10882136067?profile=RESIZE_584x

अध्याय दस – भक्त शिरोमणि प्रह्लाद (7.10)

1 नारद मुनि ने आगे कहा: यद्यपि प्रह्लाद महाराज बालक थे किन्तु जब उन्होंने नृसिंहदेव द्वारा दिये गये वरों को सुना तो उन्होंने इन्हें भक्ति के मार्ग में अवरोध समझा। तब वे विनीत भाव से मुसकाये और इस तरह बोले।

2 प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा: हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, नास्तिक परिवार में जन्म लेने के कारण मैं स्वभावतः भौतिक भोग के प्रति अनुरक्त हूँ; अतएव आप मुझे इन मोहों से मत ललचाइये। मैं भौतिक दशाओं से अत्यधिक भयभीत हूँ और भौतिकतावादी जीवन से मुक्त होने का इच्छुक हूँ। यही कारण है कि मैंने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है।

3 हे मेरे आराध्य देव, चूँकि हर एक के हृदय में भौतिक संसार के मूल कारण कामेच्छाओं का बीज रहता है, अतएव आपने मुझे इस भौतिक जगत में शुद्ध भक्त के लक्षण प्रकट करने के लिए भेजा है।

4 अन्यथा हे भगवान, हे समस्त जगत के परम शिक्षक, आप अपने इस भक्त के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उससे कुछ भी ऐसा करने को प्रेरित नहीं किया जो उसके लिए अलाभकारी हो। दूसरी ओर, जो व्यक्ति आपकी भक्ति के बदले में कुछ भौतिक लाभ चाहता है, वह आपका शुद्ध भक्त नहीं हो सकता। वह उस व्यापारी की तरह ही है, जो सेवा के बदले में लाभ चाहता है।

5 सेवक जो अपने स्वामी से भौतिक लाभ की इच्छा रखता है, वह निश्चय ही योग्य सेवक या शुद्ध भक्त नहीं है। इसी प्रकार जो स्वामी अपने सेवक को इसलिए आशीष देता है कि स्वामी के रूप में उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे, वह भी शुद्ध स्वामी नहीं है।

6 हे प्रभु, मैं आपका निःस्वार्थ सेवक हूँ और आप मेरे नित्य स्वामी हैं। सेवक तथा स्वामी होने के अतिरिक्त हमें कुछ भी नहीं चाहिए। आप स्वाभाविक मेरे स्वामी हैं और मैं स्वभावतः आपका सेवक हूँ। हम दोनों में कोई अन्य सम्बन्ध नहीं है।

7 हे सर्वश्रेष्ठ वरदाता स्वामी, यदि आप मुझे कोई वांछित वर देना ही चाहते हैं, तो मेरी आपसे प्रार्थना है कि मेरे हृदय में किसी प्रकार की भौतिक इच्छाएँ न रहें।

8 हे भगवन, जन्मकाल से ही कामेच्छाओं के कारण मनुष्य की इन्द्रियों के कार्य, मन, जीवन, शरीर, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, ऐश्वर्य, बल, स्मृति तथा सत्यनिष्ठा समाप्त हो जाते हैं।

9 हे प्रभु, जब मनुष्य अपने मन से सारी भौतिक इच्छाएँ निकालने में सक्षम हो जाता है, तो वह आपके ही समान सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य का पात्र बन जाता है।

10 हे षडऐश्वर्यवान प्रभु, हे परम पुरुष, हे परमात्मा, हे समस्त दुखों के विनाशक, हे अद्भुत नृसिंह रूप में परम पुरुष, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

11 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे प्रिय प्रह्लाद, तुम जैसा भक्त न तो इस जीवन में, न ही अगले जीवन में किसी प्रकार के भौतिक ऐश्वर्य की कामना करता है। तो भी मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम इस मन्वन्तर तक असुरों के राजा के रूप में इस भौतिक जगत में उनके ऐश्वर्य का भोग करो।

