Agastya Samhita Chapter 131-135

श्रीमद् अगस्त्य संहिता अध्याय १३१-१३५

सिंहासने समासीनः सहितः सीतयानुजैः ।

अतसी कुसुम श्यामो रामो विजयतेऽनिशम् ॥१॥

अर्थ- अतसी यानी तीसी के पुष्प के समान श्याम वर्ण वाले अपने अभिन्न स्वरूपा श्रीसीताजी के साथ दिव्य सिंहासन में विराजमान एवं अनुज श्रीभरतजी श्रीलक्ष्मणजी श्रीशत्रुघ्नजी तथा श्रीहनुमानजी से सदा सेवित सर्वेश्वर श्रीरामजी सर्वदा सर्वोत्कर्ष रूपसे विजय प्राप्त करें अर्थात् सभी परिकरों से सेवित दिव्य सिंहासनासीन श्रीरामचन्द्रजी को सादर दण्डवत् प्रणाम करता हूँ।

स्वाश्रमे संश्रितं शिष्यैः प्रातर्हुतहुताशनम् ।

बोधयन्तं परं तत्वं तमगस्त्यं महामुनिम् ॥२॥

कृतक्षणः सुतीक्ष्णस्तमुपागम्य कृताञ्जलिः ।

पश्यन्वनानि रम्याणि विचरंश्च महामुनिः ॥३॥

भाविनो नृन् कलौ बुध्वा विषयासक्तचेतसः ।

अज्ञानाल्पायुषः श्रीमच्छ्रीशांघ्रिविमुखान्भुवि ॥४॥

संसारार्णवसंमग्नान् कृपालुर्मुनिसत्तमः ।

उद्धर्तुकामस्तांस्तस्मात् पृष्ठवान् श्रेय उत्तमम ॥५॥

अर्थ- संसार रूप समुद्र में भटकते हुये जीवों को देख परमकृपालु श्रीरामजी के साधन परायण मुनिजनो में श्रेष्ठ महामुनि श्रीसुतीक्ष्णजी विषयों में सदा आसक्त मनवाले अज्ञानी एवं अल्प आयु वाले तथा सर्वैश्वर्यशाली सर्वेश्वरी श्रीसीताजी के आराध्य सर्वेश्वर श्रीरामजी के श्रीचरणकमलों से विमुख होने से संसार समुद्र में निमज्जनशील कलिकाल में होने वाले जीवों को अनुभव कर उन जीवों के उद्धार की कामना से दैवी प्रेरणा से सुन्दर अवसर का अनुभव करके रमणीय वन प्रदेश में विचरण करते हुये सुन्दर छटा को देखते हुये श्रीरामजी के अनन्य उपासक अपने गुरुदेव श्री अगस्त्यमुनिजी के आश्रम की ओर प्रस्थित हुये, जहाॅं प्रात: कालिक हवन को सम्पन्न कर स्वाध्याय में अनेक साधक शिष्यों के साथ आश्रम के प्राङ्गण में विराजमान होकर महामुनि श्री अगस्त्य परतत्व ‘श्रीरामतत्त्व’ का उपदेश कर रहे थे, उन महर्षि श्री अगस्त्यजी के समक्ष उपस्थित होकर आदर के साथ दण्डवत् प्रणाम कर हाथ जोडकर विनयपूर्वक सभी जीवों के हेतु उत्तम श्रेय कारक प्रश्न पूछे।

सुतीक्ष्णउवाच~

भगवन् मुनिशार्दूल सर्वज्ञ कलशोद्भव ।

नृणां श्रेयसि मूढानां श्रेयश्चिन्तय सुव्रत ॥६॥

अर्थ- हे भगवन ! मुनिओं में श्रेष्ठ ! सर्वज्ञ ! कलश से उत्पन्न श्रीअगस्त्यजी ! हे श्रेष्ठ व्रत वाले गुरुदेव ! आप अपने उद्धार विषयक विचार के समान ही अपने श्रेय में मूढ - अज्ञानी जीवों के कल्याण के लिये भी चिन्तन विचार करें क्योंकि आप श्रेय कार्य में तत्पर हैं अतः सभी का कल्याण करने में समर्थ हैं।

उपायं वद निश्चित्य तेषां श्रेयो यथा भवेत् ।

परोपकारनिरताः साधवो हि कृपालवः ॥७॥

अर्थ- हे मुनिश्रेष्ठ ! अपने कल्याण को भी नहीं समझने वाले उन मूढ़ जीवों का जिसप्रकार कल्याण हो वैसा सर्वजन सुलभ उपाय को विचार करके कहें क्योंकि आपके जैसे परोपकार में सदा तत्पर रहने वाले कृपालु एवं साधुजन ही दूसरे का कल्याण कर सकते हैं अन्य नहीं।

अगस्त्यउवाच~

कुम्भजोऽथनिशम्येत्थं वाचं मुनिसमीरिताम् ।

अल्पाक्षरमनल्पार्थं धर्मसंप्रश्नभूषिताम् ॥८॥

प्रसन्नवदनाम्भोजः प्रशस्य मुनिपुङ्गवः ।

तं प्रत्युवाच संप्रीतो वाचं हृदयहर्षणीम् ॥९॥

अर्थ- मुनीश्वर श्रीसुतीक्ष्णजी की पूर्वोक्त प्रकार की अल्प अक्षर एवं अतिविस्तृत अर्थ वाली तथा परोपकारमय धर्म सम्बन्धी प्रश्न से विभूषित विनम्र वाणी को सुनकर अति प्रसन्न मुखरूप कमल वाले मुनियों में अतिश्रेष्ठ कुम्भज श्रीअगस्त्य मुनिजी प्रसन्न होकर मुनि श्रीसुतीक्ष्णजी की प्रशंसा करके सर्वजनोपकारी मनोहारी वाणी श्रीसुतीक्ष्णजी को लक्ष्य करके श्रीसनकादिक कुमारों से सुना इतिहास सुनाने के लिये बोले।

श्रूयतामितिहासोऽयं कुमारेभ्यो मया श्रुतः ।

मुनिवर्योमहाभागो जगतामुपकारकः ॥१०॥

हिरण्यगर्भसम्भूतो मतिमान् वाग्विदां वरः ।

सर्वलोकजनान् दृष्ट्वा विमूढा़न् विमुखाञ्छ्रुतेः ॥११॥

चिन्तयन् वत तच्छ्रेयोदिव्यं धाम जगाम सः ।

कृपालुरच्युतस्याद्यं सिद्धिभिः सिद्धभूषणम् ॥१२॥

अर्थ- महर्षि श्रीअगस्त्यजी कहते हैं- हे परोपकार परायण सुतीक्ष्णजी ! सावधानतया पावन प्रसङ्ग को सुनें श्रीसनक सनातन सनन्दन एवं सनत्कुमारों के प्रिय मुख से मैंने जो इतिहास सुना है उसी पवित्र प्रसङ्ग को सुनें- श्रीब्रह्माजी के मानस पुत्र संसार का उपकार करने वाले विद्वानों में अतिश्रेष्ठ परम कृपालु श्रीनारदजी वेद यानी सनातन श्रीवैष्णवधर्म से विमुख एवं अतिमूढ अपने कर्तव्य से रहित सभी जीवों को देखकर उनके कल्याण यानी उद्धार के विचार से अणिमा आदि सिद्धियों से सदा भूषित अनेक सिद्ध पुरुषों से सर्वदा सेवित अपने स्थान से कभी भी विचलित नहीं होने वाले सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी के दिव्यधाम श्रीअयोध्याजी में गये।

तत्र सिंहासनं दिव्यमध्यासीनं जगत्प्रभुम् ।

निजैर्वरायुधैः सर्वैर्मूर्त्तिमद्भिरुपासितम् ॥१३॥

पार्षदप्रवरैः कृत्स्नैर्महार्हाम्बरभूषणैः ।

पद्मपत्रविशालाक्षं पद्मया पद्मनेत्रया ॥१४॥

उपविष्टं जगद्धेतुं नारदोऽपश्यदच्युतम् ।

दिव्याम्बरधरं देवं दिव्यभूषणभूषितम् ॥१५॥

अर्थ- उस अविचल दिव्यधाम श्रीसाकेत में श्रीनारदजी ने मूर्तिमान् अर्थात् दिव्य आकृति धारण किये हुये सभी दिव्य एवं श्रेष्ठ आयुधों-धनुष बाण आदि से सेवित तथा अति मूल्यवान् वस्त्र एवं आभूषण वाले पार्षदों में श्रेष्ठ श्रीहनुमानजी, श्रीअङ्गदजी प्रभृति से सादर अति विनम्र भाव से सेवित, दिव्य वस्त्रों को धारण किये हुये तथा दिव्य भूषणों से विभूषित एवं अति प्रकाशमान तथा अपने धाम से अन्यत्र कभी नहीं जाने वाले (-'अयोध्या क्वापि संत्यज्य पादमेकं न गच्छति' ऐसा आगम वचन है), कमल के समान नेत्र वाली अपने से अभिन्नरूपा श्रीसीताजी के साथ विराजमान एवं स्वयं भी कमल के सदृश मनोहर नेत्र वाले संसार के कारण स्वरूप एवं जगत के आधारभूत स्वामी सर्वेश श्रीरामजी को दिव्य सिंहासन पर विराजे हुये अवलोकन किये।

प्रणतस्तं प्रतुष्टाव हृष्टात्मा जगदीश्वरम् ।

जगद्योनिरयोनिस्त्वंव्यक्तोऽव्यक्ततरोविभुः ॥१६॥

अर्थ- सर्वेश्वर श्रीरामजी की दिव्य झाॅंकी होने के बाद अति प्रसन्नचित्त वाले श्रीनारदजी ने अतिनम्रता के साथ श्रीरामजी को नमन कर जगदीश्वर, सारे संसार के एकमात्र आराध्य श्रीराघवजी की स्तुति की, सर्वेश श्रीरामजी ! आप जगत के कारण हैं सर्वकारण रूप होने से आपका कोई भी कारण नहीं है यानी आप से सब चराचर जगत लोक परलोक सभी उत्पन्न होते हैं पर आप किसी से भी उत्पन्न नहीं होते हैं। आप विभु सर्वव्यापक हैं एवं व्यक्त स्थूल कार्यरूप संसार स्वरूप में हैं तो अव्यक्त- सूक्ष्म कारण रूपमें भी आप ही हैं यानी सूक्ष्म चित् चेतन जीवात्मावर्ग एवं अचित् जड़ प्रकृतिवर्ग एवं स्थूल चित् जीववर्ग और स्थूल अचित् प्रकृतिवर्ग भी आप ही हैं आप से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है अतः इस विश्व के अभिन्न निमित्तोपादान कारणरूप श्रीरामजी ! आपको मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

कर्त्रे विश्वस्य संभत्रै संहर्त्रे ते नमोनमः ।

आदिमध्यान्तहीनाय प्रभवे परमात्मने ॥१७॥

नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते विश्वबन्धवे ।

विश्वम्भर नमस्तेऽस्तु विश्वनाथ कृपाम्बुधे ॥१८॥

अर्थ- हे सर्वेश्वर आप विश्व का सृजन करने वाले पालन करने वाले एवं संहार करने वाले हैं, ऐसे संसार के सृष्टि स्थिति एवं अन्त करने वाले ब्रह्मा विष्णु तथा महेश रूप सर्वेसर्वा आपको बार-बार नमस्कार है। आदि मध्य एवं अन्त रहित सर्व समर्थ तथा सभी के अन्तरात्मा स्वरूप आपको नमस्कार है। समस्त जडचेतनात्मक विश्व स्वरूप आपको बार-बार नमस्कार है। सारे संसार के कल्याणकारक परम बन्धुरूप आपको नमस्कार है। हे विश्व का भरण करने वाले श्रीरामजी ! हे विश्वनाथ ! हे कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी आपको बार-बार सादर नमस्कार है ।

संसारेऽस्मिन् महाघोरे पापाभिरतचेतसाम् ।

जन्तूनां का गतिर्देव कर्मणा भ्रमतामिह ॥१९॥

अर्थ- हे देव ! इस महाभयानक संसार में अपने कर्म फलानुरूप भ्रमण करने वाले एवं सदा पाप में ही चित्त देनेवाले जन्तु जीवात्माओं की क्या गति होगी!

