजन मिलता है। कभी मैं दिन में खाता हूँ तो कभी रात में। इस प्रकार मुझे जो कुछ आसानी से मिल जाता है उसे ही खाता हूँ।

39 शरीर ढकने के लिए मेरे भाग्य से मुझे जो कुछ भी मिल जाता है, चाहे महीन वस्त्र हो या रेशमी या सूती कपड़ा, चाहे पेड़ की छाल हो या मृगछाला, उसे मैं काम में लाता हूँ। मैं पूर्ण संतुष्ट रहता हूँ तथा विचलित नहीं होता।

40 कभी मैं पृथ्वी पर, कभी पत्तियों पर, घास या पत्थर पर तो कभी राख के ढेर पर अथवा कभी-कभी अन्यों की इच्छा से महल के उच्च कोटी के बिस्तर तथा तकिये पर सोता हूँ।

41 हे स्वामी, कभी मैं ठीक से स्नान करके सारे शरीर में चन्दन का लेप करता हूँ, फूलों की माला पहनता हूँ और सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण धारण करता हूँ। फिर मैं राजा की तरह हाथी की पीठ या रथ या घोड़े पर सवार होकर विचरण करता हूँ। किन्तु कभी-कभी मैं भूत-प्रेत द्वारा सताये व्यक्ति की तरह निर्वस्त्र फिरता रहता हूँ।

42 विभिन्न लोग अलग-अलग स्वभाव के होते हैं, अतएव उनकी प्रशंसा करना या उनकी निन्दा करना मेरा कार्य नहीं है। मैं तो इस आशा से उनके कल्याण की कामना करता हूँ कि वे परमात्मा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के साथ एकात्मता स्वीकार करेंगे।

43 अच्छे तथा बुरे के भेदभाव की जो मानसिक कल्पना (मनोरथ) है उसे एक इकाई रूप में मान करके उसे मन में लाना चाहिए और तब मन को मिथ्या अहंकार में लगाना चाहिए। इस मिथ्या अहंकार को सम्पूर्ण भौतिक शक्ति में लगाना चाहिए। मिथ्या भेदभाव से जुझने की विधि यही है।

44 विद्वान विचारवान व्यक्ति को इसकी अनुभूति होनी चाहिए कि यह भौतिक जगत मोह है। किन्तु ऐसा आत्म-साक्षात्कार द्वारा ही सम्भव है। ऐसे स्वरूपसिद्ध व्यक्ति को, जिसने सत्य का वास्तविक साक्षात्कार किया है, आत्म-साक्षात्कार हो जाने के कारण समस्त भौतिक कार्यकलापों से निवृत्ति ले लेनी चाहिए।

45 हे प्रहलाद महाराज, आप निश्चय ही स्वरूपसिद्ध आत्मा तथा भगवदभक्त हैं। आप न तो जनमत की परवाह करते हैं, न ही तथाकथित शास्त्रों की। इस कारण मैंने आपसे निःसंकोच भाव से अपने आत्म-साक्षात्कार का इतिहास कह सुनाया।

46 नारदमुनि ने आगे कहा: साधु से ये उपदेश सुनकर असुरराज प्रह्लाद महाराज पूर्ण पुरुष (परमहंस) के वृत्तिपरक कर्तव्य समझ गए। इस प्रकार उन्होंने उस सन्त की विधिपूर्वक पूजा की और उससे अनुमति लेकर अपने घर के लिए विदा हुए।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय बारह पूर्ण समाज – चार आध्यात्मिक वर्ग (7.12)

1 नारद मुनि ने कहा: विद्यार्थी को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखने का अभ्यास करे। उसे विनीत होना चाहिए और गुरु के साथ दृढ़ मित्रता की प्रवृत्ति रखनी चाहिए। ब्रह्मचारी को चाहिए कि वो महान व्रत लेकर गुरुकुल में केवल अपने गुरु के लाभ के हेतु ही रहे।

2 दिन तथा रात्रि के सन्धिकाल में प्रातःकाल तथा संध्या समय उसे गुरु, अग्नि, सूर्यदेव तथा भगवान विष्णु के विचारों में लीन रहना चाहिए और गायत्री मंत्र को जपते हुए उनकी पूजा करनी चाहिए।

3 विद्यार्थी को चाहिए कि गुरु द्वारा बताए गए वैदिक मंत्रों का नियमित अध्ययन करे। शिष्य को प्रतिदिन अध्ययन प्रारम्भ करने के पूर्व तथा अन्त में अपने गुरु को सादर नमस्कार करना चाहिए।

4 अपने हाथ में शुद्ध कुश घास लिए हुए ब्रह्मचारी को मूँज की मेखला तथा मृगछाला का वस्त्र पहनना चाहिए। उसे शास्त्रोक्त विधि से जटा रखना चाहिए, दण्ड धारण करना चाहिए, कमण्डल लेना चाहिए और यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।

5 ब्रह्मचारी को सुबह-शाम भिक्षा माँगने के लिए बाहर जाना चाहिए और जो कुछ भी भिक्षा में मिले उसे लाकर गुरु को दे दे। वह तभी भोजन करे जब गुरु उसे भोजन करने का आदेश दे, अन्यथा वह उपवास करे।

6 ब्रह्मचारी को सदाचारी तथा शिष्ट होना चाहिए। उसे न तो आवश्यकता से अधिक खाना चाहिए न संग्रह करना चाहिए। उसे सदैव क्रियाशील तथा पटु होना चाहिए और गुरु तथा शास्त्रों के आदेशों में पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। उसे अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखते हुए स्त्रियों से या स्त्रियों के वशीभूत पुरुषों से उतनी ही संगति करनी चाहिए जितनी की आवश्यक हो।

7 ब्रह्मचारी अथवा जिसने गृहस्थ आश्रम नहीं अपनाया है, उसे स्त्रियों से बातें करने या उनके विषय में बातें करने से दृढ़तापूर्वक बचना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि वे संन्यासी के मन को भी विचलित कर सकती हैं।

8 शिष्य तथा गुरु पत्नी के मध्य माता-पुत्र का सा सम्बन्ध होता है। माता कभी-कभी अपने पुत्र के कंघी करती है, उसके शरीर में तेल मलती है या उसे नहलाती है। इसी प्रकार गुरु-पत्नी भी माता होती है, अतएव उसे भी शिष्य की माता तुल्य (अर्थात माता के समान) देखभाल करनी चाहिए, किन्तु यदि गुरु पत्नी युवती हो तो युवा ब्रह्मचारी को चाहिए कि माता को अपना स्पर्श न करने दे। इसका कठोर निषेध है।

9 स्त्री अग्नि के तुल्य है और पुरुष घी के भाण्डे (बर्तन) के समान होता है अतएव उसे स्त्रियों की संगति से बचना चाहिए उनसे आवश्यक कार्य के लिए ही मिलना चाहिए, अन्यथा नहीं।

10 वैदिक सभ्यता पुरुषों तथा स्त्रियों के मिलने पर प्रतिबन्ध लगाती है। जब तक जीव पूर्णरूपेण स्वरूपसिद्ध नहीं है – जब तक वह देहात्मबुद्धि की भ्रान्त धारणा से मुक्त नहीं हो लेता जो कि मूल शरीर तथा इन्द्रियों का प्रतिबिम्ब मात्र है तब तक वह उस द्वैत भाव से छुटकारा नहीं पा सकता जो स्त्री तथा पुरुष के मध्य द्वैत का सूचक है। इस तरह इसकी हर सम्भावना रहती है कि वह नीचे गिर जाए, क्योंकि उसकी बुद्धि मोहित हो जाती है।

11 सारे नियम तथा विधान गृहस्थ तथा सन्यासी दोनों पर समान रूप से लागू होते हैं। आध्यात्मिक जीवन में, चाहे कोई गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो, सन्यासी हो या ब्रह्मचारी हर एक व्यक्ति गुरु के अधीन रहता है।

12 ब्रह्मचारियों या उन गृहस्थों को जिन्होंने उपर्युक्त विधि से वर्णित ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर रखा है, उनके लिए आँखों में सुरमा या अंजन लगाना, सिर में तेल मलना, हाथ से शरीर की मालिश करना, स्त्री को देखना या उसका चित्र बनाना, मांस खाना, शराब पीना, शरीर को फूलों के हार से सजाना, शरीर में इत्र-फुलेल लगाना या शरीर को आभूषणों से अलंकृत करना मना है। उन्हें इन सबका परित्याग करना चाहिए।

13-14 उपर्युक्त विधि-विधानों के अनुसार द्विज को–ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य को–गुरु के संरक्षण में गुरुकुल में निवास करना चाहिए। वहाँ उसे वेद, वेदांग तथा उपनिषदों का अध्ययन अपनी क्षमता तथा सामर्थ्य अनुसार करना चाहिए। यदि सम्भव हो तो शिष्य को चाहिए कि वह गुरु द्वारा माँगी गई दक्षिणा दे और तब गुरु के आदेशानुसार गुरुकुल छोड़ दे और अपनी इच्छा से किसी अन्य आश्रम को--यथा गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम को स्वीकार करे।

15 मनुष्य को इसकी अनुभूति करनी चाहिए कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु एक ही साथ अग्नि, गुरु, आत्मा तथा समस्त जीवों में सभी परिस्थितियों में प्रविष्ट हैं और नहीं भी हैं। वे प्रत्येक वस्तु के पूर्ण नियामक के रूप में बाह्य तथा आंतरिक रूप से स्थित हैं।

16 इस प्रकार से अभ्यास करते हुए चाहे कोई ब्रह्मचारी आश्रम में हो, गृहस्थ आश्रम में हो अथवा वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में हो, उसे परम सत्य (ब्रह्म) की सर्वव्यापकता की सदैव अनुभूति होनी चाहिए, क्योंकि इस विधि से ब्रह्म को समझना सम्भव है।

17 हे राजन, अब मैं वानप्रस्थ की योग्यताओं का वर्णन करूँगा, जो कि पारिवारिक जीवन से निवृत्ति है। वानप्रस्थ के विधि-विधानों का कठोरता से पालन करते हुए वह महर्लोक नामक उच्चतर लोक को सरलता से भेजा जा सकता है।

18 वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाले व्यक्ति को जुती हुई जमीन में उगा अन्न नहीं खाना चाहिए। उसे बिना जुती जमीन में उगे उन अन्नों को भी नहीं खाना चाहिए जो पूरी तरह पके न हों। न ही वानप्रस्थ को अग्नि में पका अन्न खाना चाहिए। दरअसल, उसे सूर्यप्रकाश में पके फल ही खाने चाहिए ।

19 वानप्रस्थ को चाहिए कि जंगल में अपने आप उगे फलों तथा अन्नों से पुरोडाश को यज्ञ में डालने के लिए तैयार करे। जब उसे थोड़ा सा नया अन्न प्राप्त हो जाए तो वह अन्न के पुराने संग्रह को त्याग दे।

20 वानप्रस्थ को चाहिए कि पवित्र अग्नि को सुरक्षित रखने के लिए वह या तो फूस की झोपड़ी बनाए या केवल पर्वत के कन्दरा में शरण ले, किन्तु वह स्वयं हिमपात, प्रभंजन, अग्नि, वर्षा तथा सूर्य के ताप को सहन करने का अभ्यास करे।

21 वानप्रस्थ को चाहिए कि सिर पर जटा रखे और अपने शरीर के बाल, नाखून तथा मूँछे बढ़ने दे। वह अपने शरीर की धूल साफ न करे। वह कमण्डल, मृगछाला तथा दण्ड रखे, पेड़ की छाल का आवरण पहने और अग्नि जैसे (गेरुवे) रंग के वस्त्रों का प्रयोग करे।

22 अत्यधिक विचारवान होने के कारण वानप्रस्थी को बारह वर्ष, आठ वर्ष, चार वर्ष, दो वर्ष या कम से कम एक वर्ष तक जंगल में रहना चाहिए। उसे इस तरह व्यवहार करना चाहिए कि वह अत्यधिक तपस्या के कारण विचलित या त्रस्त न हो उठे।

23 जब वह रोग या वृद्धावस्था के कारण आध्यात्मिक चेतना में प्रगति करने या वेदाध्ययन में अपने निमित्त कार्य करने में असमर्थ हो जाये तब उसे अन्न न खाने के व्रत का अभ्यास करना चाहिए।

24 उसे अग्नि को अपने में (आत्मा में) भलीभाँति रख लेना चाहिए और इस तरह शारीरिक ममत्व को छोड़ दे जिसके कारण वह शरीर को निजी या आत्मा मानता है। वह धीरे-धीरे भौतिक शरीर को पाँच तत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) में लीन कर दे।

25 धीर, स्वरूपसिद्ध, ज्ञानवान व्यक्ति को चाहिए कि वह शरीर के विभिन्न अंगों को उनके मूल स्रोतों में लीन कर दे। शरीर के छिद्र आकाश द्वारा उत्पन्न हैं, श्वास की क्रिया वायु से उत्पन्न है, शरीर की ऊष्मा अग्नि द्वारा जनित है और वीर्य, रक्त तथा कफ जल द्वारा उत्पन्न हैं। त्वचा, पेशी तथा अस्थि जैसी कठोर वस्तुएँ पृथ्वी द्वारा उत्पन्न हैं। इस प्रकार शरीर के सारे अवयव विभिन्न तत्त्वों द्वारा उत्पन्न होते हैं। अतएव इन सबों को पुनः उन्हीं तत्त्वों में लीन कर देना चाहिए।

26-28 तत्पश्चात वाणी-विषय को वाक इन्द्रिय (जीभ) सहित अग्नि को समर्पित कर दे। कला-कौशल तथा दोनों हाथ इन्द्रदेव को दे दे। गति करने की शक्ति तथा पाँव भगवान विष्णु को दे दे। उपस्थ सहित इन्द्रियसुख प्रजापति को सौंप दे। गुदा को मलोत्सर्ग क्रिया सहित उसके असली स्थान मृत्यु को सौंप दे। ध्वनि-कम्पन समेत श्रवणेन्द्रिय को दिशाओं के अधिपति को दे दे। स्पर्श समेत स्पर्शेन्द्रिय वायु को समर्पित कर दे। दृष्टि समेत रूप को सूर्य को सौंप दे। वरुण देव समेत जीभ जल को दे दे तथा दोनों अश्विनी कुमार देवों सहित घ्राणशक्ति पृथ्वी को अर्पित कर दे।

29-30 मन को मनोरथों समेत चन्द्रदेव में लीन कर दे। बुद्धि के सारे विषयों को बुद्धि समेत ब्रह्माजी में स्थापित कर दे। मिथ्या अहंकार, जो प्रकृति के गुणों के अधीन रहता है और मनुष्य को यह सोचने के लिए प्रेरित करता है "मैं यह शरीर हूँ और इस शरीर से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु मेरी है" उसे भौतिक कार्यकलापों समेत मिथ्या अहंकार के अधिपति रुद्र में लीन कर दे। भौतिक चेतना को विचार के लक्ष्य समेत प्रत्येक जीवात्मा में और भौतिक प्रकृति गुणों के अधीन कर्म करने वाले देवताओं को विकारयुक्त जीव समेत परब्रह्म में लीन कर दे। पृथ्वी को जल में, जल को सूर्य की ज्योति में, इस ज्योति को वायु में, वायु को आकाश में, आकाश को मिथ्या अहंकार में, मिथ्या अहंकार को समस्त भौतिक शक्ति (महत्तत्व) में, फिर इस महत्तत्व अप्रकट अवयवों (भौतिक शक्ति का प्रधान स्वरूप) में तथा इस अप्रकट अवयव को परमात्मा में लीन कर दे।

31 जब इस तरह सारी भौतिक उपाधियाँ अपने-अपने तत्त्वों में मिल जाँय तो जीव अन्ततोगत्वा पूर्णतया आध्यात्मिक हो जाता है और गुण में परम पुरुष जैसा। इस संसार से वह उसी तरह अवकाश ले ले जिस प्रकार काठ के जल जाने पर उससे उठने वाली लपटें शान्त हो जाती हैं। जब भौतिक शरीर विविध भौतिक तत्त्वों में लौट जाता है, तो केवल आध्यात्मिक जीव बचता है। यही ब्रह्म है और यह गुण में परब्रह्म के तुल्य है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय ग्यारह – पूर्ण समाज : चातुर्वर्ण (7.11)

1 शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: प्रह्लाद महाराज, जिनके कार्यकलाप तथा चरित्र की पूजा तथा चर्चा ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे महापुरुष करते हैं, उनके विषय में सुनने के बाद महापुरुषों में सर्वाधिक आदरणीय राजा, युधिष्ठिर महाराज ने नारद मुनि से अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में पुनः पूछा।

2 महाराज युधिष्ठिर ने कहा: हे प्रभु, मैं आपसे धर्म के उन सिद्धान्तों के विषय में सुनने का इच्छुक हूँ जिनसे मनुष्य, जीवन के चरम लक्ष्य, भक्ति को प्राप्त कर सकता है। मैं मानव समाज के सामान्य वृत्तिपरक कर्तव्यों तथा वर्णाश्रम धर्म के नाम से विख्यात सामाजिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की प्रणाली के विषय में सुनना चाहता हूँ।

3 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, आप प्रजापति (ब्रह्मा) के साक्षात पुत्र हैं। आप अपनी तपस्या, योग तथा समाधि के कारण ब्रह्मा के समस्त पुत्रों में से सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।

4 शान्त जीवन तथा दया में आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है और आपसे बढ़कर कोई यह नहीं जानता कि भक्ति किस तरह की जाये या ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ किस प्रकार बना जाये। अतएव आप गुह्य धार्मिक जीवन के समस्त सिद्धान्तों के जानने वाले हैं और आपसे बढ़कर उन्हें अन्य कोई नहीं जानता।

5 श्री नारद मुनि ने कहा: मैं सर्वप्रथम समस्त जीवों के धार्मिक सिद्धान्तों के संरक्षक भगवान कृष्ण को नमस्कार करके नित्य धार्मिक पद्धति (सनातन धर्म) के सिद्धान्तों को बताता हूँ जिन्हें मैंने नारायण के मुख से सुना है।

6 भगवान नारायण अपने अंश नर समेत इस संसार में दक्ष महाराज की मूर्ति नामक पुत्री से प्रकट हुए। धर्म महाराज द्वारा उनका जन्म समस्त जीवों के लाभ निमित्त था। वे आज भी बदरिकाश्रम नामक स्थान के निकट महान तपस्या करने में लगे हुए हैं।

7 परम पुरुष अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान समस्त वैदिक ज्ञान के सार, समस्त धर्मों के मूल तथा महापुरुषों की स्मृति हैं। हे राजा युधिष्ठिर, इस धर्म के सिद्धान्त को प्रमाणस्वरूप समझना चाहिए। इसी धार्मिक सिद्धान्त के आधार पर सबों की तुष्टि होती है, यहाँ तक कि मनुष्य के मन, आत्मा तथा शरीर की भी तुष्टि होती है।

8-12 सभी मनुष्यों को जिन सामान्य नियम का पालन करना होता है, ये हैं – सत्य, दया, तपस्या, (महीने में कुछ दिन उपवास करना), दिन में दो बार स्नान, सहनशीलता, अच्छे-बुरे का विवेक, मन का संयम, इन्द्रिय संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दान, शास्त्रों का अध्ययन, सादगी, सन्तोष, साधु पुरुषों की सेवा, अनावश्यक कार्यों से क्रमशः अवकाश लेना, मानव समाज के अनावश्यक कार्यों की व्यर्थता समझना, गम्भीर तथा शान्त बने रहना एवं व्यर्थ की बातें करने से बचना, मनुष्य शरीर या इस आत्मा के विषय में विचार करना, सभी जीवों (पशुओं तथा मनुष्यों) में अन्न का समान वितरण करना, प्रत्येक आत्मा को (विशेषतया मनुष्य को) परमेश्वर का अंश मानना। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कार्यकलापों तथा उनके उपदेशों को सुनना और उनका कीर्तन करना, इनका नित्य स्मरण करना, सेवा करने का प्रयास, पूजा करना, नमस्कार करना, दास बनना, मित्र बनना और आत्म-समर्पण करना। हे राजा युधिष्ठिर, मनुष्य जीवन में इन तीस गुणों को अर्जित करना चाहिए। मनुष्य इन गुणों को अर्जित करने मात्र से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न कर सकता है।

13 जो लोग अविच्छिन्न रूप से वैदिक मंत्रों द्वारा सम्पन्न होने वाले गर्भाधान संस्कार तथा अन्य नियत विधियों द्वारा शुद्ध किये जा चुके हैं तथा जिनकी स्वीकृति ब्रह्मा द्वारा दी जा चुकी है, वे द्विज कहलाते हैं। ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जो अपनी पारिवारिक परम्परा तथा अपने आचरण द्वारा शुद्ध किए जा चुके हैं उन्हें चाहिए कि भगवान की पूजा करें, वेदों का अध्ययन करें तथा दान दें। इस पद्धति में उन्हें आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) के नियमों का पालन करना चाहिए।

14 ब्राह्मण के लिए छह वृत्तिपरक कर्तव्य हैं। क्षत्रिय के लिए दान लेना वर्जित है किन्तु वह इनमें से अन्य पाँच कर्तव्य कर सकता है। राजा या क्षत्रिय को ब्राह्मण से कर वसूलने की अनुमति नहीं है, किन्तु वह अपनी अन्य प्रजा पर न्यूनतम कर, सीमा शुल्क, तथा दण्ड के रूप में जुर्माना लगाकर अपनी जीविका चला सकता है।

15 व्यवसायी वर्ग को सदैव ब्राह्मणों के आदेशों का पालन करना चाहिए और कृषि, व्यापार तथा गोरक्षा जैसे वृत्तिपरक कर्तव्यों में लगे रहना चाहिए। शूद्र का एकमात्र कर्तव्य है उच्चवर्ण में से किसी को स्वामी बनाना और उसकी सेवा करना।

16 विकल्प के रूप में ब्राह्मण वैश्य की कृषि, गोरक्षा या व्यापार की वृत्तियाँ ग्रहण कर सकता है। जो कुछ बिना माँगे मिल जाये वह उस पर आश्रित रह सकता है, वह प्रतिदिन धान के खेत में जाकर भिक्षा माँग सकता है, वह स्वामी द्वारा खेत में छोड़ा अन्न इकट्ठा कर सकता है या अन्न के व्यापारियों की दुकान में यहाँ-वहाँ गिरे हुए अन्न को एकत्र कर सकता है। जीविका के ये चार साधन हैं जिन्हें ब्राह्मण भी अपना सकते हैं। इन चारों में से प्रत्येक साधन आगे वाले से पहला (उत्तरोत्तर) श्रेष्ठ है।

17 आपातकाल के अतिरिक्त निम्न लोगों को उच्च वर्ग के व्यावसायिक कार्य नहीं करने चाहिए। हाँ, यदि आपातकाल हो तो क्षत्रिय के अतिरिक्त अन्य सभी लोग अन्यों की जीविकाएँ स्वीकार कर सकते हैं।

18-20 आपातकाल में मनुष्य ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत तथा सत्यानृत नामक विभिन्न वृत्तियों में से किसी एक को स्वीकार कर सकता है, किन्तु कूकर वृत्ति कभी नहीं अपनानी चाहिए। खेती से अन्न एकत्र करने की वृत्ति अर्थात उञ्छशिल वृत्ति--इसे ही ऋत कहते हैं। बिना भीख माँगे अन्न एकत्र करना अमृत कहलाता है, अन्न की भीख माँगना मृत है, जमीन को जोतना प्रमृत है और व्यापार करना सत्यानृत है। निम्न पुरुषों की सेवा करना श्ववृत्ति या कूकर वृत्ति कहलाती है। विशेषतः ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों को शूद्रों की निम्न तथा गर्हित सेवा में नहीं लगना चाहिए। ब्राह्मणों को समस्त वैदिक ज्ञान में पटु होना चाहिए और क्षत्रियों को देवताओं की पूजा से भलीभाँति परिचित होना चाहिए।

21 ब्राह्मण के लक्षण इस प्रकार हैं--मन का संयम, इन्द्रिय संयम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सरलता, ज्ञान, दया, सत्य तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण।

22 युद्ध में धाक जमाना, अजेय, धैर्यवान, तेजवान तथा दानवीर होना, शारीरिक आवश्यकताओं को वश में करना, क्षमाशील होना, ब्राह्मण नियमों का पालन करना तथा सदैव प्रसन्न रहना और सत्यनिष्ठ होना – ये क्षत्रिय के लक्षण हैं।

23 देवता, गुरु तथा भगवान विष्णु के प्रति सदैव समर्पित, धर्म, अर्थ तथा काम में प्रयत्नशीलता, गुरु तथा शास्त्र के वचनों में विश्वास तथा धनार्जन में निपुणता सहित सदैव प्रयत्नशील होना – ये वैश्य के लक्षण हैं।

24 समाज के उच्च वर्णों (ब्राह्मणों, क्षत्रिय तथा वैश्यों) को नमस्कार करना, सदैव स्वच्छ रहना, द्वैतभाव से मुक्त रहना, अपने स्वामी की सेवा करना, मंत्र पढ़े बिना यज्ञ करना, चोरी न करना, सदा सत्य बोलना तथा गायों एवं ब्राह्मणों को सदा संरक्षण प्रदान करना – ये शूद्र के लक्षण हैं।

25 पति की सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, उसके सम्बन्धियों तथा मित्रों के प्रति भी समान रूप से अनुकूल रहना तथा पतिव्रत का पालन करना – ये चार नियम पतिव्रता स्त्री के लिए पालन योग्य हैं।

26-27 पतिव्रता (साध्वी) स्त्री को चाहिए कि अपने पति की प्रसन्नता के लिए स्वयं को अच्छे-अच्छे वस्त्रों से सजाये तथा स्वर्णाभूषणों से अलंकृत हो। सदैव स्वच्छ तथा आकर्षक वस्त्र पहने। अपना घर बुहारे तथा उसे पानी तथा अन्य तरल पदार्थों से स्वच्छ बनाए जिससे सारा घर सदा शुद्ध तथा स्वच्छ रहे। उसे गृहस्थी की सामग्री एकत्र करनी चाहिए और घर को अगुरु तथा पुष्पों से सुगन्धित रखना चाहिए। उसे अपने पति की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार रहना चाहिए। साध्वी स्त्री को विनीत तथा सत्यनिष्ठ रहकर, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखकर तथा मधुर वचन बोलकर काल तथा परिस्थिति के अनुसार अपने पति की प्रेमपूर्ण सेवा में लगे रहना चाहिए।

28 साध्वी स्त्री को लालची न होकर सभी परिस्थितियों में संतुष्ट रहना चाहिए। उसे गृहस्थी के काम-काज में अत्यन्त पटु होना चाहिए और धार्मिक नियमों से पूर्णतया अवगत होना चाहिए। उसे मधुर तथा सत्यभाषिणी होना चाहिए, उसे अत्यन्त सतर्क तथा सदैव शुद्ध एवं पवित्र रहना चाहिए। इस प्रकार एक साध्वी स्त्री को उस पति की प्रेमपूर्वक सेवा करनी चाहिए जो पतित न हो।

29 जो स्त्री लक्ष्मीजी के पदचिन्हों पर पूरी तरह चलकर अपने पति की सेवा में लगी रहती है, वह निश्चित रूप से अपने भक्त पति के साथ भगवदधाम वापस जाती है और वैकुण्ठलोक में अत्यन्त सुखपूर्वक रहती है।

30 संकर जातियों में से जो चोर नहीं होते वे अन्तेवसायी या चाण्डाल (कुत्ता खाने वाले) कहलाते हैं और उनके कुल में चले आने वाले रीति-रिवाज होते हैं।

31 हे राजन, वैदिक ज्ञान में पारंगत ब्राह्मणों का निर्णय है कि प्रत्येक युग में अपने-अपने भौतिक गुणों के अनुसार विभिन्न वर्णों के लोगों का आचरण इस जीवन में तथा अगले जीवन में कल्याणकारी होता है।

32 यदि कोई अपनी प्रकृति जन्य भौतिक स्थिति के अनुसार अपना वृत्तिपरक कार्य करता है तथा धीरे-धीरे इन कार्यों को छोड़ देता है, तो उसे निष्काम अवस्था प्राप्त हो जाती है।

33-34 हे राजन, यदि किसी खेत को बारम्बार जोता-बोया जाता है, तो उसकी उत्पादन शक्ति घट जाती है और जो भी बीज बोये जाते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार घी की एक-एक बूँद डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती अपितु घी की धारा से वह बुझ जाएगी उसी प्रकार विषयवासना में अत्यधिक लिप्त होने पर ऐसी इच्छाएँ पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं।

35 यदि कोई उपर्युक्त प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के लक्षण प्रदर्शित करता है, तो भले ही वह भिन्न जाति का क्यों न हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार स्वीकार किया जाना चाहिए।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय दस – भक्त शिरोमणि प्रह्लाद (7.10)

1 नारद मुनि ने आगे कहा: यद्यपि प्रह्लाद महाराज बालक थे किन्तु जब उन्होंने नृसिंहदेव द्वारा दिये गये वरों को सुना तो उन्होंने इन्हें भक्ति के मार्ग में अवरोध समझा। तब वे विनीत भाव से मुसकाये और इस तरह बोले।

2 प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा: हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, नास्तिक परिवार में जन्म लेने के कारण मैं स्वभावतः भौतिक भोग के प्रति अनुरक्त हूँ; अतएव आप मुझे इन मोहों से मत ललचाइये। मैं भौतिक दशाओं से अत्यधिक भयभीत हूँ और भौतिकतावादी जीवन से मुक्त होने का इच्छुक हूँ। यही कारण है कि मैंने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है।

3 हे मेरे आराध्य देव, चूँकि हर एक के हृदय में भौतिक संसार के मूल कारण कामेच्छाओं का बीज रहता है, अतएव आपने मुझे इस भौतिक जगत में शुद्ध भक्त के लक्षण प्रकट करने के लिए भेजा है।

4 अन्यथा हे भगवान, हे समस्त जगत के परम शिक्षक, आप अपने इस भक्त के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उससे कुछ भी ऐसा करने को प्रेरित नहीं किया जो उसके लिए अलाभकारी हो। दूसरी ओर, जो व्यक्ति आपकी भक्ति के बदले में कुछ भौतिक लाभ चाहता है, वह आपका शुद्ध भक्त नहीं हो सकता। वह उस व्यापारी की तरह ही है, जो सेवा के बदले में लाभ चाहता है।

5 सेवक जो अपने स्वामी से भौतिक लाभ की इच्छा रखता है, वह निश्चय ही योग्य सेवक या शुद्ध भक्त नहीं है। इसी प्रकार जो स्वामी अपने सेवक को इसलिए आशीष देता है कि स्वामी के रूप में उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे, वह भी शुद्ध स्वामी नहीं है।

6 हे प्रभु, मैं आपका निःस्वार्थ सेवक हूँ और आप मेरे नित्य स्वामी हैं। सेवक तथा स्वामी होने के अतिरिक्त हमें कुछ भी नहीं चाहिए। आप स्वाभाविक मेरे स्वामी हैं और मैं स्वभावतः आपका सेवक हूँ। हम दोनों में कोई अन्य सम्बन्ध नहीं है।

