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Agastya Samhita Chapter 131-135

श्रीमद् अगस्त्य संहिता अध्याय १३१-१३५

सिंहासने समासीनः सहितः सीतयानुजैः ।

अतसी कुसुम श्यामो रामो विजयतेऽनिशम् ॥१॥

अर्थ- अतसी यानी तीसी के पुष्प के समान श्याम वर्ण वाले अपने अभिन्न स्वरूपा श्रीसीताजी के साथ दिव्य सिंहासन में विराजमान एवं अनुज श्रीभरतजी श्रीलक्ष्मणजी श्रीशत्रुघ्नजी तथा श्रीहनुमानजी से सदा सेवित सर्वेश्वर श्रीरामजी सर्वदा सर्वोत्कर्ष रूपसे विजय प्राप्त करें अर्थात् सभी परिकरों से सेवित दिव्य सिंहासनासीन श्रीरामचन्द्रजी को सादर दण्डवत् प्रणाम करता हूँ।

स्वाश्रमे संश्रितं शिष्यैः प्रातर्हुतहुताशनम् ।

बोधयन्तं परं तत्वं तमगस्त्यं महामुनिम् ॥२॥

कृतक्षणः सुतीक्ष्णस्तमुपागम्य कृताञ्जलिः ।

पश्यन्वनानि रम्याणि विचरंश्च महामुनिः ॥३॥

भाविनो नृन् कलौ बुध्वा विषयासक्तचेतसः ।

अज्ञानाल्पायुषः श्रीमच्छ्रीशांघ्रिविमुखान्भुवि ॥४॥

संसारार्णवसंमग्नान् कृपालुर्मुनिसत्तमः ।

उद्धर्तुकामस्तांस्तस्मात् पृष्ठवान् श्रेय उत्तमम ॥५॥

अर्थ- संसार रूप समुद्र में भटकते हुये जीवों को देख परमकृपालु श्रीरामजी के साधन परायण मुनिजनो में श्रेष्ठ महामुनि श्रीसुतीक्ष्णजी विषयों में सदा आसक्त मनवाले अज्ञानी एवं अल्प आयु वाले तथा सर्वैश्वर्यशाली सर्वेश्वरी श्रीसीताजी के आराध्य सर्वेश्वर श्रीरामजी के श्रीचरणकमलों से विमुख होने से संसार समुद्र में निमज्जनशील कलिकाल में होने वाले जीवों को अनुभव कर उन जीवों के उद्धार की कामना से दैवी प्रेरणा से सुन्दर अवसर का अनुभव करके रमणीय वन प्रदेश में विचरण करते हुये सुन्दर छटा को देखते हुये श्रीरामजी के अनन्य उपासक अपने गुरुदेव श्री अगस्त्यमुनिजी के आश्रम की ओर प्रस्थित हुये, जहाॅं प्रात: कालिक हवन को सम्पन्न कर स्वाध्याय में अनेक साधक शिष्यों के साथ आश्रम के प्राङ्गण में विराजमान होकर महामुनि श्री अगस्त्य परतत्व ‘श्रीरामतत्त्व’ का उपदेश कर रहे थे, उन महर्षि श्री अगस्त्यजी के समक्ष उपस्थित होकर आदर के साथ दण्डवत् प्रणाम कर हाथ जोडकर विनयपूर्वक सभी जीवों के हेतु उत्तम श्रेय कारक प्रश्न पूछे।

सुतीक्ष्णउवाच~

भगवन् मुनिशार्दूल सर्वज्ञ कलशोद्भव ।

नृणां श्रेयसि मूढानां श्रेयश्चिन्तय सुव्रत ॥६॥

अर्थ- हे भगवन ! मुनिओं में श्रेष्ठ ! सर्वज्ञ ! कलश से उत्पन्न श्रीअगस्त्यजी ! हे श्रेष्ठ व्रत वाले गुरुदेव ! आप अपने उद्धार विषयक विचार के समान ही अपने श्रेय में मूढ - अज्ञानी जीवों के कल्याण के लिये भी चिन्तन विचार करें क्योंकि आप श्रेय कार्य में तत्पर हैं अतः सभी का कल्याण करने में समर्थ हैं।

उपायं वद निश्चित्य तेषां श्रेयो यथा भवेत् ।

परोपकारनिरताः साधवो हि कृपालवः ॥७॥

अर्थ- हे मुनिश्रेष्ठ ! अपने कल्याण को भी नहीं समझने वाले उन मूढ़ जीवों का जिसप्रकार कल्याण हो वैसा सर्वजन सुलभ उपाय को विचार करके कहें क्योंकि आपके जैसे परोपकार में सदा तत्पर रहने वाले कृपालु एवं साधुजन ही दूसरे का कल्याण कर सकते हैं अन्य नहीं।

अगस्त्यउवाच~

कुम्भजोऽथनिशम्येत्थं वाचं मुनिसमीरिताम् ।

अल्पाक्षरमनल्पार्थं धर्मसंप्रश्नभूषिताम् ॥८॥

प्रसन्नवदनाम्भोजः प्रशस्य मुनिपुङ्गवः ।

तं प्रत्युवाच संप्रीतो वाचं हृदयहर्षणीम् ॥९॥

अर्थ- मुनीश्वर श्रीसुतीक्ष्णजी की पूर्वोक्त प्रकार की अल्प अक्षर एवं अतिविस्तृत अर्थ वाली तथा परोपकारमय धर्म सम्बन्धी प्रश्न से विभूषित विनम्र वाणी को सुनकर अति प्रसन्न मुखरूप कमल वाले मुनियों में अतिश्रेष्ठ कुम्भज श्रीअगस्त्य मुनिजी प्रसन्न होकर मुनि श्रीसुतीक्ष्णजी की प्रशंसा करके सर्वजनोपकारी मनोहारी वाणी श्रीसुतीक्ष्णजी को लक्ष्य करके श्रीसनकादिक कुमारों से सुना इतिहास सुनाने के लिये बोले।

श्रूयतामितिहासोऽयं कुमारेभ्यो मया श्रुतः ।

मुनिवर्योमहाभागो जगतामुपकारकः ॥१०॥

हिरण्यगर्भसम्भूतो मतिमान् वाग्विदां वरः ।

सर्वलोकजनान् दृष्ट्वा विमूढा़न् विमुखाञ्छ्रुतेः ॥११॥

चिन्तयन् वत तच्छ्रेयोदिव्यं धाम जगाम सः ।

कृपालुरच्युतस्याद्यं सिद्धिभिः सिद्धभूषणम् ॥१२॥

अर्थ- महर्षि श्रीअगस्त्यजी कहते हैं- हे परोपकार परायण सुतीक्ष्णजी ! सावधानतया पावन प्रसङ्ग को सुनें श्रीसनक सनातन सनन्दन एवं सनत्कुमारों के प्रिय मुख से मैंने जो इतिहास सुना है उसी पवित्र प्रसङ्ग को सुनें- श्रीब्रह्माजी के मानस पुत्र संसार का उपकार करने वाले विद्वानों में अतिश्रेष्ठ परम कृपालु श्रीनारदजी वेद यानी सनातन श्रीवैष्णवधर्म से विमुख एवं अतिमूढ अपने कर्तव्य से रहित सभी जीवों को देखकर उनके कल्याण यानी उद्धार के विचार से अणिमा आदि सिद्धियों से सदा भूषित अनेक सिद्ध पुरुषों से सर्वदा सेवित अपने स्थान से कभी भी विचलित नहीं होने वाले सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी के दिव्यधाम श्रीअयोध्याजी में गये।

तत्र सिंहासनं दिव्यमध्यासीनं जगत्प्रभुम् ।

निजैर्वरायुधैः सर्वैर्मूर्त्तिमद्भिरुपासितम् ॥१३॥

पार्षदप्रवरैः कृत्स्नैर्महार्हाम्बरभूषणैः ।

पद्मपत्रविशालाक्षं पद्मया पद्मनेत्रया ॥१४॥

उपविष्टं जगद्धेतुं नारदोऽपश्यदच्युतम् ।

दिव्याम्बरधरं देवं दिव्यभूषणभूषितम् ॥१५॥

अर्थ- उस अविचल दिव्यधाम श्रीसाकेत में श्रीनारदजी ने मूर्तिमान् अर्थात् दिव्य आकृति धारण किये हुये सभी दिव्य एवं श्रेष्ठ आयुधों-धनुष बाण आदि से सेवित तथा अति मूल्यवान् वस्त्र एवं आभूषण वाले पार्षदों में श्रेष्ठ श्रीहनुमानजी, श्रीअङ्गदजी प्रभृति से सादर अति विनम्र भाव से सेवित, दिव्य वस्त्रों को धारण किये हुये तथा दिव्य भूषणों से विभूषित एवं अति प्रकाशमान तथा अपने धाम से अन्यत्र कभी नहीं जाने वाले (-'अयोध्या क्वापि संत्यज्य पादमेकं न गच्छति' ऐसा आगम वचन है), कमल के समान नेत्र वाली अपने से अभिन्नरूपा श्रीसीताजी के साथ विराजमान एवं स्वयं भी कमल के सदृश मनोहर नेत्र वाले संसार के कारण स्वरूप एवं जगत के आधारभूत स्वामी सर्वेश श्रीरामजी को दिव्य सिंहासन पर विराजे हुये अवलोकन किये।

प्रणतस्तं प्रतुष्टाव हृष्टात्मा जगदीश्वरम् ।

जगद्योनिरयोनिस्त्वंव्यक्तोऽव्यक्ततरोविभुः ॥१६॥

अर्थ- सर्वेश्वर श्रीरामजी की दिव्य झाॅंकी होने के बाद अति प्रसन्नचित्त वाले श्रीनारदजी ने अतिनम्रता के साथ श्रीरामजी को नमन कर जगदीश्वर, सारे संसार के एकमात्र आराध्य श्रीराघवजी की स्तुति की, सर्वेश श्रीरामजी ! आप जगत के कारण हैं सर्वकारण रूप होने से आपका कोई भी कारण नहीं है यानी आप से सब चराचर जगत लोक परलोक सभी उत्पन्न होते हैं पर आप किसी से भी उत्पन्न नहीं होते हैं। आप विभु सर्वव्यापक हैं एवं व्यक्त स्थूल कार्यरूप संसार स्वरूप में हैं तो अव्यक्त- सूक्ष्म कारण रूपमें भी आप ही हैं यानी सूक्ष्म चित् चेतन जीवात्मावर्ग एवं अचित् जड़ प्रकृतिवर्ग एवं स्थूल चित् जीववर्ग और स्थूल अचित् प्रकृतिवर्ग भी आप ही हैं आप से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है अतः इस विश्व के अभिन्न निमित्तोपादान कारणरूप श्रीरामजी ! आपको मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

कर्त्रे विश्वस्य संभत्रै संहर्त्रे ते नमोनमः ।

आदिमध्यान्तहीनाय प्रभवे परमात्मने ॥१७॥

नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते विश्वबन्धवे ।

विश्वम्भर नमस्तेऽस्तु विश्वनाथ कृपाम्बुधे ॥१८॥

अर्थ- हे सर्वेश्वर आप विश्व का सृजन करने वाले पालन करने वाले एवं संहार करने वाले हैं, ऐसे संसार के सृष्टि स्थिति एवं अन्त करने वाले ब्रह्मा विष्णु तथा महेश रूप सर्वेसर्वा आपको बार-बार नमस्कार है। आदि मध्य एवं अन्त रहित सर्व समर्थ तथा सभी के अन्तरात्मा स्वरूप आपको नमस्कार है। समस्त जडचेतनात्मक विश्व स्वरूप आपको बार-बार नमस्कार है। सारे संसार के कल्याणकारक परम बन्धुरूप आपको नमस्कार है। हे विश्व का भरण करने वाले श्रीरामजी ! हे विश्वनाथ ! हे कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी आपको बार-बार सादर नमस्कार है ।

संसारेऽस्मिन् महाघोरे पापाभिरतचेतसाम् ।

जन्तूनां का गतिर्देव कर्मणा भ्रमतामिह ॥१९॥

अर्थ- हे देव ! इस महाभयानक संसार में अपने कर्म फलानुरूप भ्रमण करने वाले एवं सदा पाप में ही चित्त देनेवाले जन्तु जीवात्माओं की क्या गति होगी!

आलस्य धर्मे विमुखाविषयाकृष्ट मानसाः ।

सुखायतमानास्ते सुख लेश विवर्जिताः ॥२०॥

अर्थ- वे सभी मनुष्य आलस्य के कारण धर्म से विमुख होकर विषय-वासना की तरफ आकृष्ट होंगे। उस थोड़े से सुख के कारण सम्पूर्ण धर्म को छोड़ देंगे ।

मुक्तिस्तेषां कथं श्रीश भवेद्धर्मे कथं रतिः ।

कृपाकूपार भगवञ्जन्तूनुद्धर माधव ॥२१॥

अर्थ- हे श्रीश - श्रीसीतापति श्रीरामजी! सदा संसार में भ्रमणशील जीवों की मुक्ति कैसे होगी एवं सनातन धर्म में रति प्रेम कैसे होगी ! हे भगवन् षडैश्वर्यशाली श्रीराम जी ! कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी ! हे माधव सर्व जीव रमणशील शरणागतवत्सल श्रीरामचन्द्रजी उन दीन हीन जीवों का उद्धार करें।

श्रुतिस्मृत्युदिता धर्माः क्लेशसाध्या नृभिः सदा ।

अतस्त्वं सुकोपायं वद त्वद्भक्तिवर्धनम् ॥२२॥

अर्थ- श्रीरामजी सायुज्य मुक्ति के साधन श्रुति एवं स्मृति में वर्णित धर्म मनुष्यों से अति क्लेश-कष्ट से साध्य हैं ऐसा साधकलोग सदा से अनुभव करते आये हैं, अतः आपकी भक्ति को बढाने वाला अति सरल उपाय को आप बतायें जिससे कलियुगी जीवगण भी सरलत्या आपको प्राप्त कर सकें।

सर्वबन्धविनाशाय मुक्तये प्राणिनां प्रभो ।

प्रवक्ता त्वं हि धर्माणामविता जगतामपि ॥२३॥

अर्थ- हे प्रभो ! सर्वसमर्थ श्रीरामजी ! आप साधक प्राणिवर्ग के सभी कर्म बन्धनों को नाश कर शाश्वतिक मुक्ति प्राप्ति के मार्ग का उपदेशक हैं एवं अपने सनातन वैदिक धर्म के प्रवक्ता- वास्तविक रूपसे उपदेश करनेवाले भी आप ही है और जगत की तथा संसार के सद्धर्म की रक्षा करने वाले भी आप ही है अत: श्रीरामभद्रजी कलियुग के क्लेश से क्लान्तजनों के उद्धार के लिये सरल उपाय का उपदेश करें।

इत्थमाकर्ण्य भगवान् वाचं मुनिसमीरिताम् ।

तं प्रत्युवाच संप्रीतः शुचिस्मितमुखाम्बुजः ॥२४॥

अर्थ- महर्षि श्रीअगस्त्यजी श्रीसुतीक्ष्ण जी से कह रहे हैं, हे सुतीक्ष्णजी! पूर्वोक्त प्रकार की मुनीश्वर श्रीनारदजी की वाणी को सुनकर मन्द स्मित हास्य से अनमोहक मुखरूप कमल से शोभायमान भगवान् श्रीरामजी अति प्रसन्नतपूर्वक उन श्रीनारदजी को कहे।

मुनिवर्य महाभाग जगतां हितकारक ।

मया जगद्धितायैव पुरैतधारितम् ॥२५॥

हे महाभाग्यशाली मुनिश्रेष्ठ श्रीनारदजी ! जगत् के हित करने वाले हे देवर्षिजी ! जिस संसार के कल्याण के लिये आप आतुर होकर प्रार्थना कर रहे हैं उस जगत् के कल्याण के लिये ही मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है।

दिव्ये हि भारते वर्षे तीर्थराजे सुविश्रुते ।

प्रयागे पुण्यसदने भवद्भिर्नित्यसूरिभिः ॥२६॥

सार्धमेवावतीर्याहं प्रणेष्ये मोक्षसाधनम् ।

दृढसंसारच स्य शातनं भक्तिवर्धनम् ॥२७॥

सुवोधं सुकरं सर्वैर्धर्ममार्गं सुखावहम् ।

वेदवेदान्तसच्छास्त्रसारभूतं सादाश्रयम् ॥२८॥

अर्थ- मुनीश्वर! मैं दिव्य भारतवर्ष के अत्यन्त प्रसिद्ध तीर्थराज प्रयाग में तीनप्रवर वाले वशिष्ठ गोत्रीय शुक्लयजुर्वेदीय वाजसनेय शाखाध्यायी कान्यकुब्ज ब्राह्मण श्रीपुण्यसदनशर्मा जी के घर में आप सब द्वादश महाभागवतों, नित्यसूरियों के साथ अवतार लेकर के संसार रूप दृढ़ चक्र का नाश करने वाला, सभी को सहज रूप से सुन्दर बोध कराने वाला, सभी सत्पदार्थ का आश्रम एवं वेदवेदान्त स्मृति संहिता आदि सत् शास्त्रों का सारभूत सारतत्त्वरूप तथा भक्ति को बढ़ाने वाला और सभी सुख को देने वाला मोक्ष का साधनभूत सनातनधर्म मार्ग का पुनः नवीनीकरण रूपसे परिस्कार कर विस्तार करूँगा जिसका आप सबों के द्वारा विश्व में प्रचार होगा।

तत्र तत्रावतीर्णास्तु भवन्तो वीतकल्मषाः ।

मदुक्तस्योपदेष्टारः प्राणिभ्योतत्परायणाः ॥२९॥

भविष्यन्ति महात्मानो जगदुद्धारहेतवः ।

सुशीला धर्मनिरता जगतामुपकारकाः ॥३०॥

अर्थ- उन-उन दिव्य भूमि में अवतीर्ण होकर पापरहित आप सब द्वादश महाभागवत भी जीवों को मुझसे उपदिष्ट धर्म को संसार में घूम-घूम कर उपदेश करने वाले होकर एवं मत्परायण मुझ में ही निष्ठा रखने वाले तथा जगत् के उद्धार के कारण तथा सुशील और मेरे धर्म में निरत एवं जगत के उपकारक होकर संसार में प्रसिद्ध होंगे।

ये ग्रहीष्यन्ति सन्मार्गे प्राणिनो भक्तितत्पराः ।

स्यादनायासतोमोक्षस्तेषामत्र न संशयः ॥३१॥

अर्थ- जो जीवात्मा भक्ति तत्पर सादर भक्ति में परायण होकर मुझसे उपदिष्ट सत् मार्ग का पूर्ण रूपसे ग्रहण करेंगे उन साधक जीवों का अनायास सरलतया मोक्ष हो जायगा इस विषय में कोई भी संशय नहीं है।

वाणीपीयूषमास्वाद्य क्षणमासीद्धरेर्मुनिः ।

मग्नः सुखसुधांभोधौ विनीतो गतसंशयः ॥३२॥

अर्थ- हे सुतीक्ष्णजी ! अतिनम्र आचरण वाले वे श्रीनारद मुनि सब पापों को हरण करनेवाले श्रीरामजी के वाणीरूप अमृत का आस्वादन करके सर्व संशय रहित होकर के क्षण भर तो सुखरूप सुधा के समुद्र में डूब गये।

निशम्यतद्वाक्यममोघमद्भुतं हिरण्यगर्भाङ्गसमुद्भवोमुनिः ।

प्रहृष्टरोमावलि भूषिताकृतिः कृतीकृतज्ञः कृतकृत्य ईशितुः ॥३३॥

अर्थ- सर्व नियमनशील ईश्वर श्रीरामजी की अमोघ एवं परम अद्भुत दिव्य वाणी को सुनकर श्रीब्रह्माजी के मानसपुत्र विवेकी परोपकार का आदर करनेवाले एवं आनन्द प्रयुक्त रोमावली से विभूषित शरीर वाले मुनीश्वर श्रीनारद कृत-कृत्य हुये।

दृढव्रतस्याथविनम्रकन्धरः स्मरन् सुरेशस्य विभोः प्रतिश्रुतम् ।

प्रणम्य तं देववरं रमापतिं महाविभूतेर्निरगात्ततः सुधीः ॥३४॥

अर्थ- दृढ़व्रत सावधानी से नियमों के पालन करनेवाले सर्वव्यापक एवं देवताओं के नियमन कर्ता सत्यसन्ध श्रीरामजी की प्रतिज्ञा का स्मरण करते हुये देवाधिदेव श्रीसीतापति श्रीरामचन्द्रजी को सादर मस्तक नमाकर प्रणाम करके महाविभूति दिव्य श्रीसाकेतधाम से विशुद्ध बुद्धि वाले श्रीनारदमुनिजी प्रस्थित हुये।

सुवादयन्दिव्ययशोऽथवल्लकीं हरे: स्वरब्रह्मविभूषितानसौ ।

गायंश्चलोके विचारसर्वतः सुरासुरेन्द्रैरभिपूजितोमुनिः ॥३५॥

अर्थ- दिव्यधाम से निवृत्त होने के बाद सुरेन्द्र देवताओं एवं अनुरेन्द्रों से पूजित मुनीश्वर श्रीनारदजी ब्रह्म स्वर से भूषित वीणा को अच्छी तरह से बजाते हुऐ श्रीराम के परम अद्भुत दिव्ययश को मधुर स्वर से गाते हुये सर्वत्र लोक में विचरने घूमने लगे।

मुनीश्वरे देवऋषौविनिर्गतसुरैरपीड्यो जगतामधीश्वरः ।

रेमे रमेशोरमयास्मिताननः प्रभूतभूतैर्निदिव्यधामनि ॥३६॥

अर्थ- देवर्षि मुनीश्वर श्रीनारदजी के दिव्यधाम श्रीसाकेत से चले जाने पर तीन लोक चौदह भुवनों के ईश्वर शासक आराध्य देव ब्रह्मा विष्णु शङ्कर आदि देवों से पूजनीय सदा सेवित मन्द हास्य मुखरूप कमल से शोभित रमेश - श्रीसीतापतिजी अनेक नित्यपार्षद एवं श्रीसीताजी के साथ अपने दिव्यधाम श्रीसाकेत में रमण करने लगे।

– इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायां भव्योत्तरखण्ड ऽगस्त्यसुतीक्ष्णसम्वादे श्रीरामानन्दाचार्यावतारोपक्रमे श्रीरामनारदसम्प्रश्नोत्तरं नामैकत्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः ॥१३१॥

 

व्यतीते द्वापरे पुण्ये श्रीमद्भगवतोज्झिते ।

कलौ सत्वहरे पुंसां प्रवृत्तेऽधर्मवद्र्धके ॥१॥

जनेऽधर्मरुचौ नित्यं शौचाचारविवर्जिते । 

मोक्षसाधनमार्गेभ्यो विमुखे पशुतां गते ॥२॥

मन्ये मन्दमतौ शश्वदल्पभाग्येऽल्प जीवने ।

तत्रत्ये पापनिरते महत्सङ्गविवर्जिते ॥३॥

प्रवर्धमानानभितो वादैर्निर्जित्य नास्तिकान् । 

आचार्यैर्भगवद्धर्मो वेदवेदान्तपारगैः ॥४॥

अर्थ- महर्षि श्रीअगस्त्यजी श्रीसुतीक्ष्णजी से कह रहे हैं सुतीक्ष्णजी, जब पुण्यमय द्वापरयुग व्यतीत हो जायगा तब श्रीकृष्णजी के इस धरातल को त्याग देने पर एवं पुरुषों के सत्व का अपहरण करनेवाले तथा अधर्म का बढ़ाने वाले कलियुग के प्रताप का प्रवृत्त हो जाने पर और नित्य ही अधर्म में रुचि रखने वाले एवं शौच शुद्धता तथा आचार एवं विचार से रहित और मोक्ष के साधन रूप सत् मार्ग से विमुख और सर्वदा पशुधर्म को प्राप्त एवं आलस्ययुक्त तथा मन्दबुद्धि वाले और अल्प भाग्य वाले तथैव अल्प जीवन वाले और सदा पाप कर्म में तत्पर तथा महात्माजनों के सङ्ग सत्सङ्गति से रहित इस लोक के जीववर्ग हो जायेंगे तब चारों ओर अतिप्रबलता से बढ़ते हुये नास्तिकों को सत् शास्त्रों से युक्तियों से जीतकर सभी वेदवेदान्त एवं शास्त्रों में पारङ्गत आचार्यों ने महान् उपायों से प्रयत्नपूर्वक संस्थापित सनातन वैदिक भगवद्धर्म चाहिये उतना वृद्धि प्राप्त नहीं कर पायेगा।

स्थापितोऽपि महायोगवृद्धिं नैवगमिष्यति ।

विधातुं सत्यमनध सुरेड्यो निजभाषितम् ॥५॥

वीक्ष्य विष्णुः कृपासिन्धुः प्रबुद्धं तादृशं कलिम् ।

सदृशांश्च जनान् सर्वान् दुर्मतीन् क्लेशसंयुतान् ॥६॥

अर्थ- इस तथ्य को अवगम करके हे निष्पाप सुतीक्ष्णजी! इन्द्रादि देवों से संपूजनीय कृपा के सागर सर्वव्यापक श्रीरामजी अपनी वाणी को सत्य करने के लिये अधर्म परतया वृद्धिप्राप्त कलियुग एवं दुर्मति तथा क्लेश परायण सभी जीवों को देखकर तथा धर्मरक्षणार्थ अवतार लेने की अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण करके अवतार लेने के लिये विचार करेंगे।

मनः कर्ताऽवताराय स्मृत्वाथो स्वं प्रतिश्रुतम् ।

खं नभो वेद वेद प्रमिते वर्षे गते कलौ ॥७॥

कालिन्दी जाहन्वीसंगशोभिते देवपूजिते ।

तीर्थराजे महापुण्ये प्रयागे तीर्थ उत्तमे ॥८॥

गृहे श्रीपुण्यसदनद्विजातेर्भूरिकर्मणः ।

योगिनो योगयुक्तस्य कान्यकुब्जशिरोमणेः ॥९॥

पतिसेवा परा तस्य सुशीला गृहिणी ततः ।

माघकृष्णस्य सप्तम्यां शुभधर्मप्रवर्तके ॥१०॥

सप्तदण्डोद्गते सूर्ये सिद्धयोगयुजिप्रभुः ।

नक्षत्रे त्वष्टृदैवत्ये कुम्भलग्ने शुभग्रहे ॥११॥

एवं सर्वगुणोपेते देशे काले च माधवः ।

गुण्ये पुण्ये शरण्यः स शरणागतवत्सलः ॥१२॥

आविर्भूतो महायोगी द्वितिय इव भाष्करः ।

रामानन्द इतिख्यातो लोकोद्धरण कारणः ॥१३॥

अर्थ- कलियुग के चार हजार तीनसौ वर्ष (४४००) यानी विक्रमसम्वत् के बारहसौ छप्पन (१२५६) व्यतीत हो जाने पर श्रीगङ्गा एवं यमुना के पवित्र संगम से सुशोभित तथा देवताओं से पूजित और सभी तीर्थों में अति श्रेष्ठ महान् पुण्यमय प्रयाग नाम से लोकप्रसिद्ध तीर्थराज में वशिष्ठ गोत्रीय त्रिप्रवरान्वित शुक्लयजुर्वेदीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ कान्यकुब्ज ब्राह्मण जो योगयुक्त एवं श्रीरामचन्द्रजी के आराधना रूप भूरिकर्म अति उत्तम कर्म को सदा करनेवाले हैं उन योगी श्रीपुण्यसदन शर्माजी नाम के ब्राह्मण के यहाॅं पतिव्रता में प्रधान श्रीसुशीलाजी नाम की श्रीशर्माजी की धर्मपति होगी उन्हीं पतिव्रता देवी के गर्भ से माघकृष्ण पक्ष को सभी तिथि के शुभ दिन में जबकि लोकधर्म प्रवर्तक श्रीसूर्य भगवान् के सात दण्ड चले होंगे एवं सिद्ध योग युक्त चित्रा नक्षत्र तथा कुम्भ लग्न और सभी ग्रहों के शुभ स्थान में होने पर एवं सभी गुणों से युक्त पावन काल में तथा सभी गुणों से संयुक्त अतिपवित्र प्रदेश प्रयागराज में सभी साधकों के उद्धार के कारणरूप शरणागतवत्सल महान् योगी शरण में आये सभी जीवों का रक्षक ('रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले' इस आगम प्रमाण से बोधित) स्वयं सर्वेश्वर श्रीरामजी ही दीप से उत्पन्न दूसरे दीप के समान आविर्भूत होकर 'रामानन्द' जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य, नाम से जगत में विख्यात होंगे।

 

जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी के अवतार के विषय में श्रीमद्वाल्मीकि संहिता में लिखा है –

आचार्या बहवोऽभूवन् राममन्त्रप्रवर्तकाः । 

किन्तु देवि कलेरादौ पाखण्डप्रचूरे जने ॥ 

रामानन्देति भविता विष्णुधर्मप्रवर्तकः । 

यदा यदा हि धर्मोऽयं विष्णोः साकेतवासिनः ॥ 

कृशतामेति भो देवि! तदा स भगवान् हरिः । 

रामानन्दयतिर्भूत्वा तीर्थराजे व पावने ॥ 

अवतीर्य जगन्नाथो धर्म स्थापयते पुनः ।

अर्थात्– हे देवि श्रीराममन्त्र के प्रवर्तक आचार्य बहुत हुये हैं किन्तु कलियुग के आदि ! में पाखण्डिजनों के बहुत बढ़ जाने पर वैष्णव धर्म का विशेष रूपसे प्रवर्तक प्रवर्धक ‘श्रीरामानन्दाचार्य’ जी इस नाम से लोकप्रख्यात आचार्य होंगे, क्योंकि श्रीसाकेत निवासीजी का यह श्रीवैष्णवधर्म जब जब हास को प्राप्त कर जाता है तब तब वे ही जगत् के नाथ श्रीरामजी, श्रीरामानन्दाचार्य नामक यतिराज के रूपमें पावन तीर्थराज प्रयाग में अवतार लेकर पुनः धर्म की स्थापना करेंगे।

(वाल्मीकि संहिता ५.२३-२६)

 

एवं वैश्वानर संहिता में लिखा है–

सोऽवतारज्जगन्मध्ये जन्तूनां भयसङ्कटात् ।

पारंकृर्तुं हि धर्मात्मा रामानन्दस्स्वयं स्वभूः ॥

माघे च कृष्णसप्तम्यां चित्रानक्षत्रसंयुते ।

कुम्भलग्ने सिद्धयोगे सप्तदण्डगते रवौ ॥

रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले ।

अर्थ– यानी जीवों को महान् संकट से पार उतारने के लिये सर्व समर्थ स्वयं सर्वेश्वर श्रीरामजी धर्मात्मा यतिराज श्रीरामानन्दाचार्यजी के रूपमें पृथिवी में अवतरित हुये। चित्रा नक्षत्र से युक्त कुम्भ लग्न सिद्धयोग एवं सूर्य के सात दण्ड व्यतीत होने पर माघमास के कृष्णपक्ष के सप्तमी तिथि (१२५६ वि. सं) में स्वयं सर्वेश श्रीरामजी ही इस भूतल में श्रीरामानन्दाचार्यजी के रूपमें प्रकट हुये।

इसप्रकार वैश्वानरसंहिता में लिखा है अतः जगदाचार्य श्री साक्षात् श्रीराम रूप ही है।

 

अष्टमेऽब्दे चोपवीतं जातं तस्य तदाह्यसौ ।

ब्रह्मचर्यं गृहीत्वा तु विद्याभ्यासं करिष्यति ॥१४॥

अर्थ- श्रीरामानन्दाचार्यजी का आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न होगा अनन्तर से अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन व्रत का ग्रहण कर विद्याभ्यास करेंगे।

वर्षे द्वादशके जाते काश्यां गत्वा पुनः स्वयम् ।

वेदवेदाङ्गशास्त्राणि पुराणादि पठिष्यति ॥१५॥

अर्थ- पुन: बारह वर्ष के हो जाने पर काशी में पञ्चगङ्गाघाट पर स्थित (श्रीमठ) आचार्यपीठ में शास्त्रीय नियमानुसार आचार्य श्री के श्रीमुख से श्रवणानन्तर स्वयं यथार्थ रूपसे पढेंगे-पूर्णत: अनुशीलन करेंगे।

आचार्यलक्षणैर्युक्तं वेदवेदान्तपारगम् ।

श्रीसम्प्रदायश्रेष्ठञ्च जनोद्धारपरं सदा ॥१६॥

विज्ञाय राघवानन्दं लब्ध्वा तस्मात् षडक्षरम् ।

रहस्यत्रयवाक्यार्थं तात्पर्यार्थं च सन्मतम् ॥१७॥

अर्थ- मनुस्मृति में लिखे 'उपनीयतु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । साङ्गञ्च सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते’ (२.१४०) यानी जो द्विज शिष्य का उपनयन संस्कार करके अङ्ग एवं रहस्य के साथ वेद पढ़ाता है उसे आचार्य कहा जाता है, इत्यादि आचार्य के लक्षणों से युक्त वेद एवं वेदान्त शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता और सर्वदा जन लोक के उद्धार करने में तत्पर एवं श्रीसम्प्रदाय के श्रेष्ठ प्रधान आचार्य के रूपमें आचार्यपीठासीन जगद्गुरु श्रीराघवानन्दाचार्यजी को अनुभव करके उन्ही आचार्य श्री से सविधि शास्त्रीय संस्कारपूर्वक श्रीवैष्णवीय विरक्त संन्यास दीक्षा के साथ तारक षडक्षर श्रीराम महामन्त्र शरणागति मन्त्र एवं चरममन्त्र इन रहस्यत्रयों को प्राप्त कर उनके वाच्यार्थ एवं वेद तथा पूर्वाचार्य रहस्य ग्रन्थ सम्मत तात्पर्यादि अर्थों को भी प्राप्त करके आचार्यों के दिव्य लक्षणों से परिलक्षित होंगे।

आचार्यलक्षणैर्दिव्यैर्लक्षितो वै भविष्यति ।

प्रवक्ता सर्वधर्माणामनुष्ठाता च कर्मणाम् ॥१८॥

रक्षिता धर्मसेतुनामुपदेष्टा महायशाः ।

शश्वद्वैष्णवधर्माणां महाकीर्तिरुदारधीः ॥१९॥

अर्थ- वे जगदाचार्य श्रीरामानन्दाचार्यजी सभी धर्मों के व्याख्यान साङ्गोपाङ्ग रूपसे उपदेश करने वाले भगवत् आराधनादि सभी कर्मों के अनुष्ठान करने वाले और वैदिक धर्म के मर्यादा की रक्षा करने वाले तथा श्रीवैष्णवधर्म का सर्वदा उपदेश करनेवाले यश एवं महाकीर्ति वाले और अतिउदार बुद्धि वाले होंगे। 

प्रसन्नवाम्भोजो विशालाक्षो महाभुजः ।

कृपालुस्सर्वजीवानामितरेषां च नित्यशः ॥२०॥

संसाराम्भोनिधेर्घोरात्समुद्धारपरायणः ।

वेदवेदान्तनिरतस्सर्वशास्त्रविशारदः ॥२१॥

अर्थ- एवं वे सदा प्रसन्न मुखारविन्द वाले विशाल नेत्र एवं महान् भुजवाले तथा परम कृपालु होंगे और सभी नीच ऊँच वर्ण में उत्पन्न जीवात्मावर्ग तथा अन्य योनी में उत्पन्न जीववर्गों के भयानक संसाररूप समुद्र से समुद्धार के लिये सर्वदा तत्पर रहने वाले तथा अङ्गों के सहित वेद एवं वेदान्त के अभ्यास में स्वयं तत्पर रहकर शिष्यवर्गों को भी सर्वदा तत्पर कराने वाले सभी शास्त्रों में पारङ्गत होंगे।

कामान् पुरवितानृणां कविः कल्पद्रुमो यथा ।

गुणवान् दयितः पूज्यः सर्वज्ञोविजितेन्द्रियः ॥२२॥

अर्थ- श्रीरामानन्दाचार्यजी सत् एवं असत् का विवेक करनेवाले तथा कल्पवृक्ष के समान सभी मनुष्यों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले एवं गुणवान् तथा सभीवर्ग के व्यक्तियों के प्रेमी और पूजनीय तथा सर्वज्ञवस्तु को यथातथ्य रूपसे जानने वाले और जितेन्द्रिय होंगे।

शोभिष्यति धर्मरतैःसद्भिःपरिवृतोऽनिशम् ।

लोके पूर्णकलः खे वै शीतांशुभंगणैरिव ॥२३॥

वे जगदाचार्यजी जिस प्रकार आकाश में नक्षत्र गणों से परिवेष्टित कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होता है उसीप्रकार लोक में धर्मपरायण सज्जनों से सर्वदा परिवेष्टित सेवित होते हुये सदा शोभित होंगे।

सुशीलः समदृक्शान्तोदान्तः श्रीमान् जगद्गुरुः ।

पुनः सत्सम्प्रदायस्य वर्त्तयिता मुनीश्वरः ॥२४॥

अर्थ-वे सुशील एवं सभी वर्ग में समान दृष्टि वाले एवं रागद्वेष प्रभृति दोषों से रहित शान्त तथा क्लेश आदि को सहन करनेवाले दान्त सर्व श्रीसम्पन्न एवं मुनीश्वर धर्मशादि के तत्वों का सर्वदा मननशील साधकों में श्रेष्ठ जगद्गुरु संसार के लोगों का सन्मार्गोपदेश से अन्धकार को दूरकर ज्ञानरूप प्रकाश के द्वारा सायुज्य मुक्ति प्रदाता, वे जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी कार्य कलाप से शिथिलता को प्राप्त अनादि वैदिक सत् श्रीसम्प्रदाय (जो सम्प्रदाय समस्त चारों युगों में प्रतिष्ठित हो) उसका पुन: इस भूमण्डल में प्रवर्तन-संवर्धन, प्रसारण करने वाले होंगे।

कृपया यस्य लोकेऽस्मिन् जनाः सर्वेनिरामयाः ।

श्रीरामभक्तिनिरताः सदा धर्मपरायणाः ॥२५॥

अर्थ- उन जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की असीम कृपा से इस लोक में सभी जन रोग रहित एवं सर्वदा धर्मपरायण और सर्वेश श्रीरामचन्द्रजी की भक्ति में निरत रहेंगे।

तादृशस्य महाबुद्धे यगिवर्यस्य सत्कवेः ।

गुणान् कार्त्स्न्येन संवक्तुं कविःकःक्षमतेऽधुना ॥२६॥

अर्थ- मुनीश्वर सुतीक्ष्णजी ! पूर्व वर्णित गुणों से युक्त महान् बुद्धिशाली योगियों में श्रेष्ठ अनेक सद् ग्रन्थरत्नों प्रस्थानत्रयों के आनन्दभाष्यादि के निर्माता जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन करने में कौन कवि ऐसा होगा जो समर्थ हो सके।

तेऽथाप्यवतरिष्यन्ति भगवन्मतकोविदाः ।

स्वयंभूप्रमुखाः सर्वे महान्तो नित्यसूरयः ॥२७॥

इङ्गितज्ञा हरेराज्ञां वहन्तः शिरसा मुदा ।

नानादेशेषु वर्णेषु तत्तत्कालेऽर्कसन्निभाः ॥२८॥

अर्थ- हे सुतीक्ष्णजी ! जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के अवतार के बाद भगवत् मत सनातन श्रीवैष्णवमत धर्म को जानने वाले 'स्वयंभूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः । प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम् ॥ द्वादशैते विज्ञानियो धर्मं भागवतं भटाः' अर्थात् इस श्रीमद् भागवतपुराण के वचनानुसार भागवत धर्म को तत्त्वतः जानने वाले श्रीस्वयम्भूब्रह्माजी श्रीनारदजी श्रीशंभुजी श्रीकुमारजी श्रीकपिलजी श्रीमनुजी श्रीप्रह्लादजी श्रीजनकजी श्रीभीष्मजी श्रीबलिजी श्रीशुकमुनिजी एवं श्रीयमजी, ये महाभागवत भी भगवान् श्रीरामजी के नित्यपार्षदगण श्रीरामचन्द्रजी के इङ्गित इसारे को जाननेवाले आनन्दपूर्वक श्रीरामजी की आशा का शिरोधार्य कर उसका पूर्ण करनेवाले बारह सूर्य के समान देदिव्यमान तेजवाले ये बारह महाभागवत भी नानादेश-अलग अलग स्थान अलग अलग काल एवं ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र प्रभृति भिन्न भिन्न वर्णों में अवतरित होंगे।

आयुष्मन् कृत्तिकायुक्तपूर्णिमायां धनेशनौ ।

स्वयंभूः कार्तिकस्याद्धाऽनन्तानन्दोभविष्यति ॥२९॥

अर्थ-पूर्व सूचित महाभागवतों के अवतारों को अलग अलग रूपसे वर्णन हेतु महर्षि श्री अगस्त्य जी कहते हैं- हे आयुष्मान् सुतीक्ष्णजी! जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के प्रधान शिष्य के रूपमें साक्षात् स्वयम्भू-श्रीब्रह्माजी ही कार्तिक मास की कृतिका नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी तिथि धन लग्न एवं शनिवार के दिन महेशपुर उत्तर प्रदेश में श्री अनन्तानन्द नाम से अवतरित होंगे।

योगनिष्ठः सदा धीमान् सदाचारपरायणः ।

शिष्य आचार्यवर्यस्य रामानन्दस्यधीमतः ॥३०॥

अर्थ- ये सर्वदा योगाभ्यास में स्थित रहने वाले एवं बुद्धिमान्, सर्वदा सदाचार में तत्पर रहने वाले वे श्रीअनन्तानन्दजी अभ्रान्त प्रखर बुद्धिशाली आचार्य प्रवर जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के शिष्य होकर श्री अनन्तानन्दाचार्यजी के नाम से विख्यात होंगे।

जातः सुरसुरानन्दो नारदो मुनिसत्तमः ।

वैशाखसितपक्षस्य नवम्यां स वृषे गुरौ ॥३१॥

अर्थ- प्रसिद्ध श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी के रूपमें मुनियों में श्रेष्ठ श्रीनारदजी ही वैशाख शुक्ल की नवमी श्रीजनकी नवमी तिथि गुरुवार एवं वृष लग्न में (पैखम, लखनऊ में) समवारित होंगे।

शुक्रे वरुण भे योगे शीलरत्नाकरो महान् ।

मन्त्रमन्त्रार्थसन्निष्ठो गुरुभक्तिपरायणः ॥३२॥

तस्यामेव तुलालग्ने तादृशीन्दुरिवोग्रधीः ।

शम्भुरेव सुखानन्दः पूर्वाचार्यार्थनिष्ठकः ॥३३॥

अर्थ- शतभिषा नक्षत्र से युक्त तुला लग्न में वैशाख शुक्ल नवमी - श्रीजानकी नवमी के दिन में शील के समुद्र शिष्य के अज्ञानरूप अन्धकार को दूरकर ज्ञानरूप प्रकाश को प्रदान करने वाले गुरुदेव जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की सेवा में परायण चन्द्रमा के समान तीक्ष्ण बुद्धि वाले भगवान श्री आनन्दभाष्यकार एवं पूर्वाचार्यों के सत् सिद्धान्त में दृढ निष्ठा वाले श्रीराममन्त्र एवं अन्य मन्त्रार्थों के विचार में सदा संलग्न श्रीशङ्करजी ही श्रीसुखानन्दाचार्यजी के रूपमें अवतरित होकर प्रसिद्ध होंगे।

व्यतिपातेऽनुराधाभे शुक्रे मेषे गुणाकरे ।

वैशाखशुक्लपक्षस्य तृतीयायां महामतिः ॥३४॥

कुमारोनरहरियानन्दो जात उदारधीः ।

वर्णाश्रमकर्मनिष्ठः शुभकर्मरतः सदा ॥३५॥

अर्थ- श्रीसनत्कुमारजी वैशाख शुक्ल तृतीया शुक्रवार अनुराधा नक्षत्र एवं व्यतिपात योग तथा गुणाकर मेष लग्न में महाबुद्धिशाली वर्णाश्रम सम्बन्धी धर्म कर्म में परमनिष्ठ वाले श्रीरामजी की आराधना आदि शुभ कर्मों में सर्वदा लगे रहने वाले श्रीनरहरियानन्दाचार्यजी के रूपमें अवतरित होकर प्रसिद्ध होंगे।

वैशाखकृष्णसप्तम्यां मूले परिघसंयुते ।

बुधे कर्केऽथकपिलोयोगानन्दो जनिष्यति ॥३६॥

अर्थ- श्रीकपिलमुनिजी वैशाख कृष्ण सप्तमी मूल नक्षत्र एवं परिघयोग कर्क लग्न और बुधवार को श्री योगानन्दाचार्यजी के रूपमें अवतरित होकर प्रसिद्ध होंगे।

योगनिष्ठो महायोगी सत्सेवितपदाम्बुजः ।

सदावैष्णवधर्माणामुपदेशपरायणः ॥३७॥

मनुः पीपाभिदोजात उत्तराफाल्गुनीयुजि ।

पूर्णिमायां ध्रुवे चैत्र्यां धनवारे बुधस्य च ॥३८॥

अर्थ-श्रीमनुजी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ध्रुवयोग धन लग्न में चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि बुधवार के दिन सदा योग साधना में रहने वाले महायोगी सत्पुरुषों से सेवित चरणकमल वाले तथा सर्वदा श्रीवैष्णवधर्म के उपदेश में तत्पर श्रीपीपाचार्यजी के रूपमें अवतरित होकर प्रसिद्ध होंगे।

निष्ठा तदीयकैङ्कर्ये सतस्तस्य महात्मनः ।

नक्षत्रे शशिदैवत्ये चैत्रकृष्णाष्टमी तिथौ ॥३९॥

प्रह्लादोऽपि कविरस्तु कुजे सिंहे च शोभने ।

जातो वेदान्तसन्निष्ठः क्षेत्रवासरतः सदा ॥४०॥

अर्थ-श्रीप्रह्लादजी भी मृगशिरा नक्षत्र शोभन योग एवं सिंहलग्न में चैत्र कृष्ण अष्टमी मंगलवार को श्रीकबीरजी के नाम से अवतरित होंगे तथा वे सदा तीर्थों में निवास रत रहेंगे एवं वेदान्त आदि सभी शास्त्रों में दृढ निष्ठा वाले होंगे और वे जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की सेवा में सर्वदा दत्तचित्त होकर श्रीरामकबीराचार्यजी के नाम से संसार में प्रसिद्ध होंगे।

भावानन्दोऽथ जनको मूले परिघसंयुते ।

वैशाखकृष्णषष्ठ्यान्तुकर्केचन्द्रजनिष्यति ॥४१॥

अर्थ- श्रीजनकजी मूल नक्षत्र परिघयोग कर्क लग्न में वैशाख कृष्ण षष्ठी सोमवार को श्रीभावानन्दजी के रूपमें अवतरित होंगे, वे महाबुद्धिशाली महात्मा-परतत्व चिन्तन में संलग्न एवं सर्वदा सर्वेश्वर श्रीरामजी की सेवा में तत्पर श्रीभावानन्दाचार्यजी के नाम से जगत में ख्याति प्राप्त करेंगे।

रामसेवापरोनित्यं स महात्मा महामतिः ।

भीष्मः सेनाभिधो नाम तुलायां रविवासरे ॥४२॥

द्वादश्यां माघकृष्णे तु पूर्वभाद्रपदे च भे ।

तदीयाराधनेसक्तो ब्रह्मयोगे जनिष्यति ॥४३॥

अर्थ- श्रीभाष्मजी पूर्वभाद्रपद नक्षत्र ब्रह्मयोग तुला लग्न में माघकृष्णपक्ष की द्वादशी एवं रविवार को श्रीसेनजी के नाम से अवतरित होंगे वे भगवान् तथा भगवद्भक्तों की सेवा में सदा तल्लीन रहेंगे और श्रीसेनदासजी के नाम से प्रसिद्ध होंगे।

श्रीमाघस्यासिताष्टम्यां वृश्चिके शनिवासरे ।

धनाभिधोवलिः साक्षात्पूर्वाषाढयुते शिवे ॥४४॥

वरो भक्तिमतां जातस्तदीयाराधने रतः ।

सदाचारपरो धीमान् गुरुपादाम्बुजार्चकः ॥४५॥

अर्थ-साक्षात् श्रीबलिजी ही पूर्वाषाढा़ नक्षत्र शिवयोग एवं वृश्चिक लग्न में माघकृष्ण अष्टमी शविवार को श्रीधनाजी के नाम से अवतरित होंगे वे बुद्धिमान् भक्तिमान् पुरुषों में श्रेष्ठ भगवद्भक्तों की आराधना सेवा करने में सदा तत्पर सदाचारों के पालन में सदा निरत एवं गुरुदेव जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के श्रीचरणकमलों के आराधन करनेवाले होंगे तथा श्रीधनादासजी इस नाम से लोक प्रसिद्ध होंगे।

तत्त्वज्ञो गालवानन्दो जात एकादशीतिथौ ।

चैत्रे वैयासकिश्चन्द्रे कृष्णे लग्ने वृषे शुभे ॥४६॥

सर्वदाज्ञाननिष्ठोऽयमुपदेशपरायणः ।

वेदवेदान्तनिरतो महायोगी महामतिः ॥४७॥

अर्थ- श्रीरामतत्त्व को जानने वाले श्रीव्यासनन्दन शुकमुनिजी शुभयोग वृष लग्न चैत्र कृष्णपक्ष के एकादशी तिथि सोमवार को श्रीगालवानन्दजी के रूपमें अवतरित होंगे, वे महायोगी महाबुद्धि वाले एवं वेद तथा वेदान्त में रत और तत्त्व ज्ञाननिष्ठ एवं सर्वदा जीवों को श्रीरामतत्त्व का उपदेश करने में तत्पर रहेंगे एवं श्रीगालवानन्दाचार्यजी के रूपमें जगद् प्रसिद्ध होंगे। 

चैत्रशुक्लद्वितीयायां शुक्रे मेषेऽथ हर्षणे ।

यम एव रमादासस्त्वाष्ट्रे प्रादुर्भविष्यति ॥४८॥

पालनं वैष्णवाज्ञानां कुर्वन्नित्यमतन्द्रितः ।

धर्ममेवाचरल्लोके धर्माधीश उदारधीः ॥४९॥

अर्थ- श्रीयमराजजी चित्रा नक्षत्र हर्षण योग मेष लग्न में चैत्र शुक्ल द्वितीया शुक्रवार को श्रीरमादासजी के रूपमें अवतरित होंगे, वे उदार बुद्धिवाले श्रीरमादासजी अति सावधानी से आलस्य रहित होकर श्रीवैष्णवाचार्य गुरुदेव जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की आज्ञाओं का पालन करते हुये सर्वेश श्रीरामजी की आराधना तथा श्रीवैष्णवधर्म पालन एवं सन्तों की आराधना कर श्रीरमादास-रैदास या रविदासजी आदि नामों से संसार में प्रसिद्ध होगे।

चैत्र शुक्लत्रयोदश्यां गुरौ कर्के ध्रुवान्विते ।

उत्तराफाल्गुनी संज्ञे जाता पद्मावती सती ॥५०॥

श्रीमदाचार्यसन्निष्ठा सा पद्मवापरा सदा ।

धर्मज्ञा धर्मनिरता गुरुभक्ति परायणा ॥५१॥

अर्थ- उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र ध्रुवयोग कर्क लग्न में चैत्रशुक्ल त्रयोदशी गुरुवार को श्रीपद्मावतीजी अब तरित होंगी, वे जगदाचार्यश्री में दृढनिष्ठा वाली धर्मतत्त्व को जानने वाली श्रीवैष्णवधर्म में सर्वदा तत्पर एवं सर्वदा गुरुभक्ति परायणता के कारण दूसरी पद्माजी के समान प्रसिद्ध होंगी।

एवमेतादृशैस्तैस्तैः शिष्यैद्वादशभिर्महान् ।

शोभिष्यत्यर्चितोदेव्यापदावव्या च सन्ततम् ॥५२॥

अर्थ- इसप्रकार ब्रह्मा आदि देवों से उत्पन्न उन-उन श्री अनन्तानन्दाचार्यजी आदि बारह महाभागवतों एवं श्रीपद्मावतीजी आदि अन्य अनेक साधक श्रीवैष्णव समुदाय से सर्वदा पूजित सेवित होकर श्रीसम्प्रदाय के महान प्रधान आचार्य जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सतत शोभित होंगे।

श्रीमानाचार्यवर्योऽयं रामानन्दो महामतिः ।

शिष्योपशिष्यैरन्यैश्च शोभितोऽहर्दिवं भुवि ॥५३॥

अर्थ- महान् बुद्धि वाले श्रीमान् स्वामी रामानन्दाचार्यजी जो कि सभी आचार्यों में श्रेष्ठ हैं पृथ्वी पर शिष्यों एवं उप-शिष्यों तथा अन्यों के साथ दिन-रात शोभित होंगे।

पूज्यो ध्येयश्च जगतां रामरूपो जगद्गुरुः ।

हेतुः कल्याणमार्गस्य शुभदोज्ञानदोऽनिशम् ॥५४॥

अर्थ- 'रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले' इस वैश्वानरसंहिता के वचनानुसार साक्षात् श्रीरामजी के अवतार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वेश श्रीरामचन्द्रजी के समान ही कल्याण मार्ग सायुज्य मुक्ति के कारण एवं निरन्तर शुभद-वेद वेदान्तादि का आनन्दभाष्यों द्वारा तत्त्वज्ञान के उपदेश देनेवाले और संसार में साधकों के ध्येय ज्ञेय एवं पूज्य के रूपमें प्रसिद्ध होंगे।

यस्य दर्शनमात्रेण स्मरणेन सदा क्षितौ ।

नाम व्याहरणाद्धीना नरा मुक्ता न संशयः ॥५५॥

अर्थ- इस पृथ्वी में उन श्रीरामरूप जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी का सदा दर्शनमात्र से या स्मरण मात्र से अथवा नाम लेने मात्र से हीन-पापाचार परायण मनुष्यवर्ग मुक्त हो जायेंगे इसमें संशय का स्थान नहीं।

यदीयमतमालम्व्य मन्त्रमन्त्रार्थभूषितम् ।

भूष्यते भूरियं लोकै  र्राजितैर्मुनिवृत्तिभिः ॥५६॥

अर्थ- जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी से प्रचारित-प्रसारित सनातन वैदिक विशिष्टाद्वैत मत जो कि वेद मन्त्रों एवं वास्तविक मन्त्रार्थों से विभूषित है उसका आलम्बन-आश्रय लेकर मुनिवृत्ति वास्तविक तत्त्वों के मननशील आचरण वालों से सुशोभित लोकों से यह भारत भूमि भूषित होगी।

शरचन्द्रायते लोके कीर्तिर्यस्य महात्मनः ।

विशदा पावनी पुण्या श्रृण्वतां पापनाशिनी ॥५७॥

अर्थ- उन महामना जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की सारे संसार को धवलित कर देनेवाली पापों का नाश करनेवाली अति उज्ज्वल पवित्र कीर्ति श्रवण करने वालों के पापों का नाश करेगी एवं शरद काल के चन्द्रमा के समान सभी को आनन्द देनेवाली होगी।

हरिभक्तिप्रदा नृणां तथा ज्ञानप्रकाशिनी ।

मोहान्धकारसंघप्रध्वंसिनी शुभदायिनी ॥५८॥

अर्थ- एवं वह आचार्य श्री की कीर्ति साधक मनुष्यों को श्रीरामचन्द्रजी की भक्ति को प्रदान करनेवाली तथा ज्ञान का प्रकाश करनेवाली एवं मोहरूप अन्धकार के समूह को समूल नाश करनेवाली और कल्याण को प्रदान करनेवाली होगी।

स एष भगवद्रूपो धर्मो विग्रहवानिव ।

द्विषतानिह दुर्धर्षः सेवनीयः सतां सदा ॥५९॥

अर्थ-'तप्तकाञ्चनसंकाशो रामानन्दः स्वयं हरिः’ 'पारं कर्तुं हि धर्मात्मा रामानन्दः स्वयं स्वभूः’ 'रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले' इत्यादि वैश्वानर पाञ्चरात्रागम से बोधित इस भूमण्डल में प्रख्यात साक्षात् श्रीरामजी के अवतार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी हैं अतः वे 'रामो विग्रहवान् धर्मः' सर्वेश्वर श्रीरामजी साक्षात् धर्म शरीर वाले हैं यानी धर्म ही श्रीरामजी का श्री विग्रह-शरीर है, इस महर्षि वचनानुसार धर्म विग्रह रूप श्रीरामजी के अवतार जगदाचार्यजी भी धर्म विग्रह शरीर वाले ही हैं अतः श्रीदशरथनन्दनजी के समान भगवान श्री आनन्दभाष्यकार भी इस संसार में अनादि वैदिक विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त विरोधियों के लिये दुर्धर्ष अदम्य अपराजित एवं सद्धर्म सत्कर्म साधनानन्य सज्जन पुरुषों के लिये सदा सेवनीयतया प्रसिद्ध होंगे।