आलस्य धर्मे विमुखाविषयाकृष्ट मानसाः ।

सुखायतमानास्ते सुख लेश विवर्जिताः ॥२०॥

अर्थ- वे सभी मनुष्य आलस्य के कारण धर्म से विमुख होकर विषय-वासना की तरफ आकृष्ट होंगे। उस थोड़े से सुख के कारण सम्पूर्ण धर्म को छोड़ देंगे ।

मुक्तिस्तेषां कथं श्रीश भवेद्धर्मे कथं रतिः ।

कृपाकूपार भगवञ्जन्तूनुद्धर माधव ॥२१॥

अर्थ- हे श्रीश - श्रीसीतापति श्रीरामजी! सदा संसार में भ्रमणशील जीवों की मुक्ति कैसे होगी एवं सनातन धर्म में रति प्रेम कैसे होगी ! हे भगवन् षडैश्वर्यशाली श्रीराम जी ! कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी ! हे माधव सर्व जीव रमणशील शरणागतवत्सल श्रीरामचन्द्रजी उन दीन हीन जीवों का उद्धार करें।

श्रुतिस्मृत्युदिता धर्माः क्लेशसाध्या नृभिः सदा ।

अतस्त्वं सुकोपायं वद त्वद्भक्तिवर्धनम् ॥२२॥

अर्थ- श्रीरामजी सायुज्य मुक्ति के साधन श्रुति एवं स्मृति में वर्णित धर्म मनुष्यों से अति क्लेश-कष्ट से साध्य हैं ऐसा साधकलोग सदा से अनुभव करते आये हैं, अतः आपकी भक्ति को बढाने वाला अति सरल उपाय को आप बतायें जिससे कलियुगी जीवगण भी सरलत्या आपको प्राप्त कर सकें।

सर्वबन्धविनाशाय मुक्तये प्राणिनां प्रभो ।

प्रवक्ता त्वं हि धर्माणामविता जगतामपि ॥२३॥

अर्थ- हे प्रभो ! सर्वसमर्थ श्रीरामजी ! आप साधक प्राणिवर्ग के सभी कर्म बन्धनों को नाश कर शाश्वतिक मुक्ति प्राप्ति के मार्ग का उपदेशक हैं एवं अपने सनातन वैदिक धर्म के प्रवक्ता- वास्तविक रूपसे उपदेश करनेवाले भी आप ही है और जगत की तथा संसार के सद्धर्म की रक्षा करने वाले भी आप ही है अत: श्रीरामभद्रजी कलियुग के क्लेश से क्लान्तजनों के उद्धार के लिये सरल उपाय का उपदेश करें।

इत्थमाकर्ण्य भगवान् वाचं मुनिसमीरिताम् ।

तं प्रत्युवाच संप्रीतः शुचिस्मितमुखाम्बुजः ॥२४॥

अर्थ- महर्षि श्रीअगस्त्यजी श्रीसुतीक्ष्ण जी से कह रहे हैं, हे सुतीक्ष्णजी! पूर्वोक्त प्रकार की मुनीश्वर श्रीनारदजी की वाणी को सुनकर मन्द स्मित हास्य से अनमोहक मुखरूप कमल से शोभायमान भगवान् श्रीरामजी अति प्रसन्नतपूर्वक उन श्रीनारदजी को कहे।

मुनिवर्य महाभाग जगतां हितकारक ।

मया जगद्धितायैव पुरैतधारितम् ॥२५॥

हे महाभाग्यशाली मुनिश्रेष्ठ श्रीनारदजी ! जगत् के हित करने वाले हे देवर्षिजी ! जिस संसार के कल्याण के लिये आप आतुर होकर प्रार्थना कर रहे हैं उस जगत् के कल्याण के लिये ही मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है।

दिव्ये हि भारते वर्षे तीर्थराजे सुविश्रुते ।

प्रयागे पुण्यसदने भवद्भिर्नित्यसूरिभिः ॥२६॥

सार्धमेवावतीर्याहं प्रणेष्ये मोक्षसाधनम् ।

दृढसंसारच स्य शातनं भक्तिवर्धनम् ॥२७॥

सुवोधं सुकरं सर्वैर्धर्ममार्गं सुखावहम् ।

वेदवेदान्तसच्छास्त्रसारभूतं सादाश्रयम् ॥२८॥

अर्थ- मुनीश्वर! मैं दिव्य भारतवर्ष के अत्यन्त प्रसिद्ध तीर्थराज प्रयाग में तीनप्रवर वाले वशिष्ठ गोत्रीय शुक्लयजुर्वेदीय वाजसनेय शाखाध्यायी कान्यकुब्ज ब्राह्मण श्रीपुण्यसदनशर्मा जी के घर में आप सब द्वादश महाभागवतों, नित्यसूरियों के साथ अवतार लेकर के संसार रूप दृढ़ चक्र का नाश करने वाला, सभी को सहज रूप से सुन्दर बोध कराने वाला, सभी सत्पदार्थ का आश्रम एवं वेदवेदान्त स्मृति संहिता आदि सत् शास्त्रों का सारभूत सारतत्त्वरूप तथा भक्ति को बढ़ाने वाला और सभी सुख को देने वाला मोक्ष का साधनभूत सनातनधर्म मार्ग का पुनः नवीनीकरण रूपसे परिस्कार कर विस्तार करूँगा जिसका आप सबों के द्वारा विश्व में प्रचार होगा।

तत्र तत्रावतीर्णास्तु भवन्तो वीतकल्मषाः ।

मदुक्तस्योपदेष्टारः प्राणिभ्योतत्परायणाः ॥२९॥

भविष्यन्ति महात्मानो जगदुद्धारहेतवः ।

सुशीला धर्मनिरता जगतामुपकारकाः ॥३०॥

अर्थ- उन-उन दिव्य भूमि में अवतीर्ण होकर पापरहित आप सब द्वादश महाभागवत भी जीवों को मुझसे उपदिष्ट धर्म को संसार में घूम-घूम कर उपदेश करने वाले होकर एवं मत्परायण मुझ में ही निष्ठा रखने वाले तथा जगत् के उद्धार के कारण तथा सुशील और मेरे धर्म में निरत एवं जगत के उपकारक होकर संसार में प्रसिद्ध होंगे।

ये ग्रहीष्यन्ति सन्मार्गे प्राणिनो भक्तितत्पराः ।

स्यादनायासतोमोक्षस्तेषामत्र न संशयः ॥३१॥

अर्थ- जो जीवात्मा भक्ति तत्पर सादर भक्ति में परायण होकर मुझसे उपदिष्ट सत् मार्ग का पूर्ण रूपसे ग्रहण करेंगे उन साधक जीवों का अनायास सरलतया मोक्ष हो जायगा इस विषय में कोई भी संशय नहीं है।

वाणीपीयूषमास्वाद्य क्षणमासीद्धरेर्मुनिः ।

मग्नः सुखसुधांभोधौ विनीतो गतसंशयः ॥३२॥

अर्थ- हे सुतीक्ष्णजी ! अतिनम्र आचरण वाले वे श्रीनारद मुनि सब पापों को हरण करनेवाले श्रीरामजी के वाणीरूप अमृत का आस्वादन करके सर्व संशय रहित होकर के क्षण भर तो सुखरूप सुधा के समुद्र में डूब गये।

निशम्यतद्वाक्यममोघमद्भुतं हिरण्यगर्भाङ्गसमुद्भवोमुनिः ।

प्रहृष्टरोमावलि भूषिताकृतिः कृतीकृतज्ञः कृतकृत्य ईशितुः ॥३३॥

अर्थ- सर्व नियमनशील ईश्वर श्रीरामजी की अमोघ एवं परम अद्भुत दिव्य वाणी को सुनकर श्रीब्रह्माजी के मानसपुत्र विवेकी परोपकार का आदर करनेवाले एवं आनन्द प्रयुक्त रोमावली से विभूषित शरीर वाले मुनीश्वर श्रीनारद कृत-कृत्य हुये।

दृढव्रतस्याथविनम्रकन्धरः स्मरन् सुरेशस्य विभोः प्रतिश्रुतम् ।

प्रणम्य तं देववरं रमापतिं महाविभूतेर्निरगात्ततः सुधीः ॥३४॥

अर्थ- दृढ़व्रत सावधानी से नियमों के पालन करनेवाले सर्वव्यापक एवं देवताओं के नियमन कर्ता सत्यसन्ध श्रीरामजी की प्रतिज्ञा का स्मरण करते हुये देवाधिदेव श्रीसीतापति श्रीरामचन्द्रजी को सादर मस्तक नमाकर प्रणाम करके महाविभूति दिव्य श्रीसाकेतधाम से विशुद्ध बुद्धि वाले श्रीनारदमुनिजी प्रस्थित हुये।

सुवादयन्दिव्ययशोऽथवल्लकीं हरे: स्वरब्रह्मविभूषितानसौ ।

गायंश्चलोके विचारसर्वतः सुरासुरेन्द्रैरभिपूजितोमुनिः ॥३५॥

अर्थ- दिव्यधाम से निवृत्त होने के बाद सुरेन्द्र देवताओं एवं अनुरेन्द्रों से पूजित मुनीश्वर श्रीनारदजी ब्रह्म स्वर से भूषित वीणा को अच्छी तरह से बजाते हुऐ श्रीराम के परम अद्भुत दिव्ययश को मधुर स्वर से गाते हुये सर्वत्र लोक में विचरने घूमने लगे।

मुनीश्वरे देवऋषौविनिर्गतसुरैरपीड्यो जगतामधीश्वरः ।

रेमे रमेशोरमयास्मिताननः प्रभूतभूतैर्निदिव्यधामनि ॥३६॥

अर्थ- देवर्षि मुनीश्वर श्रीनारदजी के दिव्यधाम श्रीसाकेत से चले जाने पर तीन लोक चौदह भुवनों के ईश्वर शासक आराध्य देव ब्रह्मा विष्णु शङ्कर आदि देवों से पूजनीय सदा सेवित मन्द हास्य मुखरूप कमल से शोभित रमेश - श्रीसीतापतिजी अनेक नित्यपार्षद एवं श्रीसीताजी के साथ अपने दिव्यधाम श्रीसाकेत में रमण करने लगे।

– इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायां भव्योत्तरखण्ड ऽगस्त्यसुतीक्ष्णसम्वादे श्रीरामानन्दाचार्यावतारोपक्रमे श्रीरामनारदसम्प्रश्नोत्तरं नामैकत्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः ॥१३१॥

 

व्यतीते द्वापरे पुण्ये श्रीमद्भगवतोज्झिते ।

कलौ सत्वहरे पुंसां प्रवृत्तेऽधर्मवद्र्धके ॥१॥

जनेऽधर्मरुचौ नित्यं शौचाचारविवर्जिते । 

मोक्षसाधनमार्गेभ्यो विमुखे पशुतां गते ॥२॥

मन्ये मन्दमतौ शश्वदल्पभाग्येऽल्प जीवने ।

तत्रत्ये पापनिरते महत्सङ्गविवर्जिते ॥३॥

प्रवर्धमानानभितो वादैर्निर्जित्य नास्तिकान् । 

आचार्यैर्भगवद्धर्मो वेदवेदान्तपारगैः ॥४॥

अर्थ- महर्षि श्रीअगस्त्यजी श्रीसुतीक्ष्णजी से कह रहे हैं सुतीक्ष्णजी, जब पुण्यमय द्वापरयुग व्यतीत हो जायगा तब श्रीकृष्णजी के इस धरातल को त्याग देने पर एवं पुरुषों के सत्व का अपहरण करनेवाले तथा अधर्म का बढ़ाने वाले कलियुग के प्रताप का प्रवृत्त हो जाने पर और नित्य ही अधर्म में रुचि रखने वाले एवं शौच शुद्धता तथा आचार एवं विचार से रहित और मोक्ष के साधन रूप सत् मार्ग से विमुख और सर्वदा पशुधर्म को प्राप्त एवं आलस्ययुक्त तथा मन्दबुद्धि वाले और अल्प भाग्य वाले तथैव अल्प जीवन वाले और सदा पाप कर्म में तत्पर तथा महात्माजनों के सङ्ग सत्सङ्गति से रहित इस लोक के जीववर्ग हो जायेंगे तब चारों ओर अतिप्रबलता से बढ़ते हुये नास्तिकों को सत् शास्त्रों से युक्तियों से जीतकर सभी वेदवेदान्त एवं शास्त्रों में पारङ्गत आचार्यों ने महान् उपायों से प्रयत्नपूर्वक संस्थापित सनातन वैदिक भगवद्धर्म चाहिये उतना वृद्धि प्राप्त नहीं कर पायेगा।

स्थापितोऽपि महायोगवृद्धिं नैवगमिष्यति ।

विधातुं सत्यमनध सुरेड्यो निजभाषितम् ॥५॥

वीक्ष्य विष्णुः कृपासिन्धुः प्रबुद्धं तादृशं कलिम् ।

सदृशांश्च जनान् सर्वान् दुर्मतीन् क्लेशसंयुतान् ॥६॥

अर्थ- इस तथ्य को अवगम करके हे निष्पाप सुतीक्ष्णजी! इन्द्रादि देवों से संपूजनीय कृपा के सागर सर्वव्यापक श्रीरामजी अपनी वाणी को सत्य करने के लिये अधर्म परतया वृद्धिप्राप्त कलियुग एवं दुर्मति तथा क्लेश परायण सभी जीवों को देखकर तथा धर्मरक्षणार्थ अवतार लेने की अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण करके अवतार लेने के लिये विचार करेंगे।

मनः कर्ताऽवताराय स्मृत्वाथो स्वं प्रतिश्रुतम् ।

खं नभो वेद वेद प्रमिते वर्षे गते कलौ ॥७॥

कालिन्दी जाहन्वीसंगशोभिते देवपूजिते ।

तीर्थराजे महापुण्ये प्रयागे तीर्थ उत्तमे ॥८॥

गृहे श्रीपुण्यसदनद्विजातेर्भूरिकर्मणः ।

योगिनो योगयुक्तस्य कान्यकुब्जशिरोमणेः ॥९॥

पतिसेवा परा तस्य सुशीला गृहिणी ततः ।

माघकृष्णस्य सप्तम्यां शुभधर्मप्रवर्तके ॥१०॥

सप्तदण्डोद्गते सूर्ये सिद्धयोगयुजिप्रभुः ।

नक्षत्रे त्वष्टृदैवत्ये कुम्भलग्ने शुभग्रहे ॥११॥

एवं सर्वगुणोपेते देशे काले च माधवः ।

गुण्ये पुण्ये शरण्यः स शरणागतवत्सलः ॥१२॥

आविर्भूतो महायोगी द्वितिय इव भाष्करः ।

रामानन्द इतिख्यातो लोकोद्धरण कारणः ॥१३॥

अर्थ- कलियुग के चार हजार तीनसौ वर्ष (४४००) यानी विक्रमसम्वत् के बारहसौ छप्पन (१२५६) व्यतीत हो जाने पर श्रीगङ्गा एवं यमुना के पवित्र संगम से सुशोभित तथा देवताओं से पूजित और सभी तीर्थों में अति श्रेष्ठ महान् पुण्यमय प्रयाग नाम से लोकप्रसिद्ध तीर्थराज में वशिष्ठ गोत्रीय त्रिप्रवरान्वित शुक्लयजुर्वेदीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ कान्यकुब्ज ब्राह्मण जो योगयुक्त एवं श्रीरामचन्द्रजी के आराधना रूप भूरिकर्म अति उत्तम कर्म को सदा करनेवाले हैं उन योगी श्रीपुण्यसदन शर्माजी नाम के ब्राह्मण के यहाॅं पतिव्रता में प्रधान श्रीसुशीलाजी नाम की श्रीशर्माजी की धर्मपति होगी उन्हीं पतिव्रता देवी के गर्भ से माघकृष्ण पक्ष को सभी तिथि के शुभ दिन में जबकि लोकधर्म प्रवर्तक श्रीसूर्य भगवान् के सात दण्ड चले होंगे एवं सिद्ध योग युक्त चित्रा नक्षत्र तथा कुम्भ लग्न और सभी ग्रहों के शुभ स्थान में होने पर एवं सभी गुणों से युक्त पावन काल में तथा सभी गुणों से संयुक्त अतिपवित्र प्रदेश प्रयागराज में सभी साधकों के उद्धार के कारणरूप शरणागतवत्सल महान् योगी शरण में आये सभी जीवों का रक्षक ('रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले' इस आगम प्रमाण से बोधित) स्वयं सर्वेश्वर श्रीरामजी ही दीप से उत्पन्न दूसरे दीप के समान आविर्भूत होकर 'रामानन्द' जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य, नाम से जगत में विख्यात होंगे।