7 हे सर्वश्रेष्ठ वरदाता स्वामी, यदि आप मुझे कोई वांछित वर देना ही चाहते हैं, तो मेरी आपसे प्रार्थना है कि मेरे हृदय में किसी प्रकार की भौतिक इच्छाएँ न रहें।

8 हे भगवन, जन्मकाल से ही कामेच्छाओं के कारण मनुष्य की इन्द्रियों के कार्य, मन, जीवन, शरीर, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, ऐश्वर्य, बल, स्मृति तथा सत्यनिष्ठा समाप्त हो जाते हैं।

9 हे प्रभु, जब मनुष्य अपने मन से सारी भौतिक इच्छाएँ निकालने में सक्षम हो जाता है, तो वह आपके ही समान सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य का पात्र बन जाता है।

10 हे षडऐश्वर्यवान प्रभु, हे परम पुरुष, हे परमात्मा, हे समस्त दुखों के विनाशक, हे अद्भुत नृसिंह रूप में परम पुरुष, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

11 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे प्रिय प्रह्लाद, तुम जैसा भक्त न तो इस जीवन में, न ही अगले जीवन में किसी प्रकार के भौतिक ऐश्वर्य की कामना करता है। तो भी मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम इस मन्वन्तर तक असुरों के राजा के रूप में इस भौतिक जगत में उनके ऐश्वर्य का भोग करो।

12 भले ही तुम इस भौतिक जगत में ही क्यों न रहो, लेकिन तुम्हें निरन्तर मेरे उपदेशों तथा वचनों को सुनना चाहिए और मेरे ही विचार में लीन रहना चाहिए, क्योंकि मैं हर एक के हृदय में परमात्मा रूप में निवास करता हूँ। अतएव तुम सकाम कर्मों का परित्याग करके मेरी पूजा करो।

13 हे प्रह्लाद, इस भौतिक जगत में रहते हुए तुम सुख का अनुभव करके अपने पुण्यकर्म से सारे फलों को समाप्त कर सकोगे और पुण्यकर्म करके पापकर्मों को विनष्ट कर दोगे। शक्तिशाली काल के कारण तुम अपना शरीर-त्याग करोगे, किन्तु तुम्हारे कार्यों की ख्याति का गुणगान उच्च लोकों तक में होगा। तुम बन्धनों से मुक्त होकर भगवदधाम को लौट सकोगे।

14 जो व्यक्ति तुम्हारे तथा मेरे कार्यों का सदैव स्मरण करता है और तुम्हारे द्वारा की गई प्रार्थनाओं का कीर्तन करता है, वह कालान्तर में भौतिक कर्म-फलों से मुक्त हो जाता है।

15-17 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे परमेश्वर, चूँकि आप पतितात्माओं पर इतने दयालु हैं अतएव मैं आपसे एक ही वर माँगता हूँ। मैं जानता हूँ कि आपने मेरे पिता की मृत्यु के समय अपनी कृपादृष्टि डालकर उन्हें पवित्र बना दिया था, किन्तु वे आपकी शक्ति तथा श्रेष्ठता से अनजान होने के कारण आप पर मिथ्या ही यह सोचकर क्रुद्ध थे कि आप उनके भाई को मारने वाले हैं। इस तरह उन्होंने समस्त जीवों के गुरु आपकी प्रत्यक्ष निन्दा की थी और आपके भक्त अर्थात मेरे ऊपर जघन्य पातक (पापपूर्ण-कर्म) किये थे। मेरी इच्छा है कि उन्हें इन पापों के लिए क्षमा कर दिया जाये।

18 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे प्रिय प्रह्लाद, हे परम पवित्र, साधु पुरुष, तुम्हारे पिता तुम्हारे परिवार के इक्कीस पुरखों सहित पवित्र कर दिये गये हैं। चूँकि तुम इस परिवार में उत्पन्न हुए थे, अतएव सारा कुल पवित्र हो गया।

19 जब कभी और जहाँ कहीं भी सदाचारी तथा सद्गुणसम्पन्न, शान्त एवं समदर्शी भक्त होते हैं वह देश तथा परिवार भले ही गर्हित ही क्यों न हो, पवित्र हो जाते हैं।

20 हे दैत्यराज प्रह्लाद, मेरी भक्ति में अनुरक्त रहने के कारण मेरा भक्त उच्च तथा निम्न जीवों में भेदभाव नहीं बरतता। किसी भी प्रकार से वह किसी से ईर्ष्या नहीं करता।

21 जो तुम्हारे आदर्शों का अनुसरण करेंगे वे स्वभावतः मेरे शुद्ध भक्त हो जाएँगे। तुम मेरे भक्त का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हो और अन्य लोगों को तुम्हारे पदचिन्हों का अनुसरण करना चाहिए।

22 मेरे बालक, तुम्हारा पिता अपनी मृत्यु के समय मेरे शरीर के स्पर्श मात्र से पहले ही पवित्र हो चुका है। तो भी पुत्र का कर्तव्य है कि वह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात श्राद्ध-क्रिया सम्पन्न करे जिससे उसका पिता ऐसे लोक को जा सके जहाँ वह अच्छा नागरिक तथा भक्त बन सके।

23 अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न करने के बाद तुम अपने पिता के साम्राज्य का भार सँभालों। तुम सिंहासन पर बैठो और भौतिक कार्यकलापों से तनिक भी विचलित मत होओ। तुम अपना मन मुझ पर स्थिर रखो। तुम शिष्टाचार के रूप में वेदों के आदेशों का उल्लंघन किये बिना अपना विहित कार्य कर सकते हो।

24 श्री नारदमुनि ने आगे कहा: इस प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की आज्ञानुसार प्रह्लाद महाराज ने अपने पिता की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की। हे राजा युधिष्ठिर, तब उसे हिरण्यकशिपु के राजसिंहासन पर ब्राह्मणों के निर्देशानुसार पदारूढ़ किया गया।

25 अन्य देवताओं से घिरे ब्रह्माजी का मुखमण्डल चमक रहा था क्योंकि भगवान प्रसन्न थे। अतएव उन्होंने दिव्य शब्दों से भगवान की स्तुति की।

26 ब्रह्माजी ने कहा: हे देवताओं के परम स्वामी, हे समग्र ब्रह्माण्ड के अध्यक्ष, हे समस्त जीवों के वरदाता, हे आदि पुरुष, यह हमारा सौभाग्य है कि आपने इस पापी असुर को मार डाला जो समग्र ब्रह्माण्ड को दुख देने वाला था।

27 इस असुर हिरण्यकशिपु ने मुझसे यह वरदान प्राप्त किया था कि वह मेरी सृष्टि में किसी जीव के द्वारा मारा नहीं जाएगा। इस आश्वासन के कारण तथा तपस्या और योग से प्राप्त बल द्वारा वह अत्यन्त गर्वित हो उठा और समस्त वैदिक आदेशों का उल्लंघन करने लगा।

28 सौभाग्य से हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद अब मृत्यु से बचा लिया गया है और यद्यपि वह अभी बालक है, किन्तु हे महाभागवत, अब वह पूर्णतया आपके चरणकमलों की शरण में है।

29 हे ईश्वर, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवन! आप परमात्मा हैं। यदि कोई आपके दिव्य शरीर का ध्यान करता है, तो आप सभी प्रकार के भय से, यहाँ तक कि आसन्न मृत्यु-भय से भी, उसकी रक्षा करते हैं।

30 भगवान ने उत्तर दिया: हे ब्रह्मा, हे कमल पुष्प से उत्पन्न महान प्रभु जिस प्रकार साँप को दूध पिलाना घातक होता है उसी तरह असुरों को वर प्रदान करना घातक होता है, क्योंकि वे क्रूर तथा ईर्ष्यालु प्रकृति के होते हैं। मैं तुम्हें सचेत करता हूँ कि तुम फिर से कभी किसी असुर को ऐसा वर प्रदान मत करना।

31 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजा युधिष्ठिर, ब्रह्मा को उपदेश देते हुए सामान्य व्यक्ति को न दिखने वाले भगवान इस तरह बोले। तब ब्रह्मा द्वारा पूजित होकर भगवान उस स्थान से अन्तर्धान हो गये।

32 तब प्रह्लाद महाराज ने भगवान के अंश रूप समस्त देवताओं की यथा ब्रह्मा, शिव तथा प्रजापतियों की पूजा और स्तुति की।

33 तत्पश्चात शुक्राचार्य तथा अन्य बड़े-बड़े सन्त पुरुषों सहित कमलासीन ब्रह्माजी ने प्रह्लाद को ब्रह्माण्ड के सारे असुरों तथा दानवों का राजा बना दिया।

34 हे राजा युधिष्ठिर, प्रह्लाद महाराज द्वारा भलीभाँति पूजित होकर ब्रह्मा आदि सारे देवताओं ने उन्हें आशीर्वाद दिये और फिर अपने-अपने धामों को वापस चले गये।

35 इस प्रकार भगवान विष्णु के दोनों पार्षद, जो दिति के पुत्र हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु बने थे, मार डाले गये। भ्रमवश उन्होंने सोचा था कि हर एक के हृदय में निवास करनेवाले परमेश्वर उनके शत्रु हैं।

36 ब्राह्मणों द्वारा शापित होने से इन दोनों पार्षदों ने कुम्भकर्ण तथा दसानन रावण के रूप में फिर से जन्म लिया। ये दोनों राक्षस भगवान रामचन्द्र के अतुलित पराक्रम द्वारा मारे गये।

37 भगवान रामचन्द्र के बाणों से बिधकर कुम्भकर्ण तथा रावण दोनों ही युद्धभूमि में पड़े रहे और भगवान के विचार में लीन होकर उसी तरह अपने अपने शरीर छोड़ दिये जिस तरह अपने पूर्वजन्म में हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु के रूप में किया था।

38 उन्होंने फिर से मानव समाज में शिशुपाल तथा दन्तवक्र के रूप में जन्म लिया और भगवान से वैसा ही वैर-भाव बनाये रखा। ये वही थे, जो तुम्हारे समक्ष भगवान के शरीर में लीन हो गये।

39 न केवल शिशुपाल तथा दन्तवक्र, अपितु अन्य अनेकानेक राजा जो कृष्ण के शत्रु बने हुए थे अपनी मृत्यु के समय मोक्ष को प्राप्त हुए। चूँकि वे भगवान के विषय में सोचते थे, अतः उन्हें भगवान जैसा आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त हुआ जिस तरह भृंगी (black drone) द्वारा पकड़ा गया कीड़ा भृंगी का शरीर प्राप्त कर लेता है।

40 शुद्ध भक्त जो भक्ति के द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं, वे उन्हीं जैसा शरीर प्राप्त करते हैं। यह सारूप्य मुक्ति कहलाती है। यद्यपि शिशुपाल, दन्तवक्र तथा अन्य राजा कृष्ण का अपने शत्रु के रूप में चिन्तन करते थे, किन्तु उन्हें भी वैसा ही फल प्राप्त हुआ।

41 तुमने मुझसे पूछा था कि किस तरह शिशुपाल तथा अन्यों ने भगवान का शत्रु होते हुए भी मोक्ष प्राप्त किया सो वह सब कुछ मैंने तुम्हें बतला दिया है।

42 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण सम्बन्धी इस कथा में भगवान के विभिन्न अवतारों का वर्णन किया गया। साथ ही इसमें हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु नामक दो असुरों के वध का भी वर्णन किया गया है।

43-44 यह कथा महाभागवत प्रह्लाद महाराज के गुणों, उनकी दृढ़ भक्ति, उनके परिपूर्ण ज्ञान तथा भौतिक कल्मष से पूर्ण विरक्ति का बखान करती है। यह सृजन, पालन तथा संहार के कारणस्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का भी वर्णन करती है। प्रह्लाद महाराज ने अपनी स्तुतियों में भगवान के दिव्य गुणों के साथ ही यह भी बतलाया कि किस तरह देवताओं तथा असुरों के आवास भगवान के निर्देश मात्र से ध्वस्त हो जाते हैं चाहे वे भौतिक ऐश्वर्य से कितने ही भरे-पुरे क्यों न हो।

45 धर्म के जिन सिद्धान्तों से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को वास्तव में समझा जा सकता है, वह भागवत धर्म कहलाता है। अतएव इस कथा में इन सिद्धान्तों का समावेश होने से वास्तविक अध्यात्म का भलीभाँति वर्णन हुआ है।

46 जो कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की सर्वव्यापकता विषयक इस कथा को सुनता है और इसका कीर्तन करता है, वह निश्चित रूप से भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।

47 प्रह्लाद महाराज भक्तों में सर्वश्रेष्ठ थे। जो कोई प्रह्लाद महाराज के कार्यकलापों, हिरण्यकशिपु के वध तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नृसिंहदेव की लीलाओं से सम्बद्ध इस कथा को अत्यन्त मनोयोग से सुनता है, वह निश्चयपूर्वक आध्यात्मिक जगत में पहुँचता है जहाँ कोई चिन्ता नहीं रहती है।

48 नारद मुनि ने आगे कहा: हे महाराज युधिष्ठिर, तुम सभी (पाण्डव) अत्यन्त भाग्यशाली हो, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण तुम्हारे महल में सामान्य मनुष्य की भाँति निवास करते हैं। बड़े-बड़े साधु पुरुष इसे भलीभाँति जानते हैं इसीलिए वे निरन्तर इस घर में आते रहते हैं।

49 निराकार ब्रह्म साक्षात कृष्ण ही हैं, क्योंकि कृष्ण निराकार ब्रह्म के स्रोत हैं। वे बड़े-बड़े साधु पुरुषों द्वारा चेष्टा किये जाने वाले दिव्य आनन्द के उत्स हैं फिर भी परम पुरुष तुम्हारे सर्वाधिक प्रिय मित्र तथा चिरंतन सुहृद हैं और तुम्हारे मामा के पुत्ररूप में तुमसे घनिष्ठतः सम्बन्धित हैं। दरअसल, वे सदैव तुम्हारे शरीर तथा आत्मा-सदृश हैं। वे पूज्य हैं फिर भी वे तुम्हारे सेवक की तरह और कभी-कभी तुम्हारे गुरु की तरह कार्य करते हैं।

50 शिव तथा ब्रह्माजी जैसे महापुरुष पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के सत्य का सही-सही वर्णन नहीं कर पाये। वे भगवान हम पर प्रसन्न हों जो सदा समस्त भक्तों के रक्षक रूप में उन महान सन्तों द्वारा पूजे जाते हैं, जो मौन, ध्यान, भक्ति तथा त्याग का व्रत लिए रहते हैं।

51 हे राजा युधिष्ठिर, बहुत समय पहले तकनीकी ज्ञान में अत्यन्त कुशल मय नामक दानव ने शिवजी की ख्याति को धूमिल कर दिया। उस स्थिति में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण ने शिवजी की रक्षा की थी।

52 महाराज युधिष्ठिर ने पूछा: मय दानव ने किस कारण से शिवजी की कीर्ति नष्ट की? कृष्ण ने किस तरह शिवजी की रक्षा की? और किस तरह उनकी कीर्ति का पुनः विस्तार किया? कृपया इन घटनाओं को कह सुनायें।

53 नारद मुनि ने कहा: जब देवताओं ने जो भगवान कृष्ण की दया से सदा शक्तिशाली बने रहते हैं असुरों से युद्ध किया तो असुर हार गये, अतएव उन्होंने महानतम असुर मय दानव की शरण ग्रहण की।

54-55 असुरों के महानायक मय दानव ने तीन अदृश्य आवास तैयार किये और उन्हें असुरों को सौंप दिया। ये तीनों आवास सोने, चाँदी तथा लोहे के बने विमानों जैसे थे और उनमें अपूर्व साज-सामग्री थी। हे राजा युधिष्ठिर, इन तीनों आवासों के कारण असुरों के सेनानायक देवताओं से अदृश्य हो गए थे। इस अवसर का लाभ उठाकर तथा अपनी पूर्व शत्रुता का स्मरण करते हुए असुरगण तीनों लोकों (ऊर्ध्व, मध्य तथा अधोलोक) का विनाश करने लगे।

56 तत्पश्चात जब असुरगण उच्चलोकों को तहस-नहस करने लगे तो उन लोकों के शासक शिवजी की शरण में आये और उन्होंने कहा – हे प्रभु हम तीन लोकों के वासी देवता विनष्ट होने वाले हैं। हम आपके अनुयायी हैं। कृपया हमारी रक्षा करें।

57 अत्यन्त शक्तिशाली एवं समर्थ शिवजी ने उन्हें ढाढ़स बँधाते हुए कहा "डरो मत।" तब उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर असुरों द्वारा निवसित तीनों आवासों की ओर छोड़ा।

58 शिवजी द्वारा छोड़े गये बाण सूर्यमण्डल से निकलने वाली प्रज्ज्वलित किरणों जैसे लग रहे थे। उनसे तीनों आवास-रूपी विमान आच्छादित हो गये जिससे वे दिखने बन्द हो गये।

59 शिवजी के सुनहरे बाणों से प्रहार किये जाने से उन तीनों आवासों के निवासी असुर निष्प्राण होकर गिर पड़े। तब परम योगी मय दानव ने उन्हें स्वयं द्वारा निर्मित अमृत कूप में लाकर डाल दिया।

60 असुरों के मृत शरीर इस अमृत का स्पर्श करते ही वज्र के समान अभेद्य हो गये। अतीव बल प्राप्त कर लेने के कारण वे बादलों को विदीर्ण करने वाली बिजली की भाँति उठ खड़े हो गये।

61 शिवजी को अत्यन्त दुखी तथा निराश देखकर भगवान विष्णु ने विचार किया कि मय दानव द्वारा उत्पन्न इस उत्पात को किस प्रकार रोका जाये।

62 तब ब्रह्माजी बछड़ा और भगवान विष्णु गाय बन गये और दोपहर के समय आवासों में प्रवेश करके वे कुए का सारा अमृत पी गये।

63 असुरों ने बछड़े तथा गाय को देखा लेकिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा उत्पन्न मोह शक्ति के कारण वे उन्हें रोक नहीं पाये। महायोगी मय असुर को पता चल गया कि बछड़ा तथा गाय अमृत पी रहे हैं और वह यह समझ गया कि यह अदृश्य दैवी शक्ति के कारण हो रहा है। इस प्रकार वह पश्चाताप करते हुए असुरों से बोला।

64 मय दानव ने कहा: जो अपने, दूसरों के अथवा दोनों के भाग्य में परमेश्वर द्वारा निश्चित कर दिया गया है उसे कोई भी, कहीं भी मिटा नहीं सकता चाहे वह देवता, असुर, मनुष्य या अन्य कोई क्यों न हो।

65-66 नारद मुनि ने आगे कहा: तत्पश्चात कृष्ण ने शिवजी को अपनी निजी शक्ति से, जो धर्म, ज्ञान, त्याग, ऐश्वर्य, तपस्या, विद्या तथा कर्म से युक्त थी, सभी प्रकार की साज-सामग्री-यथा रथ, सारथी, ध्वजा, घोड़े, हाथी, धनुष, ढाल तथा बाण से लैस कर दिया। इस तरह से सुसज्जित (लैस) होकर शिवजी अपने धनुष-बाण द्वारा असुरों से लड़ने के लिए रथ पर आसीन हुए।

67 हे राजा युधिष्ठिर, परम शक्तिशाली शिवजी ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाये और दोपहर के समय असुरों के तीनों आवासों में अग्नि लगाकर उन्हें नष्ट कर दिया।

68 तब आकाश में अपने-अपने विमानों में आसीन उच्चलोकों के निवासियों ने दुन्दुभियाँ बजाई। देवताओंऋषियों, पितरों, सिद्धों तथा विविध महापुरुषों ने शिवजी के ऊपर पुष्प-वर्षा की और जय जयकार की। अप्सराएँ परम प्रमुदित होकर नाचने-गाने लगीं।

69 हे राजा युधिष्ठिर, इस प्रकार शिवजी त्रिपुरारी कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने असुरों की तीनों पुरियों को भस्म कर दिया था। ब्रह्मा समेत समस्त देवताओं से पूजित होकर शिवजी अपने धाम लौट गये।

70 यद्यपि भगवान कृष्ण मनुष्य के रूप में प्रकट हुए थे फिर भी उन्होंने अपनी शक्ति से अनेक असामान्य तथा आश्चर्यजनक लीलाएँ सम्पन्न कीं। उन महान सन्त पुरुषों द्वारा जो कुछ कहा जा चुका है भला मैं उससे और अधिक क्या कह सकता हूँ? प्रत्येक व्यक्ति अधिकृत स्रोत से भगवान के कार्यकलापों के श्रवण मात्र से शुद्ध हो सकता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय नौ – प्रह्लाद द्वारा नृसिंह देव को प्रार्थनाओं से शान्त करना (7.9)

1-5 नारद मुनि ने आगे कहा: ब्रह्मा, शिव इत्यादि अन्य बड़े-बड़े देवताओं का साहस न हुआ कि वे भगवान के समक्ष जाँय, क्योंकि उस समय वे अत्यन्त क्रुद्ध थे।  वहाँ पर उपस्थित भयभीत सारे देवताओं ने लक्ष्मीजी से प्रार्थना की कि वे भगवान के समक्ष जाएँ। किन्तु उन्होंने भी भगवान का ऐसा अद्भुत तथा असामान्य रूप कभी नहीं देखा था, अतएव वे उनके पास नहीं जा सकीं।  तत्पश्चात ब्रह्माजी ने अपने पास ही खड़े प्रह्लाद महाराज से अनुरोध किया--हे पुत्र, भगवान नृसिंहदेव तुम्हारे आसुरी पिता पर अत्यधिक क्रुद्ध हैं। अतएव तुम आगे जाकर भगवान को शान्त करो।  नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, यद्यपि महान भक्त प्रह्लाद महाराज केवल छोटे से बालक थे, लेकिन उन्होंने ब्रह्माजी की बातें मान लीं। वे धीरे-धीरे भगवान नृसिंहदेव की ओर बढ़े और हाथ जोड़कर पृथ्वी पर गिरकर उन्हें सादर प्रणाम किया।  जब नृसिंहदेव ने देखा कि छोटे से बालक प्रह्लाद महाराज ने चरणकमलों पर साष्टांग प्रणाम किया है, तो वे अपने भक्त के प्रति अत्यधिक भाव-विभोर हो उठे। प्रह्लाद को उठाते हुए उन्होंने अपना कर-कमल उस बालक के सिर पर रख दिया। उनका हाथ उनके समस्त भक्तों को सदैव अभय-दान करने वाला है।

6-10 भगवान नृसिंहदेव द्वारा प्रह्लाद महाराज का सिर स्पर्श करने से प्रह्लाद के समस्त भौतिक कल्मष तथा इच्छाएँ पूर्णतया धुल गई। अतएव वे दिव्य पद को प्राप्त हो गए और उनके शरीर में आनन्द के सारे लक्षण प्रकट हो गए। उनका हृदय प्रेम से पूरित हो उठा, उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने अपने हृदय में भगवान के चरणकमलों को बन्दी बना लिया।  प्रह्लाद महाराज ने पूर्ण समाधि में पूरे मनोयोग से अपने मन तथा दृष्टि को भगवान नृसिंहदेव पर स्थिर कर दिया। तब वे स्थिर मन से अवरुद्ध वाणी से प्रेमपूर्वक प्रार्थना करने लगे।  प्रह्लाद महाराज ने प्रार्थना की: असुर परिवार में जन्म लेने के कारण यह कैसे सम्भव हो सकता है कि मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न करने के लिए उपयुक्त प्रार्थना कर सकूँ? आज तक ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता तथा समस्त मुनिगण उत्तमोत्तम वाणी से भगवान को प्रसन्न नहीं कर पाये, यद्यपि ये सारे व्यक्ति सतोगुणी एवं परम योग्य हैं, तो फिर मेरे विषय में क्या कहा जाये? मैं तो बिल्कुल ही अयोग्य हूँ।  प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा: भले ही मनुष्य के पास सम्पत्ति, राजसी परिवार, सौन्दर्य, तपस्या, शिक्षा, दक्षता, कान्ति, प्रभाव, शारीरिक शक्ति, उद्यम, बुद्धि तथा योगशक्ति क्यों न हो, किन्तु मेरी समझ से इन सारी योग्यताओं से भी कोई व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकता। किन्तु भक्ति से वह ऐसा कर सकता है। गजेन्द्र ने ऐसा किया और इस तरह भगवान उससे प्रसन्न हो गये।  यदि किसी ब्राह्मण ने बारहों योग्यताएँ (सनत्सुजात ग्रन्थ में उल्लिखित) हों किन्तु यदि वह भक्त नहीं है और भगवान के चरणकमलों से विमुख है, तो वह उस चाण्डाल भक्त से भी अधम है, जिसने अपना सर्वस्व मन, वचन, कर्म, सम्पत्ति तथा जीवन परमेश्वर को अर्पित कर दिया है। ऐसा भक्त उस ब्राह्मण से श्रेष्ठ है, क्योंकि भक्त अपने सारे परिवार को पवित्र कर सकता है जबकि झूठी प्रतिष्ठा वाला तथाकथित ब्राह्मण अपने आपको भी शुद्ध नहीं कर पाता।

11-15 परमेश्वर अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सदैव आत्मतुष्ट रहने वाले हैं। अतएव जब उन्हें कोई भेंट अर्पित की जाती है, तो भगवत्कृपा से यह भेंट भक्त के लाभ के लिये ही होती है, क्योंकि भगवान को किसी भी सेवा की आवश्यकता नहीं है। उदाहरणार्थ, यदि किसी का मुख सुसज्जित हो तो दर्पण में उसके मुख का प्रतिबिम्ब भी सुसज्जित दिखता है।  अतएव यद्यपि मैंने असुरकुल में जन्म लिया है, तो भी निस्सन्देह, जहाँ तक मेरी बुद्धि जाती है मैं पूरे प्रयास से भगवान की प्रार्थना करूँगा। जो भी व्यक्ति अज्ञान के कारण इस भौतिक जगत में प्रविष्ट होने को बाध्य हुआ है, वह भौतिक जीवन को पवित्र बना सकता है यदि वह भगवान की प्रार्थना करे और उनके यश का श्रवण करे।   हे भगवन, ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता आपके निष्ठावान दास हैं, क्योंकि वे दिव्य पद पर स्थित हैं। अतः वे हमारी (प्रह्लाद तथा उनके असुर पिता हिरण्यकशिपु) की तरह नहीं हैं। इस भयानक रूप में आपका प्राकट्य स्वान्तःसुख के लिए आपकी लीला है। ऐसा अवतार सदा ही ब्रह्माण्ड की रक्षा तथा सुधार (अभ्युदय) के निमित्त होता है।  अतएव हे नृसिंहदेव भगवान, आप अपना क्रोध अब त्याग दें, क्योंकि मेरा पिता महा असुर हिरण्यकशिपु मारा जा चुका है। चूँकि साँप या बिच्छू के मारे जाने पर साधु पुरुष भी प्रसन्न होते हैं, अतएव इस असुर की मृत्यु से सारे लोकों को अत्यन्त सन्तोष हुआ है। अब वे अपने सुख के प्रति आश्वस्त हैं और भय से मुक्त होने के लिए आपके इस कल्याणप्रद अवतार का सदैव स्मरण करेंगे।  हे अजित भगवान, मैं न तो आपके भयानक मुख तथा जीभ से, न ही सूर्य के समान चमकीली आँखों से या टेढ़ी भौंहों से भयभीत हूँ। मैं आपके तेज नुकीले दाँतों से, आँतों की माला से, रक्त रंजीत गर्दन के बालों से या बर्छे जैसे पैने कानों से भी नहीं डर रहा हूँ। न ही मैं आपके भीषण सिंहनाद से भयभीत हूँ जिससे हाथी भागकर दूर चले जाते हैं। न मैं आपके नाखूनों से भयभीत हूँ जो आपके शत्रु को मारने के निमित्त हैं।

16-20 हे पतितों पर सदय, परम शक्तिशाली दुर्जेय प्रभु, मैं अपने कर्मों के कारण असुरों की संगति में आ पड़ा हूँ, अतएव मैं इस भौतिक संसार में अपनी जीवन दशा से अत्यधिक भयभीत हूँ। वह क्षण कब होगा जब आप मुझे उन चरणकमलों की शरण में बुला लेंगे जो बद्ध जीवन से मोक्ष के चरम लक्ष्य हैं? हे महान, हे परमेश्वर, प्रिय तथा अप्रिय परिस्थितियों के संयोग से तथा उनसे बिछुड़ने के कारण मनुष्य स्वर्ग या नरक लोकों में अत्यन्त शोचनीय स्थिति को प्राप्त होता है मानो सन्ताप की अग्नि में जल रहा हो। यद्यपि इस दुखमय जीवन से निकलने के अनेक उपचार हैं किन्तु भौतिक जगत में ये उपचार दुखों से भी अधिक कष्टकारक हैं। अतएव मैं सोचता हूँ कि इसकी एकमात्र औषधि आपकी सेवा में संलग्न होना है। कृपया मुझे ऐसी सेवा का उपदेश दें। हे भगवान नृसिंहदेव, मुक्तात्माओं (हंसों) की संगति में आपकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे रहकर मैं प्रकृति के तीन गुणों के स्पर्श से पूर्णत: कल्मषहीन हो सकूँ गा और आपकी महिमाओं का कीर्तन कर सकूँ गा जो मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मैं ब्रह्मा तथा उनकी शिष्य परम्परा के पद-चिन्हों पर ठीक तरह से चलकर आपकी महिमाओं का कीर्तन करूँगा। इस प्रकार मैं अज्ञान के सागर को निश्चय ही पार कर सकूँगा।  हे नृसिंहदेव, हे परम पुरुष, देहात्मबुद्धि के कारण आपके द्वारा उपेक्षित देहधारी जीव अपने कल्याण के लिए कुछ भी नहीं कर पाते। वे जो भी उपचार स्वीकार करते हैं, उनसे यद्यपि कदाचित क्षणिक लाभ पहुँचता है, किन्तु वे स्थायी नहीं रह पाते। उदाहरणार्थ, माता तथा पिता अपने बालक की रक्षा नहीं कर पाते, वैद्य तथा दवा रोगी का कष्ट दूर नहीं कर पाते तथा समुद्र में कोई नाव डूबते हुए मनुष्य को नहीं बचा पाती।  हे प्रभु, इस भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति – सतो, रजो तथा तमोगुणों से प्रभावित होकर प्रकृति के गुणों के अधीन हो जाता है। सर्वोच्च व्यक्ति ब्रह्माजी से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक सारे प्राणी इन्हीं गुणों के वशीभूत होकर कार्य करते हैं। अतएव इस भौतिक जगत में सारे व्यक्ति आपकी शक्ति के वशीभूत हैं। वे जिस कारण से कर्म करते हैं, जिस स्थान में कर्म करते हैं, जिस काल में कर्म करते हैं, जिस पदार्थ के कारण काम करते हैं, जिस जीवन-लक्ष्य को उन्होंने अन्तिम मान रखा है तथा इस लक्ष्य को प्राप्त करने की जो विधि है – ये सभी आपकी शक्ति की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। निस्सन्देह, शक्ति तथा शक्तिमान अभिन्न होते हैं, ये सब आपकी ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