तज्जन्ममासर्क्षतिथौ तदीयैस्तदीयजन्मोत्सवमुत्सवोत्सुकैः ।

विधेयमेवंप्रतिवर्षमुत्तमंविधानविज्ञैर्विधिना हि वैष्णवैः ॥६०॥

अर्थ-'आचार्यदेवोभव' इस वेद वचन के अनुसार अपने आराध्य इष्ट देव के समान ही अपने सम्प्रदाय के प्रधान आचार्यजी का प्राकट्योत्सव विशेष समारोह के साथ मनाने का शास्त्रीय विधान है अतः श्रीवैष्णवों को श्रीआनन्दभाष्यकारजी की अवतार तिथि माघकृष्ण सप्तमी को आचार्यजी का अवतारोत्सव विशेष उत्साह के साथ पूजाविधि में निपुण श्रीवैष्णव से सविधि पूजा सम्पादन करवा कर श्रीरामानन्दीय श्रीवैष्णवों को प्रति वर्ष जगदाचार्यश्री के अवतार मास पक्ष नक्षत्र युक्त तिथि के दिन उत्तम प्रकार से आचार्यजी का अवतारोत्सव सम्पन्न करना चाहिये।

पूजोपहारैरुचिरैर्यथोचितं देवं समभ्यर्च्यसशिष्यसङ्गम् ।

वाद्यैर्मृदङ्गादिभिरद्धतैः परैर्नृत्यैस्तथागीतवरैः प्रसादयेत् ॥६१॥

अर्थ- आचार्य श्री की देशकालानुसार यथोपलब्ध पूजा के सामग्री से श्रीअनन्तानन्दाचार्यजी आदि बारह शिष्य समूहों के साथ आगे बताये विधि के अनुसार, भगवान आनन्दभाष्यकार जी की पूजा करके मृदङ्ग आदि अद्भुत श्रेष्ठ वाद्यों शास्त्रीय मर्यादा युक्त नृत्य एवं आचार्य कीर्ति बोधन परक श्रेष्ठ गीत-श्लोक पाठ सुन्दर स्तुति आचार्यमहिम्नस्तव के गानों से आचार्य श्री को प्रसन्न करें।

तदीयजन्मोत्सवसत्कथाभिस्तत्तोषहेतुस्तुतिभिस्तथैव ।

अन्यैस्तदीयाचरितैव्रतादिभिर्निस्तन्द्रिरेवंगुरुभक्तितत्परः ॥६२॥

अर्थ- जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की आराधना में तत्पर श्रीवैष्णवों को निद्रा-आलस्य से रहित होकर के भगवान श्रीआनन्दभाष्यकार जी के जन्म-अवतार सम्बन्धी सत्कथा से एवं आपके तोष के कारणभूत सुन्दर स्तुतियों से तथा आचार्य श्री से आचरित व्रतों के आचरण से और आवार्यजी से उपदिष्ट ज्ञान के श्रवण से एवं आपकी दिग्विजय यात्रा व तीर्थाटनादि की वार्ता के श्रवण से आचार्यश्री को सन्तुष्ट करें।

एवं स कुर्वन् विधितस्तदर्चनं तत्तोषहेतुंच महोत्सवं बुधः ।

निरालसोभक्तियुतोलभेतस्वाभीष्ठसिद्धिं महतीं न संशयः ॥६३॥

अर्थ- पूर्वोक्त विधान से आचार्यजी की आराधना करने वाला बुद्धिशाली आराधक भक्ति युत एवं आलस्य रहित होकर के श्री आनन्दभाष्यकारजी का सन्तोष का हेतु उनकी सविधि अर्चना तथा महोत्सव को करने से बड़ी अभिलषित सिद्धि को प्राप्त करलेगा इसमें संशय नहीं है।

निशम्य तद्वाक्यमथोमहात्मनोमुनेः प्रहृष्टः कलशोद्भवस्य ।

मुनिःसुतीक्ष्णः ससुतीक्ष्णबुद्धिर्विधिंचप्रष्टा हि तदर्चने पुनः ॥६४॥

अर्थ- कुम्भ से उद्भूत महान् आत्मा वाले मुनीश्वर श्रीअगस्त्यजी के पूर्वोक्त श्रीआचार्यजी के अवतार एवं पूजन सम्बन्धी वचनों को सुनने के बाद तीक्ष्ण बुद्धि वाले मुनी श्रीसुतीक्ष्णजी अति प्रसन्न हुये, अनन्तर जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के पूजा का विधान जानने के लिये विनम्रभाव से प्रश्न किये।

–इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायामगस्त्यसुतीक्ष्णसम्वादे भव्योत्तरखण्ड श्रीरामानन्दाचार्यावतारोपाख्यानं नाम द्वात्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः १३२

 

तज्जन्म पावनं पुण्यं कथितं परमं त्वया ।

तदर्चनविधिं मह्यं वक्तुमर्हस्यथाधुना ॥१॥

अर्थ - श्रीअगस्त्यजी से श्रीसुतीक्ष्णजी सादर निवेदन करते हैं- हे मुनीश्वर ! आपने अनुग्रह करके, जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी का परम पवित्र एवं परम पुण्य को बढ़ाने वाला अवतार सम्बन्धी कथा का वर्णन किया, अब उन आचार्यश्री के अर्चन पूजा की विधि को भी मुझ पर अनुकम्पा कर उपदेश करें।

जगतामुपकर्ता त्वं दयालुर्धीमताम्वरः ।

समभ्यर्च्य जना येनाचार्यं श्रेयः समाप्नुयुः ॥२॥

अर्थ- कारण कि आप बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं तथा जगत् का उपकार करने वाले है एवं दयालु हैं इसलिये जिस विधान से आचार्य चरण की पूजा करके साधकजन श्रेयः सायुज्य मुक्ति को प्राप्त कर सकें उस विधान का उपदेश करें।

श्रूयतामिति चामन्त्र्य कथयिष्यति कुम्भजः ।

अम्बुजं बत्र्तुलाकारं द्वादशदलसंयुतम् ॥३॥

सुव्यक्तं तैर्दलैर्व्यक्तैर्दर्शनीयं सुशोभनम् ।

तन्मध्ये कर्णिकायान्तु यन्त्रषट्कोणमालिखेत् ॥४॥

अर्थ- इसके बाद श्रीअगस्त्यजी ने सुतीक्ष्णजी से कहा कि अब आप उस विधि को सुनिये, पहले १२ दल वाला कमल गोलाकार बनावें। उन दलों को देखने योग्य एवं सुन्दर शोभायमान प्रकट करें (बनावें) उसके बीच में कर्णिका के ऊपर षष्टकोण का यन्त्र लिखें। 

तत्राचार्यवरं देवं रामानन्दमुदारधीः ।

विन्यसेत् साङ्गमर्काभं तं दिव्यगुणशालिनम् ॥५॥

अर्थ- उदार बुद्धि वाले आचार्य श्री के पूजक व्यक्ति को उस कमल दल के मध्येस्थित छः कोण वाले यन्त्र के बीच में दया दाक्षिण्यादि अनेक दिव्यगुणों से सुशोभित सूर्यदेव के समान प्रकाश वाले अङ्ग श्रीअनन्तानन्दाचार्य जी प्रभृति बारह शिष्यों के साथ आचार्य प्रवर दिव्य सर्वगुणगणों से अलंकृत जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी को स्थापित करें।

सपूर्वदिशमारभ्य दलेषु क्रमशो न्यसेत् ।

अनन्तानन्दमुख्यांस्तान् द्वादशादित्यसन्निभान् ॥६॥

अर्थ- आराधक पुरुष मध्य में आचार्यश्री को पधारने के बाद पूर्व दिशा के क्रमानुसार बारह सूर्य के समान दिव्य तेज से लोकोपकारक मुख्य शिष्य श्रीअनन्तानन्दाचार्य जी के साथ कमल के एक एक केशर पर अन्य ग्यारह शिष्यों को भी पधरावे।

यन्त्रमेवं सुसम्पाद्य तदर्धनपरायणः ।

पूजयेत्तत्र तान्सर्वानर्घ्यपाद्यादिभिर्वरैः ॥७॥

पूजोपहारैः सकलैर्भक्त्या परमयायुतः ।

एकाग्रमानसो भूत्वा तमेव मनसा स्मरन् ॥८॥

अर्थ-पूर्व में वर्णित क्रम से पूजा यन्त्र को अच्छी तरह से तैयार करके आराधना करने वाले व्यक्ति को परम भक्ति से युक्त होकर मनको एकाग्र करके अपने आराध्य जगदाचार्य श्री के पूजन में तत्पर हो उन्हीं आचार्य श्री को मन से स्मरण करता हुआ उस यन्त्र में सभी द्वादश शिष्यों के सहित श्री आनन्दभाष्यकार जी का सम्पूर्ण पाद्य अर्घ्य आदि श्रेष्ठ षोडशोपचार साधनों १- आवाहन २-आसन ३-पाद्य ४-अर्घ्य ५- आचमनीय ६-स्नान ७-वस्त्र ८-यज्ञोपवीत ९ गन्ध १०-पुष्प ११-धूप १२-दीप १३-नैवेद्य १४-निराज १५ पुष्पाञ्जलि १६-प्रदक्षिणा नमस्कारों से पूजन करना चाहिये।

नमः आचार्यवर्याय रामानन्दाय धीमते । 

मोक्षमार्गप्रकाशाय चतुर्वर्गं प्रदाय च ॥९॥

अर्थ- अनन्तर पूजक को सभी आचार्यों में श्रेष्ठ, बुद्धिशाली एवं सायुज्य मोक्ष के मार्ग को प्रकाशित करनेवाले तथा धर्म अर्थ काम एवं सायुज्य मोक्षरूप चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले श्रीरामानन्दाचार्यजी को सादर नमस्कार है।

इतिमन्त्रविधानेन समर्चेद्विधिनार्चकः ।

अर्घ्यपाद्यादिभिस्तैस्तैर्गन्धपुष्पाक्षतैः फलैः ॥१०॥

नैवेद्यैरुत्तमैः श्रेष्ठःषड्रसैः सुमनोहरैः ।

ताम्बुलैर्दक्षिणाभिस्तं तोषयेन्नृत्यगीतिभिः ॥११॥

अर्थ- आचार्यश्री की आराधना करने वाला साधक ऊपर बताये अनुसार 'ॐ नमः आचार्यवर्याय श्रीरामानन्दाचार्याय' इस मन्त्र से पाद्य अर्घ्य गन्ध पुष्प अक्षत फल छरस युक्त मनोहर उत्तम नैवेद्य ताम्बुल एवं दक्षिणा आदि उन उन उत्तम सामग्रियों से सविधि उन जगदाचार्य श्री का पूजन करे अनन्तर नृत्य गान स्तुति कवच प्रभृति की पाठ प्रार्थना आदि से उहें सन्तुष्ट करें।

एवं दलेषु शिष्यांस्तान् पूजयेदमलात्मना ।

प्रणवादिचतुर्थ्यन्तनाममन्त्रैर्विधानतः ॥१२॥

अर्थ- इस प्रकार कमल के दलों में स्थित उन सभी महात्माओं का पूजन चतुर्थान्त नाम रूप प्रणवादि मन्त्रों से विधि पूर्वक पूजा करें। जैसे- (ॐ नमो अनन्तानन्दाय) अथवा (अंअनन्तानन्दाय नमः) ।

स्तुवीत स्तुतिभिर्देवं सशिष्यं भक्तितत्परः ।

ज्ञानविज्ञानदीपं तमुदारयशसं प्रभुम् ॥१३॥

अर्थ-पूजा विधान सम्पन्न हो जाने पर साधक अति भक्ति भावना से ज्ञान एवं विज्ञान को प्रकाशित करनेवाले सर्व समर्थ दीप स्वरूप तथा उदार हृदय वाले एवं यशस्वी देव जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की सभी बारह शिष्यों की स्तुति करें।

जगद्गुरो नमस्तेऽस्तु हरये विश्वबन्धवे ।

मोक्षमार्गप्रकाशाय प्रणतार्तिहराय ते ॥१४॥

अर्थ-हे जगत् के गुरुजी ! हे सर्वपाप को हरण करने वाले ! हे विश्व के हित करनेवाले ! हे सायुज्य मोक्ष के मार्ग का प्रकाशक ! हे शरण में आये जीवों के दुःखों का नाश करनेवाले ! आपको इस सेवक का नमस्कार-सादर दण्डवत् प्रणाम है, वह स्वीकार करें।

स पार्षदाय साङ्गाय सदा पावनकीर्तये ।

नमस्तेऽगाधबोधाय प्रणताभीष्टदायिने ॥१५॥

अर्थ- श्रीअनन्तानन्दाचार्यजी आदि पार्षदों तथा उपाचार्य द्वाराचार्य प्रभृति अङ्गों के साथ सदा विराजमान एवं लोगों को पवित्र करनेवाली कीर्ति वाले तथा अगाध तत्त्वबोध वाले और प्रणत-शरण में आये जनों को अभीष्ट पदार्थ देनेवाले हे अनन्त महापुरुष ! आचार्य प्रवर ! आपको सादर नमस्कार है।

सत्यव्रताय शान्ताय दान्ताय जगदात्मने ।

नमोऽनन्ताय महते निर्जिताशेषविद्विषे ॥१६॥

अर्थ- मन बुद्धि अहङ्कार एवं चित्त इन चारों को वश में रखकर साधना में व्यावृत शान्त स्वरूप एवं इन्द्रियों को वश में रखकर कार्यदक्ष तथा सत्य व्रत और जगत् के आत्मा स्वरूप एवं अनन्त रूपसे स्थित होकर सर्वजन पूजनीयता को प्राप्त तथा सनातन श्रीवैष्णवधर्म के विरोधी समस्त व्यक्तियों को जितने वाले आनन्दभाष्यकार आचार्य श्री को अनेक बखर सादर नमन है।

विधृतज्ञानमुद्राय योगिने योगशालिने ।

नमस्तेऽस्तु दयासिन्धो जगज्जन्मादिहेतवे ॥१७॥

अर्थ- ज्ञानमुद्रा धारण कर योग साधना में तल्लीन एवं पारमार्थिक योग साधना से सुशोभित संसार के जन्म स्थिति एवं संहार के कारणरूप हे दया के समुद्र स्वरूप आचार्य प्रवर आपको सादर वन्दन है।

भीमे भवार्णवेऽनन्यः शरणः पतितः प्रभो ।

पादपद्मद्वयं तेऽहं व्रजामि शरणं सदा ॥१८॥

अर्थ- हे सर्वजनोद्धारण समर्थ आचार्य प्रवर ! मैं भयङ्कर संसार स्वरूप समुद्र में पड़ा हुआ हूँ, मेरा आपको छोड़ अन्य कोई भी रक्षक नहीं है इसलिये मैं आपके श्रीचरणकमलों का शरण ग्रहण करता हूँ। शरणागत को सर्वदा के लिये अभय प्रदान करनेवाले प्रभो ! मेरी रक्षा करें।

इत्यभिष्टूय तं धीमान् दद्यात्पुष्पाञ्जलिं मुदा ।

प्रणमेद्दण्डवद्भूमौ साष्टाङ्गं विधिवत्ततः ॥१९॥

अर्थ- बुद्धिमान् साधक को पूर्वोक्त प्रकार से प्रसन्नता पूर्वक आचार्यश्री की स्तुति करके आचार्य श्री के श्रीचरणों में पुष्पाञ्जलि अर्पित करना चाहिये।

अथजन्मकथान् तस्य श्रृणुयात् पापनाशिनीम् ।

गदतां श्रृण्वतामाशु विशदां तां शुभप्रदाम् ॥२०॥

अर्थ- आचार्य श्री को दण्डवत् प्रणाम करने के बाद कहने वाले एवं सुनने वाले दोनों के ही पापों का नाश करनेवाली एवं शीघ्र ही शुभ फलों को प्रदान करनेवाली जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की विविध प्रकार की विशद् अवतार कथाओं को सावधान होकर सुने।

एवं मुने त्वं जानीहि तदर्चनविधिं महत् ।

लोकेऽनेन विधानेन तमभ्यर्च्यमहामुनीम् ॥२१॥

प्राप्स्यन्ति च क्षितौलोकावाच्छितार्थमसंशयम् ।

नरास्तद्भावनायुक्ताः प्रणताविशदाशयाः ॥२२॥

अर्थ- हे मुनिजी ! जगदाचार्य श्री के महान् पूजन विधि को पूर्वोक्त प्रकार से जानें, लोक में नम्र एवं भक्ति भावयुक्त स्वच्छ अन्तःकरण वाले साधकजन पूर्व वर्णित विधान के अनुसार उन महापुरुष श्रीरामरूप श्रीरामानन्दाचार्यजी का पूजन कर अभिवाञ्छित फल को प्राप्त करेंगे इसमें संशय नहीं है।

मुने स भगवानित्थं सुतीक्ष्ण जगदीश्वरः ।

सत्यसन्धोहरिर्जातो विधास्यति शुभं नृणाम् ॥२३॥

अर्थ- हे सुतीक्ष्ण मुनिजी ! सत्य प्रतिज्ञा वाले भक्तों के दुःखों को अपहरण करने वाले जगदीश्वर वे भगवान् श्रीरामजी पूर्व कथित प्रकार से पार्षदों के साथ अवतार लेकर संसार के मनुष्यों का कल्याण करेंगे।

चार्वाकादिमतारूढान् वहुधादुर्मतीन् कलौ ।

करिष्यति नरान् जित्वा रामभक्तिपरायणान् ॥२४॥

अर्थ- वे आचार्य श्री कलियुग के प्रताप से पथ भ्रष्टजनों को कलियुग में भी चार्वाक, बौध आदि नास्तिक मत में स्थित दुर्मति वाले जनों को शास्त्रार्थ से सत् युक्ति से मन्त्र शक्ति से - सिद्धि चमत्कृति आदि अनेक उपायों से जीतकर सनातन श्रीवैष्णव धर्मानुकूल करके उन सभी को श्रीरामभक्ति परायण कर देंगे।

यत्प्रतापवशादेवभविष्यन्ति कलौनराः ।

धर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठामोक्षमार्गरताः सदा ॥२५॥

अर्थ-भयावह कलियुग में भी उन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के प्रबल प्रताप के कारण नर सदा धर्मनिष्ठ तपनिष्ठ एवं सायुज्य मोक्ष के मार्ग में निरत होंगे।

तस्मिन् महीतलं याते नृणां किं वर्णयाम्यहम् ।

भाग्यं साक्षाद्धरौप्रीतेसच्चिदानन्दविग्रहे ॥२६॥

अर्थ- मुनीश्वर सुतीक्ष्ण ! सत् चित् एवं आनन्द विग्रह वाले भक्तों के दुःखों को हरण करनेवाले साक्षात् श्रीरामचन्द्रजी के पृथिवी में श्रीरामानन्दाचार्यजी के रूपमें अवतरित होने पर मनुष्यों के भाग्य का वर्णन मैं क्या करूं अर्थात् साधक जनों ने वर्णनातीत आनन्द का अनुभव किया।

धन्यास्तदातन्मुखपङ्कजं नरा द्रक्ष्यन्ति ये तापहरं च पश्यताम् ।

श्रोष्यन्ति वाचं परमामृतायनां ते भूरिभाग्या वत निर्मलाशयाः ॥२७॥

अर्थ- श्रीसुतीक्ष्णजी ! जो दर्शन करने वाले मनुष्यों के दैहिक दैविक एवं भौतिक तीनों तापों को दूर करने वाले जगदाचार्य श्री के मुखरूप कमल का अवलोकन करेंगे वे धन्य हैं तथा जो अति निर्मल अन्तःकरण वाले आचार्य श्री के अमृत के समान सुखदायक श्रीवचनामृतों का श्रवण करेंगे वे भी बड़े भाग्यशाली हैं।

–इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायां सुतीक्ष्णागस्त्य सम्वादे, भव्योत्तरखण्ड साङ्ग सशिष्य श्रीरामानन्दाचार्य यन्त्रार्चनप्रकारोनाम त्रयत्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः १३३

 

शिष्यैद्वादशभिः श्रीमानथैतैरर्कसन्निभैः ।

सूर्यैद्वादशभिर्नित्यं यथा विष्णुः प्रतापवान् ॥१॥

विराजमानः सततं पर्यटन्नवनीमिमाम् ।

द्वारकादिषु तीर्थेषु तत्र तत्र जगद्गुरुः ॥२॥

अर्थ- अनन्तर अपने अवतार के उद्देश्यों-अनादि वैदिक विशिष्टाद्वैतमत रूप धर्मसंस्थापनार्थ तीर्थाटन को निमित्त बनाकर श्रीद्वारका-विश्रामद्वारका श्रीरामेश्वर श्रीजगन्नाथपुरी श्रीबद्रीनाथ प्रभृति सभी तीर्थों में जिसप्रकार बारह सूर्यों के साथ अति प्रताप वाले श्रीविष्णु भगवान् शोभित होते हैं उसीप्रकार बारह सूर्य के समान अति प्रतापशाली द्वादश शिष्यों के साथ विराजमान होकर यतिराज जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वदा उन उन प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध सभी भारतीय तीर्थस्थानों में भ्रमण करेंगे।

विद्विषां जित्वरो वादैः श्रुतिस्मृतिसमुत्थितैः ।

विपरितान् वशीकुर्वन् कुर्वन् शिष्यांश्च तानथ ॥३॥

अर्थ- विशिष्टाद्वैतमतवाद विरोधी आदि शत्रुओं को श्रुतिस्मृति इतिहास आदि सत् शास्त्र एवं सत् तर्क तथा सत् युक्तियों से पराजीत करते एवं विपरिताचरण वेद मार्ग विरुद्ध आचरण वाले जैन बौद्ध शाक्त प्रभृतियों को सत् वादों से वश में कर उहें शिष्य बनाकर सनातन श्रीवैष्णवधर्म में प्रवर्तन करते हुये समस्त भारतवर्ष में परिभ्रमण करेंगे।

षडक्षरं मन्त्रराजं तेभ्यश्चोपदिशन् मुनिः ।

मन्त्रार्थं श्रावयन्नित्थं मन्त्रज्ञैस्तैरुपासितः ॥४॥

अर्थ- जहाॅं-तहाॅं स्वशरणापन्न जनों को षडक्षर मन्त्रराज श्रीराम महामन्त्र का उपदेश करते हुये श्रीराम महामन्त्र के तत्त्वों को जानने वाले साधकों से उपासित-सेवित होकर उन जिज्ञासुओं को श्रीराममन्त्रों के अर्थों तात्पर्यार्थ रहस्यार्थ आदि को उपदेश करते हुये भ्रमण करेंगे।

आसमुद्रं चतुर्दिक्षु विचरन् धर्मतत्परः ।

कर्ता वै बहुधालोकं रामाभिरतमुत्तमम् ॥५॥

अर्थ- श्रीवैष्णवधर्म चक्र स्थापन में संलग्न जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी पूर्व पश्चिम उत्तर एवं दक्षिण में समुद्र पर्यन्त चारों दिशाओं में परिभ्रमण करते हुये अनेक शस्त्र शास्त्र तथा उपदेश आदि अनेक प्रकार से लोगों को सर्वतोभाव से श्रीरामचन्द्रजी के प्रति विशिष्ट अनुराग वाले बनायेंगे।

लेष्यन्ति नास्तिकास्तस्य प्रतापहततेजसः ।

तमोपहे यथासूर्येऽभ्युदिते तारकागणः ॥६॥

अर्थ- उन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के प्रताप से नष्टतेज होकर नास्तिक लोग उसी तरह नष्ट शक्ति होकर छिप जायेंगे जैसे तम को नाश करनेवाले सूर्यदेव के उदित होने पर तारागण नष्ट तेज होकर छिप जाते हैं।

एवमेवात्र सुतीक्ष्ण विचरन् सर्वतो मुनिः ।

श्रेयः सम्पादयन् नृणां हरन्नज्ञानजं तमः ॥७॥

राजिष्यते स्वयं स्वीयैर्भानुभिर्भानुमान्निव ।

असंख्येयैर्गुणैः शुभ्रैर्जगत्पालनतत्परः ॥८॥

अर्थ- मुनीश्वर सुतीक्ष्णजी ! पूर्व वर्णित क्रम से संसार को धार्मिक रूपसे पालन-पोषण में तत्पर श्रीरामतत्त्व मननशील जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी आर्यवर्त में सर्वत्र भ्रमण करते मनुष्यों के कल्याण रूप लक्ष्य का सम्पादन करते हुये एवं उनके अज्ञान रूप अन्धकार का हरण करते हुये जिस प्रकार सूर्यदेव अपनी किरणों से शोभित होते हैं उसी प्रकार अपने ही अनन्त निर्मल दया दाक्षिण्यादि निर्मल एवं श्रीअनन्तानन्दाचार्यादि गुण-स्वभाव वाले शिष्यवर्गों से प्रकाशित होंगे।

प्रकृत्याशीलसम्पन्नो दयारत्नकरो महान् ।

धर्मत्राणाय लोकेऽस्मिनवतीर्णः परः पुमान् ॥९॥

अर्थ- वे प्रकृति-स्वभाव से ही शील से युक्त दया के समुद्र सर्व व्यापक परम पुरुष श्रीरामजी ही 'रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले' इस आगम वचन के अनुसार श्रीरामानन्दाचार्यजी के रूपमें 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः । आभ्युत्त्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्' इस प्रतिज्ञा वचन के अनुसार श्रीवैष्णवधर्म संरक्षणार्थ इस भारत वसुन्धरा में अवतरित हुये हैं।

महाव्रतधरो धीमान् सर्वविद्याविशारदः ।

निस्पृहः सर्वकामेभ्यः स्वात्मारामोमहामुनिः ॥१०॥

अर्थ- वे विशिष्ट बुद्धिशाली सभी विद्याओं में पारङ्गत एवं सर्वदा श्रीरामजी की सेवारूप महान् व्रत को धारण करने और सभी लौकिक कामनाओं से निस्पृह तथा केवल स्वआत्मा चिन्तन एवं परमात्मा रूपतत्त्व चिन्तन में ही मग्न रहने वाले महामुनि श्रीरामानन्दाचार्यजी इस भूतल में स्वयं प्रसिद्ध होंगे।

रामानन्द उदारकीर्तिरतुलः श्रीयोगिवर्याग्रणीः पाखण्डाद्रिविभेदनाशनिरह्मे धर्माभिसम्बर्धनः ।

श्रीमान् दिव्यगुणालयोनिजयशः स्तोमाङ्कित्तक्ष्मातलः सिद्धध्येयपदाम्बुजोविजयतेऽज्ञानान्धकारापहः ॥११॥

अर्थ- अनुपम उदार कीर्ति वाले साधनारत योगियों में श्रेष्ठ एवं पाखण्ड रूप पर्वतों के विदारण करने में बज्र के समान और सारे संसार में श्रीवैष्णवधर्म का विस्तार करने वाले तथा दया दाक्षिण्य शौशिल्य आदि अनेक दिव्यगुणों के आधार स्थान और अपने शुभ यश समूह से पृथिवी को अलंकृत करने वाले तथा जिन आचार्यश्री के चरणकमलों का ध्यान सिद्ध साधक पुरुषवर्ग किया करते हैं और अज्ञान रूप अन्धकार को तत्त्व ज्ञानोपदेश से नाश करनेवाले हैं ऐसे जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वोत्कृष्ट रूपसे विराजमान है।

वेदार्थसम्पादकसम्मुखाम्बुजस्त्रितापसंहारकचारुलोचनः ।

भवाब्धिसन्तारकपादपङ्कजोनिजेष्टपूर्त्यार्पितकल्पपादपः ॥१२॥

अर्थ- जिन आचार्य श्री का मनोहारी मुखरूप कमल वेद एवं वेदान्त आदि शास्त्रों के वास्तविक अर्थ को सम्पादन विवेचन द्वारा लोगों को समझाने वाला है एवं जिनके आकर्षक नेत्र दैहिक दैविक तथा भौतिक तीनों तापों को हरण करने वाले हैं और जिन आचार्य श्री के श्रीचरणकमल शरणाफ्त्रजनों को संसाररूप समुद्र से सदा के लिये पार उतार देनेवाले हैं एवं जिह्नोंने जीवों के इच्छित फल सायुज्य मुक्ति की प्राप्ति के लिये तारक षडक्षर श्रीराम महामन्त्र रूप कल्पवृक्ष सभी को प्रदान किया-सुलभ कराया ऐसे सर्वजनों के उद्धारक आचार्य जी सर्वतोभाव से विजयी हों।

विधूतशत्रुधृविमान् धरातलं यशस्समूहैर्विदधत् सुनिर्मलम् ।

प्रकाशमानात्मविभूतिभूषितःप्रभूतविद्याप्रभवःप्रभाववान् ॥१३॥

अर्थ- धैर्यशाली एवं शत्रुओं पर विजय प्राप्त किये हुये और स्वयश समूह से धरातल को अति निर्मल करनेवाले एवं प्रकाशमान और अणिमा महिमा आदि आठों ऐश्वर्यों से विभूषित तथा विशेष प्रभाव वाले और अनेक विद्याओं के उत्पत्ति के स्थान जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वोत्कृर्ष रूपसे विराजमान हों।

प्रतापसन्तापितशत्रुमण्डलःसुसद्यशोऽलंकृतभूमिमण्डलः ।

समीहिताशेषजगत्सुमङ्गलःसदर्चनीयोऽखिलमङ्गलायनः ॥१४॥

अर्थ- अपने प्रचण्ड प्रताप से शत्रु को सन्तापित करनेवाले एवं अपने सुयश से भूमण्डल को विभूषित करनेवाले तथा सम्पूर्ण संसार का मङ्गल करनेवाले एवं सत्पुरुषों से समाराधनीय और सम्पूर्ण मङ्गल-कल्याण के आधारभूत जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वोत्कर्ष रूपसे विराजमान हों।

सत्सम्प्रदायाम्बुजभास्करोऽग्रणीविनीतनीताखिलवाञ्छितार्थकः ।

निगूढवेदार्थविदीपनस्तैरुदारवृत्तैर्महितो महात्मभिः ॥१५॥

अर्थ- सत् अनादि वैदिक श्रीसम्प्रदाय रूप कमल को प्रकाशित करने वाले सूर्य स्वरूप एवं अति श्रेष्ठ और विनय सम्पन्न साधकों से प्राप्तव्य समस्त पदार्थों से समलंकृत एवं उन्हें प्रदान करनेवाले तथा अति निगूढ़-गहन वेदों के अर्थों को ब्रह्मसूत्र उपनिषद् तथा गीता इन प्रस्थानत्रयों के आनन्दभाष्यों तथा श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर प्रभृति महाप्रब्धों के व्याख्यान प्रवचन द्वारा प्रकाशित करनेवाले और अति उदार आचरण वाले तथा उदार चरित महात्माओं से पूजित जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सदा विजयी हों।

गुणेन शीलेन श्रुतेन कर्मणा प्रकाशमानः किरणैर्यथारविः ।

हरंस्तमो नैशमुदारदीधितिर्विनिर्जिताशेषसपत्नसंहतिः ॥१६॥

अर्थ- जैसे सूर्यदेव अपने असाधारण असंख्य किरणों से दिशा के घोर अन्धकार को नाश कर प्रकाशमान् होते हैं उसी तरह दया दाक्षिण्यादि गुणशील एवं सर्वशास्त्र पारङ्गतता तथा तदनुरूप कर्मों के आचरण रूप किरणों से शास्त्र विरुद्धाचरण जनित अन्धकार रूप सभी शत्रुओं को जीतकर आचार्य श्री संसार में प्रकाशित होंगे।

करोतुनोऽदभ्रदयोधिमङ्गलं सपार्षदो दर्शितभूर्यनुग्रहः ।

गृहीतधर्मायतना कृतिः कृतीकृतार्थयंल्लोकमिमं चराचरम् ॥१७॥

अर्थ- श्रीवैष्णवधर्म मर्यादानुरूप श्रीवैष्णव संन्यासाश्रम धर्म को ग्रहण कर त्रिदण्ड एवं काषाय वस्त्र से मण्डित श्रीविग्रह वाले परम दयालु हे आचार्यजी! आप चराचर इस लोक को कृतार्थ करते हुये बारह पार्षदों के साथ हमारे भी इच्छित पदार्थ को प्रदान करें यानी हमें भी मङ्गलरूप सायुज्य मुक्ति प्रदान करें।

उपप्लुतंधर्मविरोधिभिर्जगत्सनाथमाद्योविदधत्कृपानिधिः ।

विधत्सुरस्याधनिवर्हणंयशस्तनोतुनोऽजस्त्रमसौसुमङ्गलम् ॥१८॥

अर्थ- श्रीब्रह्माजी एवं श्रीशंकरजी प्रभृति देवों के भी आदि कारण रूप एवं कृपा के समुद्र सनातन धर्म विरोधियों से पीड़ित इस संसार को सनाथ कर, पीडा़ से मुक्त करनेवाले एवं इस संसार में फैले पापाचार को नाश करनेवाले संसार में प्रसिद्ध जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य जी स्तुति करने वाले हम सबों के सुमङ्गलकारी यश को सर्वदा विस्तारित करें।

जगत्प्रतीपानभितोनिरस्ययश्चकार धर्माभिरतं सतां प्रभुः ।

अशेषसत्पूजितपादपङ्कजः सुमङ्गलं नो वितनोतु सर्वदा ॥१९॥

अर्थ- जिन सर्वसमर्थ जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी ने जगत् में सनातनधर्म विरुद्ध आचरण करनेवालों को सभी तरह से निरस्तकर, सज्जनों से समाचरित श्रीवैष्णवधर्म में अभिरत-श्रीवैष्णव धर्माचरणशील किये, वे समस्त सत् पुरुषों से सदा पूजित चरणकमल वाले श्री आचार्य स्तुति करने वाले हमसब की अभीष्ट सायुज्य मुक्तिरूप सिद्धि को प्रदान करें।

–इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायां भव्योत्तरखण्ड श्रीरामानन्दाचार्य दिग्विजयवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः १३४

 

पञ्चम अध्याय 

 

रामानन्दमहं वन्दे योगिध्येयाड्छ्रिपङ्कजम् ।

उदारयशसं देवं शान्तमूर्तिं शुभप्रदम् ॥१॥

अर्थ- योगियों के ध्यान करने योग्य श्रीचरणकमल वाले एवं उदार विस्तृत यश वाले तथा कल्याण प्रदान करने वाले शान्त स्वरूप और देदिव्यमान शरीर वाले प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी को वन्दना सादर दण्डवत् प्रणाम करता हूँ।

अष्टोत्तरशतं वक्ष्ये नाम्नां यस्य महात्मनः ।

यैरिज्यमानो भगवान् कामानाशु प्रदास्यति ॥२॥

अर्थ- महर्षि श्रीअगस्त्यजी श्रीसुतीक्ष्णजी से कहते हैं- हे सुतीक्ष्णजी ! अब मैं महान् आत्मा उन जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के अष्टोत्तरशत (एकसौ आठ) नामों को कहता हूँ उसे सावधानतया सुनें, जिन नामों से पूजा करने पर भगवान् श्रीरामानन्दाचार्य जी पूजक के कामनाओं को शीघ्र पूर्ण करेंगे।

पठतां पठितैर्ध्यातैर्ध्यायतां श्रृण्वतां श्रुतैः ।

शुभप्रदैः सतां ग्राह्यैर्महापापप्रणाशनैः‌ ॥३॥

अर्थ- वे आचार्य श्री के एकसौ आठ नाम सत् पुरुषों के ग्रहण करने योग्य हैं एवं महापापों के समूह का नाश करनेवाले और कल्याण प्रद हैं। तथैव उन दिव्य नामों का ध्यान करने से ध्यान करने वाले तथा श्रद्धा से सुनने से सुनने वाले और पठन करने से पठन करने वाले की सभी कामनाओं को जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी पूर्ण कर देंगे।

रामानन्दोरामरूपो राममन्त्रार्थवित्कविः ।

राममन्त्रप्रदोरम्यो राममन्त्रस्तः प्रभुः ॥४॥

अर्थ- रामानन्दः-श्रीरामतत्त्वों के अनुसन्धान से आनन्द का अनुभव करने एवं कराने वाले। राममन्त्रार्थवित्-श्रीरामजी के सभी मन्त्रों के वास्तविक अर्थों को जानने वाले। कविः-सर्वदा वेदादि शास्त्रों का विचार करनेवाले। राममन्त्रप्रदः- तारक षडक्षर श्रीरामजी के मन्त्रों को लोकोपकारार्थ शरणागतों को देनेवाले। रम्यः- अतिरमणीय स्वरूप वाले । राममन्त्ररतः- सर्वेश्वर श्रीरामजी के मन्त्रों के चिन्तन में ही सदा तल्लीन रहने वाले । प्रभुः-निग्रह एवं अनुग्रह में समर्थ सभी को नियन्त्रण करने वाले।

योगिवर्यो योगगम्योयोगज्ञोयोगसाधनः ।

योगिसेव्यो योगनिष्ठोयोगात्मायोगरूपधृक् ॥५॥

अर्थ-योगिवर्यः- योगियों में श्रेष्ठ । योगगम्यः- योग के द्वारा जाने जाने वाले । योगज्ञः- योग को जानने वाले । योगसाधनः सदा योग साधना करने वाले। योगिसेव्यः- योगिजनों से सेवित-सेवा करने योग्य । योगनिष्ठः- योग में सदास्थिर रहने वाले । योगात्मा:- योग के आत्मातत्त्व स्वरूप। योगरूपधृक्:- योग के लक्ष्यभूत तत्त्व स्वरूप को धारण करनेवाले।

सुशान्त शास्त्रकृत् शास्ता शत्रुजिच्छान्तिरूपधृक् ।

समयज्ञः शमी शुद्धः शुद्धधीः शुद्धवेषधृक् ॥६॥

अर्थ-सुशान्तः-अति शान्त रूप वाले। शास्त्रकृत्:-उपनिषदों गीता एवं ब्रह्मसूत्र में आनन्दभाष्य एवं श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर प्रभृति सर्वोत्कृष्ट शास्त्रों का निर्माण करने वाले। शास्ता:-अधर्माचरण वालों को शासित कर सन्मार्ग में लगाने वाले। शत्रुजित्:-काम क्रोध लोभ मोह मद एवं मात्सर्य रूप शत्रु या वेद मार्ग विरुद्धाचरण वाले नास्तिकरूप शत्रुओं को जीतने वाले। शान्तिरूपधृक्:-शान्ति स्वरूप को धारण करने वाले। समयज्ञः-पूजा आराधना मान अपमान में समान रूपसे रहने वाले। शमी:-इन्द्रिय संयमनशील सभी इन्द्रियों को वश में रखनेवाले। शुद्धः- पवित्र अन्तःकरण वाले। शुद्धधीः-विशुद्ध बुद्धि वाले। शुद्धवेषधृक्:- आगमादि धर्मशास्त्र सम्मत विशुद्ध काषाय परिधान को धारण करने वाले।

महान् महामतिर्मान्यो वदान्यो भीमदर्शनः ।

भयहृद्भयकृद्भर्ता भव्योभवभयापहः ॥७॥

अर्थ- महान्:-सर्वोत्कृष्ट स्वरूप वाले। महामतिः- महाबुद्धिशाली। मान्यः- सर्वमाननीय व्यक्तित्व वाले। वदान्यः-उदार दयालु सर्वदा तत्त्वज्ञान दान कार्यों में संलग्न रहने वाले। भीमदर्शनः-असत् आचरण वालों के वास्ते भयानक दर्शन वाले। भयहृत्:-शरण में आये साधकों के भय को सदा के लिये हरण कर निर्भय करने वाले। भयकृत्:-श्रीवैष्णवधर्म विरुद्ध सनातन धर्मविरुद्ध आचरण वालों को भय प्रदान करने वाले। भर्ता:-शरणापन्न साधकों का भरण पोषण करने वाले । भव्यः- अति दिव्य देदिप्यमान स्वरूप वाले। भवभयापहः- जन्म मृत्युरूप संसार के भय को अपहरण करने वाले।

भगवान् भूतिदोभोक्ता भूतेज्योभूतभृद्विभुः ।

ज्ञातज्ञेयोऽतिगम्भीरो गुरुज्ञानप्रदो वशी ॥८॥

अर्थ- भगवान्:- उत्पत्ति प्रलय अगति गति विद्या एवं अविद्यारूप छ: प्रकार के ऐश्वर्यों से सम्पन्न। भूतिदः-ऐश्वर्यों को देनेवाले। भोक्ता:- शरणापन्नजनों के कष्टों को अनुग्रह रूपसे हरणरूपतया भोग करने वाले। भूतेज्यः- सभी प्राणियों से पूजनीय। भूतभृत्:-भूतों प्राणिवर्गों का भरण पोषण करने वाले। विभुः- सर्वव्यापक। ज्ञातज्ञेयः- जानने योग्य श्रीरामतत्त्व के पूर्णज्ञान वाले। अतिगम्भीरः- अति गम्भीर विपत्ति में भी विचलित न होने वाले धीर। गुरुः- लोगों के अज्ञान रूप अन्धकार को दूर कर उहें ज्ञानरूप प्रकाश को प्रदान करनेवाले। ज्ञानप्रदः-श्रीरामतत्त्वरूप मोक्ष साधनभूत परम ज्ञान को देनेवाले। वशी:-अपने इन्द्रिय संकुल को नियन्त्रित कर शास्त्रों की आज्ञा के वश में रहने वाले।

अमोधोऽमोघदृग्दान्तोऽमोघभक्तिरमोघवाक् ।

सत्यः सत्यव्रतः सभ्यः सत्प्रियः सत्परायणः ॥९॥

अर्थ-अमोघः-अचूक निष्फल न होने वाले। अमोघदृक्:-सफल दृष्टि वाले। दान्तः- सर्व इन्द्रियों को वश में रखने वाले। अमोघभक्तिः- सफल भक्ति वाले। अमोघवाक्:-सभी प्रकारों से सफल वाणी वाले। सत्यः- सत्य व्रत सत्य स्वरूप। सत्यव्रतः- सत्य आचरण वाले। सभ्यः-सभी प्रकार के सत्य निर्णायक सभा के योग्य सम्मानित कुल में उत्पन्न ईमानदार व्यक्तित्व वाले। सत्यप्रियः- सत्य पदार्थों तत्त्वों को प्रिय मानने वाले। सत्परायणः-सर्वदा सत्य मार्ग का ही आश्रय-ग्रहण करने वाले।

सुसिद्धः सिद्धिदः साधुः सिद्धिभृत् सिद्धिसाधनः ।

सिद्धसेव्यः शुभकरः सामवित् सामगोमुनिः ॥ १०॥

अर्थ- सुसिद्धः- सिद्धि प्राप्त जनों में अति प्रसिद्धि प्राप्ति किये हुये। सिद्धिदः-सिद्धि देनेवाले। साधुः-दूसरों के कार्यों का उपकार स्वरूपतया साधन करने वाले। सिद्धिभृत्:-सिद्धि को धारण करने वाले। सिद्धिसाधनः- सिद्धिओं का साधन करने वाले। सिद्धसेव्यः-सिद्ध व्यक्तियों से सेवा करने योग्य। शुभकरः-कल्याण को करने वाले। सामवित्-सामवेद को जानने वाले। सामगः-समका गान करने वाले। मुनिः- वेदधर्म शास्त्रादि के तत्त्वों का मनन करने वाले।

पूतात्मा पुण्यकृत्पुण्यः पूर्णः पूर्तिकरोऽघहा ।

अञ्च्योऽर्चकः कृतीसौम्यः कृतज्ञः क्रतुकृत् क्रतुः ।॥११॥

अर्थ-पूतात्मा:-पवित्र अन्तःकरण वाले। पुण्यकृत्:-पुण्य कर्मों को करनेवाले। पुण्यः- पवित्र स्वरूप वाले। पूर्णः- आचार विचार बल बुद्धि विद्या आदि सभी प्रकार के वैभव से परिपूर्ण स्वरूप वाले। पूर्तिकरः-साधकों के अधुरे कर्मों को पूर्ण कर देने वाले। अघहा:- पापों को नाश करने वाले। अञ्च्यः- सभी जनों से पूजनीय। अर्चकः स्वेष्ट देव सर्वेश्वर श्रीरामजी की पूजा करने वाले। कृती:-कृतकार्य आचरण करने योग्य सभी कार्यों को सम्पादन किये हुये महान् भाग्यशाली। सौम्यः-अति आकर्षक सुन्दर शरीर वाले। कृतज्ञः-दूसरे के किये थोड़े से कार्य का भी महान् उपकार मानने वाले। क्रतुकृत्:- श्रीरामयागादि अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पादन करने वाले। क्रतुः यज्ञ स्वरूप वाले।

अजय्यः शीलवान् जेता विनेता नीतिमान् स्वभूः ।

वाग्मीश्रुतिधरः श्रीमान् श्रीदः श्रीनिधिरात्मदः ॥१२॥

अर्थ- अजय्यः-किसी से भी नहीं जीते जाने वाले अविजीत। शीलवान्:-सत् आचरण के स्वभाव वाले। जेता:-कामक्रोधादि सभी शत्रुओं को जीतने वाले। विनेता:-सभी जीववर्गों को सत् पथ की ओर ले जाने वाले। नीतिमान्:- अच्छी नीति से शोभित होने वाले। स्वभूः- स्वयं व्यक्त होने वाले अन्य कारण रहित स्वयं प्रकट अकारण पर पुरुष। वाग्मी:-शास्त्र सम्मत सुन्दर एवं मधुर बोलने वाले। श्रुतिधरः- समस्त श्रुति वेदों को धारण करने वाले। श्रीमान्:- श्री लक्ष्मी प्रभृति ऐश्वर्य से युक्त रहने वाले। श्रीदः-श्री ऐश्वर्यादि को देनेवाले। श्रीनिधिः- श्री स्वरूपनिधि खजाने वाले। आत्मदः- आत्मा को देने वाले साधको को अपनी आत्मा को प्रकटित कर देनेवाले।

सर्वज्ञः सर्वगः साक्षीसमः समदृशिः सदृक् ।

शुभज्ञः सुभदः शोभी शुभाचरः सुदर्शनः ॥१३॥

अर्थ- सर्वज्ञः-पदार्थों को या अन्य सभी तत्त्वों को जैसा है वैसा यथार्थ रूपसे जानने वाले। सर्वगः-स्वर्ग मर्त्य पातालादि सभी जगह जाने वाले। साक्षी:-सभी शुभाशुभ कर्मों के सत्यापन करने वाले प्रत्यक्ष द्रष्टा। समः सभी जीववर्ग में समान रूपसे व्यवहार करने वाले 

। समदृशि:-भेदभाव रहित होकर सभी में समान दृष्टि रखने वाले। सदृक्:-पक्षपात रहित होकर सभी की समान रूपसे पूजा करने वाले। शुभज्ञः- सभी शुभ तत्त्वों को जानने वाले। शुभदः- सभी को कल्याणकारी पदार्थ को देनेवाले। शोभी:-अपने पुण्यकृति के प्रभाव से स्वतः शोभित होने वाले। शुभाचारः-कल्याणकारी आचरण वाले। सुदर्शनः- मनोहारी-आकर्षक दर्शन वाले

जगदीशो जगत्पूज्यो यशस्वी द्युतिमान् ध्रुवः ।

इतीदं कीर्तितं यस्य नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥१४॥

अर्थ-जगदीशः-जगत् संसार को नियन्त्रित करने वाले मालिक। जगत्पूज्यः-संसार के पूजनीय। यशस्वी:-विशाल कीर्ति-यश वाले। द्युतिमान्:- प्रकाश वाले एवं ध्रुवः-निश्चल किसी भी प्रकार के उपद्रवों से विचलित नहीं होने वाले इस पूर्वोक्त प्रकार से जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के एकसौ आठ नाम हैं।

अधीयीताथ श्रृणुयाद्यश्चापि परिकीर्तयेत् ।

अवाप्नुयाच्छ्रियं लोके विपुलं श्रद्धयायुतः ॥१५॥

अर्थ- मुनिवर सुतीक्ष्णजी ! जो साधक श्रद्धायुक्त होकर पूर्व वर्णित आचार्यजी के एकसौ आठ नामों का अध्ययन करेगा श्रवण करेगा या श्रद्धा से कीर्तन करेगा वह लोक में विपुल ऐश्वर्य को प्राप्त करेगा।

अर्चेत् स्तवेन यो नित्यमुपचारैः सुसम्भृतैः ।

अनेन विधिवत्तस्य प्रसीदेत् स गुणाकरः ॥१६॥

अर्थ- श्रद्धा से सम्पादित सुन्दर पूजा सामग्री से जो साधक इन एकसौ आठ दिव्य नामरूप स्तव से विधिवत् नित्य पूजा करेगा उसके ऊपर वात्सल्य कारुण्य आदि गुणों के समुद्र वे जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी प्रसन्न होंगे।

तस्मिन् देवे प्रसन्ने तु न किञ्चित्तस्य दुर्लभम् ।

इहलोके परत्रापि जगदीशे जगद्गुरौ ॥१७॥

अर्थ-देव-श्रीराम स्वरूप जगत् के ईश्वर एवं जगत् के गुरु जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के प्रसन्न होने पर उस साधक पूजक पुरुष के लिये इसलोक एवं परलोक में भी कोई पदार्थ दुर्लभ नहीं यानी वाञ्छित सभी पदार्थ सुलभ होंगे।।

श्रद्धया माघमासेऽर्चेत् सप्तम्यां तुं विशेषतः ।

सम्वत्सरार्चनाज्जातमाप्नुयात् फलमुत्तमम् ॥१८॥

अर्थ- जो साधकवर्ग आचार्यजी की अवतार तिथि माघकृष्ण सप्तमी के दिन विशेष आयोजन के साथ श्रद्धा के साथ पूर्व वर्णित विधान से आचार्यजी की पूजा करेंगे उन्हें वर्ष भर में पूजा करने से जो फल प्राप्त होता है वही उत्तम फल प्राप्त होगा।

श्रद्धालवे सुशीलाय गुरुभक्तियुताय च ।

प्रदिशेद्ब्रह्मनिष्ठाय वेदव्रतरताय च ॥१९॥

अर्थ- श्रीसुतीक्ष्णजी जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के दिव्य कथा का उपदेश श्रद्धा वाले‌ सुशील एवं गुरुभक्त और ब्रह्मनिष्ठ- श्रीरामचन्द्रजी में भी दृढ़ श्रद्धा वाले एवं वेद प्रतिपादित व्रतों के आचरण में तत्पर साधकों को ही उपदेश करें अश्रद्धावानों को नहीं।

गोगनीयमिदं सद्धिः सदासर्वप्रयत्नतः ।

न देयं नास्तिकायाथ निन्दकाय गुरुद्रुहे ॥२०॥

अर्थ- सज्जनों को चाहिये कि इस आचार्य श्री के अवतार कथा का प्रयत्नपूर्वक रक्षण करें- सुरक्षित रखे एवं नास्तिक निन्दक तथा गुरुजनों के द्रोहीजनों को इसका उपदेश न करें।

सुपूजितेष्टप्रदपादपङ्कजः समर्चकानां विदधातु मङ्गलम् ।

सतामजस्त्रंजगदीश्वरोहरिर्यथाश्रितोऽसौकलिकल्पपादपः ॥२१॥

अर्थ- जैसे कल्पवृक्ष आराधक की आकांक्षाओं को पूर्ण करता है वैसे ही कलियुगरूप कल्पवृक्ष-जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की आराधना करने वाले साधक को वाञ्छित फल प्रदान करने वाले श्रीचरणकमल के सविधि आराधित होने से पापहारक जगदीश्वर श्रीराम स्वरूप आचार्यजी आराधक की सभी मङ्गलकामनाओं को निरन्तर पूर्ण किया करें।

विराजतेऽयं तपसां प्रसूतिर्गुणाकरः सच्चरितोद्विजार्यभूः ।

ससज्जनाग्य्राभिश्रुतोवसम्वदोबृहद्व्रतश्चारुनृपावलीडितः ॥२२॥

अर्थ- ये संसार में प्रसिद्ध आनन्दभाष्यकार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी जो कि तपश्चर्या सर्वेश्वर श्रीरामजी की आराधना जयन्ती उत्सव आदि के प्रसूति प्रवर्धक प्रचारक प्रसारक हैं तथा दया दाक्षिण्य सौलभ्य सौशिल्य आदि अगणित गुणों के आकर हैं एवं सत् चरित वाले हैं तथा कान्यकुब्ज ब्राह्मण, श्रेष्ठ तीन प्रवर वाले शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिनीय शाखा के अध्येता श्रीपुण्यसदनशर्माजी के पुत्ररत्न के रूपमें सम्वत् १२५६ माघकृष्ण सप्तमी को प्रकट हुये हैं और सन्त एवं सज्जन शिरोमणियों में अति विश्रुत-संवर्णित कीर्ति वाले हैं तथा मनोहारी आकर्षक वाणी बोलने वाले हैं और श्रेष्ठ राजाओं के समूह से सदा सेवित हैं एवं नैष्ठिक ब्रह्मचारि के रूपसे हि श्रीवैष्णव संन्यास ग्रहण कर श्रीवैष्णवधर्म चक्र को संसार में प्रवर्तित किया हैं वे आचार्यसम्राट् संसार में सर्वोत्कर्ष रूपसे विराजमान हैं।

–इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायां भव्योत्तरखण्ड अगस्त्य सुतीक्ष्ण सम्वादे श्रीरामानन्दाचार्याष्टोत्तरशतनामार्चन महात्म्य वर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोत्तर शततोऽध्यायः १३५

 

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Malook Shatak (मलूक शतक)

जगद्गुरु श्रीमलूकदासाचार्यविरचितं 'मलूकशतकम्'

 

मरकत मणि सम श्याम है श्री सीतापति रूप ।
कोटि मदन सकुचात लखि नमै 'मलूक' अनूप ॥१॥

कह 'मलूक' श्रीराम ही धर्मोद्धारन काज ।
श्रीमद्रामानन्द भे भाष्यकार यतिराज ॥२॥

जगद्गुरु रामानन्दजी आचार्यन शिरताज ।
तिनहिं 'मलूका' नमत है जय जय श्रीयतिराज ॥३॥

कह 'मलूक' प्रस्थान त्रय भाष्य रच्यो आनन्द ।
श्रीवैष्णव मत कमल रवि स्वामी रामानन्द ॥४॥

जिनकी अनुपम कृपा से तत्त्व परयो पहिचान ।
उन श्रीगुरुपद पद्म का धरत 'मलूका' ध्यान ॥५॥

वेदान्तसिद्धान्त —
तत्त्व विशिष्टाद्वैत है यही वेद-सिद्धान्त ।
कहै 'मलूका' लखि परै गुरु की कृपा अभ्रान्त ॥६॥

जीव प्रकृति ईश्वर इन्हीं तीन तत्त्व का ज्ञान ।
आवश्यक है मोक्ष महँ-कहै 'मलूका' तान ॥७॥

आत्मा —
ज्ञानाश्रय है आत्मा देहेन्द्रिय नहिं प्रान ।
कहै 'मलूका' नित्य अरु निर्विकार तेहि जान ॥८॥

कहै 'मलूका' राम के ये शरीर अरु शेष ।
स्वप्रकाश अणु जीव हैं धार्य नियाम्य अशेष ॥९॥

सदा पराश्रित जीव हैं राम सदैव स्वतन्त्र ।
कहै 'मलूका' भ्रान्त जो जीवहिं कहें स्वतन्त्र ॥१०॥

तत्त्वमसि —
सदा प्रकार्यद्वैत को कहै तत्त्वमसि-वाक्य ।
नाहिं प्रकाराद्वैत यह कहत 'मलूका' वाक्य ॥११॥

सदा प्रकारी राम हैं चिदचिद् देह प्रकार ।
'यस्यात्मा' इत्यादि श्रुति कहैं 'मलूका' सार ॥१२॥

