अध्याय दो – असुरराज हिरण्यकशिपु (7.2)
1 श्री नारद मुनि ने कहा: हे राजा युधिष्ठिर, जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तो हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकशिपु अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और विलाप करने लगा।
2 क्रोध से भरकर तथा अपने होंठ काटते हुए हिरण्यकशिपु ने क्रोध से जलती हुई आँखों से आकाश को देखा तो वह सारा आकाश धूमिल हो गया। वह इस प्रकार बोलने लगा।
3 अपने भयानक दाँत, उग्र दृष्टि तथा रोषपूर्ण भौंहों के दिखाते हुए, देखने में भयानक उसने अपना त्रिशूल धारण किया और एकत्र हुए अपने असुर संगियों से इस प्रकार कहा।
4-5 अरे दानवों और दैत्यों, अरे द्विमूर्ध, त्र्यक्ष, शम्बर तथा शतबाहु, अरे हयग्रीव, नमुचि, पाक तथा इल्वल, अरे विप्रचित्ति, पुलोमन, शकुन तथा अन्य असुरों, तुम सब जरा मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुनो और तब अविलम्ब मेरे वचनों के अनुसार कार्य करो।
6 मेरे तुच्छ शत्रु देवता मेरे अत्यधिक प्रिय तथा आज्ञाकारी शुभेच्छु भ्राता हिरण्याक्ष को मारने के लिए एक हो गए हैं। यद्यपि परमेश्वर विष्णु हम दोनों के लिए अर्थात देवताओं तथा असुरों के लिए सदैव समान हैं किन्तु इस बार देवताओं द्वारा अत्यधिक पूजित होने से उन्होंने उनका पक्ष लिया और हिरण्याक्ष को मारने में उनकी सहायता की।
7-8 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने असुरों तथा देवताओं के प्रति समानता की अपनी सहज प्रवृत्ति त्याग दी है। यद्यपि वे परम पुरुष हैं, किन्तु अब माया के वशीभूत होकर उन्होंने अपने भक्तों अर्थात देवताओं को प्रसन्न करने के लिए वराह का रूप धारण किया है, जिस तरह एक बेचैन बालक किसी की ओर उन्मुख हो जाये। अतएव मैं अपने त्रिशूल से भगवान विष्णु के सिर को उनके धड़ से अलग कर दूँगा और उनके शरीर से निकले प्रचुर रक्त से अपने भाई हिरण्याक्ष को प्रसन्न करूँगा, इस प्रकार मैं भी शान्त हो सकूँगा।
9 जब वृक्ष की जड़ काट दी जाती है, तो वह गिर पड़ता है और उसकी टहनियाँ एवं पत्तियाँ स्वतः सूख जाती हैं। उसी तरह जब मैं इस मायावी विष्णु को मार डालूँगा तो सारे देवता जिनके लिए भगवान विष्णु प्राण तथा आत्मा हैं, अपना जीवन-स्रोत खो देंगे और मुरझा जाएँगे।
10 जब तक मैं भगवान विष्णु के मारने के कार्य में लगा हूँ, तब तक तुम लोग पृथ्वीलोक में जाओ जो ब्राह्मण संस्कृति तथा क्षत्रिय शासन के कारण फल-फूल रहा है। ये लोग तपस्या, यज्ञ, वैदिक अध्ययन, आनुष्ठानिक व्रत तथा दान में लगे रहते हैं। ऐसे सारे लोगों को विनष्ट कर दो।
11 ब्राह्मण संस्कृति का मूल सिद्धान्त यज्ञों तथा अनुष्ठानों के साक्षात स्वरूप भगवान विष्णु को प्रसन्न करना है। भगवान विष्णु समस्त धार्मिक सिद्धान्तों के साक्षात आगार हैं और वे समस्त देवताओं, महान पितरों तथा जन-सामान्य के आश्रय हैं। यदि ब्राह्मणों का वध कर दिया जाये तो क्षत्रियों को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित करने वाला कोई नहीं रहेगा और इस तरह सारे देवता यज्ञों द्वारा तुष्ट न किये जाने पर स्वतः मर जायेंगे।
12 जहाँ कहीं भी गौवों तथा ब्राह्मणों को सुरक्षा प्राप्त है तथा जहाँ-जहाँ वर्णाश्रम नियमों के अनुसार वेदों का अध्ययन होता है, वहाँ-वहाँ तुरन्त जाओ। तुम लोग उन स्थानों में अग्नि लगा दो और जीवन के स्रोत वृक्षों को जड़ से काट कर गिरा दो।