12 भले ही तुम इस भौतिक जगत में ही क्यों न रहो, लेकिन तुम्हें निरन्तर मेरे उपदेशों तथा वचनों को सुनना चाहिए और मेरे ही विचार में लीन रहना चाहिए, क्योंकि मैं हर एक के हृदय में परमात्मा रूप में निवास करता हूँ। अतएव तुम सकाम कर्मों का परित्याग करके मेरी पूजा करो।

13 हे प्रह्लाद, इस भौतिक जगत में रहते हुए तुम सुख का अनुभव करके अपने पुण्यकर्म से सारे फलों को समाप्त कर सकोगे और पुण्यकर्म करके पापकर्मों को विनष्ट कर दोगे। शक्तिशाली काल के कारण तुम अपना शरीर-त्याग करोगे, किन्तु तुम्हारे कार्यों की ख्याति का गुणगान उच्च लोकों तक में होगा। तुम बन्धनों से मुक्त होकर भगवदधाम को लौट सकोगे।

14 जो व्यक्ति तुम्हारे तथा मेरे कार्यों का सदैव स्मरण करता है और तुम्हारे द्वारा की गई प्रार्थनाओं का कीर्तन करता है, वह कालान्तर में भौतिक कर्म-फलों से मुक्त हो जाता है।

15-17 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे परमेश्वर, चूँकि आप पतितात्माओं पर इतने दयालु हैं अतएव मैं आपसे एक ही वर माँगता हूँ। मैं जानता हूँ कि आपने मेरे पिता की मृत्यु के समय अपनी कृपादृष्टि डालकर उन्हें पवित्र बना दिया था, किन्तु वे आपकी शक्ति तथा श्रेष्ठता से अनजान होने के कारण आप पर मिथ्या ही यह सोचकर क्रुद्ध थे कि आप उनके भाई को मारने वाले हैं। इस तरह उन्होंने समस्त जीवों के गुरु आपकी प्रत्यक्ष निन्दा की थी और आपके भक्त अर्थात मेरे ऊपर जघन्य पातक (पापपूर्ण-कर्म) किये थे। मेरी इच्छा है कि उन्हें इन पापों के लिए क्षमा कर दिया जाये।

18 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा: हे प्रिय प्रह्लाद, हे परम पवित्र, साधु पुरुष, तुम्हारे पिता तुम्हारे परिवार के इक्कीस पुरखों सहित पवित्र कर दिये गये हैं। चूँकि तुम इस परिवार में उत्पन्न हुए थे, अतएव सारा कुल पवित्र हो गया।

19 जब कभी और जहाँ कहीं भी सदाचारी तथा सद्गुणसम्पन्न, शान्त एवं समदर्शी भक्त होते हैं वह देश तथा परिवार भले ही गर्हित ही क्यों न हो, पवित्र हो जाते हैं।

20 हे दैत्यराज प्रह्लाद, मेरी भक्ति में अनुरक्त रहने के कारण मेरा भक्त उच्च तथा निम्न जीवों में भेदभाव नहीं बरतता। किसी भी प्रकार से वह किसी से ईर्ष्या नहीं करता।

21 जो तुम्हारे आदर्शों का अनुसरण करेंगे वे स्वभावतः मेरे शुद्ध भक्त हो जाएँगे। तुम मेरे भक्त का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हो और अन्य लोगों को तुम्हारे पदचिन्हों का अनुसरण करना चाहिए।

22 मेरे बालक, तुम्हारा पिता अपनी मृत्यु के समय मेरे शरीर के स्पर्श मात्र से पहले ही पवित्र हो चुका है। तो भी पुत्र का कर्तव्य है कि वह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात श्राद्ध-क्रिया सम्पन्न करे जिससे उसका पिता ऐसे लोक को जा सके जहाँ वह अच्छा नागरिक तथा भक्त बन सके।

23 अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न करने के बाद तुम अपने पिता के साम्राज्य का भार सँभालों। तुम सिंहासन पर बैठो और भौतिक कार्यकलापों से तनिक भी विचलित मत होओ। तुम अपना मन मुझ पर स्थिर रखो। तुम शिष्टाचार के रूप में वेदों के आदेशों का उल्लंघन किये बिना अपना विहित कार्य कर सकते हो।