तत् पद कहै परेशकों कहै 'मलूका' जान ।
त्वद्देही त्वं पद कहें दोउ प्रभु-ऐक्य बखान ॥१३॥

नित्यपदस्थित ईश ही अन्तर्यामी होय ।
नाम रूप व्याकरण हित एक 'मलूका' दोय ॥१४॥

जीव अज्ञ सर्वज्ञ प्रभु केहि विधि दुइनौं एक ।
कहै 'मलूका' भ्रान्त जो जीव ब्रह्म कहें एक ‌१५॥

सामानाधिकरण्य नहिं बनै तत्त्वमसि ठौर ।
जीव ब्रह्म के भेद बिन कहै 'मलूका' और ॥१६॥

सामानाधिकरण्यार्थ —
भेद प्रवृत्तिनिमित्त का एक अर्थ पुनि होय ।
सामानाधिकरण्य तहँ कह 'मलूक' सब कोय ॥१७॥

तत् त्वं पद की लक्षणा चेतन में ही जान ।
कहत 'मलूका' अस कबहुँ कहूँ न नर मतिमान् ॥१८॥

अन्वय अरु तात्पर्य की अनुपपत्ति जब होय ।
तबहि 'मलूका' लक्षणा मानत है सब कोय ॥१९॥

केहि विधि दुइ कारण बिना यहाँ लक्षणा होय ।
कहैं 'मलूका' कार्य कहुँ बिन कारण ही होय? ॥२०॥

जीवब्रह्म-भेद —
जीवपनायुत ब्रह्म के भेदवान् नहिं जीव ।
वस्तुपना से घट सदृश सुनहु 'मलूका' जीव ॥२१॥

कह 'मलूक' तुम यह कहौ भेद कहाँ सुप्रसिद्ध ।
जीव बीच तब बाध हो नहीं तो साध्य असिद्ध ॥२२॥

चेतनपनसे मुक्ति महँ प्रभु से जीव अभिन्न ।
ब्रह्म सदृश अस वचन सुनि होत 'मलूका' खिन्न ॥२३॥

सोपाधिक यह हेतु है भवकर्तृत्व उपाधि ।
कहत 'मलूक' प्रकाशपन अद्वैतिन कहँ व्याधि ॥२४॥

पक्ष तथा दृष्टान्त यदि भिन्न होयँ तब बाध ।
कहत 'मलूका' भेद बिन उदाहरण नहिं साध ॥२५॥

आत्मस्वरूप —
गति आगति उत्क्रान्ति ये तीन जीव की होय ।
कह 'मलूक' तेहि हेतु से नाहिं जीव विभु होय ॥२६॥

जीव कर्मवश गहत हैं कोरी कुंजर देह ।
ताते मध्यम मान नहिं कह 'मलूक' सस्नेह ॥२७॥

संकोचादिक के भये होवे जीव विनाश ।
अवयववाली वस्तु का होत 'मलूका' नाश ॥२८॥

अभ्यागत बिन किये का कृत का होय विनाश ।
तेहिसे कहत 'मलूक' है आत्मा है अविनाश ॥२९॥

कह 'मलूक' यह जीव अणु हृदय बीच है थान ।
दीप प्रभा सम ज्ञान से शिर पीड़ादिक जान ॥३०॥

आत्मा तथा ज्ञान का भेद —
ज्ञानरूप है आत्मा धर्म ज्ञान से भिन्न ।
प्रत्यकूपन अरु पराकूपन से 'मलूक' दोउ भिन्न ॥३१॥

'मैं जानौं' परतीति यह सार्वजनिक निर्बाध ।
ज्ञाता भिन्न 'मलूक' यह प्रतीति ज्ञानहिं साध ॥३२॥

जीवैक्य-निरास —
कोई कहते आत्मा सब देहन महँ एक ।
भिन्न भिन्न सब देह महँ कहत 'मलूक' अनेक ॥३३॥

कह 'मलूक' सब देह के जीव होयँ यदि एक ।
एक काल महँ दुःख इक सुख भोगैं किमि एक ॥३४॥

देह भेद से जा कहहु सुखी दुखी का भेद ।
क्यों न 'मलूका' सौभरिहिं सुख-दुख तनु के भेद ॥३५॥

जीवभेद —
बद्ध मुक्त अरु नित्य यह जीव भेद हैं तीन ।
कह 'मलूक' अन्यत्र पुनि बहुत भेद हैं कीन ॥३६॥

अचित् तत्त्व —
मिश्र शुद्ध सत् काल यह अचित् भेद हैं तीन ।
कह 'मलूक' चौबीस तहँ मिश्र-भेद हैं कीन ॥३७॥

कह 'मलूक' प्रकृती महत् अहङ्कार त्रय जान ।
एकादश इन्द्रियन का सात्विक कारण मान ॥३८॥

तामस से तन्मात्र अरु पंच भूत हू होय ।
कह 'मलूक' राजसः पुनः उभय सहायक होय ॥३९॥

शुद्धसत्व अथवा नित्यविभूति —
कहत 'मलूका' शुद्धसत् नित्यविभूतिहि जान ।
“तद्विप्णोः परमं पदम्” तहँ यह श्रुतिहि प्रमान ॥४०॥

काल —
भूत भविष्यत् आदि सब व्यवहारन का मूल ।
कहत 'मलूका' काल है कालहिं भूलि न भूल ॥४१॥

जगन्मिथ्यात्व-निरास —
कह 'मलूक' झूठे कहहिं झूठी ऐसी बात ।
ब्रह्म सत्य अरु जग मृषा परमारथ नहिं तात ॥४२॥

सर्व विशेषण से रहित ब्रह्म एक अद्वैत ।
ब्रह्मसत्यपन हेतु तब कह 'मलूक' किमि देत ॥४३॥

दृश्यपनहु के हेतु जो जग कहँ मृषा बखान ।
कह 'मलूक' तेहि हेतु को सोपाधिक पहिचान ॥४४॥

व्याप्ति कौनसी रीति से गही बतावहु और ।
मिथ्यापन अरु दृश्यपन की 'मलूक' केहि ठौर ॥४६॥

शुक्ति रजत थल कहहु तो नहिं 'मलूक' निस्तार ।
देखहु आनॅंदभाष्य का चतुःसूत्र-विस्तार ॥४७॥

शुक्तिरजत यहि ज्ञान का विषय सत्य पहिचान ।
है यथार्थ विज्ञान सब कहत 'मलूका' जान ॥४८॥

ईश्वरतत्त्व —
सिरजन संहारन तथा जग के पालनहार ।
कहै 'मलूका' राम ही ईश सर्व-आधार ॥५०॥

मोक्ष काम धर्मार्थ के देनहार श्रीराम ।
दिव्य देह शुभ गुणन के हैं 'मलूक' शुभ धाम ॥५१॥

देह रूप अरु गुणन से व्यापक प्रभु सब ठौर ।
कह 'मलूक' सब वस्तु के बाहर भीतर और ॥५२॥

कह 'मलूक' परभक्ति से तुष्ट होयँ श्रीराम ।
निज भक्तहिं सायुज्य तब देत अखिलपति राम ॥५३॥

पर व्यूह अरु विभव अरु अन्तर्यामी मान ।
कह 'मलूक' अर्चातनुहिं हरि पञ्चम थिति जान ॥५४॥

पर साकेतनिवास हैं अवतारी श्रीराम ।
कह 'मलूक' परिकरनयुत वैदेही-अभिराम ॥५५॥

वासुदेव इत्यादि कहँ चतुर्यूह पहिचान ।
कह 'मलूक' मत्स्यादि कहँ विभव रूप से मान ॥५६॥

अन्तर्यामी रमे जस मेहँदी लोहित रूप ।
कह 'मलूक' अवधादि महँ अर्चामूर्ति अनुप ॥५७॥

श्रीअवधपुरी —
हनुमदादि भरतादि सह तथा जानकी साथ ।
कह 'मलूक' जहँ कीन प्रभु निज लीला रघुनाथ ॥५८॥

अवधपुरी सो श्रेष्ठतम मोक्षदानि सुखखानि ।
महिमा तासु 'मलूक' पुनि को कवि सकै बखानि ॥६०॥

श्रीसरयू लीला लीला-धाम की ललित जहाँ विख्यात ।
कह 'मलूक' सुरसरित तेहि सरयुहिं लखि सकुचाति ॥५८॥

पञ्च संस्कार —
ऊर्ध्वपुण्ड्र से होत सुख मोक्ष तथा दुखनाश ।
कह 'मलूक' सो पुण्ड्र लखि यम-गण होत हताश ॥६१॥

धनुर्बाण-अंकित भुजा जो जन होत 'मलूक' ।
सर्वपाप से मुक्त तेहि पर पद मिलत अचूक ॥६२॥

भगवत् पूर्व 'मलूक' पुनि नाम अन्त महँ दास ।
मुक्ति मिलत तब, शास्त्र कह जीव मात्र हरिदास ॥६३॥

तुलसी बिन नहिं हरि-भजन-अधिकारी हो जीव ।
कह मलूक अति श्रेष्ठ है तुलसी भूषितग्रीव ॥६४॥

जिमि सब वेदन बीच है सामवेद शिरताज ।
तिमि मलूक सब मंत्र महँ राममंत्र अधिराज ॥६५॥

धर्म —
एक धर्म ही जात है मरे जीव के साथ ।
अन्य 'मलूका' नष्ट हों सब शरीर के साथ ॥६६॥

चतुर वर्ण महँ होत है ब्राह्मण यथा महान् ।
सब महॅं वैष्णव धर्म तिमि महत् 'मलूक' बखान ॥६७॥

विष्णु-भक्त कहँ जे कहहिं कह 'मलूक' दुर्वाक्य ।
परहिं नरक सुखहीन ह्वै कहत शास्त्र अस वाक्य ॥६८॥

परहित सम कोउ धर्म नहिं हिंसा सम नहिं पाप ।
धर्म करहिं वैष्णव सदा कह 'मलूक' नहिं पाप ॥६९॥

इन्द्रादिक सब देव अरु गंगादिक सब तीर्थ ।
कह 'मलूक' तहँ वसत हैं जहँ वैष्णव-पद-तीर्थं ॥७०॥

निज वर्णाश्रम-कर्म से अर्चहिं जो सियराम ।
कह 'मलूक' सो लहत हैं अक्षय सुख पर-धाम ॥७१॥

रामनाम —
कह 'मलूक' शतसन्धियुत जर्जर गिरत शरीर ।
भेषज तजि रसवर पियहु नित्य नाम रघुवीर ॥७२॥

राम माहिं रमि राहत हूँ राम राम इति नाम ।
कह 'मलूक' शिव कहत अस सहसनाम सम राम ॥७३॥

रामनाम सम आन नहिं कलि मुँह सुगम उपाय ।
कह 'मलूक' योगादि महँ मन नहिं थिर गति पाय ॥७४॥

सन्तोष —
क्यों 'मलूक' पचि मरत हो बुरे पेट के हेत ।
राम जीव के जन्मतहि मातथनन पय देत ॥७५॥

अजगर करै न चाकरी पक्षी करै न काम ।
'दास मलूका' कहत है सब के दाता राम ॥७६॥

भक्ति —
कर्म-योगहू व्यर्थ हो ज्ञान-योग हो रोग ।
कह 'मलूक' हरि-भक्ति बिन मिटै न भवको भोग ॥७७॥

एक अनन्या भक्ति महँ मुक्ति-दान की शक्ति ।
कहत 'मलूका' सन्त जन नव प्रकार की भक्ति ॥७८॥

नवधा भक्ति —
श्रीसीतापति चरित का श्रवण प्रेम से मान ।
कहत 'मलूका' प्रथम यह 'श्रवणभक्ति' उर आन ॥७९॥

नाम सहित रघुनाथ का प्रेम सहित गुणगान ।
कहत 'मलूका' दूसरी 'कीर्तन भक्ति' सुजान‌ ॥८०॥

'सुमिरन भक्ति' कहत हैं तीसरि सुनहु मलूक ।
निशिदिन हरि-गुण-धाम का सुमिरन करै अचूक ॥८१॥

दशरथनृप-सुत-चरण-रज जड़हिं करै चैतन्य ।
सोइ 'पद-सेवन-भक्ति' है चौथि 'मलूका' धन्य ॥८२॥

कौशल्या के लाल की बहुविधि अर्चा जोय ।
पश्चम 'अर्चन' नाम सो भक्ति 'मलूका' होय ॥८३॥

षष्ठी 'वन्दन' भक्ति है कह 'मलूक' स्वर ऊँच ।
प्रभु-पद-वन्दन-भक्ति है सब यज्ञन से ऊँच ॥८४॥

भक्ति सप्तमी रामकी दास्य नाम की होय ।
कह 'मलूक' हरि-दास बिन नहिं तारत कुल कोय ॥८५॥

बन्धु सदृश व्यवहार कहँ नर सम देखन हेत ।
'सख्य भक्ति' अष्टम करहिं जन 'मलूक' करि चेत ॥८६॥

'आत्मसमर्पण' करत जन छॉडि सकल विध कर्म ।
जिमि जटायु तिमि नवम यह भक्ति 'मलूका' मर्म‌ ॥८७॥

श्रवण भक्ति लवकुश करे वाल्मीकि गुणगान ।
कह 'मलूक' सुमिरण करे कुम्भज शिष्य सुजान ॥८८॥

भरत भावयुत चरणरत शबरी अर्चन जान ।
कह 'मलूक' वन्दन पुनः वन्द्य विभीषण मान ॥८९॥

श्री मारुत-सुतदास अरु सखा भये कपिराज ।
स्वात्मार्पक तु 'मलूक' है श्री जटायु खगराज ॥९०॥

प्रपत्ति —
एक बारहू शरण हित तव हूँ इमि जो याच ।
कह 'मलूक' श्रीराम तेहि अभय करें यह साँच ॥९१॥

गुरुदेव —
जेहि से सब ब्रह्माण्ड यह कह मलूक हैं व्याप्त ।
तेहि हरि दर्शक गुरु बिना सुख न कहत जन आप्त ॥९२॥

कह 'मलूक' जो भजत है सद्गुरु अरु भगवान् ।
सोई जानै तत्त्व जो कहते वेद पुरान ॥९३॥

त्रय रहस्य अरु तत्त्वत्रय पञ्श्च अर्थ का ज्ञान ।
कह मलूक गुरु से लहहु जो चाहहु कल्याण ॥९४॥

चार सम्प्रदाय —
जानहु श्री सनकादि अरु ब्रह्मा रुद्र उदार ।
कह 'मलूक' वैदिक यही सम्प्रदाय हैं चार ॥९५॥

रामानन्दाचार्य जी श्री के शुभ आचार्य ।
कह 'मलूक' सनकादि के हैं (श्री) निम्बार्काचार्य ॥९६॥

कह 'मलूक' श्री ब्रह्म के हैं श्री मध्वाचार्य।
विष्णु स्वामि श्री रुद्र के सम्प्रदाय-आचार्य ॥९७॥

गुरुपरम्परा-प्रणाम —
श्री सीतापति आदि मँह मध्यम रामानन्द ।
कह 'मलूक' निज-गुरुन कहँ प्रणमहु सदा अमन्द ॥९८॥

कल्याणोपदेश —
परिशीलहु भाष्यादि श्री सम्प्रदाय के ग्रन्थ ।
कह 'मलूक' भव-तरन का इहै अकण्टक पन्थ ॥९९॥

कह 'मलूक' यहि देह से यदि चाहहु कल्यान ।
सन्त-संग अरु करिय नित सिय सियपतिका ध्यान ॥१००॥

श्री सीतापति कृपा से शतक कह्यों सुविचारि ।
कह 'मलूक' गुनि भक्ति करि लहहु भव्य फल चारि ॥१०१॥

marakata maṇi sama śyāma hai śrī sītāpati rūpa ।
kōṭi madana sakucāta lakhi namai 'malūka' anūpa ॥1॥

kaha 'malūka' śrīrāma hī dharmōddhārana kāja ।
śrīmadrāmānanda bhē bhāṣyakāra yatirāja ॥2॥

jagadguru rāmānandajī ācāryana śiratāja ।
tinahiṃ 'malūkā' namata hai jaya jaya śrīyatirāja ॥3॥

kaha 'malūka' prasthāna traya bhāṣya racyō ānanda ।
śrīvaiṣṇava mata kamala ravi svāmī rāmānanda ॥4॥

jinakī anupama kṛpā sē tattva parayō pahicāna ।
una śrīgurupada padma kā dharata 'malūkā' dhyāna ॥5॥

vēdāntasiddhānta —
tattva viśiṣṭādvaita hai yahī vēda-siddhānta ।
kahai 'malūkā' lakhi parai guru kī kṛpā abhrānta ॥6॥

jīva prakṛti īśvara inhīṃ tīna tattva kā jñāna ।
āvaśyaka hai mōkṣa maha~-kahai 'malūkā' tāna ॥7॥

ātmā —
jñānāśraya hai ātmā dēhēndriya nahiṃ prāna ।
kahai 'malūkā' nitya aru nirvikāra tēhi jāna ॥8॥

kahai 'malūkā' rāma kē yē śarīra aru śēṣa ।
svaprakāśa aṇu jīva haiṃ dhārya niyāmya aśēṣa ॥9॥

sadā parāśrita jīva haiṃ rāma sadaiva svatantra ।
kahai 'malūkā' bhrānta jō jīvahiṃ kahēṃ svatantra ॥10॥

tattvamasi —
sadā prakāryadvaita kō kahai tattvamasi-vākya ।
nāhiṃ prakārādvaita yaha kahata 'malūkā' vākya ॥11॥

sadā prakārī rāma haiṃ cidacid dēha prakāra ।
'yasyātmā' ityādi śruti kahaiṃ 'malūkā' sāra ॥12॥

tat pada kahai parēśakōṃ kahai 'malūkā' jāna ।
tvaddēhī tvaṃ pada kahēṃ dōu prabhu-aikya bakhāna ॥13॥

nityapadasthita īśa hī antaryāmī hōya ।
nāma rūpa vyākaraṇa hita ēka 'malūkā' dōya ॥14॥

jīva ajña sarvajña prabhu kēhi vidhi duinauṃ ēka ।
kahai 'malūkā' bhrānta jō jīva brahma kahēṃ ēka ‌15॥

sāmānādhikaraṇya nahiṃ banai tattvamasi ṭhaura ।
jīva brahma kē bhēda bina kahai 'malūkā' aura ॥16॥

sāmānādhikaraṇyārtha —
bhēda pravṛttinimitta kā ēka artha puni hōya ।
sāmānādhikaraṇya taha~ kaha 'malūka' saba kōya ॥17॥

tat tvaṃ pada kī lakṣaṇā cētana mēṃ hī jāna ।
kahata 'malūkā' asa kabahu~ kahū~ na nara matimān ॥18॥

anvaya aru tātparya kī anupapatti jaba hōya ।
tabahi 'malūkā' lakṣaṇā mānata hai saba kōya ॥19॥

kēhi vidhi dui kāraṇa binā yahā~ lakṣaṇā hōya ।
kahaiṃ 'malūkā' kārya kahu~ bina kāraṇa hī hōya? ॥20॥

jīvabrahma-bhēda —
jīvapanāyuta brahma kē bhēdavān nahiṃ jīva ।
vastupanā sē ghaṭa sadṛśa sunahu 'malūkā' jīva ॥21॥

kaha 'malūka' tuma yaha kahau bhēda kahā~ suprasiddha ।
jīva bīca taba bādha hō nahīṃ tō sādhya asiddha ॥22॥

cētanapanasē mukti maha~ prabhu sē jīva abhinna ।
brahma sadṛśa asa vacana suni hōta 'malūkā' khinna ॥23॥

sōpādhika yaha hētu hai bhavakartṛtva upādhi ।
kahata 'malūka' prakāśapana advaitina kaha~ vyādhi ॥24॥

pakṣa tathā dṛṣṭānta yadi bhinna hōya~ taba bādha ।
kahata 'malūkā' bhēda bina udāharaṇa nahiṃ sādha ॥25॥

ātmasvarūpa —
gati āgati utkrānti yē tīna jīva kī hōya ।
kaha 'malūka' tēhi hētu sē nāhiṃ jīva vibhu hōya ॥26॥

jīva karmavaśa gahata haiṃ kōrī kuṃjara dēha ।
tātē madhyama māna nahiṃ kaha 'malūka' sasnēha ॥27॥

saṃkōcādika kē bhayē hōvē jīva vināśa ।
avayavavālī vastu kā hōta 'malūkā' nāśa ॥28॥

abhyāgata bina kiyē kā kṛta kā hōya vināśa ।
tēhisē kahata 'malūka' hai ātmā hai avināśa ॥29॥

kaha 'malūka' yaha jīva aṇu hṛdaya bīca hai thāna ।
dīpa prabhā sama jñāna sē śira pīḍa़ādika jāna ॥30॥

ātmā tathā jñāna kā bhēda —
jñānarūpa hai ātmā dharma jñāna sē bhinna ।
pratyakūpana aru parākūpana sē 'malūka' dōu bhinna ॥31॥

'maiṃ jānauṃ' paratīti yaha sārvajanika nirbādha ।
jñātā bhinna 'malūka' yaha pratīti jñānahiṃ sādha ॥32॥

jīvaikya-nirāsa —
kōī kahatē ātmā saba dēhana maha~ ēka ।
bhinna bhinna saba dēha maha~ kahata 'malūka' anēka ॥33॥

kaha 'malūka' saba dēha kē jīva hōya~ yadi ēka ।
ēka kāla maha~ duḥkha ika sukha bhōgaiṃ kimi ēka ॥34॥

dēha bhēda sē jā kahahu sukhī dukhī kā bhēda ।
kyōṃ na 'malūkā' saubharihiṃ sukha-dukha tanu kē bhēda ॥35॥

jīvabhēda —
baddha mukta aru nitya yaha jīva bhēda haiṃ tīna ।
kaha 'malūka' anyatra puni bahuta bhēda haiṃ kīna ॥36॥

acit tattva —
miśra śuddha sat kāla yaha acit bhēda haiṃ tīna ।
kaha 'malūka' caubīsa taha~ miśra-bhēda haiṃ kīna ॥37॥

kaha 'malūka' prakṛtī mahat ahaṅkāra traya jāna ।
ēkādaśa indriyana kā sātvika kāraṇa māna ॥38॥

tāmasa sē tanmātra aru paṃca bhūta hū hōya ।
kaha 'malūka' rājasaḥ punaḥ ubhaya sahāyaka hōya ॥39॥

śuddhasatva athavā nityavibhūti —
kahata 'malūkā' śuddhasat nityavibhūtihi jāna ।
“tadvipṇōḥ paramaṃ padam” taha~ yaha śrutihi pramāna ॥40॥

kāla —
bhūta bhaviṣyat ādi saba vyavahārana kā mūla ।
kahata 'malūkā' kāla hai kālahiṃ bhūli na bhūla ॥41॥

jaganmithyātva-nirāsa —
kaha 'malūka' jhūṭhē kahahiṃ jhūṭhī aisī bāta ।
brahma satya aru jaga mṛṣā paramāratha nahiṃ tāta ॥42॥

sarva viśēṣaṇa sē rahita brahma ēka advaita ।
brahmasatyapana hētu taba kaha 'malūka' kimi dēta ॥43॥

dṛśyapanahu kē hētu jō jaga kaha~ mṛṣā bakhāna ।
kaha 'malūka' tēhi hētu kō sōpādhika pahicāna ॥44॥

vyāpti kaunasī rīti sē gahī batāvahu aura ।
mithyāpana aru dṛśyapana kī 'malūka' kēhi ṭhaura ॥46॥

śukti rajata thala kahahu tō nahiṃ 'malūka' nistāra ।
dēkhahu ānaॅṃdabhāṣya kā catuḥsūtra-vistāra ॥47॥

śuktirajata yahi jñāna kā viṣaya satya pahicāna ।
hai yathārtha vijñāna saba kahata 'malūkā' jāna ॥48॥

īśvaratattva —
sirajana saṃhārana tathā jaga kē pālanahāra ।
kahai 'malūkā' rāma hī īśa sarva-ādhāra ॥50॥

mōkṣa kāma dharmārtha kē dēnahāra śrīrāma ।
divya dēha śubha guṇana kē haiṃ 'malūka' śubha dhāma ॥51॥

dēha rūpa aru guṇana sē vyāpaka prabhu saba ṭhaura ।
kaha 'malūka' saba vastu kē bāhara bhītara aura ॥52॥

kaha 'malūka' parabhakti sē tuṣṭa hōya~ śrīrāma ।
nija bhaktahiṃ sāyujya taba dēta akhilapati rāma ॥53॥

para vyūha aru vibhava aru antaryāmī māna ।
kaha 'malūka' arcātanuhiṃ hari pañcama thiti jāna ॥54॥

para sākētanivāsa haiṃ avatārī śrīrāma ।
kaha 'malūka' parikaranayuta vaidēhī-abhirāma ॥55॥

vāsudēva ityādi kaha~ caturyūha pahicāna ।
kaha 'malūka' matsyādi kaha~ vibhava rūpa sē māna ॥56॥

antaryāmī ramē jasa mēha~dī lōhita rūpa ।
kaha 'malūka' avadhādi maha~ arcāmūrti anupa ॥57॥

śrīavadhapurī —
hanumadādi bharatādi saha tathā jānakī sātha ।
kaha 'malūka' jaha~ kīna prabhu nija līlā raghunātha ॥58॥

avadhapurī sō śrēṣṭhatama mōkṣadāni sukhakhāni ।
mahimā tāsu 'malūka' puni kō kavi sakai bakhāni ॥59॥

śrīsarayū līlā līlā-dhāma kī lalita jahā~ vikhyāta ।
kaha 'malūka' surasarita tēhi sarayuhiṃ lakhi sakucāti ॥60॥

pañca saṃskāra —
ūrdhvapuṇḍra sē hōta sukha mōkṣa tathā dukhanāśa ।
kaha 'malūka' sō puṇḍra lakhi yama-gaṇa hōta hatāśa ॥61॥

dhanurbāṇa-aṃkita bhujā jō jana hōta 'malūka' ।
sarvapāpa sē mukta tēhi para pada milata acūka ॥62॥

bhagavat pūrva 'malūka' puni nāma anta maha~ dāsa ।
mukti milata taba, śāstra kaha jīva mātra haridāsa ॥63॥

tulasī bina nahiṃ hari-bhajana-adhikārī hō jīva ।
kaha malūka ati śrēṣṭha hai tulasī bhūṣitagrīva ॥64॥

jimi saba vēdana bīca hai sāmavēda śiratāja ।
timi malūka saba maṃtra maha~ rāmamaṃtra adhirāja ॥65॥

dharma —
ēka dharma hī jāta hai marē jīva kē sātha ।
anya 'malūkā' naṣṭa hōṃ saba śarīra kē sātha ॥66॥

catura varṇa maha~ hōta hai brāhmaṇa yathā mahān ।
saba mahaॅṃ vaiṣṇava dharma timi mahat 'malūka' bakhāna ॥67॥

viṣṇu-bhakta kaha~ jē kahahiṃ kaha 'malūka' durvākya ।
parahiṃ naraka sukhahīna hvai kahata śāstra asa vākya ॥68॥

parahita sama kōu dharma nahiṃ hiṃsā sama nahiṃ pāpa ।
dharma karahiṃ vaiṣṇava sadā kaha 'malūka' nahiṃ pāpa ॥69॥

indrādika saba dēva aru gaṃgādika saba tīrtha ।
kaha 'malūka' taha~ vasata haiṃ jaha~ vaiṣṇava-pada-tīrthaṃ ॥70॥

nija varṇāśrama-karma sē arcahiṃ jō siyarāma ।
kaha 'malūka' sō lahata haiṃ akṣaya sukha para-dhāma ॥71॥

rāmanāma —
kaha 'malūka' śatasandhiyuta jarjara girata śarīra ।
bhēṣaja taji rasavara piyahu nitya nāma raghuvīra ॥72॥

rāma māhiṃ rami rāhata hū~ rāma rāma iti nāma ।
kaha 'malūka' śiva kahata asa sahasanāma sama rāma ॥73॥

rāmanāma sama āna nahiṃ kali mu~ha sugama upāya ।
kaha 'malūka' yōgādi maha~ mana nahiṃ thira gati pāya ॥74॥

santōṣa —
kyōṃ 'malūka' paci marata hō burē pēṭa kē hēta ।
rāma jīva kē janmatahi mātathanana paya dēta ॥75॥

ajagara karai na cākarī pakṣī karai na kāma ।
'dāsa malūkā' kahata hai saba kē dātā rāma ॥76॥

bhakti —
karma-yōgahū vyartha hō jñāna-yōga hō rōga ।
kaha 'malūka' hari-bhakti bina miṭai na bhavakō bhōga ॥77॥

ēka ananyā bhakti maha~ mukti-dāna kī śakti ।
kahata 'malūkā' santa jana nava prakāra kī bhakti ॥78॥

navadhā bhakti —
śrīsītāpati carita kā śravaṇa prēma sē māna ।
kahata 'malūkā' prathama yaha 'śravaṇabhakti' ura āna ॥79॥

nāma sahita raghunātha kā prēma sahita guṇagāna ।
kahata 'malūkā' dūsarī 'kīrtana bhakti' sujāna‌ ॥80॥

'sumirana bhakti' kahata haiṃ tīsari sunahu malūka ।
niśidina hari-guṇa-dhāma kā sumirana karai acūka ॥81॥

daśarathanṛpa-suta-caraṇa-raja jaḍa़hiṃ karai caitanya ।
sōi 'pada-sēvana-bhakti' hai cauthi 'malūkā' dhanya ॥82॥

kauśalyā kē lāla kī bahuvidhi arcā jōya ।
paścama 'arcana' nāma sō bhakti 'malūkā' hōya ॥83॥

ṣaṣṭhī 'vandana' bhakti hai kaha 'malūka' svara ū~ca ।
prabhu-pada-vandana-bhakti hai saba yajñana sē ū~ca ॥84॥

bhakti saptamī rāmakī dāsya nāma kī hōya ।
kaha 'malūka' hari-dāsa bina nahiṃ tārata kula kōya ॥85॥

bandhu sadṛśa vyavahāra kaha~ nara sama dēkhana hēta ।
'sakhya bhakti' aṣṭama karahiṃ jana 'malūka' kari cēta ॥86॥

'ātmasamarpaṇa' karata jana chaॉḍi sakala vidha karma ।
jimi jaṭāyu timi navama yaha bhakti 'malūkā' marma‌ ॥87॥

śravaṇa bhakti lavakuśa karē vālmīki guṇagāna ।
kaha 'malūka' sumiraṇa karē kumbhaja śiṣya sujāna ॥88॥

bharata bhāvayuta caraṇarata śabarī arcana jāna ।
kaha 'malūka' vandana punaḥ vandya vibhīṣaṇa māna ॥89॥

śrī māruta-sutadāsa aru sakhā bhayē kapirāja ।
svātmārpaka tu 'malūka' hai śrī jaṭāyu khagarāja ॥90॥

prapatti —
ēka bārahū śaraṇa hita tava hū~ imi jō yāca ।
kaha 'malūka' śrīrāma tēhi abhaya karēṃ yaha sā~ca ॥91॥

gurudēva —
jēhi sē saba brahmāṇḍa yaha kaha malūka haiṃ vyāpta ।
tēhi hari darśaka guru binā sukha na kahata jana āpta ॥92॥

kaha 'malūka' jō bhajata hai sadguru aru bhagavān ।
sōī jānai tattva jō kahatē vēda purāna ॥93॥

traya rahasya aru tattvatraya pañśca artha kā jñāna ।
kaha malūka guru sē lahahu jō cāhahu kalyāṇa ॥94॥

cāra sampradāya —
jānahu śrī sanakādi aru brahmā rudra udāra ।
kaha 'malūka' vaidika yahī sampradāya haiṃ cāra ॥95॥

rāmānandācārya jī śrī kē śubha ācārya ।
kaha 'malūka' sanakādi kē haiṃ (śrī) nimbārkācārya ॥96॥

kaha 'malūka' śrī brahma kē haiṃ śrī madhvācārya।
viṣṇu svāmi śrī rudra kē sampradāya-ācārya ॥97॥

guruparamparā-praṇāma —
śrī sītāpati ādi ma~ha madhyama rāmānanda ।
kaha 'malūka' nija-guruna kaha~ praṇamahu sadā amanda ॥98॥

kalyāṇōpadēśa —
pariśīlahu bhāṣyādi śrī sampradāya kē grantha ।
kaha 'malūka' bhava-tarana kā ihai akaṇṭaka pantha ॥99॥

kaha 'malūka' yahi dēha sē yadi cāhahu kalyāna ।
santa-saṃga aru kariya nita siya siyapatikā dhyāna ॥100॥

śrī sītāpati kṛpā sē śataka kahyōṃ suvicāri ।
kaha 'malūka' guni bhakti kari lahahu bhavya phala cāri ॥101॥

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Glories of the name of Lord from all 18 Purana

 

Glory of the Name of Lord -

पद्मपुराणे श्रीशिववाक्यं पार्वतीं प्रति:

पद्मपुराण में श्रीशिवजी का वाक्य पार्वती जी के प्रति:

नामचिन्तामणी रामश्चैतन्यपरविग्रहः ।

पूर्ण शुद्धो नित्ययुक्तो न भेदो नामनामिनः ॥३॥

श्रीरामनाम महाराज चिन्तामणि हैं अर्थात् चिन्तनमात्र से समस्त अभीष्ट पदार्थों को प्रदान करने वाले हैं तथा श्रीरामजी साक्षात् सच्चिदानन्दस्वरूप हैं दोनों पूर्ण पवित्र एवं नित्ययुक्त हैं नाम और नामी में भेद नहीं है।

अतः श्रीरामनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियै ।

स्फुरति स्वयमेवैतिञ्जह्लादौ श्रवणे मुखे  ॥४॥

इसीलिए श्रीरामनाम रूपगुणादि मन और इन्द्रियों के विषय नहीं हैं ये तो स्वतः अहेतुकी कृपा से रसना, श्रवण, मुख, हृदय, कण्ठादि स्थानों में प्रकट होते हैं। यदि कोई कुतर्की कहे कि अग्नि के कहने से मुख नहीं जलता है चीनी के कहने से मुख नहीं मीठा होता है उसी प्रकार श्रीरामनाम के कहने से जीव कृतार्थ नहीं होता तो उसका यह कथन सर्वथा अनुचित है क्योंकि अघि चीनी आदि प्राकृत शब्द है और श्रीरामनाम अप्राकृत, दिव्य एवं चिन्मय है उनके साथ संसारी पदार्थों की तुलना नहीं हो सकती। दूसरी बात अग्नि के कथन से मुख जलता है इसमें कोई प्रमाण नहीं है और श्रीराम नाम के कथन से हजारों महापापी तर गये इसमें अनन्त प्रमाण हैं इसलिए उनका कुतर्क मालिन्ययुक्त एवं उपेक्षणीय है। नामानुरागी को ऐसे लोगों का सङ्ग नहीं करना चाहिए।

रामरामेति¹ रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥५॥

¹सहस नाम सम सुनि सिव बानी। 

जपि जेईं पिय संग भवानी॥

हरषे हेतु हेरि हर ही को। 

किय भूषन तिय भूषन ती को॥

"नाम्नां समूहो नामता, सहस्राणां नामता सहस्रनामता एवं सहस्रनामतातुल्यम्" ऐसा पाठ मानकर ज.गु.रा. श्रीरामभद्राचार्य जी अर्थ करते हैं कि हजारो हजारों विष्णु सहस्रनामों का उच्चारण किया जाय और एक बार श्रीरामनाम का उच्चारण किया जाय तो भी दोनों तुल्य नहीं होंगे। अतः श्रीरामनाम की अद्भुत महिमा है। लोक में भी हमारे राम ने देखा है- कहीं श्रीविष्णु महायज्ञ हो रहा था साकल कम था और आहुति पूरी करनी थी तो विप्रों ने कहा कि अब दूसरी विधि से आहुति पूर्ण करते हैं "श्रीराम रामेति रामेति" इस श्लोक का उच्चारण करते और आहुति डलवाते और कहते कि एक बार में एक हजार आहुति हो गयी, अतः लोक में भी यह मान्यता है कि श्रीविष्णु सहस्रनाम के पाठ की अपेक्षा श्रीरामनाम सहज, सुलभ और सर्वसिद्धि दायक है।

एक बार श्रीशङ्करजी प्रसाद पाने जा रहे थे तब अपनी प्राणप्रिया श्रीपार्वती जी से कहा कि प्रिये ! चलिए साथ में प्रसाद पा लिया जाय तब श्रीपार्वती जी ने कहा कि श्रीविष्णु सहस्रनाम पाठ का नियम है, अभी पाठ पूरा नहीं हुआ है पाठ पूरा करके पाऊँगी। यह सुनकर श्रीशङ्करजी प्रसन्न हो गये और अपना मुख्य सिद्धान्त प्राणप्रिया श्रीपार्वती को सुनाते हैं हे वरानने ! हे रामे ! श्रीरामनाम श्रीविष्णु सहस्रनाम के तुल्य हैं अर्थात् श्रीरामनाम का एक बार उच्चारण करने से श्रीविष्णु सहस्रनाम के पाठ का पुण्य सहज में प्राप्त हो जाता है, श्रीरामनाम माया से परे हैं हमारा परम धन हैं अतः श्रीराम नाम का उच्चारण कीजिए और मेरे साथ प्रसाद पाइए! भगवान् शङ्कर जी की बात सुनकर श्रीपार्वतीजी ने श्रीरामनाम का उच्चारण करके श्रीशिवजी के साथ प्रसाद पाया। यह देखकर भगवान् शिव ने श्रीपार्वती को हृदय से लगा लिया और अपना भूषण बना लिया।¹

¹हे वरानने ! यस्मिन् राम रामेति मनोरमे रामे (रामनाम्नि) अहम् अति रमे । तत् श्रीरामनाम सहस्रनाम तुल्यं भवति, ऐसा अन्वय करने पर अर्थ होगा- हे चन्द्रमुखी पार्वति ! जिस मनोभिराम श्रीरामनाम में मैं अत्यन्त रमण करता हूँ वह श्रीरामनाम विष्णुसहस्रनाम के तुल्य है।

जपतः सर्ववेदांश्च सर्वमन्त्रांश्च पार्वति ।

तस्मात्कोटिगुणं पुण्यं रामनाम्नैव लभ्यते ॥६॥

हे पार्वति ! समस्त वेद, पुराण और संहिता तथा मन्त्रों के करोड़ों बार पाठ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उससे कोटिगुना पुण्य एक बार श्रीरामनाम के जप से होता है।

ये ये प्रयोगास्तन्त्रेषु तैस्तैर्यत्साध्यते फलम् ।

तत्सर्वं सिद्धयति क्षिप्रं रामनामेति कीर्तनात् ॥७॥

तन्त्रों में जो जो प्रयोग हैं मारण, सम्मोहन, उच्चाटन और आकर्षणादि और उनके प्रयोग से जिन-जिन फलों की सिद्धि होती है, वे सारे फल शीघ्र ही श्रीरामनाम के संकीर्तन से सिद्ध हो जाते हैं। आवश्यकता है विश्वास और प्रेम की।

भूतप्रेतपिशाचाश्च वेतालाश्चेटकादयः ।

कूष्माण्डा राक्षसा घोरा भैरवा ब्रह्मराक्षसाः ॥

श्रीरामनाम ग्रहणात् पलायन्ते दिशो दशः ॥८॥

महाभयानक स्वरूप वाले जो भूत, प्रेत, पिशाच, भैरव, बैताल, राक्षस और कुष्माण्डादि हैं वे सब श्रीरामनाम के उच्चारण को सुनकर शीघ्र ही दशोदिशाओं में भाग जाते हैं। यह श्रीरामनाम का महाप्रताप है अतः सब कुछ छोड़कर श्रीरामनाम में प्रेम करना ही उचित है श्रीरामनाम के रसिकों को श्रीनाम विमुखों का संग छोड़ देना चाहिए।

प्राणप्रयाणसमये रामनामसकृत्स्मरेत् ।

स भित्त्वा मण्डलं भानोः परं धामाभिगच्छति ॥९॥

चाहे जैसा भी पापी हो प्राण छूटते समय किसी भी प्रकार से यदि वह एक बार भी श्रीरामनाम का उच्चारण कर लेता है, तो वह सूर्य मण्डल का भेदन करके नगाड़ा बजाते हुए अवश्य ही परम धाम को जाता है।अर्द्धमात्रे स्थितौ श्रीमत्सीतारामौ परात्परौ ।

ह्याकारेषु त्रयो देवा बिन्दौ शक्तिरनुत्तमा ॥१०॥

श्रीरामनाम के 'अर्द्धमात्रा' में परात्पर ब्रह्म श्री सीतारामजी स्थित हैं 'आकार' में तीनों देवता (ब्रह्मा विष्णु महेश) और 'बिन्दु' में महामाया आदिशक्ति स्थित हैं।

भावार्थ- श्रीराम की स्थिति यह है- र् अ आ म् अ कुल पाँच अक्षर है "व्यञ्जनं चार्द्धमात्रिकम्" के अनुसार र् अर्द्धमात्रास्वरूप है म् अनुस्वार होने से बिन्दु स्वरूप है अत: रेफ का वाच्य (अर्थ) श्रीसीतारामजी हैं रेफ उनका वाचक है, वाच्य और वाचक में अभेद होने से रेफ ही श्रीसीतारामजी हैं अत: रेफ में श्रीसीतारामजी का ध्यान करना चाहिए। एवम् रकार के उत्तर में जो 'अ' है उसका अर्थ भगवान् वासुदेव है, तदनन्तर जो 'आ' है उसका अर्थ ब्रह्मा है, मकार के उत्तर जो 'अ' है ' उसका अर्थ श्रीमहेशजी है, म् का अर्थ महामाया मूल प्रकृति आदि शक्ति हैं।

असङ्ख्यमन्त्रनाम्नां तु बीजं शर्मास्पदं परम् ।

अनादृत्य महामन्दा संशक्ताश्चान्यसाधने ॥११॥

अनन्त मन्त्रों और अनन्त नामों का बीज भूत परम कारण समस्त सुखों का स्थान श्रीरामनाम है, श्रीनाम परत्व को बिना विचारे श्रीरामनाम की उपेक्षा करके महामन्द मूढ़ अज्ञानी लोग दूसरे साधनों में लगे रहते हैं व्यर्थ आसक्त हो जाते हैं।

जपकाले सदा देवि नामार्थञ्च परात्परम् ।

चिन्तयेच्चेतसा साक्षाद् बुद्ध्या श्रीरामरूपकम् ॥१२॥

'अब श्रीरामनामजप की विधि एवम् फल का निरूपण करते हैं' हे देवि ! हमेशा जप करते समय मन और बुद्धि से परात्पर ब्रह्मस्वरूप साक्षात् श्रीसीतारामजी के स्वरूपनामार्थ का चिन्तन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि जब भी भीतर से अथवा बाहर से श्रीरामनाम का उच्चारण करें उस समय अवश्य सावधानीपूर्वक अर्थानुसन्धान करें। महर्षि पतञ्जलि ने भी कहा कि- "तज्जपस्तदर्थं भावनम्" अर्थात् अर्थानुसन्धानपूर्वक जप से जप का वास्तविक एवं पूर्ण लाभ मिलता है यदि प्रत्येक नाम के साथ अर्थानुसन्धान नहीं हो पावे त्वरा के कारण अथवा निश्चित संख्या पूर्ति के कारण तो आदि मध्य और जप के अन्त में भलीभाँति अर्थानुसन्धान कर लेवें। श्रीरामनाम सर्वोपरि है और साक्षात् श्री सीताराम जी स्वरूप है। ऐसा चिन्तन करते हुए अपने चित्त की वृत्तियों को मन में लीन करे और अपने स्वरूप तथा इन्द्रियादि करणों को मन को और बाहर के व्यवहारों को श्रीरामनामार्थ में लीन करें तत्पश्चात् श्रीरामनाम का जप करें ऐसा करने से कुछ ही दिनों में महामोद विनोद की प्राप्ति होती है।

अशनं सम्भाषणं शयनमेकान्तं खेदवर्जितम् ।

भोजनादित्रयं स्वल्पं तुरीये संस्थितिस्तदा ॥१३॥

जप के समय भोजन कम करें जिससे आलस्य, प्रमाद और इन्द्रियों की चञ्चलता नहीं होगी। धीरे-धीरे भोजन को घटावें। प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा कम करे शुद्ध भोजन करे। रजोगुणी एवं तमोगुणी लोगों का अन्न न खायें। स्वादिष्ट सरस पदार्थों को चित् से हटा दे, इन्द्रियों को लम्पट न होने दे। हमेशा अवसर पाकर के ही थोड़ा सत्य, हितकारी एवं मधुर बोले । निद्रा को धीरे-धीरे कम करें जहाँ तक हो सके रात्रि में जागकर उच्चस्वर में नाम उच्चारण करे और धीरे-धीरे निद्रा पापिनी को जीत ले। सुन्दर एकान्त स्थान में निवास करें जहाँ किसी प्रकार का खेद विक्षेप आप को न हो, न दूसरे को हो। इस प्रकार साधन सम्पन्न होकर यदि श्रीराम नाम का जप करेंगे तो उसका फल अकथनीय होगा।

संयमं सर्वदा धार्य्यं नैव त्याज्यं कदाचन ।

संयमान्नामचिन्मात्रे प्रीतिस्सञ्जायतेऽधिकाः ॥१४॥

नाम जाप को संयमित होना चाहिए, संयम का त्याग नहीं करना चाहिए, संयमपूर्वक श्रीरामनाम का जप

करने से सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीरामनाम में उत्तरोत्तर प्रतिदिन प्रतिक्षण यथार्थ प्रीति बढ़ती है।

प्रथमाभ्यासकाले च ग्रन्थं नामात्मकं सुधी ।

द्वियाममेकयामं वा चिन्तयेद्धि प्रयत्नतः ॥१५॥

श्रीरामनाम के नये साधक को चाहिए कि सर्वप्रथम अभ्यास के समय में श्रीरामनाम परत्व बोधक

ग्रन्थों का अध्ययन चिन्तन करें, एक प्रहर अथवा दो प्रहर सावधान चित्त होकर और श्रीरामनाम के रसिक विरक्त सन्तों की सङ्गति करें, उनकी सङ्गति से श्रीराम नाम में आश्चर्यजनक प्रीति होगी ।

यदा नाम्नि लयं याति चित्तङ्क्लेशविवर्जितम् ।

तदा न चिन्तयेत् किञ्चिल्लब्ध्वा ह्यानन्दमन्दिरम् ॥१६॥

निरन्तर कुछ समय तक श्रीरामनाम का जप करने पर बिना श्रम के सहज जब श्रीरामनाम में चित्तविलीन हो जाय तब परमानन्दस्वरूप श्रीसीतारामजी को प्राप्त करके फिर कुछ भी चिन्तन न करें। क्योंकि विचारादि जितने साधन समूह हैं उनका एक ही प्रयोजन है चित्त का लय करना । श्रीरामनाम का प्रताप और प्रभाव बिना जप के नहीं मालूम पड़ता है।

 

तत्रैव श्रीब्रह्मवाक्यं नारदं प्रति:

पद्मपुराण में ही श्रीब्रह्माजी का वाक्य नारदजी के प्रति:

चिन्तामणिसमं कायं लब्ध्वा वै भारतेऽमलम् ।

संस्मरेन्न परन्नाम मोहात् स पतति ध्रुवम् ॥१७॥

इस भारत वर्ष में चिन्तामणि के समान निर्मल शरीर को प्राप्त करके जो मोहवश परात्पर श्रीरामनाम का जप नहीं करता है सम्यक् स्मरण नहीं करता है वह निश्चित ही पुनः चौरासी लाख योनि में करोड़ों वर्षों तक भटकता है नरक कुण्ड में गिरता है। तब बाद में पश्चाताप करता है कि मनुष्य शरीर पाकर भी हम अपना उद्धार नहीं कर सके।

मानुषं दुर्लभं प्राप्य सुरैरपि समर्चितम् ।

जप्तव्यं सावधानेन रामनामाखिलेष्टदम् ॥१८॥

इसलिए देवदुर्लभ तथा देवपूजित मानव शरीर को प्राप्त करके सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले श्रीरामनाम का सावधानीपूर्वक जप करना चाहिए।

श्रुत्वा श्रीनाममाहात्म्यं यथार्थं श्रुतिपूजितम् ।

सर्वाशां संविहायाशु स्मर्तव्यं सर्वदा बुधैः ॥१९॥

समस्त श्रुतियों से पूजित श्रीरामनाम के यथार्थ माहात्म्य को सुनकर, शीघ्र ही सभी आशाओं को छोड़कर विद्वानों को सदा सर्वदा श्रीरामनाम का स्मरण करना चाहिए, यही परम पण्डिताई और सुबुद्धिमता है। शेष सारी चतुरता उदरपूर्ति के निमित्त है।

दोहा: जिसकी रसना नाम रस रसी असी पद पाय । 

खसी वासना तिन्हन की हँसी उभय बिसराय॥

विष्णुनारायणादीनि नामानि चामितान्यपि ।

तानि सर्वाणि देवर्षे जातानि रामनाम ॥२०॥

हे नारद जी ! भगवान् के विष्णु, नारायण आदि जितने नाम हैं वे सब भी पतितपावन हैं किन्तु वे सारे

नाम श्रीरामनाम से प्रकट हुए हैं और फिर महाप्रलय के समय श्रीरामनाम में ही विलीन हो जाते हैं।

श्रृणु नारद सत्यंत्वं गुह्याद् गुह्यतमं मतम् ।

रामनाम सकृज्जप्त्वा याति रामास्पदं परम् ॥२१॥

हे नारदजी ! मैं तुमसे अत्यन्त सत्य एवं गुह्य सिद्धान्त को कहता हूँ तुम सुनो- मनुष्य एक बार ही श्रीरामनाम का जप करके श्रीरामजी के दिव्यपद को प्राप्त कर सकता है इसमें आश्चर्य न करना, श्रीरामनाम की बड़ी महिमा हैं।

-जिस प्रकार अन्धकारयुक्त कक्ष में दीप प्रज्वलित करते ही अन्धकार पूर्णतया नष्ट हो जाता है, पुनः अन्धकार प्रवेश न करने पावे इसके लिए दीप की लौ को जलाये रखना आवश्यक है उसी प्रकार एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, पुनः पाप प्रवेश न करने पावे इसलिए नित्य निरन्तर श्रीरामनाम का जप करना चाहिए।

 

प्रश्न-फिर सन्त महात्मा दिन रात राम नाम का जप क्यों करते हैं ? 

