समदर्शी भगवान (7.1)

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अध्याय एक – समदर्शी भगवान (7.1)

1 राजा परीक्षित ने पूछा: हे ब्राह्मण, भगवान विष्णु सबों के शुभचिन्तक होने के कारण हर एक को समान रूप से अत्यधिक प्रिय हैं, तो फिर उन्होंने किस तरह एक साधारण मनुष्य की भाँति इन्द्र का पक्षपात किया और उसके शत्रुओं का वध किया? सबों के प्रति समभाव रखने वाला व्यक्ति कुछ लोगों की तरह किसी के प्रति पक्षपात करेगा और अन्यों के प्रति शत्रु-भाव रखेगा?

2 भगवान विष्णु साक्षात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तथा समस्त आनन्द के आगार हैं, अतएव उन्हें देवताओं का पक्ष-ग्रहण करने से क्या लाभ मिलेगा? इस प्रकार उनका कौन सा स्वार्थ सिद्ध होगा? जब भगवान दिव्य हैं, तो फिर उन्हें असुरों से भय कैसा? और उनसे ईर्ष्या कैसी ?

3 हे सौभाग्यशाली एवं विद्वान ब्राह्मण, यह अत्यन्त सन्देहास्पद विषय बन गया है कि नारायण पक्षपातपूर्ण हैं या निष्पक्ष हैं? कृपया निश्चित साक्ष्य द्वारा मेरे इस सन्देह को दूर करें कि नारायण सर्वदा पक्षपात रहित तथा सबों के प्रति सम हैं।

4-5 महामुनि शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, आपने मुझसे अतीव श्रेष्ठ प्रश्न किया है। भगवान के कार्यकलापों से सम्बन्धित कथाएँ, जिनमें उनके भक्तों के भी यशों का वर्णन रहता है, भक्तों को अत्यन्त भाने वाली हैं। ऐसी अद्भुत कथाएँ सदैव भौतिकतावादी जीवनशैली के कष्टों का निवारण करने वाली होती हैं। अतएव नारद जैसे मुनि श्रीमदभागवत के विषय में सदैव उपदेश देते रहते हैं, क्योंकि इससे मनुष्य को भगवान के अद्भुत कार्यकलापों के श्रवण तथा कीर्तन की सुविधा प्राप्त होती है। अब मैं श्रील व्यासदेव को सादर प्रणाम करके भगवान हरि के कार्य – कलापों से सम्बन्धित कथाओं का वर्णन प्रारम्भ करता हूँ।

6 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु सदा भौतिक गुणों से परे रहने वाले हैं अतएव वे निर्गुण कहलाते हैं। अजन्मा होने के कारण उनका शरीर राग तथा द्वेष से प्रभावित नहीं होता। यद्यपि भगवान सदैव भौतिक जगत से ऊपर हैं, किन्तु अपनी आध्यात्मिक (परा) शक्ति से वे प्रकट हुए और बद्धजीव की भाँति कर्तव्यों तथा दायित्वों (बाध्यताओं) को बाह्य रूप से स्वीकार करके उन्होंने सामान्य मनुष्य की भाँति कार्य किया।

7 हे राजा परीक्षित, सत्त्व, रज, तम – ये तीनों भौतिक गुण भौतिक जगत से सम्बद्ध हैं, अतः ये पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को छू तक नहीं पाते। ये तीनों गुण एकसाथ बढ़ या घटकर कार्य नहीं कर सकते।

8 जब सतोगुण का प्राधान्य होता है, तो ऋषि तथा देवता उस गुण के बल पर समुन्नति करते हैं जिससे वे परमेश्वर द्वारा प्रोत्साहित एवं प्रेरित किये जाते हैं। इसी प्रकार जब रजोगुण प्रधान होता है, तो असुरगण फूलते-फलते हैं और जब तमोगुण प्रधान होता है, तो यक्ष तथा राक्षस समृद्धि पाते हैं। भगवान प्रत्येक के हृदय में स्थित रहकर सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण के फलों को पुष्ट करते हैं।

