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अध्याय सात – प्रह्लाद ने गर्भ में क्या सीखा (7.7)

1 नारद मुनि ने कहा: यद्यपि प्रह्लाद महाराज असुरों के परिवार में जन्मे थे, किन्तु वे समस्त भक्तों में सबसे महान थे। इस प्रकार अपने असुर सहपाठियों द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने मेरे द्वारा कहे गये शब्दों का स्मरण किया और अपने मित्रों से इस प्रकार कहा।

2 प्रह्लाद महाराज ने कहा: जब हमारे पिता हिरण्यकशिपु कठिन तपस्या करने के लिए मन्दराचल पर्वत चले गये तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र इत्यादि देवताओं ने युद्ध में सारे असुरों को दमन करने का भारी प्रयास किया।

3 “ओह! जिस प्रकार साँप को छोटी-छोटी चींटियाँ खा जाती हैं उसी प्रकार कष्टदायक हिरण्यकशिपु जो सभी प्रकार के लोगों पर कहर ढहाता था अपने ही पापकर्मों के कारण पराजित किया जा चुका है।" ऐसा कहकर इन्द्रादि देवताओं ने असुरों से लड़ने की योजना बनाई ।

4-5 एक के बाद एक मारे जाने पर जब असुरों के महान नायकों ने लड़ाई में देवताओं का अभूतपूर्व पराक्रम देखा, तो वे तितर-बितर होकर सभी दिशाओं में भागने लगे। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे अपने घरों, पत्नियों, बच्चों, पशुओं तथा घर के सारे साज-समान को छोड़कर जल्दी-जल्दी भाग लिये। उन्होंने इन सबकी परवाह नहीं की और बस भाग गए।

6 विजयी देवताओं ने असुरराज हिरण्यकशिपु के महल को लूट लिया और उसके भीतर की सारी वस्तुएँ नष्ट-भ्रष्ट कर दीं। तब स्वर्ग के राजा इन्द्र ने मेरी माता को बन्दी बना लिया।

7 जब इस प्रकार वे गिद्ध द्वारा पकड़ी गई कुररी पक्षी की भाँति भय से चिल्लाती हुई ले जाई जा रही थीं तो देवर्षि नारद जो उस समय किसी भी कार्य में व्यस्त नहीं थे, घटनास्थल पर प्रकट हुए और उन्होंने इस अवस्था में उन्हें देखा।

8 नारद मुनि ने कहा: हे देवराज इन्द्र, यह स्त्री निश्चय ही पापरहित है। तुम्हें इसे इस तरह क्रूरतापूर्वक घसीटना नहीं चाहिए। हे परम सौभाग्यशाली, यह सती स्त्री किसी दूसरे की पत्नी है। तुम इसे तुरन्त छोड़ दो।

9 राजा इन्द्र ने कहा: यह असुरपत्नी गर्भिणी है। अतएव इसे तब तक हमारे संरक्षण में रहने दें जब तक बच्चा उत्पन्न नहीं हो जाता, तब हम इसे छोड़ देंगे।

10 नारद मुनि ने उत्तर दिया: इस स्त्री के गर्भ में स्थित बालक निर्दोष तथा निष्पाप है। निस्सन्देह, वह महान भक्त तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का शक्तिशाली दास है। अतएव तुम उसे मार पाने में सक्षम नहीं होगे।

11 जब परम सन्त नारद मुनि ने इस प्रकार कहा तो राजा इन्द्र ने नारद के वचनों का सम्मान करते हुए तुरन्त ही मेरी माता को छोड़ दिया। चूँकि मैं भगवदभक्त था, अतएव सब देवताओं ने मेरी माता की परिक्रमा की और तब वे सभी अपने अपने स्वर्गधाम को वापस चले गये।

12 प्रह्लाद महाराज ने आगे बताया: परम सन्त नारद मुनि मेरी माता को अपने आश्रम ले गये और सभी प्रकार से सुरक्षा का आश्वासन देते हुए कहा "मेरी बेटी, तुम अपने पति के वापस आने तक मेरे आश्रम में रहो।"