उत्तर -स्नेह होने के कारण, तात्पर्य यह है कल्याण तो एक ही बार रामनाम लेने से हो गया परन्तु श्रीरामनाम में अत्यन्त प्रेम हो जाने से वे दिन रात राम नाम रटा करते हैं। तब सामान्य लोगों को बार-बार नाम जप की प्रेरणा क्यों देते हैं? इसका उत्तर यह है कि एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण से परमपद की प्राप्ति तो हो जायेगी परन्तु आगे भगवत्प्रतिकूल आचरण न हो, हमेशा भगवान् की स्मृति बनी रहे अन्तःकरण की शुद्धता बनी रहे । इसलिए निरन्तर रामनाम का जप करना चाहिए ।

 

सर्वेषां हरिनाम्नां वै वैभवं रामनामतः ।

ज्ञातं मया विशेषेण तस्मात् श्रीनाम सञ्जप ॥२२॥

हे नारदजी ! करोड़ों वर्षों तक साधना करके मैंने यह विशेष अनुभव किया है कि भगवान् के समस्त नामों का ऐश्वर्य और प्रताप श्रीरामनाम के अंशांश से है, इसलिए स्नेहपूर्वक तत्पर होकर श्रीरामनाम का जप करो।

क्षणार्द्धं जानकीजानेर्नाम विस्मृत्य मानवः ।

महादोषालयं याति सत्यं वच्मि महामुने ॥२३॥

हे महामुने ! जो मानव श्रीसीतापति श्रीरामजी के नाम को आधे क्षण के लिए भी भूलकर किसी अन्य कार्य में आसक्त होता है वह महादोषों और तापों के आलय, नरक में जाता है यह मेरा वचन सत्य है। तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम के विस्मरण के समान कोई पाप नहीं है।

रामनामप्रभावेण सीतारामं परेश्वरम् ।

सदात्मानं प्रपश्यन्ति रामनामार्थचिन्तकाः ॥२४॥

श्रीरामनाम (सीतयासहितो रामः सीतारामः तम् सीतारामम्।) के अनुसन्धान करने वाले साधकों को श्रीरामनाम के प्रभाव से परात्पर ब्रह्म श्रीसीतारामजी का साक्षात्कार होता है।

 

तत्रैव श्रीसनत्कुमारवाक्यं नारदं प्रति:

पद्मपुराण में ही श्रीसनत्कुमारजी का वाक्य नारदजी के प्रति:

सर्वापराधकृदपि मुच्यते हरिसंश्रयः ।

हरेरप्यपराधान् यः कुर्य्याद् द्विपदपांशनः ॥२५॥

नामाश्रयः कदाचित् स्यात्तरत्येव स नामतः ।

नाम्नो हि सर्वसुहृदो ह्यपराधात् पतन्त्यधः ॥२६॥

किसी भी प्रकार का अपराध करने वाला व्यक्ति यदि श्रीरामजी की शरण में आ जाय तो वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। जो नराधम श्रीरामजी का अपराध करते हैं श्रीरामजी के बत्तीस सेवापराध हैं एवं वेद प्रतिकूल आचरण भी महद् अपराध हैं। ऐसे अपराधी भी सन्त सद्गुरु के शरणागत होकर अकारण- करुणावरुणालय श्रीरामनाम की शरण होकर श्रीरामनाम के जप करने से अपराध से मुक्त हो सकते हैं परन्तु अकारणहितैषी सर्वसुखदायक श्रीरामनाम का जो अपराध करता है उसका तो अधःपतन एवं नरक गमन सुनिश्चित है।

श्रीनारद उवाच:

के तेऽपराधा विप्रेन्द्र नाम्नो भगवतः कृताः ।

विनिघ्नन्ति नृणां कृत्यं प्राकृतं ह्यानयन्ति हि ॥२७॥

श्रीनारदजी ने कहा हे विप्रवर ! श्रीरामनाम सम्बन्धी कितने अपराध हैं? उन अपराधों का स्वरूप क्या है? जिनके करने से सारे सुकृत नष्ट हो जाते हैं और महामलीन संसारियों जैसी गति प्राप्त होती है।

श्री सनत्कुमार उवाच:

सतांनिन्दानाम्नः प्रथममपराधं वितनुते ।

यतः ख्यातिं यातां कथमु सहते तद्विगर्हां ॥

शिवस्य श्रीविष्णोर्य्य इह गुणनामादि सकलं ।

धिया भिन्नं पश्येत् स खलु हरिनामाहितकरः ॥२८॥

जो श्रीरामनाम के रसिक सन्त हैं उनकी निन्दा करना प्रथम अपराध, असाध्य रोग की तरह है निन्दा का

तात्पर्य श्रीरामनाम के रसिक सन्तों की वाणी का अनादर करना और अपने असत्पक्ष का स्थापन करना। यदि कोई कहे कि सन्तों की निन्दा नामापराध कैसे होगी तो कहते हैं कि जिन सन्तों के द्वारा श्रीरामनाम की प्रसिद्धि‌ लोक में हुई उनकी बुराई को श्रीरामनाम महाराज कैसे सहन करेंगे? सन्तों के बिना श्रीरामनाम को कौन जानता? दूसरा नामापराध श्रीगौरीशङ्कर‌ भगवान् के गुणनामादि को भगवान् श्रीसीताराम जी के गुणनामादि से‌ भिन्न मानते हैं, अभिप्राय यह है कि परात्पर ब्रह्म सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी हैं और सब उनके अधीन हैं अतः श्रीगौरीशङ्कर जी की भिन्न ईशता का प्रतिपादन करना नामापराध है अथवा श्रीसीतारामजी और श्रीगौरीशङ्कर भगवान् में अभेद मानना भी अपराध है। सेवक स्वामि भाव मानना धर्म है।

गुरोरवज्ञा श्रुतिशास्त्रनिन्दनं तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम्।

नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर्न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः ॥२९॥

अपने गुरुजनों की अवज्ञा करना अर्थात् उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन करना तीसरा नामापराध है। वेद पुराण

की निन्दा करना चौथा नामापराध है यहाँ निन्दा का तात्पर्य है सुनकर के कुतर्क करना । श्रीनाम महाराज की महिमा‌ सुनकर उसे यथार्थ रूप में स्वीकार न करना, केवल प्रशंसा मात्र मानना जैसे पुराणों में तीर्थों और स्तोत्रपाठादि की महिमा लिखी है वैसे ही, श्रीरामनाम की महिमा गायी गयी है। यह वास्तव नहीं है यह पाँचवां नामापराध है यह महापाप है ऐसे पापी की शुद्धता यमनियमादि साधनों से अथवा यमलोक में जाने से भी नहीं होती है।

धर्म व्रत त्याग हुतादिसर्वशुभक्रिया साम्यमपि प्रमादः ।

अश्रद्दधानेऽप्यमुखेऽप्यश्रृण्वति यश्चोपदेशं स नामापराधः ॥३०॥

धर्म, व्रत, दान, त्याग और तप आदि जितने शास्त्रविहित शुभकर्म है उनकी श्रीरामनाम से तुलना‌ करना यह सातवां असाध्य नामापराध है जैसे सर्वेश्वर महाराजाधिराज से सामान्य प्रजा की तुलना करना यह महद् अपराध है वैसा ही यह श्रीनामापराध है। जो अश्रद्धालु हैं सुनना नहीं चाहते हैं ऐसे लोगों को लोभवश श्रीरामनाम की महिमा सुनाना आठवां नामापराध है, यह महाअपराध है तात्पर्य यह है उत्तम अधिकारी को ही श्रीरामनाम परत्व और रहस्य की बात सुनानी चाहिए।‌ श्रीरामनाम का जप करना और प्रमाद करना,‌ असावधान रहना, सन्तों का सङ्ग न करना, समस्त विश्व को श्रीरामनाममय जानकर भी हिंसा का त्याग न करना, यह नवम अपराध है तात्पर्य यह है कि प्रमाद और आलस्य से रहित होकर सावधानीपूर्वक अहिंसावृत्ति से सन्तों का सङ्ग करते हुए श्रीरामनाम का जप करना ही उत्तम जप है।

श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहितोऽधमः ।

अहं ममादिपरमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥३१॥

श्रीरामनाम की महिमा को सुनकर भी जो प्रीति से रहित है अहन्ता और ममता के मद में पागल है वह‌ भी नामापराधी है यह दशम अपराध है क्योङ्कि ऐसे सुखसागर श्रीरामनाम के स्वभाव और माहात्म्य को सुनकर भी संसार का त्याग नहीं किया, श्रीरामनाम के रस को नहीं पिया इसलिए वह नामापराधी हैं। अपराधविनिर्मुक्त पलं नाम्नि समाचर।

नाम्नैव तव देवर्षे सर्वं सेत्स्यति नान्यतः ॥३२॥

हे नारद जी ! इसलिए यह उचित है कि सभी प्रकार के नामापराधों को छोड़कर हर पल श्रीराम का जप करो, श्रीरामनाम जी की कृपा से ही सभी प्रकार के सुखों का लाभ तुम्हें मिल जायेगा। अन्य किसी भी साधन से अनन्त कल्प में भी परमानन्द दुर्लभ है।

जाते नामापराधे तु प्रमादेन कथञ्चन ।

सदा सङ्कीर्तयन्नाम तदेकशरणो भवेत् ॥३३॥

यदि प्राचीन मलीन संस्कार वश अथवा कुसङ्गवश‌ नामापराध हो जाय तो घबराना नहीं चाहिए अपितु सदा‌सर्वदा श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करे और श्रीरामनाम को ही अपना सर्वस्व एवं संरक्षक माने और श्रीरामनाम के अनुरागी सन्तों के नाम का कीर्तन करे तथा सन्त सेवा करे तो सब अपराध मिट जाता है।

नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम् ।

अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि यत् ॥३४॥

श्रीरामनाम के अपराधी का अपराध श्रीरामनाम के जप से ही मिटेगा परन्तु श्रीरामनाम का निरन्तर जप करें किसी भी समय जप बन्द न हो।

नामैकं यस्य वाचि स्मरणपथि गतं श्रोत्रमूले गतं वा शुद्धं वाऽशुद्धवर्णं व्यवहितरहितं तारयत्येव सत्यम् ।

तद्वैदेहद्रविणजनता लोभपाखण्डमध्ये, निक्षिप्तं स्यान्न फलजनकं शीघ्रमेवात्र विप्र ॥३५॥

शुद्ध अथवा अशुद्ध जैसे जल्दी-जल्दी में 'रम-रम' कह देते हैं, बिना दाॅंत वाले 'लाम-लाम' बोल देते हैं, सूकर को देखकर यवन लोग 'हराम' कह देते हैं एवं व्यवधान सहित जैसे अभी, 'रा' कह दिया और दो घण्टे बाद `म' कहा। यह व्यवधानयुक्त है ऐसा नहीं होना चाहिए तात्पर्य यह है कि जिस किसी भी प्रकार से जैसा कैसा भी श्रीरामनाम जिसके वाणी, मन और श्रोत्र का विषय हो गया उसको श्रीरामनाम महाराज निश्चित ही तार देगें, ऐसे श्रीरामनाम महाराज का जप जो देह, गेह,‌धन, मान, प्रतिष्ठा, जनता, दम्भ, लोभ और पाखण्ड के लिए करते हैं। हे नारद जी ! उनका शीघ्रता से कल्याण नहीं होता है धीरे-धीरे होता है अतः निष्काम भाव से ही श्रीरामनाम का जप करना चाहिए। नाम के बल पर पापकर्म में प्रवृत्त होना नाम महाराज को नाराज करना है जैसे बार-बार शरीर में कीचड़ लगाकर श्रीसरयूजी में धोना अपराध है यद्यपि मलीनता तो दूर हो ही जायेगी पर यह उचित नहीं है उसी प्रकार नाम जप से पाप तो निवृत्त हो जाते हैं पर ऐसा करना सर्वथा अनुचित है।

 

तत्रैव श्रीवशिष्ठवाक्यं भारद्वाजं प्रति:

पद्मपुराण में ही श्रीवशिष्ठजी का वाक्य भारद्वाज जी के प्रति:

अहो महामुने लोके रामनामाभयप्रदम् ।

निर्मलं निर्गुणं नित्यं निर्विकारं सुधास्पदम् ॥३६॥

प्रत्यक्षं परमं गुह्यं सौशील्यदि गुणार्णवम् ।

त्यक्ता मन्दात्मका जीवा नानामार्गानुयायिनः ॥३७॥

हे महामुने! बड़े आश्चर्य की बात यह है कि अभय प्रदान करने वाले, स्वच्छ, गुणातीत, अविनाशी, सकलविकार रहित, अमृतस्वरूप, प्रकट, परमगुप्त, सुशीलतादि गुणों के सागर, अगम एवं अगाध श्रीरामनाम-महाराज का निरादर करके दूसरे अनेक मार्गों का अनुगमन करते हैं वे निश्चित ही मन्दगति हैं।

यत्र तत्र स्थितो वाऽपि संस्मरेन्नाममुक्तिदम् ।

सर्वपापविशुद्धात्मा स गच्छेत् परमां गतिम् ॥३८॥

जहाँ कहीं भी शुद्ध अथवा अशुद्ध स्थान में रहते हुए जिस किसी भी स्थिति में पवित्र हो या अपवित्र‌ हो जो मुक्तिदाता श्रीरामनाम का स्मरण करता है वह मनुष्य समस्त पाप तापों का नाश करके परम धाम को प्राप्त करेगा। इसमें संशय नहीं है।

मोहानलोल्लसज्ज्वाला ज्वलल्लोकेषु सर्वदा ।

श्रीनामाम्भोदच्छायायां प्रविष्टो नैव दह्यते ॥३९॥

मोहरूपी अग्नि में यह संसार सदा सर्वदा जल रहा है, जो भाग्यवशात् श्रीरामनाम रूपी मेघ की छाया के नीचे आ‌ जाता है, वह शीतल हो जाता है वह फिर मोहादि की अग्नि में नहीं जलता है। यहाँ श्रीरामनाम का उच्चारण करना ही छाया के नीचे आना है।

रामनामजपादेव रामरूपस्य साम्यताम् ।

याति शीघ्रं न सन्देहो सत्यं सत्यं वचो मम ॥४०॥

अति आसक्तिपूर्वक तन्मय होकर श्रीरामनाम के जप करने से श्रीरामजी की समता प्राप्त होती है इसमें सन्देह नहीं है मेरी वाणी को सत्य ही जानना।

 

तत्रैव श्रीनारद वाक्यमम्बरीषं प्रति:

वहीं पर अम्बरीष जी के प्रति श्रीनारद जी का वचन:

सकृदुच्चारयेद्यस्तु रामनाम परात्परम् ।

शुद्धान्तःकरणो भूत्वा निर्वाणमधिगच्छति ॥४१॥

श्रीरामनाम को परात्पर तत्व समझकर जो एक बार श्रीरामनाम का उच्चारण करता है वह शुद्ध अन्तःकरण‌ वाला होकर परम मोक्ष को प्राप्त करता है ।

कीर्तयन् श्रद्धया युक्तो रामनामाखिलेष्टदम् ।

परमानन्दमाप्नोति हित्वा संसारबन्धनम् ॥ ४२ ॥

श्रद्धा से युक्त होकर सम्पूर्णकामनाओं को पूर्ण करने वाले श्रीरामनाम का जो सङ्कीर्तन करता है वह संसार के बन्धन का त्याग करके परमानन्द को प्राप्त करता है।

अनन्यगतयो मर्त्या भोगिनोऽपि परन्तप ।

ज्ञानवैराग्यरहिता ब्रह्मचर्य्यादिवर्जिताः ॥४३॥

सर्वोपायविनिर्मुक्ता नाममात्रैकजल्पकाः ।

जानकीवल्लभस्यापि धाम्नि गच्छन्ति सादरम् ॥४४॥

हे परन्तप ! जिनकी श्रीरामनाम के अलावा दूसरी कोई गति नहीं है जो भोगी है, ज्ञान वैराग्य से रहित है ब्रह्मचर्यादि से शून्य हैं और भगवत्प्राप्ति के समस्त उपाय से जो शून्य हैं परन्तु श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं- वे लोग निश्चित ही आदरपूर्वक श्री जानकीजीवन के परात्पर धाम साकेत लोक में जायेंगे। 

दुर्लभं योगिनां नित्यं स्थानं साकेतसंज्ञकम् ।

सुखपूर्वं लभेत्तत्तुनामसंराधनात् प्रिये ॥४५॥

हे पार्वति ! योग के जो आठ अङ्ग हैं उन आठ अङ्गों से युक्त योगी जन्म भर जो अभ्यास करते हैं ऐसे योगियों को भी जो दुर्लभ है, नित्य साकेतधाम जिसका नाम है, ऐसे दिव्य धाम को श्रीरामनाम की आराधना से भक्त सुखपूर्वक प्राप्त कर लेता है।

 

तत्रैव श्रीअर्जुनम्प्रति श्रीकृष्णवाक्यं:

वहीं पर अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण के वाक्य:

भुक्तिमुक्तिप्रदातॄणां सर्वकामफलप्रद ।

सर्वसिद्धिकरानन्त नमस्तुभ्यं जनार्दन ॥४६॥

हे जनार्दन ! हे भुक्ति और मुक्ति प्रदान करने वालों की सभी कामनाओं के अनुसार फल प्रदान करने वाले ! हे समस्त सिद्धियों को सुलभ करने वाले ! हे अनन्त ! आपको नमस्कार हो।

यं कृत्वा श्रीजगन्नाथ मानवा यान्ति सद्गतिम् ।

ममोपरि कृपां कृत्वा तत्त्वं ब्रूहिसुखालयम् ॥४७॥

हे श्रीजगन्नाथ ! मनुष्य जिसको करके सद्गति को प्राप्त करते है, उस सुख के आलय को मेरे ऊपर कृपा करके कहिए।

श्रीकृष्ण उवाच -

यदि पृच्छसि कौन्तेय सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।

लोकानान्तु हितार्थाय इह लोके परत्र च ॥४८॥

हे कुन्तीनन्दन ! यदि तुम पूछते हो तो मनुष्यों के इस लोक और परलोक में कल्याण के लिए मैं सत्य-सत्य कहता हूँ।¹

¹ रामनाम सञ्जीवनी महामनोहर मूरि ।

जासु जीह जिय विच वसी तासु सुजल भलि भूरि ॥

 

रामनाम सदा पुण्यं नित्यं पठति यो नरः ।

अपुत्रो लभते पुत्रं सर्वकामफलप्रदम् ॥४९॥

सदा पुण्यप्रद श्रीरामनाम का जो नित्य पाठ करता है, वह यदि अपुत्र है तो वह समस्त कामनाओं के अनुरूप फल प्रदान करने वाले पुत्र को प्राप्त करता है।

मङ्गलानि गृहे तस्य सर्वसौख्यानि भारत।

अहोरात्रं च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥५०॥

जो दिन रात 'राम' इन दो अक्षरों का उच्चारण करता है, हे भरतवंशी अर्जुन ! उसके घर में समस्त सुख और मङ्गल सदा निवास करते हैं।

गङ्गा सरस्वती रेवा यमुना सिन्धु पुष्करे ।

केदारे तूदकं पीतं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥५१॥

जिसने 'राम' इन दो अक्षरों का उच्चारण किया उसने श्रीगङ्गा, श्रीसरस्वती, नर्मदा, पुष्कर और केदार में जल पी लिया ।

अतिथेः पोषणश्चैव सर्वतीर्थावगाहनम् ।

सर्वपुण्यं समाप्नोति रामनामप्रसादतः ॥५२॥

श्रीरामनाम के प्रभाव से मनुष्य अतिथि सेवा और‌ समस्त तीर्थों के अवगाहन जन्य पुण्यों को प्राप्त कर लेता है।

सूर्य्यपर्वणि² कुरुक्षेत्रे कार्तिक्यां स्वामिदर्शने ।

कृपापात्रेण वै लब्धं येनोक्तमक्षरद्वयम् ॥५३॥

जिसने 'राम' इन दो अक्षरों का उच्चारण किया, श्रीराम नाम के उस कृपापात्र को सूर्य ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में स्नान करने का तथा कार्तिक मास में श्रीस्वामी कार्तिकेय के दर्शन का पुण्य सहज में प्राप्त हो जाता है।

² सूर्यग्रहे इत्येव सुवचम् ।

 

न गङ्गा न गया काशी नर्मदा चैव पुष्करम् ।

सदृशं रामनाम्नस्तु न भवन्ति कदाचन ॥५४॥

श्रीगङ्गाजी, गया, काशी, नर्मदा और पुष्कर आदि अनन्त पतितपावन तीर्थ भी अन्तःकरण की शुद्धि हेतु श्रीराम नाम की तुलना नहीं कर सकते हैं, अर्थात् श्रीरामनाम के जप से जितनी सहजता से अन्तःकरण पवित्र होता है अनन्त तीर्थों के अवगाहन से नहीं। तीर्थों के अर्थात् श्रीगङ्गाजी आदि के जल का कुछ दिनों तक निरन्तर सेवन करने से जो अन्तःकरण की शुद्धि प्राप्त होती है वह श्रीरामनाम के जप से तत्काल प्राप्त हो जाती है जैसा कि भागवतकार ने लिखा है- सद्यः‌ पुनन्त्युपस्पृष्टाः स्वर्धुन्यापोऽनुसेवया। (भा. १. १. १५) 

येन दत्तं हुतं तप्तं सदा विष्णुः समर्चितः ।

जिह्वाग्रे वर्तते यस्य राम इत्यक्षरद्वयम् ॥५५॥

जिसके जिह्वा के अग्रभाग में 'राम' यह दो अक्षर विराजमान है उसने हर प्रकार के दान, हवन और‌ तप का अनुष्ठान कर लिया और हमेशा हमेशा के लिए भगवान् विष्णु की अर्चना कर लिया।

माघस्नानं कृतं तेन गयायां पिण्डपातनम् ।

सर्वकृत्यं कृतं तेन येनोक्तं रामनामकम् ॥५६॥

जिसने श्रीराम नाम का उच्चारण कर लिया उसने तीर्थराज श्रीप्रयाग में, माघ स्नान का श्रीगयाजी में पिण्डदान का तथा वेद, पुराण और संहिता में विहित समस्त शुभ कृत्यों के अनुष्ठान का फल सहज में प्राप्त कर लिया।¹

¹ चाहो चारों ओर दौर देखो गौर ज्ञान विना दीनता न छीन होय झीन अघ आग है ।

जहाँ तक साधन सुराधन विलोकिये जू बाधन उपाधन सहित नट बाग है ॥

तीरथ की आस सो तो नाहक उपास्य हेतु एक बार राम कहे कोटिन प्रयाग है ।

युगल अनन्य इत उत भ्रम श्रम दाम नाम के रटन बिनु छूटत न दाग है ॥

 

प्रायश्चित्तं कृतं तेन महापातकनाशनम् ।

तपस्तप्तं च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥५७॥

जिसने 'राम' इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने महापातकनाशक प्रायश्चित्त को कर लिया और सभी प्रकार के तप का अनुष्ठान कर लिया।

चत्वारः पठिता वेदास्सर्वे यज्ञाश्च याजिताः ।

त्रिलोकी मोचिता तेन राम इत्यक्षरद्वयम् ॥५८॥

जिसने 'राम' इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने समस्त शाखा, अङ्ग और उपाङ्ग के सहित चारों वेदों का‌ पाठ कर लिया और विधि सहित समस्त यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया तथा तीनों लोकों के जीवों को दुखजाल से छुड़ा दिया।

भूतले सर्वतीर्थानि आसमुद्रसरांसि च ।

सेवितानि च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥५९॥

जिसने `राम' इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने ब्रह्माण्ड के सब तीर्थों, समुद्र पर्यन्त समस्त सरोवरों में स्नान, दान और सेवन कर लिया।

अर्जुन उवाच -

यदा म्लेच्छमयी पृथ्वी भविष्यति कलौ युगे ।

किं करिष्यति लोकोऽयं पतितो रौरवालये ॥६०॥

हे भगवन् ! जब यह पृथिवी सर्वथा म्लेच्छों से आक्रान्त हो जायेगी, सम्पूर्ण वातावरण रौरव नरक तुल्य हो जायेगा उस समय मनुष्य किस साधन के सहारे इस लोक में सुखी रहते हुए परम पद को प्राप्त करेगा ? 

श्रीकृष्ण उवाच -

न सन्देहस्त्वया कार्य्यो न वक्तव्यं पुनः पुनः ।

पापी भवति धर्मात्मा रामनामप्रभावतः ॥६१॥

हे अर्जुन ! श्रीरामनाम के विषय में तुम्हें सन्देह नहीं‌ करना चाहिए और न ही बार-बार कहना चाहिए चाहे जैसा भी पापी हो श्रीरामनाम के प्रताप से शुद्ध होकर पापी भी धर्मात्मा हो जाता है।

न म्लेच्छस्पर्शनात्तस्य पापं भवति देहिनः ।

तस्मा मुच्यते जन्तुर्यस्स्मरेद्रामद्वयक्षरम् ॥६२॥

जो 'राम' इन दो अक्षरों का स्मरण करेगा उनको म्लेच्छों के स्पर्श पाप नहीं लगेगा क्योङ्कि श्रीरामनाम के प्रभाव से म्लेच्छों के स्पर्श सम्बन्धी पाप से वे शीघ्र ही मुक्त हो जाते हैं।

रामस्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।

कुलायुतं समुद्धृ त्यरामलोके महीयते ॥६३॥

जो श्रद्धाभक्तिपूर्वक श्रीरामजी के स्तोत्रों का पाठ करते हैं वे मनुष्य अपने कुल की दस हजार पीढ़ी का उद्धार करके श्रीसीतारामजी के दिव्य लोक साकेत में पूजित होते हैं।

रामनामामृतं स्तोत्रं सायं प्रातः पठेन्नरः ।

गोघ्नः स्रीबालघाती च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥६४॥ 

जो इस श्री रामनामामृत स्तोत्रों का श्रद्धा‌, विश्वासपूर्वक प्रातः काल और सायङ्काल पाठ करता है वह गोहत्या, बालहत्या और स्त्रीहत्या जन्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

तत्रैव श्रीअगस्त्यवाक्यं श्रीरामम्प्रति:

उसी पद्म पुराण में श्रीअगस्त्यजी का वाक्य श्रीराम के प्रति:

विश्वरूपस्य ते राम विश्वशब्दा हि वाचकाः ।

तथापि रामनामेदं प्रभो मुख्यतमं स्मृतम् ॥६५॥

हे रामजी ! सर्वस्वरूप आप सभी शब्दों के वाच्य हैं और दुनिया के सारे शब्द आपके वाचक हैं तथापि हे प्रभो ! यह श्रीरामनाम सभी नामों में अत्यन्त मुख्य कहा गया है।

तत्रैव श्रीव्यासवाक्यं विप्रान्प्रति:

उसी पद्मपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य विप्रों के प्रति:

रामनामांशतो जाता ब्रह्माण्डाः कोटिकोटिशः ।

रामनाम्नि परे धाम्नि संस्थिता स्वामिभिस्सह ॥६६॥

अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड श्रीराम नाम के अंश से उत्पन्न होते हैं और सर्वोत्कृष्ट तेजःस्वरूप श्रीराम नाम में ही अपने स्वामियों के साथ स्थित हैं।

विश्वासः सुदृढो नाम्नि कर्त्तव्यः साधकोत्तमैः ।

निश्चयेन परां सिद्धिं शीघ्रं प्राप्नोत्यसंशयम् ॥६७॥

सर्वोत्तम साधकों को चाहिए कि अन्य सभी साधनों से मन को खीञ्चकर श्रीरामनाम में विश्वास स्थापित करें। सुस्थिर विश्वासपूर्वक श्रीरामनाम का जप करने से अतिशीघ्र ही सर्वोत्कृष्ट सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं।

चित्तस्यैकाग्रता विप्रा नाम्नि कार्या प्रयत्नतः ।

वृत्तिरोधं विना हार्दं दुर्लभं मुनीनामपि ॥६८॥

हे ब्राह्मणों ! चाहे जिस किसी प्रकार से हो श्रीरामनाम में चित्त की एकाग्रता करनी चाहिए । जब तक चित्त की वृत्तियों का निरोध नहीं होगा तब तक मुनियों को भी हृदयानन्द (परमानन्द) अत्यन्त दुर्लभ है।

अहोभाग्यमहोभाग्यमहोभाग्यं पुनः पुनः ।

येषां श्रीमद्रघूत्तंसनाम्नि सञ्जायते रतिः ॥६९॥

वे लोग बहुत ही सौभाग्यशाली है बार-बार उनके सौभाग्य की बलिहारी है जिनकी श्रीरामनाम में रति है। जो सप्रेम श्रीरामनाम का जप करते हैं उनके समान सौभाग्यशाली कोई नहीं है।

 

स्कन्दपुराणे शिववाक्यं शिवां प्रति:

स्कन्दपुराण में भगवान् शिव का वाक्य श्रीपार्वतीजी के प्रति:

कामात्क्रोधाद्धयान्मोहान्मत्सरादपि यस्स्मरेत् ।

परम्ब्रह्मात्मकं नाम राम इत्यक्षरद्वयम् ॥७०॥

परात्पर ब्रह्मस्वरूप श्रीरामनाम का जो काम सम्बन्ध से, क्रोध से, भय के कारण, मोह में आकर अथवा मात्सर्य से युक्त होकर भी स्मरण करता है वह निश्चय ही कृतार्थ हो जाता है

येषां श्रीरामचिन्नाम्नि परा प्रीतिरचञ्चला ।

तेषां सर्वार्थलाभश्च सर्वदास्ति श्रृणु प्रिये ॥७१॥

हे प्रिये ! सुनो जिन लोगों की सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीरामनाम में सुस्थिर परा प्रीति है उनके सभी मनोरथों की सिद्धि सर्वदा समझनी चाहिए।

गिरिराजसुते धन्या नास्ति त्वत्सदृशी क्वचित् ।

यस्मात्तव महाप्रीतिर्वर्तते रामनाम्नि वै ॥७२॥

हे पर्वतराज पुत्रि पार्वति ! किसी भी लोक में तुम्हारे जैसा धन्य कोई नहीं है क्योङ्कि श्रीरामनाम में तुम्हारी निश्चय ही अत्यन्त प्रीति है।

सर्वेऽवताराः श्रीरामनामशक्तिसमुद्भवाः ।

सत्यं वदामि देवेशि नाममाहात्म्यमद्भुतम् ॥७३॥

हे देवेशि ! जगत् उद्धार के लिए जितने अवतार पृथिवी पर होते हैं वे सारे अवतार श्रीरामनाम की अद्भूत शक्ति से प्रकट होते हैं श्रीरामनाम की अद्भुत महिमा है मैं सत्यकहता हूँ कि सभी अभिलाषाओं का त्याग करके कलियुग में श्रीरामनाम के उच्चारण से ही मोक्ष सम्भव है अन्य किसी उपाय से नहीं।

 

ब्रह्माण्डपुराणे धर्मराजवाक्यं श्रीरामचन्द्रं प्रति:

ब्रह्माण्डपुराण में श्रीधर्मराज का वाक्य श्रीरामचन्द्रजी के प्रति:

जयस्व रघुनन्दन रामचन्द्र प्रपन्नदीनार्तिहराखिलेश ।

वाञ्छामहे नाम निरामयं सदा प्रदेहि भगवन् कृपया कृपालो ॥७४॥

हे रघुनन्दन ! हे अखिलेश ! शरणागत दीनों के आर्ति को हरण करने वाले हे रामचन्द्रजी ! हे परमकृपालु भगवन् ! हम सब आपसे श्रीरामनाम को चाहते हैं अतः निरामय श्रीरामनाम को प्रदान कीजिए तात्पर्य यह है बिना श्रीरामजी के दिये चित्त में श्रीरामनाम निवास नहीं करता है और न ही नाम जप में चित्त लगता है इसलिए श्रीरामजी से नाम महाराज को माँगना चाहिए।

त्वन्नामसङ्कीर्त्तनतो निशाचरा द्रवन्ति भूतान्यपयान्ति चारयः ।

नाशं तथा सम्प्रति यान्ति राजन् ततः परं धाम प्रयाति साक्षात् ॥७५॥

हे महाराज श्रीरामचन्द्रजी ! आपके श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सारे निशाचर दूर भाग जाते हैं, सारे भूतप्रेत दूर चले जाते हैं और सारे शत्रु नष्ट हो जाते हैं। कीर्तन के पश्चात् साधक परमधाम को प्राप्त करता है

सुखप्रदं रामपदं मनोहरं युगाक्षरं भीतिहरं शिवाकरम् ।

यशस्करं धर्मकरं गुणाकरं वचो वरं मे हृदयेऽस्तु सादरम् ॥७६॥

सुख प्रदान करने वाला, मन को हरने वाला, भय को हरण करने वाला, महामङ्गल करने वाला, महान् यश प्रदान करने वाला, धर्मप्रदाता, समस्त गुणों की खान, 'राम' यह दो अक्षर आदरपूर्वक मेरे हृदय में निवास करे यह मुझे वर दीजिए। 

रामनामप्रभा दिव्या वेदवेदान्तपारगा ।

येषां स्वान्ते सदा भाति ते पूज्या भुवनत्रये ॥७७॥

वेद और वेदान्त का परम तत्व स्वरूप श्रीरामनाम की दिव्य प्रभा जिनके हृदय में सदा निवास करती है, वे लोग त्रिलोकी में सदा सर्वदा पूज्य हैं।

 

विष्णुपुराणे व्यासवाक्यं शुकं प्रति:

विष्णुपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य श्रीशुकदेवजी के प्रति:

अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकैः ।

पुमान्विमुच्यते सद्यः सिंहत्रस्ता मृगा इव ॥७८॥ 

विवश होकर भी जिस श्रीरामनाम के कीर्तन करने पर मनुष्य समस्त पापों से तत्काल मुक्त हो जाता है उनके सम्पूर्ण पाप वैसे ही भाग जाते हैं जैसे सिंह के डर से मृग समूह भाग जाता है।

ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन् ।

यदाप्नेति तदाप्नोति कलौ श्रीरामकीर्त्तनात् ॥७९॥

सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता में यज्ञ करने से, और‌ द्वापर में भगवान् की पूजा करने से जो कुछ प्राप्त होता है कलियुग में श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से वह सब कुछ सहज में प्राप्त हो जाता है।

तत्रैव श्रीसनत्कुमारवाक्यं वशिष्ठं प्रति:

श्रीविष्णुपुराण में ही श्रीसनत्कुमार का वाक्य श्रीवशिष्ठजी के प्रति:

प्रसङ्गेनापि श्रीरामनाम नित्यं वदन्ति ये ।

ते कृतार्था मुनिश्रेष्ठ सर्वदोषोद्गतास्सदा ॥८०॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! किसी प्रसङ्ग विशेष में भी जो नित्य श्रीराम नाम का उच्चारण करते हैं वे निश्चय ही कृतार्थ हैं सदा सर्वदा सभी दोषों से मुक्त हैं।

दृष्टं श्रुतं मया सर्वं यत्किञ्चित्सारमुत्तमम् ।

परन्तु रामनामैकवैभवं तु परात्परम् ॥८१॥

जो कुछ भी सारतत्व है उत्तम से उत्तम वस्तु है उन सबको मैंने देख लिया और सुन लिया परन्तु सबसे श्रेष्ठ परात्पर तत्व श्रीरामनाम की अद्भुत महिमा है।

तत्रैव श्रीविरञ्चिवाक्यं मरीचिं प्रति:

श्रीविष्णुपुराण में ही श्री ब्रह्माजी का वाक्य श्रीमरीचिजी के प्रति:

केचिद्यज्ञादिकं कर्म केचिज्ज्ञानादिसाधनम् ।

कुर्वन्ति नामविज्ञानविहीना मानवा भुवि ॥८२॥

परात्पर श्रीरामनाम के विज्ञान (अनुभव) से शून्य कुछ लोग पृथिवी पर यज्ञादि का अनुष्ठान करते हैं और कुछ लोग ज्ञानादि की साधना करते हैं।

तत्र योगरताः केचित्केचिद्ध्यान विमोहिता ।

जपे केचित्तु क्लिश्यन्ति नैव जानन्ति तारकम् ॥८३॥

उनमें भी कुछ लोग योगाभ्यास में निरत हैं, कुछ लोग ध्यान में ही विमोहित हैं और कुछ लोग तान्त्रिक मन्त्रादि के जप में कष्ट भोग रहे हैं निश्चय ही वे लोग तारक मन्त्र श्रीरामनाम को नहीं जानते हैं इसलिए वे अभागी हैं ।

अहं च शङ्करो विष्णुस्तथा सर्वे दिवौकसः ।

रामनामप्रभावेण सम्प्राप्ता सिद्धिमुत्तमाम् ॥८४॥

मैं (ब्रह्मा), शङ्करजी, विष्णुजी तथा सभी देवगण श्रीरामनाम के प्रभाव से ही उत्तम सिद्धि को प्राप्त किये हैं।

निर्वर्णं रामनामेदं वर्णानां कारणं परम् ।

ये स्मरन्ति सदा भक्त्या ते पूज्या भुवनत्रये ॥८५॥

यह श्रीरामनाम वर्णों से रहित है अर्द्धमात्रा रेफ बिन्दुरूप है और सभी वर्गों का परम कारण है ऐसे परमेश्वर स्वरूप श्रीरामनाम का जो भक्तिपूर्वक स्मरण करते हैं, वे लोग त्रिभुवन में सभी से सदा सर्वदा पूज्य हैं।

 

भविष्योत्तरपुराणे श्रीनारायणवाक्यं महालक्ष्मीं प्रति:

भविष्योत्तरपुराण में श्रीनारायणजी का वाक्य श्रीमहालक्ष्मी जी के प्रति:

भजस्व कमले नित्यं नाम सर्वेशपूजितम् ।

रामेतिमधुरं साक्षान्मया सङ्कीर्त्यते हृदि ॥८६॥

हे महालक्ष्मि ! भगवान् सदाशिव से नित्य पूजित 'राम'‌ इस मधुर नाम का भजन करो! मैं स्वयं ही हृदय में श्रीराम नाम का सङ्कीर्तन करता रहता हूँ।

रामनामात्मकं ग्रन्थं श्रवणात्प्राणवल्लभे ।

शुद्धान्तःकरणो भूत्वा स गच्छेद्रामसन्निधिम् ॥८७॥

हे प्राणप्रिये ! श्रीरामनाम के प्रतिपादक ग्रन्थों के श्रवण और पाठ करने से थोड़े ही दिनों में अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है तत्पश्चात् श्रीरामजी का नित्य सामीप्य प्राप्त होता है।

जीवाः कलियुगे घोरा मत्पादविमुखास्सदा ।

भविष्यन्ति प्रिये सत्यं रामनामविनिन्दकाः ॥८८॥

हे प्रिये ! मैं सत्य कहता हूँ कि कलियुग में मेरे चरणों से विमुख और अत्यन्त नीच जो लोग होङ्गे वे व्यर्थ में मेरे भक्त कहाकर श्रीराम नाम की निन्दा करेंगे।

गमिष्यन्ति दुराचारा निरये नात्र संशयः ।

कथं सुखं भवेद्देवि रामनामबहिर्मुखे ॥८९॥

ऐसे पापी दुराचारी अधम लोग अवश्य नरक कुण्ड में गिरेंगे इसमें संशय नहीं है। हे देवि! श्रीरामनाम से विमुख जीवों को सुख कैसे हो सकता है।

सर्वेषां साधनानां वै श्रीनामोच्चारणं परम् ।

वदन्ति वेदमर्मज्ञा निमग्ना ज्ञानसागरे ॥९०॥

जो सदा सर्वदा ज्ञानसागर में निमग्न रहते हैं और जो वेद के रहस्यों को जानते हैं वे सन्त महापुरुष कहते हैं कि सभी साधनों से श्रेष्ठ श्रीरामनाम का उच्चारण अर्थात् सङ्कीर्तन है।

यत्प्रभावान्मया नित्यं परमानन्ददायकम् ।

रूपं रसमयं दिव्यं दृष्टं श्रीजानकीपतेः ॥९१॥

जिस श्रीरामनाम के अद्भुत प्रभाव से मैंने नित्य परमानन्द प्रदान करने वाले दिव्य रसस्वरूप श्रीजानकीनाथजी के स्वरूप का साक्षात्कार किया।

तत्रैव नारद वाक्यं भारद्वाजं प्रति:

भविष्योत्तर पुराण में ही श्रीनारदजी का वाक्य महर्षि भारद्वाज के प्रति :

योगादिसाधने क्लेशं दुस्तरं सर्वथा मुने ।

अतस्सौलभ्यसन्मार्गं सङ्गच्छेन्नाम संस्मरन् ॥९२॥

हे मुने ! योगादि अन्य साधन महादुस्तर और दुर्गम हैं उनके अनुष्ठान में सर्वथा कष्ट एवं श्रमाधिक्य है, अतः विवेकी पुरुष को श्रीरामनाम का स्मरण करते हुए सहज सुलभ सन्मार्ग पर चलना चाहिए।

अनायासेन सर्वस्वं दुर्लभं मुनिसत्तम ।

प्रभावाद्रामनाम्नस्तु लभते रूपमद्भुतम् ॥९३॥

हे मुनिसत्तम ! श्रीरामनाम के प्रभाव से बिना परिश्रम के ही दुर्लभ से दुर्लभ अपने सर्वस्व को साधक सहज में ही प्राप्त कर लेता है और श्रीरामनाम के प्रभाव से श्रीजानकीनाथ के परात्पर अद्भुत स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है।

 

श्रीनारदीयपुराणे सूतवाक्यं शौनकं प्रति :

श्रीनारदीयपुराण में सूतजी का वाक्य शौनक के प्रति :

भयं भयानामपहारिणिस्थिते परात्परे नाम्नि प्रकाशसम्प्रदे ।

यस्मिन्स्मृते जन्मशतोद्भवान्यपि भयानि सर्वाण्यपयान्ति सर्वतः ॥९४॥

भयों के भय को भी दूर करने वाले, समस्त कल्याण प्रदान करने वाले परात्परस्वरूप श्रीरामनाम महाराज हैं जिनके स्मरण मात्र से सैकड़ों जन्मों के सभी भय सब प्रकार से दूर हो जाते हैं अत श्रीरामनाम के उपासक को चाहिए कि किसी से भी भय न करे और किसी से भी कुछ चाहे नहीं क्योङ्कि श्रीरामनाम सर्वत्र व्याप्त हैं नाम के बिना दूसरी आशा यम त्रास का कारण है।

आयासः स्मरणे कोऽस्ति स्मृतो यच्छति शोभनम् ।

पापक्षयश्च भवति स्मरतां तदहर्निशम् ॥९५॥

श्रीरामनाम के स्मरण करने में कुछ श्रम भी नहीं है और स्मरण करने पर अनन्त कल्याण को प्राप्त करते हैं, जो दिन रात श्रीरामनाम का स्मरण करता है उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्लादिषु संस्मरन् ।

श्रीमद्रामं समाप्नोति सद्यः पापक्षयो नरः ॥ ९६ ॥

प्रातःकाल, रात्रि में, सन्ध्या के समय एवं मध्याह्न काल में जो श्रीरामनाम का सम्यक् स्मरण करता है, तत्काल उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह श्रीरामजी को प्राप्त करता है।

रामसंस्मरणाच्छीघ्रं समस्तक्लेशसङ्क्षय: ।

मुक्तिं प्रयाति विप्रेन्द्र तस्य विघ्नो न बाधते ॥ ९७ ॥

हे विप्रश्रेष्ठ ! श्रीरामनाम के सम्यक् स्मरण करने से समस्त क्लेशों का सम्यक् नाश हो जाता है, उसको मुक्ति की प्राप्ति होती है उसे किसी भी प्रकार के विघ्न बाधा उपस्थित नहीं होते।

तत्रैव श्रीनारदवाक्यं व्यासं प्रति :

श्रीनारदीयपुराण ही में नारदजी का वाक्य व्यासजी के प्रति :

सर्वेषां साधनानां च सन्दृष्टं वैभवं मया ।

परन्तु नाममाहात्म्यकलां नार्हति षोडशीम् ॥९८॥

समस्त साधनों के ऐश्वर्य एवं महत्त्व को मैंने सम्यक् प्रकार से देख लिया है, परन्तु वे सब श्रीरामनाम के माहात्म्य की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। श्रीरामनाम सर्वोपरि है श्रीरामनाम की अनन्त कलाएँ हैं, उनमें एक कला के तुल्य समस्त साधन, व्रत, तीर्थ, नेम, तप, यज्ञ, ज्ञान, वैराग्य और योगादि का सामर्थ्य है।

दोहा : राम रसायन पान करु परिहरु अपर भरोस ।

युगलानन्य विकार बन बीच न करु परितोस ॥

भवताऽपि परिज्ञातं सर्ववेदार्थसङ्ग्रहम् ।

नाम्नः परं क्वचित्तत्वं दृष्टं सत्यं वदस्व वै ॥९९॥

आपने भी समस्त वेदार्थ सङ्ग्रहों का परिज्ञान प्राप्त किया है, श्रीरामनाम से श्रेष्ठ किसी भी तत्व को कहीं भी यदि आपने देखा है तो सत्य सत्य कहिए! तात्पर्य यह है कि कहीं भी श्रीरामनाम से श्रेष्ठ तत्व नहीं है

बहुधाऽपि मया पूर्वं कृतं यत्नं महामुने ।

नैव प्राप्तं परानन्दसागरं जन्मकोटिभिः ॥१००॥

हे महामुने ! मैन्ने भी पहले अनेक प्रकार से प्रयत्न किया परन्तु परमानन्द सागर श्रीरामनाम के बिना करोड़ों जन्मों में भी कहीं भी परमानन्द की प्राप्ति नहीं हुई।

यावच्छ्रीरामनाम्नस्तु भावं वै परात्परम् ।

नाभ्यस्तं हृदये ब्रह्मन् तावन्नानार्थनिश्चयम् ॥ १०१ ॥

हे ब्रह्मन् ! जब तक श्रीरामनाम के परात्पर प्रभाव का अपने हृदय में अभ्यास नहीं किया तब तक अनेक साधनों के चक्र में पड़ा रहा।

श्रीमद्रामस्य सन्नाम्नि यस्य स्यान्निश्चला रतिः ।

स्वप्नेऽपि न भवेदन्यसाधने रुचिर्निष्फला ॥१०२॥

श्रीमान् श्रीरामजी के सन्नाम में जिस साधक की निश्चल रति हो जाती है उस साधक की अन्य साधनों में स्वप्न में भी निष्फल रूचि नहीं होती है। तात्पर्य यह है कि जिसका मन श्रीरामनाम में लग गया वह अन्य साधन में प्रवृत्त नहीं होता है ।

 

शिवपुराणे श्रीशङ्करवाक्यं नारदं प्रति:

शिवपुराण में श्रीशङ्करजी का वाक्य नारदजी के प्रति:

सीतया सहितं रामनाम जाप्यं प्रयत्नतः ।

इदमेव परं प्रेमकारणं संशयं विना ॥१०३॥

श्रीसीताजी के दिव्य नाम से संयुक्त श्रीरामनाम का जप प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए, श्रीसीतारामनाम‌ का जप ही बिना संशय के प्रेम का कारण है।

सकृदुच्चारणादेव मुक्तिमायाति निश्चितम् ।

न जानेऽहं शतादीनां फलं वेदैरगोचरं ॥१०४॥

यह निश्चित है कि एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण करने से ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है तब सैकड़ों बार श्रीरामनाम के जप का क्या फल है? यह मैं नहीं जानता, यह वेदों का भी अविषय है।

यन्नाम सततं ध्यात्वाऽविनाशित्त्वं परं मुने ।

प्राप्तं नाम्नैव सत्यं च सुगोप्यं कथितं मया ॥१०५॥

हे मुने ! जिस श्रीरामनाम का निरन्तर ध्यान करके उसी नाम महाराज की कृपा से मैंने अविनाशित्व को प्राप्त किया है, यह कथन सर्वथा सत्य एवं सुगोप्य है। मैंने आपको उत्तम अधिकारी जानकर श्रीरामनाम के प्रताप का रहस्य प्रकट किया है।

श्रीरामनाम सकलेश्वरमादिदेवं धन्या जना भुवितले सततं स्मरन्ति ।

तेषां भवेत्परममुक्तिमयत्नतस्तथा श्रीरामभक्तिरचला विमला प्रसाददा ॥१०६॥

श्रीरामनाम सभी का, समस्त ईश्वरों का भी ईश्वर है, आदिदेव है, पृथिवी तल पर वे लोग धन्य हैं जो निरन्तर श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं। उन साधकों को बिना श्रम के ही मुक्ति हो जाती है और श्रीरामजी की अविचल विमल एवं परम प्रसन्नता प्रदान करने वाली भक्ति प्राप्त हो जाती है

रामनाम सदा सेव्यं जपरूपेण नारद ।

क्षणार्द्धं नामसंहीनं कालं कालातिदुखदम् ॥१०७॥

हे नारद जी ! श्रीरामनाम की जपरूपीसेवा सदा करनी चाहिए। श्रीरामनाम से रहित जो समय व्यतीत होता है वह आधा क्षण भी महाकाल से भी अधिक दुःखदायी है तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम का विस्मरण ही नामानुरागियों के लिए मौत तुल्य है।

 

श्रीमद्भागवते शुकदेववाक्यं परीक्षितम्प्रति:

श्रीमद् भागवत में शुकदेव जी का वाक्य परीक्षितजी के प्रति:

आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।

ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम् ॥१०८॥

महाभयानक संसार दुःख से युक्त होने पर जिस श्रीरामनाम का विवश होकर उच्चारण करने पर भी जीव तत्काल ही उस क्लेश से मुक्त हो जाता है क्योंकी श्रीरामनाम के भय से भय भी डरता है।

कलिं सभाजयन्त्यार्या गुणज्ञाः सारभागिनः ।

यत्र सङ्कीर्त्तनेनैव सर्वस्वार्थोऽभिलभ्यते ॥१०९॥

जो गुणी, सारग्राही एवं आर्यजन हैं वे लोग कलियुग की प्रशंसा करते हैं क्योङ्कि कलियुग में श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से ही सभी स्वार्थ की सिद्धि हो जाती है।

अज्ञानादथवा ज्ञानादुत्तमश्लोकनाम यत् ।

सङ्कीर्त्तितमघं पुंसां दहत्येधो यथाऽनलः ॥११०॥

जानकर अथवा अनजान में चाहे जैसे भी उत्तम श्लोक‌ भगवान् श्रीसीतारामजी के दिव्य नामों का सङ्कीर्तन मनुष्यों के पाप को उसी प्रकार जला कर भस्म कर देता है जैसे अग्नि लकड़ी को जलाकर भस्म कर देती है।

ब्रह्महा पितृहा गोघ्नो मातृहाऽऽचार्यहाघवान् ।

श्वादः पुल्कसकोवाऽपि शुद्धेरन् यस्य कीर्त्तनात् ॥१११॥

ब्रह्मघाती, पितृघाती, गोहिंसक, मातृघाती, गुरुघाती,‌ पापी, कुत्ते का मांस खाने वाला चण्डाल और पुल्कसादि भी जिस श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से पवित्र हो जाते हैं उस रामनाम का जप करो अन्य साधनों को छोड़कर।

नातः परं कर्म निबन्धकृन्तनं मुमुक्षूणां तीर्थपदानुकीर्त्तनात् ।

न यत्पुनः कर्म सुसज्जते मनो रजस्तमोभ्यां कलिलं यदन्यथा ॥११२॥ 

मोक्षाभिलाषी लोगों के कर्मों के बन्धन को काटने वाला तीर्थ पाद श्रीसीतारामजी के श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन के अतिरिक्त कोई साधन नहीं है। श्रीरामनाम के जप से जब मन निर्मल हो जाता है तो वह पुनः रजोगुण और तमोगुण से युक्त नहीं होता है और कर्म में आसक्त नहीं‌ होता है। दूसरे साधनों से मन की निर्मलता स्थिर नहीं होती है कुछ समय तक शान्त रहेगा फिर रजोगुण और तमोगुण से युक्त हो जाता है।

एवं व्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः ।

हसत्यथो रोदिति रौति गायत्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः ॥११३॥

इस प्रकार सङ्कल्पपूर्वक प्राणप्रिय श्रीरामनाम का निरन्तर जप करने से प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है, तत्पश्चात् वह द्रवितचित्त साधक कभी-कभी जोर से हँसता है, कभी रोता है, कभी ऊँचे स्वर में गाता है,  कभी उन्मादी की तरह नृत्य करता है उसकी सारी चेष्टाएं लोक व्यवहार से बाहर हो जाती है।

यथागदं वीर्यतममुपयुक्तं यदृच्छया ।

अजानतोऽप्यात्मगुणं कुर्य्यान्मन्त्रोऽप्युदाहृतः ॥११४॥

जैसे सुधा विषादि शक्तिमान् औषध दैववश बिना जाने भक्षण करने पर भी अपना प्रभाव अवश्य‌ दिखाता है उसी प्रकार श्रीरामनाम बिना ज्ञान के भी जप करने पर संसार दुख मिटा देता है।

 

मार्कण्डेय पुराणे श्रीव्यासवाक्यं स्वशिष्यान् प्रति:

मार्कण्डेयपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य अपने शिष्यों के प्रति:

धर्मानशेषसंशुद्धान्सेवन्ते ये द्विजोत्तमाः ।

तेभ्योऽनन्तगुणं प्रोक्तं श्रेष्ठं श्रीनामकीर्त्तनम् ॥११५॥

जो श्रेष्ठ ब्राह्मण समस्त शुद्ध धर्मों के सेवन से जो फल प्राप्त करते हैं उनसे अनन्त गुना अधिक पुण्य श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से प्राप्त होता है, अतः श्रीरामनाम सङ्कीर्तन सर्वश्रेष्ठ है।

यस्यानुग्रहतो नित्यं परमानन्दसागरम् ।

रूपं श्रीरामचन्द्रस्य सुलभं भवति ध्रुवम् ॥११६॥

जिस श्रीरामनाम की कृपा से परमानन्द सागर श्रीसीतारामजी का स्वरूप साक्षात्कार निश्चित सुलभ हो जाता है और एक रस हृदय में बना रहता है।

वेदानां सारसिद्धान्तं सर्वसौख्यैककारणम् ।

रामनाम परं ब्रह्म सर्वेषां प्रेमदायकम् ॥११७॥

समस्त वेदों का सार सिद्धान्तः समस्त सुखों का एकमात्र कारण, परब्रह्म स्वरूप और सभी को प्रेम प्रदान करने वाला श्रीरामनाम है।

तस्मात्सर्वात्मना रामनाम माङ्गल्यकारकम् ।

भजध्वं सावधानेन त्यक्त्वा सर्वदुराग्रहान् ॥१८॥

इसलिए हे शिष्यों ! तुम लोग महामाङ्गल्य प्रदान करने वाले श्रीरामनाम को सभी दुराग्रहों को छोड़कर सावधान होकर सर्वात्मभाव से भजो। इसी में भलाई है श्रीरामनाम सम्बन्ध बिना जीव किसी रीति से भी कृतार्थ‌ नहीं हो सकता है।

नित्यं नैमित्तिकं सर्वं कृतं तेन महात्मना ।

येन ध्यातं परं प्राप्यं नाम निर्वाणदायकम् ॥११९॥

जिसने परम प्राप्य निर्वाणदायक श्रीरामनाम का चिन्तन कर लिया उस महात्मा ने नित्य, नैमित्तिक सभी प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान कर लिया। उसके लिए कुछ भी करना शेष नहीं है।

जिह्वा सुधामयी तस्य यस्य नामामृते रुचिः ।

कृतकृत्यस्स एव स्यात् सर्वदोषैकदाहकः ॥१२०॥

जिस साधक की श्रीरामनामामृत जप में रूचि हो जाती है उसकी जिह्वा अमृतमयी हो जाती है और वह‌ साधक कृतकृत्य हो जाता है उसके समस्त दोष जलकर भस्म हो जाते हैं।

तत्रैव व्यासदेववाक्यं सूतं प्रति:

उसी मार्कण्डेयपुराण में व्यासजी का वाक्य सूतजी के प्रति;

रामनाम परं गुह्यं सर्ववेदान्त्वन्दितम् ।

ये रसज्ञा महात्मानस्ते जानन्ति परेश्वरम् ॥१२१॥

श्रीरामनाम परम गुह्य है समस्त वेदान्तों से पूज्य है जो महात्मा श्रीरामनाम के रस को जानते हैं वे श्रीरामनाम के परेश्वर स्वरूप को जानते हैं।

नामस्मरणनिष्ठानां निर्विकल्पैकचेतसाम् ।

किं दुर्लभं त्रिलोकेषु तेषां सत्यं वदाम्यहम् ॥१२२॥

जिनकी श्रीरामनाम के स्मरण में अपार निष्ठा है, जो नाना प्रकार के सङ्कल्प विकल्पों से रहित हैं, जो एकाग्रचित हैं, उन महात्माओं के लिए त्रिलोकी में कुछ भी दुर्लभ नहीं है यह सत्य सत्य मैं कहता हूँ।

अज्ञानप्रभवं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।

रामनामप्रभावेण विनाशो जायते ध्रुवम् ॥१२३॥

जड़चेतनात्मक जो कुछ भी जगत् है वह सब अज्ञान से उत्पन्न हुआ है श्रीरामनाम का निरन्तर जप करने से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है उस समय उस महात्मा को सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म श्रीरामजी का दर्शन होने‌ लगता है सृष्टिगत नानात्व नष्ट हो जाता है।

भजस्व सततं नाम जिह्वया श्रद्धया सह ।

स्वल्पकेनैव कालेन महामोदः प्रजायते ॥१२४॥

इसलिए श्रद्धापूर्वक अपनी जिह्वा से निरन्तर श्रीरामनाम का भजन करो इससे थोड़े समय में ही महामोद की प्राप्ति होगी।

धन्यं कुलवरं तस्य यस्मिन् श्रीरामतत्परः ।

जायते सत्यसङ्कल्पः पुत्रः श्रीशेशवल्लभः ॥१२५॥

जिस कुल में श्रीरामनाम जप परायण, सत्यसङ्कल्प और श्रीविष्णु भगवान आदि के स्वामी श्रीसीतारामजी का प्रिय पुत्र उत्पन्न होता है। वह कुल धन्य एवं श्रेष्ठ है।

 

गरुड़पुराणे श्रीविष्णुवाक्यं वैनतेयं प्रति :

गरुड़पुराण में श्रीविष्णुजी का वाक्य गरुड़जी के प्रति :

श्रीरामराम रामेति ये वदन्त्यपि पापिनः ।

पापकोटिसहस्रेभ्यस्तेषां सन्तरणं ध्रुवम् ॥१२६॥

जो पापी भी श्रीराम, राम राम ऐसा उच्चारण करते हैं उन पापियों का भी करोड़ों पापों से उद्धार

निश्चित है तात्पर्य है कि अनन्त जन्मों के अनन्त पापों से मनुष्य का उद्धार श्रीरामनाम महाराज की कृपा से हो सकता है लेकिन कुछ दिन तक निरन्तर सब आशा त्यागकर श्रीरामनाम का जप किया जाय तो।

कलौ सङ्कीर्त्तनादेव सर्वपापं व्यपोहति ।

तस्माच्छ्रीरामनाम्नस्तु कार्यं सङ्कीर्त्तनं वरम् ॥१२७॥

कलियुग में श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं इसलिए श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ साधन है श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही करना चाहिए।

 

अग्निपुराणे श्रीमहादेववाक्यं दुर्वाससं प्रति :

अग्निपुराण में श्रीमहादेवजी का वाक्य दुर्वासा के प्रति :

न भयं यमदूतानां न भयं रौरवादिकम् ।

न भयं प्रेतराजस्य श्रीमन्नामानुकीर्त्तनात् ॥१२८॥

श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से यमदूतों का, रौरवादि नरकों का और यमराज का भय नहीं रहता है।

यच्चापराह्ने पूर्वाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि ।

कायेन मनसा वाचा कृतं पापं दुरात्मना ॥१२९॥

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत् ।

रामनामजपाच्छीघ्रं विनष्टं भवति ध्रुवम् ॥१३०॥

दुरात्मा पापी के द्वारा पूर्वाह्न, मध्याह्न और रात्रि में शरीर, मन और वाणी से जो पाप किया जाता है वह सम्पूर्ण पाप निश्चित ही परम ब्रह्म परम तेजोमय और परमपवित्र स्वरूप श्रीरामनाम के जप से विनष्ट हो जाता है।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स्त्रीशूद्राश्च तथान्त्यजाः ।

यत्र कुत्रानुकुवर्तु रामनामानुकीर्त्तनम् ॥१३१॥

इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री शुद्र तथा अन्त्यजों को शुचि अथवा अशुचि किसी भी अवस्था

में सर्वत्र श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए।

 

तत्रैव प्रह्लादवाक्यं बालकान् प्रति अनि पुराणे :

उसी अग्निपुराण में प्रह्लादजी का वाक्य बालकों के प्रति :

यत्प्रभावादहं साक्षात्तीर्णो घोरभयार्णवम् ।

अनायासेन बाल्येऽपि तस्माच्छ्रीनामकीर्त्तनम् ॥१३२॥

हे दैत्य बालकों ! जिस श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन के प्रभाव से बिना परिश्रम के ही बाल्यावस्था में ही

मैंने अपने पिताजी के क्रोधरूपी अत्यन्त भयावह समुद्र को पार कर लिया है, अतः हम सभी को श्रीरामनाम

का सङ्कीर्तन करना चाहिए।

कर्त्तव्यं सावधानेन त्यक्त्वा सर्वदुराग्रहम् ।

साधनान्यं विहायाशु बुद्ध्वा वैरस्यमात्मनि ॥१३३॥

अतः समस्त दुराग्रह का त्याग करके एवं अन्य सभी साधनों को रस शून्य जानकर सावधान होकर

श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए।

यद्भुञ्जन्यस्वपंस्तिष्ठन् गच्छन्वै जाग्रति स्थितौ ।

कृतवान्पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा ॥१३४॥

यत्स्वल्पमपि यत्स्थूलं कुयोनिनरकावहम् ।

तद्यातु प्रशमं सर्वं रामनामानुकीर्त्तनात् ॥१३५॥

आज मैंने शरीर, मन और वाणी से भोजन करते समय, बैठते-उठते, चलते-जागते, सोते एवं सकल

व्यवहार करते समय जो पाप किया है जो थोड़ा अथवा बहुत हो, एवं शूकरादि योनि एवं महाघोर नरक प्रदान

करने वाले जो पाप हैं वे समस्त पाप श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से नष्ट हो जावें।