13 इस तरह जघन्य कर्मों के लिए लालायित असुरों ने हिरण्यकशिपु की आज्ञा को अत्यन्त आदरपूर्वक लिया और उसे नमस्कार किया। उसके निर्देशानुसार वे सारे जीवों के विरुद्ध ईर्ष्यापूर्ण कृत्यों में जुट गये।
14 असुरों ने नगरों, गाँवों, चारागाहों, उद्यानों, खेतों तथा जंगलों में आग लगा दी। उन्होंने साधु पुरुषो के घरों, मूल्यवान धातु उत्पन्न करने वाली महत्त्वपूर्ण खानों, कृषकों के आवासों, पर्वतीय ग्रामों, ग्वालों की बस्तियों को जला दिया। उन्होंने सरकारी राजधानियाँ भी जला दीं।
15 कुछ असुरों ने फावड़े लेकर पुल, परकोटे तथा नगरों के द्वारों (गोपुरों) को तोड़ डाला। कुछ ने कुल्हाड़े लेकर आम, कटहल के महत्त्वपूर्ण वृक्षों तथा अन्य भोज्य सामग्री वाले वृक्षों को काट डाला। कुछ असुरों ने हाथ में जलती मशालें लेकर नागरिकों के आवासों में आग लगा दी।
16 इस प्रकार हिरण्यकशिपु के अनुयायियों द्वारा बारम्बार अप्राकृतिक घटनाओं के रूप में सताये जाने पर सभी लोगों ने बाध्य होकर वैदिक संस्कृति की सारी गतिविधियाँ बन्द कर दीं। देवतागण भी यज्ञों का फल न पाने के कारण विचलित हो उठे। उन्होंने स्वर्गलोक के अपने-अपने आवास त्याग दिये और असुरों से अदृश्य होकर विनाश का अवलोकन करने के लिए वे पृथ्वीलोक में इधर-उधर विचरण करने लगे।
17 अपने भाई की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न कर लेने के बाद हिरण्यकशिपु ने अत्यन्त दुखित होकर अपने भतीजों को सान्त्वना प्रदान करने का प्रयास किया।
18-19 हे राजन, हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रुद्ध था, किन्तु महान राजनीतिज्ञ होने के कारण वह देश तथा काल के अनुसार कर्म करना जानता था। अतएव वह अपने भतीजों को मृदु वचनों से सान्त्वना देने लगा। इनके नाम थे शकुनि, शम्बर, ध्रुष्टि, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु तथा उत्कच। उसने उनकी माता अर्थात अपनी अनुजवधू रुषाभानु एवं अपनी माता दिति को भी ढाढ़स बँधाया। वह उनसे इस प्रकार बोला।
20 हिरण्यकशिपु ने कहा: हे माता, हे वधू तथा हे भतीजो, तुम लोगों को महान वीर की मृत्यु के लिए शोक नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपने शत्रु के समक्ष वीर की मृत्यु अत्यन्त यशस्वी तथा वांछनीय होती है।
21 हे माता, किसी भोजनालय या प्याऊ में अनेक राहगीर पास-पास आते हैं, किन्तु जल पीने के बाद अपने-अपने गन्तव्यों को चले जाते हैं। इसी प्रकार जीव भी किसी परिवार में आकर मिलते हैं किन्तु बाद में अपने-अपने कर्मों के अनुसार वे अपने-अपने गन्तव्यों को चले जाते हैं।
22 आत्मा या जीव की मृत्यु नहीं होती, क्योंकि वह नित्य तथा अव्यय है। भौतिक कल्मष से मुक्त होने के कारण वह भौतिक या आध्यात्मिक जगतों में कहीं भी जा सकता है। वह भौतिक शरीर से पूरी तरह सजग तथा उससे सर्वथा भिन्न है, किन्तु अपनी किंचित स्वतंत्रता के दुरुपयोग के कारण उसे भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर धारण करने होते हैं और इस तरह उसे तथाकथित भौतिक सुख तथा दुख सहने पड़ते हैं। अतएव किसी भी मनुष्य को शरीर में से आत्मा के निकलने पर शोक नहीं करना चाहिए।
23 जल की गति के कारण नदी के तटवर्ती वृक्ष जल में प्रतिबिम्बित होकर गति करते हुए प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार जब आँखें किसी मानसिक असंतुलन के कारण चलती रहती है, तो धरती (स्थल) भी घूमती प्रतीत होती है।
24 इसी तरह हे मेरी भद्र माता, जब प्रकृति के गुणों की गति द्वारा यह मन विचलित होता (भटकता) है तब जीव, चाहे वह कितना ही सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों की विभिन्न अवस्थाओं से मुक्त क्यों न हो, यही सोचता है कि वह एक स्थिति से दूसरी में परिवर्तित हो गया है।
