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अध्याय तीन – हिरण्यकशिपु की अमर बनने की योजना (7.3)

1 नारद मुनि ने महाराज युधिष्ठिर से कहा: दैत्यराज हिरण्यकशिपु अजेय तथा वृद्धावस्था एवं शरीर की जर्जरता से मुक्त होना चाहता था। वह अणिमा तथा लघिमा जैसी समस्त योग-सिद्धियों को प्राप्त करना, मृत्युरहित होना और ब्रह्मलोक समेत अखिल विश्व का एकछत्र राजा बनना चाहता था।

2 हिरण्यकशिपु ने मन्दर पर्वत की घाटी में अपने पाँव के अँगूठे के बल भूमि पर खड़े होकर, अपनी भुजाएँ ऊपर किये तथा आकाश की ओर देखते हुए तपस्या प्रारम्भ की। यह स्थिति अतीव कठिन थी, किन्तु सिद्धि प्राप्त करने के लिए उसने इसे स्वीकार किया।

3 हिरण्यकशिपु के जटाजूट से प्रलयकालीन सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान तथा असह्य तेज प्रकट हुआ। ऐसी तपस्या देखकर सारे देवता, जो अभी तक सारे लोकों में भ्रमण कर रहे थे, अपने-अपने घरों को लौट गये।

4 हिरण्यकशिपु की कठिन तपस्या के कारण उसके सिर से अग्नि प्रकट हुई और यह अग्नि अपने धुएँ समेत आकाश भर में फैल गई। उसने ऊर्ध्व तथा अधःलोकों को घेर लिया जिससे वे सभी अत्यन्त गर्म हो उठे।

5 उसकी कठिन तपस्या के बल से सारी नदियाँ तथा सारे समुद्र उद्वेलित हो उठे, भूमण्डल की सतह अपने पर्वतों तथा द्वीपों समेत थरथराने लगी और तारे तथा ग्रह टूटकर गिर पड़े। सारी दिशाएँ धधक उठीं थी।

6 हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या से झुलसने तथा अत्यन्त विचलित होने के कारण समस्त देवताओं ने अपने रहने के लोक छोड़ दिये और ब्रह्मा के लोक को गये जहाँ उन्होंने स्रष्टा को इस प्रकार सूचित किया---” हे देवताओं के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु, हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या से उसके सिर से निकलने वाली अग्नि के कारण हम लोग इतने उद्विग्न हैं कि हम अपने लोकों में रह नहीं सकते, अतएव हम आपके पास आये हैं।"

7 हे महापुरुष, हे ब्रह्माण्ड के प्रधान, यदि आप उचित समझें तो इन सारे उत्पातों को, जो सब कुछ विनष्ट करने के उद्देश्य से हो रहे हैं, कृपा करके रोक दें जिससे आपकी आज्ञाकारी प्रजा का संहार न हो।

8 हिरण्यकशिपु ने अत्यन्त कठिन तपस्या का व्रत ले रखा है। यद्यपि आपसे उसकी योजना छिपी नहीं है, तो भी हम जिस रूप में उसके मन्तव्यों का निवेदन कर रहे हैं, कृपा करके उन्हें सुन लें।

9-10 “इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च पुरुष ब्रह्माजी ने अपना उच्च पद कठिन तपस्या, योगशक्ति तथा समाधि द्वारा प्राप्त किया है। फलस्वरूप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के बाद वे इसके सर्वाधिक पूज्य देवता बने हैं। चूँकि मैं शाश्वत हूँ और काल भी शाश्वत है, अतएव मैं ऐसी ही तपस्या, योगशक्ति तथा समाधि के लिए अनेक जन्मों तक प्रयास करूँगा और वह स्थान ग्रहण करूँगा जो ब्रह्माजी ने प्राप्त किया है।"

11 अपनी कठोर तपस्या से मैं पुण्य तथा पापकर्मों के फलों को उलट दूँगा। मैं इस संसार की समस्त स्थापित प्रथाओं को पलट दूँगा। कल्प के अन्त में ध्रुवलोक भी मिट जाएगा। अतएव इसका क्या लाभ है? मैं तो ब्रह्मा के पद पर बना रहना अधिक पसंद करूँगा।

12 हे प्रभु, हमने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि हिरण्यकशिपु आपका पद प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या में जूटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। आप जैसा उचित समझें वैसा अविलम्ब करें।

13 हे ब्रह्माजी निश्चय ही आपका पद इस ब्रह्माण्ड के सभी लोगों के लिए, विशेष रूप से ब्राह्मणों तथा गायों के लिए, अत्यन्त कल्याणप्रद है। इससे ब्राह्मण-संस्कृति तथा गौ-सुरक्षा को अधिकाधिक महिमामण्डित किया जा सकता है और इस प्रकार सभी तरह के भौतिक सुख, ऐश्वर्य तथा सौभाग्य स्वतः वृद्धि करेंगे। किन्तु दुर्भाग्यवश यदि हिरण्यकशिपु आपका स्थान ग्रहण करता है, तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