क्रियाकलापहीनो वा संयुतो वा विशेषतः ।

रामनामानिशं कुर्वन् कीर्त्तनं मुच्यते भयात् ॥१३६॥

वेदोक्त समस्त क्रियाकलापों से जो शून्य हो अथवा युक्त हो वह निरन्तर श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से

जन्ममरण रूप भय से मुक्त हो जाता है।

यदिच्छेत्परमां प्रीतिं परमानन्ददायिनीम् ।

तदा श्रीरामभद्रस्य कार्यं नामानुकीर्तनम् ॥१३७॥

यदि श्रीसीतारामजी की परमानन्ददायिनी परात्पर प्रीति को प्राप्त करना चाहते हो तो सभी आशाओं

का त्याग करके श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करो पराप्रीति का उदय हो जायेगा।

 

ब्रह्म वैवर्त्तपुराणे शिववाक्यं नारदं प्रति :

बह्मवैवर्तपुसण में श्रीशिवजी का वाक्य श्रीनारदजी के प्रति :

हनन्ब्राह्मणमत्यन्तं कामतो वा सुरां पिबन् ।

रामनामेत्यहोरात्रं सङ्कीर्त्य शुचितामियात् ॥१३८॥

जो अत्यन्त पापी हजारों ब्राह्मणों की हत्या करने वाला है अथवा स्वच्छन्द मदिरापान करने वाला है, वह नीच भी एक दिन रात निरन्तर श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से परम पवित्र हो जाता है।

अपि विश्वासघाती च तथा ब्राह्मण निन्दकः ।

कीर्त्तयेद् रामनामानि न पापैः परिभूयते ॥१३९॥

किसी की सहायता का वचन देकर सामर्थ्य होने पर भी न करना विश्वासघात है यह महापाप एवं ब्राह्मण की निन्दा करना भी महापाप है इत्यादि अनेक पापों को करने वाला भी यदि श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करे तो शीघ्र ही समस्त पापों से रहित हो जाता है।

तत्रैव श्रीनारदवाक्यमम्बरीषं प्रति :

उसी ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्रीनारदजी का वाक्य अम्बरीष के प्रति :

व्रजॅंस्तिष्ठन्स्वपन्नश्नन्स्वसन्वाक्यप्रपूर्णके ।

रामनाम्नस्तु सङ्कीर्त्य भक्तियुक्त परंव्रजेत् ॥१४०॥

जो चलते, बैठते, बोलते, खाते, पीते, सोते एवं वाक्य के अन्त में स्नेहपूर्वक श्रीरामनाम का उच्चारण करता है वह श्रीसीतारामजी के परम धाम को प्राप्त करता है।

कदाचिन्नाम सङ्कीर्त्य भक्त्या वा भक्तिवर्जितः ।

दहते सर्व पापानि युगान्ताग्निरिवोत्थितः ॥१४१॥

जो श्रीरामनाम का उच्चारण किसी भी समय भक्तिपूर्वक अथवा भक्ति से रहित ही करता है उसके जन्म जन्मान्तर के समस्त पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे महाप्रलय की अग्नि से समस्त सृष्टि का संहार हो जाता है।

जन्मान्तर सहस्रैस्तु कोटि जन्मान्तरेषु यत् ।

रामनाम प्रभावेण पापं निर्याति तत्क्षणात् ॥१४२॥

असङ्ख्य जन्मों में असङ्ख्य शरीरों के द्वारा किये जाने वाले जो असङ्ख्य पाप हैं वे सारे पाप श्रीरामनाम के प्रभाव से क्षणभर में भस्म हो जाते हैं।

अभक्ष्यभक्षणात्पापमगम्यागमनाच्च यत् ।

नश्यते नात्र सन्देहो रामनाम जपान्नृप ॥१४३॥

हे राजन् ! अभक्ष्य के भक्षण करने से एवं अगम्या स्त्री के साथ गमन करने का जो पाप लगता है वह पाप श्रीरामनाम के जप से नष्ट हो जाता है इसमें सन्देह नहीं है।

अम्बरीष महाभाग श्रृणुमद्ववचनं वरम् ।

सर्वोपद्रवनाशाय कुरु श्रीरामकीर्त्तनम् ॥१४४॥

हे महाभाग अम्बरीष ! मेरे श्रेष्ठ वचन को सुनो, सभी प्रकार के उपद्रवों के नाश के लिए श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करो।

तावत्तिष्ठति देहेस्मिन्काल कल्मष सम्भवम् ।

श्रीनामकीर्त्तनं यावत्कुरुते मानवो नहि ॥१४५॥

मनुष्य के शरीर में काल जन्य कल्मष तभी तक निवास करते हैं जब तक वह श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन नहीं करता है श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सभी पाप नष्ट हो जाते है।

यस्यस्मृत्या च नामोक्त्या तपो यज्ञक्रियादिषु ।

न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥१४६॥

जिनके स्मरण करने से और जिनके नाम का उच्चारण करने से तप, यज्ञ, क्रियादि में होने वाली न्यूनता तत्काल सम्पूर्णता को प्राप्त हो जाती है उन अच्युत भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ।

आधयो व्याघयो यस्य स्मरणान्नामकीर्त्तनात् ।

शीघ्रं वैनाशमायान्ति तं वन्दे पुरुषोत्तमम् ॥१४७॥

जिनके स्मरण करने से और जिनके नाम का सङ्कीर्तन करने से सभी प्रकार की मानसिक व्यथा एवं शारीरिक व्यथाएँ शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं उन पुरुषोत्तम भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ।

श्रीरामेत्युक्तमात्रेण हेलया कुलवर्द्धन ।

पापौघं विलयं याति दत्तमश्रोत्रिये यथा ॥१४८॥

हे कुलवर्द्धन ! अनादरपूर्वक श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से भी पापों का समूह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार अश्रोत्रिय को दिया गया दान नष्ट हो जाता है।

गवामयुतकोटीनां कन्यानामयुतायुतैः ।

तीर्थकोटि सहस्राणां फलं श्रीनामकीर्त्तनम् ॥१४९॥

अनन्त कोटि गोदान, अनन्तकोटि कन्यादान और अनन्तकोटि तीर्थों में स्नान करने का जो पुण्य प्राप्त

होता है वह एक बार श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सहज में प्राप्त हो जाता है।

रामनामेति सद्भक्त्या येन गीतं महात्मना ।

तेनैव च कृतं सर्वं कृत्यं वै संशयं विना ॥१५०॥

जिस महात्मा ने श्रद्धाभक्तिपूर्वक श्रीरामनाम का गान कर लिया, उसने ही समस्त कर्त्तव्य कर्मों का अनुष्ठान कर लिया, इसमें संशय नहीं है।

वसन्ति यानि तीर्थानि पावनानि महीतले ।

तानि सर्वाणि नाम्नस्तुकलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥१५१॥

पृथ्वी पर पवित्र करने वाले जितने तीर्थ विद्यमान हैं वे सभी तीर्थ श्रीरामनाम की सोलहवीं कला के तुल्य भी नहीं है, अतः श्रीरामनाम सर्वश्रेष्ठ एवं पावनों को भी पावन बनाने वाला है।

रामनाम समं चान्यत्साधनं प्रवदन्ति ये ।

ते चाण्डालसमास्सर्वे सदा रौरव वासिनः ॥१५२॥

जो लोग दूसरे साधनों को श्रीरामनाम के समकक्ष कहते एवं समझते हैं वे लोग चाण्डाल के तुल्य हैं और सदा रौरव नरक में निवास करते हैं।

रामनामाशयं दिव्यं ये जानन्ति समादरात् ।

ते कृतार्थाः कलौ राजन्सत्यंसत्यं वदाम्यहम् ॥१५३॥

जो लोग श्रीरामनाम के दिव्य आशय को आदरपूर्वक जानते एवं स्वीकार करते हैं, हे राजन् ! कलियुग में वे ही लोग कृतार्थ हैं यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ।

दृष्टं नामात्मकं विश्वं मया विज्ञानचक्षुषा ।

वाङ्मनोगोचरातीतं निर्विकल्पं प्रमोददम् ॥१५४॥

मैंने विज्ञानरूपी नेत्र से देख लिया है कि समस्त विश्व श्रीरामनामात्मक है श्रीरामनाम वाणी, मनबुद्धि आदि इन्द्रियों से सर्वथा परे हैं सभी कल्पनाओं से परे हैं और महाप्रमोद को प्रदान करने वाला है।

 

ब्रह्मपुराणे श्रीब्रह्मवाक्यं नारदं प्रति :

ब्रह्मपुराण में श्रीब्रह्माजी का वाक्य नारदजी के प्रति :

इदमेव हि माङ्गल्यमिदमेव धनागमः ।

जीवितस्य फलञ्चैव रामनामानुकीर्त्तनम् ॥१५५॥

श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही परम मङ्गलस्वरूप है सर्वश्रेष्ठ धन का आगम है और मानव जीवन का परम फल है।

प्रमादादपि संस्पृष्टो यथाऽनलकणो दहेत् ।

तथौष्ठपुट संस्पृष्टं रामनामदहेदघम् ॥१५६॥

जैसे प्रमाद से भी स्पर्श करने पर अग्निकण स्पर्श करने वाले को जलाता है वैसे ही श्रीरामनाम ओष्ठपुट और रसना से उच्चरित होने पर पाप को दग्ध कर देता है।

हत्याऽयुतं पानसहस्रमुग्रं गुर्वङ्गनाकोटि निषेवनञ्च ।

स्तेनान्यसङ्ख्यानि च पातकानि श्रीरामनाम्ना निहतानि सद्यः ॥१५७॥

दस हजार हत्या, हजारों प्रकार से भयङ्कर मद्यपान, गुरुपत्नी के साथ करोड़ों बार गमन और असङ्ख्य बार सुवर्णादि की चोरी करने से होने वाले जो पाप हैं वे सब श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से तत्काल नष्ट हो जाते हैं।

निर्विकारं निरालम्बं निर्वैरञ्च निरञ्जनम् ।

भज श्रीरामनामेदं सर्वेश्वर प्रकाशकम् ॥१५८॥

हे नारद ! श्रीरामनाम जन्मादि विकारों से रहित हैं, श्रीरामनाममहाराज जीव को कृतार्थ करने के लिए किसी अन्य साधन का अवलम्ब नहीं लेते हैं, श्रीरामनाम का किसी से वैर नहीं है, श्रीरामनाम मायादि अञ्जनों

से रहित हैं, श्रीरामनाम सर्वेश्वर एवं श्रीसीतारामजी के परात्परेश्वरस्वरूप को साक्षात् नामानुरागी के भीतर

बाहर प्रकाशित कर देते हैं अतः तुम इस श्रीरामनाम का भजन करो।

श्रुत्वा श्रीरामनाम्नस्तु प्रभावं वै परात्परम् ।

सत्यं यो नाभिजानाति द्रष्टव्यं तन्मुखं नहि ॥१५९॥

श्रीरामनाम के परात्पर प्रभाव को सुनकर भी जो उसे सत्य नहीं समझता है उसके मुख को नहीं देखना चाहिए।

विज्ञानं परमं गुह्यमिदमेव महामुने ।

बाह्यं वाऽभ्यन्तरं नाम सततं चिन्तनं वरम् ॥१६०॥

हे महामुने ! नारदजी ! सर्वोत्कृष्ट विज्ञान एवं परम गोपनीय यही है कि भीतर बाहर से निरन्तर श्रीरामनाम का जप करना यही श्रेष्ठ चिन्तन है।

 

कूर्म पुराणे श्रीशङ्करवाक्यं शिवां प्रति :

कूर्मपुराण में श्रीशङ्करजी का वाक्य पार्वतीजी के प्रति :

गोप्याद्गोप्यतमं भद्रे सर्वस्वं जीवनं मम ।

श्रीरामनाम सर्वेशमद्भुतं भुक्ति मुक्तिदम् ॥१६१॥

हे कल्याणि ! गोप्य से भी अत्यन्त गोपनीय मेरे जीवन सर्वस्व श्रीरामनाम हैं, श्रीरामनाम सर्वेश्वर एवं आश्चर्यमय भोग एवं मुक्ति प्रदान करने वाले हैं।

जपस्व सततं रामनाम सर्वेश्वर प्रियम् ।

नियामकानां सर्वेषां कारणं प्रेरकं परम् ॥१६२॥

हे प्रिये ! तुम निरन्तर श्रीरामनाम का जप करो क्योङ्कि श्रीरामनाम सभी ईश्वरों को भी प्रिय हैं समस्त नियामकों का परम कारण एवं सर्वश्रेष्ठ प्रेरक है।

रामनामैव सद्विद्ये सत्यं वच्मि वरानने ।

समाहितेन मनसा कीर्त्तनीयस्सदा बुधैः ॥१६३॥

हे सुमुखि ! हे ब्रह्म विद्यास्वरूपिणि पार्वति ! मैं सत्य-सत्य कहता हूँ कि विद्वानों को सदा सावधानचित्त होकर श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए।

रामनामात्मकं तत्त्वं सतां जीवनमुत्तमम् ।

निन्दितस्सर्वलोकेषु रामनाम बहिर्मुखः ॥१६४॥

श्रीरामनाम सभी सन्तों का जीवन है जो श्रीराम से बहिर्मुख है वह सभी लोकों में निन्दित है।

लौकिकी वैदिकी या या क्रिया सर्वार्थसाधिका ।

ताभ्य कोट्यर्बुदगुणं श्रेष्ठं श्रीनामकीर्त्तनम् ॥१६५॥

सभी अर्थों को सिद्ध करने वाली लौकिक या वैदिक जितनी क्रियाएँ हैं उन समस्त क्रियाओं से कई श्रेष्ठ श्रीरामनाम सङ्कीर्तन है।

धिक्कृतं तमहं मन्ये सततं प्राणवल्लभे ।

यज्जिह्वाग्रे न श्रीरामनाम संराजते सदा ॥१६६॥

हे प्राण वल्लभे ! मैं उसे सतत धिक्कार के योग्य मानता हूँ जिसकी जिह्वा पर सदा श्रीरामनाम विराजमान न हो अर्थात् जो सदा सर्वदा श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन नहीं करता है उसे धिक्कार है।

 

वामनपुराणे श्रीवामन वाक्यं मुनीन्प्रति :

वामनपुराण में श्रीवामनजी का वाक्य मुनियों के प्रति :

अघौघा वज्रपाताद्या ह्यन्ये दुर्नीत सम्भवः ।

स्मरणाद्रामभद्रस्य सद्यो याति क्षयं क्षणात् ॥१६७॥

पापों का समूह, वज्रपातादि दोष तथा दूसरे दुष्टनीतियों से समुत्पन्न दुर्भिक्षादि जितने दोष हैं वे सब श्रीरामनाम के स्मरण से तत्काल नष्ट हो जाते हैं।

श्रृण्वन्ति ये भक्तिपरा मनुष्याः सङ्कीर्त्यमानं भगवन्तमुग्रं ।

ते मुक्तपापाः सुखिनो भवन्ति यथाऽमृतप्राशनतर्पितास्तु ॥१६८॥

भक्तिपरायण जो मनुष्य भगवान् के श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन एवं भगवान् के गुण कीर्तन को सुनते है वे समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं और उसी प्रकार सुखी हो जाते हैं जिस प्रकार अमृतपान करने से प्राण तृप्त हो जाते हैं।

परदाररतो वाऽपि परापकृतकारकः ।

स शुद्धो मुक्तिमायाति रामनामानुकीर्तनात् ॥१६९॥

जो परस्त्री भोगरत है अथवा जो दूसरे का अपकार करता है वह पापी भी श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन के प्रभाव से शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त करता है।

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।

यस्स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥१७०॥

अपवित्र हो या पवित्र हो अथवा किसी भी अवस्था में हो जो श्रीराम राजीव लोचन के नाम का स्मरण करता है वह भीतर बाहर सभी प्रकार से पवित्र हो जाता है।

 

मत्स्य पुराणे :

मत्स्यपुराण में :

सर्वेषां राममन्त्राणां श्रेष्ठं श्रीतारकं परम् ।

षडक्षरमनुंसाक्षात्तथा युग्माक्षरं वरम् ॥१७१॥

समस्त श्रीराममन्त्रों में तारक मन्त्र (बीजयुक्त षडक्षरमन्त्र) श्रेष्ठ है एवं श्रीरामनाम श्रेष्ठ है दोनों में भेद नहीं है।

येन ध्यातं श्रुतं गीतं रामनामेष्टदं महत् ।

कृतं तेनैव सत्कृत्यं वेदोदितमखण्डितम् ॥१७२॥

समस्त अभिलषित वस्तुओं को प्रदान करने वाले श्रीरामनाम का जिसने ध्यान श्रवण और गायन किया, उसने वेद में कहे गये सत्कृत्यों का अखण्ड अनुष्ठान कर लिया।

ध्येयं ज्ञेयं परं पेयं रामनामाक्षरं मुने ।

सर्वसिद्धान्तसारेदं सौख्यं सौभाग्य कारणम् ॥१७३॥

हे मुनिराज ! सभी सिद्धान्तों का सार, सुख और सौभाग्य का परम कारण अविनाशी श्रीरामनाम ही चिन्तन के योग्य, जानने योग्य एवं अत्यन्त पेय हैं। अतः निरन्तर श्रीरामनाम का ही पान करना चाहिए।

नामैव परमं ज्ञानं ध्यानं योगं तथा रतिम् ।

विज्ञानं परमं गुह्यं रामनामैव केवलम् ॥१७४॥

श्रीरामनाम ही सर्वोत्कृष्ट ज्ञान, ध्यान, योग तथा प्रेम है केवल श्रीरामनाम ही विज्ञान एवं अत्यन्त गुह्य है।

नाम स्मरण निष्ठानां नामस्मृत्या महाघवान् ।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाञ्छितार्थं च विन्दति ॥१७५॥

श्रीरामनाम के स्मरण कीर्तन में जिनकी अपार निष्ठा है ऐसे नामनिष्ठ भक्तों के नाम का स्मरण करने से महापापी भी समस्त पापों से मुक्त होकर मनचाही वस्तु को प्राप्त कर लेता है।

 

वाराहपुराणे श्रीशिववाक्यं शिवाम्प्रति :

वाराहपुराण में श्रीशिवजी का वाक्य पार्वतीजी के प्रति :

दैवाच्छूकरशावकेन निहतो म्लेच्छो जराजर्जरोहारामेण हतोऽस्मि भूमिपतितो जल्पंस्तनुं त्यक्तवान् ।

तीर्णोगोष्पदवद्भवार्णवमहो नाम्नः प्रभावादहोकिं चित्रं यदि रामनाम रसिकास्ते यान्ति रामास्पदम् ॥१७६॥

दैवयोग से एक म्लेच्छ (यवन) जो कि बुढ़ापे से जर्जर था, उसे एक शूकर के बच्चे ने मारा, ‘हाराम (हराम -शूकर) ने मुझे मारा एवं हा ! राम ने मुझे मारा’ ऐसा कहता हुआ वह भूमि पर गिर पड़ा और शरीर हे छोड़ दिया। वह गौ के खुर के समान भवसागर को तर गया। अहो ! श्रीरामनाम का प्रभाव आश्चर्यमय है। यदि श्रीरामनाम के प्रेमी श्रीरामजी के धाम को जाते हैं तो इसमें कौन आश्चर्य है।

ध्येयं नित्यमनन्य प्रेमरसिकैः पेयं तथा सादरंज्ञेयं ज्ञानरतात्मभिश्च सुजनैः सम्यक् क्रियाशान्तये ।

श्रीमद्रामपरेश नाम सुभगं सर्वाधिपं शर्मदंसर्वेषां सुहृदं सुरासुरनुतं ह्यानन्दकन्दं परम् ॥१७७॥

अनन्यनामानुरागियों के द्वारा नित्य ध्यान के योग्य, तथा परम प्रेमी रसिकों के द्वारा सादर पान करने योग्य, क्रिया की सम्यक् शान्ति के लिए ज्ञान, सुजनों के द्वारा जानने योग्य श्रीरामनाम ही हैं। श्रीरामनाम सुन्दर सबके स्वामी, कल्याण प्रदान करने वाला, सभी के अकारण हितैषी, सुर और असुर सभी से संस्तुत एवं परम आनन्दकन्द हैं ऐसा विचार करके सदा सर्वदा श्रीरामनाम का जप करना चाहिए।

निरपेक्षं सदा स्वच्छं सर्वसम्पत्ति साधकम् ।

भजध्वं रामनामेदं महामाङ्गलिकं परम् ॥१७८॥

श्रीरामनाम महाराज पत्र, पुष्प, फल, शुद्धता आदि अपेक्षाओं से सर्वथा रहित अर्थात् निरपेक्ष हैं। सदा सर्वदा स्वच्छ निर्मल हैं, सभी प्रकार की सम्पत्तियों को प्रदान करने वाले हैं और अतिशय महामङ्गलरूप हैं अतः आप सभी को इस श्रीरामनाम का भजन करना चाहिए।

करुणावारिधिं नाम ह्यपराधनिवारकम् ।

तस्मिन्प्रीतिर्न येषां वै ते महापापिनो नराः ॥१७९॥

श्रीरामनाम महाकरुणा के सागर एवं समस्त अपराधों को दूर करने वाले हैं ऐसे श्रीरामनाम में जिन लोगों की सच्ची प्रीति नहीं है। वे लोग निश्चय ही महापापी हैं।

 

लिङ्गपुराणे सूतवाक्यं शौनकं प्रति :

लिङ्गपुराण में सूतजी का वाक्य शौनकजी के प्रति :

रामनामानिशं भक्त्या प्रजप्तव्यं प्रयत्नतः ।

नातः परतरोपायो दृश्यते श्रूयते मुने ॥१८०॥

हे मुनिराज ! श्रीरामनाम का भक्तिपूर्वक एवं संयमपूर्वक दिनरात जप करना चाहिए। आत्मकल्याण के लिए श्रीरामनाम से बढ़कर कोई दूसरा उपाय न दिखायी देता है और न सुना जाता है।

तत्रैव श्रीमहादेव वाक्यं पार्वतीं प्रति :

लिङ्गपुराण में ही श्रीशङ्करजी का वाक्य श्रीपार्वतीजी के प्रति :

वृथाऽऽलापंवदन्न्रीडा येषां नायाति सत्वरम् ।

हित्वा श्रीरामनामेदं ते नराः पशवः स्मृताः ॥१८१॥

श्रीरामनाम को छोड़कर व्यर्थ वार्तालाप करने में जिनको शीघ्र ही लज्जा नहीं आती है वे मनुष्य पशु कहे जाते हैं।

न जाने किं फलं ब्रह्मन् जायते नामकीर्त्तनात् ।

जानाति तच्छिवः साक्षाद्रामानुग्रहतो मुने ॥१८२॥

हे ब्रह्मन् ! श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से कौन सा फल प्राप्त होता है हे मुनि श्रेष्ठ ! उसको श्रीरामजी की कृपा से साक्षात् शिवजी ही जानते हैं।

अहो नामामृतालापी जनः सर्वार्थसाधकः ।

धन्याद्धन्यतमोनित्यं सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥१८३॥

आश्चर्य है श्रीरामनामरूपी अमृत का जप करने वाले (पान करने वाले ) साधक सभी प्रकार के पुरुषार्थों को सिद्ध कर लेते हैं वे सभी धन्यों में नित्य अतिशय धन्य हैं यह बात मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ।

रामनाम्ना जगत्सर्वं भासितं सर्वदा द्विज ।

प्रभावं परतमं तस्य वचनागोचरं मुने ॥१८४॥

हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! यह सम्पूर्ण जगत् श्रीरामनाम से ही सदा सर्वदा प्रकाशित हैं। हे मुने! उस श्रीरामनाम का सर्वोत्कृष्ट प्रभाव वाणी से सर्वथा परे है।

अलं योगादिसङ्क्लेशैर्ज्ञानविज्ञानसाधनैः ।

वर्त्तमाने दयासिन्धौ रामनामेश्वरे मुने ॥१८५॥

मुने ! दयासिन्धु सर्वेश्वर श्रीरामनाम के विद्यमान होने पर योगादि में क्लेश उठाने से क्या लाभ? एवं ज्ञानविज्ञान के साधक विभिन्न साधनों से क्या प्रयोजन? अर्थात् योगादि एवं ज्ञान विज्ञान के विभिन्न साधनों का त्याग करके एकमात्र परमदयालु श्रीरामनाम का आश्रय लो। उसी से सभी प्रकार के अभीष्टों की सिद्धि हो जायेगी।

रामात्परतरं नास्ति सर्वेश्वरमनामयम् ।

तस्मात्तन्नाम संलापे यत्नं कुरु मम प्रिये ॥१८६॥

हे मेरी प्राणवल्लभे पार्वति ! श्रीरामनाम से परे सर्वेश्वर, निरामय, अशोक कोई दूसरा तत्व नहीं है इसलिए श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने का प्रयास करो।

चाण्डालादिकजन्तूनामधिकारोऽस्ति वल्लभे ।

श्रीरामनाम मन्त्रेऽस्मिन् सत्यं सत्यं सदा शिवे ॥१८७॥

हे प्राणवल्लभे पार्वति ! इस श्रीरामनाम महामन्त्र के जप में ब्रह्मा से लेकर चाण्डाल पर्यन्त सभी जीवों का अधिकार है यह बात मैं सदा सत्य-सत्य कहता हूँ।

यत्प्रभावलवकांशतः शिवे शिवपदं सुभगं यदवाप्तम् ।

तद्रतिं विरहिता किल जीवा यान्ति कष्टमतुलं यम सादनम् ॥१८८॥

हे पार्वति ! मैंने जिस श्रीरामनाम के लवांश मात्र प्रभाव से सुन्दर अमर शिवपद प्राप्त किया है । ऐसे श्रीरामनाम में जिनकी प्रीति नहीं है वे लोग अतुलकष्टप्रद यमसदन नरकादि में अवश्य जायेङ्गे 

साकारादगुणाच्चापि रामनाम परं प्रिये ।

गोप्याद्गोप्यतमं वस्तु कृपया सम्प्रकाशितम् ॥१८९॥

हे प्रिये पार्वति ! साकार-निराकार सगुण-निर्गुण दोनों से सर्वोत्कृष्ट वस्तु श्रीरामनाम है यह गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय है यह मैंने कृपा करके तुम्हारे समक्ष प्रकाशित किया है।

स्मर्तव्यं तत्सदा रामनाम निर्वाणदायकम् ।

क्षणार्द्धमपि विस्मृत्य याति दुःखालयं जनः ॥१९०॥

इसलिए मोक्षप्रदायक श्रीरामनाम का सदा सर्वदा स्मरण करना चाहिए आधे क्षण के लिए भी श्रीरामनाम का विस्मरण करने वाला मनुष्य दुःख सागर में डूब जाता है अतः श्रीरामनाम का सतत स्मरण करना चाहिए।

 

विष्णुपुराणे व्यासवाक्यं :

विष्णुपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य :

विष्णोरेकैक नामापि सर्ववेदाधिकं मतम् ।

तादृम्नाम सहस्रेण रामनाम सतां मतम् ॥१९१॥

भगवान् विष्णु का प्रत्येक नाम समस्त वेदों से श्रेष्ठ है और भगवान् विष्णु के सहस्रों नामों से भी अत्यधिक पुण्य एवं फलप्रद श्रीरामनाम है यह सन्तों को अभिमत है।

श्रीरामेति परम्नाम रामस्यैव सनातनम् ।

सहस्रनाम सादृश्यं विष्णोर्नारायणस्य च ॥१९२॥

भगवान् श्रीराम का सनातन एवं सर्वोत्कृष्ट नाम श्रीरामनाम है भगवान विष्णु और नारायण के सहस्र नामों के तुल्य श्रीरामनाम है।

रामनाम्नः परं किञ्चित्तत्त्वं वेदे स्मृतिष्वपि ।

संहितासु पुराणेषु नैव तन्त्रेषु विद्यते ॥१९३॥

श्रीरामनाम से बढ़कर कोई भी तत्व वेदों में, स्मृतियों मे, संहिताओं में, पुराणों में और तन्त्रों में नहीं है।

नाम्नो रामस्य ये तत्त्वं परं प्राहुः कुबुद्धयः ।

राक्षसांस्तान्विजानीयाद्ब्रजेयुर्नरकन्ध्रुवं ॥१९४ ॥

जो लोग श्रीरामनाम से बढ़कर किसी दूसरे को तत्त्व कहते हैं वे लोग कुबुद्धि हैं उन लोगों को राक्षस समझना चाहिए वे लोग निश्चित ही नरक में जायेङ्गे।

सा जिह्वा रघुनाथस्य नामकीर्त्तनमादरात् ।

करोति विपरीता या फणिनो रसना समा ॥१९५॥

श्रीरामजी के श्रीरामनाम का जो आदरपूर्वक कीर्तन करती है वही जिह्वा है इसके विपरीत जो श्रीरामनाम का कीर्तन न करके दुनियादारी के बातचीत में लगी रहती है वे सर्प की जिह्वा के समान हैं।

रामेति नाम यच्छ्रोत्रे विश्रम्भाज्जपितो यदि ।

करोति पापसन्दाहं तूलवह्निकणो यथा ॥१९६॥

जिस किसी के भी कान में `श्रीराम' इस नाम का विश्वासपूर्वक जप किया गया उसके समस्त पापों

का उसी प्रकार दाह हो जाता है जिस प्रकार अग्नि के कण से रुई समूह का दाह हो जाता है।

तावद् गर्जन्ति पापानि ब्रह्महत्याशतानि च ।

यावद्रामं रसनया न गृह्णातीति दुर्मति ॥१९७॥

तभी तक सभी पाप गरजते हैं और तभी तक सैकड़ों ब्रह्म हत्याएँ विद्यमान रहती हैं जब तक दुष्टबुद्धि मनुष्य अपनी जिह्वा से श्रीरामनाम का ग्रहण नहीं करता है।

–इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके

श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीतेऽष्टादशपुराणप्रमाणनिरूपणनाम प्रथमः प्रमोदः ॥१॥

श्रीयुगलानन्यशरणजी के द्वारा सङ्गृहीत प्रमोदनिधि परात्पर ऐश्वर्य प्रदायक श्रीसीतारामनाम प्रताप प्रकाश में

अष्टादशपुराण प्रमाण निरूपणनामकः प्रथमः प्रमोदः समाप्तः।

 

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मैथिली महोपनिषद् —

नित्यां निरञ्जनां शुद्धां रामाऽभिन्नां महेश्वरीम् । मातरं मैथिलीं वन्दे गुणग्रामां रमारमाम् ॥ १॥
ॐ तत्सत् । रामरूपिणे परब्रह्मणे नमः। अथ हवैकदा रनसिंहासने समारूढां भगवतीं मैथिलीं लाट्यायनः कौञ्जायनः खाडायनो भलन्दनो विल्व ऐलाक्यस्तालुक्ष्य एते सप्त ऋषयः प्रेत्यतामूचुः । भूर्भुवः स्वः । सप्तद्वीपा वसुमती । त्रयो लोकाः । अन्तरिक्षम् । सर्वे त्वयि निवसन्ति । आमोदः। प्रमोदः । विमोदः । सम्मोदः । सर्वांस्त्वं सन्धत्से । आञ्जनेयाय ब्रह्मविद्या प्रदात्रि धात्रित्वां सर्वे वयं प्रणमामहे प्रणमामहे ॥
अथ हैनान्मैथिल्युवाच । वत्साः कुशलिनोऽदब्धासोऽरेपसः किं कामा यूयं प्रत्यपद्यध्वम् ॥ ते होचु र्मातर्मोक्षकामैः किं जाप्यं किं प्राप्यं किं ध्येयं किं विज्ञेयमित्येतत् सर्वं नो ब्रूहि ॥
सोवाच । राम इत्यक्षर द्वयं जाप्यम् । रिं राम इत्यक्षर त्रयं जाप्यम् । रुं राम इत्यक्षर त्रयं जाप्यम् । रें राम इत्यक्षर त्रयं जाप्यम् । रैं राम इत्यक्षर त्रयं जाप्यम् । रों राम इत्यक्षर त्रयं जाप्यम् । एतदेव हि तारकम् । एतदेव हि बन्धनबन्धनम् ॥ सार्द्धतिस्रो मात्रा ओमित्यत्र । इमानि त्र्यक्षराणि जपंस्तज्जपति ॥ त्रीणि वै दुःखानि । आध्यात्मिकमाधिदैविकमाधिभौतिकम् । इमानि त्र्यक्षराणि जपंस्तानि प्रणाशयति ॥ विष्णुलोकात्परे लोके साकेते शुभशंसिनि । राजन्तं रामचन्द्रेति जपन् बन्धाद् विमुच्यते जपन् बन्धाद् विमुच्यते ॥ इति प्रथमोपनिषत् ॥१॥

परात्परतरो निखिलहेयप्रत्यनीकगुणाकरो जगदादिकारणममिततेजोराशिर्ब्रह्मादि देवैरप्युपास्यः स श्री भगवान् दाशरथिरेव प्राप्यो दाशरथिरेव प्राप्यः ॥ इति द्वितीयोपनिषत् ॥२॥

सकलजगत्कारणबीजं भक्तवत्सलः स एव भगवाञ्ज्ञेयः स एव भगवाञ्ज्ञेयः ॥ इति तृतीयोपनिषत् ॥३॥

ते ह पुनरेनामूचुः । षट्स्वपि मन्त्रेषु कतमो मन्त्रो गरीयान् । कमभिमन्त्र्य स्वकं कल्याणमभिपश्यामः । तन्नो ब्रूहि महेश्वरि ॥ सोवाचैनान् । सर्व एव मन्त्राः सुखप्रदाः शुभप्रदाः क्षेमप्रदा धनप्रदाः । एकमक्षरमुच्चारितं सदाजन्मभिरर्जितानि महापातकान्यपि विनाशयति । तत्रापि । षडक्षरो मन्त्रः सर्वोत्कृष्टः । आशुफलप्रदः । सर्वमेव वाञ्छितमभिपूरयति । मोक्षार्थी मोक्षं लभते । स्वर्गार्थी च स्वर्गम् । पुत्रार्थी पुत्रम् । धनार्थी धनम् । विद्यार्थी विद्याम् । यद्यत्कामयते सर्वमग्रतः स्थितमिवाभिपश्यति । ततः स एव सर्वोत्कृष्टः । स एव शिवकारणम् । स एव जाप्यः ॥ इति चतुर्थउपनिषत् ॥४॥

इममेव मनुं पूर्वं साकेतपति र्मामिवोचत्। अहं हनुमते मम प्रियाय प्रियतराय । सर्वेद वेदिने ब्रह्मणे । स वशिष्ठाय। स पराशराय। स व्यासाय । स शुकाय । इत्येषोपनिषत् इत्येषा ब्रह्मविद्या ।
तेह प्रणम्योचुः । कृतकृत्या वयम् । विदित्तवेदितव्याः । पूर्णकामाः । संशयाद्वियुक्तः । त्वं हि मातर्नूनमस्माकं गुरुरस्माकं गुरुः ॥ इति पञ्चम्युपनिषत् ॥५॥

॥ इति मैथिलीमहोपनिषद् समाप्ता ॥

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 सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।

अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

Four-Vaishnava Sampradaya :

Four Vaishnava Sampradayas are:-

1) Śrī Saṁpradāya (Ramavat or Ramanand Sampradaya) :- Param-Acharya : Bhagavati Sita Ji

2) Brahmā Sampradaya (Madhva Sampradaya) :- Param-Acharya : Brahmā Ji

3) Rudra Sampradaya (Vishnu-swami Sampradaya) :- Param-Acharya: Bhagavan Shankar Ji

4) Sanakadik Sampradaya (Nimbarka Sampradaya) :- Param-Acharya : Sanakadik Muni

Original Sri Sampradaya among Chatuh (4) Vaishnava Sampradayas

In the Galata conference (around in 1719) of Vaishnavas belonging to different sects, among Vaishnava Chatuh-Sampradaya (four Vaishnava-lineages), the Ramanandi-s the disciplic descendents of Bhagavad Ramananda represented the Sri sect (Sri-Sampradaya). And they were recognized historically the original members of the Vaishnava chatuh sampradaya (four bonafide Vaishnava Sampradayas) together with the sects founded by Nimbarka, Madhvacarya, and Visnuswami. And a new arrangement was sealed by the subdivision of the four sects into fifty-two "doors" (dvaras). Each door, or a spiritual clan, was said to have been established by a prominent Vaishnava ascetic who was a spiritual descendant of Jagadguru Ramanand, Jagadguru Nimbarka, Jagadguru Madhvacharya, Jagadguru Visnuswami. All members of the four main Vaisnavite sects traced their spiritual descent back to a founder of a spiritual clan. Anyone who could not trace his descent back to the founder of a spiritual clan was not a member of any of the four sects of the catuh sampradaya. Of the fifty-two spiritual clans (52 dvaras), thirty-six were founded by Ramanandi ascetics and twelve were founded by Nimbarki ascetics. The remaining four spiritual clans were founded by ascetics of the Madhvacarya, and Visnuswami sects. The thirty-six founders of the Ramanandi spiritual clans fall within the first and sixth generations of Ramanand's descendants. Following Nabha Ji's list of twelve disciples, twenty-seven spiritual clans were founded by Anantanand and his descendants; four spiritual clans were founded by Sursurananda and his descendants. Śrī Sukhānand, Śrī Naraharyānand, Śrī Bhāvānandajī, and Śrī Pīpājī each founded a spiritual clan. Thus, Sri Ramanandi sect is the original Sri Sampradaya, and It became the largest Vaishnava sect in India with 36 Dvaras (spiritual clans) out of total 52 dvaras. In every meeting of the four bonafide Vaishnava-sects, Ramanand Sampradaya represents the Sri-Sect.

Bhagavad Ramanuja's sect an idependent branch of eternal Sri-Sampradaya. There are only regional or time differences, not the philosophical differences between the Ramanandi-sect and Ramanuji-sect. Both follow the same Vishishtadvaita philosophy and have everything same, except in place of Sita-Ram, Lakshmi-Narayan are taken as Avatari-Swaurpa of Bhagavan in Ramanuji-sect.

If fact their is an official book of chatuh Sampraday to know about 4 vaishnav Sampraday, which have been approved by all 4 vaishnav sampraday;

https://www.amazon.in/Chatuh-Sampraday-Digdarshan-Harishankar-Vedanti/dp/9381954585

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Here is the letter of Acharya's of vaishnav sampraday for this official Book;

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This is the letter of the Śrīmad Vishvesha Tirth Swami Ji, Pejavar Matha, Uduppi, Karnataka (From Brahma Madhva Sampraday)

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This letter is from Nimbark Sampraday congratulating on the launching official Book for Chatuh Sampraday.

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So please read the official book to know more about all 4 original Vāishnav Sampraday.

Infact Śrī saṁpradāya lineage has been mentioned in Vedās as it's lineage goes like;

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Proofs from Vedas;

कृमिकीटादयोऽप्याशु मुक्ताः सन्तु न चान्यथा ।।

अविमुक्ते तव क्षेत्रे सर्वेषां मुक्तिसिद्धये ।

अहं संन्निहितस्तत्र पाषाणप्रतिमादिषु ।।

क्षेत्रेऽस्मिन्योऽर्चयेद्भक्त्या मन्त्रेणानेन मां शिव ।

ब्रह्महत्यादिपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

त्वत्तो वा ब्रह्मणो वापि ये लभन्ते षडक्षरम् ।

जीवन्तो मन्त्रसिद्धाः स्युर्मुक्ता मां प्राप्नुवन्ति ते ।।

मुमूर्षोर्दक्षिणे कर्णे यस्य कस्यापि वा स्वयम् ।

उपदेक्ष्यसि मन्मन्त्रं स मुक्तो भविता शिव ।।

(Atharvavedā Shrüti Ram UttarTapniye Upänīshad Part 1)

Main highlighted translation;

Lord Rama said:-Those who take initiation (Disksha) of this Shadakshar mantra (Ram Ramaya Namah) from you or Brahmaji, the mantras are proven while alive, after completing body time they attain me by being free from birth and death.

You can see in above image that Śrī Brahma Ji comes in direct vedic lineage of Śrī Sampraday as mentioned in Vedas.

Now next one;

ऐहिकेषु च कार्येषु महापत्सु च सर्वदा ॥
नैव योज्यो राममन्त्रः केवलं मोक्षसाधकः ऐहिके समनुप्राप्ते मां स्मरेद् रामसेवकम् ॥
यो रामं संस्मरेन्नित्यं भक्त्या मनुपरायणः ।
तस्याहमिष्टसंसिद्ध्यै दीक्षितोऽस्मि मुनिश्वराः ॥
वाञ्छितार्थं प्रदास्यामि भक्तानां राघवस्य तु सर्वथा जागरूकोऽस्मि रामकार्यधुरंधरः ॥

(Atharvavedā Shrüti Ram Rahasyopanisad 4/10-13)

Translation of Main highlights: Lord Hanuman said~ I have taken initiation (Mantra Diksha) and I will fulfill the desires of those who engage in chanting mantras with daily devotion and remember Lord Rama. I will surely grant the desired objects to the devotees of Sri Raghunathji.

And Śrī Hanuman Ji comes in direct vedic lineage of Śrī Sampraday at number 3.

इममेव मनुं पूर्व साकेतपतिर्मामवोचत् अहं हनुमते मम प्रियाय प्रियतराय । स वेद वेदिने ब्रह्मणे स वशिष्ठाय स पराशराय । स व्यासाय । स शुकाय इत्येषोपनिषत् । इत्येषाग्रह्मविद्या ।

Atharvavedā Shrüti Maithilimahopanishad

Here Śrimati Sītā Maharani is telling that she got Mantra from SaketPati Sri Rama after than she passed it to his beloved bhakt Śrī Hanuman after that Sri Hanuman ji passed it to Brahmā ji from Brahmā ji to Parāshara to Vyäsa to Shukacharya.

From Bhajan Ratnavali published around 126 years ago;

रामानन्दो निम्बादित्योविष्णुस्वामिश्रीमाधवः।
चत्वारो भगवद्भक्ताः जगती धर्म स्थापकाः एतेषां अनुयायिनोद्वि पंचाशद्विजज्ञिरे ॥

From above it has been cleared that original Śrī saṁpradāya's lineage has been mentioned in Vedas.

And also in Agastyā Samhitā Śrī saṁpradāya's has been told to that one in which Shadakshar Brahma Tarak Mantra is given;

मुने सभगवान्नित्यं सुतीक्ष्ण जगदीश्वरः ।
सत्यसंधो हरिर्जातो विधास्यति शुभं नृणाम् ॥
श्रीसंप्रदायश्रेष्ठञ्च जनोद्धारपरं सदा ।
विज्ञाय राघवानन्दं लब्ध्वा तस्मात् षडक्षरम् ॥

(Agastyā Samhitā Chapter 132)

So these were official 4 Samprādayas which have been mentioned in scriptures;

See Bhavishya Purān Prati Sarg Khand 2 Adhyaya 32

रामानंद

इत्युक्त्वा स्वस्य विम्बस्य तेजोराशि समं ततः ।

समुत्पाद्य कृतं काश्यां रामानन्दस्ततोऽभवत् ॥

निम्बादित्य (तत्रैव)

कलौ भयानके देवा मदंशो हि जनिष्यति ।

निम्बादित्य इति ख्यातो देवकार्यं करिष्यति ॥

मध्वाचार्य (तत्रैव)

इत्युक्त्वा भगवान् सूर्यो देवकार्यार्थमुद्यतः ।

स्वाङ्गात् तु तेज उत्पाद्य वृन्दावनमपेषयत् ।।

तेभ्यश्च वैष्णवीं शक्तिं प्रददौ भुक्ति मुक्तिदाम् ।

मध्वाचार्य इति ख्यातः प्रसिद्धोऽभून्महीतले ।

विष्णु स्वामी (तत्रैव)

अष्टविंशे कलौ प्राप्ते स्वयं जाता कलिञ्जरे ।

शिवदत्तस्य तनयो विष्णुशर्मेति विश्रुतः ॥

इत्युक्त्वा तु ते सर्वे प्रशस्य बहुधा हि तम् ।

विष्णुस्वामीति तं नाम्ना कथाश्चक्रुश्च हर्षिताः ॥

Now again from Padmā Purān ( Shlokas are mentioned in शब्दकल्पद्रुम and in वाचस्पत्यभिधान.

अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः ।

श्री माध्विरुद्रसनका वैष्णवाः क्षितिपावनाः ॥

रामानन्दो हविष्याशी निम्बार्कश्च महेश्वरि ॥

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Thank you for reading, to know more about 4 vaishnav sampraday please purchase Chatuh Sampraday Digdarshan as this book is official it will clear your all doubts regarding all 4 vaishnav sampraday.

Please Chant SitaRam SitaRam SitaRam

Hail to Priya Pritam Sarkar ❤️

Hail to Ānand Bhāshyakār Śrīmad Jagādgurü Ramānandacharya 🚩

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Bursting the fake claims !!

सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

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Do Ramanandacharya & Ramanujacharya follow same tradition?

Shri Ramananda Sampradaya is entirely different from the Shri Ramanuja Sampradaya. It is completely futile and ignorant to say that Bhagavan Ramanandacharya comes in the guru parampara of Shri Ramanujacharya. Because the Ramanuja Sampradaya originated in the Kali Yuga, while the Shri Ramananda Sampradaya has been in existence since ancient times. It is an eternal Vedic tradition whose guru parampara has been established in all four yugas. However, some people have maliciously attempted to spread this misconception that Bhagavan Ramanandacharya comes in the guru parampara of Shri Ramanujacharya, but there is absolutely no truth to it. This is a completely baseless claim that has been refuted countless times.

One by One we will counter the misconceptions spread by some kids:

1• Sri Ramanandacharya got Sri Ram Mantra Diksha from Sri Ramanuja Sampraday

Refutation: A Big Big No! Sri Ramanuja Sampraday never gives Sri Ram mantra as a diksha mantra as their own Acharya’s have claimed this;

Shri Rangacharya of Ramanuja Sampraday has clearly stated in Durjanakaripanchanan

'नह्येते मन्त्रा अस्मत्कुलपरम्पराप्राप्तमन्त्रत्रयव्यतिरिक्ता लक्ष्मीनाथमारभ्यास्मादाचार्य पर्यन्तं केनचिदाचार्येण कस्य चिच्छिष्यस्योपदिष्टा’

Apart from our lineage's three sacred mantras, namely Shri Mannarayana Rahasya Trayam, no acharya, starting from Shri Lakshminath up to our current acharya, has taught any of their disciples these mantras (of Shri Rama, Krishna, and others).

And why Sri Ram & Sri Krishna mantras are not given, this has been cleared by him in response to 4th question of Purva Paksha in his same book Durjanakaripanchanan;

देवत्वादिना मनुष्यादधिकस्य पशुत्वादिना न्यूनस्य च देवपश्वोः प्राणित्वेन मनुष्य साम्यं एवं विशेषभावस्वरूपप्रतिपादकत्वेन रामकृष्णादिमन्त्राणां साम्यम् तत्तप्रायघटितमन्त्रात्मक वाक्यजन्यशब्दबोधेभ्यो विषयितया व्यावृत्तानां व्यापकता गुणविशेषादीनां प्रतिपादनेन न्यूनाधिकभावक्षेति ॥

"Just as the God surpass humans, and animals are inferior to humans, similarly, the Shri Narayana Mantra, Vishnu Mantra, and Vasudeva Mantra, and other mantras like Shri Ramakrishna Mantra, are all equally representative of the divine form and are equal in expressing the essence of the Supreme Being. However, since they lack the quality of universality and other attributes, they are considered inferior to the Narayana Mantra."

From this, it is clear that the Ramanuja Sampradaya has never had a tradition of initiating in Shri Ram Mantra. And when there is no tradition of initiation, there is no question of the sampradaya being unified. Few children might raise the questions now that in the Ramanuja Sampradaya, there was devotion to Lord Rama, as we have studied the oldest commentary on Valmiki Ramayana and all that. Please note that the discussion here is not about whether devotion to Lord Rama existed in a particular sampradaya or not. The discussion is specifically about the fact that the Ramanuja Sampradaya does not involve the initiation by Rama Mantra, as stated by their previous Acharyas.

These days, some people spread the misconception that Ramanandacharya comes in the guru parampara of Ramanujacharya. Such false beliefs were debunked during the Ujjain Kumbh Mela in 1921. When Ramanujis were badly defeated by Ramanandis in Shastrarth.

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Following is the proof from "Peasants and Monks in British India"

The catalyst for the conflict was provided in 1918 by a visit to Ayodhya by the head of the Shri Vaishnava Totadri math in south India. Particularly galling to many Ramanandis was the fact that the Anantacharya (eternal leader) from the south refused to prostrate before Sita and Ramchandra images in two major Ramanandi temples, refused to accept prasad.

Pinch also mentions about the Kumbh in the next page and says that Ramanuj Sampraday was defeated in the debate. The Ayodhya debate, which occured in 1919 or 1920, did not in any way signal the end of the matter. Indeed, according to Ramanandis it only created the need for the more august "historical" debate at the 1921 Ujjain kumbh. The specific question to be addressed was whether the sacred books of the south Indian Shri Vaishnavas offended Ramchandra; implicit to the debate was whether Ramanuja was regarded by Ramanand as a monastic predecessor. The Ramanuji side was defended by Swami Ramprapann Ramanujadas of the Totadri math; Bhagavadacharya argued on behalf of the radical Ramanandi position. The jury took little time in deciding in favor of Bhagavadacharya and stating that hence forth the Ramanandi sampraday was to be independent of Ramanujacharya and south Indian Shri Vaishnavas. The guru parampara placed Ramanand twenty-second in descent from Ramchandra and included no mention whatsoever of Ramanuja, 70 Crucial to the Ujjain victory was the discovery of a fifteenth-century guru parampara that made no mention of Ramanuja; this parampara was said to have been authored by Agradevacharva, as grand-disciple of Ramanand, and was uncovered by the aforementioned research committee (Puratatvanusandhayini Samiti).

And infact in Indian sadhus is it mentioned:

“Ramanuj Sampraday was outcasted in the next kumbh and was not allowed to take part in Shahi Snana”

"Indian Sadhus" -G.S. Ghurye page 173

"The report of Kumbha Mela at Ujjain in 1932 does not list Ramanuji ascetics as having taken part in the procession."

Reinventing Ramanand: Caste and History in Gangetic India William R. Pinch Modern Asian Studies, Vol. 30, No. 3 (Jul., 1996) Page 552

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The debunking of this baseless misconception that the Ramananda Sampradaya falls under the Ramanuja Sampradaya was done by the Ramanandis themselves during the 1921 Kumbh Mela. However, some people have a tendency to repeatedly face defeat and still return with their defeated faces held high.

2• Bhaktamal gives description of Chatuh Sampraday in which Ramananda Sampraday is not mentioned and mentions that Sri Ramananda belongs to Sri Ramanuja.

Refutation: A complete fake! Sri Nabhadas Ji belongs to Sri Ramananda Sampraday whose Guru was Sri Agradevacharya. Who has said about the Guru parampara of Shri Ramanand samprday whose written manuscript which was given as a evidence in 1921 Ujjain Kumbh and that was accepted by Ramanuj Samprday as their defeat, clearly sates that;

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No mention of Sri Ramanujacharya in the lineage of Sri Ramanandacharya clearly sates that both Acharyas belongs to two different lineage. And just use little brain 🧠, if Guru of Sri Nabhadas, Sri Agradev Swami (incarnation of Sri Shatrughan Ji) following the Guru parampara which mentions no name of Sri Ramanujacharya. Can you imagine His shishya will mention someone else in His lineage doing Guru-Droha, going against His Guru? Never! Even Gita Press Gorakhpur says with star mark that in manuscripts also says Ramananda is mentioned and at some place Ramanuj is present but Sri Nabhadas Ji would have written only about one Sampraday without start mark. And scriptural evidence and according to 1921 it has been established that Ramanuja Sampraday can't come their and Ramananda doesn't falls in Ramanuja Sampraday.

Originally the Chappy is;

रामानंद उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु।
विष्णुस्वामी बोहित्थ सिन्धु संसार पार करु॥
मध्वाचारज मेघ भक्ति सर ऊसर भरिया।
निम्बादित्य आदित्य कुहर अज्ञान जु हरिया॥
जनम करम भागवत धरम संप्रदाय थापी अघट।
चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट॥

And second thing, now let us see the word “Udaar” in the first line;

Regarding sampradāya of Rāmānanda and Rāmanuja, Dr. S. Radhakrishnana has made a very subtle observation in his book, Indian Philosophy Vol II, which is as follows—

“Ramanuja preaches equality in worship and proclaims that bhakti transcends all caste distinctions. He admitted the pariahs to the temple at Melkote. But it is by no means clear that he was prepared for a wholesale defiance of the accepted order. Out of deference to tradition he concedes that freedom is open only to the three upper classes, and others will have to work their way up and wait for the next birth. We cannot, therefore, say that he was in full sympathy with the logical implications of his teaching. A later Vaisnava teacher, Ramananda (thirteenth century), protested against caste distinctions. “Let no man, he says, ask a man’s caste or sect. Whoever adores God is God’s own.” His apostolate of about twelve included a Brahmin, a barber, a leather-worker, a Rajput and a woman. Caitanya preached the religion of devotion and love to all men irrespective of caste or class. ....”

(IInd Edition Reprint 1948, P. 709)

And infact Vedantakarikavali by Shri Buchchivenkatacharya of Ramanuja Sampraday clearly states;

अपशूद्रनये भक्तौ शूद्रानधिकृतिः स्फुटा ॥ ८.१३॥

Therefore here the word “Udaar” can't be used for Ramanuja Sampraday alone Jagadguru Ramanandacharya is fit for that.

Jagadguru Śrīmad Rāmānandācharya ji adopted people of all castes, gender etc. he did not hesitate to adopt even Malechha, that is why the word “Udāar" (Generous) has been exclusively used for him. As Śrīmad Rāmanandacharya was HIMSELF Śrī Rām as said in scriptures,

“rāmānandaḥ svayaṃ rāmaḥ prādurbhūto mahītale"

Śrīmad Rāmānandacharya is Śrī Rāma himself who appeared on this earth in the form of a great Muni (sage) out of his causeless mercy and compassion on all Jivas.

(-Nārad Panchrātra Vaishvānar Samhitā)

Śrīmad Göswāmi Tulsidās Ji who Himself belongs to Sri Ramananda Sampraday has also used the word “Udāar" frequently with Śrī Rām in Śrīmad Rāmāyaṇam:—

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 1.10.1)

अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 6.111.6)

परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 6.38)

सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 3.42.1)

मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 7.84.8)

तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 6.27.7)

मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 6.34.4)

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥

(Śrīmad Rāmāyaṇam 1.110.5)

ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 3.34.5)

Therefore scriptural, historical and logical evidence shows alone Srimad Jagadguru Ramanandacharya fit for the wors “Udaar” not Ramanujacharya.

And infact the other saints of that period also has mentioned about 4 Sampraday;

जानहु श्री सनकादि अरु ब्रह्मा रुद्र उदार ।
कह 'मलूक' वैदिक यही सम्प्रदाय हैं चार ॥95॥
रामानन्दाचार्यजी श्रीके शुभ आचार्य ।
कह 'मलूक' सनकादिके श्रीनिम्बार्काचार्य ॥96॥
कह 'मलूक' श्रीब्रह्मके हैं श्रीमध्वाचार्य ।
विष्णुस्वामि श्रीरुद्रके सम्प्रदाय आचार्य ॥97॥

(-Sri Malook Shatak 95-97)

Sri Swami Khoji ji Maharaj appeared in 1575 (Vikram Samvat) writes about lineage of Sri Ramananda Sampradaya in his Sri Samprday Kalpadrum;

प्रथम दया करि सीय, रामसों बीज बुलायो ।
पुनि हनुमन्त हि आपु, मन्त्र उपदेशि दृढायो ॥
ब्रह्मा तथा वशिष्ठ पराशर व्यास शुकादिक ।

रामानन्दाचार्य सींचि, विस्तारयौ चहुं दिक ॥
जय सन्ताप विनाशिनी छाया, सुख पावै सबै ।
सम्प्रदायश्री देवद्रुम, फूलै फलै सुपल्लवै ॥

And the Valmiki Samhita, was also presented as evidence during the 1921 Kumbh Mela, which was accepted by Ramanuja Ram Prapanna Das Swami of the Ramanuja Sampradaya, thereby declaring defeat of Ramanuja Sampraday’s false claim. In that evidence from the Valmiki Samhita, it is clearly written that the Shri Ramananda Sampradaya originates from Lord Shri Sita Ram. Following shlokas were given from Valmiki Samhita as a proof which are;

Rishis asked Maharishi Valmiki:

पूर्वं तु राममन्त्रोऽयमासीत् स्वग्र्येषु केवलम् ।
पृथिव्यां कथमायातस्तन्नो ब्रूहि दयानिधे ! ||३०||

Earlier, the Shadakshar Sri Ram mantra was limited to the celestial gods in heaven. How did it come to Earth? Oh compassionate one! Please enlighten us.