9 सर्वव्यापी भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित रहते हैं और एक कुशल चिन्तक ही अनुभव कर सकता है कि वे बृहत या न्यून मात्रा में कैसे वहाँ उपस्थित हैं। जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि, जलपात्र में जल या घड़े के भीतर आकाश को समझा जा सकता है उसी प्रकार जीव की भक्तिमयी क्रियाओं को देखकर यह समझा जा सकता है कि वह जीव असुर है या देवता। विचारवान व्यक्ति किसी मनुष्य के कर्मों को देखकर यह समझ सकता है कि उस मनुष्य पर भगवान की कितनी कृपा है।

10 जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विभिन्न प्रकार के शरीर उत्पन्न करते हैं और प्रत्येक जीव को उसके चरित्र तथा सकाम कर्मों के अनुसार विशिष्ट प्रकार का शरीर प्रदान करते हैं, तो वे प्रकृति के सारे गुणों – सत्त्व गुण, रजोगुण तथा तमोगुण – को पुनरुज्जीवित करते हैं। तब परमात्मा के रूप में वे प्रत्येक शरीर में प्रविष्ट होकर सृजन, पालन तथा संहार के गुणों को प्रभावित करते हैं जिनमें से सतोगुण का उपयोग पालन के लिए, रजोगुण का उपयोग सृजन के लिए तथा तमोगुण का उपयोग संहार के लिए किया जाता है।

11 हे महान राजा, भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के नियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्रष्टा हैं, काल की सृष्टि करते हैं जिससे भौतिक शक्ति तथा जीव काल की सीमा के भीतर परस्पर क्रिया कर सकें। इस प्रकार परम पुरुष न तो कभी काल के अधीन होता है, न ही भौतिक शक्ति (माया) के अधीन होता है।

12 हे राजन यह काल सत्त्वगुण को बढ़ाता है। इस तरह यद्यपि परमेश्वर नियन्ता हैं, किन्तु वे देवताओं पर कृपालु होते हैं, जो अधिकांशतः सतोगुणी होते हैं। तभी तमोगुण से प्रभावित असुरों का विनाश होता है। परमेश्वर काल को विभिन्न प्रकार से कार्य करने के लिए प्रभावित करते हैं, किन्तु वे कभी पक्षपात नहीं करते। उनके कार्यकलाप यशस्वी हैं, अतएव वे उरुश्रवा कहलाते हैं।

13 हे राजन, पूर्वकाल में जब महाराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे थे तो महर्षि नारद ने उनके पूछे जाने पर कुछ ऐतिहासिक तथ्य कह सुनाये जिससे पता चलता है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान असुरों का वध करते समय भी कितने निष्पक्ष रहते हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने एक जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत किया।

14-15 हे राजन, महाराज पाण्डु के पुत्र महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ के समय शिशुपाल को परम भगवान कृष्ण के शरीर में विलीन होते हुए स्वयं देखा। अतएव आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वहीं पर बैठे महर्षि नारद से इसका कारण पूछा। जब उन्होंने यह प्रश्न पूछा तो वहाँ पर उपस्थित सारे ऋषियों ने भी इस प्रश्न को पूछे जाते सुना।

16 महाराज युधिष्ठिर ने पूछा: यह अत्यन्त अद्भुत है कि असुर शिशुपाल अत्यन्त ईर्ष्यालु होते हुए भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के शरीर में लीन हो गया। यह सायुज्य मुक्ति बड़े-बड़े अध्यात्मवादियों के लिए भी दुर्लभ है, तो फिर भगवान के शत्रु को यह कैसे प्राप्त हुई ?

17 हे महामुनि, हम सभी भगवान की इस कृपा का कारण जानने के लिए उत्सुक हैं। मैंने सुना है कि प्राचीन काल में वेन नामक राजा ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की निन्दा की। फलस्वरूप सारे ब्राह्मणों ने उसे बाध्य किया कि वह नरक में जाये। शिशुपाल को भी नरक जाना चाहिए था। तो फिर वह भगवान के शरीर में किस तरह लीन हो गया?