14 हे राजन, देवताओं द्वारा इस प्रकार सूचित किये जाने पर सर्वाधिक शक्तिशाली ब्रह्माजी भृगु, दक्ष तथा अन्य महर्षियों को साथ लेकर तुरन्त उस स्थान के लिए चल पड़े जहाँ हिरण्यकशिपु तपस्या कर रहा था।

15-16 हंसयान पर चलने वाले ब्रह्माजी पहले तो यह नहीं देख पाये कि हिरण्यकशिपु है कहाँ, क्योंकि उसका शरीर बाँबी, घास तथा बाँस के डडो से ढक गया था। चूँकि हिरण्यकशिपु दीर्घकाल से वहाँ था अतएव चीटियाँ उसकी खाल, चर्बी, मांस तथा रक्त चट कर चुकी थीं। तब ब्रह्माजी तथा देवताओं ने उसे खोज निकाला। वह बादलों से आच्छादित सूर्य की भाँति सारे संसार को अपनी तपस्या से तपा रहा था। आश्चर्यचकित होकर ब्रह्माजी हँस पड़े और उसे इस प्रकार सम्बोधित करने लगे।

17 ब्रह्माजी ने कहा: हे कश्यप मुनि के पुत्र उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपनी तपस्या में सिद्ध हो चुके हो, अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ। तुम मुझसे जो चाहे सो माँग सकते हो और मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करूँगा।

18 मैं तुम्हारे धैर्य को देखकर अत्यन्त विस्मित हूँ। सभी तरह के कीड़ों तथा चीटियों द्वारा खाये तथा काटे जाने के बावजूद तुम अपनी अस्थियों में प्राणवायु को संचालित किये हुए हो। निस्सन्देह, यह आश्चर्यजनक है।

19 यहाँ तक कि भृगु जैसे साधु पुरुष, जो पहले जन्म ले चुके हैं ऐसी कठिन तपस्या नहीं कर सके हैं, न भविष्य में भी कोई ऐसा कर सकेगा। इन तीनों लोकों में ऐसा कौन होगा जो जल पिये बिना एक सौ दैवी वर्षों तक जीवन धारण कर सके?

20 हे दितिपुत्र, तुमने अपने महान संकल्प से तथा अपनी तपस्या से वह कर दिखाया है, जो बड़े-बड़े साधु पुरुषों के लिए भी असम्भव है। इस तरह तुमने मुझे निश्चय ही जीत लिया है।

21 हे असुरों में श्रेष्ठ, इस कारण मैं तुम्हारी इच्छानुसार तुम्हें सारे वरदान देने के लिए तैयार हूँ। मैं देवलोक से सम्बन्धित हूँ, जहाँ देवतागण मनुष्यों की तरह नहीं मरते। अतएव यद्यपि तुम मर्त्य हो, किन्तु तुमने मेरा दर्शन किया है, अतः यह व्यर्थ नहीं जाएगा।

22 श्री नारद मुनि ने आगे कहा: हिरण्यकशिपु से ये शब्द कहने के बाद इस ब्रह्माण्ड के प्रथम जीव ब्रह्माजी ने, जो अत्यन्त शक्तिमान हैं, उसके शरीर पर अपने कमण्डलु से दिव्य अचूक आध्यात्मिक जल छिड़का, जिसे चींटियों तथा कीड़े-मकोड़ों ने खा लिया था। इस तरह उन्होंने हिरण्यकशिपु को अनुप्राणित किया।

23 ज्योंही ब्रह्माजी ने अपने कमण्डलु से उसके शरीर पर जल छिड़का त्योंही हिरण्यकशिपु उठ खड़ा हुआ। उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग इतने बलवान थे कि वह वज्र के आघात को भी सहन कर सकता था। इतनी शारीरिक शक्ति एवं पिघले सोने की सी शारीरिक कान्ति से युक्त वह पूर्ण तरुण पुरुष की भाँति बाँबी से उसी तरह प्रकट हुआ जिस तरह काष्ठ से अग्नि उत्पन्न होती है।

24 आकाश में हंस-वायुयान पर सवार ब्रह्मा को अपने समक्ष देखकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वह तुरन्त सिर के बल भूमि पर गिर पड़ा और भगवान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने लगा।

25 तब दैत्यराज भूमि से उठा और ब्रह्माजी को अपने समक्ष देखकर प्रसन्नता से अभिभूत हो गया। अपने अश्रुपूर्ण नेत्रों एवं कम्पायमान शरीर से अपने हाथ जोड़कर तथा अवरुद्ध वाणी से ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए विनीत मुद्रा में प्रार्थना करने लगा।

26-27 मैं इस ब्रह्माण्ड के परम स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ। उनके जीवन के प्रत्येक दिन के अन्त में यह ब्रह्माण्ड काल के प्रभाव से घने अंधकार द्वारा आच्छादित हो जाता है और दूसरे दिन पुनः वही आत्म-तेजस्वी स्वामी अपने निजी तेज से भौतिक शक्ति के माध्यम से, जो प्रकृति के तीन गुणों से युक्त है, सम्पूर्ण जगत का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं। वे ब्रह्माजी ही सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण--प्रकृति के इन तीन गुणों के आधार हैं।