Maharishi Valmiki said:

इदं तु परमं तत्त्वं देवानामप्यगोचरम् ।
पृष्टं युष्माभिरनधं कथ्यते श्रृणुतर्षयः ! ||३१||

This supreme essence is even beyond the perception of the celestial gods. You have asked about this divine entity, free from sins, due to your affectionate inquiry. Therefore, I shall explain it to you.

भगवान् रामचन्द्रो वै परं ब्रह्म श्रुतिश्रुतः ।
दयालुः शरणं नित्यं दासानां दीनचेतसाम् ||३२||

Lord Sri Ram is indeed the supreme Brahman, as proclaimed by the Vedas. He is supremely merciful, always offering refuge, and remains ever attentive to His servants and the needy.

इमां सृष्टिं समुत्पाद्य जीवानां हितकाम्यया ।
आद्यां शक्तिं महादेवीं श्रीसीतां जनकात्मजाम् ॥ ३३॥

Lord Sri Ram, after creating this universe for the welfare and desires of people, imparted the supreme mantra called the Shadakshara Taraka Mantra to Mahadevi Goddess Sita, who is the primeval energy.

तारकं मन्त्रराजं तु श्रावयामास ईश्वरः ।
जानकी तु जगन्माता हनूमन्तं गुणगारकम् ॥३४॥

After hearing the Taraka Mantra from Lord Shri Ram, Mother Janaki, who is the mother of the universe, recited it to Hanumanji, who is an ocean of virtues.

श्रावयामास नूनं स ब्रह्माणं सुधियां वरम् ।
तस्माल्लेभे वसिष्ठर्षिः क्रमादस्मादवातरत ॥३५॥

By hearing the Taraka Mantra, Hanumanji, with his pure intellect, disseminated it to Sri Brahmā. Consequently, Sage Vasishta, through the course of events, received the mantra from Sri Brahmā.

भूमौ हि राममन्त्रोऽयं योगिनां सुखदः शिवः ।
एवं क्रमं समादाय मन्त्रराजपरम्परा ॥३६॥

Indeed, this sacred mantra of Lord Rama is a bestower of happiness to the yogis in this world. Thus, following this sequence, the lineage of the supreme mantra is established.

(-Valmiki Saṃhitā Chapter 2 Verse 30-36)

And in fact Valmiki Ramayan Shiromani tika which is one of the ancient commentary on Valmiki Ramayan which was written by Acharya Shiv Sahaya He has clearly mentioned his Guru parampara in that;

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He has clearly mentioned that he belongs to a Lineage which starts from Lord Sri Sitaram in whose middle Aacharya Shukdevacharya (commentator of Shrimad bhagavatam is present who is infact 8th Aacharya of Sri Ramananda Samprday) is their and up to his own Aacharya He worships the whole Lineage.

And infact you can see the Historical fact of a Muslim Scholar who was contemporary of Srimad Jagadguru Ramanandacharya who wrote about Sri Ramanandacharya and His lineage in his work — Click Here

See more mentions of Sri Ramananda Sampraday from scriptures: Click Here

Ending up with bursting a claim that Ananda Bhashya was not mentioned by Ancient Ramanandis Acharyas;

 

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—By Sri Anubhavanandacharya student of Sri Anantanandacharya.

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—By Sri Anantanandacharya in Anant Sikshamrit

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—By Sri Anantanandacharya in Sad Vidyarth Nirnay

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—By Sri SurSuranandacharya in Sri Vaishnav Dincharya

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—By Sri Bhavanandacharya in Bhavana Trayam

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—By Sri Saketniwasacharya in Sri Ramananda Vedant Saar

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—By Narharyanandacharya in Anant Tattvamrit

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—By Yoganandacharya in Bhakti Traynirupanam

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—By Kilhadevacharya in Sadhan Bhakti Darpanam

And infact above all mentions are excerpted from official book of Chatuh Sampraday:

https://www.amazon.in/Chatuh-Sampraday-Digdarshan-Harishankar-Vedanti/dp/9381954585

which includes official letters of all 4 Vaishnav Sampraday head.

So, Yes! Anand Bhashya was authored by Jagadguru Ramanandacharya Himself.

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This has been an ongoing trend since ancient times, where the Ramanuja sect always criticizes the Ramananda sect, although it is a different matter that they have also faced defeats from time to time. Nowadays, the new followers of Ramanuja sect show more interest in the Ramananda sect than in their own sect. They continue to attack the tradition of the Ramananda sect, even though the tradition of the Ramananda sect is well-established in the scriptures. Criticizing a tradition that has its roots in the Vedas is like spitting in the air with one's mouth wide open, akin to spitting on the sun.

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All Glory To Srimad Goswami Tulsidas Ji

All Glory To Anand Bhashyakar Srimad Jagadguru Ramanandacharya Ji

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Historical Proof Of Sri Samprdaya

 

सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

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Maulana Rasheeduddin who was contemporary to Jagadguru Srimad Ramanandacharya, has mentioned Ācharya Charan in his work 'Tajkir-Tul-Fukra' in 1415 CE. He writes —

❝In Varanasi, on the Panchganga Ghat, there resides a renowned saint who is an embodiment of brilliance and a master of yoga. He is revered as a universally respected Acharya among the Vaishnavites, embodying righteousness and unwavering devotion to the Brahm. He is fully knowledgeable about the secrets of the Supreme Absolute Truth and have a profound impact in the society of true devotees and those who possess the knowledge of the Absolute. He hold the highest authority in matters of religious rituals and practices for Hindus. He only emerge from His sacred cave during the Brahmamuhurta to take a dip in the Ganges. That sacred soul is known as Ramananda. The number of His disciples is more than five hundred (who stays with Him). Amongst that group of disciples, twelve are particularly blessed. They are: 1. Anantanand, 2. Sukhanand, 3. Surasuranand, 4. Naraharyanand, 5. Yogananand (Brahmin), 6. Pipa Ji (Kshatriya), 7. Kabir Ji (Julaha), 8. Sen (Barber), 9. Dhanna (Jat), 10. Raidas (Chamar), 11. Padmavati, and 12. Surasari (Women). The name of this community of devotees is "Vairagi." One who renounces the desires of both this world and the afterlife is called a Vairagi in the language of the Brahmins. It is said that the initiator of this lineage is Sita. She first imparted teachings to Her special servant Hanuman, then that Acharya disseminated this secret (mantra) in the world. Due to this reason, this lineage is called "Sri Sampradaya" and their main mantra is known as "Ramataraka Mantra." The sacred mantra is imparted by the Guru into the disciple's ear, and they apply an upward-facing tilak in the shape of a vertical line (Lam) and a horizontal line (Mim) on the forehead, along with other marks on eleven different places. They wrap a diamond-shaped Tulsi bead in the sacred thread (Janeu) and tie it around the disciple's neck. Their tongue is engaged in the continuous recitation of the mantra, while their mind remains absorbed in the contemplation and seeking of their beloved Supreme Being. This lineage is completely devoted to the Supreme Lord. Most of the saints lead a life of self-realization and renunciation, known as the life of a Paramahansa or a wandering ascetic.❞

Tajkir-Tul-Fukra By Maulana Rasheeduddin (1415 CE), Excerpted from Gita Press Gorakhpur, Kalyan Patrika, Sant Ank.

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Conclusion we may draw from here:

1. As Maulana Rasheeduddin mentions Lineage of Sri Sampraday starts from Kishori Ji and Kishori Ji gave that mantra to Sri Hanuman Ji which is also mentioned by Sri Hanuman Ji Himself in Vedas;

तस्याहमिष्टसंसिद्ध्यै दीक्षितोऽस्मि मुनिश्वराः ॥
वाञ्छितार्थं प्रदास्यामि भक्तानां राघवस्य तु सर्वथा जागरूकोऽस्मि रामकार्यधुरंधरः ॥

Sri Hanuman said: I have taken initiation (Mantra Diksha of Shadakshar Mantra from Sita Ji) and I will fulfill the desires of those who engage in chanting mantras with daily devotion and remember Lord Rāma. I will surely grant the desired objects to the devotees of Sri Ram.

(Atharvaveda Ram Rahasya Upaniṣad 4/12-13)

2. As that Muslim Scholar Maulana Rasheeduddin mentions that Sri Sampraday is the lineage of “Vairagi-s” means one who renounces the desires and they dedicate themselves in the feet of Lord Rama. His talk is absolutely right as Vedas also says so;

कुण्डिकोपनिषत्ख्यातपरिव्राजकसंततिः ।
यत्र विश्रान्तिमगमत्तद्रामपदमाश्रये ॥

“The community of wandering Ascetics (Sri Sampradaya), well-known for their practice of renunciation, attained their ultimate repose by taking refuge in the feet of Lord Rama."

(Samveda Kundika Upanishad 1.1)

More mentions are present from Vedas that declares the Vedic Authenticity of Sri Sampraday that has a long-standing tradition of ascetics or sannyasis dating back to ancient times.

3. Maulana Rasheeduddin mentions that followers of Sri Sampraday wears Tulsi Mala round their neck.

4. Maulana Rasheeduddin mentions that their mind remains absorbed in the contemplation and seeking of their beloved Supreme Being, Sri Ram, which clears that lineage of Sri Sampraday starts from Lord Sri SitaRam. As previous Acharyas of Sri Sampraday has mentioned that in their works;

वैदिकः सम्प्रदायः कः कश्च तस्य प्रवर्त्तकः ।
श्रौतः श्रीसम्प्रदायः स रामसीताप्रवर्त्तितः ॥३९॥

Jagadguru Dvaranandacharya, Prashnottaravali Shloka 39.

"श्रीसम्प्रदायमूलौ च सीतारामौ जगदगुरू ।
नमस्ताभ्यां नमस्ताभ्यां नमस्ताभ्यां नमो मनः ॥”

Shri Sitarāmavimshati Jagadguru Haryanandacharya

"या श्रियः श्रीस्वरूपा श्रीसम्प्रदायप्रवर्त्तिका ।
गुरुणां गुरुवे तस्यै श्रीसीतायै सुमङ्गलम् ॥”

Sri Sita Mangal Mala By Jagadguru Raghavanandacharya

“विधेस्तथा च वेदानां सृष्ट्यादौ संविधायकः ।
ब्रह्मणे वेददाता श्रीसम्प्रदायप्रवर्त्तकः ॥”

Sri Ram Naam Mala By Maharishi Bodhayan

5. Sri Sampraday is not a Sampraday that has started in 13th century but from the time of Vedas this Sampraday exists. After appearance of Jagadguru Ramanandacharya this sampraday is also known as Sri Ramananda Sampradaya or Sri Ramavata Sampradaya. But historically and according to works of Acharyas and Scriptures this Sampradaya is known as Sri Sampradaya. Scriptures also says that too;

रामानन्द इति ख्यातो लोकोद्धरणकारणः।
आचार्यलक्षणैर्युक्तं वेदवेदान्तपरागम् ॥
श्रीसंप्रदायश्रेष्ठञ्च जनोद्धारपरं सदा ।
विज्ञाय राघवानन्दं लब्ध्वा तस्मात् षडक्षरम् ॥

Sri Ramananda is known as the cause of lifting the world. He is endowed with the characteristics of acharya and is well versed in the Vedas and Vedanta. He is the great (acharya) of Sri Sampraday and is always devoted to the upliftment of the people. He got Shadakshar Mantra from his Guru Raghavananadacharya Ji.

(-Agastya Samhitā Chapter 132, Shloka 13, 17)

6. Sri Sampraday gives Ram Tarak Mantra in ears during initiation.

Many more conclusions can be drawn but ending up here and leaving all things up to your own wisdom.

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All Glory to Srímad Goswami Tulsidas Ji

  • All Glory to Anand Bhashyakar Srimad Jagadguru Ramanandacharya Ji
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 सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।

अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

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All Chatuh (4) Sampradaya are the most authentic Sampradaya.

Four-Vaishnava Sampradaya :

1) Śrī Saṁpradāya (Ramavat or Ramanand Sampradaya) :- Param-Acharya : Bhagavati Sita Ji

2) Brahmā Sampradaya (Madhva Sampradaya) :- Param-Acharya : Brahmā Ji

3) Rudra Sampradaya (Vishnu-swami Sampradaya) :- Param-Acharya: Bhagavan Shankar Ji

4) Sanakadik Sampradaya (Nimbarka Sampradaya) :- Param-Acharya : Sanakadik Muni

Mentions of All authentic vedic Sampradaya by Bhakti Movement saints;

1) Srimad Malook Das Ji Maharaj

जानहु श्री सनकादि अरु ब्रह्मा रुद्र उदार ।
कह 'मलूक' वैदिक यही सम्प्रदाय हैं चार ॥95॥
रामानन्दाचार्यजी श्रीके शुभ आचार्य ।
कह 'मलूक' सनकादिके श्रीनिम्बार्काचार्य ॥96॥
कह 'मलूक' श्रीब्रह्मके हैं श्रीमध्वाचार्य ।
विष्णुस्वामि श्रीरुद्रके सम्प्रदाय आचार्य ॥97॥

Sri Malook Das says, “I know only these four Vedic Vaishnav Sampradaya as Sri, Sankadik, Brahm and Rudra". (95)

Sri Malook Das says, “Ramanandacharya is auspicious Acharya of Sri Sampraday and Nimbarkacharya is of Sankadik". (96)

Sri Malook Das says, “Madhavacharya is Acharya of Brahm Sampraday and Vishnuswami is of Rudra". (97)

(-Sri Malook Shatak 95-97)

2) Srimad Nabha Das Ji Maharaj

रामानंद उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु।
विष्णुस्वामी बोहित्थ सिन्धु संसार पार करु॥
मध्वाचारज मेघ भक्ति सर ऊसर भरिया।
निम्बादित्य आदित्य कुहर अज्ञान जु हरिया॥
जनम करम भागवत धरम संप्रदाय थापी अघट।
चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट॥

Just as in the previous three ages (yugas), God assumed twenty-four avatars, in the same way, in the current age of Kali, a quadruple manifestation of Acharyas (spiritual leaders) has appeared. One such great soul was Sri Ramānandacharya, the propagator of the Sri Sampradaya. He was extremely magnanimous, with an expansive vision to embrace surrendered souls. He was an ocean of love and knowledge, and on this Earth, he was like a wish-fulfilling tree for the devotees, fulfilling their desires.

The successor Acharya of the Rudra Sampradaya, Sri Vishnuswami Ji, was like a boat in the ocean of material existence, helping the drowning souls to cross over. The propagator of the Brahma Sampradaya, Sri Madhvacharya Ji, was like clouds showering the rain of devotion upon the hearts of those who were devoid of devotion (Saras) and those with dry hearts (Niras), filling them with complete devotion.

The successor Acharya of the Sanakaadi Sampradaya, Sri Nimbarkacharya Ji, was like the sun, dispelling the darkness of ignorance and illuminating the path of knowledge and devotion. By taking birth and personally practicing virtuous deeds, he firmly established the Vaishnava traditions in an everlasting and strong manner.

(-Sri Bhaktamal Chappay 28)

Ramanuja Sampradaya is an offshoot of Sri Sampradaya (Ramananda) as Sripad Ramanujacharya has used the philosophy of Sri Sampradaya (Ramanand) to write his Brahma Sutra Commentary. He says in his Brahma Sutra;

भगवद्बोधायनकृतां विस्तीर्णा ब्रह्मसूत्रवृतिं पूर्वाचार्या संचिक्षिपुः तन्मतानुसारेण सूत्राक्षराणि व्याख्यास्यन्ते

Bhagavan Bodhayana wrote an elaborate commentary on the Brahma Sutras, which was later condensed by the earlier acharyas. According to his viewpoint, "I am expounding the meaning of the sutras."

And Bhagvan Bodhayan (~800 BC) is 9th Acharya of Sri Sampradaya (Ramananda).

Bhagvan Bodhayan has himself mentioned what mantra He chants? in His Purushottam Prapattishatkam verse 1;

रामिति बीजवान् नाथ मन्त्रराजो हि तारकः ।
तं जपामि तब प्रीत्यै पाहि मां पुरुषोत्तम ॥ 1 ॥

As Sri Ram mantraraj mantra in given to those who gets initiate, which clears that Maharishi Bodhayan was initiated with Sri Rama mantra and falls in Sri Sampraday (also Know as Ramananda Sampradaya).

And also in His Veda Rahashyam verse 1 he has said about his lineage;

श्रीरामं परमं ब्रह्म व्यासं च परमं गुरुम्
श्रीशुकं च गुरुं नत्त्वा वच्मि वेदरहस्यकम् ॥1॥

That's why Sri Ramanuj Sampradaya originally doesn't comes in 4 Vaishnav Sampradaya. And according to Galata Conference of 1721 also Sri Ramanuja Sampradaya doesn't belongs to Chatuh Sampradaya, however they have separate independence which is respectable.

First of all 4 Vaishnav Sampradaya are themselves most authentic but if I go precisely than Sri Sampradaya who lineage starts from Sri SitaRam has much more mentions in scriptures than others;

The origin of the Sri Sampradaya is derived from the Vedas. It is not a man-made sect created in any particular century, but rather a timeless and ancient tradition that has been passed down through the ages. As said in Vedas;

श्रीश्च॑ ते ल॒क्ष्मीश्च॒ पत्न्या॑वहोरा॒त्रे पा॒र्श्वे नक्ष॑त्राणि रू॒पम॒श्विनौ॒ व्यात्त॑म् ।

O Param Purusha! You have two wives, Sri Devi and Lakṣmī Devi.

(-Yajurveda 31.22)

From Sri Devi started a sect called Sri Sampradaya in which core Deity were Sri SitaRam. As said in smriti Shastra that alone Sri Ram is capable to delight Sri Devi;

शक्तिः श्रीरुच्यते राजन् सर्व्वाभीष्टफलप्रदा ।
श्रियो मनोरमो योऽसौ स राम इति विश्रुतः ॥

"Parashakti is called 'Shri' (Śrī), she is the bestower of all desired fruits! The Supreme-Person who attracts and delights the heart of that Sri Devi, he is renowned by the (divine) name 'Rama'!"

(Brihd Hārit Smriti 3.243)

Sri Sampradaya is a lineage of Virakt Vairaagi Sanyasis who are detached from the world, wander all way, who finds shelter only in the feet of Sri SitaRam, they leave world and it's pleasure for their Lord. Their mentions is clear in Vedas;

कुण्डिकोपनिषत्ख्यातपरिव्राजकसंततिः ।
यत्र विश्रान्तिमगमत्तद्रामपदमाश्रये ॥

“The community (Sri Sampradaya) of wandering Ascetics , well-known for their practice of renunciation, attained their ultimate repose by taking refuge in the feet of Lord Rama."

(Samveda Kundika Upanishad 1.1)

The Vedas explicitly talk about such detached ascetics who have unwavering focus and devotion solely towards the divine feet of Lord Shri Rama. This group of detached ascetics is not associated with any other sect but rather belongs to the Shri Sampradaya. These Vedic verses make it clear that the Shri Sampradaya, also known as the Shri Ramanandi Sampradaya, has a long-standing tradition of ascetics or sannyasis dating back to ancient times.

Lineage Of Sri Sampradaya As Mentioned In “International Journal of Scientific Research in Science and Technology”.

इममेव मर्नु पूर्वं साकेतपतिमवोचत्। अहं हनुमते मम प्रियाय प्रियतराय । सवेद वेदिने ब्रह्मणे । स वशिष्ठाय। स पराशराय। स व्यासाय । स शुकाय । इत्येषोपनिषत् इत्येषा ब्रह्मविद्या ।

That is, the lineage of the Sri Sampradaya is as follows:

  1. Sri Rama
  2. Sri Sita
  3. Sri Hanuman
  4. Sri Brahma
  5. Sri Vashishta
  6. Sri Parashara
  7. Sri Vyasa
  8. Sri Shukdeva

(-Atharvaveda Maithili Maha Upaniṣad-5)

-Quoted from International Journal of Scientific Research in Science and Technology Print ISSN: 2395-6011 | Online ISSN: 2395-602X.

Article Info:— May-June-2012 Page Number: 419-437 Publication Issue Volume IV, Issue II Article History Accepted: 01 May 2012 Published: 28 May 2012

Also these following Shloka-s are also mentioned in that Same Journal:—

श्रुणु वदामिते वत्स मन्त्रराज परम्पराम्।
यस्याश्च वन्दनात् रामश्चात्यन्तं हि प्रसीदति ॥
सृष्ट्यादौ च सिसृक्षुः श्री रामो विधिं विधाय हि ।
सृष्टये प्रेषयामास वेदं ज्ञानमहानिधिम्।
तथाप्यर्थावबोधस्या भावाद्विधिः ससर्ज न ।
जातायामीशभक्तौ च गुरुभक्तिर्यतो न हि ॥
भक्तिद्वये यतश्चास्ति तत्वप्रकाशहेतुता ।
ततो वेदार्थबोधो न गुरोर्भक्तेरभावतः ॥
ततो रामस्य खेदं हि समुद्वीक्ष्य च मैथिली ।
गृहीत्वा विधिवद् रामान्मन्त्रराजं षडक्षरम् ॥
हनुमते च दत्त्वा तं राममन्त्रं षडक्षरम् ।
विधये मन्त्र दानाय प्रेरयामास मारुतिम् ॥

(—Sri Vashistha Samhita, Lineage of Sri Sampraday, Quoted from International Journal of Scientific Research in Science and Technology Print ISSN: 2395-6011 | Online ISSN: 2395-602X)

ब्रह्मा ददौ वशिष्ठाय स्वसुताय मनुं ततः ।
वशिष्ठोऽपि स्वपीत्राय दत्तवान् मन्त्रमुत्तमम् ॥
पराशराय रामस्य मन्त्रं मुक्तिप्रदायकम् ।
स वेदव्यासमुनये ददावित्थं गुरुक्रमः ॥
वेदव्यास मुखेनात्र मन्त्रो भूमौ प्रकाशितः ।
वेदव्यासो महातेजा शिष्येभ्यः समुपादिशत्‌॥

(—Sri Agastya Samhita, Lineage of Sri Sampraday, Quoted from International Journal of Scientific Research in Science and Technology Print ISSN: 2395-6011 | Online ISSN: 2395-602X)

इदं तु परमं तत्वं देवानामप्यगोचरम्।
पृष्टं युष्माभिरनद्यं कथ्यते श्रृणुतर्षयः ॥
भगवान् रामचन्द्रो वै परं ब्रह्म श्रुतिश्रुतः ।
दयालुः शरणं नित्यं दासानां दीनचेतसाम् ॥
इमां सृष्टिं समुत्पाद्य जीवानां हितकाम्यया।
आद्याशक्तिं महादेवी श्री सीतां जनकात्मजाम् ॥
तारकं मन्त्रराजं तु श्रावयामास ईश्वरः ।
जानकी तु जगन्माता हनुमन्तं गुणाकरम् ॥
श्रावयामास नूनं स ब्रह्माणं सुधियांवरम्।
तस्माल्लेभे वशिर्षिः क्रमादस्मादवातरम्।
भूमौ हि राममन्त्रोऽयं योगिनां सुखदः शिवः ।
एवं क्रम समासाद्य मन्त्रराज परम्परा ॥

(—Sri Valmiki Samhita, Lineage of Sri Sampraday, Quoted from International Journal of Scientific Research in Science and Technology Print ISSN: 2395-6011 | Online ISSN: 2395-602X)

श्री राम जनकात्मजामनिलयं वेद्यो वशिष्ठावृषी ।
योगीशं च पराशरं श्रुतिविदं व्यासं जिताक्षं शुकम्॥
श्रीमन्तं पुरुषोत्तमं गुणनिधिं गङ्गाधराछान्यतीन्।
श्री मद्राघवदेशिकं च वरदं स्वाचार्यवयं श्रये।

(—Gita Anand Bhashya, Lineage of Sri Sampraday, Quoted from International Journal of Scientific Research in Science and Technology Print ISSN: 2395-6011 | Online ISSN: 2395-602X)

And The Final Order of Lineage Published By International Journal (exactly Quoting in English);

❝By investigating the entire lineage, a specific order is obtained in which there are twenty-two acharyas who are either the founders or protectors of the tradition. The names are listed below in order:

  1. Bhagavan Sri Rama
  2. Bhagavati Sri Sita
  3. Sri Hanuman
  4. Sri Brahma
  5. Sri Vashishta
  6. Sri Parashara
  7. Sri Vyasa
  8. Sri Shukadeva
  9. Sri Purushottamacharya (Mahārishi Baudhāyan)
  10. Sri Gangadharacharya
  11. Sri Sadaanandacharya
  12. Sri Rameshwaranandacharya (First)
  13. Sri Dwaranandacharya
  14. Sri Devanandacharya
  15. Sri Shyamanandacharya
  16. Sri Shrutanandacharya
  17. Sri Chidanandacharya
  18. Sri Purnanandacharya
  19. Sri Shriyanandacharya
  20. Sri Haryanandacharya
  21. Sri Raghavanandacharya
  22. Jagadguru Ramanandacharya, author of Anandabhashya.❞

Vedant also speaks about same Wandering Ascetics

परब्रह्मोपनिषदि वेद्याखण्डसुखाकृति ।
परिव्राजकहृद्गेयं परितस्त्रैपदं भजे ॥

"I worship the state of transcendence, which is revealed in the Upanishads as the indivisible, eternal source of bliss. It is the ultimate reality which is revealed in the heart wandering ascetics (वैरागी संत). Let us devote ourselves to that three-fold state of consciousness, which is the abode of supreme truth and bliss."

(Atharva Veda Parabrahma Upanishad 1.1)

Now question may arise why this Upaniṣad is Par-Brahma Upanishad is not in the direct name of Sri Rama, so answer is:— Para Brahma is another Name of Lord Sri Rama as said in Padma Puran;

योऽसावयोध्याधिपतिः सपरब्रह्मशब्दितः। तस्ययाजानकीदेवीसाक्षात्साचिन्मयीस्मृता ।।

The one who is Lord of Ayodhya Puri Maharaj Shri Ramchandra ji, his name is Para Brahma and the one who is his wife Janakishori Bhagwati Srisita ji, she is considered to be the visible power of Lord Shri Ram.

(Shri Padma Mahapuran 5/28/59)

Also Vedas ITSELF says so;

राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः ।
राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम्।।

Śrī Rāma is alone Para Brahma, Śrī Rāma is alone highest Tapa, Śrī Rām is alone highest Tattva, He is the Tārak Brahma.

(Atharvavedā Ram Rahasya Upanishad Chapter 3/Canto 1, Shloka 6)

Another Upaniṣad which says about Great Ascetics of Sri Samprādaya is Katha Shruti Upanishad, it says as:—

परिव्रज्याधर्मपूगालंकारा यत्पदं ययुः ।
तदहं कठविद्यार्थं रामचन्द्रपदं भजे ॥

“The Great Ascetics (of Sri Sampradaya), by adopting the path of renunciation, attained that high spiritual state, where I too aspire to attain. I worship the lotus feet of Lord Rama, in order to attain the knowledge of the Katha Upanishad to attain that Pada."

(Yajurveda Katha Shruti Upanishad 1.1)

—This Katha Shruti Upaniṣad signify that eternity of Sri Sampraday. This also proves that since Vedas are in existence people are aspiring in Sri Sampraday.

In next Vedant it has been told about the Final Goal of Ascetics:—

आरुणिकाख्योपनिषत्ख्यातसंन्यासिनोऽमलाः । यत्प्रबोधाद्यान्ति मुक्तिं तद्रामब्रह्म मे गतिः ॥

"Those pure Ascetics (of Sri Sampradaya) who are well-versed in the Arunika Upanishad, their path is the knowledge that leads to liberation. My goal is the divine Brahman, Sri Rama that is attained through such enlightenment."

(Sama Veda Arunika Upanishad 1.1)

The Vedas explicitly talk about such detached ascetics who have unwavering focus and devotion solely towards the divine feet of Lord Shri Rama. This group of detached ascetics is not associated with any other sect but rather belongs to the Sri Sampradaya. These Vedic verses make it clear that the Shri Sampradaya, also known as the Sri Ramanandi Sampradaya, has a long-standing tradition of ascetics or sannyasis dating back to ancient times.

And when Lord Sri Rama Himself appeared as 22nd Acharya of this Vedic Sri Sampraday, “rāmānandaḥ svayaṃ rāmaḥ prādurbhūto mahītale-Agastya Saṃhitā". Than from that time onwards followers of Sri Sampraday are also called as “Rāmanandi", indicating their Pravartak Ācharya. For that reason this Sampradaya is sometimes called as Sri Ramananda Sampradaya. But Originally according to scripture it is called as Sri Sampradaya in which Sri Jagadguru Ramanandacharya appeared as 22nd Acharya;

रामानन्द इति ख्यातो लोकोद्धरणकारणः।
आचार्यलक्षणैर्युक्तं वेदवेदान्तपरागम् ॥
श्रीसंप्रदायश्रेष्ठञ्च जनोद्धारपरं सदा ।
विज्ञाय राघवानन्दं लब्ध्वा तस्मात् षडक्षरम् ॥

Sri Ramananda is known as the cause of lifting the world. He is endowed with the characteristics of acharya and is well versed in the Vedas and Vedanta. He is the great (acharya) of Sri Sampraday and is always devoted to the upliftment of the people. He got Shadakshar Mantra from his Guru Raghavananadacharya Ji.

(Agastya Samhitā Chapter 132, Shloka 13, 17)

How Did Lineage Of Sri Sampradaya Spread On Earth? —

Rishis asked Maharishi Valmiki:

पूर्वं तु राममन्त्रोऽयमासीत् स्वग्र्येषु केवलम् ।
पृथिव्यां कथमायातस्तन्नो ब्रूहि दयानिधे ! ||३०||

Earlier, the Shadakshar Sri Ram mantra was limited to the celestial gods in heaven. How did it come to Earth? Oh compassionate one! Please enlighten us.

Maharishi Valmiki said:

इदं तु परमं तत्त्वं देवानामप्यगोचरम् ।
पृष्टं युष्माभिरनधं कथ्यते श्रृणुतर्षयः ! ||३१||

This supreme essence is even beyond the perception of the celestial gods. You have asked about this divine entity, free from sins, due to your affectionate inquiry. Therefore, I shall explain it to you.

भगवान् रामचन्द्रो वै परं ब्रह्म श्रुतिश्रुतः ।
दयालुः शरणं नित्यं दासानां दीनचेतसाम् ||३२||

Lord Sri Ram is indeed the supreme Brahman, as proclaimed by the Vedas. He is supremely merciful, always offering refuge, and remains ever attentive to His servants and the needy.

इमां सृष्टिं समुत्पाद्य जीवानां हितकाम्यया ।
आद्यां शक्तिं महादेवीं श्रीसीतां जनकात्मजाम् ॥ ३३॥

Lord Sri Ram, after creating this universe for the welfare and desires of people, imparted the supreme mantra called the Shadakshara Taraka Mantra to Mahadevi Goddess Sita, who is the primeval energy.

तारकं मन्त्रराजं तु श्रावयामास ईश्वरः ।
जानकी तु जगन्माता हनूमन्तं गुणगारकम् ॥३४॥

After hearing the Taraka Mantra from Lord Shri Ram, Mother Janaki, who is the mother of the universe, recited it to Hanumanji, who is an ocean of virtues.

श्रावयामास नूनं स ब्रह्माणं सुधियां वरम् ।
तस्माल्लेभे वसिष्ठर्षिः क्रमादस्मादवातरत ॥३५॥

By hearing the Taraka Mantra, Hanumanji, with his pure intellect, disseminated it to Sri Brahmā. Consequently, Sage Vasishta, through the course of events, received the mantra from Sri Brahmā.

भूमौ हि राममन्त्रोऽयं योगिनां सुखदः शिवः ।
एवं क्रमं समादाय मन्त्रराजपरम्परा ॥३६॥

Indeed, this sacred mantra of Lord Rama is a bestower of happiness to the yogis in this world. Thus, following this sequence, the lineage of the supreme mantra is established.

(-Narad Panchratra Valmiki Saṃhitā Chapter 2 Verse 30-36)

Infact Bhagvan Bodhayan also says about Sri Sampradaya in his work;

विधेस्तथा च वेदानां सृष्ट्यादौ संविधायकः ।
ब्रह्मणे वेददाता श्रीसम्प्रदायप्रवर्त्तकः ॥

Lord Sri Ram is considered to be the creator of the universe, Brahma, and the source of the Vedas. He is also considered to have bestowed the Vedas upon Lord Brahma and is regarded as the initiator of the Sri Sampradaya through the divine consort, Goddess Sita.

(-Sri Rama Naam Mala, Verse 10, Maharishi Bodhayana)

Sri Sampraday is a spritual lineage which started from Lord Sri SitaRam as 13th Acharya of Sri Sampraday Jagadguru Sri Dvaranandacharya who appeared in 139-319 CE mentions in His work Prashnottara Vali;

वैदिकः सम्प्रदायः कः कश्च तस्य प्रवर्त्तकः ।
श्रौतः श्रीसम्प्रदायः स रामसीताप्रवर्त्तितः ॥३९॥

Who were the Pravartak of the Vedic Sampradaya? Lord Shri Sitaram were the Pravartak of the Vedic Sri Sampraday.

(-Prashnottara Vali 1.39)

"श्रीसम्प्रदायमूलौ च सीतारामौ जगदगुरू ।
नमस्ताभ्यां नमस्ताभ्यां नमस्ताभ्यां नमो मनः ॥”

Shri Sitarāmavimshati Jagadguru Haryanandacharya

"या श्रियः श्रीस्वरूपा श्रीसम्प्रदायप्रवर्त्तिका ।
गुरुणां गुरुवे तस्यै श्रीसीतायै सुमङ्गलम् ॥”

Sri Sita Mangal Mala By Jagadguru Raghavanandacharya

Click Here To Get Historical Fact.

And many more mentions of Sri Sampradaya are present which stamps it to be the Vedic Sampradaya whose Lineage is deep rooted in Vedas and other scriptures.

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(-Goswami Tulsidas, 26th Acharya of Sri Sampradaya, of a specific parampara)

Lineage of Sri Sampraday:-

Sri Rama—
Srimati Sita—
Sri Hanuman—
Sri Brahma—
Sri Vasishta—
Sri Parashara—
Sri Veda Vyasa—
Sri Sukadevacharya—
Sri Bodhayan— (Bodhāyan Vrittikar)
Sri Gangadharacharya—
Sri Sadaanandacharya—
Sri Rameshwaranandacharya—
Sri Dvaranandacharya—
Sri Devanandacharya—
Sri Shyamanandacharya—
Sri Shrutanandacharya—
Sri Chidanandacharya—
Sri Purnanandacharya—
Sri Shriyanandacharya—
Sri Haryanandacharya—
Sri Raghavananadacharya—
Sri Ramanandacharya (Anand Bhashyakar)

Thank You For Reading 🪷🪷

Please Chant SitaRam SitaRam SitaRam

All Glory to Srímad Goswami Tulsidas Ji

All Glory to Anand Bhashyakar Srimad Jagadguru Ramanandacharya Ji

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सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

Guru Parampara Sri Sampraday (Ramanand Sampraday) starts from Sri SitaRam. This is one of the most oldest lineage in Sanātan Dharm whose mentions are found in Vedas, which is continuing till today & will further continue. Few people have a very silly confusion regarding the Sri Ramananda Sampraday that it started when Śrīmad Jagadguru Rāmānandāchārya appeared. But this is false at all. Before Śrīmad Rāmānandacharya, this sampraday was known as alone Sri Sampraday but after their Pravartak Ācharya appeared than they started calling it as Sri Ramanand Sampraday in honour of their Acharya. As lord Śrī Rāma himself appeared as their Ācharya;

रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले ।
कलौ लोके मुनिर्जातः सर्वजीव दयाकरः ॥

Śrīmad Rāmānandacharya was Śrī Rāma himself who appeared on this earth in the form of a great Muni (sage) out of his causeless mercy and compassion on all Jivas

(-Nārad Panchrātra Vaishvānar Samhitā)

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Sri Ramanand Saṁpradāya has produced many Maha-Purusha and all of them have served the feet of Maa Bharti 🇮🇳 & her sons and daughters. That's why they have such a prestige lineage in which the Ācharya like Sri Sadānandachārya appeared whose disciple was King Pushya Mitra Sungha who has done Ashwa Medha Yagya as Śrī Rām did & stopped the Buddhism spread in India & infact he ordered Pushya Mitra Sungha to remove all culprits from Bhārat who are trying to breach security of our mother land 🇮🇳 and this Saṁpradāya also gave Śrīmad Goswami Tulsidas Ji Maharaj who was Incarnation of Mahārishi Vālmīkī. Who wrote Śrīmad Rāmcharit Mānas which let Hindus to Unite against Mughals as Śrī Rām Bhakti always let nationalism to flow in veins.

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and also the scholars like Mahārishi Baudhāyan who appeared as their 9th Ācharya who gave Vishistādwāit Philosophy. That phylosophy was further propagated by Sripād Ramanujachārya & Sripād Ramanandacharya. And also Śrīmad Goswami NābhaDas Ji Maharaj who wrote Srimad Bhaktmal and United the whole Sri Vaishnav Community. Please don't be confused, Sri Ramanandacharya & Sri Ramanujacharya belongs to different— different saṁpradāya. Both have different lineage. Don't not interlink each other. One is Sri Ramananda Sampraday and other is Sri Ramanuja Sampraday.

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Now let us see the Guru Parampara of Sri Sampraday which starts from Sri SitaRam with 100% accuracy since beginning till today;

First Ācharya of Sri Sampraday is himself Lord Rama who gave Shadakshar Sri Ram Mantra to Śrimati Sita Ji. As Sri Sita Ji (2nd Acharya) has mentioned it herself;

इममेव मनुं पूर्व साकेतपतिर्मामवोचत् अहं हनुमते मम प्रियाय प्रियतराय । स वेद वेदिने ब्रह्मणेवशिष्ठायपराशराय । स व्यासाय । स शुकाय इत्येषोपनिषत् । इत्येषाग्रह्मविद्या ।

It is here that the six-letter Sri Rama Maha Mantra was spoken to me by Sri Saket pati Sri Ramachandra in the divine world saket. I preached to my dearest Sri Hanuman. Sri Hanuman also preached to Sri Brahma, the knower of the Vedas. Shri Brahma also preached to his son Shri Vashishtha. Sri Vashishtha Ji preached to Sri Parashar Ji. Sri Parashar Ji preached to Sri Vyasa Ji. Shri Vyas Ji preached to Shri Shukdev Ji. This is upanishad. This is Brahma Vidhya.

(Atharvaveda Shakha Maithili Maha-Upanishad Chapter 1)

And infact Shadakshar Śrī Rām Mantrā (रां रामाय नमः) is given in Sri Sampraday alone, nobody owns that, this is been proven by Sri Agastya Samhita;

रामानन्द इति ख्यातो लोकोद्धरणकारणः।
आचार्यलक्षणैर्युक्तं वेदवेदान्तपरागम् ॥
श्रीसंप्रदायश्रेष्ठञ्च जनोद्धारपरं सदा ।
विज्ञाय राघवानन्दं लब्ध्वा तस्मात् षडक्षरम्

Sri Ramananda is known as the cause of lifting the world. He is endowed with the characteristics of acharya and is well versed in the Vedas and Vedanta. He is the great (acharya) of Sri Sampraday and is always devoted to the upliftment of the people. He got Shadakshar Mantra (रां रामाय नमः) from his Guru Raghavananadacharya Ji.

(Agastyā Samhitā Chapter 132, Shloka 13, 17)

That's why from scriptural point Ramanand Sampraday alone known as Sri Sampraday. And infact Sri Raghavananadacharya appeared in 1149 CE has wrote in his work;

या श्रियः श्रीस्वरूपा श्रीसम्प्रदायप्रवर्तिका ।
गुरुणां गुरवे तस्यै श्रीसीतायै सुमङ्गलम् ॥

The one who is Sri of Bhagwatï Sri & the one who has started the Sri Sampraday that Guru of Guru. May that Sri Sita ji always be Fortunate.

(Sri Sita Mangal Mala Chapter 1 Verse 109)

Sri Hanuman Ji Maharaj is 3rd Acharya of Sri Sampraday & he has also mentioned that he is been initiated in Vedas;

ऐहिकेषु च कार्येषु महापत्सु च सर्वदा ॥
नैव योज्यो राममन्त्रः केवलं मोक्षसाधकः ऐहिके समनुप्राप्ते मां स्मरेद् रामसेवकम् ॥
यो रामं संस्मरेन्नित्यं भक्त्या मनुपरायणः ।
तस्याहमिष्टसंसिद्ध्यै दीक्षितोऽस्मि मुनिश्वराः ॥
वाञ्छितार्थं प्रदास्यामि भक्तानां राघवस्य तु सर्वथा जागरूकोऽस्मि रामकार्यधुरंधरः ॥

Translation of Main highlights: Lord Hanuman said~ I have taken initiation (Mantra Diksha of Shadakshar Mantra from Śrī Sītā) and I will fulfill the desires of those who engage in chanting mantras with daily devotion and remember Lord Rāma. I will surely grant the desired objects to the devotees of Śrī Raghunāth ji.

(Atharvavedā Shruti Ram Rahasya Upaniṣad 4/10-13)

Sri Hanuman Ji Maharaj is adi acharya of Sri Sampraday and got initiated by Śrī Sita Ji, this has been again cleared;

राज मार्ग मिमं बिद्धि रामोक्तं जानकी कृतम् ।
यदृते चान्य मार्गास्तु चौराणां बीथिका यथा ॥
आद्याचार्य्यं हनुमंतं त्यक्त्वाह्यन्य मुपासते ।
क्लिदयंति चैवते मुग्धा मूलहा पल्लवाश्रिताः ॥
श्रीमैथिल्याश्च मंत्रहि श्रीगुरुं मारुतं महत् ।
सखी भावं दंपतीष्टं भुक्ति मुक्ति प्रदं सदा ॥

Know this (Sri Sampraday) as the Raj Marg because it has been said by Sri Ram & Sri Janaki ji has propagated this, without this other routes are like thieves' street. Those who worship others except the adi acharya, Sri Hanuman, they have pierce the enchanted root and suffer from being dependent on the leaf. Along with Shri Maithili, Shri Ram's mantra is the great Guru of Shri Hanuman……

(Sri Sada-Shiv Saṃhitā, Quoted from Sri Ram Navratna Saar Sangrah Shloka 15–17 by Karuna Sindhu Ji in 1750)

Next, Sri Brahma Ji is 4th acharya of Sri Sampraday, He appeared in Akshaya Navmi Satyuga, He was initiated with Sri Shadakshar Ram Mantra as in Vedas lord Rama has cleared himslef;

त्वत्तो वा ब्रह्मणो वापि ये लभन्ते षडक्षरम् ।
जीवन्तो मन्त्रसिद्धाः स्युर्मुक्ता मां प्राप्नुवन्ति ते ।।
मुमूर्षोर्दक्षिणे कर्णे यस्य कस्यापि वा स्वयम् ।
उपदेक्ष्यसि मन्मन्त्रं स मुक्तो भविता शिव ।।

Lord Rāma said:~Those who take initiation (Disksha) of this Shadakshar mantra (रां रामाय नमः) from you or from Sri Brahma ji, (because Brahmā ji has himself initiated from Shadakshar Ram Mantra) the mantras are proven while alive, after completing body time they attain me by being free from birth and death.

(Atharvavedā Shruti Ram Uttar Tapniye Upanishad 3.15/16)

Infact for Lord Śrī SitaRāma Śrī Brahma Ji has written 100 crore Rāmayan alone in order to praise the glory of his primeval acharya;

वाल्मीकिना तु यत्प्रोक्तं रामोपाख्यानमुत्तमम् ।
ब्रह्मणाभिहितं यच्च शतकोटिप्रविस्तरम् ।।

(Matsya Purana, Chapter 53, Verse 71)

वाल्मीकिना च यत्प्रोक्तं रामोपाख्यानमुत्तमम् ।
ब्रह्मणा विहितं यच्च शतकोटिप्रविस्तरम्

(Skandh Purana, Prabhas Khand, Chapter: 2, Verse 95)

Overall meaning is that Śrī Brahmā Ji has written 100 crore Rāmāyana which Śrī Vālmīkī Munī has retold as Valmiki Ramayan.

Next, Sri Vashistha Ji is 5th Acharya of Sri Sampraday appeared in Rishi Panchami, Satyuga who was infact Guru at the time also as Raghavananadacharya when Sri Ram himself appeared as Ramānandacharya;

तारकं मन्त्रराजं तु श्रावयामास ईश्वरः ।
जानकी तु जगन्माता हनुमन्तं गुणाकरम् ।।
श्रावयामास नूनं स ब्रह्माणं सुधियांवरम् ।
तस्माल्लेभे वशिष्ठर्षिः
क्रमादस्मादवातरम् ॥
भूमौ हि राममन्त्रोऽयं योगिनां सुखदः शिवः ।
एवं क्रमं समासाद्य मन्त्रराजपरम्परा ॥

Overall meaning is that Sri Janki who is mother of all, she provided mantra to Sri Hanuman Ji than he passed it to Sri Brahmā Ji & Sri Brahma Ji passed it to Vashistha Ji in a descended order.

(Sri Valmiki Samhita Chapter 2 Shlokā 33- 35)

And infact he has spoken about Sri Saket Dham in his Vashistha Samhita which you can access from here:— Vashistha Samhita

Next, Sri Parāshara Ji is 6th Acharya of Sri Sampraday & appeared in Ashwin Shukla 15, Satyuga also guru of Sri Ved-Vyās;

राममन्त्रप्रदं श्रीमद्राममन्त्रार्थ कोविदम् ।
वन्दे पराशराचार्यं शक्तिपुत्रं जगद्गुरुम् ॥ 1 ॥
रामसेवारतं शश्वद् वेदव्यासस्य सद्गुरुम्।
वन्दे पराशराचार्यं शक्तिपुत्रं जगद्गुरुम् ॥ 2 ॥

Who is the giver of the (six-letter) mantra of the Sri Ram, who is the ocean of knowledge and the great scholar who explains the meaning of the mantra of Sri Rama. I salute Acharya Parashar, the son of sage Shakti and the guru of the entire world. I salute Acharya Parashar, the son of Muni Shakti and the world guru, who is engaged in the service of Lord Sri Rama, who is the Sadguru of the eternal Lord Vedavyasa.

(Parāsharastakam verse 1–2)

Sri Parāshara Ji got Shadakshar Ram Mantra from Śrī Vashistha, this has been mentioned in scriptures;

ब्रह्माददौ वशिष्ठाय स्वसुताय मनुं ततः ।
वशिष्ठोऽपि स्वपौत्राय दत्तवान् मन्त्रमुत्तमम् ।।
पराशराय रामस्य मन्त्रं मुक्तिप्रदायकम् ।

Sri Brahmā Ji gave this Shadakshar Ram Mantra to Vashistha Ji than he provided it to Vashistha Ji & Vashistha Ji to Parāshara Ji, hence this (Shadakshar) Ram mantra provides mukti.

(Sri Agastya Samhita, Chapter 8, Verse 2-3)

Not only Shadakshar Mantra but Sri Parāshara Muni is also initiated in Ekashar Ram Mantra & as he has passed to a king;

ततः पराशरमुनिः सर्वानर्थविनाशनम् ।
रामस्यैकाक्षरं मंत्रं तदंते समुपादिशत् ॥
चत्वारिंशद्दिनं तत्र मंत्रमेकाक्षरं नृपः ।
तत्र तीर्थे जजापासौ मुन्युक्तेनैव वर्त्मना ॥
तस्मै नृपतये तत्र ब्रह्माद्यस्त्रं महामुनिः ।
सांगं च सरहस्यं च सोत्सर्गं सोप संहति ॥

Then Muni Parashar provided the king the 'Ekakshara Mantra' of 'Sri Ram Ji' which is the destroyer of all evils. The king chanted the 'Ekakshara Mantra' for forty days in accordance with the ritual………

(Skanda Purana, Brahma Khand 3, Setu Mahatmya, Chapter 12)

And also before giving Shadakshar Ram Mantra to Sri Parāshara Ji Sri Vashistha Ji explained him the Guru Parampara of Sri Sampraday in which Shadakshar Ram Mantra is given;

श्रृणु वदामि ते वत्स ! मन्त्रराजपरम्पराम्
यस्याश्च वन्दनाद् रामश्चात्यन्तं हि प्रसीदति ।
सृष्ट्यादौ च सिसृक्षुः श्रीरामविधि विधाय हि । सृष्टये प्रेसयामास वेदं ज्ञानमहानिधिम् ॥ तथाप्यर्थावबोधस्याभावाद्विधिः ससर्जन ।
जातायामीशभक्तीच गुरुभक्तिर्यतो नहि ॥ भद्रिये यचास्ति तत्त्वप्रकाशहेतुता । ततो वेदार्थबोधो न गुरोर्भकेरभावतः॥
ततो रामस्य खेदं हि समुद्वीक्ष्य च मैथिली । गृहीत्वा विधिवद् रामान्मन्त्रराजं षडक्षरम् ॥ हनुमते च दत्त्वा तं राममन्त्रं षडक्षरम् । विधये मन्त्रदानाय प्रेरयामास मारुतिम् ॥

(Sri Vashistha Samhita, Sri Vashistha to Parāshara Chapter 23)

Next, Sri Ved-Vyās is the 7th acharya of Sri Sampraday. He appeared on Guru Purnima Dwapar Yuga. He is in the same lineage this has been mentioned in scriptures;

पराशराय रामस्य मन्त्रं मुक्तिप्रदायकम् ।
स वेदव्यासमुनये ददावित्थं गुरुक्रमः ॥

वेदव्यासमुखेनात्र मन्त्रो भूमौ प्रकाशितः ।
वेदव्यासो महातेजः शिष्येभ्यः समुपादिशत् ।।

The Ram mantra of Parāshara Muni provide liberation which Sri Ved Vyās got through Guru Parampara. The mantra was revealed to the earth by the mouth of Veda Vyasa. The effulgent Vedavyasa taught them to his disciples.

(Sri Agastya Samhitā, Chapter 8, verse 3-4)

And how Śrī Ved-Vyās was able to write such huge scriptures such as ved, vedant puran, Brahma Sūtra etc. click here to know:— How Ved-Vyas wrote?

Next, Sri Sukadēvacharya Ji is 8th Acharya of Sri Sampraday who was the commentator of Śrīmad Bhāgwatam. He appeared on Sravana Shukla 15, Dwapar Yuga;

इममेव मनुं पूर्व साकेतपतिर्मामवोचत् अहं हनुमते मम प्रियाय प्रियतराय । स वेद वेदिने ब्रह्मणे स वशिष्ठाय स पराशराय । स व्यासाय । स शुकाय इत्येषोपनिषत् । इत्येषाग्रह्मविद्या ।

(Atharvaveda Shakha Maithili Maha-Upanishad Chapter 1)

According to above Shlok the lineage is. Sri Ram — Sri Janki — Sri Hanuman —Sri Brahmā — Sri Vashistha —Sri Parāshara — Sri Vyās — Sri Sukadēvacharya

And one more interesting thing is that in whole Śrīmad Bhāgwatam Sri Sukadēvacharya Ji has taken one time Sharnagati & that too of alone Śrī Rām as he was in his lineage;

यस्यामलं नृपसद:सु यशोऽधुनापि गायन्त्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम् ।
तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्टपादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये ॥

Lord Rāmacandra’s spotless name and fame, which vanquish all sinful reactions, are celebrated in all directions, like the ornamental cloth of the victorious elephant that conquers all directions. Great saintly persons like Mārkaṇḍeya Ṛṣi still glorify His characteristics in the assemblies of great emperors like Mahārāja Yudhiṣṭhira. Similarly, all the saintly kings and all the demigods, including Lord Śiva and Lord Brahmā, worship the Lord by bowing down with their helmets. Let me offer my obeisances unto His lotus feet. I take the refuge of Sri Raghupati.

(Srimad Bhāgwatam Mahāpurān 9.11.21)

Next, Mahārishi Baudhāyan (Bodhayan) Sri Purushottamacharya is 9th acharya of Sri Sampraday who is also the founder of Vishishtadwait phylosophy through his Bodhāyan Vrittï, he wrote many scriptures he was appered in Kaliyuga, in Mithila, Bihar in around 625 BC.

He got initiated in Sri sampraday by Sri Sukadēvacharya as he mentions this in his work, Sri Rāmāyaṇa Rahāshyam;

शुकदेवं गुरुं नत्वा श्रीमद्व्यासं च राघवं ।
रामायणरहस्यं हि सद्बोधाय ब्रवीम्यहम् ॥

And Maharishi Bodhāyan in his Purushottam Prapattishatkam says;

रामिति बीजवान् नाथ मन्त्रराजो हि तारकः
तं जपामि तब प्रीत्यै पाहि मां पुरुषोत्तम ॥ 1 ॥

That he takes refuge to Purushöttam Sri Ram & chants Tarak Mantra MantrāRaj (Shadakshar).

Next, Sri Gangādharāchārya is 10th Ācharya of Sri Sampraday who was initiated by Maharishi Bodhayan he was born in 535 BC;

He says in Mangalacharan of Sadhan Deepika that he got initiated by Maharishi Bodhayan;

सीतानाथ समारंभाम् बादरायण मध्यमाम्।
बोधायनाख्य गुर्वन्तां वन्दे गुरु परम्पराम् ॥

Next, Sri Sadānandachārya is 11th Acharya of Sri Sampraday and also he was the Guru Of Pushya Mitra Sungha who stopped spread of Buddhism in India. He was appered in 393 BC;

He mentioned his lineage in his work Vedant Sar-Stava;

गङ्गाधरं गुरुं नत्वा बोधायनं च राघवम्।
अहं करोमि वेदान्त्सारस्तवं सुखावहम् ॥

He clearly mentions that his Guru is Sri Gangādharāchārya.

Next, Sri Rameshwaranandacharya is 12th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Sadānandachārya. He appeared in 80 CE;

He has mentioned his lineage in his work Satprabodhamrit;

सीतानाथं नमस्कृत्य सदानन्दं गुरुं तथा ।
सत्प्रबोधामृतं कुर्वे प्राणिमृत्योर्विनाशकम्॥

Here clearly he has mentioned Sri Sadānandachārya as his Guru.

Next, Sri Dvaranandacharya is 13th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Rameshwaranandacharya. He apeeared in 140 CE;

He has mentioned his lineage in his work Prashnottar Ratnawali;

व्यासं बोधायनं रामं नत्वा रामेश्वरं गुरुम् ।
तत्त्वावबुद्धये कुर्वे प्रश्नोत्तरावलीं शुभाम्॥

He has clearly mentioned Sri Rameshwaranandacharya as his Guru & whole Sri Sampraday Guru Parampara.

Next, Sri Devanandacharya is 14th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Dvaranandacharya. He appeared in 270 CE;

He has mentioned his lineage in his work Sadachar Pradipika;

कुर्वे बोधायनं नत्वा द्वारानन्दं गुरुं तथा ।
सदाचारप्रबोधाय सदाचारप्रदीपिकाम् ॥

He has clearly mentioned Sri Dvaranandacharya as his Guru of his lineage.

Next, Sri Shyamanandacharya is 15th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Devanandacharya. He appeared in 430 CE;

He has mentioned his lineage in his work Navratni Mangalacharan;

सीतानाथं नमस्कृत्य देवानन्दं गुरुं तथा।
प्रपन्नानां हितायेयं नवरत्नी विधीयते ॥

He has clearly mentioned Sri Devanandacharya as his Guru & Remembered Sri SitaRam.

Next, Sri Shrutanandacharya is 16th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Shyamanandacharya. He apeeared in 580 CE;

He has mentioned his lineage in his work Shruti Vedya Stava;

रामं बोधायनं व्यासं गुरुदेवं प्रणम्य च।
श्रुतिवेद्यस्तवं कुर्वे श्रौतरामस्य तृप्तये॥

He has mentioned his lineage of Śrī Saṁpradāya which starts from Śrī Rām.

Next, Sri Chidanandacharya is 17th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Shrutanandacharya. He was appered in 690 CE;

He mentions his lineage in his work Prameyodesh Bhaskar;

धर्मकीत्तर्यादयो बौद्धा येन वादे निराकृताः।
तं गुरुं श्रीश्रुतानन्दं वन्दे बोधमहोदधिम् ॥
नत्वा बोधायनं व्यासं तथा रामं परमेश्वरम्।
कुर्वे प्रमयेबोधाय प्रमेयोद्देश-भास्करम् ॥

He has clearly mentioned his Guru Sri Shrutanandacharya & remembered the lineage and Lord Rama.