18 अपने बाल्यकाल के प्रारम्भ से ही, जब वह ठीक से बोल भी नहीं पाता था, दमघोष के महापापी पुत्र शिशुपाल ने भगवान की निन्दा करनी प्रारम्भ कर दी थी और वह मृत्यु काल तक श्रीकृष्ण से ईर्ष्या करता रहा। इसी प्रकार उसका भाई दन्तवक्र भी ऐसी आदतें पाले रहा।

19 यद्यपि शिशुपाल तथा दन्तवक्र दोनों ही परम ब्रह्म, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु (कृष्ण) की बारम्बार निन्दा करते रहे तो भी वे पूर्ण स्वस्थ रहे। न तो उनकी जीभों में ही श्वेत कुष्ठ रोग हुआ, न वे नारकीय जीवन के गहन अंधकार में प्रविष्ट हुए। हम सचमुच इससे अत्यधिक चकित हैं।

20 यह कैसे सम्भव हो पाया कि शिशुपाल तथा दन्तवक्र अनेक महापुरुषों के देखते-देखते ही उन कृष्ण के शरीर में सरलता से प्रविष्ट हो सके, जिन भगवान की प्रकृति को प्राप्त कर पाना कठिन है?

21 यह विषय निस्सन्देह अत्यन्त अद्भुत है। मेरी बुद्धि उसी तरह डगमगा रही है, जिस तरह बहती हुई वायु से दीपक की लौ विचलित हो जाती है। हे नारद मुनि, आप तो सब कुछ जानते हैं। कृपा करके मुझे इस अद्भुत घटना का कारण बतलाएँ।

22 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महाराज युधिष्ठिर की विनती सुनकर अत्यन्त शक्तिशाली गुरु नारद मुनि अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि वे हर बात को जानने वाले हैं। इस तरह उन्होंने यज्ञ में भाग ले रहे सभी व्यक्तियों के समक्ष उत्तर दिया।

23 महर्षि नारद ने कहा: हे राजन! निन्दा तथा स्तुति, अपमान तथा सम्मान का अनुभव अज्ञान के कारण होता है। बद्धजीव का शरीर भगवान द्वारा अपनी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से इस जगत में कष्ट भोगने के लिए बनाया गया है।

24 हे राजन, देहात्म-बुद्धि के कारण बद्धजीव अपने शरीर को ही आत्मा मान लेता है और अपने शरीर से सम्बद्ध हर वस्तु को अपनी मानता है। चूँकि उसे जीवन की यह मिथ्या धारणा रहती है, अतएव उसे प्रशंसा तथा अपमान जैसे द्वन्द्वों को भोगना पड़ता है।

25 देहात्म-बुद्धि के कारण बद्धजीव सोचता है कि जब शरीर नष्ट हो जाता है, तो जीव भी नष्ट हो जाता है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु ही परम नियन्ता तथा समस्त जीवों के परमात्मा हैं। चूँकि उनका कोई भौतिक शरीर नहीं होता अतएव उनमें "मैं तथा मेरा" जैसी भ्रान्त धारणा नहीं होती। अतएव यह सोचना सही नहीं है कि जब उनकी निन्दा की जाती है या उनकी स्तुति की जाती है, तो वे पीड़ा या हर्ष का अनुभव करते हैं। ऐसा कर पाना उनके लिए असम्भव है। इस प्रकार उनका न कोई शत्रु है और न कोई मित्र। जब वे असुरों को दण्ड देते हैं, तो उनकी भलाई के लिए ऐसा करते हैं और जब भक्तों की स्तुतियाँ स्वीकार करते हैं, तो वह उनके कल्याण के लिए होता है। वे न तो स्तुतियों से प्रभावित होते हैं न निन्दा से।

26 अतएव यदि कोई बद्धजीव किसी भी तरह शत्रुता या भक्ति, भय, स्नेह या विषय वासना द्वारा – इनमें से सभी या किसी एक के द्वारा – अपने मन को भगवान पर एकाग्र करता है, तो फल एक जैसा मिलता है, क्योंकि अपनी आनन्दमयी स्थिति के कारण भगवान कभी भी शत्रुता या मित्रता द्वारा प्रभावित नहीं होते।

27 नारद मुनि ने आगे बताया- मनुष्य को भक्ति द्वारा भगवान के विचार में ऐसी गहन तल्लीनता प्राप्त नहीं हो सकती जितनी कि उनके प्रति शत्रुता के माध्यम से। ऐसा मेरा विचार है।