21-25 हे प्रभु, हे परम शाश्वत, आपने अपने स्वांश का विस्तार करके काल द्वारा क्षुब्ध होने वाली अपनी बहिरंगा शक्ति के द्वारा जीवों के सूक्ष्म शरीरों की सृष्टि की है। इस प्रकार मन जीव को अनन्त प्रकार की इच्छाओं में फाँस लेता है जिन्हें कर्मकाण्ड के वैदिक आदेशों तथा सोलह तत्त्वों के द्वारा पूरा किया जाना होता है। भला ऐसा कौन है, जो आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किये बिना इस बन्धन से छूट सके? हे प्रभु, हे परम पुरुष, आपने सोलह अवयवों से इस भौतिक जगत की रचना की है, किन्तु आप उनके भौतिक गुणों से परे हैं। दूसरे शब्दों में, ये भौतिक गुण पूर्णतया आपके वश में हैं और आप कभी भी उनके द्वारा जीते नहीं जाते। अतएव काल तत्त्व आपका प्रतिनिधित्व करता है। हे प्रभु, हे परमेश्वर, आपको कोई नहीं जीत सकता। किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो कालचक्र द्वारा पिसा जा रहा हूँ; अतएव मैं आपको पूर्ण आत्म-समर्पण करता हूँ। अब आप मुझे अपने पाद-पद्मों में संरक्षण प्रदान करें।  हे प्रभु, सामान्यतः लोग दीर्घ आयु, ऐश्वर्य तथा भोग के लिए उच्च लोकों में जाना चाहते हैं, किन्तु मैंने अपने पिता के कार्यकलापों से इन सबको देख लिया है। जब मेरे पिता क्रुद्ध होते थे और देवताओं पर व्यंग्य भरी हँसी हँसते थे तो वे उनकी भौंहों की गतियों को देखने से ही तुरन्त विनष्ट हो जाते थे। तो भी मेरे इतने शक्तिशाली पिता अब एक क्षण में आपके द्वारा ध्वस्त कर दिये गये। हे भगवन, अब मुझे सांसारिक ऐश्वर्य, योगशक्ति, दीर्घायु तथा ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक के सारे जीवों द्वारा भोग्य अन्य भौतिक आनन्दों का पूरा-पूरा अनुभव है। शक्तिशाली काल के रूप में आप इन सबों को नष्ट कर देते हैं। अतः मैं अपने अनुभव के आधार पर इन सबको नहीं लेना चाहता। हे भगवन, मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे अपने शुद्ध भक्त के सम्पर्क में रखें और निष्ठावान दास के रूप में उसकी सेवा करने दें। इस भौतिक जगत में प्रत्येक जीव कुछ न कुछ भावी सुख की कामना करता है, जो मरुस्थल में मृग-मरीचिका के समान है। भला मरुस्थल में जल कहाँ? दूसरे शब्दों में, इस भौतिक जगत में सुख कहाँ? जहाँ तक इस शरीर की बात है, इसका मूल्य ही क्या है? यह विभिन्न रोगों का स्रोत मात्र है। तथाकथित दार्शनिक, विज्ञानी तथा राजनीतिज्ञ इसे भलीभाँति जानते हैं फिर भी वे क्षणिक सुख की आकांक्षा रखते हैं। सुख प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन है लेकिन वे अपनी इन्द्रियों को वश में न रख पाने के कारण भौतिक जगत के तथाकथित सुख के पीछे दौड़ते हैं और सही निष्कर्ष तक कभी नहीं पहुँच पाते।

26-30 हे प्रभु, हे परम पुरुष, कहाँ घोर नारकीय रजो तथा तमोगुणी परिवार में उत्पन्न हुआ मैं और कहाँ आपकी अहैतुकी कृपा जो ब्रह्माजी, शिवजी या लक्ष्मीजी को कभी प्राप्त नहीं हो पाई? आप कभी भी इनके सिरों पर अपना कमल जैसा हाथ नहीं रखते, किन्तु आपने मेरे सिर पर इसे रखा है।   हे भगवन, आप सामान्य जीवों की तरह मित्र तथा शत्रु एवं अनुकूल तथा प्रतिकूल के मध्य भेदभाव नहीं बरतते, क्योंकि आपमें ऊँच-नीच की कोई भावना नहीं है। फिर भी आप सेवा के स्तर के अनुसार ही अपने आशीष प्रदान करते हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कल्पवृक्ष इच्छाओं के अनुसार ही फल देता है और ऊँच-नीच में भेदभाव नहीं बरतता।  मेरे प्रभु, हे भगवन, मैं एक के बाद एक भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों का अनुगमन करते हुए सर्पों से भरे अन्धे कुएँ में गिरता जा रहा था। किन्तु आपके दास नारदमुनि ने कृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इस दिव्य पद को किस तरह प्राप्त किया जाये। अतएव मेरा पहला कर्तव्य है कि मैं उनकी सेवा करूँ। भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ?  हे भगवन, हे दिव्य गुणों के असीम आगार, आपने मेरे पिता हिरण्यकशिपु का वध किया है और मुझे उनकी तलवार से बचा लिया है। उन्होंने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा था "यदि मेरे अतिरिक्त कोई परम नियन्ता है, तो वह तुम्हें बचाए। अब मैं तुम्हारे सिर को तुम्हारे शरीर से काटकर अलग कर दूँगा।" अतएव मैं सोचता हूँ कि मुझे बचाने तथा उन्हें मारने – दोनों ही कार्यों में आपने अपने भक्त के वचनों को सत्य करने के लिए ही कर्म किया है। इसका कोई अन्य कारण नहीं है।  हे भगवन, अकेले आप ही अपने आपको विराट जगत के रूप में प्रकट करते हैं, क्योंकि आप सृष्टि के पूर्व विद्यमान थे, संहार के बाद भी विद्यमान रहते हैं और आदि तथा अन्त के बीच में पालक हैं। यह सब प्रकृति के तीनों गुणों की क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा किया जाता है। अतएव भीतर तथा बाहर जो कुछ भी विद्यमान है, वह केवल आप हैं।

31-35 हे प्रभु, हे भगवन, यह समग्र सृष्टि आपके द्वारा उत्पन्न है और विराट जगत आपकी शक्ति का परिणाम है। यद्यपि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है फिर भी आप अपने को उससे पृथक रखते हैं। 'मेरा' तथा 'तुम्हारा' की धारणा निश्चय ही एक प्रकार का मोह (माया) है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु आपसे उद्भूत होने के कारण आपसे भिन्न नहीं है। निस्सन्देह, विराट जगत आपसे अभिन्न है और संहार भी आपके द्वारा ही किया जाता है। आप तथा ब्रह्माण्ड के बीच का यह सम्बन्ध बीज तथा वृक्ष अथवा सूक्ष्म कारण तथा स्थूल अभिव्यक्ति के उदाहरण के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।  हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, संहार के बाद सृजनात्मक शक्ति आप में सुरक्षित रखी जाती है और आप अपने अर्धखुले नेत्रों से सोते प्रतीत होते हैं। किन्तु तथ्य तो यह है कि आप एक सामान्य व्यक्ति की भाँति सोते नहीं, क्योंकि आप भौतिक जगत की सृष्टि के परे सदैव दिव्य अवस्था में रहते हैं और सदैव दिव्य आनन्द का अनुभव करते हैं। इस तरह क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में आप भौतिक वस्तुओं को छूए बिना अपनी दिव्य स्थिति में बने रहते हैं। यद्यपि आप सोते प्रतीत होते हैं, किन्तु यह सोना अविद्या की निद्रा से पृथक होता है। यह विराट भौतिक जगत भी आपका शरीर ही है। पदार्थ का यह पिण्ड आपकी काल शक्ति द्वारा आन्दोलित (उत्तेजित) होता है और इस तरह प्रकृति के तीनों गुण प्रकट होते हैं। तब आप शेष या अनन्त की शय्या से जागते हैं और आपकी नाभि से एक क्षुद्र दिव्य बीज उत्पन्न होता है। इसी बीज से विराट जगत का कमल पुष्प प्रकट होता है ठीक उसी तरह जिस प्रकार एक छोटे बीज से विशाल वटवृक्ष उगता है।  उस विशाल कमल पुष्प से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए किन्तु उन्हें उस कमल के सिवाय कुछ भी नहीं दिखा। अतएव आपको बाहर स्थित जानकर उन्होंने जल में गोता लगाया और वे एक सौ वर्षों तक उस कमल के उद्गम को खोजने का प्रयत्न करते रहे। किन्तु उन्हें आपका कोई पता नहीं चल पाया क्योंकि–जब बीज फलीभूत होता है, तो असली बीज नहीं दिख पाता।  आत्मयोनि के रूप में विख्यात अर्थात बिना माता के उत्पन्न ब्रह्माजी को आश्चर्य हुआ। अतएव उन्होंने कमलपुष्प की शरण ग्रहण की ओर जब वे सैकड़ों वर्षों तक कठोर तपस्या करने के बाद शुद्ध हुए तो वे देख पाये कि समस्त कारणों के कारण भगवान उनके अपने पूरे शरीर तथा इन्द्रियों में उसी तरह व्याप्त थे जिस प्रकार गन्ध अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी पृथ्वी में अनुभव की जाती है।

36-40 तब ब्रह्माजी ने आपको हजारों-हजारों मुखों, पाँवों, सिरों, हाथों, जाँघों, कानों तथा आँखों से युक्त देखा। आप भलीभाँति वस्त्र धारण किये थे और नाना प्रकार के आभूषणों तथा आयुधों से सुशोभित थे। आपको विष्णु रूप में देखकर तथा आपके दिव्य लक्षणों एवं अधोलोकों से फैले हुए आपके चरणों को देखकर ब्रह्माजी को दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ। हे भगवन जब आप घोड़े का सिर धारण करके हयग्रीव रूप में प्रकट हुए तो आपने रजो तथा तमोगुणों से पूर्ण मधु तथा कैटभ नामक दो असुरों का संहार किया। फिर आपने ब्रह्मा को वैदिक ज्ञान प्रदान किया। इसी कारण से सारे महान ऋषिगण आपके रूपों को दिव्य अर्थात भौतिक गुणों से अछूता मानते हैं। हे प्रभु, इस प्रकार आप विभिन्न अवतारों में जैसे मनुष्य, पशु, ऋषि, देवता, मत्स्य या कच्छप के रूप में प्रकट होते हैं और इस प्रकार से विभिन्न लोकों में सम्पूर्ण सृष्टि का पालन करते हैं तथा आसुरी सिद्धान्तों को नष्ट करते हैं। हे भगवान, युग के अनुसार आप धार्मिक सिद्धान्तों की रक्षा करते हैं। किन्तु कलियुग में आप स्वयं को भगवान के रूप में घोषित नहीं करते। इसलिए आप 'त्रियुग' कहलाते हैं, अर्थात तीन युगों में प्रकट होने वाले भगवान। चिन्तारहित वैकुण्ठलोकों के स्वामी, मेरा मन अत्यन्त पापी तथा कामी है, कभी यह तथाकथित सुखी, तो कभी दुखी रहता है। मेरा मन शोक तथा भय से पूर्ण है और सदैव अधिकाधिक धन की खोज में रहता है। इस तरह यह अत्यधिक दूषित गया है और आपकी कथाओं से कभी तुष्ट नहीं होता। अतएव मैं अत्यन्त पतित तथा दीन हूँ। ऐसी जीवन-स्थिति में भला मैं आपके कार्यकलापों की व्याख्या करने में किस तरह समर्थ हो सकता हूँ?  हे अच्युत भगवान, मेरी दशा उस पुरुष की भाँति है, जिसकी कई पत्नियाँ हों और वे सभी उसे अपने अपने ढंग से आकर्षित करने का प्रयास कर रही हों। उदाहरणार्थ, जीभ स्वादिष्ट व्यंजनों की ओर आकृष्ट होती है, जननेन्द्रिय किसी आकर्षक संग हेतु और स्पर्श इन्द्रियाँ मुलायम वस्तुओं का स्पर्श करने के लिए आकृष्ट होती हैं। पेट भरा रहने पर भी अधिक खाना चाहता है और कान आपके विषय में न सुनकर सामान्यतः चित्रपट गीतों की ओर आकृष्ट होते हैं। घ्राणेन्द्रिय किसी अन्य ओर ही आकृष्ट होती है, चंचल आँखें इन्द्रियतृप्ति के दृश्यों की ओर आकृष्ट होती हैं तथा सक्रिय इन्द्रियाँ अन्यत्र आकृष्ट होती हैं। इस तरह मैं सचमुच ही दुविधा में रहता हूँ।

41-45 हे भगवन आप सदैव मृत्यु की नदी के दूसरी ओर (उस पार) दिव्य रूप में स्थित रहते हैं। किन्तु हम सभी अपने पापकर्मों के फलों के कारण इस ओर कष्ट भोग रहे हैं। दरअसल, हम इस नदी में गिर गये हैं और जन्म-मृत्यु की वेदनाओं से बारम्बार कष्ट उठा रहे हैं तथा भयानक वस्तुएँ खा रहे हैं। अब कृपा करके हम पर दृष्टि डालिये – न केवल मुझ पर अपितु उन सबों पर जो कष्ट उठा रहे हैं – और अपनी अहैतुकी कृपा तथा दया से हमारा उद्धार तथा हमारा पालन कीजिये।  हे भगवन, हे समग्र जगत के आदि आध्यात्मिक गुरु, आप ब्रह्माण्ड के कार्यों के प्रबन्धक हैं, अतएव आपकी सेवा में लगे हुए पतितात्माओं का उद्धार करने में आपको कौन सी कठिनाई है? आप सारी दुखियारी मानवता के मित्र हैं और महापुरुषों के लिए मूर्खों पर दया दिखलाना आवश्यक है। अतएव मैं सोचता हूँ कि आप हम जैसे मनुष्यों पर अहैतुकी कृपा प्रदर्शित करेंगे जो आपकी सेवा में लगे हुए हैं।  हे श्रेष्ठ महापुरुष, मैं भौतिक जगत से तनिक भी भयभीत नहीं हूँ, क्योंकि मैं जहाँ कहीं भी रहता हूँ, आपके यश तथा कार्यकलाप के विचारों में पूरी तरह लीन रहता हूँ। मैं एकमात्र उन मूर्खों तथा धूर्तों के लिए चिन्तित हूँ जो भौतिक सुख, अपने परिवार, समाज तथा देश के पालन हेतु बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाते हैं। मैं उनके प्रति सहज भाव से प्रेमवश चिन्तित हूँ।  हे भगवान नृसिंहदेव मैं देख तो रहा हूँ कि सन्त पुरुष तो अनेक हैं, किन्तु वे अपने ही मोक्ष में रुचि रखते हैं। वे बड़े-बड़े नगरों एवं कस्बों की परवाह न करते हुए मौन व्रत धारण करके ध्यान करने के लिए हिमालय या वन में चले जाते हैं; वे दूसरों की मुक्ति में रुचि नहीं रखते किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैं इन बेचारे मूर्खों तथा धूर्तों को छोड़कर अकेले अपनी मुक्ति नहीं चाहता। मैं जानता हूँ कि कृष्णभावनामृत के बिना और आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता। अतएव मैं उन सबों को आपके चरणकमलों की शरण में वापस लाना चाहता हूँ। विषयी जीवन की तुलना खुजली दूर करने हेतु दो हाथों को रगड़ने से की गई है। गृहमेधी अर्थात तथाकथित गृहस्थ जिन्हें कोई आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, सोचते हैं कि यह खुजलाना सर्वोत्कृष्ट सुख है, यद्यपि वास्तव में यह दुख की जड़ है। कृपण जो ब्राह्मणों से सर्वथा विपरीत होते हैं, बारम्बार एन्द्रिय भोग करने पर भी तुष्ट नहीं होते। किन्तु जो धीर हैं और इस खुजलाहट को सह लेते हैं उन्हें मूर्खों तथा धूर्तों जैसे कष्ट नहीं सहने पड़ते।

46-50 हे भगवन, मोक्ष मार्ग के लिए दस विधियाँ निर्दिष्ट हैं – मौन रहना, किसी से बातें न करना, व्रत रखना, सभी प्रकार का वैदिक ज्ञान संचित करना, तपस्या करना, वेदाध्ययन करना, वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों को पूरा करना, शास्त्रों की व्याख्या करना, एकान्त स्थान में रहना, मौन मंत्रोच्चार करना, समाधि में लीन रहना। मोक्ष की ये विभिन्न विधियाँ सामान्यतया उन लोगों के लिए जीविकोपार्जन के साधन हैं जिन्होंने इन्द्रियों को जीता नहीं। चूँकि ऐसे लोग मिथ्या अहंकारी होते हैं अतएव हो सकता है कि ये विधियाँ सफल न भी हों।  प्रामाणिक वैदिक ज्ञान द्वारा मनुष्य यह जान सकता है कि विराट जगत में कार्य तथा कारण के रूप – पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से ही सम्बन्धित हैं, क्योंकि यह विराट जगत उनकी शक्ति का प्राकट्य तो है। कार्य तथा कारण दोनों ही भगवान की शक्तियों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। अतएव, हे प्रभु, जिस तरह कोई चतुर मनुष्य कार्य-कारण पर विचार करते हुए यह देख सकता है कि अग्नि किस तरह काष्ठ में व्याप्त है उसी तरह भक्ति में लगे हुए व्यक्ति समझ सकते हैं कि आप किस प्रकार से कार्य तथा कारण दोनों ही है। हे परमेश्वर, आप वास्तव में वायु, भूमि, अग्नि, आकाश तथा जल हैं। आप तन्मात्राएँ, प्राणवायु, पाँचों इन्द्रियाँ, मन, चेतना तथा मिथ्या अहंकार हैं। निस्सन्देह, आप स्थूल तथा सूक्ष्म हर वस्तु हैं। भौतिक तत्त्व तथा शब्दों या मन से व्यक्त प्रत्येक वस्तु आपके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।  न तो भौतिक प्रकृति के तीन गुण (सतो, रजो तथा तमो), न इन तीनों गुणों के नियामक अधिष्ठाता देव, न पाँच स्थूल तत्त्व, न मन, न देवता, न मनुष्य ही आपको समझ सकते हैं, क्योंकि ये सभी जन्म तथा संहार के वशीभूत रहते हैं। ऐसा विचार करके आध्यात्मिक दृष्टि से प्रगत व्यक्ति भक्ति में लगे रहते हैं। ऐसे व्यक्ति वैदिक अध्ययन की परवाह नहीं करते, अपितु वे व्यावहारिक भक्ति में स्वयं को लगाते हैं।  अतएव हे श्रेष्ठतम पूज्य भगवन, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि षडअंग भक्ति अर्थात प्रार्थना करना, समस्त कर्मफल आपको (भगवान) समर्पित करना, पूजा करना, आपके निमित्त कर्म करना, आपके चरणकमलों को सदैव स्मरण करना तथा आपके यश का श्रवण करना ऐसी भक्ति किये बिना परमहंस पद को प्राप्त होने वाला लाभ भला कौन प्राप्त कर सकता है?

51-55 महान ऋषि नारद ने कहा: इस प्रकार अपने भक्त प्रह्लाद महाराज द्वारा दिव्य पद से प्रार्थना किये जाने पर भगवान नृसिंह देव शान्त हो गये। उन्होंने अपना क्रोध त्याग दिया और दण्डवत प्रणाम करने वाले प्रह्लाद पर अत्यधिक दयालु होने के कारण उनसे इस प्रकार बोले। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे सौम्य प्रह्लाद, हे असुरोत्तम, तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ। हर जीव की इच्छा पूर्ण करना मेरी लीला है; इसलिए तुम मुझसे कोई मनोवांछित वर माँग सकते हो।  हे प्रह्लाद, तुम दीर्घजीवी होओ, मुझे प्रसन्न किये बिना कोई न तो मुझे जान सकता है, न मेरे महत्त्व को समझ सकता है, किन्तु जिसने मेरा दर्शन कर लिया है या मुझे प्रसन्न कर लिया है उसे अपनी तुष्टि के लिए पछताना नहीं पड़ता। हे प्रह्लाद तुम अत्यन्त भाग्यशाली हो। तुम मुझसे यह जान लो कि जो अत्यन्त बुद्धिमान तथा प्रगत हैं, वे सभी विभिन्न भावों द्वारा मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं, क्योंकि मैं ही ऐसा पुरुष हूँ, जो हर एक की सारी इच्छाओं को पूरा कर सकता हूँ।  नारद मुनि ने कहा: प्रह्लाद महाराज भौतिक सुख की सदा कामना करनेवाले असुरों के असुरकुल के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। यद्यपि भगवान ने उन्हें भौतिक सुख के लिए सभी वरदान दिए थे और वे उन्हें प्रलोभन दे रहे थे, तो भी अपनी अनन्य कृष्णभावनामृत भक्ति के कारण वे इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई भी भौतिक लाभ स्वीकार नहीं करना चाहते थे।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

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अध्याय आठ – भगवान नृसिंह द्वारा असुरराज का वध(7.8)

1 नारद मुनि ने आगे कहा: सारे असुरपुत्रों ने प्रह्लाद महाराज के दिव्य उपदेशों की सराहना की और उन्हें अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण किया। उन्होंने षण्ड तथा अमर्क नामक अपने गुरुओं द्वारा दिये गये भौतिकतावादी उपदेशों का तिरस्कार कर दिया।

2 जब शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड तथा अमर्क ने देखा कि सारे विद्यार्थी असुर पुत्र प्रह्लाद महाराज की संगति से कृष्णभक्ति में आगे बढ़ रहे हैं, तो वे डर गये। अतएव वे असुरराज के पास गये और उनसे सारी स्थिति यथावत वर्णन कर दी।

3-4 जब हिरण्यकशिपु सारी स्थिति समझ गया तो वह इतना अधिक क्रुद्ध हुआ कि उसका सारा शरीर काँपने लगा। इस तरह उसने अन्ततः अपने पुत्र प्रह्लाद को मार डालने का निश्चय कर लिया। हिरण्यकशिपु स्वभाव से अत्यन्त क्रूर था और अपने को अपमानित हुआ जानकर, वह पाँव से कुचले सर्प की भाँति फुफकारने लगा। उसका पुत्र प्रह्लाद शान्त, विनम्र तथा भद्र था, वह इन्द्रियसंयमी था और हिरण्यकशिपु के समक्ष हाथ जोड़े खड़ा था। वह अपनी आयु तथा आचरण के अनुसार प्रताड़ना के योग्य न था। फिर भी हिरण्यकशिपु ने टेढ़ी नजर से उसे घूरते हुए निम्नलिखित कटु शब्दों के द्वारा फटकारा।

5 हिरण्यकशिपु ने कहा: अरे उदण्ड, निपट दुर्बुद्धि, परिवार को कलंकित करनेवाले! अरे नीच! तुमने अपने ऊपर शासन करने वाली शक्ति का उल्लंघन किया है, अतएव तू हठी मूर्ख है। आज मैं तुझे यमराज के घर भेजूँगा।

6 अरे दुष्ट पुत्र प्रह्लाद! तुम जानते हो कि जब मैं क्रुद्ध होता हूँ तो तीनों लोक अपने-अपने नायकों सहित काँपने लगते हैं। तो फिर तुम किसके बल पर इतने धृष्ट हो गये हो कि तुम निर्भीक होकर मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो?

7 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे राजन, आप जिस बल के मेरे स्रोत को जानना चाह रहे हैं वही आपके बल का भी स्रोत है। निस्सन्देह, समस्त प्रकार के बलों का मूल स्रोत एक ही है। वह न केवल आपका या मेरा बल है, अपितु सबों का एकमात्र बल है। उसके बिना किसी को कोई बल नहीं मिल सकता। चाहे चल हो या अचल, उच्च हो या नीच, ब्रह्मा समेत सारे जीव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के बल द्वारा नियंत्रित हैं।

8 परम नियन्ता एवं काल-रूप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान इन्द्रियों के बल, मन के बल, शरीर के बल तथा इन्द्रियों के प्राण हैं। उनका प्रभाव असीम है। वे समस्त जीवों में श्रेष्ठ तथा प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं। वे अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं।

9 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे पिता, आप अपनी आसुरी प्रवृत्ति त्याग दें। आप अपने हृदय में शत्रु-मित्र में भेदभाव न लाएँ, आप अपने मन को सबों के प्रति समभाव बनाएँ। इस संसार में अनियंत्रित तथा पथभ्रष्ट मन के अतिरिक्त कोई शत्रु नहीं है। जब कोई मनुष्य प्रत्येक व्यक्ति को समानता के स्तर पर देखता है तभी वह भगवान की ठीक से पूजा करने की स्थिति में होता है।

10 प्राचीन काल में आपके समान ही अनेक मूढ़ हुए हैं जिन्होंने उन छह शत्रुओं को नहीं जीता जो शरीर की धन-सम्पदा को चुरा ले जाते हैं। वे मूढ़ यह सोचकर गर्वित होते हैं "मैंने तो दसों दिशाओं के सारे शत्रुओं को जीत लिया है।" किन्तु यदि कोई व्यक्ति इन छह शत्रुओं पर विजयी होता है और सारे जीवों पर समभाव रखता है, तो उसके लिए शत्रु नहीं होते। शत्रु की कल्पना अज्ञानतावश की जाती है।

11 हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया: रे धूर्त! तू मेरे महत्त्व को घटाने का प्रयास कर रहा है मानो तू मुझसे अधिक इन्द्रिय-संयमी है। यह अति बुद्धिमत्ता है। अतएव मैं समझ रहा हूँ कि तुम मेरे हाथों मरना चाहते हो, क्योंकि ऐसी बेसिर-पैर की (ऊटपटाँग) बातें वे ही करते हैं, जो मरणा-सन्न होते हैं ।

12 अरे अभागे प्रह्लाद! तूने सदैव मेरे अतिरिक्त किसी परम पुरुष का वर्णन किया है,जो हर एक के ऊपर है, हर एक का नियन्ता है तथा जो सर्वव्यापी है। लेकिन वह है कहाँ? यदि वह सर्वत्र है, तो वह मेरे सामने के इस खम्भे में क्यों उपस्थित नहीं है ?

13 चूँकि तुम इतना अधिक अनर्गल वार्तालाप कर रहे हो अतएव अब मैं तुम्हारे शरीर से तुम्हारा सिर छिन्न कर दूँगा। अब मैं देखूँगा कि तुम्हारा परम आराध्य ईश्वर तुम्हारी रक्षा किस तरह करता है। मैं उसे देखना चाहता हूँ।

14 अतिशय क्रोध के कारण महा-बलशाली हिरण्यकशिपु ने अपने महाभागवत पुत्र को अत्यन्त कटु वचन कहे और उसकी भर्त्सना की। उसे बारम्बार शाप देते हुए हिरण्यकशिपु अपनी तलवार लेकर, अपने राजसी सिंहासन से उठ खड़ा होकर और अत्यन्त क्रोध के साथ खम्भे पर मुष्टिका-प्रहार किया।

15 तब उस खम्भे से एक भयावह आवाज आई जिससे ब्रह्माण्ड का आवरण विदीर्ण होता प्रतीत हुआ। हे युधिष्ठिर, यह आवाज ब्रह्मा इत्यादि देवताओं के निवासों तक पहुँच गई और जब देवताओं ने इसे सुना तो उन्होंने सोचा "ओह! अब हमारे लोकों का विनाश होने जा रहा है ।"

16 अपने ही पुत्र को मारने के इच्छुक हिरण्यकशिपु ने जो इस तरह अपना अद्वितीय शौर्य दिखला रहा था जब एक अद्भुत भीषण (घोर) ध्वनि सुनी जिसे इसके पूर्व उसने कभी नहीं सुना था। इसी ध्वनि को सुनकर अन्य असुरनायक भी भयभीत हुए। उस सभा में इस ध्वनि के उद्गम को कोई नहीं ढूँढ पाया।

17 अपने दास प्रह्लाद महाराज के वचनों को सिद्ध करने के लिए कि वे सत्य हैं – अर्थात यह सिद्ध करने के लिए कि परमेश्वर सर्वत्र उपस्थित हैं, यहाँ तक कि सभा भवन के खम्भे के भीतर भी हैं – पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री हरि ने अपना अभूतपूर्व अद्भुत रूप प्रकट किया। यह रूप न तो मनुष्य का था, न सिंह का। इस प्रकार भगवान उस सभाकक्ष में अपने अद्भुत रूप में प्रकट हुए।

18 जब हिरण्यकशिपु उस ध्वनि का स्रोत ढूँढने के लिए इधर-उधर देख रहा था तो उस खम्भे से भगवान का एक अद्भुत रूप प्रकट हुआ जो न तो मनुष्य का था और न सिंह का माना जा सकता था। हिरण्यकशिपु आश्चर्यचकित हुआ, “यह कैसा प्राणी है, जो आधा पुरुष तथा आधा सिंह है?”