13 देवर्षि नारद के अनुदेशों को मानकर मेरी माता किसी प्रकार के भय के बिना उनकी देख-रेख में तब तक रही, जब तक मेरे पिता अर्थात दैत्यराज अपनी घोर तपस्या से मुक्त नहीं हो लिये।

14 मेरी माता गर्भवती होने के कारण अपने गर्भ की सुरक्षा चाहती थीं और चाहती थी कि पति के आगमन के बाद सन्तान उत्पन्न हो।

15 इस तरह वे नारद मुनि के आश्रम पर रहती रहीं जहाँ वे अत्यन्त भक्तिपूर्वक नारद मुनि की सेवा करती रहीं। नारद मुनि ने मुझे गर्भ में स्थित रहते हुए तथा अपनी सेवा में लगी मेरी माता दोनों को उपदेश दिया। चूँकि वे स्वभाव से ही पतितों पर अत्यन्त दयालु हैं, अतएव अपनी दिव्य स्थिति के कारण उन्होंने धर्म तथा ज्ञान के विषय में उपदेश दिये। ये उपदेश भौतिक कल्मष से रहित थे।

16 अधिक काल बीत जाने तथा स्त्री होने से अल्पज्ञ होने के कारण मेरी माता उन सारे उपदेशों को भूल गई, किन्तु ऋषि नारद ने मुझे आशीर्वाद दिया था, अतएव मैं नहीं भूल पाया।

17 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे मित्रों, यदि तुम मेरी बातों पर श्रद्धा करो तो तुम भी उसी श्रद्धा से मेरे ही समान दिव्य ज्ञान को समझ सकते हो, भले ही अभी तुम सभी छोटे-छोटे बालक हो। इसी प्रकार एक स्त्री भी दिव्य ज्ञान को समझ सकती है और यह जान सकती है कि आत्मा क्या है तथा भौतिक पदार्थ क्या है?

18 जिस प्रकार वृक्ष के फलों तथा फूलों में कालक्रम में छह प्रकार के परिवर्तन—उत्पत्ति, अस्तित्व, वृद्धि, रूपान्तर, क्षय तथा अन्त में मृत्यु–होते हैं उसी प्रकार विभिन्न परिस्थितियों में आत्मा को जो भौतिक शरीर प्राप्त होता है उसमें भी ऐसे ही परिवर्तन होते हैं। किन्तु आत्मा में ऐसे परिवर्तन नहीं होते।

19-20 'आत्मा' परमेश्वर या जीवों का सूचक है। ये दोनों ही आध्यात्मिक हैं, जन्म-मृत्यु से मुक्त हैं तथा क्षय से रहित एवं भौतिक कल्मष से भी मुक्त हैं। ये व्यष्टि हैं, ये बाह्य शरीर के ज्ञाता हैं, प्रत्येक वस्तु के आश्रय या आधार हैं। ये भौतिक परिवर्तन से मुक्त हैं, ये आत्म प्रकाशित हैं, ये समस्त कारणों के कारण हैं तथा सर्वव्यापी हैं। इन्हें भौतिक शरीर से कोई सरोकार नहीं रहता, अतएव ये सदैव उन्मुक्त रहते हैं। इन दिव्य गुणों से युक्त जो मनुष्य वास्तव में विद्वान है उसे जीवन की भ्रान्त धारणा का परित्याग करना चाहिए जिसमें वह सोचता है "मैं यह भौतिक शरीर हूँ और इस शरीर से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु मेरी है।"

21 एक दक्ष भूविज्ञानी समझ सकता है कि सोना कहाँ पर है और वह उसे स्वर्णखनिज में से विविध विधियों द्वारा निकाल सकता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक रूप से अग्रसर व्यक्ति यह समझ सकता है कि शरीर के भीतर किस तरह आध्यात्मिक कण विद्यमान रहते हैं और इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह आध्यात्मिक जीवन में सिद्धि प्राप्त कर सकता है। फिर भी जिस प्रकार कोई व्यक्ति जो दक्ष नहीं है, समझ नहीं पाता कि सोना कहाँ पर है, उसी प्रकार जिस मूर्ख व्यक्ति ने आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन नहीं किया वह यह नहीं समझ सकता कि शरीर के भीतर आत्मा किस तरह विद्यमान रह सकता है।