 

जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी के अवतार के विषय में श्रीमद्वाल्मीकि संहिता में लिखा है –

आचार्या बहवोऽभूवन् राममन्त्रप्रवर्तकाः । 

किन्तु देवि कलेरादौ पाखण्डप्रचूरे जने ॥ 

रामानन्देति भविता विष्णुधर्मप्रवर्तकः । 

यदा यदा हि धर्मोऽयं विष्णोः साकेतवासिनः ॥ 

कृशतामेति भो देवि! तदा स भगवान् हरिः । 

रामानन्दयतिर्भूत्वा तीर्थराजे व पावने ॥ 

अवतीर्य जगन्नाथो धर्म स्थापयते पुनः ।

अर्थात्– हे देवि श्रीराममन्त्र के प्रवर्तक आचार्य बहुत हुये हैं किन्तु कलियुग के आदि ! में पाखण्डिजनों के बहुत बढ़ जाने पर वैष्णव धर्म का विशेष रूपसे प्रवर्तक प्रवर्धक ‘श्रीरामानन्दाचार्य’ जी इस नाम से लोकप्रख्यात आचार्य होंगे, क्योंकि श्रीसाकेत निवासीजी का यह श्रीवैष्णवधर्म जब जब हास को प्राप्त कर जाता है तब तब वे ही जगत् के नाथ श्रीरामजी, श्रीरामानन्दाचार्य नामक यतिराज के रूपमें पावन तीर्थराज प्रयाग में अवतार लेकर पुनः धर्म की स्थापना करेंगे।

(वाल्मीकि संहिता ५.२३-२६)

 

एवं वैश्वानर संहिता में लिखा है–

सोऽवतारज्जगन्मध्ये जन्तूनां भयसङ्कटात् ।

पारंकृर्तुं हि धर्मात्मा रामानन्दस्स्वयं स्वभूः ॥

माघे च कृष्णसप्तम्यां चित्रानक्षत्रसंयुते ।

कुम्भलग्ने सिद्धयोगे सप्तदण्डगते रवौ ॥

रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले ।

अर्थ– यानी जीवों को महान् संकट से पार उतारने के लिये सर्व समर्थ स्वयं सर्वेश्वर श्रीरामजी धर्मात्मा यतिराज श्रीरामानन्दाचार्यजी के रूपमें पृथिवी में अवतरित हुये। चित्रा नक्षत्र से युक्त कुम्भ लग्न सिद्धयोग एवं सूर्य के सात दण्ड व्यतीत होने पर माघमास के कृष्णपक्ष के सप्तमी तिथि (१२५६ वि. सं) में स्वयं सर्वेश श्रीरामजी ही इस भूतल में श्रीरामानन्दाचार्यजी के रूपमें प्रकट हुये।

इसप्रकार वैश्वानरसंहिता में लिखा है अतः जगदाचार्य श्री साक्षात् श्रीराम रूप ही है।

 

अष्टमेऽब्दे चोपवीतं जातं तस्य तदाह्यसौ ।

ब्रह्मचर्यं गृहीत्वा तु विद्याभ्यासं करिष्यति ॥१४॥

अर्थ- श्रीरामानन्दाचार्यजी का आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न होगा अनन्तर से अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन व्रत का ग्रहण कर विद्याभ्यास करेंगे।

वर्षे द्वादशके जाते काश्यां गत्वा पुनः स्वयम् ।

वेदवेदाङ्गशास्त्राणि पुराणादि पठिष्यति ॥१५॥

अर्थ- पुन: बारह वर्ष के हो जाने पर काशी में पञ्चगङ्गाघाट पर स्थित (श्रीमठ) आचार्यपीठ में शास्त्रीय नियमानुसार आचार्य श्री के श्रीमुख से श्रवणानन्तर स्वयं यथार्थ रूपसे पढेंगे-पूर्णत: अनुशीलन करेंगे।

आचार्यलक्षणैर्युक्तं वेदवेदान्तपारगम् ।

श्रीसम्प्रदायश्रेष्ठञ्च जनोद्धारपरं सदा ॥१६॥

विज्ञाय राघवानन्दं लब्ध्वा तस्मात् षडक्षरम् ।

रहस्यत्रयवाक्यार्थं तात्पर्यार्थं च सन्मतम् ॥१७॥

अर्थ- मनुस्मृति में लिखे 'उपनीयतु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । साङ्गञ्च सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते’ (२.१४०) यानी जो द्विज शिष्य का उपनयन संस्कार करके अङ्ग एवं रहस्य के साथ वेद पढ़ाता है उसे आचार्य कहा जाता है, इत्यादि आचार्य के लक्षणों से युक्त वेद एवं वेदान्त शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता और सर्वदा जन लोक के उद्धार करने में तत्पर एवं श्रीसम्प्रदाय के श्रेष्ठ प्रधान आचार्य के रूपमें आचार्यपीठासीन जगद्गुरु श्रीराघवानन्दाचार्यजी को अनुभव करके उन्ही आचार्य श्री से सविधि शास्त्रीय संस्कारपूर्वक श्रीवैष्णवीय विरक्त संन्यास दीक्षा के साथ तारक षडक्षर श्रीराम महामन्त्र शरणागति मन्त्र एवं चरममन्त्र इन रहस्यत्रयों को प्राप्त कर उनके वाच्यार्थ एवं वेद तथा पूर्वाचार्य रहस्य ग्रन्थ सम्मत तात्पर्यादि अर्थों को भी प्राप्त करके आचार्यों के दिव्य लक्षणों से परिलक्षित होंगे।

आचार्यलक्षणैर्दिव्यैर्लक्षितो वै भविष्यति ।

प्रवक्ता सर्वधर्माणामनुष्ठाता च कर्मणाम् ॥१८॥

रक्षिता धर्मसेतुनामुपदेष्टा महायशाः ।

शश्वद्वैष्णवधर्माणां महाकीर्तिरुदारधीः ॥१९॥

अर्थ- वे जगदाचार्य श्रीरामानन्दाचार्यजी सभी धर्मों के व्याख्यान साङ्गोपाङ्ग रूपसे उपदेश करने वाले भगवत् आराधनादि सभी कर्मों के अनुष्ठान करने वाले और वैदिक धर्म के मर्यादा की रक्षा करने वाले तथा श्रीवैष्णवधर्म का सर्वदा उपदेश करनेवाले यश एवं महाकीर्ति वाले और अतिउदार बुद्धि वाले होंगे। 

प्रसन्नवाम्भोजो विशालाक्षो महाभुजः ।

कृपालुस्सर्वजीवानामितरेषां च नित्यशः ॥२०॥

संसाराम्भोनिधेर्घोरात्समुद्धारपरायणः ।

वेदवेदान्तनिरतस्सर्वशास्त्रविशारदः ॥२१॥

अर्थ- एवं वे सदा प्रसन्न मुखारविन्द वाले विशाल नेत्र एवं महान् भुजवाले तथा परम कृपालु होंगे और सभी नीच ऊँच वर्ण में उत्पन्न जीवात्मावर्ग तथा अन्य योनी में उत्पन्न जीववर्गों के भयानक संसाररूप समुद्र से समुद्धार के लिये सर्वदा तत्पर रहने वाले तथा अङ्गों के सहित वेद एवं वेदान्त के अभ्यास में स्वयं तत्पर रहकर शिष्यवर्गों को भी सर्वदा तत्पर कराने वाले सभी शास्त्रों में पारङ्गत होंगे।

कामान् पुरवितानृणां कविः कल्पद्रुमो यथा ।

गुणवान् दयितः पूज्यः सर्वज्ञोविजितेन्द्रियः ॥२२॥

अर्थ- श्रीरामानन्दाचार्यजी सत् एवं असत् का विवेक करनेवाले तथा कल्पवृक्ष के समान सभी मनुष्यों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले एवं गुणवान् तथा सभीवर्ग के व्यक्तियों के प्रेमी और पूजनीय तथा सर्वज्ञवस्तु को यथातथ्य रूपसे जानने वाले और जितेन्द्रिय होंगे।

शोभिष्यति धर्मरतैःसद्भिःपरिवृतोऽनिशम् ।

लोके पूर्णकलः खे वै शीतांशुभंगणैरिव ॥२३॥

वे जगदाचार्यजी जिस प्रकार आकाश में नक्षत्र गणों से परिवेष्टित कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होता है उसीप्रकार लोक में धर्मपरायण सज्जनों से सर्वदा परिवेष्टित सेवित होते हुये सदा शोभित होंगे।

सुशीलः समदृक्शान्तोदान्तः श्रीमान् जगद्गुरुः ।

पुनः सत्सम्प्रदायस्य वर्त्तयिता मुनीश्वरः ॥२४॥

अर्थ-वे सुशील एवं सभी वर्ग में समान दृष्टि वाले एवं रागद्वेष प्रभृति दोषों से रहित शान्त तथा क्लेश आदि को सहन करनेवाले दान्त सर्व श्रीसम्पन्न एवं मुनीश्वर धर्मशादि के तत्वों का सर्वदा मननशील साधकों में श्रेष्ठ जगद्गुरु संसार के लोगों का सन्मार्गोपदेश से अन्धकार को दूरकर ज्ञानरूप प्रकाश के द्वारा सायुज्य मुक्ति प्रदाता, वे जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी कार्य कलाप से शिथिलता को प्राप्त अनादि वैदिक सत् श्रीसम्प्रदाय (जो सम्प्रदाय समस्त चारों युगों में प्रतिष्ठित हो) उसका पुन: इस भूमण्डल में प्रवर्तन-संवर्धन, प्रसारण करने वाले होंगे।

कृपया यस्य लोकेऽस्मिन् जनाः सर्वेनिरामयाः ।

श्रीरामभक्तिनिरताः सदा धर्मपरायणाः ॥२५॥

अर्थ- उन जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की असीम कृपा से इस लोक में सभी जन रोग रहित एवं सर्वदा धर्मपरायण और सर्वेश श्रीरामचन्द्रजी की भक्ति में निरत रहेंगे।

तादृशस्य महाबुद्धे यगिवर्यस्य सत्कवेः ।

गुणान् कार्त्स्न्येन संवक्तुं कविःकःक्षमतेऽधुना ॥२६॥

अर्थ- मुनीश्वर सुतीक्ष्णजी ! पूर्व वर्णित गुणों से युक्त महान् बुद्धिशाली योगियों में श्रेष्ठ अनेक सद् ग्रन्थरत्नों प्रस्थानत्रयों के आनन्दभाष्यादि के निर्माता जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन करने में कौन कवि ऐसा होगा जो समर्थ हो सके।

तेऽथाप्यवतरिष्यन्ति भगवन्मतकोविदाः ।

स्वयंभूप्रमुखाः सर्वे महान्तो नित्यसूरयः ॥२७॥

इङ्गितज्ञा हरेराज्ञां वहन्तः शिरसा मुदा ।

नानादेशेषु वर्णेषु तत्तत्कालेऽर्कसन्निभाः ॥२८॥

अर्थ- हे सुतीक्ष्णजी ! जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के अवतार के बाद भगवत् मत सनातन श्रीवैष्णवमत धर्म को जानने वाले 'स्वयंभूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः । प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम् ॥ द्वादशैते विज्ञानियो धर्मं भागवतं भटाः' अर्थात् इस श्रीमद् भागवतपुराण के वचनानुसार भागवत धर्म को तत्त्वतः जानने वाले श्रीस्वयम्भूब्रह्माजी श्रीनारदजी श्रीशंभुजी श्रीकुमारजी श्रीकपिलजी श्रीमनुजी श्रीप्रह्लादजी श्रीजनकजी श्रीभीष्मजी श्रीबलिजी श्रीशुकमुनिजी एवं श्रीयमजी, ये महाभागवत भी भगवान् श्रीरामजी के नित्यपार्षदगण श्रीरामचन्द्रजी के इङ्गित इसारे को जाननेवाले आनन्दपूर्वक श्रीरामजी की आशा का शिरोधार्य कर उसका पूर्ण करनेवाले बारह सूर्य के समान देदिव्यमान तेजवाले ये बारह महाभागवत भी नानादेश-अलग अलग स्थान अलग अलग काल एवं ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र प्रभृति भिन्न भिन्न वर्णों में अवतरित होंगे।

आयुष्मन् कृत्तिकायुक्तपूर्णिमायां धनेशनौ ।

स्वयंभूः कार्तिकस्याद्धाऽनन्तानन्दोभविष्यति ॥२९॥

अर्थ-पूर्व सूचित महाभागवतों के अवतारों को अलग अलग रूपसे वर्णन हेतु महर्षि श्री अगस्त्य जी कहते हैं- हे आयुष्मान् सुतीक्ष्णजी! जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के प्रधान शिष्य के रूपमें साक्षात् स्वयम्भू-श्रीब्रह्माजी ही कार्तिक मास की कृतिका नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी तिथि धन लग्न एवं शनिवार के दिन महेशपुर उत्तर प्रदेश में श्री अनन्तानन्द नाम से अवतरित होंगे।