25-26 मोहावस्था में जीव अपने शरीर तथा मन को आत्मा स्वीकार करके कुछ व्यक्तियों को अपना सगा-सम्बन्धी और अन्यों को बाहरी लोग मानने लगता है। इस भ्रांति के कारण उसे कष्ट भोगना पड़ता है। निस्सन्देह, ऐसे मनोकल्पित भौतिक विचारों का संचय ही सांसारिक दुख और तथाकथित सुख का कारण बनता है। इस प्रकार स्थित होकर बद्धजीव को विभिन्न योनियों में जन्म लेना होता है और विभिन्न चेतनाओं में कर्म करना पड़ता है, जिससे नवीन शरीरों की उत्पत्ति होती है। यह सतत भौतिक जीवन संसार कहलाता है। जन्म, मृत्यु, शोक, मूर्खता तथा चिन्ता – ये सब भौतिक विचारों के कारण होते हैं। इस तरह हम कभी उचित ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो कभी जीवन की भ्रान्त धारणा के पुनः शिकार बनते हैं।
27 इस प्रसंग में प्राचीन इतिहास से एक उदाहरण दिया गया है। इसमें यमराज तथा मृत व्यक्ति के मित्रों के मध्य की वार्ता निहित है। कृपया इसे ध्यानपूर्वक सुनिये।
28 उशीनर नामक राज्य में सुयज्ञ नाम का एक विख्यात राजा था। जब यह राजा युद्ध में शत्रुओं द्वारा मार डाला गया तो उसके सम्बन्धी मृत शरीर को घेरकर बैठ गये और उस मित्र की मृत्यु पर शोक प्रकट करने लगे।
29-31 वध किया हुआ राजा युद्धस्थल में गिर पड़ा था। उसका सुनहला रत्नजड़ित कवच छिन्न-भिन्न हो गया था, आभूषण तथा वस्त्र अपने स्थान से विलग हो चुके थे, बाल बिखर गये थे और आँखें कान्तिहीन हो चुकी थीं, सारा शरीर रक्त से सना था और हृदय शत्रु के बाणों से बिधा था। मरते-मरते उसने शौर्य दिखाना चाहा अतः उसके होंठ दाँतों में भिचे हुए थे। उसका कमल सदृश सुन्दर मुख अब काला पड़ गया था और युद्धभूमि की धूल से सना था। उसकी भुजाएँ कटकर टूट चुकी थी। जब उशीनर के राजा की रानियों ने अपने पति को इस स्थिति में पड़े देखा तो वे रोने लगीं---”हे नाथ, तुम्हारे मारे जाने से हम भी मृत सदृश हो चुकी हैं।" ऐसे वचन बोल कर वे अपनी छाती पीटते हुए मृत राजा के चरणों पर गिर पड़ीं।
32 रानियों के जोर जोर से विलाप करने पर उनके आँसू वक्षस्थल पर लुढ़क आये थे, केश बिखर गये, आभूषण गिर गये और अन्यों के हृदय से सहानुभूति प्राप्त रानियाँ अपने पति की मृत्यु पर विलाप करने लगीं।
33 हे नाथ, अब आप क्रूर विधाता द्वारा हमारी दृष्टि से ओझल कर लिये गये हैं। इसके पूर्व आप उशीनर के निवासियों को जीविका प्रदान करते थे जिससे वे सुखी थे, किन्तु अब आपकी दशा उनके दुख का कारण बनी है।
34 हे राजन, हे वीर, आप कृतज्ञ पति थे और हमारे अत्यन्त निष्ठावान मित्र थे। आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी? हे वीर, आप जहाँ भी जा रहे हैं, कृपा करके हमारा निर्देशन करें जिससे हम आपके पदचिन्हों का अनुसरण कर सकें और पुनः आपकी सेवा कर सकें। हमें भी अपने साथ ले चलें।
35 यद्यपि शव-दाह के लिए समय उपयुक्त था लेकिन रानियाँ शव को अपनी गोद में लिए हुए विलाप करती रहीं और उन्होंने शव को ले जाने की अनुमति नहीं दी। तभी सूर्य पश्चिम दिशा में अस्त हो गया।
36 जब रानियाँ राजा के मृत शरीर के लिए विलाप कर रही थीं तो उनका जोर-जोर का विलाप यमलोक तक में सुनाई पड़ रहा था। अतएव बालक का रूप धारण करके यमराज मृतक के सम्बन्धियों के निकट पहुँचे और उन्हें इस प्रकार से उपदेश दिया।