22 भगवान की आठ भिन्न भौतिक शक्तियों, प्रकृति के तीन गुणों तथा सोलह विकारों (ग्यारह इन्द्रियों तथा पाँच स्थूल तत्त्व ) के अन्तर्गत आत्मा साक्षी के रूप में विद्यमान रहता है। अतएव सारे महान आचार्यों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा इन्हीं भौतिक तत्त्वों द्वारा बद्ध है।

23 प्रत्येक जीवात्मा के दो प्रकार के शरीर होते हैं – पाँच स्थूल तत्त्वों से बना स्थूल शरीर तथा तीन सूक्ष्म तत्त्वों से बना सूक्ष्म शरीर। किन्तु इन्हीं शरीरों में आत्मा है। मनुष्य को चाहिए कि वह "यह नहीं है, यह नहीं है" कहकर विश्लेषण द्वारा आत्मा का अनुसंधान करे। इस तरह उसे आत्मा को पदार्थ से पृथक कर लेना चाहिए।

24 धीर तथा दक्ष पुरुषों को चाहिए कि आत्मा का अनुसन्धान वैश्लेषिक अध्ययन के द्वारा शुद्ध हुए मन से करें जो सृष्टि, पालन तथा संहार होने वाली सारी वस्तुओं से आत्मा के सम्बन्ध तथा उन सबसे अन्तर के रूप में किया गया हो।

25 सक्रियता की तीन अवस्थाओं (वृत्तियों) में बुद्धि की अनुभूति की जा सकती है – जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति। जो व्यक्ति इन तीनों का अनुभव करता है उसे ही मूल स्वामी या शासक, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान माना जाना चाहिए।

26 जिस प्रकार वायु की उपस्थिति उसके द्वारा ले आई जाने वाली सुगन्धियों के द्वारा जानी जाती है उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के निर्देशन में मनुष्य बुद्धि के इन तीन विभागों द्वारा जीवात्मा को समझ सकता है। किन्तु ये तीन विभेद आत्मा नहीं है, वे तीन गुणों से बने होते हैं और क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं ।

27 दूषित बुद्धि के कारण मनुष्य को प्रकृति के गुणों के अधीन रहना पड़ता है और इस प्रकार वह भवबन्धन में पड़ जाता है। इस संसार को, जिसका कारण अज्ञान है, उसी प्रकार अवांछित तथा नश्वर मानना चाहिए जिस प्रकार स्वप्नावस्था में मनुष्य को झूठे ही कष्ट भोगना पड़ता है।

28 अतएव हे मित्रों, हे असुर पुत्रों, तुम्हारा कर्तव्य है कि कृष्णभावनामृत को ग्रहण करो जो प्रकृति के गुणों द्वारा कृत्रिम रूप से उत्पन्न सकाम कर्मों के बीज को जला सकता है और जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त अवस्था में बुद्धि के प्रवाह को रोक सकता है। दूसरे शब्दों में कृष्णभावनामृत ग्रहण करने पर मनुष्य का अज्ञान तुरन्त विनष्ट हो जाता है।

29 भौतिक जीवन से छूटने के लिए जितनी विधियाँ संस्तुत हैं उनमें से उस एक को जिसे स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने बताया है और स्वीकार किया है, सभी तरह से पूर्ण समझना चाहिए। वह विधि है कर्तव्य का सम्पन्न किया जाना जिससे परमेश्वर के प्रति प्रेम विकसित होता है।

30-31 मनुष्य को प्रामाणिक गुरु स्वीकार करना चाहिए और अत्यन्त भक्ति तथा श्रद्धा से उसकी सेवा करनी चाहिए। उसके पास जो कुछ भी हो उसे गुरु को अर्पित करना चाहिए और सन्त पुरुषों तथा भक्तों की संगति में भगवान की पूजा करनी चाहिए। श्रद्धापूर्वक भगवान के यश का श्रवण करना चाहिए, भगवान के दिव्य गुणों तथा कार्यकलापों का यशोगान करना चाहिए। सदैव भगवान के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए तथा शास्त्र एवं गुरु के आदेशानुसार भगवान के अर्चाविग्रह की पूजा करनी चाहिए।