योगनिष्ठः सदा धीमान् सदाचारपरायणः ।

शिष्य आचार्यवर्यस्य रामानन्दस्यधीमतः ॥३०॥

अर्थ- ये सर्वदा योगाभ्यास में स्थित रहने वाले एवं बुद्धिमान्, सर्वदा सदाचार में तत्पर रहने वाले वे श्रीअनन्तानन्दजी अभ्रान्त प्रखर बुद्धिशाली आचार्य प्रवर जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के शिष्य होकर श्री अनन्तानन्दाचार्यजी के नाम से विख्यात होंगे।

जातः सुरसुरानन्दो नारदो मुनिसत्तमः ।

वैशाखसितपक्षस्य नवम्यां स वृषे गुरौ ॥३१॥

अर्थ- प्रसिद्ध श्रीसुरसुरानन्दाचार्यजी के रूपमें मुनियों में श्रेष्ठ श्रीनारदजी ही वैशाख शुक्ल की नवमी श्रीजनकी नवमी तिथि गुरुवार एवं वृष लग्न में (पैखम, लखनऊ में) समवारित होंगे।

शुक्रे वरुण भे योगे शीलरत्नाकरो महान् ।

मन्त्रमन्त्रार्थसन्निष्ठो गुरुभक्तिपरायणः ॥३२॥

तस्यामेव तुलालग्ने तादृशीन्दुरिवोग्रधीः ।

शम्भुरेव सुखानन्दः पूर्वाचार्यार्थनिष्ठकः ॥३३॥

अर्थ- शतभिषा नक्षत्र से युक्त तुला लग्न में वैशाख शुक्ल नवमी - श्रीजानकी नवमी के दिन में शील के समुद्र शिष्य के अज्ञानरूप अन्धकार को दूरकर ज्ञानरूप प्रकाश को प्रदान करने वाले गुरुदेव जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की सेवा में परायण चन्द्रमा के समान तीक्ष्ण बुद्धि वाले भगवान श्री आनन्दभाष्यकार एवं पूर्वाचार्यों के सत् सिद्धान्त में दृढ निष्ठा वाले श्रीराममन्त्र एवं अन्य मन्त्रार्थों के विचार में सदा संलग्न श्रीशङ्करजी ही श्रीसुखानन्दाचार्यजी के रूपमें अवतरित होकर प्रसिद्ध होंगे।

व्यतिपातेऽनुराधाभे शुक्रे मेषे गुणाकरे ।

वैशाखशुक्लपक्षस्य तृतीयायां महामतिः ॥३४॥

कुमारोनरहरियानन्दो जात उदारधीः ।

वर्णाश्रमकर्मनिष्ठः शुभकर्मरतः सदा ॥३५॥

अर्थ- श्रीसनत्कुमारजी वैशाख शुक्ल तृतीया शुक्रवार अनुराधा नक्षत्र एवं व्यतिपात योग तथा गुणाकर मेष लग्न में महाबुद्धिशाली वर्णाश्रम सम्बन्धी धर्म कर्म में परमनिष्ठ वाले श्रीरामजी की आराधना आदि शुभ कर्मों में सर्वदा लगे रहने वाले श्रीनरहरियानन्दाचार्यजी के रूपमें अवतरित होकर प्रसिद्ध होंगे।

वैशाखकृष्णसप्तम्यां मूले परिघसंयुते ।

बुधे कर्केऽथकपिलोयोगानन्दो जनिष्यति ॥३६॥

अर्थ- श्रीकपिलमुनिजी वैशाख कृष्ण सप्तमी मूल नक्षत्र एवं परिघयोग कर्क लग्न और बुधवार को श्री योगानन्दाचार्यजी के रूपमें अवतरित होकर प्रसिद्ध होंगे।

योगनिष्ठो महायोगी सत्सेवितपदाम्बुजः ।

सदावैष्णवधर्माणामुपदेशपरायणः ॥३७॥

मनुः पीपाभिदोजात उत्तराफाल्गुनीयुजि ।

पूर्णिमायां ध्रुवे चैत्र्यां धनवारे बुधस्य च ॥३८॥

अर्थ-श्रीमनुजी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ध्रुवयोग धन लग्न में चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि बुधवार के दिन सदा योग साधना में रहने वाले महायोगी सत्पुरुषों से सेवित चरणकमल वाले तथा सर्वदा श्रीवैष्णवधर्म के उपदेश में तत्पर श्रीपीपाचार्यजी के रूपमें अवतरित होकर प्रसिद्ध होंगे।

निष्ठा तदीयकैङ्कर्ये सतस्तस्य महात्मनः ।

नक्षत्रे शशिदैवत्ये चैत्रकृष्णाष्टमी तिथौ ॥३९॥

प्रह्लादोऽपि कविरस्तु कुजे सिंहे च शोभने ।

जातो वेदान्तसन्निष्ठः क्षेत्रवासरतः सदा ॥४०॥

अर्थ-श्रीप्रह्लादजी भी मृगशिरा नक्षत्र शोभन योग एवं सिंहलग्न में चैत्र कृष्ण अष्टमी मंगलवार को श्रीकबीरजी के नाम से अवतरित होंगे तथा वे सदा तीर्थों में निवास रत रहेंगे एवं वेदान्त आदि सभी शास्त्रों में दृढ निष्ठा वाले होंगे और वे जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की सेवा में सर्वदा दत्तचित्त होकर श्रीरामकबीराचार्यजी के नाम से संसार में प्रसिद्ध होंगे।

भावानन्दोऽथ जनको मूले परिघसंयुते ।

वैशाखकृष्णषष्ठ्यान्तुकर्केचन्द्रजनिष्यति ॥४१॥

अर्थ- श्रीजनकजी मूल नक्षत्र परिघयोग कर्क लग्न में वैशाख कृष्ण षष्ठी सोमवार को श्रीभावानन्दजी के रूपमें अवतरित होंगे, वे महाबुद्धिशाली महात्मा-परतत्व चिन्तन में संलग्न एवं सर्वदा सर्वेश्वर श्रीरामजी की सेवा में तत्पर श्रीभावानन्दाचार्यजी के नाम से जगत में ख्याति प्राप्त करेंगे।

रामसेवापरोनित्यं स महात्मा महामतिः ।

भीष्मः सेनाभिधो नाम तुलायां रविवासरे ॥४२॥

द्वादश्यां माघकृष्णे तु पूर्वभाद्रपदे च भे ।

तदीयाराधनेसक्तो ब्रह्मयोगे जनिष्यति ॥४३॥

अर्थ- श्रीभाष्मजी पूर्वभाद्रपद नक्षत्र ब्रह्मयोग तुला लग्न में माघकृष्णपक्ष की द्वादशी एवं रविवार को श्रीसेनजी के नाम से अवतरित होंगे वे भगवान् तथा भगवद्भक्तों की सेवा में सदा तल्लीन रहेंगे और श्रीसेनदासजी के नाम से प्रसिद्ध होंगे।

श्रीमाघस्यासिताष्टम्यां वृश्चिके शनिवासरे ।

धनाभिधोवलिः साक्षात्पूर्वाषाढयुते शिवे ॥४४॥

वरो भक्तिमतां जातस्तदीयाराधने रतः ।

सदाचारपरो धीमान् गुरुपादाम्बुजार्चकः ॥४५॥

अर्थ-साक्षात् श्रीबलिजी ही पूर्वाषाढा़ नक्षत्र शिवयोग एवं वृश्चिक लग्न में माघकृष्ण अष्टमी शविवार को श्रीधनाजी के नाम से अवतरित होंगे वे बुद्धिमान् भक्तिमान् पुरुषों में श्रेष्ठ भगवद्भक्तों की आराधना सेवा करने में सदा तत्पर सदाचारों के पालन में सदा निरत एवं गुरुदेव जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के श्रीचरणकमलों के आराधन करनेवाले होंगे तथा श्रीधनादासजी इस नाम से लोक प्रसिद्ध होंगे।

तत्त्वज्ञो गालवानन्दो जात एकादशीतिथौ ।

चैत्रे वैयासकिश्चन्द्रे कृष्णे लग्ने वृषे शुभे ॥४६॥

सर्वदाज्ञाननिष्ठोऽयमुपदेशपरायणः ।

वेदवेदान्तनिरतो महायोगी महामतिः ॥४७॥

अर्थ- श्रीरामतत्त्व को जानने वाले श्रीव्यासनन्दन शुकमुनिजी शुभयोग वृष लग्न चैत्र कृष्णपक्ष के एकादशी तिथि सोमवार को श्रीगालवानन्दजी के रूपमें अवतरित होंगे, वे महायोगी महाबुद्धि वाले एवं वेद तथा वेदान्त में रत और तत्त्व ज्ञाननिष्ठ एवं सर्वदा जीवों को श्रीरामतत्त्व का उपदेश करने में तत्पर रहेंगे एवं श्रीगालवानन्दाचार्यजी के रूपमें जगद् प्रसिद्ध होंगे। 

चैत्रशुक्लद्वितीयायां शुक्रे मेषेऽथ हर्षणे ।

यम एव रमादासस्त्वाष्ट्रे प्रादुर्भविष्यति ॥४८॥

पालनं वैष्णवाज्ञानां कुर्वन्नित्यमतन्द्रितः ।

धर्ममेवाचरल्लोके धर्माधीश उदारधीः ॥४९॥

अर्थ- श्रीयमराजजी चित्रा नक्षत्र हर्षण योग मेष लग्न में चैत्र शुक्ल द्वितीया शुक्रवार को श्रीरमादासजी के रूपमें अवतरित होंगे, वे उदार बुद्धिवाले श्रीरमादासजी अति सावधानी से आलस्य रहित होकर श्रीवैष्णवाचार्य गुरुदेव जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की आज्ञाओं का पालन करते हुये सर्वेश श्रीरामजी की आराधना तथा श्रीवैष्णवधर्म पालन एवं सन्तों की आराधना कर श्रीरमादास-रैदास या रविदासजी आदि नामों से संसार में प्रसिद्ध होगे।

चैत्र शुक्लत्रयोदश्यां गुरौ कर्के ध्रुवान्विते ।

उत्तराफाल्गुनी संज्ञे जाता पद्मावती सती ॥५०॥

श्रीमदाचार्यसन्निष्ठा सा पद्मवापरा सदा ।

धर्मज्ञा धर्मनिरता गुरुभक्ति परायणा ॥५१॥

अर्थ- उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र ध्रुवयोग कर्क लग्न में चैत्रशुक्ल त्रयोदशी गुरुवार को श्रीपद्मावतीजी अब तरित होंगी, वे जगदाचार्यश्री में दृढनिष्ठा वाली धर्मतत्त्व को जानने वाली श्रीवैष्णवधर्म में सर्वदा तत्पर एवं सर्वदा गुरुभक्ति परायणता के कारण दूसरी पद्माजी के समान प्रसिद्ध होंगी।

एवमेतादृशैस्तैस्तैः शिष्यैद्वादशभिर्महान् ।

शोभिष्यत्यर्चितोदेव्यापदावव्या च सन्ततम् ॥५२॥

अर्थ- इसप्रकार ब्रह्मा आदि देवों से उत्पन्न उन-उन श्री अनन्तानन्दाचार्यजी आदि बारह महाभागवतों एवं श्रीपद्मावतीजी आदि अन्य अनेक साधक श्रीवैष्णव समुदाय से सर्वदा पूजित सेवित होकर श्रीसम्प्रदाय के महान प्रधान आचार्य जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सतत शोभित होंगे।

श्रीमानाचार्यवर्योऽयं रामानन्दो महामतिः ।

शिष्योपशिष्यैरन्यैश्च शोभितोऽहर्दिवं भुवि ॥५३॥

अर्थ- महान् बुद्धि वाले श्रीमान् स्वामी रामानन्दाचार्यजी जो कि सभी आचार्यों में श्रेष्ठ हैं पृथ्वी पर शिष्यों एवं उप-शिष्यों तथा अन्यों के साथ दिन-रात शोभित होंगे।

पूज्यो ध्येयश्च जगतां रामरूपो जगद्गुरुः ।

हेतुः कल्याणमार्गस्य शुभदोज्ञानदोऽनिशम् ॥५४॥

अर्थ- 'रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले' इस वैश्वानरसंहिता के वचनानुसार साक्षात् श्रीरामजी के अवतार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वेश श्रीरामचन्द्रजी के समान ही कल्याण मार्ग सायुज्य मुक्ति के कारण एवं निरन्तर शुभद-वेद वेदान्तादि का आनन्दभाष्यों द्वारा तत्त्वज्ञान के उपदेश देनेवाले और संसार में साधकों के ध्येय ज्ञेय एवं पूज्य के रूपमें प्रसिद्ध होंगे।

यस्य दर्शनमात्रेण स्मरणेन सदा क्षितौ ।

नाम व्याहरणाद्धीना नरा मुक्ता न संशयः ॥५५॥

अर्थ- इस पृथ्वी में उन श्रीरामरूप जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी का सदा दर्शनमात्र से या स्मरण मात्र से अथवा नाम लेने मात्र से हीन-पापाचार परायण मनुष्यवर्ग मुक्त हो जायेंगे इसमें संशय का स्थान नहीं।

यदीयमतमालम्व्य मन्त्रमन्त्रार्थभूषितम् ।

भूष्यते भूरियं लोकै  र्राजितैर्मुनिवृत्तिभिः ॥५६॥

अर्थ- जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी से प्रचारित-प्रसारित सनातन वैदिक विशिष्टाद्वैत मत जो कि वेद मन्त्रों एवं वास्तविक मन्त्रार्थों से विभूषित है उसका आलम्बन-आश्रय लेकर मुनिवृत्ति वास्तविक तत्त्वों के मननशील आचरण वालों से सुशोभित लोकों से यह भारत भूमि भूषित होगी।

शरचन्द्रायते लोके कीर्तिर्यस्य महात्मनः ।

विशदा पावनी पुण्या श्रृण्वतां पापनाशिनी ॥५७॥

अर्थ- उन महामना जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की सारे संसार को धवलित कर देनेवाली पापों का नाश करनेवाली अति उज्ज्वल पवित्र कीर्ति श्रवण करने वालों के पापों का नाश करेगी एवं शरद काल के चन्द्रमा के समान सभी को आनन्द देनेवाली होगी।