28-29 एक मधुमक्खी (भृंगी) द्वारा दीवाल के छेद में बन्दी बनाया गया एक कीड़ा सदैव भय तथा शत्रुता के कारण उस मधुमक्खी के विषय में सोचता रहता है और बाद में मात्र चिन्तन से स्वयं मधुमक्खी बन जाता है। इसी प्रकार यदि सारे बद्धजीव किसी तरह सच्चिदानन्द विग्रह श्रीकृष्ण का चिन्तन करें, तो वे पापों से मुक्त हो जाएँगे। वे भगवान को चाहे पूज्य रूप में मानें या शत्रु के रूप में, निरन्तर उनका चिन्तन करते रहने से उन सबों को आध्यात्मिक शरीर की पुनःप्राप्ति हो जाएगी।

30 अनेकानेक व्यक्तियों ने अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक सहज भाव से कृष्ण का चिन्तन करके तथा पापपूर्ण कर्मों का त्याग करके मुक्ति प्राप्त की है। यह एकाग्रता कामवासनाओं, शत्रुतापूर्ण भावनाओं, भय, स्नेह या भक्ति के कारण हो सकता है। अब मैं यह बतलाऊँगा कि किस प्रकार से मनुष्य भगवान में अपने मन को एकाग्र करके कृष्ण की कृपा प्राप्त करता है।

31 हे राजा युधिष्ठिर, गोपियाँ अपनी विषयवासना से, कंस भय से, शिशुपाल तथा अन्य राजा ईर्ष्या से, यदुगण कृष्ण के साथ पारिवारिक सम्बन्धों से, तुम सब पाण्डव कृष्ण के प्रति अपार स्नेह से तथा हम सारे सामान्य भक्त अपनी भक्ति से कृष्ण की कृपा को प्राप्त कर सके हैं।

32 मनुष्य को किसी न किसी प्रकार से कृष्ण के स्वरूप पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। तब ऊपर बताई गई पाँच विधियों में से किसी एक के द्वारा वह भगवदधाम वापस जा सकता है। लेकिन राजा वेन जैसे नास्तिक इन पाँचों विधियों में से किसी एक के द्वारा कृष्ण के स्वरूप का चिन्तन करने में असमर्थ होने से मोक्ष नहीं पा सकते। अतएव मनुष्य को चाहिए कि जैसे भी हो, चाहे मित्र बनकर या शत्रु बनकर, वह भगवान का चिन्तन करे।

33 नारदमुनि ने आगे कहा: हे पाण्डवश्रेष्ठ, तुम्हारी मौसी के दोनों पुत्र- तुम्हारे चचेरे भाई शिशुपाल तथा दन्तवक्र पहले भगवान के पार्षद थे, लेकिन ब्राह्मणों के शाप से वे वैकुण्ठ लोक से इस भौतिक जगत में आ गिरे।

34 महाराज युधिष्ठिर ने पूछा: किस प्रकार के महान शाप ने मुक्त विष्णु-भक्तों को भी प्रभावित किया और किस तरह का व्यक्ति भगवान के पार्षदों को शाप दे सका? भगवान के अनन्य भक्तों के लिए इस भौतिक जगत में फिर से आ गिरना असम्भव है। मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता।

35 वैकुण्ठवासियों के शरीर पूर्णतया आध्यात्मिक होते हैं, उनको भौतिक शरीर से, इन्द्रियों या प्राण वायु से कुछ लेना-देना नहीं रहता। अतएव कृपा करके बताइये कि किस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के पार्षदों को सामान्य व्यक्तियों की तरह भौतिक शरीर में अवतरित होने का शाप दिया गया?

36 महान सन्त नारद ने कहा- एक बार ब्रह्मा के चारों पुत्र जिनके नाम सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार हैं, तीनों लोकों का विचरण करते हुए, संयोगवश विष्णुलोक में आये।

37 यद्यपि ये चारों महर्षि मरीचि इत्यादि ब्रह्मा के अन्य पुत्रों की अपेक्षा बड़े थे, किन्तु वे पाँच या छह वर्ष के छोटे-छोटे नग्न बालकों जैसे प्रतीत हो रहे थे।