19-22 हिरण्यकशिपु ने अपने समक्ष खड़े नृसिंह देव के रूप का निश्चय करने के लिए भगवान के रूप को ध्यान से देखा। उनकी क्रुद्ध आँखों के कारण जो पिघले स्वर्ण से मिलती थी वह रूप अत्यन्त भयानक लग रहा था; उनके चमकीले अयाल (गर्दन के बाल) उनके भयानक मुखमण्डल के आकार को फैला रहे थे; उनके दाँत मृत्यु-जैसे भयानक थे, उनकी उस्तरे जैसी तीक्ष्ण जीभ लड़ाई में तलवार के समान इधर-उधर चल रही थी। उनके कान खड़े तथा स्थिर थे और उनके नथुने तथा खुला मुख पर्वत की गुफा-जैसे लग रहे थे। उनके जबड़े फैले हुए थे जिससे भय उत्पन्न हो रहा था और उनका समूचा शरीर आसमान को छू रहा था। उनकी गर्दन अत्यन्त छोटी तथा मोटी थी; उनकी छाती चौड़ी थी तथा कमर पतली थी। उनके शरीर के रोएँ चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत लग रहे थे। उनकी भुजाएँ चारों दिशाओं में फैले सैनिकों की टुकड़ियों से मिलती जुलती थी, जब वे असुरों, धूर्तों तथा नास्तिकों का अपने शंख, चक्र, गदा, कमल तथा अन्य दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से वध रहे थे।

23 हिरण्यकशिपु ने मन ही मन कहा:अत्यधिक योग शक्ति वाले भगवान विष्णु ने मेरा वध करने के लिए यह योजना बनाई है, किन्तु ऐसा प्रयास करने से क्या लाभ है? भला ऐसा कौन है, जो मुझसे युद्ध कर सकता है?” ऐसा सोचते हुए हाथी के समान हिरण्यकशिपु ने अपनी गदा उठाकर भगवान पर धावा बोल दिया।

24 जिस तरह एक बेचारा छोटा पतंगा बरबस अग्नि में गिरकर अदृश्य हो जाता है उसी तरह जब हिरण्यकशिपु ने तेजोमय भगवान पर आक्रमण किया तो वह अदृश्य हो गया। यह आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि भगवान सदैव सतोगुण की स्थिति में रहते हैं। प्राचीन काल में सृष्टि के समय वे अंधकारपूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हो गये थे और उसे उन्होंने अपने आध्यात्मिक तेज से प्रकाशित कर दिया था।

25 तत्पश्चात अत्यन्त क्रुद्ध उस महान असुर हिरण्यकशिपु ने तेजी से नृसिंह देव पर अपनी गदा से आक्रमण कर दिया और उन्हें मारने लगा। किन्तु भगवान नृसिंह देव ने उस महान असुर को उसकी गदा समेत उसी तरह पकड़ लिया जिस तरह गरुड़ किसी साँप को पकड़ ले।

26 हे भरत के महान पुत्र युधिष्ठिर, जब नृसिंह देव ने हिरण्यकशिपु को अपने हाथ से छूट जाने का अवसर दे दिया, जिस तरह से कभी-कभी गरुड़ साँप के साथ खिलवाड़ करते हुए उसे अपने मुँह से सरक जाने देता है, तो सारे देवताओं ने, जिनके निवास स्थान उनके हाथों से निकल चुके थे और जो असुर के भय से बादलों के पीछे छिपे थे, इस घटना को शुभ नहीं माना। निस्सन्देह, वे अत्यधिक व्याकुल थे।

27 जब हिरण्यकशिपु नृसिंह देव के हाथों से छूट गया तो उसे यह मिथ्या विचार हुआ कि भगवान उसके शौर्य से डर गये हैं। अतएव युद्ध से थोड़ा विश्राम करके उसने अपनी ढाल-तलवार निकाली और फिर से अत्यन्त बलपूर्वक भगवान पर आक्रमण कर दिया।

28 अट्टहास करते हुए अत्यन्त प्रबल तथा शक्तिशाली पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया जो किसी प्रकार का वार करने की सम्भावना छोड़े बिना अपनी तलवार-ढाल से अपनी रक्षा कर रहा था। वह कभी बाज की गति से आकाश में चला जाता और कभी पृथ्वी पर चला आता था। वह नृसिंहदेव के अट्टहास के भय से अपनी आँखें बन्द किये था।

29 जिस प्रकार कोई साँप किसी चूहे को या कोई गरुड़ किसी अत्यन्त विषैले सर्प को पकड़ ले उसी तरह भगवान नृसिंहदेव ने उस हिरण्यकशिपु को दबोच लिया जिसकी त्वचा में इन्द्र का वज्र भी नहीं घुस सकता था। पकड़े जाने पर ज्योंही वह अत्यन्त पीड़ित होकर अपने अंग इधर-उधर तथा चारों ओर छटपटाने लगा त्योंही नृसिंहदेव ने उस असुर को अपनी गोद में दबोच लिया और जाँघों का सहारा देकर उस सभा भवन की देहली पर अपने हाथ के नाखूनों से सरलतापूर्वक उस असुर को फाड़ डाला।

30 भगवान नृसिंहदेव के मुख तथा गर्दन के बाल रक्त के छींटों से सने थे और क्रोध से पूर्ण होने के कारण उनकी भयानक आँखों की ओर देख पाना असम्भव था। वे अपने मुँह की कोरों को जीभ से चाट रहे थे तथा हिरण्यकशिपु के उदर से निकली आँतों की माला से सुशोभित थे। वे उस सिंह की भाँति प्रतीत हो रहे थे जिस ने अभी-अभी किसी हाथी को मारा हो।

31 अनेकानेक भुजाओं वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने सर्वप्रथम हिरण्यकशिपु का हृदय निकाल लिया और उसे एक ओर फेंक दिया। फिर वे असुर के सैनिकों की ओर मुड़े। वे सैनिक हजारों के झुण्ड में भगवान से लड़ने आये थे और हाथों में हथियार उठाए थे। ये हिरण्यकशिपु के अत्यन्त स्वामीभक्त अनुचर थे, किन्तु नृसिंह देव ने अपने नाखूनों की नोक से ही उनका वध कर दिया।

32 नृसिंह देव के सिर के बालों से बादल हिलकर इधर-उधर बिखर गये। उनकी जलती आँखों से आकाश के नक्षत्रों का तेज मन्द पड़ गया और उनके श्वास से समुद्र उद्वेलित हो उठे। उनकी गर्जना से संसार के सारे हाथी भय से चिंघाड़ने लगे।

33 नृसिंह देव के सिर के बालों से वायुयान (विमान) बाह्य आकाश तथा उच्च लोकों में जा गिरे। भगवान के चरणकमलों के दबाव से पृथ्वी अपनी स्थिति से छिटकती प्रतीत हुई और उनके असह्य बल से सारे पर्वत ऊपर उछल गये। भगवान के शारीरिक तेज से आकाश तथा समस्त दिशाओं का प्राकृतिक प्रकाश घट गया।

34 अपना पूर्ण तेज तथा भयंकर मुखमण्डल दिखलाते हुए नृसिंह देव अत्यन्त क्रुद्ध होने तथा अपने बल एवं ऐश्वर्य का सामना करने वाले किसी को न पाकर सभा भवन में राजा के श्रेष्ठतम सिंहासन पर जा बैठे। भय तथा आज्ञाकारिता के कारण किसी में साहस न हुआ कि सामने आकर भगवान की सेवा करे।

35 हिरण्यकशिपु तीनों लोकों का सिरदर्द बना हुआ था। अतएव जब स्वर्गलोक में देवताओं की पत्नियों ने देखा कि इस महान असुर का वध पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के हाथों से हो गया है, तो उनके चेहरे प्रसन्नता के मारे खिल उठे। देवताओं की स्त्रियों ने स्वर्ग से भगवान नृसिंहदेव पर पुनः पुनः फूलों की वर्षा की।

36 उस समय परमेश्वर नारायण का दर्शन करने के इच्छुक देवताओं के विमानों से आकाश पट गया। देवतागण ढोल तथा नगाड़े बजाने लगे जिन्हें सुनकर देवलोक की स्त्रियाँ नाचने लगीं और गन्धर्वों के मुखिया मधुर तान में गाने लगे।

37-39 हे राजा युधिष्ठिर, तब सारे देवता भगवान के निकट आ गये। उनमें ब्रह्माजी, इन्द्र तथा शिवजी प्रमुख थे और उनके साथ बड़े-बड़े साधु पुरुष एवं पितृ, सिद्ध, विद्याधर, नाग, गन्धर्व, अप्सरा, चारण आदि लोकों के निवासी भी थे। वहीं सारे मनु तथा अन्य लोकों के प्रजापति भी पहुँच गये। यक्ष, किन्नर, बेताल, किम्पुरुष लोक के वासी तथा विष्णु के पार्षद सुनन्द एवं कुमुद आदि भी पहुँचे। ये सभी भगवान के निकट आये जो अपने तीव्र प्रकाश से चमक रहे थे। इन सबों ने अपने-अपने सिरों के ऊपर हाथ जोड़कर नमस्कार किया और स्तुतियाँ कीं।

40 ब्रह्माजी ने प्रार्थना की: हे प्रभु, आप अनन्त हैं और आपकी शक्ति का कोई अन्त नहीं है। कोई भी आपके पराक्रम तथा अद्भुत प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकता, क्योंकि आपके कर्म माया द्वारा दूषित नहीं होते। आप भौतिक गुणों से सहज ही ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं लेकिन तो भी आप अव्यय बने रहते हैं। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

41 शिवजी ने कहा: कल्प का अन्त ही आपके क्रोध का समय होता है। अब जबकि यह नगण्य असुर हिरण्यकशिपु मारा जा चुका है, हे भक्तवत्सल प्रभु, कृपा करके उसके पुत्र प्रह्लाद महाराज की रक्षा करें जो आपके निकट पूर्ण शरणागत भक्त के रूप में खड़ा हुआ है।

42 राजा इन्द्र ने कहा: हे परमेश्वर, आप हमारे उद्धारक तथा रक्षक हैं। आपने दैत्य से हमारे वास्तविक यज्ञ भाग जो वास्तव में आपके हैं लौटाये हैं। चूँकि असुरराज हिरण्यकशिपु अत्यन्त भयानक था, अतः आपके स्थायी निवास हमारे हृदय उसके द्वारा विजित हो चुके थे। अब आपकी उपस्थिति से हमारे हृदयों से निराशा तथा अंधकार दूर हो गये हैं। हे प्रभु, जो लोग आपकी सेवा में सदैव लगे रहते हैं उनके लिए सारा भौतिक ऐश्वर्य तुच्छ है, क्योंकि आपकी सेवा मोक्ष से भी बढ़कर है। वे जब मोक्ष की भी परवाह नहीं करते तो काम, अर्थ तथा धर्म के विषय में क्या कहा जाये?

43 सारे उपस्थित ऋषियों ने उनकी इस प्रकार स्तुति की: हे प्रभु, हे शरणागत पालक, हे आदि पुरुष, आपने हमें पहले जिस तपस्या की विधि का उपदेश दिया है, वह आपकी ही आध्यात्मिक शक्ति है। आप तपस्या से ही भौतिक जगत का सृजन करते हैं। यह तपस्या आपमें सुप्त रहती है। इस दैत्य ने अपने कार्यकलापों से इसी तपस्या को रोक सा रखा था, किन्तु अब हम लोगों की रक्षा करने के लिए आप जिस नृसिंहदेव के रूप में प्रकट हुए हैं उससे तथा इस असुर को मारने से तपस्या की विधि का फिर से अनुमोदन हुआ है।

44 पितृलोक के वासियों ने प्रार्थना की: हम ब्रह्माण्ड के धार्मिक नियमों के पालनकर्ता भगवान नृसिंहदेव को सादर नमस्कार करते हैं। आपने उस असुर को मार डाला है, जो हमारे श्राद्ध के अवसर पर हमारे पुत्रों-पौत्रों द्वारा अर्पित बलि को छीनकर खा जाता था और तीर्थस्थलों पर अर्पित की जाने वाली तिलांजलि को पी जाता था। हे प्रभु, आपने इस असुर को मारकर अपने नाखूनों से इसके पेट को चीर करके उसमें से समस्त चुराई हुई सामग्री निकाल ली है। अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

45 सिद्धलोक के वासियों ने प्रार्थना की: हे भगवान नृसिंहदेव, हम लोग सिद्धलोक के निवासी होने के कारण अष्टांग योग में स्वतःसिद्ध होते हैं। तो भी हिरण्यकशिपु इतना धूर्त था कि उसने अपने बल तथा तपस्या से हमारी सारी शक्तियाँ छीन ली थीं। इस तरह वह अपने योगबल के प्रति घमण्डी हो गया था। अब आपके नखों से इस दुष्ट का वध हो जाने के कारण हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

46 विद्याधर के निवासियों ने प्रार्थना की: उस मूढ़ हिरण्यकशिपु ने विविध प्रकार के ध्यान के अनुसार प्रकट तथा अप्रकट होने की हमारी शक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, क्योंकि उसे अपनी श्रेष्ठ शारीरिक शक्ति तथा अन्यों को जीत लेने की सामर्थ्य का घमण्ड था। अब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने उसी तरह वध कर दिया है जैसे वह असुर कोई पशु हो। हम भगवान नृसिंह देव के उस लीला रूप को सादर प्रणाम करते हैं।

47 नागलोक के वासियों ने कहा: अत्यन्त पापी हिरण्यकशिपु ने हम सबके फणों की मणियाँ तथा हम सबकी सुन्दर पत्नियाँ छीन ली थीं। अब चूँकि उसके वक्षस्थल को आपने अपने नाखूनों से विदीर्ण कर दिया है, अतएव आप हमारी पत्नियों की परम प्रसन्नता के कारण हैं। इस तरह हम सभी मिलकर आपको सादर नमस्कार करते हैं।

48 समस्त मनुओं ने इस प्रकार प्रार्थना की: हे प्रभो, हम सारे मनु आपके आज्ञापालक के रूप में मानव समाज के लिए विधि प्रदान करते हैं किन्तु इस महान असुर हिरण्यकशिपु की क्षणभंगुर प्रभसत्ता के कारण वर्णाश्रम धर्म-पालन विषयक हमारे नियम नष्ट हो गये थे। हे स्वामी, अब आपके द्वारा इस महान असुर का वध हो जाने से हम अपनी सहज स्थिति में हैं। कृपया अपने इन शाश्वत दासों को आज्ञा दें कि अब वे क्या करें।

49 प्रजापतियों ने इस प्रकार स्तुति की: हे परमेश्वर, हे ब्रह्माजी तथा शिवजी के भी पूज्य प्रभु, हम सारे प्रजापति आपके द्वारा दी गई आज्ञा के पालन के लिए उत्पन्न किये गये थे, किन्तु हिरण्यकशिपु ने हमें और उत्तम सन्तान उत्पन्न करने से रोक दिया। अब यह असुर हमारे समक्ष मृत पड़ा है, जिसके वक्षस्थल को आपने विदीर्ण कर दिया है। अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि इस शुद्ध सात्विक रूप में आपका यह अवतार समग्र ब्रह्माण्ड के कल्याण के निमित्त है।

50 गन्धर्वलोक के निवासियों ने प्रार्थना की: हे भगवान, हम नाच तथा अभिनय में गायन द्वारा आपकी सेवा में लगे रहते थे, किन्तु इस हिरण्यकशिपु ने अपनी शारीरिक शक्ति तथा पराक्रम से हमें अपने अधीन बना लिया था। अब आपके द्वारा यह इस अधम दशा को प्राप्त हुआ है। भला हिरण्यकशिपु जैसे कुमार्गगामी के कार्यकलापों से हमें क्या लाभ हो सकता है?

51 चारणलोक के निवासियों ने कहा: हे प्रभु, आपने उस असुर हिरण्यकशिपु को विनष्ट कर दिया जो सारे निष्कपट पुरुषों के हृदयों में आतंक बना हुआ था। अब हमें शान्ति मिली है। हम सभी सदैव आपके उन चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो बद्धजीव को भौतिक कल्मष से मुक्ति दिलानेवाले हैं।

52 यक्षलोक के निवासियों ने प्रार्थना की: हे चौबीस तत्त्वों के नियामक, हम आपको भाने वाली सेवाएँ करने के कारण आपके सर्वश्रेष्ठ सेवक माने जाते हैं फिर भी दितिपुत्र हिरण्यकशिपु के आदेश पर हमसे पालकी ढोने का कार्य लिया जाता था। हे नृसिंहदेव, आप यह जानते हैं कि इस असुर ने किस तरह सबों को कष्ट पहुँचाया है, किन्तु अब आपने इसका वध कर दिया है और इसका शरीर पंच तत्त्वों में मिल गया है।

53 किम्पुरुषलोक के वासियों ने कहा: हम क्षुद्र जीव हैं और आप परम नियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। अतएव हम आपकी समुचित स्तुति कैसे कर सकते हैं? जब भक्तों ने तंग आकर इस असुर का धिक्कार किया तो आपने इसका वध कर दिया।

54 वैतालिकलोक के निवासियों ने कहा: हे प्रभु, सभाओं तथा यज्ञस्थलों में आपके विमल यश का गायन करने के कारण प्रत्येक व्यक्ति हमें आदर प्रदान करता था। किन्तु इस असुर ने हमारे उस पद को छीन लिया था। अब हमारा अहो भाग्य है कि आपने इस महान असुर का उसी तरह वध कर दिया जिस प्रकार कोई भीषण रोग को ठीक कर देता है।

55 किन्नरों ने कहा: हे परम नियन्ता, हम आपके सतत सेवक हैं, लेकिन आपकी सेवा में युक्त न होकर हम सभी इस असुर की बेगार में लगाये गये थे। अब आपने इस पापी का वध कर दिया है, अतएव हे नृसिंहदेव, हे स्वामी, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं। कृपा करके हमारे संरक्षक बने रहें।

56 विष्णु के वैकुण्ठलोक के पार्षदों ने यह प्रार्थना की: हे स्वामी, हे परम शरणदाता, आज हमने नृसिंहदेव के रूप में आपके अद्भुत रूप का दर्शन किया है, जो समस्त जगत में सौभाग्य लाने वाला है। हे भगवन, हम यह समझते हैं कि हिरण्यकशिपु आपकी सेवा में रत रहने वाला जय ही था, किन्तु ब्राह्मणों ने शाप दिया था जिससे उसे असुर का शरीर प्राप्त हुआ था। हम समझते हैं कि उसका मारा जाना उस पर आपकी विशेष कृपा है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय सात – प्रह्लाद ने गर्भ में क्या सीखा (7.7)

1 नारद मुनि ने कहा: यद्यपि प्रह्लाद महाराज असुरों के परिवार में जन्मे थे, किन्तु वे समस्त भक्तों में सबसे महान थे। इस प्रकार अपने असुर सहपाठियों द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने मेरे द्वारा कहे गये शब्दों का स्मरण किया और अपने मित्रों से इस प्रकार कहा।

2 प्रह्लाद महाराज ने कहा: जब हमारे पिता हिरण्यकशिपु कठिन तपस्या करने के लिए मन्दराचल पर्वत चले गये तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र इत्यादि देवताओं ने युद्ध में सारे असुरों को दमन करने का भारी प्रयास किया।

3 “ओह! जिस प्रकार साँप को छोटी-छोटी चींटियाँ खा जाती हैं उसी प्रकार कष्टदायक हिरण्यकशिपु जो सभी प्रकार के लोगों पर कहर ढहाता था अपने ही पापकर्मों के कारण पराजित किया जा चुका है।" ऐसा कहकर इन्द्रादि देवताओं ने असुरों से लड़ने की योजना बनाई ।

4-5 एक के बाद एक मारे जाने पर जब असुरों के महान नायकों ने लड़ाई में देवताओं का अभूतपूर्व पराक्रम देखा, तो वे तितर-बितर होकर सभी दिशाओं में भागने लगे। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे अपने घरों, पत्नियों, बच्चों, पशुओं तथा घर के सारे साज-समान को छोड़कर जल्दी-जल्दी भाग लिये। उन्होंने इन सबकी परवाह नहीं की और बस भाग गए।

6 विजयी देवताओं ने असुरराज हिरण्यकशिपु के महल को लूट लिया और उसके भीतर की सारी वस्तुएँ नष्ट-भ्रष्ट कर दीं। तब स्वर्ग के राजा इन्द्र ने मेरी माता को बन्दी बना लिया।

7 जब इस प्रकार वे गिद्ध द्वारा पकड़ी गई कुररी पक्षी की भाँति भय से चिल्लाती हुई ले जाई जा रही थीं तो देवर्षि नारद जो उस समय किसी भी कार्य में व्यस्त नहीं थे, घटनास्थल पर प्रकट हुए और उन्होंने इस अवस्था में उन्हें देखा।

8 नारद मुनि ने कहा: हे देवराज इन्द्र, यह स्त्री निश्चय ही पापरहित है। तुम्हें इसे इस तरह क्रूरतापूर्वक घसीटना नहीं चाहिए। हे परम सौभाग्यशाली, यह सती स्त्री किसी दूसरे की पत्नी है। तुम इसे तुरन्त छोड़ दो।

9 राजा इन्द्र ने कहा: यह असुरपत्नी गर्भिणी है। अतएव इसे तब तक हमारे संरक्षण में रहने दें जब तक बच्चा उत्पन्न नहीं हो जाता, तब हम इसे छोड़ देंगे।

10 नारद मुनि ने उत्तर दिया: इस स्त्री के गर्भ में स्थित बालक निर्दोष तथा निष्पाप है। निस्सन्देह, वह महान भक्त तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का शक्तिशाली दास है। अतएव तुम उसे मार पाने में सक्षम नहीं होगे।

11 जब परम सन्त नारद मुनि ने इस प्रकार कहा तो राजा इन्द्र ने नारद के वचनों का सम्मान करते हुए तुरन्त ही मेरी माता को छोड़ दिया। चूँकि मैं भगवदभक्त था, अतएव सब देवताओं ने मेरी माता की परिक्रमा की और तब वे सभी अपने अपने स्वर्गधाम को वापस चले गये।

12 प्रह्लाद महाराज ने आगे बताया: परम सन्त नारद मुनि मेरी माता को अपने आश्रम ले गये और सभी प्रकार से सुरक्षा का आश्वासन देते हुए कहा "मेरी बेटी, तुम अपने पति के वापस आने तक मेरे आश्रम में रहो।"

13 देवर्षि नारद के अनुदेशों को मानकर मेरी माता किसी प्रकार के भय के बिना उनकी देख-रेख में तब तक रही, जब तक मेरे पिता अर्थात दैत्यराज अपनी घोर तपस्या से मुक्त नहीं हो लिये।

14 मेरी माता गर्भवती होने के कारण अपने गर्भ की सुरक्षा चाहती थीं और चाहती थी कि पति के आगमन के बाद सन्तान उत्पन्न हो।

15 इस तरह वे नारद मुनि के आश्रम पर रहती रहीं जहाँ वे अत्यन्त भक्तिपूर्वक नारद मुनि की सेवा करती रहीं। नारद मुनि ने मुझे गर्भ में स्थित रहते हुए तथा अपनी सेवा में लगी मेरी माता दोनों को उपदेश दिया। चूँकि वे स्वभाव से ही पतितों पर अत्यन्त दयालु हैं, अतएव अपनी दिव्य स्थिति के कारण उन्होंने धर्म तथा ज्ञान के विषय में उपदेश दिये। ये उपदेश भौतिक कल्मष से रहित थे।

16 अधिक काल बीत जाने तथा स्त्री होने से अल्पज्ञ होने के कारण मेरी माता उन सारे उपदेशों को भूल गई, किन्तु ऋषि नारद ने मुझे आशीर्वाद दिया था, अतएव मैं नहीं भूल पाया।

17 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे मित्रों, यदि तुम मेरी बातों पर श्रद्धा करो तो तुम भी उसी श्रद्धा से मेरे ही समान दिव्य ज्ञान को समझ सकते हो, भले ही अभी तुम सभी छोटे-छोटे बालक हो। इसी प्रकार एक स्त्री भी दिव्य ज्ञान को समझ सकती है और यह जान सकती है कि आत्मा क्या है तथा भौतिक पदार्थ क्या है?

18 जिस प्रकार वृक्ष के फलों तथा फूलों में कालक्रम में छह प्रकार के परिवर्तन—उत्पत्ति, अस्तित्व, वृद्धि, रूपान्तर, क्षय तथा अन्त में मृत्यु–होते हैं उसी प्रकार विभिन्न परिस्थितियों में आत्मा को जो भौतिक शरीर प्राप्त होता है उसमें भी ऐसे ही परिवर्तन होते हैं। किन्तु आत्मा में ऐसे परिवर्तन नहीं होते।

19-20 'आत्मा' परमेश्वर या जीवों का सूचक है। ये दोनों ही आध्यात्मिक हैं, जन्म-मृत्यु से मुक्त हैं तथा क्षय से रहित एवं भौतिक कल्मष से भी मुक्त हैं। ये व्यष्टि हैं, ये बाह्य शरीर के ज्ञाता हैं, प्रत्येक वस्तु के आश्रय या आधार हैं। ये भौतिक परिवर्तन से मुक्त हैं, ये आत्म प्रकाशित हैं, ये समस्त कारणों के कारण हैं तथा सर्वव्यापी हैं। इन्हें भौतिक शरीर से कोई सरोकार नहीं रहता, अतएव ये सदैव उन्मुक्त रहते हैं। इन दिव्य गुणों से युक्त जो मनुष्य वास्तव में विद्वान है उसे जीवन की भ्रान्त धारणा का परित्याग करना चाहिए जिसमें वह सोचता है "मैं यह भौतिक शरीर हूँ और इस शरीर से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु मेरी है।"

21 एक दक्ष भूविज्ञानी समझ सकता है कि सोना कहाँ पर है और वह उसे स्वर्णखनिज में से विविध विधियों द्वारा निकाल सकता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक रूप से अग्रसर व्यक्ति यह समझ सकता है कि शरीर के भीतर किस तरह आध्यात्मिक कण विद्यमान रहते हैं और इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह आध्यात्मिक जीवन में सिद्धि प्राप्त कर सकता है। फिर भी जिस प्रकार कोई व्यक्ति जो दक्ष नहीं है, समझ नहीं पाता कि सोना कहाँ पर है, उसी प्रकार जिस मूर्ख व्यक्ति ने आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन नहीं किया वह यह नहीं समझ सकता कि शरीर के भीतर आत्मा किस तरह विद्यमान रह सकता है।

22 भगवान की आठ भिन्न भौतिक शक्तियों, प्रकृति के तीन गुणों तथा सोलह विकारों (ग्यारह इन्द्रियों तथा पाँच स्थूल तत्त्व ) के अन्तर्गत आत्मा साक्षी के रूप में विद्यमान रहता है। अतएव सारे महान आचार्यों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा इन्हीं भौतिक तत्त्वों द्वारा बद्ध है।

23 प्रत्येक जीवात्मा के दो प्रकार के शरीर होते हैं – पाँच स्थूल तत्त्वों से बना स्थूल शरीर तथा तीन सूक्ष्म तत्त्वों से बना सूक्ष्म शरीर। किन्तु इन्हीं शरीरों में आत्मा है। मनुष्य को चाहिए कि वह "यह नहीं है, यह नहीं है" कहकर विश्लेषण द्वारा आत्मा का अनुसंधान करे। इस तरह उसे आत्मा को पदार्थ से पृथक कर लेना चाहिए।

24 धीर तथा दक्ष पुरुषों को चाहिए कि आत्मा का अनुसन्धान वैश्लेषिक अध्ययन के द्वारा शुद्ध हुए मन से करें जो सृष्टि, पालन तथा संहार होने वाली सारी वस्तुओं से आत्मा के सम्बन्ध तथा उन सबसे अन्तर के रूप में किया गया हो।

25 सक्रियता की तीन अवस्थाओं (वृत्तियों) में बुद्धि की अनुभूति की जा सकती है – जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति। जो व्यक्ति इन तीनों का अनुभव करता है उसे ही मूल स्वामी या शासक, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान माना जाना चाहिए।

26 जिस प्रकार वायु की उपस्थिति उसके द्वारा ले आई जाने वाली सुगन्धियों के द्वारा जानी जाती है उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के निर्देशन में मनुष्य बुद्धि के इन तीन विभागों द्वारा जीवात्मा को समझ सकता है। किन्तु ये तीन विभेद आत्मा नहीं है, वे तीन गुणों से बने होते हैं और क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं ।

27 दूषित बुद्धि के कारण मनुष्य को प्रकृति के गुणों के अधीन रहना पड़ता है और इस प्रकार वह भवबन्धन में पड़ जाता है। इस संसार को, जिसका कारण अज्ञान है, उसी प्रकार अवांछित तथा नश्वर मानना चाहिए जिस प्रकार स्वप्नावस्था में मनुष्य को झूठे ही कष्ट भोगना पड़ता है।

28 अतएव हे मित्रों, हे असुर पुत्रों, तुम्हारा कर्तव्य है कि कृष्णभावनामृत को ग्रहण करो जो प्रकृति के गुणों द्वारा कृत्रिम रूप से उत्पन्न सकाम कर्मों के बीज को जला सकता है और जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त अवस्था में बुद्धि के प्रवाह को रोक सकता है। दूसरे शब्दों में कृष्णभावनामृत ग्रहण करने पर मनुष्य का अज्ञान तुरन्त विनष्ट हो जाता है।

29 भौतिक जीवन से छूटने के लिए जितनी विधियाँ संस्तुत हैं उनमें से उस एक को जिसे स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने बताया है और स्वीकार किया है, सभी तरह से पूर्ण समझना चाहिए। वह विधि है कर्तव्य का सम्पन्न किया जाना जिससे परमेश्वर के प्रति प्रेम विकसित होता है।

30-31 मनुष्य को प्रामाणिक गुरु स्वीकार करना चाहिए और अत्यन्त भक्ति तथा श्रद्धा से उसकी सेवा करनी चाहिए। उसके पास जो कुछ भी हो उसे गुरु को अर्पित करना चाहिए और सन्त पुरुषों तथा भक्तों की संगति में भगवान की पूजा करनी चाहिए। श्रद्धापूर्वक भगवान के यश का श्रवण करना चाहिए, भगवान के दिव्य गुणों तथा कार्यकलापों का यशोगान करना चाहिए। सदैव भगवान के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए तथा शास्त्र एवं गुरु के आदेशानुसार भगवान के अर्चाविग्रह की पूजा करनी चाहिए।

32 मनुष्य को चाहिए कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को उनके अन्तर्यामी प्रतिनिधि स्वरूप परमात्मा को सदैव स्मरण करे, जो प्रत्येक जीव के अन्तःकरण में स्थित हैं। इस प्रकार उसे जीव की स्थिति या स्वरूप के अनुसार प्रत्येक जीव का आदर करना चाहिए।

33 इन (उपर्युक्त) कार्यकलापों द्वारा मनुष्य शत्रुओं –काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या– के प्रभाव को दमन करने में समर्थ होता है और ऐसा कर लेने पर वह भगवान की सेवा कर सकता है। इस प्रकार वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की प्रेमाभक्ति को निश्चित रूप से प्राप्त कर लेता है।

34 जो भक्ति के पद पर आसीन हो जाता है, वह निश्चय ही इन्द्रियों का नियंत्रक है और इस तरह वह एक मुक्त पुरुष हो जाता है। जब ऐसे मुक्त पुरुष या शुद्ध भक्त विभिन्न लीलाएँ करने के लिए भगवान के अवतारों के दिव्य गुणों तथा कार्यकलापों के विषय में सुनता है, तो उसके शरीर में रोमांच हो आता है, उसकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं और आध्यात्मिक अनुभूति के कारण उसकी वाणी अवरुद्ध हो जाती है। कभी वह नाचता है, तो कभी जोर-जोर से गाता है और कभी रोने लगता है। इस प्रकार वह अपने दिव्य हर्ष को व्यक्त करता है।

35 जब कोई भक्त प्रेतग्रस्त व्यक्ति के समान बन जाता है, तो वह हँसता है और उच्च स्वर से भगवान के गुणों के विषय में कीर्तन करता है। कभी वह ध्यान करने बैठता है और कभी प्रत्येक जीव को भगवान का भक्त मानते हुए प्रणाम करता है। लगातार तेज साँस लेता हुआ वह सामाजिक शिष्टाचार के प्रति लापरवाह हो जाता है और पागल व्यक्ति की तरह “हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, हे भगवान, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी,” का जोर-जोर से उच्चारण करता है।

36 तब निरन्तर भगवान की लीलाओं के विषय में मनन करते रहने से भक्त का मन तथा शरीर आध्यात्मिक गुणों में बदल जाता है। जिससे वह सारे भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। उसकी उत्कट भक्ति के कारण उसका अज्ञान, भौतिक चेतना तथा समस्त प्रकार की भौतिक इच्छाएँ जलकर पूर्णतया भस्म हो जाती हैं। यही वह अवस्था है जब मनुष्य भगवान के चरणकमलों का आश्रय प्राप्त कर सकता है।

37 जीवन की असली समस्या जन्म-मृत्यु का चक्कर है, जो पहिये (चक्र) की भाँति बारम्बार ऊपर-नीचे चलता रहता है। किन्तु जब कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के सम्पर्क में रहता है, तो यह चक्र पूरी तरह रुक जाता है। दूसरे शब्दों में, भक्ति में निरन्तर मग्न रहने से मनुष्य को जो दिव्य आनन्द मिलता है उससे वह भौतिक संसार से पूर्णतया मुक्त हो जाता है। सारे विद्वान व्यक्ति इसे जानते हैं। अतएव हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, तुम सभी लोग तुरन्त अपने-अपने हृदय में स्थित परमात्मा का ध्यान और पूजन प्रारम्भ कर दो।

38 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, परमात्मा रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सदैव समस्त जीवों के अन्तःकरण में विद्यमान रहते हैं। निस्सन्देह, वे सारे जीवों के शुभचिन्तक तथा मित्र हैं और भगवान की पूजा करने में कोई कठिनाई भी नहीं है। तो फिर, लोग उनकी भक्ति क्यों नहीं करते? वे इन्द्रियतृप्ति के लिए कृत्रिम साज-सामान बनाने में व्यर्थ ही क्यों लिप्त रहते हैं?