हरिभक्तिप्रदा नृणां तथा ज्ञानप्रकाशिनी ।

मोहान्धकारसंघप्रध्वंसिनी शुभदायिनी ॥५८॥

अर्थ- एवं वह आचार्य श्री की कीर्ति साधक मनुष्यों को श्रीरामचन्द्रजी की भक्ति को प्रदान करनेवाली तथा ज्ञान का प्रकाश करनेवाली एवं मोहरूप अन्धकार के समूह को समूल नाश करनेवाली और कल्याण को प्रदान करनेवाली होगी।

स एष भगवद्रूपो धर्मो विग्रहवानिव ।

द्विषतानिह दुर्धर्षः सेवनीयः सतां सदा ॥५९॥

अर्थ-'तप्तकाञ्चनसंकाशो रामानन्दः स्वयं हरिः’ 'पारं कर्तुं हि धर्मात्मा रामानन्दः स्वयं स्वभूः’ 'रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले' इत्यादि वैश्वानर पाञ्चरात्रागम से बोधित इस भूमण्डल में प्रख्यात साक्षात् श्रीरामजी के अवतार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी हैं अतः वे 'रामो विग्रहवान् धर्मः' सर्वेश्वर श्रीरामजी साक्षात् धर्म शरीर वाले हैं यानी धर्म ही श्रीरामजी का श्री विग्रह-शरीर है, इस महर्षि वचनानुसार धर्म विग्रह रूप श्रीरामजी के अवतार जगदाचार्यजी भी धर्म विग्रह शरीर वाले ही हैं अतः श्रीदशरथनन्दनजी के समान भगवान श्री आनन्दभाष्यकार भी इस संसार में अनादि वैदिक विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त विरोधियों के लिये दुर्धर्ष अदम्य अपराजित एवं सद्धर्म सत्कर्म साधनानन्य सज्जन पुरुषों के लिये सदा सेवनीयतया प्रसिद्ध होंगे।

तज्जन्ममासर्क्षतिथौ तदीयैस्तदीयजन्मोत्सवमुत्सवोत्सुकैः ।

विधेयमेवंप्रतिवर्षमुत्तमंविधानविज्ञैर्विधिना हि वैष्णवैः ॥६०॥

अर्थ-'आचार्यदेवोभव' इस वेद वचन के अनुसार अपने आराध्य इष्ट देव के समान ही अपने सम्प्रदाय के प्रधान आचार्यजी का प्राकट्योत्सव विशेष समारोह के साथ मनाने का शास्त्रीय विधान है अतः श्रीवैष्णवों को श्रीआनन्दभाष्यकारजी की अवतार तिथि माघकृष्ण सप्तमी को आचार्यजी का अवतारोत्सव विशेष उत्साह के साथ पूजाविधि में निपुण श्रीवैष्णव से सविधि पूजा सम्पादन करवा कर श्रीरामानन्दीय श्रीवैष्णवों को प्रति वर्ष जगदाचार्यश्री के अवतार मास पक्ष नक्षत्र युक्त तिथि के दिन उत्तम प्रकार से आचार्यजी का अवतारोत्सव सम्पन्न करना चाहिये।

पूजोपहारैरुचिरैर्यथोचितं देवं समभ्यर्च्यसशिष्यसङ्गम् ।

वाद्यैर्मृदङ्गादिभिरद्धतैः परैर्नृत्यैस्तथागीतवरैः प्रसादयेत् ॥६१॥

अर्थ- आचार्य श्री की देशकालानुसार यथोपलब्ध पूजा के सामग्री से श्रीअनन्तानन्दाचार्यजी आदि बारह शिष्य समूहों के साथ आगे बताये विधि के अनुसार, भगवान आनन्दभाष्यकार जी की पूजा करके मृदङ्ग आदि अद्भुत श्रेष्ठ वाद्यों शास्त्रीय मर्यादा युक्त नृत्य एवं आचार्य कीर्ति बोधन परक श्रेष्ठ गीत-श्लोक पाठ सुन्दर स्तुति आचार्यमहिम्नस्तव के गानों से आचार्य श्री को प्रसन्न करें।

तदीयजन्मोत्सवसत्कथाभिस्तत्तोषहेतुस्तुतिभिस्तथैव ।

अन्यैस्तदीयाचरितैव्रतादिभिर्निस्तन्द्रिरेवंगुरुभक्तितत्परः ॥६२॥

अर्थ- जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की आराधना में तत्पर श्रीवैष्णवों को निद्रा-आलस्य से रहित होकर के भगवान श्रीआनन्दभाष्यकार जी के जन्म-अवतार सम्बन्धी सत्कथा से एवं आपके तोष के कारणभूत सुन्दर स्तुतियों से तथा आचार्य श्री से आचरित व्रतों के आचरण से और आवार्यजी से उपदिष्ट ज्ञान के श्रवण से एवं आपकी दिग्विजय यात्रा व तीर्थाटनादि की वार्ता के श्रवण से आचार्यश्री को सन्तुष्ट करें।

एवं स कुर्वन् विधितस्तदर्चनं तत्तोषहेतुंच महोत्सवं बुधः ।

निरालसोभक्तियुतोलभेतस्वाभीष्ठसिद्धिं महतीं न संशयः ॥६३॥

अर्थ- पूर्वोक्त विधान से आचार्यजी की आराधना करने वाला बुद्धिशाली आराधक भक्ति युत एवं आलस्य रहित होकर के श्री आनन्दभाष्यकारजी का सन्तोष का हेतु उनकी सविधि अर्चना तथा महोत्सव को करने से बड़ी अभिलषित सिद्धि को प्राप्त करलेगा इसमें संशय नहीं है।

निशम्य तद्वाक्यमथोमहात्मनोमुनेः प्रहृष्टः कलशोद्भवस्य ।

मुनिःसुतीक्ष्णः ससुतीक्ष्णबुद्धिर्विधिंचप्रष्टा हि तदर्चने पुनः ॥६४॥

अर्थ- कुम्भ से उद्भूत महान् आत्मा वाले मुनीश्वर श्रीअगस्त्यजी के पूर्वोक्त श्रीआचार्यजी के अवतार एवं पूजन सम्बन्धी वचनों को सुनने के बाद तीक्ष्ण बुद्धि वाले मुनी श्रीसुतीक्ष्णजी अति प्रसन्न हुये, अनन्तर जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के पूजा का विधान जानने के लिये विनम्रभाव से प्रश्न किये।

–इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायामगस्त्यसुतीक्ष्णसम्वादे भव्योत्तरखण्ड श्रीरामानन्दाचार्यावतारोपाख्यानं नाम द्वात्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः १३२

 

तज्जन्म पावनं पुण्यं कथितं परमं त्वया ।

तदर्चनविधिं मह्यं वक्तुमर्हस्यथाधुना ॥१॥

अर्थ - श्रीअगस्त्यजी से श्रीसुतीक्ष्णजी सादर निवेदन करते हैं- हे मुनीश्वर ! आपने अनुग्रह करके, जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी का परम पवित्र एवं परम पुण्य को बढ़ाने वाला अवतार सम्बन्धी कथा का वर्णन किया, अब उन आचार्यश्री के अर्चन पूजा की विधि को भी मुझ पर अनुकम्पा कर उपदेश करें।

जगतामुपकर्ता त्वं दयालुर्धीमताम्वरः ।

समभ्यर्च्य जना येनाचार्यं श्रेयः समाप्नुयुः ॥२॥

अर्थ- कारण कि आप बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं तथा जगत् का उपकार करने वाले है एवं दयालु हैं इसलिये जिस विधान से आचार्य चरण की पूजा करके साधकजन श्रेयः सायुज्य मुक्ति को प्राप्त कर सकें उस विधान का उपदेश करें।

श्रूयतामिति चामन्त्र्य कथयिष्यति कुम्भजः ।

अम्बुजं बत्र्तुलाकारं द्वादशदलसंयुतम् ॥३॥

सुव्यक्तं तैर्दलैर्व्यक्तैर्दर्शनीयं सुशोभनम् ।

तन्मध्ये कर्णिकायान्तु यन्त्रषट्कोणमालिखेत् ॥४॥

अर्थ- इसके बाद श्रीअगस्त्यजी ने सुतीक्ष्णजी से कहा कि अब आप उस विधि को सुनिये, पहले १२ दल वाला कमल गोलाकार बनावें। उन दलों को देखने योग्य एवं सुन्दर शोभायमान प्रकट करें (बनावें) उसके बीच में कर्णिका के ऊपर षष्टकोण का यन्त्र लिखें। 

तत्राचार्यवरं देवं रामानन्दमुदारधीः ।

विन्यसेत् साङ्गमर्काभं तं दिव्यगुणशालिनम् ॥५॥

अर्थ- उदार बुद्धि वाले आचार्य श्री के पूजक व्यक्ति को उस कमल दल के मध्येस्थित छः कोण वाले यन्त्र के बीच में दया दाक्षिण्यादि अनेक दिव्यगुणों से सुशोभित सूर्यदेव के समान प्रकाश वाले अङ्ग श्रीअनन्तानन्दाचार्य जी प्रभृति बारह शिष्यों के साथ आचार्य प्रवर दिव्य सर्वगुणगणों से अलंकृत जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी को स्थापित करें।

सपूर्वदिशमारभ्य दलेषु क्रमशो न्यसेत् ।

अनन्तानन्दमुख्यांस्तान् द्वादशादित्यसन्निभान् ॥६॥

अर्थ- आराधक पुरुष मध्य में आचार्यश्री को पधारने के बाद पूर्व दिशा के क्रमानुसार बारह सूर्य के समान दिव्य तेज से लोकोपकारक मुख्य शिष्य श्रीअनन्तानन्दाचार्य जी के साथ कमल के एक एक केशर पर अन्य ग्यारह शिष्यों को भी पधरावे।

यन्त्रमेवं सुसम्पाद्य तदर्धनपरायणः ।

पूजयेत्तत्र तान्सर्वानर्घ्यपाद्यादिभिर्वरैः ॥७॥

पूजोपहारैः सकलैर्भक्त्या परमयायुतः ।

एकाग्रमानसो भूत्वा तमेव मनसा स्मरन् ॥८॥

अर्थ-पूर्व में वर्णित क्रम से पूजा यन्त्र को अच्छी तरह से तैयार करके आराधना करने वाले व्यक्ति को परम भक्ति से युक्त होकर मनको एकाग्र करके अपने आराध्य जगदाचार्य श्री के पूजन में तत्पर हो उन्हीं आचार्य श्री को मन से स्मरण करता हुआ उस यन्त्र में सभी द्वादश शिष्यों के सहित श्री आनन्दभाष्यकार जी का सम्पूर्ण पाद्य अर्घ्य आदि श्रेष्ठ षोडशोपचार साधनों १- आवाहन २-आसन ३-पाद्य ४-अर्घ्य ५- आचमनीय ६-स्नान ७-वस्त्र ८-यज्ञोपवीत ९ गन्ध १०-पुष्प ११-धूप १२-दीप १३-नैवेद्य १४-निराज १५ पुष्पाञ्जलि १६-प्रदक्षिणा नमस्कारों से पूजन करना चाहिये।

नमः आचार्यवर्याय रामानन्दाय धीमते । 

मोक्षमार्गप्रकाशाय चतुर्वर्गं प्रदाय च ॥९॥

अर्थ- अनन्तर पूजक को सभी आचार्यों में श्रेष्ठ, बुद्धिशाली एवं सायुज्य मोक्ष के मार्ग को प्रकाशित करनेवाले तथा धर्म अर्थ काम एवं सायुज्य मोक्षरूप चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले श्रीरामानन्दाचार्यजी को सादर नमस्कार है।

इतिमन्त्रविधानेन समर्चेद्विधिनार्चकः ।

अर्घ्यपाद्यादिभिस्तैस्तैर्गन्धपुष्पाक्षतैः फलैः ॥१०॥

नैवेद्यैरुत्तमैः श्रेष्ठःषड्रसैः सुमनोहरैः ।

ताम्बुलैर्दक्षिणाभिस्तं तोषयेन्नृत्यगीतिभिः ॥११॥

अर्थ- आचार्यश्री की आराधना करने वाला साधक ऊपर बताये अनुसार 'ॐ नमः आचार्यवर्याय श्रीरामानन्दाचार्याय' इस मन्त्र से पाद्य अर्घ्य गन्ध पुष्प अक्षत फल छरस युक्त मनोहर उत्तम नैवेद्य ताम्बुल एवं दक्षिणा आदि उन उन उत्तम सामग्रियों से सविधि उन जगदाचार्य श्री का पूजन करे अनन्तर नृत्य गान स्तुति कवच प्रभृति की पाठ प्रार्थना आदि से उहें सन्तुष्ट करें।

एवं दलेषु शिष्यांस्तान् पूजयेदमलात्मना ।

प्रणवादिचतुर्थ्यन्तनाममन्त्रैर्विधानतः ॥१२॥

अर्थ- इस प्रकार कमल के दलों में स्थित उन सभी महात्माओं का पूजन चतुर्थान्त नाम रूप प्रणवादि मन्त्रों से विधि पूर्वक पूजा करें। जैसे- (ॐ नमो अनन्तानन्दाय) अथवा (अंअनन्तानन्दाय नमः) ।

स्तुवीत स्तुतिभिर्देवं सशिष्यं भक्तितत्परः ।

ज्ञानविज्ञानदीपं तमुदारयशसं प्रभुम् ॥१३॥

अर्थ-पूजा विधान सम्पन्न हो जाने पर साधक अति भक्ति भावना से ज्ञान एवं विज्ञान को प्रकाशित करनेवाले सर्व समर्थ दीप स्वरूप तथा उदार हृदय वाले एवं यशस्वी देव जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की सभी बारह शिष्यों की स्तुति करें।

जगद्गुरो नमस्तेऽस्तु हरये विश्वबन्धवे ।

मोक्षमार्गप्रकाशाय प्रणतार्तिहराय ते ॥१४॥

अर्थ-हे जगत् के गुरुजी ! हे सर्वपाप को हरण करने वाले ! हे विश्व के हित करनेवाले ! हे सायुज्य मोक्ष के मार्ग का प्रकाशक ! हे शरण में आये जीवों के दुःखों का नाश करनेवाले ! आपको इस सेवक का नमस्कार-सादर दण्डवत् प्रणाम है, वह स्वीकार करें।