38 जय तथा विजय नामक इन द्वारपालों ने जब उन्हें वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने का प्रयास करते देखा तो सामान्य बच्चे समझ कर उन्हें प्रवेश करने से मना कर दिया। जय तथा विजय नामक द्वारपालों द्वारा इस प्रकार रोके जाने पर सनन्दन तथा अन्य मुनियों ने क्रोधपूर्वक उन्हें शाप दे दिया। उन्होंने कहा - अरे दोनों मूर्ख द्वारपालों, तुम रजो तथा तमोगुणों से उद्वेलित होने के कारण मधु-द्विष (मधु असुर का नाश करनेवाले) के चरणकमलों की शरण में रहने के अयोग्य हो, क्योंकि वे ऐसे गुणों से रहित हैं। तुम्हारे लिए श्रेयस्कर होगा कि तुरन्त ही भौतिक जगत में जाओ और अत्यन्त पापी असुरों के परिवार में जन्म ग्रहण करो।

39 मुनियों द्वारा इस प्रकार शापित होकर जब जय तथा विजय भौतिक जगत में गिर रहे थे तो उन मुनियों ने उन पर दया करते हुए इस प्रकार सम्बोधित किया, “हे द्वारपालों, तुम तीन जन्मों के बाद वैकुण्ठलोक में अपने-अपने पदों पर लौट सकोगे, क्योंकि तब शाप की अवधि समाप्त हो चुकी होगी।"

40 भगवान के ये दोनों पार्षद, जय तथा विजय, बाद में दिति के दो पुत्रों के रूप में जन्म लेकर इस भौतिक जगत में अवतरित हुए। इनमें से हिरण्यकशिपु बड़ा और हिरण्याक्ष छोटा था। सारे दैत्यों तथा दानवों (आसुरी योनियाँ) द्वारा दोनों का अत्यधिक सम्मान किया जाता था।

41 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री हरि ने नृसिंह देव के रूप में प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का वध किया। जब भगवान गर्भोदक सागर में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे तो हिरण्याक्ष ने उन्हें रोकने का प्रयत्न किया और बाद में भगवान ने वराह के रूप में हिरण्याक्ष का वध कर दिया।

42 हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को, जो भगवान विष्णु का महान भक्त था, मारने के लिए नाना प्रकार के त्रास दिये।

43 समस्त जीवों के परमात्मा भगवान गम्भीर, शान्त तथा समदर्शी हैं। चूँकि महान भक्त प्रहलाद भगवान की शक्ति द्वारा संरक्षित था, अतएव नाना प्रकार के यत्न करने पर भी हिरण्यकशिपु उसे मारने में असमर्थ रहा।

44 तत्पश्चात भगवान विष्णु के ये दोनों द्वारपाल जय तथा विजय रावण तथा कुम्भकर्ण के रूप में विश्रवा द्वारा केशिनी के गर्भ से उत्पन्न हुए। ये दोनों ब्रह्माण्ड के समस्त लोगों के लिए अत्यधिक कष्टकारी थे।

45 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजन, जय तथा विजय को ब्राह्मणों के शाप से मुक्त करने के लिए रावण तथा कुम्भकर्ण का वध करने के लिए भगवान रामचन्द्र प्रकट हुए। अच्छा होगा कि तुम भगवान रामचन्द्र के कार्यकलापों के विषय में मार्कण्डेय से सुनो।

46 तीसरे जन्म में वही जय तथा विजय क्षत्रियों के कुल में तुम्हारी मौसी के पुत्रों के रूप में तुम्हारे मौसरे भाई बने हैं। चूँकि भगवान कृष्ण ने उनका वध अपने चक्र से किया है, अतएव उनके सारे पाप नष्ट हो चुके हैं और अब वे शाप से मुक्त हैं।

47 भगवान विष्णु के ये दोनों पार्षद, जय तथा विजय, दीर्घकाल तक शत्रुता का भाव बनाये रहे। इस प्रकार कृष्ण के विषय में सदैव चिन्तन करते रहने से भगवदधाम जाने पर उन्हें पुनः भगवान की शरण प्राप्त हो गई।

48 महाराज युधिष्ठिर ने पूछा: हे नारद मुनि, हिरण्यकशिपु तथा उसके प्रिय पुत्र प्रह्लाद महाराज के बीच ऐसी शत्रुता क्यों थी? प्रह्लाद महाराज भगवान कृष्ण के इतने बड़े भक्त कैसे बने? कृपया यह मुझे बतलायें ।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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