24 श्री नारदमुनि ने आगे कहा: इस प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की आज्ञानुसार प्रह्लाद महाराज ने अपने पिता की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की। हे राजा युधिष्ठिर, तब उसे हिरण्यकशिपु के राजसिंहासन पर ब्राह्मणों के निर्देशानुसार पदारूढ़ किया गया।

25 अन्य देवताओं से घिरे ब्रह्माजी का मुखमण्डल चमक रहा था क्योंकि भगवान प्रसन्न थे। अतएव उन्होंने दिव्य शब्दों से भगवान की स्तुति की।

26 ब्रह्माजी ने कहा: हे देवताओं के परम स्वामी, हे समग्र ब्रह्माण्ड के अध्यक्ष, हे समस्त जीवों के वरदाता, हे आदि पुरुष, यह हमारा सौभाग्य है कि आपने इस पापी असुर को मार डाला जो समग्र ब्रह्माण्ड को दुख देने वाला था।

27 इस असुर हिरण्यकशिपु ने मुझसे यह वरदान प्राप्त किया था कि वह मेरी सृष्टि में किसी जीव के द्वारा मारा नहीं जाएगा। इस आश्वासन के कारण तथा तपस्या और योग से प्राप्त बल द्वारा वह अत्यन्त गर्वित हो उठा और समस्त वैदिक आदेशों का उल्लंघन करने लगा।

28 सौभाग्य से हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद अब मृत्यु से बचा लिया गया है और यद्यपि वह अभी बालक है, किन्तु हे महाभागवत, अब वह पूर्णतया आपके चरणकमलों की शरण में है।

29 हे ईश्वर, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवन! आप परमात्मा हैं। यदि कोई आपके दिव्य शरीर का ध्यान करता है, तो आप सभी प्रकार के भय से, यहाँ तक कि आसन्न मृत्यु-भय से भी, उसकी रक्षा करते हैं।

30 भगवान ने उत्तर दिया: हे ब्रह्मा, हे कमल पुष्प से उत्पन्न महान प्रभु जिस प्रकार साँप को दूध पिलाना घातक होता है उसी तरह असुरों को वर प्रदान करना घातक होता है, क्योंकि वे क्रूर तथा ईर्ष्यालु प्रकृति के होते हैं। मैं तुम्हें सचेत करता हूँ कि तुम फिर से कभी किसी असुर को ऐसा वर प्रदान मत करना।

31 नारद मुनि ने आगे कहा: हे राजा युधिष्ठिर, ब्रह्मा को उपदेश देते हुए सामान्य व्यक्ति को न दिखने वाले भगवान इस तरह बोले। तब ब्रह्मा द्वारा पूजित होकर भगवान उस स्थान से अन्तर्धान हो गये।

32 तब प्रह्लाद महाराज ने भगवान के अंश रूप समस्त देवताओं की यथा ब्रह्मा, शिव तथा प्रजापतियों की पूजा और स्तुति की।

33 तत्पश्चात शुक्राचार्य तथा अन्य बड़े-बड़े सन्त पुरुषों सहित कमलासीन ब्रह्माजी ने प्रह्लाद को ब्रह्माण्ड के सारे असुरों तथा दानवों का राजा बना दिया।

34 हे राजा युधिष्ठिर, प्रह्लाद महाराज द्वारा भलीभाँति पूजित होकर ब्रह्मा आदि सारे देवताओं ने उन्हें आशीर्वाद दिये और फिर अपने-अपने धामों को वापस चले गये।

35 इस प्रकार भगवान विष्णु के दोनों पार्षद, जो दिति के पुत्र हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु बने थे, मार डाले गये। भ्रमवश उन्होंने सोचा था कि हर एक के हृदय में निवास करनेवाले परमेश्वर उनके शत्रु हैं।