32 मनुष्य को चाहिए कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को उनके अन्तर्यामी प्रतिनिधि स्वरूप परमात्मा को सदैव स्मरण करे, जो प्रत्येक जीव के अन्तःकरण में स्थित हैं। इस प्रकार उसे जीव की स्थिति या स्वरूप के अनुसार प्रत्येक जीव का आदर करना चाहिए।

33 इन (उपर्युक्त) कार्यकलापों द्वारा मनुष्य शत्रुओं –काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या– के प्रभाव को दमन करने में समर्थ होता है और ऐसा कर लेने पर वह भगवान की सेवा कर सकता है। इस प्रकार वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की प्रेमाभक्ति को निश्चित रूप से प्राप्त कर लेता है।

34 जो भक्ति के पद पर आसीन हो जाता है, वह निश्चय ही इन्द्रियों का नियंत्रक है और इस तरह वह एक मुक्त पुरुष हो जाता है। जब ऐसे मुक्त पुरुष या शुद्ध भक्त विभिन्न लीलाएँ करने के लिए भगवान के अवतारों के दिव्य गुणों तथा कार्यकलापों के विषय में सुनता है, तो उसके शरीर में रोमांच हो आता है, उसकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं और आध्यात्मिक अनुभूति के कारण उसकी वाणी अवरुद्ध हो जाती है। कभी वह नाचता है, तो कभी जोर-जोर से गाता है और कभी रोने लगता है। इस प्रकार वह अपने दिव्य हर्ष को व्यक्त करता है।

35 जब कोई भक्त प्रेतग्रस्त व्यक्ति के समान बन जाता है, तो वह हँसता है और उच्च स्वर से भगवान के गुणों के विषय में कीर्तन करता है। कभी वह ध्यान करने बैठता है और कभी प्रत्येक जीव को भगवान का भक्त मानते हुए प्रणाम करता है। लगातार तेज साँस लेता हुआ वह सामाजिक शिष्टाचार के प्रति लापरवाह हो जाता है और पागल व्यक्ति की तरह “हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, हे भगवान, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी,” का जोर-जोर से उच्चारण करता है।

36 तब निरन्तर भगवान की लीलाओं के विषय में मनन करते रहने से भक्त का मन तथा शरीर आध्यात्मिक गुणों में बदल जाता है। जिससे वह सारे भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। उसकी उत्कट भक्ति के कारण उसका अज्ञान, भौतिक चेतना तथा समस्त प्रकार की भौतिक इच्छाएँ जलकर पूर्णतया भस्म हो जाती हैं। यही वह अवस्था है जब मनुष्य भगवान के चरणकमलों का आश्रय प्राप्त कर सकता है।

37 जीवन की असली समस्या जन्म-मृत्यु का चक्कर है, जो पहिये (चक्र) की भाँति बारम्बार ऊपर-नीचे चलता रहता है। किन्तु जब कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के सम्पर्क में रहता है, तो यह चक्र पूरी तरह रुक जाता है। दूसरे शब्दों में, भक्ति में निरन्तर मग्न रहने से मनुष्य को जो दिव्य आनन्द मिलता है उससे वह भौतिक संसार से पूर्णतया मुक्त हो जाता है। सारे विद्वान व्यक्ति इसे जानते हैं। अतएव हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, तुम सभी लोग तुरन्त अपने-अपने हृदय में स्थित परमात्मा का ध्यान और पूजन प्रारम्भ कर दो।

38 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, परमात्मा रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान सदैव समस्त जीवों के अन्तःकरण में विद्यमान रहते हैं। निस्सन्देह, वे सारे जीवों के शुभचिन्तक तथा मित्र हैं और भगवान की पूजा करने में कोई कठिनाई भी नहीं है। तो फिर, लोग उनकी भक्ति क्यों नहीं करते? वे इन्द्रियतृप्ति के लिए कृत्रिम साज-सामान बनाने में व्यर्थ ही क्यों लिप्त रहते हैं?