37 श्री यमराज ने कहा- ओह! यह कितना आश्चर्यजनक है। ये लोग, जो आयु में मुझसे बड़े हैं उन्हें अच्छी तरह अनुभव है कि सैकड़ों-हजारों जीव जन्म लेते और मरते हैं। इस तरह उन्हें समझना चाहिए कि उन्हें भी मरना है, तो भी वे मोहग्रस्त रहते हैं। बद्धजीव किसी अज्ञात स्थान से आते हैं और मृत्यु के बाद उसी अज्ञात स्थान को लौट जाते हैं। इस नियम का कोई अपवाद नहीं मिलता तो यह जानते हुए भी वे व्यर्थ शोक क्यों करते हैं?
38 यह कितना आश्चर्यजनक है कि इन वयोवृद्ध महिलाओं को इतना भी उच्चतर जीवन-बोध नहीं हैं जितना कि हमको है! निस्सन्देह, हम अत्यन्त भाग्यशाली हैं, क्योंकि यद्यपि हम बालक हैं और अपने माता-पिता के द्वारा जीवन-संघर्ष करने के लिए असुरक्षित छोड़ दिये गए हैं और यद्यपि हम अत्यन्त निर्बल हैं, तो भी हिंस्र पशुओं ने न तो हमें खाया, न विनष्ट किया। इस तरह हमें दृढ़ विश्वास है कि जिस पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने हमें माता के गर्भ में भी सुरक्षा प्रदान की है वे ही सर्वत्र हमारी रक्षा करते रहेंगे।
39 उस बालक ने स्त्रियों को सम्बोधित किया: हे अबलाओं, उस अविनाशी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की इच्छा से सम्पूर्ण जगत का सृजन, पालन और संहार होता है। यह वेदों का निर्णय है। चर तथा अचर से युक्त यह भौतिक सृष्टि उनके खिलौने के समान है। परमेश्वर होने के कारण वे इसको विनष्ट करने तथा इसकी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हैं।
40 कभी-कभी मनुष्य अपना धन सड़क पर खो देता है जहाँ पर सभी उसे देख सकते हैं, फिर भी यह धन भाग्यवश सुरक्षित पड़ा रहता है और इसे कोई नहीं देख पाता। इस तरह जिस व्यक्ति ने इसे खोया था, उसे यह वापस मिल जाता है। दूसरी ओर, यदि भगवान संरक्षण प्रदान नहीं करते तो घर में अत्यन्त सुरक्षित ढंग से रखा होने पर भी यह धन खो जाता है। यदि भगवान किसी की रक्षा करते हैं, तो उसका कोई रक्षक न होते हुए भी तथा जंगल में रहते हुए भी वह जीवित रहता है जबकि घर पर सम्बन्धियों तथा अन्यों से रक्षित होते हुए भी मनुष्य कभी-कभी मर जाता है, कोई उसकी रक्षा नहीं कर पाता।
41 प्रत्येक बद्धजीव अपने कर्म के अनुसार एक भिन्न प्रकार का शरीर पाता है और जब उसका कार्य समाप्त हो जाता है, तो शरीर भी नष्ट हो जाता है। यद्यपि आत्मा विभिन्न योनियों में विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों में स्थित रहता है, किन्तु वह उनसे बँधा नहीं रहता, क्योंकि वह व्यक्त शरीर से सदा-सदा पूर्णतया भिन्न माना जाता है।
42 जिस प्रकार एक गृहस्वामी अपने घर से पृथक होते हुए भी अपने घर को अपने से अभिन्न मानता है उसी प्रकार अज्ञानवश बद्धजीव इस शरीर को आत्मा मान बैठता है, यद्यपि शरीर आत्मा से वास्तव में भिन्न है। यह शरीर पृथ्वी, जल तथा अग्नि के अंशों के संयोग से प्राप्त होता है और जब वे कालक्रम में रूपान्तरित हो जाते हैं, तो शरीर विनष्ट हो जाता है। आत्मा को शरीर के इस सृजन तथा विलय से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता।
43 जिस तरह अग्नि काष्ठ में स्थित रहती है, किन्तु वह काष्ठ से भिन्न समझी जाती है, जिस तरह वायु मुँह तथा नथुनों के भीतर स्थित रहती है, किन्तु उनसे पृथक मानी जाती है और जिस तरह आकाश सर्वत्र व्याप्त होकर भी किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता उसी तरह जीव भी, जो भले ही इस समय भौतिक शरीर में बन्दी है, उस शरीर का स्रोत होते हुए भी उससे पृथक है।