36 ब्राह्मणों द्वारा शापित होने से इन दोनों पार्षदों ने कुम्भकर्ण तथा दसानन रावण के रूप में फिर से जन्म लिया। ये दोनों राक्षस भगवान रामचन्द्र के अतुलित पराक्रम द्वारा मारे गये।

37 भगवान रामचन्द्र के बाणों से बिधकर कुम्भकर्ण तथा रावण दोनों ही युद्धभूमि में पड़े रहे और भगवान के विचार में लीन होकर उसी तरह अपने अपने शरीर छोड़ दिये जिस तरह अपने पूर्वजन्म में हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु के रूप में किया था।

38 उन्होंने फिर से मानव समाज में शिशुपाल तथा दन्तवक्र के रूप में जन्म लिया और भगवान से वैसा ही वैर-भाव बनाये रखा। ये वही थे, जो तुम्हारे समक्ष भगवान के शरीर में लीन हो गये।

39 न केवल शिशुपाल तथा दन्तवक्र, अपितु अन्य अनेकानेक राजा जो कृष्ण के शत्रु बने हुए थे अपनी मृत्यु के समय मोक्ष को प्राप्त हुए। चूँकि वे भगवान के विषय में सोचते थे, अतः उन्हें भगवान जैसा आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त हुआ जिस तरह भृंगी (black drone) द्वारा पकड़ा गया कीड़ा भृंगी का शरीर प्राप्त कर लेता है।

40 शुद्ध भक्त जो भक्ति के द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं, वे उन्हीं जैसा शरीर प्राप्त करते हैं। यह सारूप्य मुक्ति कहलाती है। यद्यपि शिशुपाल, दन्तवक्र तथा अन्य राजा कृष्ण का अपने शत्रु के रूप में चिन्तन करते थे, किन्तु उन्हें भी वैसा ही फल प्राप्त हुआ।

41 तुमने मुझसे पूछा था कि किस तरह शिशुपाल तथा अन्यों ने भगवान का शत्रु होते हुए भी मोक्ष प्राप्त किया सो वह सब कुछ मैंने तुम्हें बतला दिया है।

42 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण सम्बन्धी इस कथा में भगवान के विभिन्न अवतारों का वर्णन किया गया। साथ ही इसमें हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु नामक दो असुरों के वध का भी वर्णन किया गया है।

43-44 यह कथा महाभागवत प्रह्लाद महाराज के गुणों, उनकी दृढ़ भक्ति, उनके परिपूर्ण ज्ञान तथा भौतिक कल्मष से पूर्ण विरक्ति का बखान करती है। यह सृजन, पालन तथा संहार के कारणस्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का भी वर्णन करती है। प्रह्लाद महाराज ने अपनी स्तुतियों में भगवान के दिव्य गुणों के साथ ही यह भी बतलाया कि किस तरह देवताओं तथा असुरों के आवास भगवान के निर्देश मात्र से ध्वस्त हो जाते हैं चाहे वे भौतिक ऐश्वर्य से कितने ही भरे-पुरे क्यों न हो।

45 धर्म के जिन सिद्धान्तों से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को वास्तव में समझा जा सकता है, वह भागवत धर्म कहलाता है। अतएव इस कथा में इन सिद्धान्तों का समावेश होने से वास्तविक अध्यात्म का भलीभाँति वर्णन हुआ है।

46 जो कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की सर्वव्यापकता विषयक इस कथा को सुनता है और इसका कीर्तन करता है, वह निश्चित रूप से भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।

47 प्रह्लाद महाराज भक्तों में सर्वश्रेष्ठ थे। जो कोई प्रह्लाद महाराज के कार्यकलापों, हिरण्यकशिपु के वध तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नृसिंहदेव की लीलाओं से सम्बद्ध इस कथा को अत्यन्त मनोयोग से सुनता है, वह निश्चयपूर्वक आध्यात्मिक जगत में पहुँचता है जहाँ कोई चिन्ता नहीं रहती है।