39 मनुष्य की धन-सम्पदा, सुन्दर स्त्री तथा सखियाँ, पुत्र तथा पुत्रियाँ, घर, पालतू पशु (जैसे गाएँ, हाथी तथा घोड़े) खजाना, आर्थिक सम्पन्नता तथा इन्द्रियतृप्ति, यहाँ तक कि उसकी आयु जिसमें वह इन भौतिक ऐश्वर्यों का भोग कर सकता है निश्चित रूप से क्षणभंगुर एवं नश्वर हैं। चूँकि मनुष्य जीवन का अवसर अस्थायी है अतएव ये सारे भौतिक ऐश्वर्य ऐसे समझदार व्यक्ति को कौन सा लाभ पहुँचा सकते हैं जिसने अपने आपको शाश्वत समझ रखा है ?

40 वैदिक साहित्य से पता चलता है कि बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न करके मनुष्य स्वर्गादि लोक तक ऊपर उठ सकता है। यद्यपि स्वर्गलोक का जीवन पृथ्वी के जीवन की अपेक्षा सैकड़ों-हजारों गुना अधिक सुखकर है, तो भी स्वर्गलोक न तो शुद्ध (निर्मल) है, न भौतिक जगत के कल्मष से रहित है। सारे स्वर्गलोक भी नश्वर हैं, अतएव ये जीवन के लक्ष्य नहीं हैं। किन्तु यह न तो कभी देखा गया, न ही सुना गया कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में उन्माद होता है। फलस्वरूप तुम्हें अपने निजी लाभ तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए शास्त्रोक्त विधि से अत्यन्त भक्ति के साथ भगवान की पूजा करनी चाहिए।

41 भौतिकतावादी मनुष्य अपने को अत्यन्त बुद्धिमान समझकर निरन्तर आर्थिक विकास के लिए कर्म करता रहता है। किन्तु जैसा कि वेदों में बताया गया है, वह या तो इसी जीवन में या अगले जीवन में भौतिक कर्मों द्वारा बार-बार निराश होता रहता है। निस्सन्देह, उसे अपनी इच्छाओं से सर्वथा विपरीत फल मिलते हैं।

42 इस भौतिक जगत में प्रत्येक भौतिकतावादी सुख का इच्छुक रहता है और अपने दुख कम करना चाहता है, अतएव वह तदनुसार कर्म करता है। किन्तु वास्तव में कोई तभी तक सुखी रहता है जब तक वह सुख के लिए प्रयत्नशील नहीं होता। ज्योंही वह सुख के लिए कार्य प्रारम्भ कर देता हैं त्योंही उसकी दुख की अवस्था प्रारम्भ होती है।

43 जीवात्मा अपने शरीर के लिए सुख-सुविधा चाहता है और इस प्रयोजन से वह अनेक योजनाएँ बनाता है, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि यह शरीर तो दूसरों की सम्पत्ति होता है। निस्सन्देह, नश्वर शरीर जीवात्मा को गले लगाता है और फिर उसे छोड़कर चल देता है।

44 चूँकि शरीर को अन्ततः मल या मिट्टी में बदल जाना है अतएव इस शरीर से सम्बन्धित साज-सामान यथा पत्नियाँ, घर, धन, बच्चे, रिश्तेदार, नौकर-चाकर, मित्र, राज्य, खजाने, पशु तथा मंत्रियों से क्या प्रयोजन? ये सभी नश्वर हैं। इनके विषय में इससे अधिक क्या कहा जा सकता है?

45 ये सारे साज-सामान तभी तक अत्यन्त निकटस्थ एवं प्रिय लगते हैं जब तक यह शरीर है किन्तु ज्योंही यह शरीर नष्ट हो जाता है त्योंही शरीर से सम्बद्ध ये सारी वस्तुएँ भी समाप्त हो जाती हैं। अतएव वास्तव में किसी को इनसे कुछ लेना-देना नहीं रहता है किन्तु वह अज्ञानवश ही इन्हें मूल्यवान समझ बैठता है। शाश्वत सुख के सागर की तुलना में ये सारी वस्तुएँ अत्यन्त नगण्य हैं। शाश्वत जीव के लिए ऐसे नगण्य सम्बन्धों से क्या लाभ है?

46 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, जीव को अपने पूर्वकर्मों के अनुसार नाना प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं। इस तरह वह अपने विशिष्ट जीवन की सभी स्थितियों में – गर्भ में प्रवेश करने से लेकर अपने इस विशेष शरीर तक – कष्ट ही कष्ट भोगता प्रतीत होता है। अतएव तुम लोग पूरी तरह विचार करके मुझे बतलाओ कि जीव का ऐसे सकाम कर्मों में वास्तविक स्वार्थ क्या है, जबकि ये दुख तथा कष्ट प्रदान करने वाले हैं?

47 वह जीव, जिसे यह वर्तमान शरीर अपने विगत कर्म के कारण प्राप्त हुआ है, अपने इस जीवन में ही अपने कर्म के फलों को समाप्त कर सकता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह शरीर के बन्धन से मुक्त हो गया है। जीव को एक प्रकार का शरीर मिलता है और वह इस शरीर से कर्म करके दूसरे शरीर को जन्म देता है। इस प्रकार वह अपने घोर अज्ञान के कारण जन्म-मरण के चक्र द्वारा एक शरीर से दूसरे में देहान्तर करता रहता है।

48 आध्यात्मिक जीवन के चार सिद्धान्त—धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष – पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की रुचि पर आश्रित हैं। अतएव हे मित्रों, भक्तों के चरणचिन्हों का अनुगमन करो। बिना किसी प्रकार की इच्छा किये (निष्काम भाव से) परमेश्वर पर आश्रित रहकर भक्तिपूर्वक परमात्मा की पूजा करो।

49 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि समस्त जीवों के आत्मा तथा परमात्मा हैं। प्रत्येक जीव जीवित आत्मा तथा भौतिक शरीर के रूप में उनकी शक्ति का प्राकट्य है। अतएव भगवान अत्यन्त प्रिय हैं और परम नियन्ता हैं।

50 यदि देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व या अन्य कोई इस संसार के भीतर मुक्तिदाता मुकुन्द के चरणकमलों की सेवा करता है, तो वह हमारे (प्रह्लाद महाराज जैसे महाजनों के) ही समान जीवन की सर्वश्रेष्ठ कल्याणकारी स्थितियों से ओत-प्रोत होता है।

51-52 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, तुम लोग न तो ब्राह्मण, देवता या महान सन्त बनकर, न ही सदाचरण या प्रकाण्ड ज्ञान के द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न कर सकते हो। इनमें से किसी भी योग्यता से भगवान प्रसन्न होने वाले नहीं है। न ही दान, तपस्या, यज्ञ, शुद्धता या व्रतों से उन्हें कोई प्रसन्न कर सकता है। भगवान तो तभी प्रसन्न होते हैं जब मनुष्य उनकी अविचल अनन्य भक्ति करता है। एकनिष्ठ भक्ति के बिना सब कुछ दिखावा मात्र है।

53 हे मित्र असुरपुत्रों, जिस प्रकार तुम सब अपने आपको देखते हो और अपनी देखभाल करते हो उसी तरह समस्त जीवों में परमात्मा के रूप में सर्वत्र विद्यमान रहने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी भक्ति स्वीकार करो।

54 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, प्रत्येक व्यक्ति जिसमें तुम भी शामिल हो, (यक्ष तथा राक्षस) अज्ञानी स्त्रियाँ, शूद्र, ग्वाले, पक्षी, निम्नतर पशु तथा पापी जीव अपना-अपना मूल शाश्वत आध्यात्मिक जीवन पुनः प्राप्त कर सकते हैं और भक्तियोग के सिद्धान्तों को स्वीकार करने मात्र से सदा-सदा इसी तरह बने रह सकते हैं।

55 इस भौतिक जगत में समस्त कारणों के कारण गोविन्द के चरणकमलों के प्रति सेवा और सर्वत्र उनका दर्शन करना ही एकमात्र जीवन-लक्ष्य है। जैसा कि समस्त शास्त्रों में बतलाया गया है मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य इतना ही है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय छह - प्रह्लाद द्वारा अपने असुर सहपाठियों को उपदेश (7.6)

1 प्रह्लाद महाराज ने कहा: पर्याप्त रूप से बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ अर्थात बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव शरीर का उपयोग करे। यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है। यदि निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है।

2 यह मनुष्य-जीवन भगवदधाम जाने का अवसर प्रदान करता है, अतएव प्रत्येक जीव को विशेष रूप से उसे, जिसे मनुष्य जीवन मिला है, भगवान विष्णु के चरणकमलों की भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए। यह भक्ति स्वाभाविक है क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु सर्वाधिक प्रिय, आत्मा के स्वामी तथा अन्य सभी जीवों के शुभचिन्तक हैं।

3 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे दैत्य कुल में उत्पन्न मेरे मित्रों, शरीर के सम्पर्क से इन्द्रियविषयों से जो सुख अनुभव किया जाता है, वह तो किसी भी योनि में अपने विगत सकाम कर्मों के अनुसार प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा सुख बिना प्रयास के उसी तरह स्वतः प्राप्त होता है, जिस प्रकार हमें दुख प्राप्त होता है।

4 केवल इन्द्रिय-तृप्ति या भौतिक सुख के लिए आर्थिक विकास द्वारा प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे समय तथा शक्ति की हानि होती है और वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता। यदि कोई कृष्णभावनामृत को लक्ष्य बनाकर प्रयत्न करे तो वह निश्चित रूप से आत्म-साक्षात्कार के आध्यात्मिक पद को प्राप्त कर सकता है। आर्थिक विकास में अपने आपको संलग्न रखने से ऐसा कोई लाभ प्राप्त नहीं होता ।

5 अतएव इस संसार में रहते हुए (भवम आश्रितः) भले तथा बुरे में भेद करने में सक्षम व्यक्ति को चाहिए कि जब तक शरीर हष्ट-पुष्ट रहे और जर्जर हो जाने से चिन्ताग्रस्त न हो तब तक वह जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करे।

6 प्रत्येक व्यक्ति की अधिकतम आयु एक सौ वर्ष है, किन्तु जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता, उसकी आयु के आधे वर्ष तो रात्रि में बारह घण्टे अज्ञान में सोते हुए बीत जाते हैं। अतएव ऐसे व्यक्ति की आयु केवल पचास वर्ष ही रह जाती है।

7 मनुष्य अपने बाल्यकाल की सुकोमल अवस्था में, जब सभी मोहग्रस्त होते हैं, दस वर्ष बिता देता है। इसी प्रकार किशोर अवस्था में वह अगले दस वर्ष, खेल-कूद में लगकर बिता देता है। इस प्रकार से बीस वर्ष व्यर्थ चले जाते हैं। इसी तरह से वृद्धावस्था में जब मनुष्य अक्षम हो जाता है और वह भौतिक कार्यकलाप भी सम्पन्न नहीं कर पाता, उसमें उसके बीस वर्ष और निकल जाते हैं।

8 जिनके मन तथा इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं वह अतृप्त कामेच्छाओं तथा प्रबल मोह के कारण पारिवारिक जीवन में अधिकाधिक आसक्त होता जाता है। ऐसे पागल मनुष्य के जीवन के शेष वर्ष भी व्यर्थ जाते हैं, क्योंकि वह इन वर्षों में भी अपने को भक्ति में नहीं लगा पाता।

9 ऐसा कौन मनुष्य होगा जो अपनी इन्द्रियों को वश में करने में असमर्थ होने के कारण गृहस्थ जीवन से अत्यधिक आसक्त रहकर अपने आपको मुक्त कर सके? आसक्त गृहस्थ (पत्नी, बच्चे तथा अन्य सम्बन्धी) के स्नेह-बन्धन से अत्यन्त दृढ़ता के साथ बँधा रहता है।

10 धन इतना प्रिय होता है कि लोग इसे मधु से मीठा मानने लगते हैं, अतएव ऐसा कौन होगा जो धन संग्रह करने की तृष्णा का परित्याग कर सकता है और वह भी गृहस्थ जीवन में? चोर, व्यावसायिक नौकर (सैनिक) तथा व्यापारी अपने प्रिय प्राणों की बाजी लगाकर भी धन प्राप्त करना चाहते हैं।

11-13 भला ऐसा मनुष्य, जो अपने परिवार के प्रति अत्यधिक स्नेहिल हो और जिसके हृदय में सदैव उनकी आकृतियाँ रहती हों, वह किस तरह उनका संग छोड़ सकता है? विशेषकर पत्नी सदैव अत्यन्त दयालु तथा सहानुभूति पूर्ण होती है और अपने पति को सदैव एकान्त में प्रसन्न करती है। भला ऐसा कौन होगा जो ऐसी प्रिय तथा स्नेहिल पत्नी की संगति का त्याग करता हो? छोटे-छोटे बालक तोतली बोली बोलते हैं, जो सुनने में अत्यन्त मधुर लगती है और उनके पिता सदैव उनके मधुर शब्दों के विषय में सोचते रहते हैं। वह भला उनका संग किस तरह छोड़ सकता है? किसी भी मनुष्य को अपने वृद्ध माता-पिता, अपने पुत्र तथा पुत्रियाँ भी अत्यन्त प्रिय होते हैं। पुत्री अपने पिता की अत्यन्त लाड़ली होती है और अपनी ससुराल में रहती हुई भी वह उसके मन में बसी रहती है। भला कौन है, जो इस संग को छोड़ेगा? इसके अतिरिक्त भी घर में अनेक अलंकृत साज-सामान होते हैं और अनेक पशु तथा नौकर भी रहते हैं। भला ऐसे आराम को कौन छोड़ना चाहता है? आसक्त गृहस्थ उस रेशम-कीट की तरह है, जो अपने चारों ओर धागा बुनकर अपने को बन्दी बना लेता है और फिर उससे निकल पाने में असमर्थ रहता है। केवल दो इन्द्रियों--जनेन्द्रिय तथा जिह्वा की तुष्टि के लिए मनुष्य भौतिक दशाओं से बँध जाता है। कोई इनसे कैसे बच सकता है?

14 अत्यधिक आसक्त मनुष्य यह नहीं समझ सकता कि वह अपना बहुमूल्य जीवन अपने परिवार के ही पालन-पोषण में व्यर्थ बिता रहा है। वह यह भी नहीं समझ पाता कि इस मनुष्य-जीवन का, जो परम सत्य के साक्षात्कार के लिए उपयुक्त है, उद्देश्य अनजाने ही विनष्ट हुआ जा रहा है। फिर भी वह इतनी चतुरता एवं सावधानी से देखता रहता है कि दुर्व्यवस्था के कारण एक भी दमड़ी न खोई जाए। इस प्रकार यद्यपि संसार में आसक्त व्यक्ति सदैव तीनों प्रकार के कष्ट सहता रहता है, किन्तु वह इस संसार के प्रति अरुचि उत्पन्न नहीं कर पाता।

15 यदि कोई मनुष्य पारिवारिक भरण-पोषण के कर्तव्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने के कारण अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता और उसका मन सदैव इसी में डूबा रहता है कि धन का संग्रह कैसे करे। यद्यपि वह जानता रहता है कि जो अन्यों का धन लेता है उसे राजकीय नियमों और मृत्यु के बाद यमराज के नियमों द्वारा दण्डित होना पड़ेगा। तो भी वह धन अर्जित करने के लिए दूसरों को धोखा देता रहता है।

16 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, इस भौतिक जगत में शिक्षा में अग्रणी लगने वाले व्यक्तियों में भी यह विचार करने की प्रवृत्ति होती है "यह मेरा है और यह पराया है।" इस प्रकार वे सीमित पारिवारिक जीवन की धारणा में अपने परिवारों को जीवन की आवश्यकताएँ प्रदान करने में लगे रहते हैं मानो अशिक्षित कुत्ते-बिल्ली हों। वे आध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकते; प्रत्युत वे मोहग्रस्त तथा अज्ञान से पराभूत हैं ।

17 हे मित्रों, हे दैत्य पुत्रों, यह निश्चित है कि भगवान के ज्ञान से विहीन कोई भी अपने को किसी काल या किसी देश में मुक्त करने में समर्थ नहीं रहा है। उल्टे, ऐसे ज्ञान-विहीन लोग भौतिक नियमों से बँध जाते हैं। वे वास्तव में इन्द्रियविषय में लिप्त रहते हैं और उनका लक्ष्य स्त्रियाँ होती हैं। निस्सन्देह, ऐसे लोग आकर्षक स्त्रियों के हाथ के खिलौने बने रहते हैं। ऐसी जीवन-धारणाओं के शिकार बनकर वे बच्चों, नातियों तथा पनातियों से घिरे रहते हैं और इस तरह वे भव-बन्धन की जंजीरों से जकड़े जाते हैं।

18 जो लोग ऐसी जीवन-धारणा में बुरी तरह लिप्त रहते हैं, वे दैत्य कहलाते हैं। इसलिए यद्यपि तुम सभी दैत्यों के पुत्र हो, किन्तु ऐसे व्यक्तियों से दूर रहो और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण की शरण ग्रहण करो जो समस्त देवताओं के उद्गम हैं, क्योंकि नारायण-भक्तों का चरम लक्ष्य भव-बन्धन से मुक्ति पाना है।

19 हे दैत्यपुत्रों, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण ही समस्त जीवों के पिता और आदि परमात्मा हैं। फलस्वरूप उन्हें प्रसन्न करने में या किसी भी दशा में उनकी पूजा करने में बच्चे या वृद्ध को कोई अवरोध नहीं होता। जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का अन्तःसम्बन्ध एक तथ्य है अतएव भगवान को प्रसन्न करने में कोई कठिनाई नहीं है।

20-23 परम नियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जो अच्युत तथा अजेय हैं जीवन के विभिन्न रूपों में यथा पौधे जैसे स्थावर जीवों से लेकर प्रथम सृजित प्राणी ब्रह्मा तक में उपस्थित हैं। वे अनेक प्रकार की भौतिक सृष्टियों में भी उपस्थित हैं तथा सारे भौतिक तत्त्वों, सम्पूर्ण भौतिक शक्ति एवं प्रकृति के तीनों गुणों (सतो, रजो तथा तमो गुण) के साथ-साथ अव्यक्त प्रकृति एवं मिथ्या अहंकार में भी उपस्थित हैं। एक होकर भी वे सर्वत्र उपस्थित रहते है। वे समस्त कारणों के कारण दिव्य परमात्मा भी हैं, जो सारे जीवों के अन्तस्थल में प्रेक्षक के रूप में उपस्थित हैं। उन्हें व्याप्य तथा सर्वव्यापक परमात्मा के रूप में इंगित किया गया है, लेकिन वास्तव में उनको इंगित नहीं किया जा सकता। वे अपरिवर्तित तथा अविभाज्य हैं। वे परम सच्चिदानन्द के रूप में अनुभव किये जाते हैं। माया के आवरण से ढके होने के कारण नास्तिक को वे अविद्यमान प्रतीत होते हैं।

24 अतएव हे असुरों से उत्पन्न मेरे प्यारे तरुण मित्रों, तुम सब ऐसा करो कि वे परम भगवान, जो भौतिक ज्ञान की धारणा से परे हैं, वे तुम पर प्रसन्न हों। तुम अपना आसुरी स्वभाव त्याग दो और शत्रुता या द्वैत-रहित होकर कर्म करो। सभी जीवों में भक्ति जगाकर उन पर दया प्रदर्शित करो और इस प्रकार उनके हितैषी बनो।

25 जिन भक्तों ने समस्त कारणों के कारण, समस्त वस्तुओं के आदि स्रोत पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न कर लिया है उनके लिए कुछ भी अलभ्य नहीं है। भगवान असीम आध्यात्मिक गुणों के आगार हैं। अतएव उन भक्तों के लिए जो प्रकृति के गुणों से परे हैं उन्हें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के सिद्धान्तों का पालन करने से क्या लाभ, क्योंकि ये तो प्रकृति के गुणों के प्रभावों के अन्तर्गत स्वतः प्राप्य हैं। हम भक्तगण सदैव भगवान के चरणकमलों का यशोगान करते हैं अतएव हमें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की याचना नहीं करनी चाहिए।

26 धर्म, अर्थ तथा काम--इन तीनों को वेदों में त्रिवर्ग अर्थात मोक्ष के तीन साधन कहा गया है। इन तीन वर्गों के अन्तर्गत ही शिक्षा तथा आत्म-साक्षात्कार, वैदिक आदेशानुसार सम्पन्न कर्मकाण्ड, विधि तथा व्यवस्था विज्ञान एवं जीविका अर्जित करने के विविध साधन आते हैं। ये तो वेदों के अध्ययन के बाह्य विषय हैं अतएव मैं उन्हें भौतिक मानता हूँ। किन्तु मैं भगवान विष्णु के चरणकमलों में समर्पण को दिव्य मानता हूँ।

27 समस्त जीवों के शुभचिन्तक एवं मित्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण ने यह दिव्य ज्ञान पहले परम सन्त नारद को दिया। ऐसा ज्ञान नारद जैसे सन्त पुरुष की कृपा के बिना समझ पाना कठिन है, किन्तु जिसने भी नारद की शिष्य-परम्परा की शरण ले रखी है, वह इस गुह्य ज्ञान को समझ सकता है।

28 प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा: मैंने यह ज्ञान भक्ति में सदैव तल्लीन रहने वाले परम सन्त नारद से प्राप्त किया है। यह ज्ञान भागवत धर्म कहलाता है, जो अत्यन्त वैज्ञानिक है। यह तर्क तथा दर्शन पर आधारित है और समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त है।

29-30 दैत्य पुत्रों ने उत्तर दिया: हे प्रह्लाद, न तो तुम और न ही हम शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड तथा अमर्क के अतिरिक्त अन्य किसी अध्यापक या गुरु को जानते हैं। अन्ततः हम बच्चे हैं और वे हमारे नियंत्रक हैं। तुम जैसे सदैव महल के भीतर रहने वाले के लिए ऐसे महापुरुष की संगति कर पाना अत्यन्त कठिन है। हे परम भद्र मित्र, क्या तुम यह बतलाओगे कि तुम्हारे लिए नारद से सुन पाना कैसे सम्भव हो सका? इस सम्बन्ध में हमारी शंका दूर करो।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय पाँच – हिरण्यकशिपु का साधु-सदृश पुत्र प्रह्लाद महाराज(7.5)

1 महामुनि नारद ने कहा: हिरण्यकशिपु की अगुवाई में असुरों ने शुक्राचार्य को अनुष्ठान सम्पन्न कराने के लिए पुरोहित के रूप में चुना। शुक्राचार्य के दो पुत्र षण्ड तथा अमर्क हिरण्यकशिपु के महल के ही पास रहते थे।

2 प्रह्लाद महाराज पहले से ही भक्ति में निपुण थे, किन्तु जब उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने के लिए शुक्राचार्य के दोनों पुत्रों के पास भेजा तो उन दोनों ने उन्हें तथा अन्य असुरपुत्रों को अपनी पाठशाला में भर्ती कर लिया।

3 प्रह्लाद अध्यापकों द्वारा पढ़ाये गए राजनीति तथा अर्थशास्त्र के पाठों को सुनते और सुनाते अवश्य थे, किन्तु वे यह समझते थे कि राजनीति में किसी को मित्र माना जाता है और किसी को शत्रु। अतएव यह विषय उन्हें पसंद न था।

4 हे राजा युधिष्ठिर, एक बार असुरराज हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बड़े ही दुलार से पूछा: हे पुत्र, मुझे यह बतलाओ कि तुमने अपने अध्यापकों से जितने विषय पढ़े हैं उनमें से सर्वश्रेष्ठ कौन सा है ?

5 प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: हे असुरश्रेष्ठ दैत्यराज, जहाँ तक मैंने अपने गुरु से सीखा है, ऐसा कोई व्यक्ति जिसने क्षणिक देह तथा क्षणिक गृहस्थ जीवन स्वीकार किया है, वह निश्चय ही चिन्ताग्रस्त रहता है, क्योंकि वह ऐसे अन्धे कुएँ में गिर जाता है जहाँ जल नहीं रहता, केवल कष्ट ही कष्ट मिलते हैं। मनुष्य को चाहिए कि इस स्थिति को त्यागकर वन में चला जाये। स्पष्टार्थ यह है कि मनुष्य को चाहिए कि वह वृन्दावन जाये जहाँ केवल कृष्णभावनामृत व्याप्त है और इस तरह वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की शरण ग्रहण करे ।

6 नारद मुनि ने आगे कहा: जब प्रह्लाद महाराज ने भक्तिमय आत्म-साक्षात्कार के विषय में बतलाया और इस तरह अपने पिता के शत्रु-पक्ष के प्रति अपनी स्वामी-भक्ति दिखलाई तो असुरराज हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद की बातें सुनकर हँसते हुए कहा – 'शत्रु की वाणी द्वारा बाल बुद्धि इसी तरह बिगाड़ी जाती है।'

7 हिरण्यकशिपु ने अपने सहायकों को आदेश दिया: हे असुरों, इस बालक के गुरुकुल में जहाँ पर यह शिक्षा पाता है, इसकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखो जिससे इसकी बुद्धि छद्मवेश में घूमने वाले वैष्णवों द्वारा और अधिक न प्रभावित हो पाए।

8 जब हिरण्यकशिपु के सेवक बालक प्रह्लाद को गुरुकुल वापस ले आये तो असुरों के पुरोहित षण्ड तथा अमर्क ने उसे शान्त किया। उन्होंने अत्यन्त मृदु वाणी तथा स्नेह भरे शब्दों से उनसे इस प्रकार पूछा।

9 हे पुत्र प्रह्लाद, तुम्हारा क्षेम तथा कल्याण हो। तुम झूठ मत बोलना; सब सच-सच बताना। ये बालक जिन्हें तुम देख रहे हो, वे तुम जैसे नहीं हैं, क्योंकि ये सब पथभ्रष्ट जैसे नहीं बोलते। तुमने ये उपदेश कहाँ से सीखे? तुम्हारी बुद्धि इस तरह कैसे बिगड़ गई है?

10 हे कुलश्रेष्ठ, तुम्हारी बुद्धि का यह विकार अपने आप आया है या शत्रुओं द्वारा लाया गया है? हम सब तुम्हारे शिक्षक हैं और इसके विषय में जानने के लिए उत्सुक हैं। हमसे सच-सच कहो।

11 प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ जिनकी माया ने मनुष्यों की बुद्धि को मोहित कर 'मेरे मित्र' तथा 'मेरे शत्रु' में विभेद उत्पन्न किया है। वस्तुतः मुझको अब इसका वास्तविक अनुभव हो रहा है, यद्यपि मैंने पहले इसके विषय में प्रामाणिक स्रोतों से सुन ही रखा है।

12 जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान किसी जीव से उसकी भक्ति के कारण प्रसन्न हो जाते हैं, तो वह पण्डित बन जाता है और वह शत्रु, मित्र तथा अपने में कोई भेद नहीं मानता। तब वह बुद्धिमानी से सोचता है कि हम सभी ईश्वर के नित्य दास हैं, अतएव हम एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं।

13 जो लोग सदैव 'शत्रु तथा मित्र' के भाव से सोचते हैं, वे अपने भीतर परमात्मा को खोज पाने में असमर्थ रहते हैं। इनकी तो बात ही जाने दें, ब्रह्मा जैसे बड़े-बड़े पुरुष जो वैदिक साहित्य से पूरी तरह प्रबुद्ध हैं कभी-कभी भक्ति के सिद्धान्तों का पालन करते हुए मोहग्रस्त हो जाते हैं। जिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने यह परिस्थिति उत्पन्न की है उसी ने ही मुझे आपके तथाकथित शत्रु का पक्षधर बनने की बुद्धि दी है।

14 हे ब्राह्मणों (अध्यापकों), जिस प्रकार चुम्बक से आकर्षित लोह स्वतः चुम्बक की ओर चला जाता है, उसी प्रकार भगवान विष्णु की इच्छा से बदली हुई मेरी चेतना उन चक्रधारी की ओर आकृष्ट हो गयी है। इस प्रकार मुझे कोई स्वतंत्रता नहीं है।

15 श्री नारद महामुनि ने आगे कहा: शुक्राचार्य के पुत्रों अर्थात अपने शिक्षकों षण्ड तथा अमर्क से यह कहने के बाद महात्मा प्रह्लाद महाराज मौन हो गए। तब ये तथाकथित ब्राह्मण उन पर क्रुद्ध हो गए। चूँकि वे हिरण्यकशिपु के दास थे अतएव वे अत्यन्त दुखी थे। वे प्रह्लाद महाराज की भर्त्सना करते हुए इस प्रकार बोले।

16 अरे! मेरी छड़ी तो लाओ! यह प्रह्लाद हम लोगों के नाम और यश में बट्टा लगा रहा है। अपनी दुर्बुद्धि के कारण यह असुरों के कुल में अंगार बन गया है। अब राजनीतिक कूटनीति के चार प्रकारों में से चौथे उपाय के द्वारा इसका उपचार किये जाने की आवश्यकता है।

17 यह धूर्त प्रह्लाद चन्दन के वन में कँटीले वृक्ष के समान प्रकट हुआ है। चन्दन-वृक्ष काटने के लिए कुल्हाड़े की आवश्यकता होती है और कँटीले वृक्ष की लकड़ी ऐसे कुल्हाड़े का हत्था बनाने के लिए अत्यन्त उपयुक्त होती है। भगवान विष्णु दैत्य वंश रूपी चन्दन वन को काट गिराने के लिए कुल्हाड़े के तुल्य हैं और यह प्रह्लाद उस कुल्हाड़े का हत्था (बेंट) है।

18 प्रह्लाद महाराज के शिक्षक षण्ड तथा अमर्क ने अपने शिष्य को तरह-तरह से डराया-धमकाया और उसे धर्म, अर्थ तथा काम के विषय में पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। यह थी उनकी शिक्षा देने की विधि।

19 कुछ काल बाद षण्ड तथा अमर्क नामक शिक्षकों ने सोचा कि प्रह्लाद महाराज जनता के नेताओं को शान्त करने, उन्हें लाभप्रद आकर्षक पद देकर प्रसन्न करने, उनमें फुट डालकर उन पर शासन करने तथा अवज्ञा करने पर उन्हें दण्डित करने के कूटनीतिक मामलों में पर्याप्त शिक्षा प्राप्त कर चुका है। तब एक दिन जब प्रह्लाद की माता अपने पुत्र को स्वयं नहला-धुलाकर तथा पर्याप्त आभूषणों से अलंकृत कर चुकी थीं तो उन शिक्षकों ने उसे उसके पिता के समक्ष लाकर प्रस्तुत कर दिया।

20 जब हिरण्यकशिपु ने देखा कि उसका पुत्र उसके चरणों पर विनत है और प्रणाम कर रहा है, तो उसने तुरन्त ही वत्सल पिता की भाँति अपने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए उसे अपनी दोनों बाँहों में भरकर उसका आलिंगन किया। पिता स्वभावतः अपने पुत्र का आलिंगन करके प्रसन्न होता है और इस तरह हिरण्यकशिपु अत्यन्त प्रसन्न हुआ।

21 नारद मुनि ने आगे बताया: हे राजा युधिष्ठिर, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद महाराज को अपनी गोद में बैठा लिया और उसका सिर सूँघने लगा। फिर अपने नेत्रों से प्रेमाश्रु बहाते हुए और बालक के हँसते मुख को भिगोते हुए वह अपने पुत्र से इस प्रकार बोला।

22 हिरण्यकशिपु ने कहा: हे प्रह्लाद, मेरे पुत्र, हे चिरंजीव, इतने काल में तुमने अपने गुरुओं से बहुत सारी बातें सुनी हैं। अब तुम उन सब में जिसे सर्वश्रेष्ठ समझते हो उसे मुझसे कह सुनाओ।

23 प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान के चरणकमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान से प्रार्थना करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा – उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।

24 अपने पुत्र प्रह्लाद के मुख से भक्ति के इन वचनों को सुनकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसने कँपकँपाते होठों से अपने गुरु शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड से इस प्रकार कहा।

26 अरे ब्राह्मण के अत्यन्त नृशंस (घृणित) अयोग्य पुत्र, तुमने मेरे आदेश की अवज्ञा की है और मेरे शत्रु-पक्ष की शरण ले रखी है। तुमने इस बेचारे बालक को भक्ति का पाठ पढ़ाया है। यह क्या बकवास है?