44 यमराज ने आगे कहा: हे शोक करने वालो, तुम सारे के सारे मूर्ख हो। तुम जिस सुयज्ञ नाम के व्यक्ति के लिए शोक कर रहे हो वह तुम्हारे समक्ष अब भी लेटा है। वह कहीं नहीं गया। तो फिर तुम्हारे शोक का क्या कारण है? पहले वह तुम्हारी बातें सुनता था और उत्तर देता था, किन्तु तुम लोग अब उसे न पाकर शोक कर रहे हो। यह विरोधमूलक आचरण है, क्योंकि तुमने वास्तव में उस व्यक्ति को शरीर के भीतर कभी नहीं देखा था, जो तुम्हें सुनता था और उत्तर देता था। तुम्हें शोक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम जिस शरीर को हमेशा देखते आए हो वह तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है।
45 शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु प्राण है, किन्तु वह भी न तो श्रोता है और न वक्ता। यहाँ तक कि प्राण से परे आत्मा भी कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि वास्तविक निदेशक तो परमात्मा हैं, जो जीवात्मा के साथ सहयोग करता है। शरीर की गतिविधियों को संचालित करने वाला परमात्मा शरीर तथा प्राण से भिन्न है।
46 पाँच भौतिक तत्त्व, दस इन्द्रियाँ तथा मन--ये सभी मिलकर स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के विभिन्न अंगों का निर्माण करते हैं। जीव अपने भौतिक शरीरों के सम्पर्क में आता है, चाहे ये उच्च हों या निम्न और बाद में अपनी निजी शक्ति से उन्हें त्याग देता है। यह शक्ति जीव की उस निजी शक्ति में देखी जा सकती है, जिससे वह विभिन्न प्रकार के शरीर धारण कर सकता है।
47 जब तक आत्मा मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार से युक्त सूक्ष्म शरीर द्वारा आवृत्त रहता है तब तक वह अपने सकाम-कर्मों के फल से बँधा रहता है। इस आवरण के कारण आत्मा भौतिक शक्ति से जुड़ा रहता है। अतएव उसे उसी के अनुसार जन्म-जन्मान्तर भौतिक दशाओं एवं उतार-चढ़ावों को भोगना पड़ता है।
48 भौतिक प्रकृति के गुणों तथा उनसे उत्पन्न तथाकथित सुख तथा दुख को वास्तविक रूप से देखना तथा उनके विषय में बाते करना व्यर्थ है। जब दिन में मन विचरता रहता है और मनुष्य अपने को अत्यन्त महत्वपूर्ण समझने लगता है या जब वह रात में सपने देखता है और अपने को किसी सुन्दरी के साथ रमण करते देखता है, तो ये मात्र मिथ्या स्वप्न होते हैं। इसी प्रकार से भौतिक इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न सुखों तथा दुखों को व्यर्थ समझना चाहिए।
49 जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का पूरा-पूरा ज्ञान है, जो यह भलीभाँति जानते हैं कि आत्मा नित्य है किन्तु शरीर नश्वर है, वे शोक द्वारा अभिभूत नहीं होते। किन्तु जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता वे निश्चित ही शोक करते हैं। अतएव मोहग्रस्त व्यक्ति को शिक्षित कर पाना कठिन है।
50 एक बहेलिया था, जो पक्षियों को दानों का लालच देता था और तब एक जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लेता था। वह इस तरह रह रहा था मानो साक्षात मृत्यु ने उसे पक्षियों का बधिक नियुक्त किया हो।
51 जंगल में घूमते हुए उस बहेलिया ने कुलिंग पक्षियों का एक जोड़ा देखा। इन दोनों में से मादा पक्षी बहेलिया के प्रलोभन में आ गई।
52 हे सुयज्ञ की रानियों, नर कुलिंग पक्षी अपनी पत्नी को विधाता के चंगुल में अत्यन्त खतरे में पड़ी देखकर अत्यन्त दुखी हुआ। स्नेहवश बेचारा पक्षी अपनी पत्नी को छुड़ा न सकने के कारण उसके लिए शोक करने लगा।
53 ओह! विधाता कितना क्रूर है। मेरी पत्नी असहाय होने से ही ऐसी विषम स्थिति में है और मेरे लिए विलाप कर रही है। भला विधाता इस बेचारे पक्षी को छीनकर क्या पाएगा? उसे क्या लाभ होगा?