स पार्षदाय साङ्गाय सदा पावनकीर्तये ।

नमस्तेऽगाधबोधाय प्रणताभीष्टदायिने ॥१५॥

अर्थ- श्रीअनन्तानन्दाचार्यजी आदि पार्षदों तथा उपाचार्य द्वाराचार्य प्रभृति अङ्गों के साथ सदा विराजमान एवं लोगों को पवित्र करनेवाली कीर्ति वाले तथा अगाध तत्त्वबोध वाले और प्रणत-शरण में आये जनों को अभीष्ट पदार्थ देनेवाले हे अनन्त महापुरुष ! आचार्य प्रवर ! आपको सादर नमस्कार है।

सत्यव्रताय शान्ताय दान्ताय जगदात्मने ।

नमोऽनन्ताय महते निर्जिताशेषविद्विषे ॥१६॥

अर्थ- मन बुद्धि अहङ्कार एवं चित्त इन चारों को वश में रखकर साधना में व्यावृत शान्त स्वरूप एवं इन्द्रियों को वश में रखकर कार्यदक्ष तथा सत्य व्रत और जगत् के आत्मा स्वरूप एवं अनन्त रूपसे स्थित होकर सर्वजन पूजनीयता को प्राप्त तथा सनातन श्रीवैष्णवधर्म के विरोधी समस्त व्यक्तियों को जितने वाले आनन्दभाष्यकार आचार्य श्री को अनेक बखर सादर नमन है।

विधृतज्ञानमुद्राय योगिने योगशालिने ।

नमस्तेऽस्तु दयासिन्धो जगज्जन्मादिहेतवे ॥१७॥

अर्थ- ज्ञानमुद्रा धारण कर योग साधना में तल्लीन एवं पारमार्थिक योग साधना से सुशोभित संसार के जन्म स्थिति एवं संहार के कारणरूप हे दया के समुद्र स्वरूप आचार्य प्रवर आपको सादर वन्दन है।

भीमे भवार्णवेऽनन्यः शरणः पतितः प्रभो ।

पादपद्मद्वयं तेऽहं व्रजामि शरणं सदा ॥१८॥

अर्थ- हे सर्वजनोद्धारण समर्थ आचार्य प्रवर ! मैं भयङ्कर संसार स्वरूप समुद्र में पड़ा हुआ हूँ, मेरा आपको छोड़ अन्य कोई भी रक्षक नहीं है इसलिये मैं आपके श्रीचरणकमलों का शरण ग्रहण करता हूँ। शरणागत को सर्वदा के लिये अभय प्रदान करनेवाले प्रभो ! मेरी रक्षा करें।

इत्यभिष्टूय तं धीमान् दद्यात्पुष्पाञ्जलिं मुदा ।

प्रणमेद्दण्डवद्भूमौ साष्टाङ्गं विधिवत्ततः ॥१९॥

अर्थ- बुद्धिमान् साधक को पूर्वोक्त प्रकार से प्रसन्नता पूर्वक आचार्यश्री की स्तुति करके आचार्य श्री के श्रीचरणों में पुष्पाञ्जलि अर्पित करना चाहिये।

अथजन्मकथान् तस्य श्रृणुयात् पापनाशिनीम् ।

गदतां श्रृण्वतामाशु विशदां तां शुभप्रदाम् ॥२०॥

अर्थ- आचार्य श्री को दण्डवत् प्रणाम करने के बाद कहने वाले एवं सुनने वाले दोनों के ही पापों का नाश करनेवाली एवं शीघ्र ही शुभ फलों को प्रदान करनेवाली जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की विविध प्रकार की विशद् अवतार कथाओं को सावधान होकर सुने।

एवं मुने त्वं जानीहि तदर्चनविधिं महत् ।

लोकेऽनेन विधानेन तमभ्यर्च्यमहामुनीम् ॥२१॥

प्राप्स्यन्ति च क्षितौलोकावाच्छितार्थमसंशयम् ।

नरास्तद्भावनायुक्ताः प्रणताविशदाशयाः ॥२२॥

अर्थ- हे मुनिजी ! जगदाचार्य श्री के महान् पूजन विधि को पूर्वोक्त प्रकार से जानें, लोक में नम्र एवं भक्ति भावयुक्त स्वच्छ अन्तःकरण वाले साधकजन पूर्व वर्णित विधान के अनुसार उन महापुरुष श्रीरामरूप श्रीरामानन्दाचार्यजी का पूजन कर अभिवाञ्छित फल को प्राप्त करेंगे इसमें संशय नहीं है।

मुने स भगवानित्थं सुतीक्ष्ण जगदीश्वरः ।

सत्यसन्धोहरिर्जातो विधास्यति शुभं नृणाम् ॥२३॥

अर्थ- हे सुतीक्ष्ण मुनिजी ! सत्य प्रतिज्ञा वाले भक्तों के दुःखों को अपहरण करने वाले जगदीश्वर वे भगवान् श्रीरामजी पूर्व कथित प्रकार से पार्षदों के साथ अवतार लेकर संसार के मनुष्यों का कल्याण करेंगे।

चार्वाकादिमतारूढान् वहुधादुर्मतीन् कलौ ।

करिष्यति नरान् जित्वा रामभक्तिपरायणान् ॥२४॥

अर्थ- वे आचार्य श्री कलियुग के प्रताप से पथ भ्रष्टजनों को कलियुग में भी चार्वाक, बौध आदि नास्तिक मत में स्थित दुर्मति वाले जनों को शास्त्रार्थ से सत् युक्ति से मन्त्र शक्ति से - सिद्धि चमत्कृति आदि अनेक उपायों से जीतकर सनातन श्रीवैष्णव धर्मानुकूल करके उन सभी को श्रीरामभक्ति परायण कर देंगे।

यत्प्रतापवशादेवभविष्यन्ति कलौनराः ।

धर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठामोक्षमार्गरताः सदा ॥२५॥

अर्थ-भयावह कलियुग में भी उन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के प्रबल प्रताप के कारण नर सदा धर्मनिष्ठ तपनिष्ठ एवं सायुज्य मोक्ष के मार्ग में निरत होंगे।

तस्मिन् महीतलं याते नृणां किं वर्णयाम्यहम् ।

भाग्यं साक्षाद्धरौप्रीतेसच्चिदानन्दविग्रहे ॥२६॥

अर्थ- मुनीश्वर सुतीक्ष्ण ! सत् चित् एवं आनन्द विग्रह वाले भक्तों के दुःखों को हरण करनेवाले साक्षात् श्रीरामचन्द्रजी के पृथिवी में श्रीरामानन्दाचार्यजी के रूपमें अवतरित होने पर मनुष्यों के भाग्य का वर्णन मैं क्या करूं अर्थात् साधक जनों ने वर्णनातीत आनन्द का अनुभव किया।

धन्यास्तदातन्मुखपङ्कजं नरा द्रक्ष्यन्ति ये तापहरं च पश्यताम् ।

श्रोष्यन्ति वाचं परमामृतायनां ते भूरिभाग्या वत निर्मलाशयाः ॥२७॥

अर्थ- श्रीसुतीक्ष्णजी ! जो दर्शन करने वाले मनुष्यों के दैहिक दैविक एवं भौतिक तीनों तापों को दूर करने वाले जगदाचार्य श्री के मुखरूप कमल का अवलोकन करेंगे वे धन्य हैं तथा जो अति निर्मल अन्तःकरण वाले आचार्य श्री के अमृत के समान सुखदायक श्रीवचनामृतों का श्रवण करेंगे वे भी बड़े भाग्यशाली हैं।

–इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायां सुतीक्ष्णागस्त्य सम्वादे, भव्योत्तरखण्ड साङ्ग सशिष्य श्रीरामानन्दाचार्य यन्त्रार्चनप्रकारोनाम त्रयत्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः १३३

 

शिष्यैद्वादशभिः श्रीमानथैतैरर्कसन्निभैः ।

सूर्यैद्वादशभिर्नित्यं यथा विष्णुः प्रतापवान् ॥१॥

विराजमानः सततं पर्यटन्नवनीमिमाम् ।

द्वारकादिषु तीर्थेषु तत्र तत्र जगद्गुरुः ॥२॥

अर्थ- अनन्तर अपने अवतार के उद्देश्यों-अनादि वैदिक विशिष्टाद्वैतमत रूप धर्मसंस्थापनार्थ तीर्थाटन को निमित्त बनाकर श्रीद्वारका-विश्रामद्वारका श्रीरामेश्वर श्रीजगन्नाथपुरी श्रीबद्रीनाथ प्रभृति सभी तीर्थों में जिसप्रकार बारह सूर्यों के साथ अति प्रताप वाले श्रीविष्णु भगवान् शोभित होते हैं उसीप्रकार बारह सूर्य के समान अति प्रतापशाली द्वादश शिष्यों के साथ विराजमान होकर यतिराज जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वदा उन उन प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध सभी भारतीय तीर्थस्थानों में भ्रमण करेंगे।

विद्विषां जित्वरो वादैः श्रुतिस्मृतिसमुत्थितैः ।

विपरितान् वशीकुर्वन् कुर्वन् शिष्यांश्च तानथ ॥३॥

अर्थ- विशिष्टाद्वैतमतवाद विरोधी आदि शत्रुओं को श्रुतिस्मृति इतिहास आदि सत् शास्त्र एवं सत् तर्क तथा सत् युक्तियों से पराजीत करते एवं विपरिताचरण वेद मार्ग विरुद्ध आचरण वाले जैन बौद्ध शाक्त प्रभृतियों को सत् वादों से वश में कर उहें शिष्य बनाकर सनातन श्रीवैष्णवधर्म में प्रवर्तन करते हुये समस्त भारतवर्ष में परिभ्रमण करेंगे।

षडक्षरं मन्त्रराजं तेभ्यश्चोपदिशन् मुनिः ।

मन्त्रार्थं श्रावयन्नित्थं मन्त्रज्ञैस्तैरुपासितः ॥४॥

अर्थ- जहाॅं-तहाॅं स्वशरणापन्न जनों को षडक्षर मन्त्रराज श्रीराम महामन्त्र का उपदेश करते हुये श्रीराम महामन्त्र के तत्त्वों को जानने वाले साधकों से उपासित-सेवित होकर उन जिज्ञासुओं को श्रीराममन्त्रों के अर्थों तात्पर्यार्थ रहस्यार्थ आदि को उपदेश करते हुये भ्रमण करेंगे।

आसमुद्रं चतुर्दिक्षु विचरन् धर्मतत्परः ।

कर्ता वै बहुधालोकं रामाभिरतमुत्तमम् ॥५॥

अर्थ- श्रीवैष्णवधर्म चक्र स्थापन में संलग्न जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी पूर्व पश्चिम उत्तर एवं दक्षिण में समुद्र पर्यन्त चारों दिशाओं में परिभ्रमण करते हुये अनेक शस्त्र शास्त्र तथा उपदेश आदि अनेक प्रकार से लोगों को सर्वतोभाव से श्रीरामचन्द्रजी के प्रति विशिष्ट अनुराग वाले बनायेंगे।

लेष्यन्ति नास्तिकास्तस्य प्रतापहततेजसः ।

तमोपहे यथासूर्येऽभ्युदिते तारकागणः ॥६॥

अर्थ- उन जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के प्रताप से नष्टतेज होकर नास्तिक लोग उसी तरह नष्ट शक्ति होकर छिप जायेंगे जैसे तम को नाश करनेवाले सूर्यदेव के उदित होने पर तारागण नष्ट तेज होकर छिप जाते हैं।

एवमेवात्र सुतीक्ष्ण विचरन् सर्वतो मुनिः ।

श्रेयः सम्पादयन् नृणां हरन्नज्ञानजं तमः ॥७॥

राजिष्यते स्वयं स्वीयैर्भानुभिर्भानुमान्निव ।

असंख्येयैर्गुणैः शुभ्रैर्जगत्पालनतत्परः ॥८॥

अर्थ- मुनीश्वर सुतीक्ष्णजी ! पूर्व वर्णित क्रम से संसार को धार्मिक रूपसे पालन-पोषण में तत्पर श्रीरामतत्त्व मननशील जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी आर्यवर्त में सर्वत्र भ्रमण करते मनुष्यों के कल्याण रूप लक्ष्य का सम्पादन करते हुये एवं उनके अज्ञान रूप अन्धकार का हरण करते हुये जिस प्रकार सूर्यदेव अपनी किरणों से शोभित होते हैं उसी प्रकार अपने ही अनन्त निर्मल दया दाक्षिण्यादि निर्मल एवं श्रीअनन्तानन्दाचार्यादि गुण-स्वभाव वाले शिष्यवर्गों से प्रकाशित होंगे।

प्रकृत्याशीलसम्पन्नो दयारत्नकरो महान् ।

धर्मत्राणाय लोकेऽस्मिनवतीर्णः परः पुमान् ॥९॥

अर्थ- वे प्रकृति-स्वभाव से ही शील से युक्त दया के समुद्र सर्व व्यापक परम पुरुष श्रीरामजी ही 'रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले' इस आगम वचन के अनुसार श्रीरामानन्दाचार्यजी के रूपमें 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः । आभ्युत्त्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्' इस प्रतिज्ञा वचन के अनुसार श्रीवैष्णवधर्म संरक्षणार्थ इस भारत वसुन्धरा में अवतरित हुये हैं।

महाव्रतधरो धीमान् सर्वविद्याविशारदः ।

निस्पृहः सर्वकामेभ्यः स्वात्मारामोमहामुनिः ॥१०॥

अर्थ- वे विशिष्ट बुद्धिशाली सभी विद्याओं में पारङ्गत एवं सर्वदा श्रीरामजी की सेवारूप महान् व्रत को धारण करने और सभी लौकिक कामनाओं से निस्पृह तथा केवल स्वआत्मा चिन्तन एवं परमात्मा रूपतत्त्व चिन्तन में ही मग्न रहने वाले महामुनि श्रीरामानन्दाचार्यजी इस भूतल में स्वयं प्रसिद्ध होंगे।