27 समय के साथ, उन लोगों में अनेक प्रकार के रोग प्रकट होते हैं, जो पापी हैं। इसी प्रकार से इस संसार में छद्मवेष धारण किये हुए जितने धोखेबाज मित्र हैं अन्ततोगत्वा उनके मिथ्या आचरण से उनकी वास्तविक शत्रुता प्रकट हो जाती है।

28 हिरण्यकशिपु के गुरु शुक्राचार्य के पुत्र ने कहा: हे इन्द्र के शत्रु, हे राजन, आपके पुत्र प्रह्लाद ने जो भी कहा है, वह न तो मेरे द्वारा पढ़ाया गया है, न किसी अन्य के द्वारा। उसमें यह भक्ति स्वतः विकसित हुई है। अतएव आप अपना क्रोध त्याग दें और व्यर्थ ही हमें दोषी न ठहराएँ। एक ब्राह्मण को इस प्रकार अपमानित करना अच्छा नहीं है।

29 श्री नारद मुनि ने आगे कहा: जब हिरण्यकशिपु को अध्यापक से यह उत्तर मिल गया तो उसने पुनः अपने पुत्र को सम्बोधित किया। हिरण्यकशिपु ने कहा “रे धूर्त! हमारे परिवार के सबसे अधम! यदि तुमने यह शिक्षा अपने अध्यापकों से नहीं प्राप्त की, तो बतला कि इसे कहाँ से प्राप्त किया ?

30 “ प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया: अपनी असंयमित इन्द्रियों के कारण जो लोग भौतिकतावादी जीवन के प्रति अत्यधिक अभ्यस्त होते हैं, वे नरकगामी होते हैं और बार-बार उसे चबाते हैं, जिसे पहले ही चबाया जा चुका है। ऐसे लोगों का कृष्ण के प्रति झुकाव न तो अन्यों के उपदेशों से, न अपने निजी प्रयासों से, न ही दोनों के मिश्रयोग से कभी होता है।

31 जो लोग भौतिक भोग की भावना द्वारा दृढ़ता से बँधे हैं और जिन्होंने अपने ही समान बाह्य इन्द्रिय विषयों से आसक्त अन्धे व्यक्ति को अपना नेता या गुरु स्वीकार कर रखा है, वे यह नहीं समझ सकते कि जीवन का लक्ष्य भगवदधाम को वापस जाना तथा भगवान विष्णु की सेवा में लगे रहना है। जिस प्रकार अन्धे व्यक्ति द्वारा ले जाया गया दूसरा अन्धा व्यक्ति सही मार्ग से भटक सकता है और गड्डे में गिर सकता है उसी प्रकार भौतिकता से आसक्त व्यक्ति अपने ही जैसे किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मार्ग दिखलाये जाने पर सकाम कर्म की रस्सियों द्वारा बँधे रहते हैं, जो अत्यन्त मजबूत डोरियों से बनी होती है और ऐसे लोग तीनों प्रकार के कष्ट सहते हुए पुनः पुनः भौतिक जीवन प्राप्त करते रहते हैं।

32 जब तक भौतिकतावादी जीवन के प्रति झुकाव रखने वाले लोग ऐसे वैष्णवों के चरणकमलों की धूलि अपने शरीर में नहीं मलते जो भौतिक कल्मष से पूर्णतया मुक्त हैं, तब तक वे भगवान के चरणकमलों के प्रति आसक्त नहीं हो सकते जिनका यशोगान उनके अपने असामान्य कार्यकलापों के लिए किया जाता है। केवल कृष्णभावनाभावित बनकर एवं इस प्रकार से भगवान के चरणकमलों की शरण ग्रहण करके ही मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त हो सकता है।

33 जब प्रह्लाद महाराज इस प्रकार बोलकर शान्त हो गए तो क्रोध से अन्धे हिरण्यकशिपु ने उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया।

34 अत्यन्त क्रुद्ध तथा पिघले ताँबे जैसी लाल-लाल आँखें किये हिरण्यकशिपु ने अपने सेवकों से कहा: अरे असुरों, इस बालक को मेरी आँखों से दूर करो। यह वध करने योग्य है। इसे जितनी जल्दी हो सके मार डालो।

35 यह बालक प्रह्लाद मेरे भाई का हत्यारा है, क्योंकि इसने एक तुच्छ दास की भाँति मेरे शत्रु भगवान विष्णु की सेवा में संलग्न रहने के लिए अपने परिवार को छोड़ दिया है।

36 यद्यपि प्रह्लाद केवल पाँच वर्ष का है, किन्तु इसी अल्पावस्था में उसने अपने माता-पिता के स्नेह-सम्बन्ध को त्याग दिया है। अतएव यह निश्चय ही विश्वास करने योग्य नहीं है। निस्सन्देह, इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि यह विष्णु के प्रति भी, उत्तम रीति से आचरण करेगा।

37 यद्यपि औषधि (जड़ी-बूटी) जंगल में उत्पन्न होने के कारण मनुष्य की श्रेणी में परिगणित नहीं होती किन्तु लाभप्रद होने पर अत्यन्त सावधानी से रखी जाती है। इसी प्रकार यदि अपने परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति अनुकूल हो तो उसे पुत्र के समान संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। दूसरी ओर, यदि किसी के शरीर का कोई अंग रोग से विषाक्त हो जाये तो उसे काटकर अलग कर देना चाहिए जिससे शेष शरीर सुखपूर्वक जीवित रहे। इसी प्रकार भले ही अपना आत्मज पुत्र ही क्यों न हो, यदि वह प्रतिकूल है, तो उसका परित्याग कर देना चाहिए।

38 जिस प्रकार असंयमित इन्द्रियाँ आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने के कार्य में लगे हुए योगियों की शत्रु होती है उसी प्रकार यह प्रह्लाद मित्र के समान प्रतीत होकर भी मेरा शत्रु है, क्योंकि इस पर मेरा वश नहीं चलता। अतएव खाते, बैठे या सोते हुए, सभी तरह से इस शत्रु को मार डाला जाये।

39-40 इस प्रकार हिरण्यकशिपु के सारे नौकर राक्षसगण प्रह्लाद महाराज के शरीर के कोमल अंगों (मर्मस्थलों) पर अपने त्रिशूल से वार करने लगे। इन राक्षसों के मुख अत्यन्त भयानक थे, दाँत तीखे तथा दाढ़ी एवं बाल ताँबे जैसे थे और वे सब अत्यन्त भयावने प्रतीत हो रहे थे। वे उच्च स्वर से "उसके टुकड़े-टुकड़े कर दो। उसे छेद डालो" इस तरह चिल्ला कर प्रह्लाद महाराज पर जो शान्त भाव से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का ध्यान करते हुए आसीन थे, प्रहार करने लगे।

41 ऐसा व्यक्ति जिसके पास कोई पुण्यकर्म की कमाई नहीं होती यदि वह कोई अच्छा कार्य करे भी तो उसका कोई परिणाम नहीं निकलता। इसी प्रकार राक्षसों के हथियारों का प्रह्लाद महाराज पर कोई प्रकट प्रभाव नहीं पड़ रहा था, क्योंकि वे भौतिक दशाओं से अविचलित रहने वाले भक्त थे और उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का ध्यान करने तथा सेवा करने में व्यस्त थे, जो अनश्वर हैं, जिन्हें भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता और वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आत्मा हैं।

42 हे राजा युधिष्ठिर, जब प्रह्लाद महाराज को मार डालने के असुरों के सारे प्रयास निष्फल हो गए तो दैत्यराज हिरण्यकशिपु अत्यन्त भयभीत होकर उसे मारने के अन्य उपायों की योजना बनाने लगा।

43-44 हिरण्यकशिपु अपने पुत्र को विशाल हाथी के पाँवों के नीचे डालकर, बड़े-बड़े भयानक साँपों के बीच में छोड़कर, विध्वंसक जादू का प्रयोग करके, पर्वत की चोटी से नीचे गिरा कर, मायावी तरकीबें करके, विष देकर, भूखों रख कर, ठिठुरती ठण्ड, हवा, अग्नि तथा जल में छोड़कर या उस पर भारी पत्थर फेंककर भी नहीं मार पाया। जब हिरण्यकशिपु ने देखा कि वह पूरी तरह से पाप रहित प्रह्लाद को किसी तरह हानि नहीं पहुँचा पाया, तो वह अत्यन्त चिन्ता में पड़ गया कि आगे क्या किया जाये।

45 हिरण्यकशिपु ने विचार किया: मैंने इस बालक को दण्डित करने के लिए अनेक गालियाँ दी हैं, अपशब्द कहे हैं और उसे मार डालने के लिए अनेक उपाय किये हैं, किन्तु मेरे समस्त प्रयत्नों के बावजूद यह मरा नहीं। निस्सन्देह, इन खतरनाक तथा घृणित कार्यों के द्वारा वह तनिक भी प्रभावित नहीं हुआ और अपनी ही शक्ति से उसने अपने को बचाया है।

46 यद्यपि यह मेरे अत्यन्त निकट है और निरा बालक है फिर भी यह पूर्ण निर्भीक है। यह उस कुत्ते की टेढ़ी पूंछ के समान है, जो कभी सीधी नहीं की जा सकती, क्योंकि यह मेरे दुर्व्यवहार तथा अपने स्वामी भगवान विष्णु से अपने सम्बन्ध को कभी भी नहीं भूलता है।

47 मैं देखता हूँ कि इस बालक की शक्ति असीम है, क्योंकि यह मेरे किसी भी दण्ड से भयभीत नहीं हुआ। यह अमर प्रतीत होता है, अतएव इसके प्रति शत्रुता के भाव से मैं मरूँगा या ऐसा नहीं भी हो सकता।

48 इस प्रकार सोचते हुए चिन्तित तथा कान्तिहीन दैत्यराज अपना मुँह नीचा किये चुप रह गया। शुक्राचार्य के दोनों पुत्र षण्ड तथा अमर्क एकान्त में उससे बोले।

49 हे स्वामी, हम जानते हैं कि यदि आप अपनी भौंहों को हिला भी दें तो विविध लोकों के नायक (पालक) अत्यन्त भयभीत हो उठते हैं। आपने किसी की सहायता लिए बिना ही तीनों लोकों को जीत लिया है। इसलिए हमें आपके चिन्तित होने का कोई कारण नहीं दिख रहा। जहाँ तक प्रह्लाद का प्रश्न है, वह एक बालक ही तो है और वह चिन्ता का कारण नहीं बन सकता। अन्ततः उसके गुणों या अवगुणों का कोई महत्व नहीं है।

50 हमारे गुरु शुक्राचार्य के लौट आने तक इस बालक को वरुण की रस्सियों से बाँध दो जिससे कि वह डरकर भाग न पाये। किसी भी तरह, जब वह कुछ कुछ बड़ा हो जाएगा और हमारे उपदेशों को आत्मसात कर चूकेगा या हमारे गुरु की सेवा कर लेगा तो इसकी बुद्धि बदल जाएगी। इस प्रकार चिन्ता की कोई बात नहीं है।

51 अपने गुरु पुत्र षण्ड तथा अमर्क के इन उपदेशों को सुनकर हिरण्यकशिपु राजी हो गया और उनसे प्रह्लाद को इस वृत्तिपरक धर्म का उपदेश देने की प्रार्थना की जिसका पालन राजसी गृहस्थ परिवार करते हैं।

52 तत्पश्चात षण्ड तथा अमर्क ने अत्यन्त नम्र एवं विनीत प्रह्लाद महाराज को क्रमशः तथा सतत रूप से धर्म, अर्थ तथा काम के विषय में पढ़ाना शुरू किया।

53 षण्ड तथा अमर्क नामक शिक्षकों ने प्रह्लाद महाराज को धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन प्रकार के भौतिक विकास के बारे में शिक्षा दी। किन्तु प्रह्लाद महाराज इन उपदेशों से ऊपर थे, अतएव उन्होंने इन्हें पसंद नहीं किया, क्योंकि ऐसे उपदेश संसारी मामलो के द्वैत पर आधारित होते हैं, जो मनुष्य को भौतिकतावादी जीवन-शैली में फँसा लेते हैं जिसमें जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि प्रमुख हैं।

54 जब शिक्षक अपने घरेलू काम करने अपने घर चले जाते थे, तो प्रह्लाद महाराज के समवयस्क छात्र उन्हें इस अवकाश (छुट्टी) को खेलने में लगाने के लिए बुला लेते।

55 तब प्रह्लाद महाराज ने जो सचमुच परम विद्वान पुरुष थे, अपने सहपाठियों से अत्यन्त मधुर वाणी में कहा। उन्होंने मन्द-हास के साथ भौतिकतावादी जीवन-शैली की अनुपयोगिता के विषय में बताना शुरू किया। उन पर अत्यन्त कृपा करते हुए उन्होंने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया।

56-57 हे राजा युधिष्ठिर, सारे बालक प्रह्लाद महाराज को अत्यधिक चाहते थे और उनका सम्मान करते थे। अपनी अल्पायु के कारण वे अपने शिक्षकों के उपदेशों एवं कार्यों से अधिक दूषित नहीं हुए थे जबकि उनके शिक्षक निन्दा, द्वैत तथा शारीरिक सुविधा के प्रति आसक्त थे। इस तरह सारे बालक अपने-अपने खिलौने छोड़कर प्रह्लाद महाराज की बात सुनने के लिए उनके चारों ओर बैठ जाते। उनके हृदय तथा नेत्र उन पर टिके थे और वे उन्हें उत्साहपूर्वक देख रहे थे। प्रह्लाद महाराज यद्यपि असुर कुल में पैदा हुए थे, किन्तु महान भक्त थे और वे उनके कल्याण की कामना करते थे। इस प्रकार उन्होंने उन बालकों को भौतिकतावादी जीवन की निरर्थकता के विषय में उपदेश देना प्रारम्भ किया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय चार – ब्रह्माण्ड में हिरण्यकशिपु का आतंक (7.4)

1 नारद मुनि ने कहा: ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु की दुष्कर तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न थे। अतएव जब उसने वरों की याचना की तो उन्होंने निस्सन्देह वे दुर्लभ वर प्रदान कर दिये।

2 ब्रह्माजी ने कहा: हे हिरण्यकशिपु, तुमने जो वर माँगे हैं, वे अधिकांश मनुष्यों को बड़ी कठिनाई से प्राप्त हो पाते हैं। हे पुत्र, यद्यपि ये वर सामान्यतया उपलब्ध नहीं हो पाते, तथापि मैं तुम्हें प्रदान करूँगा।

3 तब अमोघ वर देने वाले ब्रह्माजी दैत्यों में श्रेष्ठ हिरण्यकशिपु द्वारा पूजित महर्षियों एवं साधु पुरुषों द्वारा प्रशंसित होकर वहाँ से प्रस्थान कर गये।

4 ब्रह्माजी से आशीष तथा कान्तियुक्त स्वर्णिम देह पाकर असुर हिरण्यकशिपु अपने भाई के वध का स्मरण करता हुआ, भगवान विष्णु का ईर्ष्यालु बना रहा।

5-7 हिरण्यकशिपु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का विजेता बन गया। इस महान असुर ने तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा निम्न) को जीत लिया जिसमें मनुष्यों, गन्धर्वों, गरुड़ों, महासर्पों, चारणों, विद्याधरों, महामुनियों, यमराज, मनुष्यों, यक्षों, पिशाचों, भूत-प्रेतों तथा उनके स्वामियों के लोक सम्मिलित थे। उसने उन अन्य ग्रहों के शासकों को भी हरा दिया जहाँ जीव रहते थे और उन्हें अपने अधीन कर लिया। सबके निवासों को जीतकर उसने उनकी शक्ति तथा प्रभाव को छीन लिया।

8 समस्त ऐश्वर्य से युक्त हिरण्यकशिपु स्वर्ग के सुप्रसिद्ध नन्दन उद्यान में रहने लगा, जिसका भोग देवता करते हैं। वस्तुतः वह स्वर्ग के राजा इन्द्र के अत्यन्त ऐश्वर्यशाली महल में रहने लगा। इस महल को प्रत्यक्षतः देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने निर्मित किया था और इसे इतने सुन्दर ढंग से बनाया गया था मानो सम्पूर्ण विश्व की लक्ष्मी वहीं निवास कर रही हो।

9-12 राजा इन्द्र के आवास की सीढ़ियाँ मूँगे की थीं, फर्श अमूल्य पन्ने से जटित था, दीवालें स्फटिक की थीं और खम्भे वैदूर्य मणि के थे। उसके अद्भुत वितान (चँदोवे) सुन्दर ढंग से सजाये गये थे, आसन मणियों से जटित थे और झाग के सदृश श्वेत रेशमी बिछौने मोतियों से सजाये गये थे। महल की स्त्रियाँ जिनके सुन्दर दाँत तथा अद्भुत रमणीय मुख थे, वे महल में इधर-उधर विचर रही थीं, उनके घुँघुरुओं से मधुर झनकार निकल रही थी और वे रत्नों में अपने सुन्दर प्रतिबिम्ब देख रही थीं। अकारण ही दण्डित कर सताये गये देवताओं को हिरण्यकशिपु के चरणों पर सिर झुकाना पड़ता था। इस प्रकार से वह इन्द्र के आवास में रहते हुए सबों पर कठोरता से शासन कर रहा था।

13 हे राजन, हिरण्यकशिपु सदा ही तीक्ष्ण गन्ध वाली सुरा पिये रहता था, अतएव उसकी ताम्र जैसी (लाल) आँखें सदैव चढ़ी रहती थीं। उसने योग की महान तपस्या की थी और यद्यपि वह निन्दनीय था, किन्तु तीन देवताओं – ब्रह्मा, विष्णु, तथा शिव – के अतिरिक्त सारे देवता अपने-अपने हाथों में विविध भेंटें लेकर उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी सेवा करते थे।

14 हे पाण्डु के वंशज महाराज युधिष्ठिर, हिरण्यकशिपु ने राजा इन्द्र के सिंहासन पर आसीन होकर अपने निजी बल से अन्य सारे ग्रहों के निवासियों को वश में किया। विश्वावसु तथा तुम्बुरु नामक दो गन्धर्व, मैं (नारद), विद्याधर, अप्सराएँ एवं साधुओं ने उसका यशोगान करने के लिए बारम्बार उसकी स्तुतियाँ की।

15 वर्णाश्रम धर्म का पालन करनेवाले पुरुष बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करके उसकी पूजा करते, तो वह यज्ञों की आहुतियाँ देवताओं को न देकर स्वयं ले लेता था।

16 ऐसा प्रतीत होता है मानों सात द्वीपों वाली पृथ्वी हिरण्यकशिपु के भय से, बिना जोते-बोये ही अन्न प्रदान करती थी। इस प्रकार यह वैकुण्ठ लोक की सुरभि या स्वर्गलोक की कामदूधा गायों के समान थी। पृथ्वी पर्याप्त अन्न प्रदान करती, गाएँ प्रचुर दूध देतीं तथा आकाश अनोखी घटनाओं से सुसज्जित रहता था।

17 ब्रह्माण्ड के विविध सागर अपनी पत्नी स्वरूप नदियों तथा उनकी सहायक नदियों की लहरों से हिरण्यकशिपु के उपयोग हेतु विविध प्रकार के रत्नों की आपूर्ति करते थे। ये सागर लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दुग्ध, दही तथा मीठे जल के थे।

18 पर्वतों के मध्य घाटियाँ हिरण्यकशिपु की क्रीड़ास्थली बन गई जिसके प्रभाव से समस्त पौधे सभी ऋतुओं में प्रचुर फूल तथा फल देने लगे। जल वृष्टि कराना, सुखाना तथा जलाना जो विश्व के तीन विभागाध्यक्षों अर्थात इन्द्र, वायु तथा अग्नि के गुण हैं, वे अब इन देवताओं की सहायता के बिना अकेले हिरण्यकशिपु द्वारा निर्देशित होने लगे।

19 समस्त दिशाओं को वश में करने की शक्ति प्राप्त करके तथा यथासम्भव सभी प्रकार की इन्द्रिय-तृप्ति का भोग करने के बावजूद हिरण्यकशिपु असंतुष्ट रहा, क्योंकि वह अपनी इन्द्रियों को वश में करने के बजाय उनका दास बना रहा।

20 इस प्रकार अपने ऐश्वर्य से अत्यधिक गर्वित एवं प्रामाणिक शास्त्रों के विधि-विधानों का उल्लंघन करते हुए हिरण्यकशिपु ने काफी समय बिताया। अतएव उसे चार कुमारों ने, जो कि प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे, शाप दे दिया।

21 हिरण्यकशिपु द्वारा दिये गये कठोर दण्ड से सबके सब, यहाँ तक कि विभिन्न लोकों के शासक भी, अत्यधिक त्रस्त थे। वे अत्यन्त भयभीत तथा उद्विग्न होकर और अन्य किसी का आश्रय न पा सकने के कारण अन्ततः पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की शरण में आये।

22-23 हम उस दिशा को सादर नमस्कार करते हैं जहाँ भगवान स्थित हैं, जहाँ संन्यास आश्रम में रहने वाले विशुद्ध आत्मा महान साधु पुरुष जाते हैं और जहाँ जाकर वे फिर कभी नहीं लौटते। बिना सोये, अपने मन को पूर्णतया वश में करके तथा केवल अपनी श्वास पर जीवित रहकर विभिन्न लोकपालों ने ऐसा ध्यान करके ह्रिषीकेश की पूजा करनी प्रारम्भ की।

24 तब उन सबों के समक्ष एक दिव्य वाणी प्रकट हुई जो भौतिक नेत्रों से अदृश्य पुरुष से निकली थी। यह वाणी मेघ की ध्वनि के समान गम्भीर, अत्यन्त प्रोत्साहन देने वाली तथा सभी प्रकार का भय भगाने वाली थी।

25-26 भगवान की वाणी इस प्रकार गुंजायमान हुई – हे परम श्रेष्ठ विद्वानों, डरो मत। तुम सब का कल्याण हो। तुम सभी – मेरी स्तुति, श्रवण तथा कीर्तन द्वारा मेरे भक्त बनो, क्योंकि इनका उद्देश्य सभी जीवों के लिए हितकारी है। मैं हिरण्यकशिपु के कार्यकलापों से परिचित हूँ और उन्हें शीघ्र ही रोक दूँगा, तब तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो।

27 जब कोई व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के प्रतिनिधि देवताओं, समस्त ज्ञान के प्रदाता वेदों, गायों, ब्राह्मणों, वैष्णवों, धार्मिक सिद्धान्तों तथा अन्ततः मुझ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से ईर्ष्या करता है, तो वह तथा उसकी सभ्यता दोनों अविलम्ब नष्ट हो जाएँगी।

28 जब हिरण्यकशिपु अपने ही पुत्र परम भक्त प्रह्लाद को सतायेगा, जो अत्यन्त शान्त, गम्भीर तथा शत्रुरहित है, तो मैं ब्रह्मा के समस्त वरों के होते हुए भी उसका तुरन्त ही वध कर दूँगा ।

29 परम साधु नारद मुनि ने आगे कहा: जब सभी के गुरु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने देवताओं को इस तरह आश्वस्त कर दिया तो उन सबने उन्हें प्रणाम किया और विश्वस्त होकर लौट आये कि अब तो हिरण्यकशिपु एक तरह से मर चुका है।

30 हिरण्यकशिपु के चार अद्भुत सुयोग्य पुत्र थे जिसमें से प्रह्लाद नामक पुत्र सर्वश्रेष्ठ था। निस्सन्देह प्रह्लाद समस्त दिव्य गुणों की खान थे, क्योंकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अनन्य भक्त थे।

31-32 [यहाँ पर हिरण्यकशिपु के पुत्र महाराज प्रह्लाद के गुणों का उल्लेख हुआ है] वे योग्य ब्राह्मण के रूप में पूर्णतया सुसंस्कृत, सच्चरित्र तथा परम सत्य को समझने के लिए दृढ़संकल्प थे। उन्हें अपनी इन्द्रियों तथा मन पर पूर्ण संयम था। परमात्मा की भाँति वे प्रत्येक जीव के प्रति दयालु थे और हर एक के श्रेष्ठ मित्र थे। वे सम्मानित व्यक्ति के साथ एक दास की भाँति व्यवहार करते, गरीबों के पिता तुल्य, समानधर्माओं के प्रति दयालु भ्राता की तरह अनुरक्त रहने वाले, आध्यात्मिक गुरुओं तथा पुराने गुरुभाइयों को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की तरह मानने वाले थे। वे उस बनावटी अभिमान से पूरी तरह मुक्त थे, जो उनकी अच्छी शिक्षा, धन, सौन्दर्य व राजसी जन्म के कारण सम्भव था।

33 यद्यपि प्रह्लाद महाराज का जन्म असुर वंश में हुआ था, किन्तु वे स्वयं असुर न होकर भगवान विष्णु के परम भक्त थे। अन्य असुरों की तरह वे कभी भी वैष्णवों से ईर्ष्या नहीं करते थे। भयावह परिस्थिति आने पर वे कभी उद्विग्न नहीं होते थे और वेदों में वर्णित सकाम कर्मों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी रुचि नहीं लेते थे। निस्सन्देह, वे हर भौतिक वस्तु को व्यर्थ मानते थे, इसलिए वे भौतिक इच्छाओं से पूर्णतया रहित थे। वे सदैव अपनी इन्द्रियों तथा प्राणवायु पर संयम रखते थे। स्थिरबुद्धि तथा संकल्पमय होने के कारण उन्होंने सारी विषय-वासनाओं को दमित कर लिया था।

34 हे राजन, आज भी प्रह्लाद महाराज के सद्गुणों का यशोगान विद्वान सन्तों तथा वैष्णवों द्वारा किया जाता है। जिस तरह सारे सद्गुण सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार वे उनके भक्त प्रह्लाद महाराज में भी सदैव पाये जाते हैं।

35 हे राजा युधिष्ठिर, किसी भी सभा में जहाँ सन्तों तथा भक्तों की चर्चाएँ चलती हैं वहाँ पर असुरों के शत्रु देवतागण तक प्रह्लाद महाराज को परम भक्त के रूप में उदाहृत करते हैं। आपका तो कहना ही क्या जो प्रह्लाद महाराज का उदाहरण सदा देते रहते हैं।

36 भला ऐसा कौन है, जो प्रह्लाद महाराज के असंख्य दिव्य गुणों के नाम गिना सके? उनको वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण में अविचल श्रद्धा एवं अनन्य भक्ति थी। भगवान कृष्ण के प्रति उनकी अनुरक्ति अपनी पूर्व भक्ति के कारण स्वाभाविक थी। यद्यपि उनके सद्गुणों की गणना नहीं की जा सकती, किन्तु उनसे सिद्ध होता है कि वे महात्मा थे।

37 अपने बाल्यकाल के प्रारम्भ से ही प्रह्लाद महाराज को बालकों के खेल-कूद में अरुचि थी। निस्सन्देह, उन्होंने उन सबका परित्याग कर दिया था और कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन होकर शान्त तथा जड़ बने रहते थे। चूँकि उनका मन सदैव कृष्णभावनामृत से प्रभावित रहता था, अतएव वे यह नहीं समझ सके कि यह संसार किस प्रकार से इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में निमग्न होकर चलता रहता है।

38 प्रह्लाद महाराज सदैव कृष्ण के विचारों में डूबे रहते थे। इस प्रकार भगवान द्वारा आलिंगित होने से उन्हें यह भी पता नहीं चल पाता था कि उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ यथा बैठना, चलना, खाना, सोना, पीना तथा बोलना किस तरह स्वतः सम्पन्न हो जाया करती थीं।

39 कृष्णभावनामृत में आगे बढ़ते रहने से वह कभी रोता था, कभी हँसता था, कभी हर्षित होता था और कभी उच्च स्वर में गाता था।

40 कभी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का दर्शन करके प्रह्लाद महाराज पूर्ण उत्सुकतावश जोर से पुकारने लगते। कभी-कभी वे प्रसन्नतावश अपनी लज्जा छोड़ बैठते और हर्ष के भावावेश में नाचने लगते। कभी-कभी कृष्ण के भावों में विभोर होकर वे भगवान से एकाकार होने का अनुभव करते और उनकी लीलाओं का अनुकरण करते।

41 कभी-कभी भगवान के करकमलों का स्पर्श अनुभव करके वे आध्यात्मिक रूप से प्रसन्न होते और मौन बने रहते, उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते (रोमांच हो आता) और भगवान के प्रेम के कारण उनके अर्धनिमीलित नेत्रों से अश्रु ढुलकने लगते।

42 पूर्ण, अनन्य भक्तों की संगति के कारण जिन्हें भौतिकता से कुछ भी लेना देना नहीं था, प्रह्लाद महाराज निरन्तर भगवान के चरणकमलों की सेवा में लगे रहते थे। जब वे पूर्ण आनन्द में होते तो उनके शारीरिक लक्षणों को देखकर आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन व्यक्ति भी शुद्ध हो जाते थे। दूसरे शब्दों में, प्रह्लाद महाराज उन्हें दिव्य आनन्द प्रदान करते थे।