39 मनुष्य की धन-सम्पदा, सुन्दर स्त्री तथा सखियाँ, पुत्र तथा पुत्रियाँ, घर, पालतू पशु (जैसे गाएँ, हाथी तथा घोड़े) खजाना, आर्थिक सम्पन्नता तथा इन्द्रियतृप्ति, यहाँ तक कि उसकी आयु जिसमें वह इन भौतिक ऐश्वर्यों का भोग कर सकता है निश्चित रूप से क्षणभंगुर एवं नश्वर हैं। चूँकि मनुष्य जीवन का अवसर अस्थायी है अतएव ये सारे भौतिक ऐश्वर्य ऐसे समझदार व्यक्ति को कौन सा लाभ पहुँचा सकते हैं जिसने अपने आपको शाश्वत समझ रखा है ?

40 वैदिक साहित्य से पता चलता है कि बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न करके मनुष्य स्वर्गादि लोक तक ऊपर उठ सकता है। यद्यपि स्वर्गलोक का जीवन पृथ्वी के जीवन की अपेक्षा सैकड़ों-हजारों गुना अधिक सुखकर है, तो भी स्वर्गलोक न तो शुद्ध (निर्मल) है, न भौतिक जगत के कल्मष से रहित है। सारे स्वर्गलोक भी नश्वर हैं, अतएव ये जीवन के लक्ष्य नहीं हैं। किन्तु यह न तो कभी देखा गया, न ही सुना गया कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में उन्माद होता है। फलस्वरूप तुम्हें अपने निजी लाभ तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए शास्त्रोक्त विधि से अत्यन्त भक्ति के साथ भगवान की पूजा करनी चाहिए।

41 भौतिकतावादी मनुष्य अपने को अत्यन्त बुद्धिमान समझकर निरन्तर आर्थिक विकास के लिए कर्म करता रहता है। किन्तु जैसा कि वेदों में बताया गया है, वह या तो इसी जीवन में या अगले जीवन में भौतिक कर्मों द्वारा बार-बार निराश होता रहता है। निस्सन्देह, उसे अपनी इच्छाओं से सर्वथा विपरीत फल मिलते हैं।

42 इस भौतिक जगत में प्रत्येक भौतिकतावादी सुख का इच्छुक रहता है और अपने दुख कम करना चाहता है, अतएव वह तदनुसार कर्म करता है। किन्तु वास्तव में कोई तभी तक सुखी रहता है जब तक वह सुख के लिए प्रयत्नशील नहीं होता। ज्योंही वह सुख के लिए कार्य प्रारम्भ कर देता हैं त्योंही उसकी दुख की अवस्था प्रारम्भ होती है।

43 जीवात्मा अपने शरीर के लिए सुख-सुविधा चाहता है और इस प्रयोजन से वह अनेक योजनाएँ बनाता है, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि यह शरीर तो दूसरों की सम्पत्ति होता है। निस्सन्देह, नश्वर शरीर जीवात्मा को गले लगाता है और फिर उसे छोड़कर चल देता है।

44 चूँकि शरीर को अन्ततः मल या मिट्टी में बदल जाना है अतएव इस शरीर से सम्बन्धित साज-सामान यथा पत्नियाँ, घर, धन, बच्चे, रिश्तेदार, नौकर-चाकर, मित्र, राज्य, खजाने, पशु तथा मंत्रियों से क्या प्रयोजन? ये सभी नश्वर हैं। इनके विषय में इससे अधिक क्या कहा जा सकता है?

45 ये सारे साज-सामान तभी तक अत्यन्त निकटस्थ एवं प्रिय लगते हैं जब तक यह शरीर है किन्तु ज्योंही यह शरीर नष्ट हो जाता है त्योंही शरीर से सम्बद्ध ये सारी वस्तुएँ भी समाप्त हो जाती हैं। अतएव वास्तव में किसी को इनसे कुछ लेना-देना नहीं रहता है किन्तु वह अज्ञानवश ही इन्हें मूल्यवान समझ बैठता है। शाश्वत सुख के सागर की तुलना में ये सारी वस्तुएँ अत्यन्त नगण्य हैं। शाश्वत जीव के लिए ऐसे नगण्य सम्बन्धों से क्या लाभ है?