रामानन्द उदारकीर्तिरतुलः श्रीयोगिवर्याग्रणीः पाखण्डाद्रिविभेदनाशनिरह्मे धर्माभिसम्बर्धनः ।

श्रीमान् दिव्यगुणालयोनिजयशः स्तोमाङ्कित्तक्ष्मातलः सिद्धध्येयपदाम्बुजोविजयतेऽज्ञानान्धकारापहः ॥११॥

अर्थ- अनुपम उदार कीर्ति वाले साधनारत योगियों में श्रेष्ठ एवं पाखण्ड रूप पर्वतों के विदारण करने में बज्र के समान और सारे संसार में श्रीवैष्णवधर्म का विस्तार करने वाले तथा दया दाक्षिण्य शौशिल्य आदि अनेक दिव्यगुणों के आधार स्थान और अपने शुभ यश समूह से पृथिवी को अलंकृत करने वाले तथा जिन आचार्यश्री के चरणकमलों का ध्यान सिद्ध साधक पुरुषवर्ग किया करते हैं और अज्ञान रूप अन्धकार को तत्त्व ज्ञानोपदेश से नाश करनेवाले हैं ऐसे जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वोत्कृष्ट रूपसे विराजमान है।

वेदार्थसम्पादकसम्मुखाम्बुजस्त्रितापसंहारकचारुलोचनः ।

भवाब्धिसन्तारकपादपङ्कजोनिजेष्टपूर्त्यार्पितकल्पपादपः ॥१२॥

अर्थ- जिन आचार्य श्री का मनोहारी मुखरूप कमल वेद एवं वेदान्त आदि शास्त्रों के वास्तविक अर्थ को सम्पादन विवेचन द्वारा लोगों को समझाने वाला है एवं जिनके आकर्षक नेत्र दैहिक दैविक तथा भौतिक तीनों तापों को हरण करने वाले हैं और जिन आचार्य श्री के श्रीचरणकमल शरणाफ्त्रजनों को संसाररूप समुद्र से सदा के लिये पार उतार देनेवाले हैं एवं जिह्नोंने जीवों के इच्छित फल सायुज्य मुक्ति की प्राप्ति के लिये तारक षडक्षर श्रीराम महामन्त्र रूप कल्पवृक्ष सभी को प्रदान किया-सुलभ कराया ऐसे सर्वजनों के उद्धारक आचार्य जी सर्वतोभाव से विजयी हों।

विधूतशत्रुधृविमान् धरातलं यशस्समूहैर्विदधत् सुनिर्मलम् ।

प्रकाशमानात्मविभूतिभूषितःप्रभूतविद्याप्रभवःप्रभाववान् ॥१३॥

अर्थ- धैर्यशाली एवं शत्रुओं पर विजय प्राप्त किये हुये और स्वयश समूह से धरातल को अति निर्मल करनेवाले एवं प्रकाशमान और अणिमा महिमा आदि आठों ऐश्वर्यों से विभूषित तथा विशेष प्रभाव वाले और अनेक विद्याओं के उत्पत्ति के स्थान जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वोत्कृर्ष रूपसे विराजमान हों।

प्रतापसन्तापितशत्रुमण्डलःसुसद्यशोऽलंकृतभूमिमण्डलः ।

समीहिताशेषजगत्सुमङ्गलःसदर्चनीयोऽखिलमङ्गलायनः ॥१४॥

अर्थ- अपने प्रचण्ड प्रताप से शत्रु को सन्तापित करनेवाले एवं अपने सुयश से भूमण्डल को विभूषित करनेवाले तथा सम्पूर्ण संसार का मङ्गल करनेवाले एवं सत्पुरुषों से समाराधनीय और सम्पूर्ण मङ्गल-कल्याण के आधारभूत जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सर्वोत्कर्ष रूपसे विराजमान हों।

सत्सम्प्रदायाम्बुजभास्करोऽग्रणीविनीतनीताखिलवाञ्छितार्थकः ।

निगूढवेदार्थविदीपनस्तैरुदारवृत्तैर्महितो महात्मभिः ॥१५॥

अर्थ- सत् अनादि वैदिक श्रीसम्प्रदाय रूप कमल को प्रकाशित करने वाले सूर्य स्वरूप एवं अति श्रेष्ठ और विनय सम्पन्न साधकों से प्राप्तव्य समस्त पदार्थों से समलंकृत एवं उन्हें प्रदान करनेवाले तथा अति निगूढ़-गहन वेदों के अर्थों को ब्रह्मसूत्र उपनिषद् तथा गीता इन प्रस्थानत्रयों के आनन्दभाष्यों तथा श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर प्रभृति महाप्रब्धों के व्याख्यान प्रवचन द्वारा प्रकाशित करनेवाले और अति उदार आचरण वाले तथा उदार चरित महात्माओं से पूजित जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी सदा विजयी हों।

गुणेन शीलेन श्रुतेन कर्मणा प्रकाशमानः किरणैर्यथारविः ।

हरंस्तमो नैशमुदारदीधितिर्विनिर्जिताशेषसपत्नसंहतिः ॥१६॥

अर्थ- जैसे सूर्यदेव अपने असाधारण असंख्य किरणों से दिशा के घोर अन्धकार को नाश कर प्रकाशमान् होते हैं उसी तरह दया दाक्षिण्यादि गुणशील एवं सर्वशास्त्र पारङ्गतता तथा तदनुरूप कर्मों के आचरण रूप किरणों से शास्त्र विरुद्धाचरण जनित अन्धकार रूप सभी शत्रुओं को जीतकर आचार्य श्री संसार में प्रकाशित होंगे।

करोतुनोऽदभ्रदयोधिमङ्गलं सपार्षदो दर्शितभूर्यनुग्रहः ।

गृहीतधर्मायतना कृतिः कृतीकृतार्थयंल्लोकमिमं चराचरम् ॥१७॥

अर्थ- श्रीवैष्णवधर्म मर्यादानुरूप श्रीवैष्णव संन्यासाश्रम धर्म को ग्रहण कर त्रिदण्ड एवं काषाय वस्त्र से मण्डित श्रीविग्रह वाले परम दयालु हे आचार्यजी! आप चराचर इस लोक को कृतार्थ करते हुये बारह पार्षदों के साथ हमारे भी इच्छित पदार्थ को प्रदान करें यानी हमें भी मङ्गलरूप सायुज्य मुक्ति प्रदान करें।

उपप्लुतंधर्मविरोधिभिर्जगत्सनाथमाद्योविदधत्कृपानिधिः ।

विधत्सुरस्याधनिवर्हणंयशस्तनोतुनोऽजस्त्रमसौसुमङ्गलम् ॥१८॥

अर्थ- श्रीब्रह्माजी एवं श्रीशंकरजी प्रभृति देवों के भी आदि कारण रूप एवं कृपा के समुद्र सनातन धर्म विरोधियों से पीड़ित इस संसार को सनाथ कर, पीडा़ से मुक्त करनेवाले एवं इस संसार में फैले पापाचार को नाश करनेवाले संसार में प्रसिद्ध जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य जी स्तुति करने वाले हम सबों के सुमङ्गलकारी यश को सर्वदा विस्तारित करें।

जगत्प्रतीपानभितोनिरस्ययश्चकार धर्माभिरतं सतां प्रभुः ।

अशेषसत्पूजितपादपङ्कजः सुमङ्गलं नो वितनोतु सर्वदा ॥१९॥

अर्थ- जिन सर्वसमर्थ जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी ने जगत् में सनातनधर्म विरुद्ध आचरण करनेवालों को सभी तरह से निरस्तकर, सज्जनों से समाचरित श्रीवैष्णवधर्म में अभिरत-श्रीवैष्णव धर्माचरणशील किये, वे समस्त सत् पुरुषों से सदा पूजित चरणकमल वाले श्री आचार्य स्तुति करने वाले हमसब की अभीष्ट सायुज्य मुक्तिरूप सिद्धि को प्रदान करें।

–इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायां भव्योत्तरखण्ड श्रीरामानन्दाचार्य दिग्विजयवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः १३४

 

पञ्चम अध्याय 

 

रामानन्दमहं वन्दे योगिध्येयाड्छ्रिपङ्कजम् ।

उदारयशसं देवं शान्तमूर्तिं शुभप्रदम् ॥१॥

अर्थ- योगियों के ध्यान करने योग्य श्रीचरणकमल वाले एवं उदार विस्तृत यश वाले तथा कल्याण प्रदान करने वाले शान्त स्वरूप और देदिव्यमान शरीर वाले प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी को वन्दना सादर दण्डवत् प्रणाम करता हूँ।

अष्टोत्तरशतं वक्ष्ये नाम्नां यस्य महात्मनः ।

यैरिज्यमानो भगवान् कामानाशु प्रदास्यति ॥२॥

अर्थ- महर्षि श्रीअगस्त्यजी श्रीसुतीक्ष्णजी से कहते हैं- हे सुतीक्ष्णजी ! अब मैं महान् आत्मा उन जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के अष्टोत्तरशत (एकसौ आठ) नामों को कहता हूँ उसे सावधानतया सुनें, जिन नामों से पूजा करने पर भगवान् श्रीरामानन्दाचार्य जी पूजक के कामनाओं को शीघ्र पूर्ण करेंगे।

पठतां पठितैर्ध्यातैर्ध्यायतां श्रृण्वतां श्रुतैः ।

शुभप्रदैः सतां ग्राह्यैर्महापापप्रणाशनैः‌ ॥३॥

अर्थ- वे आचार्य श्री के एकसौ आठ नाम सत् पुरुषों के ग्रहण करने योग्य हैं एवं महापापों के समूह का नाश करनेवाले और कल्याण प्रद हैं। तथैव उन दिव्य नामों का ध्यान करने से ध्यान करने वाले तथा श्रद्धा से सुनने से सुनने वाले और पठन करने से पठन करने वाले की सभी कामनाओं को जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी पूर्ण कर देंगे।

रामानन्दोरामरूपो राममन्त्रार्थवित्कविः ।

राममन्त्रप्रदोरम्यो राममन्त्रस्तः प्रभुः ॥४॥

अर्थ- रामानन्दः-श्रीरामतत्त्वों के अनुसन्धान से आनन्द का अनुभव करने एवं कराने वाले। राममन्त्रार्थवित्-श्रीरामजी के सभी मन्त्रों के वास्तविक अर्थों को जानने वाले। कविः-सर्वदा वेदादि शास्त्रों का विचार करनेवाले। राममन्त्रप्रदः- तारक षडक्षर श्रीरामजी के मन्त्रों को लोकोपकारार्थ शरणागतों को देनेवाले। रम्यः- अतिरमणीय स्वरूप वाले । राममन्त्ररतः- सर्वेश्वर श्रीरामजी के मन्त्रों के चिन्तन में ही सदा तल्लीन रहने वाले । प्रभुः-निग्रह एवं अनुग्रह में समर्थ सभी को नियन्त्रण करने वाले।

योगिवर्यो योगगम्योयोगज्ञोयोगसाधनः ।

योगिसेव्यो योगनिष्ठोयोगात्मायोगरूपधृक् ॥५॥

अर्थ-योगिवर्यः- योगियों में श्रेष्ठ । योगगम्यः- योग के द्वारा जाने जाने वाले । योगज्ञः- योग को जानने वाले । योगसाधनः सदा योग साधना करने वाले। योगिसेव्यः- योगिजनों से सेवित-सेवा करने योग्य । योगनिष्ठः- योग में सदास्थिर रहने वाले । योगात्मा:- योग के आत्मातत्त्व स्वरूप। योगरूपधृक्:- योग के लक्ष्यभूत तत्त्व स्वरूप को धारण करनेवाले।

सुशान्त शास्त्रकृत् शास्ता शत्रुजिच्छान्तिरूपधृक् ।

समयज्ञः शमी शुद्धः शुद्धधीः शुद्धवेषधृक् ॥६॥

अर्थ-सुशान्तः-अति शान्त रूप वाले। शास्त्रकृत्:-उपनिषदों गीता एवं ब्रह्मसूत्र में आनन्दभाष्य एवं श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर प्रभृति सर्वोत्कृष्ट शास्त्रों का निर्माण करने वाले। शास्ता:-अधर्माचरण वालों को शासित कर सन्मार्ग में लगाने वाले। शत्रुजित्:-काम क्रोध लोभ मोह मद एवं मात्सर्य रूप शत्रु या वेद मार्ग विरुद्धाचरण वाले नास्तिकरूप शत्रुओं को जीतने वाले। शान्तिरूपधृक्:-शान्ति स्वरूप को धारण करने वाले। समयज्ञः-पूजा आराधना मान अपमान में समान रूपसे रहने वाले। शमी:-इन्द्रिय संयमनशील सभी इन्द्रियों को वश में रखनेवाले। शुद्धः- पवित्र अन्तःकरण वाले। शुद्धधीः-विशुद्ध बुद्धि वाले। शुद्धवेषधृक्:- आगमादि धर्मशास्त्र सम्मत विशुद्ध काषाय परिधान को धारण करने वाले।

महान् महामतिर्मान्यो वदान्यो भीमदर्शनः ।

भयहृद्भयकृद्भर्ता भव्योभवभयापहः ॥७॥

अर्थ- महान्:-सर्वोत्कृष्ट स्वरूप वाले। महामतिः- महाबुद्धिशाली। मान्यः- सर्वमाननीय व्यक्तित्व वाले। वदान्यः-उदार दयालु सर्वदा तत्त्वज्ञान दान कार्यों में संलग्न रहने वाले। भीमदर्शनः-असत् आचरण वालों के वास्ते भयानक दर्शन वाले। भयहृत्:-शरण में आये साधकों के भय को सदा के लिये हरण कर निर्भय करने वाले। भयकृत्:-श्रीवैष्णवधर्म विरुद्ध सनातन धर्मविरुद्ध आचरण वालों को भय प्रदान करने वाले। भर्ता:-शरणापन्न साधकों का भरण पोषण करने वाले । भव्यः- अति दिव्य देदिप्यमान स्वरूप वाले। भवभयापहः- जन्म मृत्युरूप संसार के भय को अपहरण करने वाले।