43 हे राजा युधिष्ठिर, उस असुर हिरण्यकशिपु ने इस महान भाग्यशाली भक्त प्रह्लाद को सताया था, यद्यपि वह उसका ही पुत्र था।

44 महाराज युधिष्ठिर ने कहा: हे देवर्षि, हे श्रेष्ठ आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक, हिरण्यकशिपु ने शुद्ध तथा श्रेष्ठ सन्त प्रह्लाद महाराज को, अपना ही पुत्र होने पर भी किस प्रकार इतना अधिक कष्ट दिया? मैं इसे आपसे जानना चाहता हूँ।

45 माता तथा पिता सदा ही अपने बच्चो के प्रति वत्सल होते हैं। जब बच्चे अवज्ञाकारी होते हैं तो माता-पिता उन्हें किसी शत्रुतावश नहीं, अपितु उन्हें शिक्षा देने तथा उनके भले के लिए दण्ड देते हैं, तो हिरण्यकशिपु ने क्यों अपने इतने नेक पुत्र प्रह्लाद महाराज को प्रताड़ित किया ? यह सब जानने के लिए मैं अत्यन्त उत्सुक हूँ।

46 महाराज युधिष्ठिर ने आगे पूछा: भला एक पिता के लिए यह कैसे सम्भव हुआ कि वह अपने आज्ञाकारी, सदाचारी तथा पिता का सम्मान करने वाले पुत्र के प्रति इतना उग्र बना? हे ब्राह्मण, हे स्वामी, मैंने कभी ऐसा विरोधाभास नहीं सुना कि कोई वत्सल पिता अपने नेक पुत्र को मार डालने के उद्देश्य से उसे दण्डित करे। कृपा करके इस सम्बन्ध में हमारे संशयों को दूर कीजिये।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय तीन – हिरण्यकशिपु की अमर बनने की योजना (7.3)

1 नारद मुनि ने महाराज युधिष्ठिर से कहा: दैत्यराज हिरण्यकशिपु अजेय तथा वृद्धावस्था एवं शरीर की जर्जरता से मुक्त होना चाहता था। वह अणिमा तथा लघिमा जैसी समस्त योग-सिद्धियों को प्राप्त करना, मृत्युरहित होना और ब्रह्मलोक समेत अखिल विश्व का एकछत्र राजा बनना चाहता था।

2 हिरण्यकशिपु ने मन्दर पर्वत की घाटी में अपने पाँव के अँगूठे के बल भूमि पर खड़े होकर, अपनी भुजाएँ ऊपर किये तथा आकाश की ओर देखते हुए तपस्या प्रारम्भ की। यह स्थिति अतीव कठिन थी, किन्तु सिद्धि प्राप्त करने के लिए उसने इसे स्वीकार किया।

3 हिरण्यकशिपु के जटाजूट से प्रलयकालीन सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान तथा असह्य तेज प्रकट हुआ। ऐसी तपस्या देखकर सारे देवता, जो अभी तक सारे लोकों में भ्रमण कर रहे थे, अपने-अपने घरों को लौट गये।

4 हिरण्यकशिपु की कठिन तपस्या के कारण उसके सिर से अग्नि प्रकट हुई और यह अग्नि अपने धुएँ समेत आकाश भर में फैल गई। उसने ऊर्ध्व तथा अधःलोकों को घेर लिया जिससे वे सभी अत्यन्त गर्म हो उठे।

5 उसकी कठिन तपस्या के बल से सारी नदियाँ तथा सारे समुद्र उद्वेलित हो उठे, भूमण्डल की सतह अपने पर्वतों तथा द्वीपों समेत थरथराने लगी और तारे तथा ग्रह टूटकर गिर पड़े। सारी दिशाएँ धधक उठीं थी।

6 हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या से झुलसने तथा अत्यन्त विचलित होने के कारण समस्त देवताओं ने अपने रहने के लोक छोड़ दिये और ब्रह्मा के लोक को गये जहाँ उन्होंने स्रष्टा को इस प्रकार सूचित किया---” हे देवताओं के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु, हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या से उसके सिर से निकलने वाली अग्नि के कारण हम लोग इतने उद्विग्न हैं कि हम अपने लोकों में रह नहीं सकते, अतएव हम आपके पास आये हैं।"

7 हे महापुरुष, हे ब्रह्माण्ड के प्रधान, यदि आप उचित समझें तो इन सारे उत्पातों को, जो सब कुछ विनष्ट करने के उद्देश्य से हो रहे हैं, कृपा करके रोक दें जिससे आपकी आज्ञाकारी प्रजा का संहार न हो।

8 हिरण्यकशिपु ने अत्यन्त कठिन तपस्या का व्रत ले रखा है। यद्यपि आपसे उसकी योजना छिपी नहीं है, तो भी हम जिस रूप में उसके मन्तव्यों का निवेदन कर रहे हैं, कृपा करके उन्हें सुन लें।

9-10 “इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च पुरुष ब्रह्माजी ने अपना उच्च पद कठिन तपस्या, योगशक्ति तथा समाधि द्वारा प्राप्त किया है। फलस्वरूप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के बाद वे इसके सर्वाधिक पूज्य देवता बने हैं। चूँकि मैं शाश्वत हूँ और काल भी शाश्वत है, अतएव मैं ऐसी ही तपस्या, योगशक्ति तथा समाधि के लिए अनेक जन्मों तक प्रयास करूँगा और वह स्थान ग्रहण करूँगा जो ब्रह्माजी ने प्राप्त किया है।"

11 अपनी कठोर तपस्या से मैं पुण्य तथा पापकर्मों के फलों को उलट दूँगा। मैं इस संसार की समस्त स्थापित प्रथाओं को पलट दूँगा। कल्प के अन्त में ध्रुवलोक भी मिट जाएगा। अतएव इसका क्या लाभ है? मैं तो ब्रह्मा के पद पर बना रहना अधिक पसंद करूँगा।

12 हे प्रभु, हमने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि हिरण्यकशिपु आपका पद प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या में जूटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। आप जैसा उचित समझें वैसा अविलम्ब करें।

13 हे ब्रह्माजी निश्चय ही आपका पद इस ब्रह्माण्ड के सभी लोगों के लिए, विशेष रूप से ब्राह्मणों तथा गायों के लिए, अत्यन्त कल्याणप्रद है। इससे ब्राह्मण-संस्कृति तथा गौ-सुरक्षा को अधिकाधिक महिमामण्डित किया जा सकता है और इस प्रकार सभी तरह के भौतिक सुख, ऐश्वर्य तथा सौभाग्य स्वतः वृद्धि करेंगे। किन्तु दुर्भाग्यवश यदि हिरण्यकशिपु आपका स्थान ग्रहण करता है, तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

14 हे राजन, देवताओं द्वारा इस प्रकार सूचित किये जाने पर सर्वाधिक शक्तिशाली ब्रह्माजी भृगु, दक्ष तथा अन्य महर्षियों को साथ लेकर तुरन्त उस स्थान के लिए चल पड़े जहाँ हिरण्यकशिपु तपस्या कर रहा था।

15-16 हंसयान पर चलने वाले ब्रह्माजी पहले तो यह नहीं देख पाये कि हिरण्यकशिपु है कहाँ, क्योंकि उसका शरीर बाँबी, घास तथा बाँस के डडो से ढक गया था। चूँकि हिरण्यकशिपु दीर्घकाल से वहाँ था अतएव चीटियाँ उसकी खाल, चर्बी, मांस तथा रक्त चट कर चुकी थीं। तब ब्रह्माजी तथा देवताओं ने उसे खोज निकाला। वह बादलों से आच्छादित सूर्य की भाँति सारे संसार को अपनी तपस्या से तपा रहा था। आश्चर्यचकित होकर ब्रह्माजी हँस पड़े और उसे इस प्रकार सम्बोधित करने लगे।

17 ब्रह्माजी ने कहा: हे कश्यप मुनि के पुत्र उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपनी तपस्या में सिद्ध हो चुके हो, अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ। तुम मुझसे जो चाहे सो माँग सकते हो और मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करूँगा।

18 मैं तुम्हारे धैर्य को देखकर अत्यन्त विस्मित हूँ। सभी तरह के कीड़ों तथा चीटियों द्वारा खाये तथा काटे जाने के बावजूद तुम अपनी अस्थियों में प्राणवायु को संचालित किये हुए हो। निस्सन्देह, यह आश्चर्यजनक है।

19 यहाँ तक कि भृगु जैसे साधु पुरुष, जो पहले जन्म ले चुके हैं ऐसी कठिन तपस्या नहीं कर सके हैं, न भविष्य में भी कोई ऐसा कर सकेगा। इन तीनों लोकों में ऐसा कौन होगा जो जल पिये बिना एक सौ दैवी वर्षों तक जीवन धारण कर सके?

20 हे दितिपुत्र, तुमने अपने महान संकल्प से तथा अपनी तपस्या से वह कर दिखाया है, जो बड़े-बड़े साधु पुरुषों के लिए भी असम्भव है। इस तरह तुमने मुझे निश्चय ही जीत लिया है।

21 हे असुरों में श्रेष्ठ, इस कारण मैं तुम्हारी इच्छानुसार तुम्हें सारे वरदान देने के लिए तैयार हूँ। मैं देवलोक से सम्बन्धित हूँ, जहाँ देवतागण मनुष्यों की तरह नहीं मरते। अतएव यद्यपि तुम मर्त्य हो, किन्तु तुमने मेरा दर्शन किया है, अतः यह व्यर्थ नहीं जाएगा।

22 श्री नारद मुनि ने आगे कहा: हिरण्यकशिपु से ये शब्द कहने के बाद इस ब्रह्माण्ड के प्रथम जीव ब्रह्माजी ने, जो अत्यन्त शक्तिमान हैं, उसके शरीर पर अपने कमण्डलु से दिव्य अचूक आध्यात्मिक जल छिड़का, जिसे चींटियों तथा कीड़े-मकोड़ों ने खा लिया था। इस तरह उन्होंने हिरण्यकशिपु को अनुप्राणित किया।

23 ज्योंही ब्रह्माजी ने अपने कमण्डलु से उसके शरीर पर जल छिड़का त्योंही हिरण्यकशिपु उठ खड़ा हुआ। उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग इतने बलवान थे कि वह वज्र के आघात को भी सहन कर सकता था। इतनी शारीरिक शक्ति एवं पिघले सोने की सी शारीरिक कान्ति से युक्त वह पूर्ण तरुण पुरुष की भाँति बाँबी से उसी तरह प्रकट हुआ जिस तरह काष्ठ से अग्नि उत्पन्न होती है।

24 आकाश में हंस-वायुयान पर सवार ब्रह्मा को अपने समक्ष देखकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वह तुरन्त सिर के बल भूमि पर गिर पड़ा और भगवान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने लगा।

25 तब दैत्यराज भूमि से उठा और ब्रह्माजी को अपने समक्ष देखकर प्रसन्नता से अभिभूत हो गया। अपने अश्रुपूर्ण नेत्रों एवं कम्पायमान शरीर से अपने हाथ जोड़कर तथा अवरुद्ध वाणी से ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए विनीत मुद्रा में प्रार्थना करने लगा।

26-27 मैं इस ब्रह्माण्ड के परम स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ। उनके जीवन के प्रत्येक दिन के अन्त में यह ब्रह्माण्ड काल के प्रभाव से घने अंधकार द्वारा आच्छादित हो जाता है और दूसरे दिन पुनः वही आत्म-तेजस्वी स्वामी अपने निजी तेज से भौतिक शक्ति के माध्यम से, जो प्रकृति के तीन गुणों से युक्त है, सम्पूर्ण जगत का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं। वे ब्रह्माजी ही सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण--प्रकृति के इन तीन गुणों के आधार हैं।

28 मैं इस ब्रह्माण्ड के आदि पुरुष ब्रह्माजी को नमस्कार करता हूँ जो ज्ञान-विशेष हैं तथा जो इस विराट जगत को उत्पन्न करने में मन तथा अनुभूत बुद्धि का उपयोग करते हैं। उनके कार्यकलापों के ही कारण इस ब्रह्माण्ड में हर वस्तु दृष्टिगोचर हो रही है, अतएव वे समग्र अभिव्यक्तियों के कारण हैं।

29 “आप ही इस भौतिक जगत के जीवन के उद्गम होने से चर तथा अचर दोनों प्रकार के जीवों के स्वामी तथा नियन्ता हैं और उनकी चेतना को अभिप्रेरित करते हैं। आप मन, कर्म तथा ज्ञान की इन्द्रियों का सम्पोषण करते हैं अतएव आप समस्त भौतिक तत्त्वों तथा उनके गुणों के महा-नियन्ता हैं। आप समस्त कामनाओं के भी नियन्ता हैं।"

30 हे प्रभु आप साक्षात वेदों के रूप में तथा समस्त याज्ञिक ब्राह्मणों के कार्यकलापों से सम्बन्धित ज्ञान के द्वारा अग्निष्टोम इत्यादि सात प्रकार के यज्ञों के वैदिक अनुष्ठानों का प्रसार करते हैं। निस्सन्देह, आप याज्ञिक ब्राह्मणों को तीनों वेदों में उल्लिखित अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिए अभिप्रेरित करते हैं। समस्त जीवों की अन्तरात्मा होने के कारण आप आदिरहित, अन्तरहित तथा सर्वज्ञ हैं, आप काल तथा देश की सीमाओं के परे हैं।

31 हे स्वामी आप नित्य जागते रहते हैं और जो कुछ घटित होता है उसे देखते हैं। नित्य काल के रूप में आप अपने विभिन्न अंशों यथा – पल, क्षण, मिनट से – समस्त जीवों की आयु घटाते हैं, फिर भी आप अपरिवर्तनशील हैं, एक ही स्थान पर रहते हुए परमात्मा, साक्षी, अजन्मा, तथा सर्वव्यापी नियन्ता हैं, जो समस्त जीवों के जीवन के कारण हैं।

32 आपसे पृथक कुछ भी नहीं है चाहे वह अच्छा हो या निम्नतर, अचर या चर। वैदिक वाड्मय से यथा उपनिषदों से तथा मूल वैदिक ज्ञान के उपायों से प्राप्त ज्ञान आपके बाह्य शरीर की रचना करने वाले हैं। आप हिरण्यगर्भ अर्थात ब्रह्माण्ड के आगार हैं, लेकिन परम नियन्ता के रूप में स्थित होने से आप तीन गुणों से युक्त भौतिक जगत से परे हैं।

33 हे प्रभु, यह विराट जगत आपका बाह्य स्वरूप है, जिससे आप इन्द्रिय, प्राण और मन के विषयों का उपभोग करते है। इस तरह आप भौतिक जगत का आस्वादन करते प्रतीत होते हैं। आप ब्रह्म, परमात्मा, सबसे पुरातन ईश्वर हैं।

34 मैं उन परम पुरुष को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अपने अनन्त, अव्यक्त रूप को विराट जगत के रूप में ब्रह्माण्ड की समग्रता में विस्तार किया है। उनमें बहिरंगा शक्ति तथा अन्तरंगा शक्ति और समस्त जीवों से समन्वित मिश्रित तटस्था शक्ति पाई जाती है।

35 हे प्रभो, हे श्रेष्ठ वरदाता, यदि आप मुझे मेरा मनचाहा वर देना ही चाहते हैं, तो यह वर दें कि मैं आपके द्वारा उत्पन्न किसी भी जीव के द्वारा मृत्यु को प्राप्त न होऊँ।

36 मुझे यह वर दें कि मैं न तो घर के अन्दर, न घर के बाहर, न दिन के समय, न रात में, न भूमि पर, न आकाश में मरूँ। मुझे वर दें कि मेरी मृत्यु न तो आपके द्वारा उत्पन्न जीवों के अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा हो, न किसी हथियार से हो, न किसी मनुष्य या पशु के द्वारा हो।

37-38 आप मुझे वर दें कि किसी सजीव या निर्जीव प्राणी द्वारा मेरी मृत्यु न हो। मुझे यह भी वर दें कि मैं किसी देवता या असुर द्वारा या अधोलोकों के किसी बड़े सर्प द्वारा न मारा जाऊँ। चूँकि आपको युद्धभूमि में कोई मार नहीं सकता इसलिए आपका कोई प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं है। इस प्रकार आप मुझे यह भी वर दे कि मेरा भी कोई प्रतिद्वन्द्वी न हो। मुझे सारे जीवों तथा लोकपालों का एकछत्र स्वामित्व प्रदान करें और उस पद से प्राप्त होने वाला समस्त यश दें। साथ ही मुझे लम्बी तपस्या तथा योगाभ्यास से प्राप्त होने वाली सारी योग शक्तियाँ दें, क्योंकि ये कभी भी विनष्ट नहीं हो सकतीं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय दो – असुरराज हिरण्यकशिपु (7.2)

1 श्री नारद मुनि ने कहा: हे राजा युधिष्ठिर, जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तो हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकशिपु अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और विलाप करने लगा।

2 क्रोध से भरकर तथा अपने होंठ काटते हुए हिरण्यकशिपु ने क्रोध से जलती हुई आँखों से आकाश को देखा तो वह सारा आकाश धूमिल हो गया। वह इस प्रकार बोलने लगा।

3 अपने भयानक दाँत, उग्र दृष्टि तथा रोषपूर्ण भौंहों के दिखाते हुए, देखने में भयानक उसने अपना त्रिशूल धारण किया और एकत्र हुए अपने असुर संगियों से इस प्रकार कहा।

4-5 अरे दानवों और दैत्यों, अरे द्विमूर्ध, त्र्यक्ष, शम्बर तथा शतबाहु, अरे हयग्रीव, नमुचि, पाक तथा इल्वल, अरे विप्रचित्ति, पुलोमन, शकुन तथा अन्य असुरों, तुम सब जरा मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुनो और तब अविलम्ब मेरे वचनों के अनुसार कार्य करो।

6 मेरे तुच्छ शत्रु देवता मेरे अत्यधिक प्रिय तथा आज्ञाकारी शुभेच्छु भ्राता हिरण्याक्ष को मारने के लिए एक हो गए हैं। यद्यपि परमेश्वर विष्णु हम दोनों के लिए अर्थात देवताओं तथा असुरों के लिए सदैव समान हैं किन्तु इस बार देवताओं द्वारा अत्यधिक पूजित होने से उन्होंने उनका पक्ष लिया और हिरण्याक्ष को मारने में उनकी सहायता की।

7-8 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने असुरों तथा देवताओं के प्रति समानता की अपनी सहज प्रवृत्ति त्याग दी है। यद्यपि वे परम पुरुष हैं, किन्तु अब माया के वशीभूत होकर उन्होंने अपने भक्तों अर्थात देवताओं को प्रसन्न करने के लिए वराह का रूप धारण किया है, जिस तरह एक बेचैन बालक किसी की ओर उन्मुख हो जाये। अतएव मैं अपने त्रिशूल से भगवान विष्णु के सिर को उनके धड़ से अलग कर दूँगा और उनके शरीर से निकले प्रचुर रक्त से अपने भाई हिरण्याक्ष को प्रसन्न करूँगा, इस प्रकार मैं भी शान्त हो सकूँगा।

9 जब वृक्ष की जड़ काट दी जाती है, तो वह गिर पड़ता है और उसकी टहनियाँ एवं पत्तियाँ स्वतः सूख जाती हैं। उसी तरह जब मैं इस मायावी विष्णु को मार डालूँगा तो सारे देवता जिनके लिए भगवान विष्णु प्राण तथा आत्मा हैं, अपना जीवन-स्रोत खो देंगे और मुरझा जाएँगे।

10 जब तक मैं भगवान विष्णु के मारने के कार्य में लगा हूँ, तब तक तुम लोग पृथ्वीलोक में जाओ जो ब्राह्मण संस्कृति तथा क्षत्रिय शासन के कारण फल-फूल रहा है। ये लोग तपस्या, यज्ञ, वैदिक अध्ययन, आनुष्ठानिक व्रत तथा दान में लगे रहते हैं। ऐसे सारे लोगों को विनष्ट कर दो।

11 ब्राह्मण संस्कृति का मूल सिद्धान्त यज्ञों तथा अनुष्ठानों के साक्षात स्वरूप भगवान विष्णु को प्रसन्न करना है। भगवान विष्णु समस्त धार्मिक सिद्धान्तों के साक्षात आगार हैं और वे समस्त देवताओं, महान पितरों तथा जन-सामान्य के आश्रय हैं। यदि ब्राह्मणों का वध कर दिया जाये तो क्षत्रियों को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित करने वाला कोई नहीं रहेगा और इस तरह सारे देवता यज्ञों द्वारा तुष्ट न किये जाने पर स्वतः मर जायेंगे।

12 जहाँ कहीं भी गौवों तथा ब्राह्मणों को सुरक्षा प्राप्त है तथा जहाँ-जहाँ वर्णाश्रम नियमों के अनुसार वेदों का अध्ययन होता है, वहाँ-वहाँ तुरन्त जाओ। तुम लोग उन स्थानों में अग्नि लगा दो और जीवन के स्रोत वृक्षों को जड़ से काट कर गिरा दो।

13 इस तरह जघन्य कर्मों के लिए लालायित असुरों ने हिरण्यकशिपु की आज्ञा को अत्यन्त आदरपूर्वक लिया और उसे नमस्कार किया। उसके निर्देशानुसार वे सारे जीवों के विरुद्ध ईर्ष्यापूर्ण कृत्यों में जुट गये।

14 असुरों ने नगरों, गाँवों, चारागाहों, उद्यानों, खेतों तथा जंगलों में आग लगा दी। उन्होंने साधु पुरुषो के घरों, मूल्यवान धातु उत्पन्न करने वाली महत्त्वपूर्ण खानों, कृषकों के आवासों, पर्वतीय ग्रामों, ग्वालों की बस्तियों को जला दिया। उन्होंने सरकारी राजधानियाँ भी जला दीं।

15 कुछ असुरों ने फावड़े लेकर पुल, परकोटे तथा नगरों के द्वारों (गोपुरों) को तोड़ डाला। कुछ ने कुल्हाड़े लेकर आम, कटहल के महत्त्वपूर्ण वृक्षों तथा अन्य भोज्य सामग्री वाले वृक्षों को काट डाला। कुछ असुरों ने हाथ में जलती मशालें लेकर नागरिकों के आवासों में आग लगा दी।

16 इस प्रकार हिरण्यकशिपु के अनुयायियों द्वारा बारम्बार अप्राकृतिक घटनाओं के रूप में सताये जाने पर सभी लोगों ने बाध्य होकर वैदिक संस्कृति की सारी गतिविधियाँ बन्द कर दीं। देवतागण भी यज्ञों का फल न पाने के कारण विचलित हो उठे। उन्होंने स्वर्गलोक के अपने-अपने आवास त्याग दिये और असुरों से अदृश्य होकर विनाश का अवलोकन करने के लिए वे पृथ्वीलोक में इधर-उधर विचरण करने लगे।

17 अपने भाई की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न कर लेने के बाद हिरण्यकशिपु ने अत्यन्त दुखित होकर अपने भतीजों को सान्त्वना प्रदान करने का प्रयास किया।

18-19 हे राजन, हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रुद्ध था, किन्तु महान राजनीतिज्ञ होने के कारण वह देश तथा काल के अनुसार कर्म करना जानता था। अतएव वह अपने भतीजों को मृदु वचनों से सान्त्वना देने लगा। इनके नाम थे शकुनि, शम्बर, ध्रुष्टि, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु तथा उत्कच। उसने उनकी माता अर्थात अपनी अनुजवधू रुषाभानु एवं अपनी माता दिति को भी ढाढ़स बँधाया। वह उनसे इस प्रकार बोला।

20 हिरण्यकशिपु ने कहा: हे माता, हे वधू तथा हे भतीजो, तुम लोगों को महान वीर की मृत्यु के लिए शोक नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपने शत्रु के समक्ष वीर की मृत्यु अत्यन्त यशस्वी तथा वांछनीय होती है।

21 हे माता, किसी भोजनालय या प्याऊ में अनेक राहगीर पास-पास आते हैं, किन्तु जल पीने के बाद अपने-अपने गन्तव्यों को चले जाते हैं। इसी प्रकार जीव भी किसी परिवार में आकर मिलते हैं किन्तु बाद में अपने-अपने कर्मों के अनुसार वे अपने-अपने गन्तव्यों को चले जाते हैं।

22 आत्मा या जीव की मृत्यु नहीं होती, क्योंकि वह नित्य तथा अव्यय है। भौतिक कल्मष से मुक्त होने के कारण वह भौतिक या आध्यात्मिक जगतों में कहीं भी जा सकता है। वह भौतिक शरीर से पूरी तरह सजग तथा उससे सर्वथा भिन्न है, किन्तु अपनी किंचित स्वतंत्रता के दुरुपयोग के कारण उसे भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर धारण करने होते हैं और इस तरह उसे तथाकथित भौतिक सुख तथा दुख सहने पड़ते हैं। अतएव किसी भी मनुष्य को शरीर में से आत्मा के निकलने पर शोक नहीं करना चाहिए।

23 जल की गति के कारण नदी के तटवर्ती वृक्ष जल में प्रतिबिम्बित होकर गति करते हुए प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार जब आँखें किसी मानसिक असंतुलन के कारण चलती रहती है, तो धरती (स्थल) भी घूमती प्रतीत होती है।

24 इसी तरह हे मेरी भद्र माता, जब प्रकृति के गुणों की गति द्वारा यह मन विचलित होता (भटकता) है तब जीव, चाहे वह कितना ही सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों की विभिन्न अवस्थाओं से मुक्त क्यों न हो, यही सोचता है कि वह एक स्थिति से दूसरी में परिवर्तित हो गया है।

25-26 मोहावस्था में जीव अपने शरीर तथा मन को आत्मा स्वीकार करके कुछ व्यक्तियों को अपना सगा-सम्बन्धी और अन्यों को बाहरी लोग मानने लगता है। इस भ्रांति के कारण उसे कष्ट भोगना पड़ता है। निस्सन्देह, ऐसे मनोकल्पित भौतिक विचारों का संचय ही सांसारिक दुख और तथाकथित सुख का कारण बनता है। इस प्रकार स्थित होकर बद्धजीव को विभिन्न योनियों में जन्म लेना होता है और विभिन्न चेतनाओं में कर्म करना पड़ता है, जिससे नवीन शरीरों की उत्पत्ति होती है। यह सतत भौतिक जीवन संसार कहलाता है। जन्म, मृत्यु, शोक, मूर्खता तथा चिन्ता – ये सब भौतिक विचारों के कारण होते हैं। इस तरह हम कभी उचित ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो कभी जीवन की भ्रान्त धारणा के पुनः शिकार बनते हैं।

27 इस प्रसंग में प्राचीन इतिहास से एक उदाहरण दिया गया है। इसमें यमराज तथा मृत व्यक्ति के मित्रों के मध्य की वार्ता निहित है। कृपया इसे ध्यानपूर्वक सुनिये।

28 उशीनर नामक राज्य में सुयज्ञ नाम का एक विख्यात राजा था। जब यह राजा युद्ध में शत्रुओं द्वारा मार डाला गया तो उसके सम्बन्धी मृत शरीर को घेरकर बैठ गये और उस मित्र की मृत्यु पर शोक प्रकट करने लगे।

29-31 वध किया हुआ राजा युद्धस्थल में गिर पड़ा था। उसका सुनहला रत्नजड़ित कवच छिन्न-भिन्न हो गया था, आभूषण तथा वस्त्र अपने स्थान से विलग हो चुके थे, बाल बिखर गये थे और आँखें कान्तिहीन हो चुकी थीं, सारा शरीर रक्त से सना था और हृदय शत्रु के बाणों से बिधा था। मरते-मरते उसने शौर्य दिखाना चाहा अतः उसके होंठ दाँतों में भिचे हुए थे। उसका कमल सदृश सुन्दर मुख अब काला पड़ गया था और युद्धभूमि की धूल से सना था। उसकी भुजाएँ कटकर टूट चुकी थी। जब उशीनर के राजा की रानियों ने अपने पति को इस स्थिति में पड़े देखा तो वे रोने लगीं---”हे नाथ, तुम्हारे मारे जाने से हम भी मृत सदृश हो चुकी हैं।" ऐसे वचन बोल कर वे अपनी छाती पीटते हुए मृत राजा के चरणों पर गिर पड़ीं।

32 रानियों के जोर जोर से विलाप करने पर उनके आँसू वक्षस्थल पर लुढ़क आये थे, केश बिखर गये, आभूषण गिर गये और अन्यों के हृदय से सहानुभूति प्राप्त रानियाँ अपने पति की मृत्यु पर विलाप करने लगीं।

33 हे नाथ, अब आप क्रूर विधाता द्वारा हमारी दृष्टि से ओझल कर लिये गये हैं। इसके पूर्व आप उशीनर के निवासियों को जीविका प्रदान करते थे जिससे वे सुखी थे, किन्तु अब आपकी दशा उनके दुख का कारण बनी है।

34 हे राजन, हे वीर, आप कृतज्ञ पति थे और हमारे अत्यन्त निष्ठावान मित्र थे। आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी? हे वीर, आप जहाँ भी जा रहे हैं, कृपा करके हमारा निर्देशन करें जिससे हम आपके पदचिन्हों का अनुसरण कर सकें और पुनः आपकी सेवा कर सकें। हमें भी अपने साथ ले चलें।

35 यद्यपि शव-दाह के लिए समय उपयुक्त था लेकिन रानियाँ शव को अपनी गोद में लिए हुए विलाप करती रहीं और उन्होंने शव को ले जाने की अनुमति नहीं दी। तभी सूर्य पश्चिम दिशा में अस्त हो गया।

36 जब रानियाँ राजा के मृत शरीर के लिए विलाप कर रही थीं तो उनका जोर-जोर का विलाप यमलोक तक में सुनाई पड़ रहा था। अतएव बालक का रूप धारण करके यमराज मृतक के सम्बन्धियों के निकट पहुँचे और उन्हें इस प्रकार से उपदेश दिया।

37 श्री यमराज ने कहा- ओह! यह कितना आश्चर्यजनक है। ये लोग, जो आयु में मुझसे बड़े हैं उन्हें अच्छी तरह अनुभव है कि सैकड़ों-हजारों जीव जन्म लेते और मरते हैं। इस तरह उन्हें समझना चाहिए कि उन्हें भी मरना है, तो भी वे मोहग्रस्त रहते हैं। बद्धजीव किसी अज्ञात स्थान से आते हैं और मृत्यु के बाद उसी अज्ञात स्थान को लौट जाते हैं। इस नियम का कोई अपवाद नहीं मिलता तो यह जानते हुए भी वे व्यर्थ शोक क्यों करते हैं?