48 नारद मुनि ने आगे कहा: हे महाराज युधिष्ठिर, तुम सभी (पाण्डव) अत्यन्त भाग्यशाली हो, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण तुम्हारे महल में सामान्य मनुष्य की भाँति निवास करते हैं। बड़े-बड़े साधु पुरुष इसे भलीभाँति जानते हैं इसीलिए वे निरन्तर इस घर में आते रहते हैं।

49 निराकार ब्रह्म साक्षात कृष्ण ही हैं, क्योंकि कृष्ण निराकार ब्रह्म के स्रोत हैं। वे बड़े-बड़े साधु पुरुषों द्वारा चेष्टा किये जाने वाले दिव्य आनन्द के उत्स हैं फिर भी परम पुरुष तुम्हारे सर्वाधिक प्रिय मित्र तथा चिरंतन सुहृद हैं और तुम्हारे मामा के पुत्ररूप में तुमसे घनिष्ठतः सम्बन्धित हैं। दरअसल, वे सदैव तुम्हारे शरीर तथा आत्मा-सदृश हैं। वे पूज्य हैं फिर भी वे तुम्हारे सेवक की तरह और कभी-कभी तुम्हारे गुरु की तरह कार्य करते हैं।

50 शिव तथा ब्रह्माजी जैसे महापुरुष पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के सत्य का सही-सही वर्णन नहीं कर पाये। वे भगवान हम पर प्रसन्न हों जो सदा समस्त भक्तों के रक्षक रूप में उन महान सन्तों द्वारा पूजे जाते हैं, जो मौन, ध्यान, भक्ति तथा त्याग का व्रत लिए रहते हैं।

51 हे राजा युधिष्ठिर, बहुत समय पहले तकनीकी ज्ञान में अत्यन्त कुशल मय नामक दानव ने शिवजी की ख्याति को धूमिल कर दिया। उस स्थिति में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण ने शिवजी की रक्षा की थी।

52 महाराज युधिष्ठिर ने पूछा: मय दानव ने किस कारण से शिवजी की कीर्ति नष्ट की? कृष्ण ने किस तरह शिवजी की रक्षा की? और किस तरह उनकी कीर्ति का पुनः विस्तार किया? कृपया इन घटनाओं को कह सुनायें।

53 नारद मुनि ने कहा: जब देवताओं ने जो भगवान कृष्ण की दया से सदा शक्तिशाली बने रहते हैं असुरों से युद्ध किया तो असुर हार गये, अतएव उन्होंने महानतम असुर मय दानव की शरण ग्रहण की।

54-55 असुरों के महानायक मय दानव ने तीन अदृश्य आवास तैयार किये और उन्हें असुरों को सौंप दिया। ये तीनों आवास सोने, चाँदी तथा लोहे के बने विमानों जैसे थे और उनमें अपूर्व साज-सामग्री थी। हे राजा युधिष्ठिर, इन तीनों आवासों के कारण असुरों के सेनानायक देवताओं से अदृश्य हो गए थे। इस अवसर का लाभ उठाकर तथा अपनी पूर्व शत्रुता का स्मरण करते हुए असुरगण तीनों लोकों (ऊर्ध्व, मध्य तथा अधोलोक) का विनाश करने लगे।

56 तत्पश्चात जब असुरगण उच्चलोकों को तहस-नहस करने लगे तो उन लोकों के शासक शिवजी की शरण में आये और उन्होंने कहा – हे प्रभु हम तीन लोकों के वासी देवता विनष्ट होने वाले हैं। हम आपके अनुयायी हैं। कृपया हमारी रक्षा करें।

57 अत्यन्त शक्तिशाली एवं समर्थ शिवजी ने उन्हें ढाढ़स बँधाते हुए कहा "डरो मत।" तब उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर असुरों द्वारा निवसित तीनों आवासों की ओर छोड़ा।

58 शिवजी द्वारा छोड़े गये बाण सूर्यमण्डल से निकलने वाली प्रज्ज्वलित किरणों जैसे लग रहे थे। उनसे तीनों आवास-रूपी विमान आच्छादित हो गये जिससे वे दिखने बन्द हो गये।