54 यदि विधाता मेरी अर्धांगिनी, मेरी पत्नी, को लिए जा रहा है, तो वह मुझे भी क्यों नहीं ले जाता? आधा शरीर लेकर और अपनी पत्नी की क्षति से सन्तप्त होकर मेरे जीने से क्या लाभ? मुझे इस तरह से क्या मिलेगा?
55 पक्षी के अभागे बच्चे मातृविहीन होकर अपने घोंसले में उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह आए तो उन्हें खिलाए। वे अब भी बहुत छोटे हैं और उनके पंख तक नहीं उगे हैं। मैं उनका किस प्रकार पालन कर सकूँगा?
56 अपनी पत्नी की क्षति के कारण कुलिंग पक्षी आँखों में आँसू भरकर विलाप कर रहा था। तभी काल के आदेशों का पालन करते हुए अत्यन्त सावधानी से दूर छिपे बहेलिये ने अपना तीर छोड़ा जिसने कुलिंग पक्षी को मार डाला।
57 इस प्रकार छोटे बालक के भेष में यमराज ने सभी रानियों को बताया: तुम सब इतनी मूर्ख हो, तुम शोक तो कर रही हो किन्तु अपनी मृत्यु को भी नहीं देख रही हो। अल्प ज्ञान के वशीभूत होकर तुम यह नहीं जानती हो कि यदि तुम सैकड़ों वर्षों तक भी अपने मृत पति के लिए शोक करो तो भी तुम उसे जीवित नहीं कर सकती और तब तक तुम्हारा जीवन समाप्त हो जाएगा।
58 हिरण्यकशिपु ने कहा: जब यमराज इस तरह छोटे से बालक के वेष में सुयज्ञ के मृत शरीर को घेरे हुए समस्त सम्बन्धियों को उपदेश दे रहे थे तो सभी लोग उनके दार्शनिक वचनों को सुनकर आश्चर्यचकित थे। वे समझ सके कि प्रत्येक भौतिक वस्तु नाशवान है, वह सदा विद्यमान नहीं रह सकती।
59 बालक रूप में यमराज सुयज्ञ के सभी मूर्ख सम्बन्धियों को उपदेश देकर उनकी दृष्टि से ओझल हो गए। तब राजा सुयज्ञ के सम्बन्धियों ने अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की।
60 अतएव तुममें से किसी को भी शरीर-क्षति के लिए, चाहे तुम्हारा अपना शरीर हो या अन्यों का हो, शोकसन्तप्त नहीं होना चाहिए। यह तो केवल अज्ञान है, जिससे मनुष्य यह सोचकर शारीरिक भेदभाव बरतता है कि मैं कौन हूँ? अन्य लोग कौन है? क्या मेरा है? क्या उनका है ?
61 श्री नारद ने आगे कहा: हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष की माता दिति ने अपनी पुत्रवधू हिरण्याक्ष की पत्नी रुषाभानु सहित हिरण्यकशिपु के उपदेशों को सुना। तब उसने अपने पुत्र की मृत्यु के शोक को भुला दिया और उसने अपने मन तथा ध्यान को जीवन का असली दर्शन समझने में लगा दिया।
( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )
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हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