28 मैं इस ब्रह्माण्ड के आदि पुरुष ब्रह्माजी को नमस्कार करता हूँ जो ज्ञान-विशेष हैं तथा जो इस विराट जगत को उत्पन्न करने में मन तथा अनुभूत बुद्धि का उपयोग करते हैं। उनके कार्यकलापों के ही कारण इस ब्रह्माण्ड में हर वस्तु दृष्टिगोचर हो रही है, अतएव वे समग्र अभिव्यक्तियों के कारण हैं।

29 “आप ही इस भौतिक जगत के जीवन के उद्गम होने से चर तथा अचर दोनों प्रकार के जीवों के स्वामी तथा नियन्ता हैं और उनकी चेतना को अभिप्रेरित करते हैं। आप मन, कर्म तथा ज्ञान की इन्द्रियों का सम्पोषण करते हैं अतएव आप समस्त भौतिक तत्त्वों तथा उनके गुणों के महा-नियन्ता हैं। आप समस्त कामनाओं के भी नियन्ता हैं।"

30 हे प्रभु आप साक्षात वेदों के रूप में तथा समस्त याज्ञिक ब्राह्मणों के कार्यकलापों से सम्बन्धित ज्ञान के द्वारा अग्निष्टोम इत्यादि सात प्रकार के यज्ञों के वैदिक अनुष्ठानों का प्रसार करते हैं। निस्सन्देह, आप याज्ञिक ब्राह्मणों को तीनों वेदों में उल्लिखित अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिए अभिप्रेरित करते हैं। समस्त जीवों की अन्तरात्मा होने के कारण आप आदिरहित, अन्तरहित तथा सर्वज्ञ हैं, आप काल तथा देश की सीमाओं के परे हैं।

31 हे स्वामी आप नित्य जागते रहते हैं और जो कुछ घटित होता है उसे देखते हैं। नित्य काल के रूप में आप अपने विभिन्न अंशों यथा – पल, क्षण, मिनट से – समस्त जीवों की आयु घटाते हैं, फिर भी आप अपरिवर्तनशील हैं, एक ही स्थान पर रहते हुए परमात्मा, साक्षी, अजन्मा, तथा सर्वव्यापी नियन्ता हैं, जो समस्त जीवों के जीवन के कारण हैं।

32 आपसे पृथक कुछ भी नहीं है चाहे वह अच्छा हो या निम्नतर, अचर या चर। वैदिक वाड्मय से यथा उपनिषदों से तथा मूल वैदिक ज्ञान के उपायों से प्राप्त ज्ञान आपके बाह्य शरीर की रचना करने वाले हैं। आप हिरण्यगर्भ अर्थात ब्रह्माण्ड के आगार हैं, लेकिन परम नियन्ता के रूप में स्थित होने से आप तीन गुणों से युक्त भौतिक जगत से परे हैं।

33 हे प्रभु, यह विराट जगत आपका बाह्य स्वरूप है, जिससे आप इन्द्रिय, प्राण और मन के विषयों का उपभोग करते है। इस तरह आप भौतिक जगत का आस्वादन करते प्रतीत होते हैं। आप ब्रह्म, परमात्मा, सबसे पुरातन ईश्वर हैं।

34 मैं उन परम पुरुष को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अपने अनन्त, अव्यक्त रूप को विराट जगत के रूप में ब्रह्माण्ड की समग्रता में विस्तार किया है। उनमें बहिरंगा शक्ति तथा अन्तरंगा शक्ति और समस्त जीवों से समन्वित मिश्रित तटस्था शक्ति पाई जाती है।

35 हे प्रभो, हे श्रेष्ठ वरदाता, यदि आप मुझे मेरा मनचाहा वर देना ही चाहते हैं, तो यह वर दें कि मैं आपके द्वारा उत्पन्न किसी भी जीव के द्वारा मृत्यु को प्राप्त न होऊँ।

36 मुझे यह वर दें कि मैं न तो घर के अन्दर, न घर के बाहर, न दिन के समय, न रात में, न भूमि पर, न आकाश में मरूँ। मुझे वर दें कि मेरी मृत्यु न तो आपके द्वारा उत्पन्न जीवों के अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा हो, न किसी हथियार से हो, न किसी मनुष्य या पशु के द्वारा हो।

37-38 आप मुझे वर दें कि किसी सजीव या निर्जीव प्राणी द्वारा मेरी मृत्यु न हो। मुझे यह भी वर दें कि मैं किसी देवता या असुर द्वारा या अधोलोकों के किसी बड़े सर्प द्वारा न मारा जाऊँ। चूँकि आपको युद्धभूमि में कोई मार नहीं सकता इसलिए आपका कोई प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं है। इस प्रकार आप मुझे यह भी वर दे कि मेरा भी कोई प्रतिद्वन्द्वी न हो। मुझे सारे जीवों तथा लोकपालों का एकछत्र स्वामित्व प्रदान करें और उस पद से प्राप्त होने वाला समस्त यश दें। साथ ही मुझे लम्बी तपस्या तथा योगाभ्यास से प्राप्त होने वाली सारी योग शक्तियाँ दें, क्योंकि ये कभी भी विनष्ट नहीं हो सकतीं।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

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