59 शिवजी के सुनहरे बाणों से प्रहार किये जाने से उन तीनों आवासों के निवासी असुर निष्प्राण होकर गिर पड़े। तब परम योगी मय दानव ने उन्हें स्वयं द्वारा निर्मित अमृत कूप में लाकर डाल दिया।

60 असुरों के मृत शरीर इस अमृत का स्पर्श करते ही वज्र के समान अभेद्य हो गये। अतीव बल प्राप्त कर लेने के कारण वे बादलों को विदीर्ण करने वाली बिजली की भाँति उठ खड़े हो गये।

61 शिवजी को अत्यन्त दुखी तथा निराश देखकर भगवान विष्णु ने विचार किया कि मय दानव द्वारा उत्पन्न इस उत्पात को किस प्रकार रोका जाये।

62 तब ब्रह्माजी बछड़ा और भगवान विष्णु गाय बन गये और दोपहर के समय आवासों में प्रवेश करके वे कुए का सारा अमृत पी गये।

63 असुरों ने बछड़े तथा गाय को देखा लेकिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा उत्पन्न मोह शक्ति के कारण वे उन्हें रोक नहीं पाये। महायोगी मय असुर को पता चल गया कि बछड़ा तथा गाय अमृत पी रहे हैं और वह यह समझ गया कि यह अदृश्य दैवी शक्ति के कारण हो रहा है। इस प्रकार वह पश्चाताप करते हुए असुरों से बोला।

64 मय दानव ने कहा: जो अपने, दूसरों के अथवा दोनों के भाग्य में परमेश्वर द्वारा निश्चित कर दिया गया है उसे कोई भी, कहीं भी मिटा नहीं सकता चाहे वह देवता, असुर, मनुष्य या अन्य कोई क्यों न हो।

65-66 नारद मुनि ने आगे कहा: तत्पश्चात कृष्ण ने शिवजी को अपनी निजी शक्ति से, जो धर्म, ज्ञान, त्याग, ऐश्वर्य, तपस्या, विद्या तथा कर्म से युक्त थी, सभी प्रकार की साज-सामग्री-यथा रथ, सारथी, ध्वजा, घोड़े, हाथी, धनुष, ढाल तथा बाण से लैस कर दिया। इस तरह से सुसज्जित (लैस) होकर शिवजी अपने धनुष-बाण द्वारा असुरों से लड़ने के लिए रथ पर आसीन हुए।

67 हे राजा युधिष्ठिर, परम शक्तिशाली शिवजी ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाये और दोपहर के समय असुरों के तीनों आवासों में अग्नि लगाकर उन्हें नष्ट कर दिया।

68 तब आकाश में अपने-अपने विमानों में आसीन उच्चलोकों के निवासियों ने दुन्दुभियाँ बजाई। देवताओंऋषियों, पितरों, सिद्धों तथा विविध महापुरुषों ने शिवजी के ऊपर पुष्प-वर्षा की और जय जयकार की। अप्सराएँ परम प्रमुदित होकर नाचने-गाने लगीं।

69 हे राजा युधिष्ठिर, इस प्रकार शिवजी त्रिपुरारी कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने असुरों की तीनों पुरियों को भस्म कर दिया था। ब्रह्मा समेत समस्त देवताओं से पूजित होकर शिवजी अपने धाम लौट गये।

70 यद्यपि भगवान कृष्ण मनुष्य के रूप में प्रकट हुए थे फिर भी उन्होंने अपनी शक्ति से अनेक असामान्य तथा आश्चर्यजनक लीलाएँ सम्पन्न कीं। उन महान सन्त पुरुषों द्वारा जो कुछ कहा जा चुका है भला मैं उससे और अधिक क्या कह सकता हूँ? प्रत्येक व्यक्ति अधिकृत स्रोत से भगवान के कार्यकलापों के श्रवण मात्र से शुद्ध हो सकता है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.