Next, Sri Purnanandacharya is 18th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Chidanandacharya. He was appered in 810 CE;

He has mentioned his lineage in his work Sri Ram Bhakti Vivek;

गुरुं च राघवं नत्वा व्यासं बोधायनं तथा।
रामभक्तिविवेकं हि कुर्वे भक्तिप्रदायकम्॥

He has mentioned his lineage of Sri Sampraday which starts from Sri Ram.

Next, Sri Shriyanandacharya is 19th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Purnanandacharya. He was appered in 976 CE;

He has mentioned his lineage in his work Shrautaprameyachandrika;

व्यासं बोधायानं ब्रह्म रामं नत्वा च सद्गुरुं।
कुर्वे श्रौतार्थबोधाय श्रौतप्रमेयेन्द्रिकाम् ॥

He has clearly mentioned his lineage of Sri Sampraday which starts from Sri Ram.

Next, Sri Haryānandāchārya is 20th acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Shriyanandacharya. He was appered in 1100 CE;

He has mentioned his lineage in his work Charam Mantra Rāmāyaṇa;

श्रियानन्दं गुरुं नत्वा रामं बोधायनं तथा।
कुर्वे श्री चरममन्त्ररामायणं हि मुक्तिदम् ॥

He has mentioned his Guru Sri Shriyanandacharya & Lord Rāma in his Mangalacharan of his work.

Next, Sri Raghavananadacharya is 21th acharya of Sri Sampraday & also incarnation of Sri Vashistha Muni. He was initiated by Sri Haryānandāchārya & appeared in 1149 CE;

He has mentioned his lineage in his work Sri Raghavendra Mangal Mala;

राघवेन्द्रं नमस्कृत्य हर्यानन्दं गुरुं तथा ।
कुर्वे मङ्गलमालां श्रीराघवेन्द्रस्य तुष्टये ॥

He has mentioned Sri Haryānandāchārya as his Guru & hailed Sri Ram. He was the Guru of Srimad Rāmānandacharya.

And now, Ācharya Samrat Anand Bhashyakar, Hindu Dharmoodharak, Ramavatar Śrīmad Jagādgurü Ramānandacharya. He is 22nd acharya of Sri Sampraday who was initiated by Sri Raghavananadacharya. He was appered in 1299 CE;

He has mentioned his lineage in his work Gita Ānand Bhashya (commentry on Gita);

श्रीरामं जनकात्मजामनिलजं वेधो वशिष्ठावृषी योगीशं च पराशरं श्रुतिविदं व्यासं जिताक्षं शुकम्।
श्रीमन्तं पुरुषोत्तमं गुणनिधिं गङ्गाधराद्यान्यतीन् श्रीमद्राघवदेशिकं च वरदं स्वाचार्यवर्यं श्रये ॥

Srimad Ramānandacharya is also known as Father of Ghar Vapsi Movement the divinity of Bhagavad Rāmānanda attracted the hearts of 25 lacs (2.5 million) Muslims, they followed him to Ayodhyā where they came back again into their original faith of Sanātan-Vaidic-dharma after taking bath in Sarayu river, and thereafter they accepted Rāma-mantra and followed Vaishṇavism whole life.

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रामानन्दस्य शिष्यो वै चायोध्यायामुपागतः । ।
कृत्वा विलोमं तं वैष्णवांस्तानकारयत् । ।
भाले त्रिशूल चिह्नं च श्वेतरक्तं तदाभवत् । ।
कण्ठे च तुलसीमाला जिहवा राममयी कृता ।।
म्लेछास्ते वैष्णवाश्चासन् रामानन्द प्रभावतः । ।
संयोगिनश्च ते ज्ञेया रामानन्दमते स्थिताः ।।
आर्याश्च वैष्णवा मुख्या अयोध्यायां बभूविरे । ।

Sri Ramananda's disciple went to Ayodhya and reversed the mantra influence of the Mlecchas and converted all those Hindus who had become Muslims to Vaishnavism. They made them into beautiful Vaishnava by putting Urdhapundra on their forehead and red tilak in the middle, putting a garland of Tulsi around their neck and putting the mantra of Ram Naam in their mouth. All the Muslims became superior Aryans under the influence of Ramananda and began to live in Ayodhya.

(Śrī Bhavishya Purān 3/21/52–55)

What Śrīmad Jagādgurü Ramānandacharya said, he shown it by accepting even Malechha (Muslim Śrī Kabir), Shudra (Śrī Raidās, a cobbler), and women (Śrī Padmāvati and Śrī Sursuri ji) as his direct disciples... who all became renowned Gurus, and Bhakti-movement saints. Thus, Jagadgurutva (being the universal teacher) is fully culminated in Bhagavad Śrī Rāmānanda in every way.

जगमंगल आधार भक्ति दसधा के आगर॥
(श्रीभक्तमाल पद - ३६)

That's why Sri NābhaDas Ji Maharaj has said, रामानंद उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु, He was very generous, his approach was not narrow in adopting the refugees. (Jagadguru Śrīmad Rāmānandācharya ji adopted people of all castes, gender etc. he did not hesitate to adopt even Malechha, that is why the word “Udāar" (Generous) has been exclusively used for him.

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To know Śrī Rāmānandacharya Phylosophy please, click here

Please Chant SitaRam SitaRam SitaRam

Glory to Srímad Goswami Tulsidas Ji

Glory to Anand Bhashyakar Srimad Jagadguru Ramanandacharya Ji

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Four Sampradaya In Vaishnavism

सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

Bhaktamal was written by Śrīmad Göswāmi NābhaDas Ji Maharaj in 1585. Bhaktmāl is the garland of 200 Bhakta Charitra which Śrī NābhaDas Ji Maharāj has write down. He was initiated in Śrī Rāmānanda Saṁpradāya & his Śrī Guru was Śrī Agar Dās swami (श्रीअग्रदास स्वामी).

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Download Bhaktamal from here :—Göswāmi NābhaDas Maharāj Bhaktamal

चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट॥
रामानंद उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु।
विष्णुस्वामी बोहित्थ सिन्धु संसार पार करु॥
मध्वाचारज मेघ भक्ति सर ऊसर भरिया।
निम्बादित्य आदित्य कुहर अज्ञान जु हरिया॥
जनम करम भागवत धरम संप्रदाय थापी अघट।
चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट॥

Just as God assumed twenty-four incarnations in the first three yugas, in the same way, in Kaliyuga, the Chaturvyuh of Acharyas appeared. For example, Shri Ramanandacharya ji became the pravartak ācharya of Śrī Saṁpradāya. He was very generous, his approach was not narrow in adopting the refugees. (Jagadguru Śrīmad Rāmānandācharya ji adopted people of all castes, gender etc. he did not hesitate to adopt even Malechha, that is why the word “Udāar" (Generous) has been exclusively used for him. As Śrīmad Rāmanandacharya was HIMSELF Śrī Rām as said in scriptures,

रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले ।
कलौ लोके मुनिर्जातः सर्वजीव दयाकरः ॥

Śrīmad Rāmānandacharya is Śrī Rāma himself who appeared on this earth in the form of a great Muni (sage) out of his causeless mercy and compassion on all Jivas

(-Nārad Panchrātra Vaishvānar Samhitā)

Śrīmad Göswāmi Tulsidās Ji has also used the word “Udāar" frequently with Śrī Rām in Śrīmad Rāmāyaṇam:—

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 1.10.1)

अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 6.111.6)

परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 6.38)

सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 3.42.1)

मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 7.84.8)

तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 6.27.7)

मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 6.34.4)

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥

(Śrīmad Rāmāyaṇam 1.110.5)

ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा।।

(Śrīmad Rāmāyaṇam 3.34.5)

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Śrīmad Rāmānandacharya was the deep ocean of love and knowledge and was the Kalpa tree itself to fulfill the desires of the devotees on this earth. Acharya Śrī Vishnuswami, the promoter of the Rudra sect, was a ship to cross the sinking beings in the ocean of death. Shrimadhwacharyaji, the promoter of the Brahma Sampradaya, was a cloud of rain of devotion (Bhakti) to fill the hearts of people with sarovar (saras) and usar (rasa). Shree Nimbarkacharya, the promoter of the Sankadik sect, was the sun who destroyed the fog of ignorance and the lighten the devotion of knowledge. By taking birth and by performing good deeds himself, he established the sects of Vaishnava Dharma completely indestructible and strong.

Please Chant SitaRam SitaRam SitaRam

Glory to Śrīmad Goswami Tulsidas Ji

Glory to Ānand Bhāshyakār Śrīmad Jagādgurü Ramānandacharya Ji

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 सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।

अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

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Very great question !!

See, Brahma Sūtra & Vedās are in highly coded form as God himslef loves what is described in esoteric terms (परोक्ष=गुप्त रूप). Because according to Maha-Purusha-s these Scriptures are very illusionary as they contains everything and they themselves don't want that people come out from this illusion. जैसे गंगा में प्रत्येक प्रकार का पानी बहता है जैसे नगर का, घर का, किसी राज्य का, किसी नाले का, ठीक उसी प्रकार शास्त्रों में सब मिलता है। That's why learned people always attain that supreme personality only by surrendering to Acharya. Because an Acharya will tell you what you mean to study, how much you have to study. To put it plainly, he will give you nectar from that endless ocean 🌊🌊 after drinking which you will become Ānand Swarōop i.e. eternal blissful.

Before starting further I want to say just one thing;

वेद पुराण भी पढ़ कर यदि हरि नहीं मिले तो पूरे जीवन भी शास्त्रों के अध्ययन का कोई लाभ नहीं है।

See, forget “ अ “, Even if the Brahma Sutras and the Vedas were to begin with any letter, they would still refer to the Supreme Purusha, Shri Rām. As said by Vedās themselves;

अकारादिक्षकारान्तवर्णजातकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥

Whose divine form is accumulation of the words starting from “A-kār" (अ से प्रारंभ) to “Cha-kār” (क्ष तक). (यानी  से लेकर क्ष तक जितने शब्द हैं वह सारे शब्द रघुराई को ही संबोधित करते हैं) Whose form is devoid of “Maya” (चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥) Who is Moksha Swaroop, I worship that supreme purusha Sri Rām's lotus feet.

(Rigveda Shākha Akshamalika Upanishad 1.1)

So the very first Shlokā of Vedās, i.e.;

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥

(Rigveda 1.1.1)

Donotes Śrī Rām in esoteric terms (गुप्त रूप) because supreme purusha loves what is in esoteric terms as said by Vedas ITSELF;

परोक्षप्रिया इव हि देवाः

(Brihadaranyaka Upanishad 4.2.2)

Bhagavan Shri Rām likes to be referred and described in esoteric terms.

One very interesting thing is that that word Agni (अग्नि) himself denotes Śrī Rām. As said by lord Shiva himself in Skandh Purān, Nirvān Khand, Chapter 32;

रेफोऽग्निरहमेवोक्तो विष्णुः सोमो म उच्यते । आवयोर्मध्यगो ब्रह्मा रविराकार उच्यते ॥

The letter “R” or “ र ” of the name Ram signifies fire, that fire is me. The 'm' in the name of Rama stands for the soma 'Vishnu', and the “A” (रा और म के बीच आ की मात्रा) in the middle of the two means Brahma the same denotes the sun also.

Also cleared by Vedās—

रकारो वह्निवचनः

The Sanskrit alphabet 'Ra, र’ is the Beej (seed/root) Mantra of the 'fire element'.

(वेद अग्नि शब्द से शुरू होकर परोक्ष रूप में यह दर्शाते हैं कि हमारा उद्भव राम नाम से ही हुआ है)

(Atharvavedā Ram Rahasya Upanishad Chapter 3/Canto 5, Shloka 3)

So it is clear from here that the word Agni in the starting of Rig Veda refers to the letter “ R ” of the name Shri Ram denoting Śrī Rām alone in the scriptures. As said in Scriptures “ अ ” ITSELF refers to vasudev.

न वै स आत्मात्मवतां सुहृत्तम: सक्तस्त्रिलोक्यां भगवान् वासुदेव: ।
न स्त्रीकृतं कश्मलमश्नुवीत न लक्ष्मणं चापि विहातुमर्हति ॥

(Śrīmad Bhāgwatam 5.19.6)

Since Lord Śrī Rāmacandra is himself Supreme Personality of Godhead, Vāsudeva, He is not attached to anything in this material world. He is the most beloved Supersoul of all self-realized souls, and He is their very intimate friend. He is full of all opulences (षडगुण पूर्ण ऐश्वर्या). Therefore He could not possibly have suffered because of separation from His wife, nor could He have given up His wife and Lakṣmaṇa, His younger brother. To give up either would have been absolutely impossible.

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रामराममहाबाहोनवेद्मित्वांसनातनम्
जानाम्यद्यैवकाकुत्स्थतववीर्य्यगुणादिभिः ।।

त्वमादिपुरुषः साक्षात्परब्रह्मपरोऽव्ययः त्वमनंतोमहाविष्णुर्वासुदेवःपरात्परः ।।

Śrī Parshuram to Śrī Rām; O Rām you are Adipurush, certainly Par-Brahma Parmatma, you are Maha-Vishnü & Paratpār Vāsudev. (Paratpār denotes Swāyam Bhagwān)

(Padma Purana/Vol. 6 (Uttar Khand)/Chapter 242, Verses 169/170)

Let us understand “Agni” with another example;

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥

मैं रघुनाथ के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चंद्रमा) का हेतु अर्थात् 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, हीन गुणों से परे, उपमा रहित और गुणों का भंडार है।

Here;

रा = Fire (अग्नि)

आ = Sun (सूर्य)

म = Moon (चंद्रमा)

(RāmCharit Manas, Balkānd, Doha 19.1)

Actually this chaupai was direct translation of Skand Purān Nirvān Khand.

It clearly denotes that from the letter “R” of the RAMA the whole Vedas are manifested.

That's why the first word of Rigveda Agni is referring to Shri Rām only. One thing to be noted here that when I say Rama I am basically referring to the all Vishnu tattva as Shri Rām and his other forms has no difference.

Vedas be like:~ Maa Kasam Bro, to be very honest every single Phylosophy in Vedas will take you to the Śrī Rām alone.

समस्तवेदान्तसारसिद्धान्तार्थकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥

Every single Phylosophy (Sidhhant) of Veda & Vedānt denotes the form of Śrī Rām. Whose form is devoid of Māya, who is Moksha Swarōop, I worship that lotus feet of Śrī Rām.

(Krishna Yajurvedā Shākhāyam Sarvsaar Upanishad 1.1)

So it is crystal clear that why Rigved starts from “Agni” as it has to refer his Mater Śrī Rām. As his lord, Śrī Rāghav loves esoteric terms as again said by the lord himself in Śrīmad Bhāgwatam 11.21.35;

वेदा ब्रह्मात्मविषयास्‍त्रिकाण्डविषया इमे ।
परोक्षवादा ऋषय: परोक्षं मम च प्रियम् ॥

The Vedas, divided into three divisions, ultimately reveal the living entity as pure spirit soul. The Vedic seers and mantras, however, deal in esoteric terms, and I also am pleased by such confidential descriptions.

Now moving forward to Brahma Sūtra;

As Brahma Sūtra's very first Sutra ITSELF denotes Śrī Rām as it starts with, “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा"

Here again “ अ ” is Referring to Awadh Dulare Sri Raghurāi. And although it's commentry already has been done by Vedās ITSELF, they have cleared that to whome this Brahma Sūtra refers;

श्रीरामसान्निध्यवशाज्जगदानन्दकारिणी । उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी सर्वदेहिनाम् सीता भगवती ज्ञेया मूलप्रकृतिसंज्ञिता प्रणवत्वात्प्रकृरिति वदन्ति ब्रह्मवादिन इति अथातो ब्रह्मजिज्ञासेति च ॥

Śrī Sītā has the constant company of Lord Śrī Rāma, because of which she is the benefactor of the world. They are the origin, condition and destruction of all living beings. Bhagwati Sita should be known as the original form of nature. because of their promiscuous nature Brahmoists call them ‘Prakriti'. In the Brahmā Sütrā, “Athatö Brahmā Jīggyasā”, her form has been depicted.

(Atharvavedā Shākhāyam Sita Upanishad 1.7–8)

That's our Janak Ladli Kishori Ju to whome this Brahma Sutra refers. Śrī Ladli Ju is Swayam Paratpār Par-Brahmā from whome every single power manifests;

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सा देवी त्रिविधा भवति शक्त्यासना इच्छाशक्तिः क्रियाशक्तिः साक्षाच्छक्तिरिति इच्छाशक्तिस्त्रिविधा भवति श्रीभूमिनीलात्मिका भद्ररूपिणी प्रभावरूपिणी सोमसूर्याग्निरूपा भवति

Śrī Sītā threefold manifests through Her power, namely the power of desire, the power of action, and the power of knowledge. Taking the incarnation of Śrī Devi, Bhudevi, Neeladevi, the one who benefits everyone with her influence, shines in the form of moon, sun and fire.

(Atharvavedā Shākhāyam Sita Upanishad 1.11–12)

Same is said by Brahmānd Purān,

सीतायाश्च त्रिविधाशाः श्री भूनीलादिभेदतः ।
श्री भवेद् रुक्मिणी भूः स्यात् सत्यभामा वृढव्रता ॥
नीलास्याद् राधिका देवी सर्वलोकैक पूजिता ।

In short, Śrī Sītā manifests herself in three form Śrī, Bhu and Nila. By Śrī she becomes Rukmini by Bhu she becomes Satyabhama and by Nila she becomes Radha Rani Sarkār who is worshipped in all Lokas.

(Quoted from Śrī Rām Paratva by Śrī Ramcharan Das Karunā Sindhu in 1750)

That's why in Śrīmad Vālmiki Rāmayan which is itself Incarnation of Vedās clearly says that Śrī Sītā is even Śrī of Bhagwāti Śrī.

वसुधाया हि वसुधां श्रियः श्रीं भर्तृवत्सलाम् ।
सीतां सर्वानवद्याङ्गीमरण्ये विजने शुभाम् ।।

(Valmiki Ramayan 6.111.24)

जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।

It's Śrī SītāRām who are being denoted in Beginning, Middle and at the end of Scriptures

एतेचांशकलाभूताः शक्तिवीर्यबलान्विताः ।
रामचन्द्रांघ्रिसंजाता रामस्तुभगवान् स्वयम् ॥

(Maha-Ramayana, Canto-48, Shlok-37)

शक्ति, वीर्य, बल से युक्त ये उक्त अवतार सब अंश कलाभूत श्रीरामचन्द्र जी के चरण से उत्पन्न होते हैं और श्रीरघुनाथजी स्वयं पूर्ण भगवान हैं।

Śrī Rām and Śrimati Sītā Maharani are one as said in Śrīmad Rāmcharit Mānas;

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

Who are separate in saying, like speech and its meaning and water and the wave of water, but are actually integral (one).

So anything that applies on Shri Ram will automatically apply on Awadh Dulari Shri Kishori Ju.

Please Chant SitaRam SitaRam SitaRam

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Is Shri Ram really an avatar of Vishnu?

सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

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If you go with the word “Really" than “No”, Śrī Ram is NOT an Avatār of Śrī Hāri Vīshnu, their are many proofs of that itself from Vedās and from Śrīmad Rāmāyan (Śrī Mānas & Vālmīki) which clearly says that Sri Rām is Avatāri not Avatār. And another thing to curious one please use the word Śrī before taking my lord's name like Śrī Rām, Śrī Vishnu.

1 •

ततस्त्वमसि दुर्धर्षात्तस्माद् भावात् सनातनात् ।

रक्षार्थं सर्वभूतानां विष्णुत्वं उपजग्मिवान् ॥

(Śrī Vālmiki Rāmāyaṇa 7.104.9)

"After my prayers in the begining of the creation, Oh Rāma ! You forsaken Your durdharsa (the swarupa which is difficult to be achieved for many i.e. the eternal two armed Śrī Rāma form) and assumed the form of Vīshnu for the sake of protection and sustenance of all the beings."

As few people give reference of

  1. Balakanda - 15, 16, 17 and 18th Sarga
  2. Balakanda - 76th Sarga
  3. Ayodhya Kand - 1st Sarga
  4. Aranya Kand - 3rd Sarga
  5. Sundar Kand - 25th Sarga
  6. Sundar Kand - 51st Sarga
  7. Yuddha Kand - 59th Sarga
  8. Yuddha Kand - 95th Sarga
  9. Yuddha Kand - 111th, 117th, 119th Sarga

That here Śrī Rām has been denoted by Śrī Vīshnu or Śrī Narayan, so a very clear answer is Śrī Rām himself has taken the form of Śrī Vishnu, Narayan, Krishna etc. That's why he has been denoted by all these words (यह सारे नाम है श्रीराम के). As in point 1 it has been clear that it's Shri Ram alone who takes form of Vishnu so calling Śrī Rām by the name of Śrī Vishnu is not a very big deal, it's his name.

Infact Śrī Hāri Nāräyana, Śrī Krishnā, Śrī Shiva etc themselves chants the name of Sri Rām,

भजस्व कमले नित्यं नाम सर्वेशपूजितम् ।

रामेति मधुरं साक्षान्मया संकीर्त्यते हृदि ॥

(Śrī Bhavishya Purān, Lord Shri Hari Narayan to Maa Lakshmi)

Oh! Kamle! (Maha-Lakshmi) do the daily worship (chanting) of the name of Shri Ram, which is worshiped by all gods. I always chant the sweet name of Lord Śrī Raghunändan in my heart. (Here lord has given Shri Ram naam Dikshā to Maa Maha Lakshmi)

This shloka has been extracted from Gita Press Gorakhpur;

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Page No. 832. (And also has been quoted by previous Śrī Vaishnav Ācharyas).

Lord Krishna ~

रामस्याति प्रिय नाम रामेत्येव सनातनम् ।
दिवारात्रौ गृणन्नेषो भाति वृन्दावने स्थितः ।।

(Śrī Suka Samhita)

Shuka-Samhita says: The name Śrī 'Rām' is the most dear name to Lord Rama and this name is eternal name of Lord Raghava. By chanting this eternal name of Rama, Lord Krishna is adorned in Vrindavana. (Quoted from UPASANA Try Sidhhant)

राम नाम सदा प्रेम्णा संस्मरामि जगद्गुरूम्। क्षणं न विस्मृतिं याति सत्यं सत्यं वचो मम ॥

(Śrīmad Adi Puran)

I (Krishna) ! keeps remembering the name of Jagadguru Shri Ram with love, I don't forget even for a moment. Arjun, I tell the truth. (Quoted from Gitā Press Gorakhpur, Ram Ank)

Every single name has been originated from Śrī Rām Naam;

नारायणादि नामानि कीर्त्तितानि बहून्यपि ।
आत्मा तेषां च सर्वेषां रामनाम प्रकाशकः॥

(Mahārāmāyaṇa 52.40)

“Various names of Lord such as Nārāyaṇa etc have been glorified in so many ways in scriptres; however Śrī Rāma Nāma alone is the indwelling soul and illuminator of all other Names of Bhagavan.”

विष्णोर्नामानि विप्रेन्द्र सर्वदेवाधिकानि वै।
तेषां मध्ये तु तत्त्वज्ञा रामनाम वरंस्मृतम् ॥८७॥

(Śrī Padma-Purāṇa 7.15.87)

“Oh great Vipra Jaimini ! All the names of Bhagavan Vishnu, each of them, is greater than all the gods. And Tattvagya Maharshis who have realised the truth, they have accepted the name Rama is the best (supreme) among all the names of Bhagavan Vishnu.”

2•

श्रीमद्वाराहोपनिषद्वेद्याखण्डखाकृति ।

त्रिपान्नारायणाख्यं तद्रामचन्द्रपदं भजे ॥

(Krishna Yajurvedā Shäkhayam Varahopanishad 1.1)

One who (alone) is known by Śrīmad Varahopanishad, who is form of eternal bliss, who has been manifested as Narayan in Tri-Pāad. I worship that Śrī Rāma's lotus feet.

That's why in Valmiki Ramayan, Yuddh Kanda, Sarg 117 when Śrī Brahmā ji tells about Śrī Rāma's manifestations he takes the name of Śrī Nāräyana first;

भवान् नारायणो देवः श्रीमांश्चाक्रायुधः प्रभुः ।

एकशृङ्गो वराहस्त्वं भूतभव्यसपत्नजित् ।।

'You are (manifests as) Lord Narayana, the omnipotent lord who holds the wheel, the earth-bearer (Śrī Vārāha) with a beard and the conqueror of past and future enemies of the deities.

(• Here Brahmā ji is worshipping Śrī Rāma as Visheshya and with Visheshan he equalize Śrī Rāma with Śrī Hāri Nāräyana, Krishnā. He is telling that O Śrī Rāma you incarnates as Nāräyan who hold chakra, you incarnated as Krishnā and so on.)

Why Visheshya and Visheshan?

As said futher their,

लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः

You are the supreme religion of the people. You are Vishvaksena Chaturbhuja. (Vishwaksena, is the commander-in-chief of the army of the Vishnu, additionally serving as a gatekeeper and chamberlain of celestial abode Vaikuntha.)

Now tell me have you seen Śrī Rāma gatekeepering Vāikuntha and fighting in favour of Devatas with four arms?

Not at all, all these Visheshan are been used to show Omnipresence of Śrī Rāma that it's only Śrī Raghunandan who manifests an Nāräyana, Vīshnu, Krishna, Vāraha, Vishvaksena etc.)

Śrī Hāri Nāräyana takes Śrī Rām avatar to prēCH the character of Śrī Rām to the people as said in Vedās,

विरजायाः परे पारे लोको वैकुण्ठसंज्ञितः ।
तन्मध्ये राजतेऽयोध्यासच्चिदानंदरूपिणी ॥ 2
तत्र लोके चतुर्बाहू रामनारायणः प्रभुः ।
अयोध्यायां यदा चास्य ह्यवतारो भवेदिह ॥ 3
तदास्ति रामनामेदमवतारविधौ विभोः ।
तन्नाम्नो नामरहितस्याम्नातं नाम तस्य हि ॥ 4

(Athârvavedā Shäkhayam Vedsaropanishad, Uttarkhand, Verse 2–4)

On the other side of the Virja river is Vaikunth Loka, in the middle of which is its Shri Ayodhya Puri, which adorns as the form of Sachchidananda. In that world there is the four-armed Rām-Narayan Prabhu who, when incarnates as Ram in Ayodhya Puri, then bears the name of Śrī Rām, to tell the meaning of the name of Ram. Means to narrate the glory of the name which is beyond emotion, mind and speech, Śrī Vishnu take the name of Shri Ram (i.e. he incarnates as Śrī Rām).

 

3•

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥

(ŚrīRāmacaritamānasa 1.143.3)

Meaning :- Whom the Vedas describe by saying 'neti-neti' (not this, not this also). Who is blissful, titleless and unique and from whose part many Lord Shiva, Brahma and Vishnu appear.

4•

ब्रह्मादिपञ्चब्रह्माणो यत्र विश्रान्तिमाप्नुयुः ।
तदखण्डसुखाकारं रामचन्द्रपदं भजे ॥

(Yajurvedā Shäkhayam Pānch Brahmõpanishād 1.1)

I worship the lotus feet of Lord Śrī Rāmachandrā, the cause of eternal bliss, where the five Brahmans (Shri Shiva, Shri Hāri Vīshnu, Shri Ganesha, Bhagwati Durga and Shri Surya) along with Brahma etc. deities always find rest (ashraya).

5•

एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्म तारकम् ।
राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः ।।
राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम् ।।
वायुत्रेणोक्तास्ते योगीन्द्रा ऋषयो विष्णुभक्ता हनूमन्तं पप्रच्छुः रामस्याङ्गानि नो ब्रूहीति ।
वायुपुत्रं विघ्नेशं वाणीं दुर्गां क्षेत्रपालकं सूर्यं चन्द्रं नारायणं नारसिंहं वासुदेवं वाराहं तत्सर्वान्त्समात्रान्त्सीतं लक्ष्मणं शत्रुघ्नं भरतं विभीषणं सुग्रीवमङ्गदं जाम्बवन्तं प्रणवमेतानि रामस्याङ्गानि जानीथाः ।

(Yajurvedā Shäkhayam RāmRahāshyopanishād 1.6/7½)

In all the scriptures like Vedās, the supreme principle is 'Tāraka Rāma' in the form of Brāhman. Śrī Rāma is the Supreme Brāhman. Śrī Rāma is the supreme form. Śrī Rāma is the Supreme Being. Śrī Rāma is Tarakabrahma. Hanumān Ji preached to the devotee of Śrī Hāri Vīshnu and other Rishis "I myself, Śrī Ganēshā, Goddess Saraswati, Goddess Durgā, All the Guardian (Khetra Pāl), Sun (Suryā), Moon, Lord Śrī Hāri Nāräyana, Lord Naräsimha, Lord Vāsudev (Śrī Krishnā), Lord Vāraha etc. All are the mere parts of Lord Śrī Rāma. Lakshmāna, Shātrughna, Bharata, Vibhishana, Sugriva, Angad, Jambavant and Pranav (Om ॐ) are also parts of Lord Śrī Rāma.

6•

यस्यांशेन एव ब्रह्म विष्णु महेश्वरा अपि जाता महाविष्णुर्य्यस्य दिव्यगुणाश्च ।

स एव कार्यकारणयोः परः परमपुरुषो रामो दाशरथिर्वभुव॥

(Atharvavedā Shäkhayam Vedsaropanishad, Uttarkhand)

From whose Portions (Ansh) Brahma, Visnu and Mahesvara are manifested, Whose divine Guna is Mahavisnu, The only one who is the cause of all causes, The one who is higher than the highest, such is Śrī Rāma, the son of Dasratha. (Approx same shloka is also found in Vashisht Samhita Ch. 26 and Samved Sudarshan Samhita 1–5.)

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7•

ब्रह्मविष्णु महेशाद्या यस्यांशा लोकसाधकाः ।

नमामि देवं चिद्रूपं विशुद्धं परमं भजे ॥

(Skāndh Puranā uttarkhand in Narad Sanathkumar Dialogue Ayodhya Mahatamya 1.3)

Meaning:~ I bow down to the most pure Sachidānand Śrī Rāma, who fulfills the desired wishes of the whole world, the deities like Brahmā, Vīshnu and Maheshā etc. are his mere parts. I concentrate my mind on his hymns.

8•

सारद कोटि अमित चतुराई । बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता । रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ॥

(ŚrīRāmacaritamānasa 7.92.3/5)

Śrī Rāma is as sharp as countless millions of Saraswatis-s and possesses the creative skill of a myriad Brahmā-s. Again, He is as good a preserver as billions of Vishṇu-s and as thorough a destroyer as billions of Rudra-s.

9•

यो रामः कृष्णतामेत्य सार्वात्म्यं प्राप्य लीलया । अतोषयद्देव्मौनिपटलं तं नतोऽस्म्यहम्।।

(Atharvavedā Shrüti Krishnōpanishad 1.1)

That Śrī Rāma, who transformed himself (incarnated) as Krishnā, attained Sarvaatmakta (सार्वभौमिकता) by his very lilā (divine exploits, pastimes); and thus deities-sages-masses were completely satisfied on this earth. I make prostration before that same Śrī Rāma.

10•

अहं ते हृदयं राम त्वं नाभि पितामहः। कंठस्ते नीलकण्ठऽसौ भ्रुमध्यं च दिवेश्वरः।।

(Skāndh Purān, Nirvāan Khänd, Chapter 32)

Sri Hāri Vīshnu says to Śrī Rām, I am your heart, Brahma is your navel, Shiva is your throat and Surya is the center of your eyebrows, O Rama! Greetings to you.

11•

Not only Śrī Rāma but Śrimati Sītā Maharani is also original form of Shakti;

Śrī Sītā has been depicted as the Original form of all Shakti in Vedās as shown below,

सा देवी त्रिविधा भवति शक्त्यासना इच्छाशक्तिः क्रियाशक्तिः साक्षाच्छक्तिरिति इच्छाशक्तिस्त्रिविधा भवति श्रीभूमिनीलात्मिका भद्ररूपिणी प्रभावरूपिणी सोमसूर्याग्निरूपा भवति

Athârvavedā Shäkhayam Sītā Upänīshad 1.11/12

Śrī Sītā is threefold through Her power, namely the power of desire, the power of action, and the power of knowledge. Taking the incarnation of Śrī Devi (Śrimati Lakshmi), Bhudevi, Neeladevi, the one who benefits everyone with her influence, shines in the form of moon, sun and fire.

12•

That's why in Śrīmad Vālmiki Rāmayan which is itself Incarnation of Vedās clearly says that Śrī Sītā is even Śrī of Bhagwāti Śrī.

वसुधाया हि वसुधां श्रियः श्रीं भर्तृवत्सलाम् ।
सीतां सर्वानवद्याङ्गीमरण्ये विजने शुभाम् ।।

(Valmiki Ramayan 6.111.24)

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13•

Same is said by Brahmānd Purān,

सीतायाश्च त्रिविधाशाः श्री भूनीलादिभेदतः
श्री भवेद् रुक्मिणी भूः स्यात् सत्यभामा वृढव्रता ॥
नीलास्याद् राधिका देवी सर्वलोकैक पूजिता ।

In short, Śrī Sītā manifests herself in three form Śrī, Bhu and Nila. By Śrī she becomes Rukmini by Bhu she becomes Satyabhama and by Nila she becomes Radha Rani Sarkār who is worshipped in all Lokas.

14•

नारायणोपि रामशः शंखचक्रगदाव्जधृक्। चतुर्भुजस्वरूपेण वैकुण्ठे च प्रकाशते॥
अवतारा बहवः सति कलाश्र्चांशविभूतयः।
राम एव परं ब्रह्म सच्चिदानन्दमव्ययम्।।

(Samved Śrī Bhardwaj Samhita)

Śrī Hāri Nāräyana is an incarnation of Śrī Rāma and shines in Vāikunth in the form of four arms with conch, chakra and mace. There are many incarnations of Śrī Rāma differentiating by Kalãs, Part, Vibhuti etc. But Śrī Rāma himself is Par-Brahma who is devoid of Māya in his two armed form.

15•

वासुदेवादि मुर्तिनाम् चतुर्नाम् कारणं परम्।
चतुर्विंशति मुर्तिनाम् आश्रय श्रीरामः शरणं मम।।

(Brihād Brahmā Samhitā 2.7.8)

Śrī Hāri Nāräyana says to Brahmā, The supreme cause of the four vyuhas, such as Vāsudeva. Śrī Rāma, the shelter of the twenty-four avtars, is my refuge.

16•

द्विहस्तमेवऋञ्च शुद्धस्फटिकसन्निभम्।
मरीचिमण्डले संस्थं बाणाद्यायुधलाञ्छितम्।।
किरीट हार केयूर वनमाला विराजितम् ।
पीताम्बर धरं सौम्यं रूपमाद्यमिदं हरेः॥

(Narad Panchratra Śrī Padma Samhita)

Concluding meaning is that, In the Sun (the divine light/effulgence), there is the original primeval-form of Śrī Hāri having one face and two hands with bow and arrow."

17•

राम एव परं ब्रह्म परमात्माभिधीयते। रामात्परतरं नास्ति यत्किचित्स्थूलसूक्ष्मकम्॥

ब्रह्मविष्णुशिवाः सर्वेइंद्रो निर्वरुणो यमः । सूर्यश्चंद्रश्च खं भूमिराकाशस्त्वनिलो ह्यपः॥

सर्वे ते रामचंद्रस्य तेजसा संप्रतिष्ठिताः । भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वे रामसमुद्भवम्॥

(Śrī Parāshara Smriti)

Meaning- Lord Śrī Rāmbhadrā is the Supreme God, whatever is gross and subtle, none of them is beyond Śrī Rāma, that is why Brahma, Vishnu, Shiva all these and Indra, Agni, Varun, Yama, Sun, Moon, Heaven, Earth, sky, wind, water, all these have been established by the glory of Lord Śrī Rāmachandrā and all these three times past, future and present and whatever will be born and has been born in these three times, all that has been born from Śrī Rāma only.

18•

द्विभुजो जानकीजानिस्सदा सर्वत्र एव हि। भक्तेच्छातः पुनर्जातो वैकुंठे ते चतुर्भुज।।

(Shiv Samhita, 5th patal, chapter 2)

The two-armed Janakivallabh shri ram you are always everywhere. By the will of your devotee, you take 4 handed narayan form in vaikunth.

19•

परान्नारायणाच्चापि कृष्णात्परतरादपि। यो वै परतमः श्रीमान् रामो दाशरथिः स्वराट् ॥

यस्यानन्तावताराश्च कला अंशाविभूतयः । आवेशाविष्णुब्रहोशाः परब्रह्मस्वरूपभाः ॥

(Vashistha Samhita, Chapter 26, verse 17/18 )

The one who is beyond Śrī Hāri Nāräyana, who is beyond even Śrī Krishnā, who is the most Paratammamvarat Paramatma, that is Dashrath's son Raghavā. उन्हीं के परधाम में, अयोध्याविहारी श्रीरामचन्द्रजी के विभूतियां एवं आवेशावतार, कलावतार तथा अंशावतार अनेक रूप से प्रभृति हैं तथा परब्रह्म के स्वरूप ऐश्वर्यादि से सादृश्यापन श्रीविष्णु, ब्रह्मा एवं ईश-शंकरादी हैं ।

20•

सूर्यस्यापि भवेत्सूर्यो ह्यग्नेरग्नि प्रभोः प्रभुः। श्रियः श्रीश्च भवेदग्र्या कीर्तिः कीर्त्याः क्षमाक्षमा ।।

दैवतं दैवतानां च भूतानां भूतसत्तमः । तस्य के ह्यगुणा देवि वने वाप्यथवा पुरे ॥

(Śrī Valmiki Rāmāyaṇa 2.44.15/16)

"Oh, Kausalya! Rāma is the sun of even sun (the illuminator of even sun), He is the fire of even fire, he is the Narayan (prabhu*) of the Narayan (*here the word prabhu denotes narayan not Devatas, as devata are already mentioned in next shloka) ,(Śrimati Sītā is) the Śrī of Śrī i.e. the Goddess of even Śrī-devi (Lakshmi), the foremost glory of glory, the forbearance of forbearance, the Devata of all Devata, and the foremost being (i.e. the Supreme-being) among all the beings. Indeed, what misfortune could be ever there for such Rama whether he lives in the forest or city?

21•

श्रीराम एव सर्व कारणं तस्य रूप द्वयं परिछिन्न मपरिछिन्नं परिछिन्न स्वरूपेण साकेत प्रमदावने तिष्ठन रास मेव करोति द्वितीयं स्वरूपं जगद्पत्वादेः कारणं तद्दक्षिणांगात्क्षाराबि्ध शायी वामांगाद्रमा वैकुण्ठवासीति हृदयात्पर नारायणो वभूव चरणाभ्यां वदरिको पवन स्थायी शृङ्गारान्नन्दनन्दन इति ।

(Athârvavedā Shäkhayam Vishwambharopanishad Ch. 1 Verse 5)

श्रीराम ही सब के कारण रूप हैं। उन श्रीरामजी के दो स्वरूप है, एक परिछिन्न रूप दूसरा अपरिछिन्न, प्रथम परिछिन्न रुप से श्रीरामजी साकेत लोक में प्रमोद्वन में रह कर केवल रासलीला करते हैं, द्वितीय अपरिछिन्न स्वरूप से संसार की उत्पत्ति का कारण हैं। उनके दहिने अंग से क्षीर समुद्र वासी अष्टभुजा भूमा पुरुष हुए हैं, वामांग से रमा वैकुण्ठ वासी हुए हैं। हृदय से परनारायण अर्थात् विरजा नदी के पार जो नारायण रहते हैं। चरणों से बद्रीबन निवासी नर नारायण हुए हैं, शृङ्गार से नन्दनन्दन श्रीकृष्णजी हुए हैं।

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22•

राघवस्य गुणो दिव्यो महाविष्णुः स्वरुपवान ।
वासुदेवो घनीभूतस्तनुतेजः सदाशिवः ।।
मत्स्यश्च रामहृदयं योगरुपी जनार्दनः ।
कुर्मश्चाधारशक्तिश्च वाराहो भुजयोर्बलं।।
नारसिंहो महाकोपो वामनः कटिमेखला।
भार्गवो जंङ्घयोर्जातो बलरामश्च पृष्ठतः।।
बौद्धस्तु करुणा साक्षात् कल्किश्चित्तस्य हर्षतः ।
कृष्णः श्रृङ्गाररुपश्च वृन्दावनविभूषणः ।।
ऐते चांशकलाः सर्वे रामो ब्रह्म सनातनः ।

[Narad Panchratra Sudarshan Samhitā 1-5]

When the infinite auspicious divine qualities of lord Śrī Ram takes form, he becomes Lord Maha-VishNu. Śrī Ram's auspicious condensed divine splendour is Lord Vasudeva, Matasya-avatar (the fish incarnation) appeared from Shri Ram's heart, Kurma-avatar (the tortoise-incarnation) is manifestation of his support power, Varaha (the divine boar incarnation) is the manifestation of his arm's strength. Lord Narsimha appears from his anger, Lord Vamana appears from his waist, Lord Parashuram appears from his thigh, Bauddha appears from his compassion, Kalki appears from his delight, and Vrindavan-Vihari Shri Krishna himself is his Shringaar-Swarupa (the Madhurya-incarnarion of Shri Ram). Thus all these incarnations are parts (Amsha) and Kala-s of Lord Śrī Ram and Lord Ram is Amshi (the origin), the eternal Brahman and Bhagavan himself.

23•

एवं सर्वेऽवताराः श्रीरामचन्द्र चरण रेखाभ्यः समुद्भवन्ति तथाऽनंत कोटि विष्ण्वश्च चतुर्व्यूहश्च समुद्भवन्ति एवमपराजितेश्वर मपरिमिताः परनारायणादयः अष्टभुजा नारायणादयश्चानंत कोटि संख्यकाः वद्धांजलि पुटाः सर्व कालं समुपासते यदाविष्ण्वादीन यदाऽज्ञापयति तदा तद्ब्रह्माण्डे सर्व कार्यं कुर्वन्ति ते सर्वे देवाद्विविधाः भिन्नांशा अभिन्नांशाश्च श्रीरघुवर मुभये सेवन्ते भिन्नांशा ब्रह्मादयः अभिन्नांशा नाराणादयः ।

(Atharvavedā Shäkhayam Vishwambhar Upanishad Ch. 1 Verse 3)

Similarly, all the incarnations appear from the line of the feet of Śrī Rāmachandrā. The infinite Vīshnu and the Chatūrvyuha, namely Aniruddha, Pradyumna, Sankarshana, and Vasudeva, are all manifested from him. Ayodhyapati Śrī Rām has such immense influence, in front of whom infinite Para Narayan, Ashtabhuja Narayan (Bhuma Purush) stand with folded hands and worship him at all times. When innumerable millions of Brahma, Vishnu, Shiva etc. get the command, they all do all the work of creating, maintaining, destroying and so on of the millions of universes. Those gods like Vishnu, Shiva etc. are all of two types one is a Bhinn (भिन्न) from them and one is an integral (अभिन्न) part. They all serve Śrī Raghunath Ji, the Bhinn (भिन्न) parts are the gods like Brahma, Shiva, Indra etc. and the integral parts are the incarnations like Narayana, Vishnu etc.

24•

उपजहिं जासु अंस ते नाना। संभु बिरंची विष्णु भगवाना।।

(Śrīmad Ramcharit Manas, Balkand 1.144)

Meaning :- Many Lord Shivā, Brahmā and Vīshnu appear from the mere part of Śrī Rāma.

25•

अस्मत्स्वामिना रामस्यैव नारायणस्य सकल जगत्परायणस्याशेन भवता भवितव्यम् ।

(Brihād Vīshnu Purān 4.3.53)

Śrī Jambavant says to Shri Krishna that just as Śrī Hāri Nāräyan is a portion (अंश) of my Lord Shri Ram, similarly you are also a part of Śrī Hāri Nāräyan who is Parāyan of the whole world.

Their are infinite things to quote, just concluding by saying that Shri Ram is both Avatār and Āvatari, Shri Hari Vishnu takes Shri Ram Avatar to prēCH the character of Shri Ram in the material world and sometimes the lord of Saket Paratpār Par-Brahmā Śrī Rām himself descends on the earth.

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Superior personality of Maha Upanishad

सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

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Mahā Upaniṣad exists in two versions, one attached to the Atharvaveda in some anthologies and another attached to the Sāmveda. The Atharvaveda version is shorter, and in prose. The Sāmveda version is partly in poetic verses.

The very first Shlokā of this Upaniṣad itself says to whome this text is dedicated;

यन्महोपनिषद्वेद्यं चिदाकाशतया स्थितम् ।
परमाद्वैतसाम्राज्यं तद्रामब्रह्म मे गतिः ॥

( Mahā-Upaniṣad 1.1 )

यन्महोपनिषद्वेद्यं ~ who is alone to be known by Mahā Upaniṣad.

चिदाकाशतया स्थितम् परम~ who situated in Highest abode in Chida-Kash ( त्रिपाद विभूति परव्योम में भी जिसका परम धाम है )

अद्वैतसाम्राज्यं ~ Sui Juris Kingdom (means no one has Kingdom like him, Ayodhyā)

तद्रामब्रह्म मे गतिः ~ That (Par)Brahma Śrī Rām is my ultimate refuge.

One who is alone known by Mahā Upaniṣad itself, the one who is situated in the highest abode in Tri-Pāad Vibhuti, who has Sui Juris Kingdom (Nitya Ayodhyā / Sāket).That Par-Brahm Śrī Rām is my ultimate Refuge.

So from the very first Shlokā ITSELF it has been clear that for Śrī Rāma alone this Upaniṣad has been dedicated. Next Shlokā is very interesting that Shows that alone Śrī Nārāyan (Sri Rām) Exists in starting, No Brahmā, No Rudra, No, Waters, No Fire and No Soma, No Heaven and No Earth, No Stars, No Sun and No Moon.

अथातो महोपनिषदं व्याख्यास्यमस्तदाहुरेको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानो नापो नाग्नीषोमौ नेमे द्यावापृथिवी न नक्षत्राणि न सूर्यो न चन्द्रमाः ।

(Mahā-Upaniṣad Chapter 1)

Here one should not get confused with that “Śrī Rām" is not present but “Śrī Nārāyan". Actually according to Vedās Śrī Nārāyan is manifestation of Śrī Rām as said in Various Vedic Text so it's Śrī Rām himself who is in the form of Śrī Hari Nārāyan;

1•

श्रीमद्वाराहोपनिषद्वेद्याखण्डखाकृति ।

त्रिपान्नारायणाख्यं तद्रामचन्द्रपदं भजे ॥

(Krishna Yajurvedā Shākhayam Vārāha Upanishad 1.1)

One who (alone) is known by Śrīmad Varahopanishad, who is form of eternal bliss, who has been manifested (known) as Narayan in Tri-Pāad. I worship that Śrī Rāma's lotus feet.

2•

नारायणं नारसिंहं वायुदेवं वाराहं तत्सर्वान्त्समात्रान्त्सीतं लक्ष्मणं शत्रुघ्नं भरतं विभीषणं सुग्रीवमङ्गदं जाम्बवन्तं प्रणवमेतानि रामस्याङ्गानि जानीथाः

(Yajurvedā Shākhayam Rām Rahāshya Upanishād 1.7½)

Lord Śrī Hari Nārāyana, Lord Narasimha, Lord Vāsudev (Śrī Krishnā), Lord Vāraha etc. All are the parts (अंश) of Lord Śrī Rāma. Lakshmāna, Shātrughna, Bharata, Vibhishana, Sugriva, Angad, Jambavant and Pranav (Om ॐ) are also mere portions of Lord Śrī Rāma.

3•

श्रीराम एव सर्व कारणं तस्य रूप द्वयं परिछिन्न मपरिछिन्नं परिछिन्न स्वरूपेण साकेत प्रमदावने तिष्ठन रास मेव करोति द्वितीयं स्वरूपं जगद्पत्वादेः कारणं तद्दक्षिणांगात्क्षाराबि्ध शायी वामांगाद्रमा वैकुण्ठवासीति हृदयात्पर नारायणो वभूव चरणाभ्यां वदरिको पवन स्थायी शृङ्गारान्नन्दनन्दन इति ।

(Atharvaveda Shākhayam Vishwambhar Upanishad Ch. 1 Verse 5)

Translating Highlighted~ Śrī Rām alone is the cause of EVERYONE. From whose heart, Śrī Hari Nārāyan manifests and whose adornment manifests as Śrī Krishnā.

Śrī Rām is alone cause of all causes the Param Kāran this is being said by non-other than Śrī Hari Nārāyan Himself;

वासुदेवादि मुर्तिनाम् चतुर्नाम् कारणं परम्।
चतुर्विंशति मुर्तिनाम् आश्रय श्रीरामः शरणं मम।।

(Brihād Brahmā Samhitā 2.7.8)

Śrī Hāri Nāräyana says to Brahmā, The supreme cause of the four vyuhas, such as Vāsudeva. Śrī Rāma, the shelter of the twenty-four avtars, is my refuge.

And all these incidents can be confirmed by Śrī Vashistha Samhitā;

4•

परान्नारायणाच्चापि कृष्णात्परतरादपि। यो वै परतमः श्रीमान् रामो दाशरथिः स्वराट् ॥

Vashistha Samhita, Chapter 126, verse 17

The one who is beyond Śrī Hāri Nāräyana, who is beyond even Śrī Krishnā, who is the most Paratammamvarat Paramatma, that is Dashrath's son Śrīmān Rām.

So in that “नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानो" of Mahā-Upanishad alone Śrī Rām resides as being in the form of Śrī Hāri Nārāyan.

This condition is same like that of Śrīmad Vālmiki Rāmāyan where Śrī Rām appears in the form of Vishnu to give boon to worshippers that he will come as Śrī Rām, The boon given by Lord Shri Vishnu to the deities was also a secret leela, at that time on the request of the deities who were afraid of Ravana, Sarveshwar Shri Ram himself appeared before them in the form of Mahadyuti Vishnu i.e. स्वप्रकाश Nārāyan Vishnu, for this reason Maharishi Valmiki says Narayan Specifically by saying all-pervading Vīshnu (tato nārayano vishnuḥ - Śrī Vālmiki Rāmāyana 1.16.1), by this Shri Raghunath ji has been indicated, that is, it was Raghunath ji who gave a boon to the deities in the form of Narayan and made them fearless, And thus by which Sarveshwar Shri Ram can take manifestation from his own self according to his promise, because Lord Shri Ram is an Avataari (अवतारी) of Vishnu too - (Prabho: Prabhu - Valmiki Ramayana 2.44.15). The lord of Vishnu too - श्रीराम हीं अन्ततः प्रकट हुए,

ततस्त्वमसि दुर्धर्षात्तस्माद् भावात् सनातनात् । रक्षार्थं सर्वभूतानां विष्णुत्वं उपजग्मिवान् ॥

(Śrī Vālmiki Rāmāyaṇa 7.104.9)

"After my prayers in the begining of the creation, Oh Rāma ! You forsaken Your durdharsa (the swarupa which is difficult to be achieved for many i.e. the eternal two armed Śrī Rāma form) and assumed the form of Vīshnu for the sake of protection and sustenance of all the beings."

Although this is matter of Par-Tattva Nirupama but Mahā-Upaniṣad confirms that alone Vishnu Tattva is present in starting from that alone everything emerged out.

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Hail to Śrīmad Tulsidas Ji Maharaj 🚩

Hail to Ānand Bhāshyakār Śrīmad Jagādgurü Ramānandacharya 🚩

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सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

Although everything of Ānand Bhāshyakār Śrīmad Jagadguru Rāmānandāchārya is unique but one of the most unique thing that I personally like is, “He was Damm!! strict on the word like Brahma". Non of his disciple dares to speak the word “BRAHM". When Śrīmad Jagadguru Rāmānandāchārya has written commentry on Brahma Sūtra know as Śrī Ānand Bhāshya than one of his disciple said, “O Gurudev! I have never seen such a beautiful representation of Brahman in Prasthanatrai's Bhashya." अब होना क्या था😂

Śrīmad Ādya Jagadguru Rāmānandāchārya frown his brows to that disciple and said, “What is this Brahman-Brahman, that Supreme Purusha name has been said by Rahasya Vedānt and he is Śrī Rām alone, get away from my sight"

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Here many people are not able to understand why Śrī Ācharya Charan has said Rahasya Vedānt (=Rahasya Upanishad). Let's break this mystery !!

See, Vedas top notch parts are Upaniṣads that's why they are called as Vedānt, where Vedas get end (वेदांत= वेद + अंत, जहां वेदों का अंत होता है). And in that top notch, Rahasya Vedānt are the top most or we can say superior to other Vedānt as siad in Śrī Sukha Rahasya Upanishad;

चतुर्णामपि वेदानां यथोपनिषदः शिरः ।

इयं रहस्योपनिषत्तथोपनिषदां शिरः ॥

Shuka Rahasya Upanishad 1.14

Just as the Upanishads are the highest among the four Vedas, so the Rahasya Upanishad is the highest among all the Upanishads.

Now come to Rahasya Upanishad;

1.

एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्म तारकम् ।
राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः ।।
राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम् ।।

वायुत्रेणोक्तास्ते योगीन्द्रा ऋषयो विष्णुभक्ता हनूमन्तं पप्रच्छुः रामस्याङ्गानि नो ब्रूहीति ।
वायुपुत्रं विघ्नेशं वाणीं दुर्गां क्षेत्रपालकं सूर्यं चन्द्रं नारायणं नारसिंहं वायुदेवं वाराहं तत्सर्वान्त्समात्रान्त्सीतं लक्ष्मणं शत्रुघ्नं भरतं विभीषणं सुग्रीवमङ्गदं जाम्बवन्तं प्रणवमेतानि रामस्याङ्गानि जानीथाः (Above, eva = एव means Alone)

(Atharvavedā Shākhāyam Rām Rahāshya Upanishād 1.6/7½)

Overall meaning ~

Alone Śrī Rām is Highest Brahman, Alone Śrī Rām is Highest Penance, Alone Śrī Ram is Highest Tattva and Alone Śrī Rām is Tārak Brahma. And rest Śrī Hari Nārāyan, Śrī Vārāha, Śrī Vāsudeva (Krishnā), Śrimati Durga, Śrī Sūrya etc. all are his parts (manifestation).

2.

प्रज्ञानादिमहावाक्यरहस्यादिकलेवरम् ।

विकलेवरकैवल्यं त्रिपाद्राममहं भजे ॥

(Krishna Yajurveda Shäkhāyam Shuka Rahasya Upanishad 1.1)

Overall meaning ~

Prag-gyanam brahm etc. Maha-Vakyās of Ved-Vedant are dedicated to Tri-Pād vibhuti Śrī Rām alone !

3.

प्रतियोगिविनिर्मुक्तब्रह्मविद्यैकगोचरम्

अखण्डनिर्विकल्पं तद्रामचन्द्रपदं भजे ॥

(Krishna Yajurveda Shäkhāyam Saraswati Rahasya Upanishad 1.1)

I worship the lotus feet of Lord Shri Ramchandra, who has no alternative, i.e. he is Nirvikalpa, when Brahmavidya is said, only Shri Ram is visible and who is free from all kinds of competition (to be superior as nobody can be like him).

For that reason Śrī Ādya Jagadguru Rāmānandāchārya said “Rahasya Vedānt".

Well, forget this Rahasya Upanishad, every single letter of Vedas are dedicated to Śrī Rām alone as siad;

समस्तवेदान्तसारसिद्धान्तार्थकलेवरम् ।

विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥

(Sarv Sāar Upanishad 1.1)

Overall meaning ~

I worship lotus feet of Śrī Rām to whome alone every meaning of Ved-Vedant is dedicated. It means that where ever Supreme Purusha has been discussed in Vedās he is Śrī Rām alone !!

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Is Shiv Samhita found today?

सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

First understand their are two Shiv Samhitā, one is dedicated to Yōgic Kriyās and all and second one is dedicated to Rasopāsna of Śrī SītāRām.

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The Shiv Samhitā which is available on Internet is actually Shiv Yog Samhitā but the second one is highly secretive, can only be found to the Rasik devotees of Lord Rāma (especially to Rāmānandīs).