46 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, जीव को अपने पूर्वकर्मों के अनुसार नाना प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं। इस तरह वह अपने विशिष्ट जीवन की सभी स्थितियों में – गर्भ में प्रवेश करने से लेकर अपने इस विशेष शरीर तक – कष्ट ही कष्ट भोगता प्रतीत होता है। अतएव तुम लोग पूरी तरह विचार करके मुझे बतलाओ कि जीव का ऐसे सकाम कर्मों में वास्तविक स्वार्थ क्या है, जबकि ये दुख तथा कष्ट प्रदान करने वाले हैं?

47 वह जीव, जिसे यह वर्तमान शरीर अपने विगत कर्म के कारण प्राप्त हुआ है, अपने इस जीवन में ही अपने कर्म के फलों को समाप्त कर सकता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह शरीर के बन्धन से मुक्त हो गया है। जीव को एक प्रकार का शरीर मिलता है और वह इस शरीर से कर्म करके दूसरे शरीर को जन्म देता है। इस प्रकार वह अपने घोर अज्ञान के कारण जन्म-मरण के चक्र द्वारा एक शरीर से दूसरे में देहान्तर करता रहता है।

48 आध्यात्मिक जीवन के चार सिद्धान्त—धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष – पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की रुचि पर आश्रित हैं। अतएव हे मित्रों, भक्तों के चरणचिन्हों का अनुगमन करो। बिना किसी प्रकार की इच्छा किये (निष्काम भाव से) परमेश्वर पर आश्रित रहकर भक्तिपूर्वक परमात्मा की पूजा करो।

49 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हरि समस्त जीवों के आत्मा तथा परमात्मा हैं। प्रत्येक जीव जीवित आत्मा तथा भौतिक शरीर के रूप में उनकी शक्ति का प्राकट्य है। अतएव भगवान अत्यन्त प्रिय हैं और परम नियन्ता हैं।

50 यदि देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व या अन्य कोई इस संसार के भीतर मुक्तिदाता मुकुन्द के चरणकमलों की सेवा करता है, तो वह हमारे (प्रह्लाद महाराज जैसे महाजनों के) ही समान जीवन की सर्वश्रेष्ठ कल्याणकारी स्थितियों से ओत-प्रोत होता है।

51-52 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, तुम लोग न तो ब्राह्मण, देवता या महान सन्त बनकर, न ही सदाचरण या प्रकाण्ड ज्ञान के द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न कर सकते हो। इनमें से किसी भी योग्यता से भगवान प्रसन्न होने वाले नहीं है। न ही दान, तपस्या, यज्ञ, शुद्धता या व्रतों से उन्हें कोई प्रसन्न कर सकता है। भगवान तो तभी प्रसन्न होते हैं जब मनुष्य उनकी अविचल अनन्य भक्ति करता है। एकनिष्ठ भक्ति के बिना सब कुछ दिखावा मात्र है।

53 हे मित्र असुरपुत्रों, जिस प्रकार तुम सब अपने आपको देखते हो और अपनी देखभाल करते हो उसी तरह समस्त जीवों में परमात्मा के रूप में सर्वत्र विद्यमान रहने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी भक्ति स्वीकार करो।

54 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, प्रत्येक व्यक्ति जिसमें तुम भी शामिल हो, (यक्ष तथा राक्षस) अज्ञानी स्त्रियाँ, शूद्र, ग्वाले, पक्षी, निम्नतर पशु तथा पापी जीव अपना-अपना मूल शाश्वत आध्यात्मिक जीवन पुनः प्राप्त कर सकते हैं और भक्तियोग के सिद्धान्तों को स्वीकार करने मात्र से सदा-सदा इसी तरह बने रह सकते हैं।

55 इस भौतिक जगत में समस्त कारणों के कारण गोविन्द के चरणकमलों के प्रति सेवा और सर्वत्र उनका दर्शन करना ही एकमात्र जीवन-लक्ष्य है। जैसा कि समस्त शास्त्रों में बतलाया गया है मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य इतना ही है।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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