38 यह कितना आश्चर्यजनक है कि इन वयोवृद्ध महिलाओं को इतना भी उच्चतर जीवन-बोध नहीं हैं जितना कि हमको है! निस्सन्देह, हम अत्यन्त भाग्यशाली हैं, क्योंकि यद्यपि हम बालक हैं और अपने माता-पिता के द्वारा जीवन-संघर्ष करने के लिए असुरक्षित छोड़ दिये गए हैं और यद्यपि हम अत्यन्त निर्बल हैं, तो भी हिंस्र पशुओं ने न तो हमें खाया, न विनष्ट किया। इस तरह हमें दृढ़ विश्वास है कि जिस पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने हमें माता के गर्भ में भी सुरक्षा प्रदान की है वे ही सर्वत्र हमारी रक्षा करते रहेंगे।

39 उस बालक ने स्त्रियों को सम्बोधित किया: हे अबलाओं, उस अविनाशी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की इच्छा से सम्पूर्ण जगत का सृजन, पालन और संहार होता है। यह वेदों का निर्णय है। चर तथा अचर से युक्त यह भौतिक सृष्टि उनके खिलौने के समान है। परमेश्वर होने के कारण वे इसको विनष्ट करने तथा इसकी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हैं।

40 कभी-कभी मनुष्य अपना धन सड़क पर खो देता है जहाँ पर सभी उसे देख सकते हैं, फिर भी यह धन भाग्यवश सुरक्षित पड़ा रहता है और इसे कोई नहीं देख पाता। इस तरह जिस व्यक्ति ने इसे खोया था, उसे यह वापस मिल जाता है। दूसरी ओर, यदि भगवान संरक्षण प्रदान नहीं करते तो घर में अत्यन्त सुरक्षित ढंग से रखा होने पर भी यह धन खो जाता है। यदि भगवान किसी की रक्षा करते हैं, तो उसका कोई रक्षक न होते हुए भी तथा जंगल में रहते हुए भी वह जीवित रहता है जबकि घर पर सम्बन्धियों तथा अन्यों से रक्षित होते हुए भी मनुष्य कभी-कभी मर जाता है, कोई उसकी रक्षा नहीं कर पाता।

41 प्रत्येक बद्धजीव अपने कर्म के अनुसार एक भिन्न प्रकार का शरीर पाता है और जब उसका कार्य समाप्त हो जाता है, तो शरीर भी नष्ट हो जाता है। यद्यपि आत्मा विभिन्न योनियों में विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों में स्थित रहता है, किन्तु वह उनसे बँधा नहीं रहता, क्योंकि वह व्यक्त शरीर से सदा-सदा पूर्णतया भिन्न माना जाता है।

42 जिस प्रकार एक गृहस्वामी अपने घर से पृथक होते हुए भी अपने घर को अपने से अभिन्न मानता है उसी प्रकार अज्ञानवश बद्धजीव इस शरीर को आत्मा मान बैठता है, यद्यपि शरीर आत्मा से वास्तव में भिन्न है। यह शरीर पृथ्वी, जल तथा अग्नि के अंशों के संयोग से प्राप्त होता है और जब वे कालक्रम में रूपान्तरित हो जाते हैं, तो शरीर विनष्ट हो जाता है। आत्मा को शरीर के इस सृजन तथा विलय से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता।

43 जिस तरह अग्नि काष्ठ में स्थित रहती है, किन्तु वह काष्ठ से भिन्न समझी जाती है, जिस तरह वायु मुँह तथा नथुनों के भीतर स्थित रहती है, किन्तु उनसे पृथक मानी जाती है और जिस तरह आकाश सर्वत्र व्याप्त होकर भी किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता उसी तरह जीव भी, जो भले ही इस समय भौतिक शरीर में बन्दी है, उस शरीर का स्रोत होते हुए भी उससे पृथक है।

44 यमराज ने आगे कहा: हे शोक करने वालो, तुम सारे के सारे मूर्ख हो। तुम जिस सुयज्ञ नाम के व्यक्ति के लिए शोक कर रहे हो वह तुम्हारे समक्ष अब भी लेटा है। वह कहीं नहीं गया। तो फिर तुम्हारे शोक का क्या कारण है? पहले वह तुम्हारी बातें सुनता था और उत्तर देता था, किन्तु तुम लोग अब उसे न पाकर शोक कर रहे हो। यह विरोधमूलक आचरण है, क्योंकि तुमने वास्तव में उस व्यक्ति को शरीर के भीतर कभी नहीं देखा था, जो तुम्हें सुनता था और उत्तर देता था। तुम्हें शोक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम जिस शरीर को हमेशा देखते आए हो वह तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है।

45 शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु प्राण है, किन्तु वह भी न तो श्रोता है और न वक्ता। यहाँ तक कि प्राण से परे आत्मा भी कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि वास्तविक निदेशक तो परमात्मा हैं, जो जीवात्मा के साथ सहयोग करता है। शरीर की गतिविधियों को संचालित करने वाला परमात्मा शरीर तथा प्राण से भिन्न है।

46 पाँच भौतिक तत्त्व, दस इन्द्रियाँ तथा मन--ये सभी मिलकर स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के विभिन्न अंगों का निर्माण करते हैं। जीव अपने भौतिक शरीरों के सम्पर्क में आता है, चाहे ये उच्च हों या निम्न और बाद में अपनी निजी शक्ति से उन्हें त्याग देता है। यह शक्ति जीव की उस निजी शक्ति में देखी जा सकती है, जिससे वह विभिन्न प्रकार के शरीर धारण कर सकता है।

47 जब तक आत्मा मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार से युक्त सूक्ष्म शरीर द्वारा आवृत्त रहता है तब तक वह अपने सकाम-कर्मों के फल से बँधा रहता है। इस आवरण के कारण आत्मा भौतिक शक्ति से जुड़ा रहता है। अतएव उसे उसी के अनुसार जन्म-जन्मान्तर भौतिक दशाओं एवं उतार-चढ़ावों को भोगना पड़ता है।

48 भौतिक प्रकृति के गुणों तथा उनसे उत्पन्न तथाकथित सुख तथा दुख को वास्तविक रूप से देखना तथा उनके विषय में बाते करना व्यर्थ है। जब दिन में मन विचरता रहता है और मनुष्य अपने को अत्यन्त महत्वपूर्ण समझने लगता है या जब वह रात में सपने देखता है और अपने को किसी सुन्दरी के साथ रमण करते देखता है, तो ये मात्र मिथ्या स्वप्न होते हैं। इसी प्रकार से भौतिक इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न सुखों तथा दुखों को व्यर्थ समझना चाहिए।

49 जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का पूरा-पूरा ज्ञान है, जो यह भलीभाँति जानते हैं कि आत्मा नित्य है किन्तु शरीर नश्वर है, वे शोक द्वारा अभिभूत नहीं होते। किन्तु जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता वे निश्चित ही शोक करते हैं। अतएव मोहग्रस्त व्यक्ति को शिक्षित कर पाना कठिन है।

50 एक बहेलिया था, जो पक्षियों को दानों का लालच देता था और तब एक जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लेता था। वह इस तरह रह रहा था मानो साक्षात मृत्यु ने उसे पक्षियों का बधिक नियुक्त किया हो।

51 जंगल में घूमते हुए उस बहेलिया ने कुलिंग पक्षियों का एक जोड़ा देखा। इन दोनों में से मादा पक्षी बहेलिया के प्रलोभन में आ गई।

52 हे सुयज्ञ की रानियों, नर कुलिंग पक्षी अपनी पत्नी को विधाता के चंगुल में अत्यन्त खतरे में पड़ी देखकर अत्यन्त दुखी हुआ। स्नेहवश बेचारा पक्षी अपनी पत्नी को छुड़ा न सकने के कारण उसके लिए शोक करने लगा।

53 ओह! विधाता कितना क्रूर है। मेरी पत्नी असहाय होने से ही ऐसी विषम स्थिति में है और मेरे लिए विलाप कर रही है। भला विधाता इस बेचारे पक्षी को छीनकर क्या पाएगा? उसे क्या लाभ होगा?

54 यदि विधाता मेरी अर्धांगिनी, मेरी पत्नी, को लिए जा रहा है, तो वह मुझे भी क्यों नहीं ले जाता? आधा शरीर लेकर और अपनी पत्नी की क्षति से सन्तप्त होकर मेरे जीने से क्या लाभ? मुझे इस तरह से क्या मिलेगा?

55 पक्षी के अभागे बच्चे मातृविहीन होकर अपने घोंसले में उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह आए तो उन्हें खिलाए। वे अब भी बहुत छोटे हैं और उनके पंख तक नहीं उगे हैं। मैं उनका किस प्रकार पालन कर सकूँगा?

56 अपनी पत्नी की क्षति के कारण कुलिंग पक्षी आँखों में आँसू भरकर विलाप कर रहा था। तभी काल के आदेशों का पालन करते हुए अत्यन्त सावधानी से दूर छिपे बहेलिये ने अपना तीर छोड़ा जिसने कुलिंग पक्षी को मार डाला।

57 इस प्रकार छोटे बालक के भेष में यमराज ने सभी रानियों को बताया: तुम सब इतनी मूर्ख हो, तुम शोक तो कर रही हो किन्तु अपनी मृत्यु को भी नहीं देख रही हो। अल्प ज्ञान के वशीभूत होकर तुम यह नहीं जानती हो कि यदि तुम सैकड़ों वर्षों तक भी अपने मृत पति के लिए शोक करो तो भी तुम उसे जीवित नहीं कर सकती और तब तक तुम्हारा जीवन समाप्त हो जाएगा।

58 हिरण्यकशिपु ने कहा: जब यमराज इस तरह छोटे से बालक के वेष में सुयज्ञ के मृत शरीर को घेरे हुए समस्त सम्बन्धियों को उपदेश दे रहे थे तो सभी लोग उनके दार्शनिक वचनों को सुनकर आश्चर्यचकित थे। वे समझ सके कि प्रत्येक भौतिक वस्तु नाशवान है, वह सदा विद्यमान नहीं रह सकती।

59 बालक रूप में यमराज सुयज्ञ के सभी मूर्ख सम्बन्धियों को उपदेश देकर उनकी दृष्टि से ओझल हो गए। तब राजा सुयज्ञ के सम्बन्धियों ने अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की।

60 अतएव तुममें से किसी को भी शरीर-क्षति के लिए, चाहे तुम्हारा अपना शरीर हो या अन्यों का हो, शोकसन्तप्त नहीं होना चाहिए। यह तो केवल अज्ञान है, जिससे मनुष्य यह सोचकर शारीरिक भेदभाव बरतता है कि मैं कौन हूँ? अन्य लोग कौन है? क्या मेरा है? क्या उनका है ?

61 श्री नारद ने आगे कहा: हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष की माता दिति ने अपनी पुत्रवधू हिरण्याक्ष की पत्नी रुषाभानु सहित हिरण्यकशिपु के उपदेशों को सुना। तब उसने अपने पुत्र की मृत्यु के शोक को भुला दिया और उसने अपने मन तथा ध्यान को जीवन का असली दर्शन समझने में लगा दिया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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अध्याय एक – समदर्शी भगवान (7.1)

1 राजा परीक्षित ने पूछा: हे ब्राह्मण, भगवान विष्णु सबों के शुभचिन्तक होने के कारण हर एक को समान रूप से अत्यधिक प्रिय हैं, तो फिर उन्होंने किस तरह एक साधारण मनुष्य की भाँति इन्द्र का पक्षपात किया और उसके शत्रुओं का वध किया? सबों के प्रति समभाव रखने वाला व्यक्ति कुछ लोगों की तरह किसी के प्रति पक्षपात करेगा और अन्यों के प्रति शत्रु-भाव रखेगा?

2 भगवान विष्णु साक्षात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तथा समस्त आनन्द के आगार हैं, अतएव उन्हें देवताओं का पक्ष-ग्रहण करने से क्या लाभ मिलेगा? इस प्रकार उनका कौन सा स्वार्थ सिद्ध होगा? जब भगवान दिव्य हैं, तो फिर उन्हें असुरों से भय कैसा? और उनसे ईर्ष्या कैसी ?

3 हे सौभाग्यशाली एवं विद्वान ब्राह्मण, यह अत्यन्त सन्देहास्पद विषय बन गया है कि नारायण पक्षपातपूर्ण हैं या निष्पक्ष हैं? कृपया निश्चित साक्ष्य द्वारा मेरे इस सन्देह को दूर करें कि नारायण सर्वदा पक्षपात रहित तथा सबों के प्रति सम हैं।

4-5 महामुनि शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, आपने मुझसे अतीव श्रेष्ठ प्रश्न किया है। भगवान के कार्यकलापों से सम्बन्धित कथाएँ, जिनमें उनके भक्तों के भी यशों का वर्णन रहता है, भक्तों को अत्यन्त भाने वाली हैं। ऐसी अद्भुत कथाएँ सदैव भौतिकतावादी जीवनशैली के कष्टों का निवारण करने वाली होती हैं। अतएव नारद जैसे मुनि श्रीमदभागवत के विषय में सदैव उपदेश देते रहते हैं, क्योंकि इससे मनुष्य को भगवान के अद्भुत कार्यकलापों के श्रवण तथा कीर्तन की सुविधा प्राप्त होती है। अब मैं श्रील व्यासदेव को सादर प्रणाम करके भगवान हरि के कार्य – कलापों से सम्बन्धित कथाओं का वर्णन प्रारम्भ करता हूँ।

6 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु सदा भौतिक गुणों से परे रहने वाले हैं अतएव वे निर्गुण कहलाते हैं। अजन्मा होने के कारण उनका शरीर राग तथा द्वेष से प्रभावित नहीं होता। यद्यपि भगवान सदैव भौतिक जगत से ऊपर हैं, किन्तु अपनी आध्यात्मिक (परा) शक्ति से वे प्रकट हुए और बद्धजीव की भाँति कर्तव्यों तथा दायित्वों (बाध्यताओं) को बाह्य रूप से स्वीकार करके उन्होंने सामान्य मनुष्य की भाँति कार्य किया।

7 हे राजा परीक्षित, सत्त्व, रज, तम – ये तीनों भौतिक गुण भौतिक जगत से सम्बद्ध हैं, अतः ये पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को छू तक नहीं पाते। ये तीनों गुण एकसाथ बढ़ या घटकर कार्य नहीं कर सकते।

8 जब सतोगुण का प्राधान्य होता है, तो ऋषि तथा देवता उस गुण के बल पर समुन्नति करते हैं जिससे वे परमेश्वर द्वारा प्रोत्साहित एवं प्रेरित किये जाते हैं। इसी प्रकार जब रजोगुण प्रधान होता है, तो असुरगण फूलते-फलते हैं और जब तमोगुण प्रधान होता है, तो यक्ष तथा राक्षस समृद्धि पाते हैं। भगवान प्रत्येक के हृदय में स्थित रहकर सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण के फलों को पुष्ट करते हैं।

9 सर्वव्यापी भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित रहते हैं और एक कुशल चिन्तक ही अनुभव कर सकता है कि वे बृहत या न्यून मात्रा में कैसे वहाँ उपस्थित हैं। जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि, जलपात्र में जल या घड़े के भीतर आकाश को समझा जा सकता है उसी प्रकार जीव की भक्तिमयी क्रियाओं को देखकर यह समझा जा सकता है कि वह जीव असुर है या देवता। विचारवान व्यक्ति किसी मनुष्य के कर्मों को देखकर यह समझ सकता है कि उस मनुष्य पर भगवान की कितनी कृपा है।

10 जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विभिन्न प्रकार के शरीर उत्पन्न करते हैं और प्रत्येक जीव को उसके चरित्र तथा सकाम कर्मों के अनुसार विशिष्ट प्रकार का शरीर प्रदान करते हैं, तो वे प्रकृति के सारे गुणों – सत्त्व गुण, रजोगुण तथा तमोगुण – को पुनरुज्जीवित करते हैं। तब परमात्मा के रूप में वे प्रत्येक शरीर में प्रविष्ट होकर सृजन, पालन तथा संहार के गुणों को प्रभावित करते हैं जिनमें से सतोगुण का उपयोग पालन के लिए, रजोगुण का उपयोग सृजन के लिए तथा तमोगुण का उपयोग संहार के लिए किया जाता है।

11 हे महान राजा, भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के नियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्रष्टा हैं, काल की सृष्टि करते हैं जिससे भौतिक शक्ति तथा जीव काल की सीमा के भीतर परस्पर क्रिया कर सकें। इस प्रकार परम पुरुष न तो कभी काल के अधीन होता है, न ही भौतिक शक्ति (माया) के अधीन होता है।

12 हे राजन यह काल सत्त्वगुण को बढ़ाता है। इस तरह यद्यपि परमेश्वर नियन्ता हैं, किन्तु वे देवताओं पर कृपालु होते हैं, जो अधिकांशतः सतोगुणी होते हैं। तभी तमोगुण से प्रभावित असुरों का विनाश होता है। परमेश्वर काल को विभिन्न प्रकार से कार्य करने के लिए प्रभावित करते हैं, किन्तु वे कभी पक्षपात नहीं करते। उनके कार्यकलाप यशस्वी हैं, अतएव वे उरुश्रवा कहलाते हैं।

13 हे राजन, पूर्वकाल में जब महाराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे थे तो महर्षि नारद ने उनके पूछे जाने पर कुछ ऐतिहासिक तथ्य कह सुनाये जिससे पता चलता है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान असुरों का वध करते समय भी कितने निष्पक्ष रहते हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने एक जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत किया।

14-15 हे राजन, महाराज पाण्डु के पुत्र महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ के समय शिशुपाल को परम भगवान कृष्ण के शरीर में विलीन होते हुए स्वयं देखा। अतएव आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वहीं पर बैठे महर्षि नारद से इसका कारण पूछा। जब उन्होंने यह प्रश्न पूछा तो वहाँ पर उपस्थित सारे ऋषियों ने भी इस प्रश्न को पूछे जाते सुना।

16 महाराज युधिष्ठिर ने पूछा: यह अत्यन्त अद्भुत है कि असुर शिशुपाल अत्यन्त ईर्ष्यालु होते हुए भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के शरीर में लीन हो गया। यह सायुज्य मुक्ति बड़े-बड़े अध्यात्मवादियों के लिए भी दुर्लभ है, तो फिर भगवान के शत्रु को यह कैसे प्राप्त हुई ?

17 हे महामुनि, हम सभी भगवान की इस कृपा का कारण जानने के लिए उत्सुक हैं। मैंने सुना है कि प्राचीन काल में वेन नामक राजा ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की निन्दा की। फलस्वरूप सारे ब्राह्मणों ने उसे बाध्य किया कि वह नरक में जाये। शिशुपाल को भी नरक जाना चाहिए था। तो फिर वह भगवान के शरीर में किस तरह लीन हो गया?

18 अपने बाल्यकाल के प्रारम्भ से ही, जब वह ठीक से बोल भी नहीं पाता था, दमघोष के महापापी पुत्र शिशुपाल ने भगवान की निन्दा करनी प्रारम्भ कर दी थी और वह मृत्यु काल तक श्रीकृष्ण से ईर्ष्या करता रहा। इसी प्रकार उसका भाई दन्तवक्र भी ऐसी आदतें पाले रहा।

19 यद्यपि शिशुपाल तथा दन्तवक्र दोनों ही परम ब्रह्म, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु (कृष्ण) की बारम्बार निन्दा करते रहे तो भी वे पूर्ण स्वस्थ रहे। न तो उनकी जीभों में ही श्वेत कुष्ठ रोग हुआ, न वे नारकीय जीवन के गहन अंधकार में प्रविष्ट हुए। हम सचमुच इससे अत्यधिक चकित हैं।

20 यह कैसे सम्भव हो पाया कि शिशुपाल तथा दन्तवक्र अनेक महापुरुषों के देखते-देखते ही उन कृष्ण के शरीर में सरलता से प्रविष्ट हो सके, जिन भगवान की प्रकृति को प्राप्त कर पाना कठिन है?

21 यह विषय निस्सन्देह अत्यन्त अद्भुत है। मेरी बुद्धि उसी तरह डगमगा रही है, जिस तरह बहती हुई वायु से दीपक की लौ विचलित हो जाती है। हे नारद मुनि, आप तो सब कुछ जानते हैं। कृपा करके मुझे इस अद्भुत घटना का कारण बतलाएँ।

22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महाराज युधिष्ठिर की विनती सुनकर अत्यन्त शक्तिशाली गुरु नारद मुनि अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि वे हर बात को जानने वाले हैं। इस तरह उन्होंने यज्ञ में भाग ले रहे सभी व्यक्तियों के समक्ष उत्तर दिया।

23 महर्षि नारद ने कहा: हे राजन! निन्दा तथा स्तुति, अपमान तथा सम्मान का अनुभव अज्ञान के कारण होता है। बद्धजीव का शरीर भगवान द्वारा अपनी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से इस जगत में कष्ट भोगने के लिए बनाया गया है।

24 हे राजन, देहात्म-बुद्धि के कारण बद्धजीव अपने शरीर को ही आत्मा मान लेता है और अपने शरीर से सम्बद्ध हर वस्तु को अपनी मानता है। चूँकि उसे जीवन की यह मिथ्या धारणा रहती है, अतएव उसे प्रशंसा तथा अपमान जैसे द्वन्द्वों को भोगना पड़ता है।

25 देहात्म-बुद्धि के कारण बद्धजीव सोचता है कि जब शरीर नष्ट हो जाता है, तो जीव भी नष्ट हो जाता है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु ही परम नियन्ता तथा समस्त जीवों के परमात्मा हैं। चूँकि उनका कोई भौतिक शरीर नहीं होता अतएव उनमें "मैं तथा मेरा" जैसी भ्रान्त धारणा नहीं होती। अतएव यह सोचना सही नहीं है कि जब उनकी निन्दा की जाती है या उनकी स्तुति की जाती है, तो वे पीड़ा या हर्ष का अनुभव करते हैं। ऐसा कर पाना उनके लिए असम्भव है। इस प्रकार उनका न कोई शत्रु है और न कोई मित्र। जब वे असुरों को दण्ड देते हैं, तो उनकी भलाई के लिए ऐसा करते हैं और जब भक्तों की स्तुतियाँ स्वीकार करते हैं, तो वह उनके कल्याण के लिए होता है। वे न तो स्तुतियों से प्रभावित होते हैं न निन्दा से।

26 अतएव यदि कोई बद्धजीव किसी भी तरह शत्रुता या भक्ति, भय, स्नेह या विषय वासना द्वारा – इनमें से सभी या किसी एक के द्वारा – अपने मन को भगवान पर एकाग्र करता है, तो फल एक जैसा मिलता है, क्योंकि अपनी आनन्दमयी स्थिति के कारण भगवान कभी भी शत्रुता या मित्रता द्वारा प्रभावित नहीं होते।

27 नारद मुनि ने आगे बताया- मनुष्य को भक्ति द्वारा भगवान के विचार में ऐसी गहन तल्लीनता प्राप्त नहीं हो सकती जितनी कि उनके प्रति शत्रुता के माध्यम से। ऐसा मेरा विचार है।

28-29 एक मधुमक्खी (भृंगी) द्वारा दीवाल के छेद में बन्दी बनाया गया एक कीड़ा सदैव भय तथा शत्रुता के कारण उस मधुमक्खी के विषय में सोचता रहता है और बाद में मात्र चिन्तन से स्वयं मधुमक्खी बन जाता है। इसी प्रकार यदि सारे बद्धजीव किसी तरह सच्चिदानन्द विग्रह श्रीकृष्ण का चिन्तन करें, तो वे पापों से मुक्त हो जाएँगे। वे भगवान को चाहे पूज्य रूप में मानें या शत्रु के रूप में, निरन्तर उनका चिन्तन करते रहने से उन सबों को आध्यात्मिक शरीर की पुनःप्राप्ति हो जाएगी।

30 अनेकानेक व्यक्तियों ने अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक सहज भाव से कृष्ण का चिन्तन करके तथा पापपूर्ण कर्मों का त्याग करके मुक्ति प्राप्त की है। यह एकाग्रता कामवासनाओं, शत्रुतापूर्ण भावनाओं, भय, स्नेह या भक्ति के कारण हो सकता है। अब मैं यह बतलाऊँगा कि किस प्रकार से मनुष्य भगवान में अपने मन को एकाग्र करके कृष्ण की कृपा प्राप्त करता है।

31 हे राजा युधिष्ठिर, गोपियाँ अपनी विषयवासना से, कंस भय से, शिशुपाल तथा अन्य राजा ईर्ष्या से, यदुगण कृष्ण के साथ पारिवारिक सम्बन्धों से, तुम सब पाण्डव कृष्ण के प्रति अपार स्नेह से तथा हम सारे सामान्य भक्त अपनी भक्ति से कृष्ण की कृपा को प्राप्त कर सके हैं।

32 मनुष्य को किसी न किसी प्रकार से कृष्ण के स्वरूप पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। तब ऊपर बताई गई पाँच विधियों में से किसी एक के द्वारा वह भगवदधाम वापस जा सकता है। लेकिन राजा वेन जैसे नास्तिक इन पाँचों विधियों में से किसी एक के द्वारा कृष्ण के स्वरूप का चिन्तन करने में असमर्थ होने से मोक्ष नहीं पा सकते। अतएव मनुष्य को चाहिए कि जैसे भी हो, चाहे मित्र बनकर या शत्रु बनकर, वह भगवान का चिन्तन करे।

33 नारदमुनि ने आगे कहा: हे पाण्डवश्रेष्ठ, तुम्हारी मौसी के दोनों पुत्र- तुम्हारे चचेरे भाई शिशुपाल तथा दन्तवक्र पहले भगवान के पार्षद थे, लेकिन ब्राह्मणों के शाप से वे वैकुण्ठ लोक से इस भौतिक जगत में आ गिरे।

34 महाराज युधिष्ठिर ने पूछा: किस प्रकार के महान शाप ने मुक्त विष्णु-भक्तों को भी प्रभावित किया और किस तरह का व्यक्ति भगवान के पार्षदों को शाप दे सका? भगवान के अनन्य भक्तों के लिए इस भौतिक जगत में फिर से आ गिरना असम्भव है। मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता।

35 वैकुण्ठवासियों के शरीर पूर्णतया आध्यात्मिक होते हैं, उनको भौतिक शरीर से, इन्द्रियों या प्राण वायु से कुछ लेना-देना नहीं रहता। अतएव कृपा करके बताइये कि किस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के पार्षदों को सामान्य व्यक्तियों की तरह भौतिक शरीर में अवतरित होने का शाप दिया गया?

36 महान सन्त नारद ने कहा- एक बार ब्रह्मा के चारों पुत्र जिनके नाम सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार हैं, तीनों लोकों का विचरण करते हुए, संयोगवश विष्णुलोक में आये।

37 यद्यपि ये चारों महर्षि मरीचि इत्यादि ब्रह्मा के अन्य पुत्रों की अपेक्षा बड़े थे, किन्तु वे पाँच या छह वर्ष के छोटे-छोटे नग्न बालकों जैसे प्रतीत हो रहे थे।

38 जय तथा विजय नामक इन द्वारपालों ने जब उन्हें वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने का प्रयास करते देखा तो सामान्य बच्चे समझ कर उन्हें प्रवेश करने से मना कर दिया। जय तथा विजय नामक द्वारपालों द्वारा इस प्रकार रोके जाने पर सनन्दन तथा अन्य मुनियों ने क्रोधपूर्वक उन्हें शाप दे दिया। उन्होंने कहा - अरे दोनों मूर्ख द्वारपालों, तुम रजो तथा तमोगुणों से उद्वेलित होने के कारण मधु-द्विष (मधु असुर का नाश करनेवाले) के चरणकमलों की शरण में रहने के अयोग्य हो, क्योंकि वे ऐसे गुणों से रहित हैं। तुम्हारे लिए श्रेयस्कर होगा कि तुरन्त ही भौतिक जगत में जाओ और अत्यन्त पापी असुरों के परिवार में जन्म ग्रहण करो।

39 मुनियों द्वारा इस प्रकार शापित होकर जब जय तथा विजय भौतिक जगत में गिर रहे थे तो उन मुनियों ने उन पर दया करते हुए इस प्रकार सम्बोधित किया, “हे द्वारपालों, तुम तीन जन्मों के बाद वैकुण्ठलोक में अपने-अपने पदों पर लौट सकोगे, क्योंकि तब शाप की अवधि समाप्त हो चुकी होगी।"

40 भगवान के ये दोनों पार्षद, जय तथा विजय, बाद में दिति के दो पुत्रों के रूप में जन्म लेकर इस भौतिक जगत में अवतरित हुए। इनमें से हिरण्यकशिपु बड़ा और हिरण्याक्ष छोटा था। सारे दैत्यों तथा दानवों (आसुरी योनियाँ) द्वारा दोनों का अत्यधिक सम्मान किया जाता था।

41 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री हरि ने नृसिंह देव के रूप में प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का वध किया। जब भगवान गर्भोदक सागर में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे तो हिरण्याक्ष ने उन्हें रोकने का प्रयत्न किया और बाद में भगवान ने वराह के रूप में हिरण्याक्ष का वध कर दिया।

42 हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को, जो भगवान विष्णु का महान भक्त था, मारने के लिए नाना प्रकार के त्रास दिये।

43 समस्त जीवों के परमात्मा भगवान गम्भीर, शान्त तथा समदर्शी हैं। चूँकि महान भक्त प्रहलाद भगवान की शक्ति द्वारा संरक्षित था, अतएव नाना प्रकार के यत्न करने पर भी हिरण्यकशिपु उसे मारने में असमर्थ रहा।

44 तत्पश्चात भगवान विष्णु के ये दोनों द्वारपाल जय तथा विजय रावण तथा कुम्भकर्ण के रूप में विश्रवा द्वारा केशिनी के गर्भ से उत्पन्न हुए। ये दोनों ब्रह्माण्ड के समस्त लोगों के लिए अत्यधिक कष्टकारी थे।

45 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, जय तथा विजय को ब्राह्मणों के शाप से मुक्त करने के लिए रावण तथा कुम्भकर्ण का वध करने के लिए भगवान रामचन्द्र प्रकट हुए। अच्छा होगा कि तुम भगवान रामचन्द्र के कार्यकलापों के विषय में मार्कण्डेय से सुनो।

46 तीसरे जन्म में वही जय तथा विजय क्षत्रियों के कुल में तुम्हारी मौसी के पुत्रों के रूप में तुम्हारे मौसरे भाई बने हैं। चूँकि भगवान कृष्ण ने उनका वध अपने चक्र से किया है, अतएव उनके सारे पाप नष्ट हो चुके हैं और अब वे शाप से मुक्त हैं।

47 भगवान विष्णु के ये दोनों पार्षद, जय तथा विजय, दीर्घकाल तक शत्रुता का भाव बनाये रहे। इस प्रकार कृष्ण के विषय में सदैव चिन्तन करते रहने से भगवदधाम जाने पर उन्हें पुनः भगवान की शरण प्राप्त हो गई।

48 महाराज युधिष्ठिर ने पूछा: हे नारद मुनि, हिरण्यकशिपु तथा उसके प्रिय पुत्र प्रह्लाद महाराज के बीच ऐसी शत्रुता क्यों थी? प्रह्लाद महाराज भगवान कृष्ण के इतने बड़े भक्त कैसे बने? कृपया यह मुझे बतलायें ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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