भगवान् भूतिदोभोक्ता भूतेज्योभूतभृद्विभुः ।

ज्ञातज्ञेयोऽतिगम्भीरो गुरुज्ञानप्रदो वशी ॥८॥

अर्थ- भगवान्:- उत्पत्ति प्रलय अगति गति विद्या एवं अविद्यारूप छ: प्रकार के ऐश्वर्यों से सम्पन्न। भूतिदः-ऐश्वर्यों को देनेवाले। भोक्ता:- शरणापन्नजनों के कष्टों को अनुग्रह रूपसे हरणरूपतया भोग करने वाले। भूतेज्यः- सभी प्राणियों से पूजनीय। भूतभृत्:-भूतों प्राणिवर्गों का भरण पोषण करने वाले। विभुः- सर्वव्यापक। ज्ञातज्ञेयः- जानने योग्य श्रीरामतत्त्व के पूर्णज्ञान वाले। अतिगम्भीरः- अति गम्भीर विपत्ति में भी विचलित न होने वाले धीर। गुरुः- लोगों के अज्ञान रूप अन्धकार को दूर कर उहें ज्ञानरूप प्रकाश को प्रदान करनेवाले। ज्ञानप्रदः-श्रीरामतत्त्वरूप मोक्ष साधनभूत परम ज्ञान को देनेवाले। वशी:-अपने इन्द्रिय संकुल को नियन्त्रित कर शास्त्रों की आज्ञा के वश में रहने वाले।

अमोधोऽमोघदृग्दान्तोऽमोघभक्तिरमोघवाक् ।

सत्यः सत्यव्रतः सभ्यः सत्प्रियः सत्परायणः ॥९॥

अर्थ-अमोघः-अचूक निष्फल न होने वाले। अमोघदृक्:-सफल दृष्टि वाले। दान्तः- सर्व इन्द्रियों को वश में रखने वाले। अमोघभक्तिः- सफल भक्ति वाले। अमोघवाक्:-सभी प्रकारों से सफल वाणी वाले। सत्यः- सत्य व्रत सत्य स्वरूप। सत्यव्रतः- सत्य आचरण वाले। सभ्यः-सभी प्रकार के सत्य निर्णायक सभा के योग्य सम्मानित कुल में उत्पन्न ईमानदार व्यक्तित्व वाले। सत्यप्रियः- सत्य पदार्थों तत्त्वों को प्रिय मानने वाले। सत्परायणः-सर्वदा सत्य मार्ग का ही आश्रय-ग्रहण करने वाले।

सुसिद्धः सिद्धिदः साधुः सिद्धिभृत् सिद्धिसाधनः ।

सिद्धसेव्यः शुभकरः सामवित् सामगोमुनिः ॥ १०॥

अर्थ- सुसिद्धः- सिद्धि प्राप्त जनों में अति प्रसिद्धि प्राप्ति किये हुये। सिद्धिदः-सिद्धि देनेवाले। साधुः-दूसरों के कार्यों का उपकार स्वरूपतया साधन करने वाले। सिद्धिभृत्:-सिद्धि को धारण करने वाले। सिद्धिसाधनः- सिद्धिओं का साधन करने वाले। सिद्धसेव्यः-सिद्ध व्यक्तियों से सेवा करने योग्य। शुभकरः-कल्याण को करने वाले। सामवित्-सामवेद को जानने वाले। सामगः-समका गान करने वाले। मुनिः- वेदधर्म शास्त्रादि के तत्त्वों का मनन करने वाले।

पूतात्मा पुण्यकृत्पुण्यः पूर्णः पूर्तिकरोऽघहा ।

अञ्च्योऽर्चकः कृतीसौम्यः कृतज्ञः क्रतुकृत् क्रतुः ।॥११॥

अर्थ-पूतात्मा:-पवित्र अन्तःकरण वाले। पुण्यकृत्:-पुण्य कर्मों को करनेवाले। पुण्यः- पवित्र स्वरूप वाले। पूर्णः- आचार विचार बल बुद्धि विद्या आदि सभी प्रकार के वैभव से परिपूर्ण स्वरूप वाले। पूर्तिकरः-साधकों के अधुरे कर्मों को पूर्ण कर देने वाले। अघहा:- पापों को नाश करने वाले। अञ्च्यः- सभी जनों से पूजनीय। अर्चकः स्वेष्ट देव सर्वेश्वर श्रीरामजी की पूजा करने वाले। कृती:-कृतकार्य आचरण करने योग्य सभी कार्यों को सम्पादन किये हुये महान् भाग्यशाली। सौम्यः-अति आकर्षक सुन्दर शरीर वाले। कृतज्ञः-दूसरे के किये थोड़े से कार्य का भी महान् उपकार मानने वाले। क्रतुकृत्:- श्रीरामयागादि अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पादन करने वाले। क्रतुः यज्ञ स्वरूप वाले।

अजय्यः शीलवान् जेता विनेता नीतिमान् स्वभूः ।

वाग्मीश्रुतिधरः श्रीमान् श्रीदः श्रीनिधिरात्मदः ॥१२॥

अर्थ- अजय्यः-किसी से भी नहीं जीते जाने वाले अविजीत। शीलवान्:-सत् आचरण के स्वभाव वाले। जेता:-कामक्रोधादि सभी शत्रुओं को जीतने वाले। विनेता:-सभी जीववर्गों को सत् पथ की ओर ले जाने वाले। नीतिमान्:- अच्छी नीति से शोभित होने वाले। स्वभूः- स्वयं व्यक्त होने वाले अन्य कारण रहित स्वयं प्रकट अकारण पर पुरुष। वाग्मी:-शास्त्र सम्मत सुन्दर एवं मधुर बोलने वाले। श्रुतिधरः- समस्त श्रुति वेदों को धारण करने वाले। श्रीमान्:- श्री लक्ष्मी प्रभृति ऐश्वर्य से युक्त रहने वाले। श्रीदः-श्री ऐश्वर्यादि को देनेवाले। श्रीनिधिः- श्री स्वरूपनिधि खजाने वाले। आत्मदः- आत्मा को देने वाले साधको को अपनी आत्मा को प्रकटित कर देनेवाले।

सर्वज्ञः सर्वगः साक्षीसमः समदृशिः सदृक् ।

शुभज्ञः सुभदः शोभी शुभाचरः सुदर्शनः ॥१३॥

अर्थ- सर्वज्ञः-पदार्थों को या अन्य सभी तत्त्वों को जैसा है वैसा यथार्थ रूपसे जानने वाले। सर्वगः-स्वर्ग मर्त्य पातालादि सभी जगह जाने वाले। साक्षी:-सभी शुभाशुभ कर्मों के सत्यापन करने वाले प्रत्यक्ष द्रष्टा। समः सभी जीववर्ग में समान रूपसे व्यवहार करने वाले 

। समदृशि:-भेदभाव रहित होकर सभी में समान दृष्टि रखने वाले। सदृक्:-पक्षपात रहित होकर सभी की समान रूपसे पूजा करने वाले। शुभज्ञः- सभी शुभ तत्त्वों को जानने वाले। शुभदः- सभी को कल्याणकारी पदार्थ को देनेवाले। शोभी:-अपने पुण्यकृति के प्रभाव से स्वतः शोभित होने वाले। शुभाचारः-कल्याणकारी आचरण वाले। सुदर्शनः- मनोहारी-आकर्षक दर्शन वाले

जगदीशो जगत्पूज्यो यशस्वी द्युतिमान् ध्रुवः ।

इतीदं कीर्तितं यस्य नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥१४॥

अर्थ-जगदीशः-जगत् संसार को नियन्त्रित करने वाले मालिक। जगत्पूज्यः-संसार के पूजनीय। यशस्वी:-विशाल कीर्ति-यश वाले। द्युतिमान्:- प्रकाश वाले एवं ध्रुवः-निश्चल किसी भी प्रकार के उपद्रवों से विचलित नहीं होने वाले इस पूर्वोक्त प्रकार से जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के एकसौ आठ नाम हैं।

अधीयीताथ श्रृणुयाद्यश्चापि परिकीर्तयेत् ।

अवाप्नुयाच्छ्रियं लोके विपुलं श्रद्धयायुतः ॥१५॥

अर्थ- मुनिवर सुतीक्ष्णजी ! जो साधक श्रद्धायुक्त होकर पूर्व वर्णित आचार्यजी के एकसौ आठ नामों का अध्ययन करेगा श्रवण करेगा या श्रद्धा से कीर्तन करेगा वह लोक में विपुल ऐश्वर्य को प्राप्त करेगा।

अर्चेत् स्तवेन यो नित्यमुपचारैः सुसम्भृतैः ।

अनेन विधिवत्तस्य प्रसीदेत् स गुणाकरः ॥१६॥

अर्थ- श्रद्धा से सम्पादित सुन्दर पूजा सामग्री से जो साधक इन एकसौ आठ दिव्य नामरूप स्तव से विधिवत् नित्य पूजा करेगा उसके ऊपर वात्सल्य कारुण्य आदि गुणों के समुद्र वे जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी प्रसन्न होंगे।

तस्मिन् देवे प्रसन्ने तु न किञ्चित्तस्य दुर्लभम् ।

इहलोके परत्रापि जगदीशे जगद्गुरौ ॥१७॥

अर्थ-देव-श्रीराम स्वरूप जगत् के ईश्वर एवं जगत् के गुरु जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के प्रसन्न होने पर उस साधक पूजक पुरुष के लिये इसलोक एवं परलोक में भी कोई पदार्थ दुर्लभ नहीं यानी वाञ्छित सभी पदार्थ सुलभ होंगे।।

श्रद्धया माघमासेऽर्चेत् सप्तम्यां तुं विशेषतः ।

सम्वत्सरार्चनाज्जातमाप्नुयात् फलमुत्तमम् ॥१८॥

अर्थ- जो साधकवर्ग आचार्यजी की अवतार तिथि माघकृष्ण सप्तमी के दिन विशेष आयोजन के साथ श्रद्धा के साथ पूर्व वर्णित विधान से आचार्यजी की पूजा करेंगे उन्हें वर्ष भर में पूजा करने से जो फल प्राप्त होता है वही उत्तम फल प्राप्त होगा।

श्रद्धालवे सुशीलाय गुरुभक्तियुताय च ।

प्रदिशेद्ब्रह्मनिष्ठाय वेदव्रतरताय च ॥१९॥

अर्थ- श्रीसुतीक्ष्णजी जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी के दिव्य कथा का उपदेश श्रद्धा वाले‌ सुशील एवं गुरुभक्त और ब्रह्मनिष्ठ- श्रीरामचन्द्रजी में भी दृढ़ श्रद्धा वाले एवं वेद प्रतिपादित व्रतों के आचरण में तत्पर साधकों को ही उपदेश करें अश्रद्धावानों को नहीं।

गोगनीयमिदं सद्धिः सदासर्वप्रयत्नतः ।

न देयं नास्तिकायाथ निन्दकाय गुरुद्रुहे ॥२०॥

अर्थ- सज्जनों को चाहिये कि इस आचार्य श्री के अवतार कथा का प्रयत्नपूर्वक रक्षण करें- सुरक्षित रखे एवं नास्तिक निन्दक तथा गुरुजनों के द्रोहीजनों को इसका उपदेश न करें।

सुपूजितेष्टप्रदपादपङ्कजः समर्चकानां विदधातु मङ्गलम् ।

सतामजस्त्रंजगदीश्वरोहरिर्यथाश्रितोऽसौकलिकल्पपादपः ॥२१॥

अर्थ- जैसे कल्पवृक्ष आराधक की आकांक्षाओं को पूर्ण करता है वैसे ही कलियुगरूप कल्पवृक्ष-जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की आराधना करने वाले साधक को वाञ्छित फल प्रदान करने वाले श्रीचरणकमल के सविधि आराधित होने से पापहारक जगदीश्वर श्रीराम स्वरूप आचार्यजी आराधक की सभी मङ्गलकामनाओं को निरन्तर पूर्ण किया करें।

विराजतेऽयं तपसां प्रसूतिर्गुणाकरः सच्चरितोद्विजार्यभूः ।

ससज्जनाग्य्राभिश्रुतोवसम्वदोबृहद्व्रतश्चारुनृपावलीडितः ॥२२॥

अर्थ- ये संसार में प्रसिद्ध आनन्दभाष्यकार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी जो कि तपश्चर्या सर्वेश्वर श्रीरामजी की आराधना जयन्ती उत्सव आदि के प्रसूति प्रवर्धक प्रचारक प्रसारक हैं तथा दया दाक्षिण्य सौलभ्य सौशिल्य आदि अगणित गुणों के आकर हैं एवं सत् चरित वाले हैं तथा कान्यकुब्ज ब्राह्मण, श्रेष्ठ तीन प्रवर वाले शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिनीय शाखा के अध्येता श्रीपुण्यसदनशर्माजी के पुत्ररत्न के रूपमें सम्वत् १२५६ माघकृष्ण सप्तमी को प्रकट हुये हैं और सन्त एवं सज्जन शिरोमणियों में अति विश्रुत-संवर्णित कीर्ति वाले हैं तथा मनोहारी आकर्षक वाणी बोलने वाले हैं और श्रेष्ठ राजाओं के समूह से सदा सेवित हैं एवं नैष्ठिक ब्रह्मचारि के रूपसे हि श्रीवैष्णव संन्यास ग्रहण कर श्रीवैष्णवधर्म चक्र को संसार में प्रवर्तित किया हैं वे आचार्यसम्राट् संसार में सर्वोत्कर्ष रूपसे विराजमान हैं।

–इतिश्रीमद् मूलअगस्त्यसंहितायां भव्योत्तरखण्ड अगस्त्य सुतीक्ष्ण सम्वादे श्रीरामानन्दाचार्याष्टोत्तरशतनामार्चन महात्म्य वर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोत्तर शततोऽध्यायः १३५

 

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