In fact no one should have any doubt on its authenticity as it has been quoted in various scriptures;

1. In Bhaktmāl (in 1560)~

आगमोक्त शिवसंहिता अगर एकरस भजन रति । उरग अष्टकुल द्वारपति सावधान हरिधाम थिति ॥

Śrī Bhaktmāl, Purvärdh, Chappay 27

2. In Śrī Brahma Vāivart Purān~

वसिष्ठं नारदीयं च कापिलं गौतमीयकम् ।
परं सनत्कुमारीयं पञ्चरात्रं च पञ्चकम् ।।

पञ्चकं सहितानां च कृष्णभक्तिसमन्वितम् ।
ब्रह्मणाश्च शिवस्यापि प्रह्लादस्य तथैव च ।।

(Brahma Vāivarta Purān / Khand: 4 (Sri Krishna Janma Khanda:) / Chapter: 133 / Verse 24,25)

And this Shiv Samhitā comes under Nārad Pānch-Rātra as stated above in Shlokā !!

And don't worry !! above Reference are for that Rāsik Shiv Samhitā only.

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Here is pics of that samhita;

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But it can't be use in public circular as unauthorised people are prohibited to even touch that.

Sorry I can't quote Rāsik Shlokās but can quote Parattva Shlokās for Śrī Rām from this;

अयोध्यापतिरेव स्यात् पतीनां पतिरीश्वरः । अन्याषां मथुरादीनां रामांशाः पतयो यतः ॥

द्विभुजो जानकीजानिः सदासर्वत्रशोभते । भक्तेच्छातो भवेदेव वैकुण्ठेतु चतुर्भुजः ॥

परा सा रूप लावण्या नित्यं द्विभुजमेवतत् । परमं रससम्पन्नं ध्येयं ध्येयविदां सदा ॥

(Shiv Samhitā, Chapt. 2, Verses 17,16,20)

The lord of Ayodhyā is Śrī Rāma, who is also the lord of lords, because Mathurā and other liberating cities are from the portions of Śrī Rāma, therefore Śrī Jānki Nāth Raghunāth is always adorned everywhere. To fulfill the devotees' feelings and desires, the same Lord Śrī Rāma appears in Vaikuntha with four arms. Śrī Jānki, who is the Prān-Vallabhā of the Lord, endowed with the transcendental form of beauty, also ever dwells with two arms. Therefore this eternal two-armed form of Lord Rama is the supreme goal of the devotees who know the mystery of meditation.

मत्स्य कूर्म किरिर्नैको नारसिंहोऽप्यनेकधा । वैकुण्ठोऽपि हयग्रीवो हरिर्वामनकेशव ॥

यज्ञो नारायणोधर्मपुत्रो नरवरोऽपि सः । देवकीनन्दनः कृष्णो वासुदेवो बलोऽपि च ॥

पृश्निगर्भो मधुन्माथी गोविन्दो माधवोऽपि च । स्वयं ज्योतिः परोनन्तः संकर्षण इलापतिः ॥

प्रद्युम्नोप्यनिरुद्धश्च व्यूहासर्वेपि सर्वदा । रामं सहोपतिष्ठन्ते रामादेश व्यवस्थिताः ॥

एतैरन्यैश्वसंसेव्यो रामो नाम महेश्वरः । तेषामैश्वर्यदातृत्त्वात् मूलत्त्वाच्च निरीश्वरः ॥

(Shiv Samhitā Chapter 2, Verses 24-28)

Matsya- Kurma-Varaha- Narasimha and many types of Bhagwat Swarup- Vaikuntha Hayagriva- Hari- Vamana- Keshav- Yagya Narayan- Nara Narayan-Devkinandan Shri Krishna- Vasudev- Balaram- Prishni- Garbha- Madhusudan- Govind- Madhav- Sankarsaran- Anant, ilapati ( Prithu) Pradyuman - Aniruddha etc. vyuha, all of them always follow the orders of Sri Rama and shines with Sri Rama in the form of accompaniment. Along with all these, including all other gods and goddesses, Sri Rama is served as the great God. Being the original person who bestows all these wealth, Sri Rama alone is without God as he is GOD.

इन्द्रनामा च इन्द्राणां पतिः साक्षी गतिः प्रभुः । विष्णु स्वयं सविष्णूनां पतिर्वेदान्तकृद् विभुः ॥

ब्रह्मा स ब्रह्मणांरुद्राणां स पती रुद्रो रुद्रकोटिनियामकः ॥कर्ता प्रजापति पतिर्गतिः ।

(Shiv Samhitā, chapter 2 verses 29-30)

Among the Indrās, the lord of all the Indrās, the Supreme Lord Shri Rām is Mahindra. Among the forms of Vishnu, the doer of Vedas and Vedanta is the universal Lord Shri Ram is Maha-Vishnü. Prajapati Brahmā’s doer-holder lord and the only Gati Shri Ram is Mahā-Brahmā, similarly Mahā Rudrā, the lord of all Rudras, the controller of crores of Rudras is also Prabhu Śrī Rām.

चन्द्रादित्य सहस्राणि रुद्रकोटि शतानि च । इन्द्रकोटि सहस्राणि विष्णु कोटि शतानि च ॥

ब्रह्म कोटि सहस्राणि दुर्गा कोटि शतानि च । महा भैरवकल्पानि कोटयर्बुद शतानि च ॥

अवतार सहस्राणि भक्त कोटि शतानि च । गन्धर्वाणां सहस्राणि देव कोटि शतानि च ।।

वेदाः पुराण शास्त्राणि तीर्थ कोटि शतानि च । देव ब्रह्म महर्षीणां कोटि कोटि शतानि च ॥

सभार्यस्य निषेवन्ते स श्रीरामहमीरितः ॥

(Shiv Samhitā, Chapter 2, Verse 31-34)

Thousands of sun-moon-hundred crore Rudras, thousands of Indras, hundreds of crores of Vishnu, thousands of Brahma-hundreds of crores of Durga, Maha Bhairav ​​etc., billions of thousands of incarnations and crores of devotees of those incarnations, thousands of Gandharvas and billions of Gods, Vedas-Puranas and scriptures. Crores of crores of pilgrimages, Dev-Brahmins, Maharishi etc., to whom crores of crores of people serve continuously, is described by the name as Lord Śrī Ram.

 

यं वेदान्त विदो ब्रह्म वदन्ति ब्रह्मवादिनः । परमात्मेति च योगीन्द्राः भक्तास्तु भगवानिति ।।

यज्ञो विष्णुरिति स्पष्टमृत्विजो बुवते बुधाः । स्वभावकाल कर्मादि शब्दवाच्यं तु हैतुकाः ॥

भोगेनासौ स्वतः पूर्णो दाता भगगरणस्य च । स्वतोऽवाप्त समस्तर्द्धी रामकामवरप्रदः ॥

नारायण सहस्राणि कृष्णाद्याः शत कोटयः । कोटि कोटयवताराश्च जाता रामांघ्रि पंकजात् ॥

(Shiv Samhita, chapter 2, verse 36-39)

वेदान्त तत्व के जानने वाले ब्रह्मज्ञानी जिसको 'ब्रह्म' कहते हैं, योगीन्द्र महात्मा जिसको परमात्मा कहते हैं, भक्त जन जिसको भगवान कहते हैं, ऋत्विजगरण "यज्ञो वै विष्णुः" ऐसा विद्वान स्पष्ट उद्घोष करते हैं। नैयायिक तर्क प्रधान तथा कर्म शास्त्र की मीसांसा करने वाले जिसको काल-कर्म-स्वभाव का प्रेरक ईश्वर कहते हैं, वही श्रीराम है। वह अपने भोगैश्वर्य से स्वतः परिपूर्ण आप्तकाम सर्वकाम है तथा अन्य उपर्युक्त अपने अंश कालाशों से भगवान् कहे जाने सभी को उत्कृष्ट भोग ऐश्वर्य प्रदान करने वाले महादानी दाता हैं, सभी को कामना पूर्ति का वर प्रदान करने वाले श्रीराम ही हैं। हजारों नारायण तथा सैकड़ों कोटि श्रीकृष्णादिक अवतार उनके श्रीचरणों के चिन्हों से होते रहते हैं।

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So that's few Shlokās from Śrī Shiva Samhitā.

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Lord Shiva on Adwait

सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

People generally think of Lord Shiva = Adwait, but that's not correct as in Śrī Saṁpradāya whose lineage starts from Śrī SītāRām ( Ramanandis ) has a very next level love for Jagadguru Śrī Shiva;

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Because of Lord Shiva only today peoples are able to listen and recite Śrīmad Rāmcharit Mānas as he is the author of that. Infact lord Shiva has also created one of the largest Rāmāyaṇa known as Śrīmad Maha-Rāmāyana (महा-रामायण) in 3,50,000 Shlokās even much bigger than Śrīmad Mahabharat but again this can't be made public as it is only for Rāsik Devotees of Lord Śrī SītāRām. (रामानंदियों ने सारे ग्रंथ छुपाकर ही रखे हैं).

They never public that as unauthorised people are present who will never able to understand Rasopāsna of Lord Śrī SītāRām.

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But from that Śrīmad Maha-Rāmāyana I am providing few Shlokās which will clear your doubt regarding lord Shiva's take on Adwaita.

Śrīmad Maha-Rāmāyana, Canto 50, Shlokā 21–26;

श्रीरामं ये च हित्वा खलमति निरता ब्रह्मजीवं वदन्तिते मूढा नास्तिकास्ते शुभगुणरहिता सर्वबुद्धयातिरिक्ताः । पापिष्ठा धर्महीना गुरुजन विमुखा वेदशास्त्रे विरुद्धास्ते हित्वा गांगं रविकिरणजलं पान्तुमिच्छन्त्यतृप्ताः ॥ 21

Śrī Shiv ji says that O Parvati! Those who, abandoning devotion to Śrī Rām, fall in the trap of delusional dogmatists who say that the Jeev is Brahman, they are fools, atheists, devoid of auspicious qualities, devoid of religious deeds, alienated from teachers and against the Vedas. They want to quench their thirst by drinking dew drops, renouncing the pure water of Śrīmati Ganga Ji.

ये मर्त्या रामपादौ सुखप्रदविमलौ संविहायार्तबन्धोः ते मूढा बोध हेतुं घृतपरिघटने वारिमन्थानयुक्ताः । योब्रह्मास्मीति नित्यं वदन्ति हृदि विना रामचन्द्रांघ्रिपद्मंते बुद्धयात्यक्तपोतास्तृणपरिनिचये सिंधुमुग्रं तरन्ति ॥ 22 ॥

Those who abandoning the feet of Shri Raghunändan, leaving the humble and merciful Prarāti Haran Prabhu, keep on working hard only to get dry knowledge, they are like a fool who churns water to extract Ghee. In whose heart there is no abode of the lotus feet of Śrī Raghunändan; Only those who keep chanting "Aham Brahmasmi Aham Brahmasmi" are as brainless as one who abandons a strong ship and crosses the vast ocean on a bundle of grass.

ये केवलाद्वैत मतानुरक्ताः श्रीराममूर्तिं विमलां विहाय। ते स्वामहश्यां हरिदश्वमूर्तिम् पश्यन्ति मूढाः प्रतिबिम्ब कुम्भे॥ 23 ॥

Those who give up worshiping the pure idol of Śrī Rām and are devoted only to Adwait, they are as unintelligent as those who try to see the reflection of the sun falling in the water of a pitcher, without seeing the actual Suryanarayana.

ये रामभक्ति सुविहायरम्याम्ज्ञाने रताप्रतिदिनं परिक्लिष्ट मार्गे । श्रारान्महेन्द्रसुरभिं परिहृत्यमूर्खाअर्कं भजन्ति सुभगे सुख दुग्ध हेतोः ॥ 24 ॥

Those who abandon the most delightful devotion to Shri Rām and wander daily in the path of extremely painful knowledge, are like those who try to get milk by plucking Aak (Mandar) leaves, abandoning Kamdhenu who resides in the house.

त्यक्त्वा श्रीरघुनन्दनं परतरं सद्ज्ञानरूपं तथा- ब्रह्मण्येव वदन्ति ये सदसतोः पूर्णं सदाकाशवत् । ते वै तण्डुलहेतवे तुषमहो निधन्ति दुर्बुद्धयःछित्त्वामूलमुपाश्रयन्ति च दलं तैः सद्गुरुनकृतः॥ 25 ॥

Those who renounce the shelter of the feet of Sri Raghunath Ji, the Supreme Perfect Brahman, the perfect Sadgyān Swaroop, and tell the knowledge of the Aakash-like Brahman who is full of Sat and Asat , are like those who leave paddy for rice and only thresh straw and is as fool who cut down the root of a tree and seek comfort in the shade of its leaves.

किं वर्णयामि बिमले बहुभिः पुकारैः सीतापते र्विगतज्ञान विशेष सर्वम् । ज्ञानं तदेव कुसुमं च यथा न भोग्यं सत्यं वदामि च तदा न सुखं च स्वप्ने ॥ 26 ॥

Shri Shivaji says, O pure hearted Parvati! How much can I explain in many ways? Understand that anyone who wants to know any other tattva without knowing Sri Sitapati Lord Sri Rama can never attain happiness even in his dreams like one who desires to attain the flowers of the sky.

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सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

The first chapter of Valmiki Ramayana is called moola-Ramayana - which was narrated by Devarshi Narada to Brahmarshi Valmiki muni. Moola Ramayana has so many references - to arrive to this conclusion that Shri Ram is the most superior personality, in fact it is an eulogy to the supreme personality by Sage Narada. This is the reason it is chanted daily by many devotees.

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Once divine sage Narada visited Sage Valmiki's hermitage, and then Sage Valmiki enquired from divine sage Narada about the person who is the most virtuous, who is the absolute-like, and his some of many traits of that Absolute. Then in order to enlighten Sage Valmiki about such a personality on earth who is completely absolute-like, Narada briefs Valmiki about Sri Rama & Ramayana. Sage Narada was sent by Lord BrahmA to keep Valmiki informed about his duty to compose Ramayana for lok-mangal (bringing auspiciousness in all the worlds through Rama-Katha) and reinforcing the true imports of Vedas. Valmiki composed the excellent theme of the story of Rama.

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The various references suggest Lord BrahmA adores Shri Ram, and He got mantra of Sri Ram from Sri Hari Vishnu. The Shatkoti-Ramayana, the theme comprising one hundred million verses was prepared and explained by Lord BrahmA to Narada, and wanted him to impart this to Valmiki to compose Ramayana - this is Guru-Shishya Parampara of Valmiki Ramayana.

Why such an enquiry?

Sage Valimiki was not an ordinary sage, he was a brahm-realised sage, often visited by great personalities like divine Sage Narada and Lord BrahmA, etc. In the begining of Ramayana, Sage Valmiki enquires about a Purusha who is the most virtuous, and completely absolute-like! Sage Valmiki was an expert of Vedas and known of how Vedas extol the supreme being, still Valmiki wants to get a full picture to whom Veda extols and attribute incomparable transcendental qualities to explain him. His intention is to know is such an absolute whom Vedas extol present in form of a purusha (man) in world (for his lila to increase the Madhurya-rasa), and if it is so, then who is he and how is he? Upon this enquiry by extolling many transcendental qualities, divine sage Narada sent by Lord BrahmA answers there is one such a person, renowned as Rama by his name (रामो नाम जनैः श्रुतः) in whole world who has such unattainable qualities which can't be counted.

It is a coincidence of interests of sage Valmiki and those of divine sage Narada and Lord BrahmA.

Why this enquiry from divine sage Narada?

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Opening verse of Ramayana introduces Saga Narada with following four attributes:

1) तपः निरताम् Eternally engaged in 'Tapah' i.e. 'thinking of the Absolute', Contemplating upon the Brahm/Absolute is called 'Tapah'.
2) स्वाध्याय निरताम् : Swadhyay (always engaged in the study and recitation of vedas)
3) वाग्विदाम् वरम् : also being sublime enunciator of Vedas among all expert enunciators
4) मुनि पुंगवम् : the one that stood tall among all the Munis (sages).

Having these four attributes, Devarshi Narada was a proper sage for Sage Valmiki to discuss and enquire, by virtue of being sublime enunciator of Vedas among all expert enunciators, and a constant thinker of the Absolute. He is also one of the brain-childs (manas-putras) of Lord BrahmA. In Narada PuRama, Vyutpatti of word 'nArada' is as given नारदीये- 'नारदो नाशयन्नेति नृणामज्ञानजं तम:' - the one who destroys the A~jnana of men is called Narada.

तपः स्वाध्याय निरताम् तपस्वी वाग्विदाम् वरम् ।
नारदम् परिपप्रच्छ वाल्मीकिः मुनि पुंगवम् ॥

Translation: A thoughtful-meditator, an eternally studious sage in scriptures about the Truth and Untruth, a sagacious thinker, and a sublime enunciator among all expert enunciators is Narada, and with such a Divine Sage Narada, the Sage-Poet Valmiki is inquisitively enquiring (about a purusha who is Sarva-Guna-Sampann i.e. a composite for all merited endowments in his form and calibre). [Valmiki Ramayana 1.1.1]

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Sage Valmiki ernestly inquired with Narada about such a purusha who is Sarva-guna-Sampann (mine of all auspicious qualities) in his 16 questions indicative of 16 attributes (qualities) of that Purusha. It is on the pattern of enquiry we find into Upanishad about 'Shodashkala-Purusa' as well as enquiry into Brahman (Athato Brahma Jijnasa) in Brahm-sutra. First there is an enquiry and then there is description of such personality.

A brahm-realised sage like Valmiki need not to enquire and attempt to author about some king, however great that king might be, He needs such a hero for his epic who has 16 attributes ('Shodashkala-Purusa'- indicative of the supreme) and completely Absolute-like in his traits. Those 16 attributes required by Valmiki are : 1 - guNavaan 2 - viryavaan 3 - dharmaj~naH 4 - kR^itaj~naH 5 - satya vaakyaH 6 - dhR^iDha vrataH 7 - caaritravaan 8 - sarva bhuuteShu hitaH 9 - vidvaan 10 - samarthaH 11 - priyadarshana 12 - aatmavaan 13 - jita krodhaH 14 - dyutimaan 15 - anasuuyakaH 16 - bibhyatidevaaH. These sixteen attributes are attributed to the sixteen phases of the Full Moon, this indicates Hero of Valmiki Ramayana, Shri Rama is pleasing like the full moon having 16-Kalas.

Since an emperor cannot be expected to possess all these great qualities mentioned in Valmiki’s questions, it eventually culminates in the Supreme God alone who came down to this world in the human form for his divine play. The cause of rapture of Narada is the opportunity that he luckily got to analogize the excellencies of the supreme Lord. Thus by asking 16 questions, Valmiki indicated Shri Ram is the supreme being in just opening verses of Ramayana.

Those sixteen questions asked by Valmiki are:

कोन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान् ।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ॥

Who really is that person in this world, who is
1) of adorable and admirable character and having all excellent qualities (गुणवान् guṇavān),
2) of great valor (वीर्यवान् vīryavān),
3) of acute discernment about right and wrong (धर्मज्ञ dharmajña),
4) that appreciates, and is grateful (कृतज्ञ kṛtajña),
remembers good things done to him, but never remembers any number of bad things done to him,
5) always truthful in his statements (सत्यवाक्यो satyavākyō),
6) and firm in his vows (till such time he achieves the results) (दृढव्रतः dṛḍhavrataḥ)?
[Valmiki Ramayana 1.1.2]

चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।
विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः ॥

who is he
7) conduct-wise blent with good conduct and reputation (चरित्रवान् caritravān) ,
8) who always wishes and does good to all beings (सर्वभूतेषु हितः sarvabhūtēṣu hitaḥ),
9) who is knower of everything which is to be known (विद्वान् vidvān),
10) who is the ablest one, (capable of doing things which can't be done by others or is impossible for others) (समर्थः samarthaḥ),
11) who is solely delightful in appearance (causing happiness to everyone) at all times (एक प्रियदर्शनः ēka priyadarśanaḥ in whole world)?
(such an attractive one who can entice all beings!!)
[Valmiki Ramayana 1.1.3]

आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोऽनसूयकः ।
कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ॥

Who is a person
12) of exemplary courage (आत्मवान् ātmavān),
13) of conquered anger (जितक्रोधो jitakrōdhō) ,
14) of great splendour (splendorous) (द्युतिमान् dyutimān) ,
15) that is unbiased and non-jealous (अनसूयकः anasūyakaḥ),
16) and Who is that, when excited to wrath, even the devatas are afraid of (let alone foes) (बिभ्यति देवाः bibhyati dēvāḥ)?
[Valmiki Ramayana 1.1.4]

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे ।
महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम् ॥

O Maharshi (Narada), you would assuredly be aware of
such a person if one ever existed.
Indeed my inquisitiveness is immense and
I long to know about such a person from you.
[Valmiki Ramayana 1.1.5]

श्रुत्वा च एतत् त्रिलोकज्ञो वाल्मीकेः नारदो वचः ।
श्रूयताम् इति च आमंत्र्य प्रहृष्टो वाक्यम् अब्रवीत् ॥

On listening these words of Valmiki, Sage Narada who is knower of everything that happened in all the three worlds, having invited him to sit before him said with delight Listen to me and spoke - [Valmiki Ramayana 1.1.6]

Here sage Narada delighted from the enquiry by Sage Valmiki as He was on visit for the same purpose to inform him about Shri Rama alone.

बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः ।
मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः ॥

Oh! Sage Valmiki, the merits which you have extolled are many, and very rare and unattainable (for any Prakrut-Purusha एते प्राकृतपुरुषमात्रे दुर्लभा) ! It is indeed difficult to find a person with the admirable and such rare qualities that you mentioned. However, there is one such person with all these qualities that I know (from Lord BrahmA). Let me tell you about him. [Valmiki Ramayana 1.1.7]

The idea behind words बहवो दुर्लभाः गुणाः is - such many or infinite and unattainable attributes is not possible even for great gods, let alone men (Prakrut-Purusha) on earth, It is possible in supreme being alone, none else. So if there is a man on earth with such unattainable attributes then he is supreme being alone.

इक्ष्वाकु वंश प्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः ।
नियत आत्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान् वशी ॥

He is known to all by the name Rāma, emerged from the Ikshwāku dynasty. He is Niyat-Aatma (having steady nature - meaning thereby of immutable form i.e. the Absolute one), Mahaa-veer (possessing incomprehensible prowess), Dyutimaan (self-effulgent), Dhr^itimaan (self-commanding or sublime bliss - as per Vedanta) and Vashii (subjecting senses under his control or the one who keeps whole cosmos under his control). [Valmiki Ramayana 1.1.8]

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In this verse (1.1.8), there are four attributes given to Sri Rama by Narada, these are also given by Vedanta to Supreme being, the Absolute one.

'Niyat-Aatmaa' - means 'the immutable Absolute' : Sri Rama is the Niyat-Aatma (the immutable Absolute) in his nature.

'Mahaa-viiryah' - means 'of incomprehensible prowess' : Supreme being is Mahaa-viir.

'Dhr^itimaan' - धृतिमान् निरतिशयानन्दः। "धृतिस्तु तुष्टिः सन्तोषः" इति वैजयन्ती। "आनन्दो ब्रह्म" इति श्रुतेः। dhṛtimān means 'sublime bliss' - Sri Rama is the very form of sublime bliss.

'Vashii' (वशी) - means 'the omnipotent on the entire universe or supreme controller' e.g. 'एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा. एकं रूपं बहुधा यः करोति ।’ – Kathaupanishad 2/2/12. Katha Upanishad says ‘The one Controller, the inner self of all beings who makes his one form manifold;’ (Katha Upanishad).

बुद्धिमान् नीतिमान् वाङ्ग्मी श्रीमान् शत्रु निबर्हणः ।

He (Sri Rama) is an adept one great intellectual, learned in moral philosophy, proficient in speeches (in all kinds of knowledge), possessing vast auspiciousness, destroyer of foes (sins).

After explaining bhagavan's nature, sage Narad explains godly physical aspect of Bhagavan:

विपुलांसो महाबाहु: कम्बुग्रीवो महाहनु: ॥
महोरस्को महेष्वासो गूढ जत्रुः अरिन्दमः ।
आजानु बाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः ॥

He is broad-shouldered, strong armed, possessing conch-shaped neck and has prominent and strong cheeks. He is lion-chested, is armed with a great bow, knee-length are his arms, He is the destroyer of foes (sins), and his emperor's countenance is with a crowning-head with an ample forehead, and his pacing is lion-like. [Valmiki Ramayana 1.1.9-10]

Here, while extolling physique of Shri Ram, sage Narad mentions Sri Ram has a long bow in his arms. It means Shri Ram always wields bow as his weapon.

समः समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान् ।
पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवान् शुभलक्षणः ॥

Mighty and powerful Sri Ram has a well-proportioned body, neither tall nor short, with limbs poised symmetrically, bluish-hued skin, complexioned glossily, well-developed chest, wide-eyes, lustrous body and of auspicious qualities. [Valmiki Ramayana 1.1.11]

This way sage Narada explained godly physical aspect which is Sarvangsundar (with transcendental beauty from head to toe) and perceptible by his adherents as said in Chhandogya-Upanishad.

य एषो ऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेशः आप्रणखात्सर्व एव सुवर्णस्तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी । - ॥Chhandogya-Upanishad १.६.६॥ इत्यन्तरादित्यविद्योदितं सर्वाङ्गसुन्दरविग्रहं दर्शयति- विपुलांस इत्यादिना सार्द्धश्लोकद्वयेन ।

Now, that Purusha (person), effulgent as gold, who is seen within the sun (effulgence), is exceedingly effulgent even to the very tips of his nails. His eyes are bright like a red lotus.

Now, sage Narada explains the qualities which are reassuring for the devotees:

धर्मज्ञः सत्यसन्धः च प्रजानाम् च हिते रतः ।
यशस्वी ज्ञान संपन्नः शुचिः वश्यः समाधिमान् ॥

Sri Rama is the knower of Dharma, He always honors his words, He is constantly engaged in the welfare and well-being of the people. He is glorious whose unblemished reputation is renowned in all the worlds. He is omniscient and pure (clean in his conduct). He is obedient to elders (or accessible to those who are dependent on him) and ever meditating on the means of protecting those who take refuge in him. [Valmiki Ramayana 1.1.12]

After describing Sri Rama's essential nature of Niyat-Aatma (immutable Brahm), bliss, omniscient, etc as well as his Sarvang-sundar bodily aspect, Sage Narada extolls Shri Ram by giving him the similes of the best qualities present in great deities like Prajapati, Indra, Moon, Samudra, Vishnu, fire etc. It means these all deities including Lord Vishnu are all Upmaans (similes) and Shri Ram is the Upameya (the subject of comparision).

प्रजापतिसमश्श्रीमान् धाता रिपुनिषूदनः ।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ॥

He equals the Prajāpati, and He surpasses the entire world in auspiciousness. He is Dhaataa i.e. He is sustainer of all the worlds, and he eliminates enemies completely. He is the protector (a guardian) of all living beings, and he guards probity, in its entirety.[Valmiki Ramayana 1.1.13]

रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्व जनस्य च रक्षिता ।
वेद वेदाङ्ग तत्त्वज्ञो धनुर् वेदे च निष्ठितः ॥

Sri Rama the champion of his own self-righteousness and also champions for adherent's welfare in the same righteousness, and he is a scholar in the essence of Veda-s and their ancillaries, too. He is an expert in dhanur Veda, the Art of Archery.[Valmiki Ramayana 1.1.14]

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञस्स्मृतिमान्प्रतिभानवान् ।
सर्वलोकप्रियस्साधुरदीनात्मा विचक्षणः ॥

Sri Rama knows the true meaning of all scriptures and has infalliable retentive memory. He is talented (possessing brightness of conception). He is beloved and well-disposed towards all people (and courteous even towards those who have done harm). He has an unperturbed mind even in times of extreme grief and is circumspect in doing right things at the right time. [Valmiki Ramayana 1.1.15]

सर्वदाभिगतस्सद्भिस्समुद्र इव सिन्धुभिः ।
आर्यस्सर्वसमश्चैव सदैकप्रियदर्शनः॥

Like an ocean that is reached by many rivers accesbly, that reverential one, Sri Rama too is always accessible and reachable men of virtue, and He has equal disposition towards all. He is ever a feast to eye. [Valmiki Ramayana 1.1.16]

स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः ।
समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ॥

In summary, Shri Rama who enhances the happiness of his mother Kausalya is an embodiment of all noble qualities and attributes, one can ask for. In profundity he is like an unfathomable ocean, and by fortitude he is unalterable like the Himalayas, the king among mountains. [Valmiki Ramayana 1.1.17]

विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः ।
कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः ।
धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः ॥

In valour Sri Rama is equal to Vishnu, and in his looks he is attractive like full-moon, he equals the earth in his perseverance, but he is matchable with era-end-fire in his wrath... and in benevolence he is identical to Kubera, God of Wealth-Management, and in his candour he is like Dharma itself, the other God Probity on earth. [Valmiki Ramayana 1.1.18, 19a]

Thus, following references in the Moola-Ramayana shows Shri Rama is the most superior personality, the absolute one himself:

समर्थः (samarthaH) - The ablest one , who is capable of doing things which can't be done by others or is impossible for others)!

सर्वभूतेषु हितः (sarvbhUteshu hitaH) - Who wishes welfare and well-being of all beings! (like a true eternal friend)

बिभ्यति देवाः (bibhyati devAH) - From whom even Gods fear, let alone foes!

सदैकप्रियदर्शनः (sadaik priyadarshanaH) - who is solely delightful in appearance (causing happiness to everyone) at all times (एक प्रियदर्शनः in whole world)!

बहवो दुर्लभाः च एव ये त्वया कीर्तिता गुणाः (bahavo durlabhAH cha eva ye tvayA kIrtitA guNAH )- His qualities and virtues are infinite (many) and the most rare and unattainable.

नियत आत्मा (niyat AtmA) - the immutable absolute

महावीर्यो (mahAvIryO) - Of incomprehenssible prowess

द्युतिमान् (dyutimAn) - Self-resplendent (in Ayodhya-Kanda, Sri Rama is said to be illiuminator of all gods.)

धृतिमान् (dhRRitimAn) - The sublime bliss

वशी (vashii) - the supreme controller of entire cosmos

धाता (dhAtA) - He is sustainer of all the worlds. The word 'dhaataa' in sanskrit is used for supreme being.

रक्षिता जीवलोकस्य (rakShitA jIvalokasya)- He is the protector of all living beings in the world.

सर्वलोकप्रिय (sarvlokpriya) - He is very dear to all the worlds.

सर्वगुणोपेतः (sarvguNopetaH) - He is abode of anant Kalyan-gun-ganas (auspicious and excellent qualities).

प्रजापति समः (prajApati samaH) - He is a guardian equal to Prajapati (people's god).

विष्णुना सदृशो वीर्ये (viShNunA sadRRisho vIrye) - His valor is equal to Vishnu. [Vishnu is renowned for most valorous personality in the world, however Shri Rama is said to be promoter of even Vishnu's strength. Sri Rama is Prabhoh Prabhu i.e. the god of god.]

सोमवत्प्रियदर्शनः (somavat priyadarshanaH) - in his looks Shri Rama is attractive like full-moon. Since full-Moon is renowned for pleasing the world, so Rama is given simile of full-moon.

काल अग्नि सदृशः क्रोधे (kAla agni sadRRishaH krodhe) - He is the era-end fire in his anger!

क्षमया पृथ्वी समः (kShamayA pRRithvI samaH) - He is as patient and forbearing as Mother Earth.

सत्ये धर्म इव अपरः (satye dharma iva aparaH) - He is the Dharma on the earth.

पाद अंगुष्टेन चिक्षेप संपूर्णम् दश योजनम् ॥ (वाल्मीकि रामायण १-१-६५)
pAda aMguShTena chikShepa saMpUrNam dasha yojanam ॥ (vAlmIki rAmAyaNa 1-1-65) -

Just by mere TIP of his toe, he thrown 'the skeleton of Dudumbhi' resembling a great mountain wholly to a ten yojana-lengths!!! (Sri Krishna's leela of lifting Govardhana is almost similar to this.)

नित्यम् प्रमुदिताः सर्वे यथा कृत युगे तथा । (वाल्मीकि रामायण १-१-९४)
nityam pramuditAH sarve yathA kRRita yuge tathA । (vAlmIki rAmAyaNa 1-1-94) -

people lived in high gladness during the earlier Krita era, likewise people will live in Rama's period also with the same gladness!

यः पठेत् राम चरितम् सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥ (वाल्मीकि रामायण १-१-९८ )
yaH paThet rAma charitam sarva pApaiH pramuchyate ॥ (vAlmIki rAmAyaNa 1-1-98 ) -

whoever reads this Legend of Rama, he will be verily liberated of all his sins...

Now at several places in Moola-Ramayana, Bhagavan Sri Ram has been given similes of the best qualities present in deities like Prajapati, Indra, Moon, Samudra etc, it means these all deities along with Vishnu are all his Upmaans (similes) and Sri Ram is the Upameya, the one who has everything (the best qualities present in others) and thus completely incomparable to any other personality, because other personality is best in one, yet Shri Ram is the best in all his Kalyan-gun-ganas (which are infinite in number). So, whatever best is available in the whole cosmos from divam (from Vaikuntha) to Vibhuti Loka, they all are (in existence in those deities as) mere parts of the supreme glory of Bhagavan Sri Rama! Sri Ram is the original divinity, the original Parambrahman who is the source of all the best qualities, and powers present in other deities.

When Someone is the most superior personality, so we have to find the second-best one to give similes to him, as there is none other in similitude for the most superior e.g. Sri Ram is pleasing like moon. Moon is the best known in the world for pleasing people, hence no other similitude is possible to denote the pleasing countenance of Sri Rama! But definitely moon is not as pleasing as Sri Ram, because 'Ramo Ramaytam Varam' - Rama is the best in delighting people. Sri Rama is valorous like Vishnu (as Vishnu is widely renowned for his valor, but he is not as valorous as Sri Ram!). As there is none other in similitude, so Sri Rama is compared with Vishnu. Similarly in forbearance there is none as renowned as Goddess Earth in whole world, Earth personally does not grieve when people tread on it, trample, dig, cut, or whatever is done to her. Similarly, Sri Rama personally gets unaffected, whatever harm is done to him, He doesn't remember any number of bad done to him, so He is comparaed with the entity who has the highest degree of forbearance, however Sri Rama becomes wrathful, if that harm is committed to dharma or his devotees and then he becomes like the era-end fire. Thus in a way sage Narada is extolling Oh Bhagavan Sri Rama is the most superior personality in cosmos from divam to Vibhuti Loka.

श्री राघव किसी के अवतार नहीं अपितु स्वयं सर्वावतारी पुरुष हैं, उन्ही के अंश मात्र से अनंत ब्रह्मा-विष्णु-शिव प्रगट होते हैं, वाल्मीकि रामायण के प्रथम सर्ग में हीं विष्णु, प्रजापति, अग्नि, चन्द्रमा, पृथ्वी, इत्यादि की उपमा श्री राम को दी गयी है, यहाँ श्री राम उपमेय हैं और विष्णु, प्रजापति, चन्द्रमा, अग्नि इत्यादि उपमान । अर्थात श्री राम अंशी हैं और बाकी विष्णु से लेकर जीव-पर्यंत सब अंश हैं । श्री राघव के अनंत घनीभूत तेज को परा-वासुदेव या महाविष्णु कहते हैं।

Please Chant SitaRam SitaRam SitaRam

Hail to Śrīmad Goswami Tulsidas Ji 🚩

Hail to Ānand Bhāshyakār Śrīmad Jagādgurü Ramānandacharya 🚩

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सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

Very great question you have asked !!

See, their is a very common saying, “As Father As Son".

What ever be the appearance of a father around same will be the appearance of a son (avoid genetic variations). Means, if father have 1 face, 2 hands and 2 feet than son will also have same phenotypic appearance. If a father have just double of above mentioned than his son will also follow the same.

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According to Vedās and other scriptures the original personality of godhead is same like human in the form and a myth will also be bursted that lord is totally Nirakaar according to Vedās;

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥

(Śrīmad Rāmcharit Mānas 7.13.6)

Vedas are telling to Śrī Rām:~ Let those who meditate on Brahma (the Absolute) as unborn, the one without a second, perceptible only through intuition and as beyond the ken of mind, preach and believe like that. We, for our part, O Lord, ever chant the glories of Your visible form. O All-merciful and All-effulgent Lord, O mine of noble virtues, this is the boon we ask of You: may we love Your feet, casting off all aberrations of thought, word and deed.

What vedas said in Rāmāyan they are following that;

1.

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः ॥

(Rigved, Mandala 10, Sukta 90, Richa 12)

From that Paratpār Par-Brahma, Brahmins came from his mouth, Kshatriyas came from his two hands, Vaishya came from his thighs and Shudra came from his feet.

(One thing should be noted that बाहू has been used in Dwi-Vachan means indicating two arms)

2.

प्रजापतिर्दश हस्त्या अङ्गुलयो दश पाद्या द्वा ऊरू द्वौ बाहू

(Aitereya Aranaka 1.3.5)

The creator has ten finger in his hand, ten in his feet, he has two thighs and two Arms.

3.

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः ।

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥

(Manusmriti, Chapter 1, Verse 31)

For the purpose of the growth of society, he (Par-Brahma) created Brahmin from his mouth, Kshatriyas from his two hands, Vaishya from his thighs and Shudra from his feet.

(Here again बाहू has been used which indicates two arms of Supreme Being)

4.

नमुक्तो नापि नित्यस्तु जीवादन्यः परः पुमान् । द्विहस्तं ह्येकवक्त्रं च शुद्ध स्फटिक सन्निभम् ॥ सहस्रकोटि वह्नीन्दुलक्ष्य कोट्यर्क सन्निभम् । पीताम्बरधरं सौम्यरूपमाद्यमिदं हरेः ॥

(Brihad Brahma 1.13.16,17)

Beyond the liberated and eternal councilors, the Supreme Soul, having two hands and one face, is resplendent like crores of suns. And in that sun resides primeval (original) form of God wearing yellow robes (पीताम्बर).

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5.

रामात्संजायते कामः कामाद् विश्वं प्रजायते । तस्मात्धनुर्धरात्सर्वे द्विभुजा मूलरूपिणः ॥

(Atharvaveda Pippalād Shākhayãm)

Kama is generated from Shri Ram and the world is generated from Kama itself, and kama being a part of Dhanushdhari Shri Ram, all the creatures are two armed in their original form.

(Quoted by Śrī Rām Charan Dās in 1750 in ŚrīRām Navratan SārSangrah)

6.

यो विश्वचर्षणिरुत विश्वतोमुखो यो विश्वतस्पाणिरुत विश्वतस्पृथः। सं "बाहुभ्यां" भरति सं पतत्त्रैर्द्यावापृथिवी

(Atharvaveda 13.2.23)

(यः) जो [परमेश्वर] (विश्वचर्षणिः) सबका देखनेवाला, (उत) और (विश्वतोमुखः) सब ओर से मुख [मुख्य व्यवहार वा उपाय] वाला, (यः) जो (विश्वतस्पाणिः) सब ओर से हाथ के व्यवहारवाला, (उत) और (विश्वतस्पृथः) सब ओर से पूर्तिवाला है। (एकः) वह अकेला (देवः) प्रकाशस्वरूप [परमात्मा] (बाहुभ्याम्) दोनों भुजाओं से (पतत्रैः सम्) गमनशील परमाणुओं के साथ (द्यावापृथिवी) सूर्य पृथिवी को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (सम्) यथावत् (भरति) पुष्ट करता है ॥

7.

आनन्दो द्विधः प्रोक्तो मूर्तश्चामूर्त एव च ।
अमूर्तस्याश्रयोमूर्तः परमात्मा नराकृतिः ।
स्थूलं चाष्टभुजं प्रोक्तं सूक्ष्मं प्रोक्तं चतुर्भुजम्।
द्विभुजं परात्परं प्रोक्तं तस्मादेतत्त्रयं यजेत्॥

(Nārad Panchrātra Ānand Samhitā)

The Ananda (Bliss which is the essential nature of Bhagavan) is of two kinds - one is Saguna-Brahm and another is Nirguna-Brahm. Of these two, Saguna-Brahm has a form like a Human and He is the basis of the Nirguna-Brahm. There are three kinds of Human-forms of Bhagavan, Sthula (gross), Sukshma (subtle) and Paratpar (the most superior). Sthula-Brahman is the god with eight arms (i.e. 8 armed Bhuma-Vishnu) and is visible, but the form of Vishnu who has 4-arms is subtle i.e. He is Sukshma-Brahman, However the God who is of two-armed (i.e. Lord Ram in his eternal form), is the most superior (परं च द्विभुजं रूपं). Therefore, All these three forms of Lord are worshipable for all.

8.

सर्वशक्तिकलानाथं द्विभुजं रघुनन्दनम् ।।
द्विभुजाद्राघवान्नित्यात्सर्वमेतत्प्रवर्तते ।

(Nārad Panchrātra Anant Samhita)

The two-armed Shri Rama in Saketa is the Lord of all powers and Kala-s. From that two-armed eternal Shri Rama alone, all the forms of Lord and entire cosmos came forth!

9.

द्विहस्तमेवऋञ्च शुद्धस्फटिकसन्निभम्।
मरीचिमण्डले संस्थं बाणाद्यायुधलाञ्छितम्।।
किरीट हार केयूर वनमाला विराजितम् ।
पीताम्बर धरं सौम्यं रूपमाद्यमिदं हरेः॥

(Nārad Panchrātra Padma Samhita)

"In the Sun (the divine light/effulgence), there is the original primeval-form of Shri Hari having one face and two hands with bow and arrow who wears Pitambara"

(Quoted from Kalyan Kalpadrum)

10.

नमस्ते अस्तु धन्वने बाहुभ्याम् उत ते नमः॥

(kṛṣṇa-yajurvēda 4.5.1)

"May our salutations be to Your bow and salutations to Your two hands (which wield the bow and the arrow).”

(बाहुभ्याम् has been used in Dwi-Vachan, indicates two arms)

11.

नरतीति नरः प्रोक्तः परमात्मा सनातनः ॥
नृणाति मापयति आनन्दमिति नरः नरति व्याप्नोतीति नरः।

(Mahabharat)

That is, one should know the human form of the eternal God who pervades all beings.

12.

य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषस्तस्य भूरिति शिरः एक शिर एकमेतदक्षरं भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते अक्षरे तस्योपनिषदहरिति हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद॥

(Brihadaranyaka Upanishad 5.5.2)

Of this Purusha, who is in the solar orb, the syllable 'Bhuh' is the head, for there is one head and there is this one syllable; the word 'Bhuvah' is the arms, for there are two arms and there are these two syllables; the word 'Svah' is the legs, for there are two legs and there are these two syllables. His secret name is Ahar. He who knows this destroys evil and leaves it behind.

13.

द्विभुजौ द्विपद द्वि नेत्रे वक्त्रमेकन्तु मन्यताम् । अन्यथा कथनेन चैव वरस्यापि चिदात्मनि ॥ चिद्रूपं परमोदारं जीवेशयोः सनातनम् । द्विभुजं मधुरं भूत्वा कारणरूप मेव च ॥ दोर्दण्ड चण्ड कोदण्ड शरचण्डं महाभुजम् । कन्दर्प कोटि लावण्यं रमणीयं मनोहरम् ॥

(Shiv Samhitā, 5th Patal, Chapter 4)

जीवात्मा भवबन्धन से छूट कर जब भगवद्धाम में पहुँचता है तब उसको अपने प्रभु के समान ही दिव्यरूप प्राप्त होता है, जो दो भुजा वाला, दो पांव वाला, दो नेत्र तथा एक मुखारविन्द वाला होता है। अन्यथा कथन से तो चिदात्मा परमात्मा के स्वरूप का भी भ्रमित ज्ञान हो सकता है जीव तथा ईश्वर का नित्य सनातन सच्चिदानन्द द्विभुज मधुर स्वरूप ही है, वही कारण का भी महाकारण है । अपनी प्रबल प्रतापी भुजाओं में प्रचण्ड कोदण्ड धारण किये हुए महान् भुजा वाले प्रभु का करोड़ों कामदेव से भी अधिक रूप लावण्य सम्पन्न परम रमणीय मनोहर स्वरूप है।

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So from above all scriptural shlokās it has been proved the the original personality has human like form means he has two arms, two legs, one face etc. human features. Many of us might get confused that Śrī Rām & Śrī Krishna both are two armed than who has been called up here? So according to Vedas Śrī Krishna is non other than Śrī Rāma himself;

यो रामः कृष्णतामेत्य सार्वात्म्यं प्राप्य लीलया । अतोषयद्देव्मौनिपटलं तं नतोऽस्म्यहम्।।

(Atharvavedā Shrüti Krishnōpanishad 1.1)

That Śrī Rāma, who transformed (incarnated) himself (incarnated) as Krishnā, attained Sarvaatmakta (सार्वभौमिकता) by his very lilā (divine exploits, pastimes); and thus deities-sages-masses were completely satisfied on this earth. I make prostration before that same Śrī Rāma.

And in Śrī Krishna samhita , lord Krishna himself telling about the Parattva of Śrī Rām to Shruti's;

तत्रास्ति मत्कारणमद्वितीयम् रामं परब्रह्म विशुद्ध बोधम्। विधीश नारायण शेष पूर्वकम्, अहं च तं वर्णवितुं न शक्तः॥

(Śrī Krishna Samhita 3.5, Lord Krishna to Shruti)

Once the Shruti's asked Lord Krishna, Lord! Tell me who is greater than you? Shri Krishna replied: My ultimate cause is the unique and pure Lord Sri Rama, to whom Brahma, Shankara, Narayana, Shesha and I are not able to describe.

परान्नारायणाच्चापि कृष्णात्परतरादपि। यो वै परतमः श्रीमान् रामो दाशरथिः स्वराट् ॥

(Vashistha Samhita, Chapter 26, verse17)

The one who is beyond Śrī Hāri Nāräyana, who is beyond even Śrī Krishnā, who is the most Paratammamvarat Paramatma, that is Dashrath's son Raghavā.

So, Sri Rām is being the cause of all causes shines in the Sāket with Maharāni Siya Ju Sarkar. From him alone everything came into existence wheather Gods, universe etc. anything.

Let's see the Paratpār Swaroop of the Lord of Sāket Śrī SītāRām;

1.

नारायणं नारसिंहं वासुदेवं वाराहं तत्सर्वान्त्समात्रान्त्सीतं लक्ष्मणं शत्रुघ्नं भरतं विभीषणं सुग्रीवमङ्गदं जाम्बवन्तं प्रणवमेतानि रामस्याङ्गानि जानीथाः

(Yajurvedā Shākhayam Rām Rahāshya Upanishād 1.7½)

Lord Śrī Hari Nārāyana, Lord Narasimha, Lord Vāsudev (Śrī Krishnā), Lord Vāraha etc. All are the parts (अंश) of Lord Śrī Rāma. Lakshmāna, Shātrughna, Bharata, Vibhishana, Sugriva, Angad, Jambavant and Pranav (Om ॐ) are also mere portions of Lord Śrī Rāma.

2.

श्रीमद्वाराहोपनिषद्वेद्याखण्डखाकृति ।त्रिपान्नारायणाख्यं तद्रामचन्द्रपदं भजे ॥

(Krishna Yajurvedā Shākhayam Vārāha Upanishad 1.1)

One who (alone) is known by Śrīmad Varahopanishad, who is form of eternal bliss, who has been manifested (known) as Narayan in Tri-Pāad. I worship that Śrī Rāma's lotus feet.

3.

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥

(Śrīmad Rāmcharit Mānas 2.217)

Hey Ram! The world is visible, as you are its watcher. You are the one who makes Brahma, Vishnu and Shankar also dance. Who else is going to know you when they don't even know your essence?

4.

सर्वांल्लोकान् सुसंहृत्य सभूतान् सचराचरान्।
पुनरेव तथा स्रष्टुं शक्तो रामो महायशाः॥

(Vālmīki Rāmāyaṇa - 5.51.39)

Annihilating all the worlds including the elements, their created beings, as well as the entire mobile and immobile creation, the highly illustrious Shri Rāma is capable of creating them over again in exactly the same way.

5.

ब्रह्मविष्णुमहेशाद्या यस्यांशा लोकसाधका: ।
तमादिदेवं श्रीरामं विशुद्धं परमं भजे ॥

(Skanda Puran, Uttar Khand, RamayaNa MahAtmya, 1.3)

“Salutations to that Rama who is the most superior, the primeval lord of universe, and free from all the vices. Brahmā (Brahmaa), Viṣṇu (Vishnu) and Mahesa (Shiva) who are sustainer of the world, are just parts of Lord (Śrī) Rāma .

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6.

सारद कोटि अमित चतुराई । बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता । रुद्र कोटि सत सम संहर्ता॥

(ŚrīRāmacaritamānasa 7.92.3)

“He is as sharp as countless millions of Saraswatis-s and possesses the creative skill of a myriad Brahmā-s. Again, He is as good a preserver as billions of Vishṇu-s and as thorough a destroyer as billions of Rudra-s.”

7.

वासुदेवादि मुर्तिनाम् चतुर्नाम् कारणं परम्।
चतुर्विंशति मुर्तिनाम् आश्रय श्रीरामः शरणं मम।।

(Brihād Brahmā Samhitā 2.7.8, Śrī Hāri Nāräyana to Brahmā)

The supreme cause of the four vyuhas, such as Vāsudeva. Śrī Rāma, the shelter of the twenty-four avtars, is my refuge.

8.

यस्यांशेन एव ब्रह्म विष्णु महेश्वरा अपि जाता महाविष्णुर्य्यस्य दिव्यगुणाश्च । स एव कार्यकारणयोः परः परमपुरुषो रामो दाशरथिर्वभुव॥

(Atharvavedā Shäkhayam Vedsaropanishad, uttarakhand)

Whose Portion (Ansh) are Brahma Visnu and Mahesvara, Whose divine Guna is Mahavisnu, The only one who is the cause of all causes, The one who is higher than the highest, such is Śrī Rāma, the son of Dasratha.

9.

कलायाः पुरुषः साक्षाल्लक्ष्मणो धरणीधरः ॥ कलातीता भगवती स्वयं सीतेति संज्ञिता तत्परः परमात्मा च श्रीरामः पुरुषोत्तमः ।।

(Yajurvedā Shäkhayam Tārsaropanisad 1.3/4)

It is said that Lakshman, the holder of the earth, has arisen from Kala and Kalatita is Goddess Sita herself. And beyond that is the Supreme Personality of Godhead, Purushottam Sri Rama.

10.

सकस्त्वं पुरुषः साक्षात्प्रकृतेः पर ईर्यसे ।
यः स्वांशकलया विश्वं सृजत्यवति हन्ति च।।
अरूपस्वमशेषस्य जगतः कारणं परम्।
एक एव त्रिधारूपं गृह्णासि कुहकान्वितः ।।
सृष्टौ विधातृरूपस्त्वं पालने स्वप्रभामयः ।
प्रलये जगतः साक्षादहं शर्वाख्यतां गतः।।

(पद्मपुराण पातालखंड २८|६८)

आप (श्रीराम) प्रकृति से अतीत (परे) साक्षात् अद्वितीय पुरुष कहे जाते हैं। जो आपकी अंशकला के द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, रुद्ररूपसे विश्वकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करते हैं। आप अरूप होते हुए भी अखिल विश्व के परम कारण है। आप एक होते हुए भी त्रिविधरूप धारण करते हैं। संसारकी सृष्टिके समय आप ब्रह्मारूप से प्रकट होते हैं। पालन के समय स्वप्रभामय विष्णुरूपसे व्यक्त होते हैं और प्रलयके समय मुझ शिव (रुद्र) का रूप धारण कर लेते हैं।

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Glory of Shri Ram's Bow and Arrow

सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।

Nothing in this entire eternal universe can match the glory of the Bow & Arrow of Parātpar Par-Brahma Śrī Rām. Although the glory of his Bow and Arrow is in every scripture but to be specific we will go with Srimad Brihd-Hanuman Nataka 14.7-13;

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बहुचक्र समं विष्णोः बहुशूल समं हरः ।
बहु वज्र समश्वासोः रामबाण प्रतापवान् ।।
तणेनैकशरं करेण दशधा सन्धानकालेशतंचापेऽभूत् सहस्र लक्षगमने कोटिश्च कोटिर्वधे ।
अन्तेखर्वनिखर्व बारण विवधैः सीतापतेः शोभितः
एतद्द्वार पराक्रमस्य महिमा सत्पात्रदानं यथा ।।

Shri Ram's glorious arrow is infinite powerful than Lord Vishnu's chakra, many mighty from Lord Shankar's trishul, infinitely hard from Devendra Purandar's clothes. That arrow of Lord Shri Ram remains one in Tunir (Bhatha), but it becomes of ten types while taking it in hand. When it is put on the string, it assumes a hundred forms, and while being mounted on the bow, it becomes thousands, while leaving the bow to kill the enemy, it becomes millions. And while killing the enemy, he becomes crores of crores. In the end, if needed, it becomes full with the great power of billions and trillions arrows. This is the glory of the prowess of Shriram's arrow. Just like the donation given in a good character keeps on increasing, similarly it also has a strange mighty pastime.

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नागानामयुतं तुरङ्गनियुतं सार्धरथीनां शतम्पत्तीनां दशकोटि सन्निपतने नृत्यत् कबन्धोरणे ।
एवं कोटि कबंध नर्त्तनविधौ नृत्येत्तथा खेचरः तेषां कोटिक नर्त्तने रघुपतेः कोदण्डघण्टारवः ।।

On the death of ten thousand elephants, ten lakh horses, fifty lakh chariots, and ten crore generals, the “Bandha” dances, and the “Khechara" dances on the dance of crores of such “Bandha”. Only a little tinkling (टंकार) of the bow of Shri Raghunath ji is capable of making crores of such “Khechara-s" dance.

एकेनैवशरेण चापकदलीकाण्डप्रभंगः क्रमात् कृत्तेषु प्रथमेषु दाशरथिना तालेषु सप्तस्वयम् ।
अंश्वाः सप्त जिधन्ति सप्तमुनयः सप्ताह्वयः सागराः सोऽयं सप्त च मातरोत्रयभृतः संख्यान साम्यादिह ॥

What is the wonder that Shri Dasharatha Nandan Ram broke all the seven “Taal Trees" with a single arrow? Who can even describe its infinite majesty? These are only seven Rishis, seven horses of the sun's chariot, seven islands, seven seas, seven matrikas, etc. The number of seven is famous in Tribhuvan, so it has been said to drop seven “Taal Trees" by the recognition of these names.

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बाण प्रमाणमधिगम्य वसुन्धरायाः सम्बोधयन्निव भुजंगमभंग भीत्या ।
ब्रह्माण्डसचराचर विधुनातिपक्षान् पुंखावशेष इति रामकराद्वियुक्तः ।।

After getting the knowledge of the matchless glory of the might of Shriram's arrow, Vasundhara may not be broken into pieces by his strike, so Shesh Narayan constantly remembers the Lord. As if addressing the earth that be careful, lest you have to be the target of the Lord's arrow. Because even a small piece of arrow feather released from the hand of Shri Ram is capable of destroying even the infinite universe.

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संग्रामाङ्गणमागतेन भवता चापे समारोपिते- रामाकर्णपथेन येन सहिता यदि सा समासादिता । कोदण्डेन शराशरैररि शिरस्तेनापि भूमण्डलातेनात्तं भवता च कीर्तिरमला कीर्त्या च लोकत्रयम् ।।
संग्रामे रिपु भूभुजां मुखरूचिर्जीवा च देवाङ्गनाचक्षुः प्रोल्लसदस्रमांस निवहैस्तन् मेदिनी मण्डलम् ।
तच्चायोद्भुत बाणसंहतिरभूत् श्रीरामभूमिपतेजम्बुवज्जलबिन्दु वज्जलजवं जम्बालवत् जालवत् ॥

O Ram! When you came to the battlefield and raised your bow, pulled its arrow up to your ear, then your staff with that arrow covered the earth with the heads of the enemies, which produced your pure fame which filled the three worlds . O Bhupal Chudamane! O Sri Rama! The death of the rulers of the enemy side in the battlefield has caused the eyes of the goddesses to blossom as they see the brightness of the faces of those dying kings.

Their heads have covered the earth. The combination of your arrow and bow has produced wonderful miracles like berries, like water drops, like lotuses, and like jambala nets at the same time. That is, at the time of death, the color of the face turns black like a berry, the ephemerality of life like a drop of water, the lotus eyes of goddesses brighten with the death of enemies, and the whole earth like a spider's web from the heads of enemies. The combination of your bow and arrow, which gives the scene of being covered, has become a unique amazing miracle.

(Srimad Brihd-Hanuman Nataka 14.7-13)

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